"I refuse to recognise people as Muslims, Christians, or Hindus. I see human beings as human beings."
- Sadguru Jaggi, Founder Isha Foundation
Beings are not beings, he refuses to recognise them as beings, that is his misunderstanding. Right now they are not beings, they are Hindus, Muslims, Sikhs. Machines. Robots. Zombies. Idiots. They were Beings but then the accident happened and they had been turned into Non-beings. Now without the de-hypnotization they can not be bright back. And before that, it is fatal to recognise them as beings.
The POINT, it is better to recognise them as Machines, Robots, Zombies, namely Hindu, Muslim, Sikhs etc., who were BEINGS and who can be BEINGS again.
भारत ने एक से एक लम्बी दाढ़ी वाले इडियट पैदा किये हैं. श्रीमान भी एक हैं. आप मत मानो कि लोग हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई हैं. मत मानो. असल में वो हैं भी नहीं.लेकिन असल में वो असल में हैं ही नहीं. वो ह्यूमन बीइंग हैं ही नहीं. वो मात्र मशीन हैं, रोबोट हैं. अलग अलग नाम के रोबोट. हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई नाम के रोबोट. आप मानते रहो कि वो ह्यूमन बीइंग हैं. हो सकते हैं वापिस ह्यूमन बीइंग, लेकिन अभी नहीं हैं. अभी मशीन हैं. आप मत मानो उनको हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई लेकिन अभी वो हैं हिन्दू , मुस्लिम, ईसाई ही. और आपका उनको अभी इन्सान मात्र मानना आपकी थोपन हैं उन पर, जिसका वास्तविकता से कोई मतलब नहीं.
Thoughts, not bound by state or country, not bound by any religious or social conditioning. Logical. Rational. Scientific. Cosmic. Cosmic Thoughts. All Fire, not ashes. Take care, may cause smashes.
Tuesday, 27 December 2016
Monday, 26 December 2016
सोशल मीडिया की मेहरबानी है कि यहाँ हर मुद्दे पर बहस होती है. सोशल मीडिया नई चौपाल है. जनता की संसद है. कॉलेज की कैंटीन है. गली की नुक्कड़ है. विश्व-विद्यालय है. आप क्या सीखते सिखाते हैं, आप पर निर्भर है....इश्कियाना है, गप्पना-गप्पाना है या ढंग का कुछ सीखना-सिखाना है....मर्ज़ी आपकी है, मर्ज़ आपका है.और हाँ, सोशल मीडिया की कुछ सीमाएं भी हैं....अगर नहीं सहमत किसी से, तो अपनी बात कहें शोर्ट में....कुश्ती मत करें, दंगल नहीं. विचार-युद्ध है मल्ल-युद्ध नहीं......अगले ने अपना पॉइंट रखा...आपने अपना...... बस. वैसे भी टाइप करना बोलने से तो मुश्किल ही है...और विचार-युद्ध में शालीनता ही ग्राउंड रूल है....Agree to disagree.
उम्रे छुट्टियाँ माँग के लाये थे चार दिन, दो जाने में कट गये, दो आने में.आधे दायें, आधे बायें, बाकी मेरे पीछे. आधा जाने में, आधा आने में, बाकी समय घूमने में. थकावट उतारने गए थे घूमने और दोगुने थक कर लौटे. लौट के बुद्धू घर को आए, अपना सा मुंह लेकर, वो भी उतरा हुआ. बाकी बोम मारने को अच्छा है कि घूम कर आए, और हाँ, बाद में सेल्फियां देख-दिखा कर नकली खुश होने को भी अच्छा है. इडियट, तुम्हारा सब नकली क्यूँ है रे? मूर्खता को छोड़ कर.
कोई ईसा परमात्मा का इकलौता पुत्र था. जैसे हम सब किसी छोटे खुदा के बच्चे हों?
कोई मूसा समन्दर दो-फाड़ कर देता है.
कोई पैगम्बर चाँद को दो-फाड़ कर देता है.
कोई बन्दर उड़ता है मीलों. पहाड़ उठा लाता है. सूरज निगल लेता है.
किसी के गुरु पंजे से पहाडी से लुड़कती चट्टान रोक देते हैं.
अब यह सब मानो तो आप धार्मिक हैं.
पर आप धार्मिक नहीं, इन्सान के पट्ठे हैं.
पर आप धार्मिक नहीं, इन्सान के पट्ठे हैं.
उल्लू की बे-इज़्ज़ती नहीं करनी चाहिए क्यूंकि वो ऐसी गपोड़ कहानियाँ मानते नहीं देखा गया. यूँ अंदर से तो इंसान भी जानता है कि यह सब बकवास है. इसीलिए ऐसी कहानियों के लिए शब्द है Gospels. जो Gossip शब्द से बना है. जिसका अर्थ है गप्पबाजी. और हिंदी में भी एक शब्द है 'मिथिहास', यानि कि मिथ्या इतिहास, झूठा इतिहास. पता सब को सब है लेकिन मानना किसी ने नहीं कि यह सब नहीं मानना चाहिए.
Saturday, 24 December 2016
Exposed Modi's Swachh Bharat Abhiyan-- पर्दा-फाश मोदी के स्वच्छ भारत अभि...
मार्किट में नया है. टेढ़ा है पर मेरा है. देखिये और टीका टिपण्णी भी टीपीए, हम न नहीं कहेंगे करीना के बापू की तरह.
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"नाम में क्या रखा है"
ग़लत कहा था शेक्सपियर ने कि नाम में क्या रखा है. अगर नहीं रखा, तो क्यूँ नहीं लोग अपना नाम 'कुत्ता' रख लेते? हाँ, कुत्ते का नाम 'टाइगर' ज़रूर रखते हैं.
हम पूछते हैं, "क्या शुभ नाम है आपका?" उसकी वजह है, नाम हमेशा शुभ ही रखे जाते हैं. लेकिन शुभ नाम वाले जब अशुभ सिद्ध हुए तो फिर वो नाम कम ही रखे जाते हैं. जैसे सीता शब्द का अर्थ है, वह रेखा जो जमीन जोतते समय हल की फाल के धँसने से पड़ती जाती है या फिर हल से जुती भूमि. लेकिन फिर भी हिन्दू समाज अपनी बेटियों का नाम जल्दी से सीता नहीं रखता. चूँकि सीता के साथ जैसा हुआ, वो शुभ नहीं था. वो सारी उम्र जंगलों में ही भटकती रही. अब मेघ-नाद शब्द का अर्थ है जिसका आवाज़ बादलों के गर्जन जैसी हो. अब इसमें क्या बुरा है? अगर आवाज़ में दम हो तो बढ़िया है. जैसे अमिताभ बच्चन और राज कुमार अपनी आवाज़ की वजह से आज भी जाने-माने जाते हैं. लेकिन आपने शायद ही यह नाम दुबारा सुना हो. कंस शब्द का अर्थ है कांसा या फिर कांसे का बना कोई बर्तन. इसमें क्या खराबी है? लेकिन चूँकि कंस एक विलन माना जाता है, सो कोई नहीं रखता अपने बच्चे का नाम वैसा. दुर्योधन का असल नाम सुयोधन माना जाता है और दुशाला का सुशाला और दुशासन का सुशासन, लेकिन लोग नाम न दुर्योधन रखते हैं, न सुयोधन रखते हैं, न दुशाला, न सुशाला, न दुशासन न सुशासन.
मतलब यह कि हम सिर्फ यह नहीं देखते कि नाम रखते हुए जो शब्द प्रयोग किया जाए, उसका अर्थ शुभ हो बल्कि हम यह भी देखते हैं कि उस नाम से समाज में कोई अशुभ संदेश न जाता हो, बच्चे के ज़ेहन में कुछ अशुभ फ़लीभूत न हो. यह है शुभ नाम से अर्थ.
बाकी मर्ज़ी तो सभी की अपनी है. जब मुसलमानों को औरंगज़ेब का नाम सड़क से हटाना तक मंज़ूर नहीं हुआ तो तैमूर में कहाँ कोई ख़ामी दिखेगी?
आपके आदर्श क्या हैं, काफ़ी हैं बताने को कि आपकी सोच क्या है. और आपकी सोच काफ़ी है यह बताने को कि आपका एक्शन कैसा होगा. फिर कहते हैं कि हम पर सारी दुनिया ख्वाह्मखाह शक करती है.
नहीं, यह निजी मुद्दा नहीं है...जब ये लोग सेलेब्रिटी बनने के लिए आम-जन के बेड-रूम में घुस-पैठ करते हैं, जगह-जगह अपना सा मुंह दिखाते फ़िरते हैं.....कोई भी बेकार प्रोडक्ट बेचने लगते हैं, मात्र अपने चौखटे के ज़रिये, तो इनका कोई भी मुद्दा निजी नहीं रह जाता. एक बात.
और यह सोशल मीडिया की मेहरबानी है कि यहाँ हर मुद्दे पर बहस होती है. सोशल मीडिया नई चौपाल है. जनता की संसद है. कॉलेज की कैंटीन है. गली की नुक्कड़ है. दूसरी बात.
और कौन सा मुद्दा बड़ा है या छोटा है. इस पर बहुत पहले एक लेख पढ़ा था दसवीं में.पंजाबी में. टाइटल था "छोटियां गल्लां". उसमें लेखक बताता है कि कैसे छोटी समझी जाने वाली बातों ने इतिहास बदल दिया. वाटरलू का युद्ध मात्र एक बदली बरसने से हार गया था नपोलियन. तीसरी बात
कोई बीमार हो और बीमारी के कीटाणु न चाहते हुए भी पूरे मोहल्ले में फैला रहा हो और हम इलाज को कहें तो माने नहीं, कहे कि उसका निजी मुद्दा है. कैसे है निजी मुद्दा? मुद्दा सार्वजानिक है. चौथी बात
ठीक है, अपने बच्चों का नाम कोई चंगेज़ खान रखे या औरंगज़ेब. मर्ज़ी है उसकी, लेकिन उस पर टीका-टिप्पणी करना हमारी मर्ज़ी है. आखिरी बात
हम पूछते हैं, "क्या शुभ नाम है आपका?" उसकी वजह है, नाम हमेशा शुभ ही रखे जाते हैं. लेकिन शुभ नाम वाले जब अशुभ सिद्ध हुए तो फिर वो नाम कम ही रखे जाते हैं. जैसे सीता शब्द का अर्थ है, वह रेखा जो जमीन जोतते समय हल की फाल के धँसने से पड़ती जाती है या फिर हल से जुती भूमि. लेकिन फिर भी हिन्दू समाज अपनी बेटियों का नाम जल्दी से सीता नहीं रखता. चूँकि सीता के साथ जैसा हुआ, वो शुभ नहीं था. वो सारी उम्र जंगलों में ही भटकती रही. अब मेघ-नाद शब्द का अर्थ है जिसका आवाज़ बादलों के गर्जन जैसी हो. अब इसमें क्या बुरा है? अगर आवाज़ में दम हो तो बढ़िया है. जैसे अमिताभ बच्चन और राज कुमार अपनी आवाज़ की वजह से आज भी जाने-माने जाते हैं. लेकिन आपने शायद ही यह नाम दुबारा सुना हो. कंस शब्द का अर्थ है कांसा या फिर कांसे का बना कोई बर्तन. इसमें क्या खराबी है? लेकिन चूँकि कंस एक विलन माना जाता है, सो कोई नहीं रखता अपने बच्चे का नाम वैसा. दुर्योधन का असल नाम सुयोधन माना जाता है और दुशाला का सुशाला और दुशासन का सुशासन, लेकिन लोग नाम न दुर्योधन रखते हैं, न सुयोधन रखते हैं, न दुशाला, न सुशाला, न दुशासन न सुशासन.
मतलब यह कि हम सिर्फ यह नहीं देखते कि नाम रखते हुए जो शब्द प्रयोग किया जाए, उसका अर्थ शुभ हो बल्कि हम यह भी देखते हैं कि उस नाम से समाज में कोई अशुभ संदेश न जाता हो, बच्चे के ज़ेहन में कुछ अशुभ फ़लीभूत न हो. यह है शुभ नाम से अर्थ.
बाकी मर्ज़ी तो सभी की अपनी है. जब मुसलमानों को औरंगज़ेब का नाम सड़क से हटाना तक मंज़ूर नहीं हुआ तो तैमूर में कहाँ कोई ख़ामी दिखेगी?
आपके आदर्श क्या हैं, काफ़ी हैं बताने को कि आपकी सोच क्या है. और आपकी सोच काफ़ी है यह बताने को कि आपका एक्शन कैसा होगा. फिर कहते हैं कि हम पर सारी दुनिया ख्वाह्मखाह शक करती है.
नहीं, यह निजी मुद्दा नहीं है...जब ये लोग सेलेब्रिटी बनने के लिए आम-जन के बेड-रूम में घुस-पैठ करते हैं, जगह-जगह अपना सा मुंह दिखाते फ़िरते हैं.....कोई भी बेकार प्रोडक्ट बेचने लगते हैं, मात्र अपने चौखटे के ज़रिये, तो इनका कोई भी मुद्दा निजी नहीं रह जाता. एक बात.
और यह सोशल मीडिया की मेहरबानी है कि यहाँ हर मुद्दे पर बहस होती है. सोशल मीडिया नई चौपाल है. जनता की संसद है. कॉलेज की कैंटीन है. गली की नुक्कड़ है. दूसरी बात.
और कौन सा मुद्दा बड़ा है या छोटा है. इस पर बहुत पहले एक लेख पढ़ा था दसवीं में.पंजाबी में. टाइटल था "छोटियां गल्लां". उसमें लेखक बताता है कि कैसे छोटी समझी जाने वाली बातों ने इतिहास बदल दिया. वाटरलू का युद्ध मात्र एक बदली बरसने से हार गया था नपोलियन. तीसरी बात
कोई बीमार हो और बीमारी के कीटाणु न चाहते हुए भी पूरे मोहल्ले में फैला रहा हो और हम इलाज को कहें तो माने नहीं, कहे कि उसका निजी मुद्दा है. कैसे है निजी मुद्दा? मुद्दा सार्वजानिक है. चौथी बात
ठीक है, अपने बच्चों का नाम कोई चंगेज़ खान रखे या औरंगज़ेब. मर्ज़ी है उसकी, लेकिन उस पर टीका-टिप्पणी करना हमारी मर्ज़ी है. आखिरी बात
Friday, 23 December 2016
"क्या सिर्फ मोदी-भक्त ही भक्त है?"
संघ ने नब्बे साल पहले एक बीज डाला था. जो पेड़ बना चुका. यह पेड़ नब्बे साल बाद स-फल हो ही गया. इस पर मोदी नाम का फल लगा जिसे कॉर्पोरेट मनी की हवा से फुला कर कुप्पा कर दिया गया. अब क्या संघी और क्या कुसंगी, मोदी-मोदी भज रहे हैं. नारा ही दे दिया,"हर-हर मोदी, घर-घर मोदी".
भक्त क्या मोदी-मोदी भजने वाला ही है? वो तो है ही. लेकिन आप- हम झांके अपने अंदर कि क्या हम भी किसी के भक्त तो नहीं. अंध-भक्त.
क्या हम हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई मात्र इसलिए तो नहीं कि माँ ने दूध के साथ धर्म का ज़हर भी पिला दिया था, बाप ने चेचक के टीके के साथ मज़हब का टीका भी लगवा दिया था? दादा ने प्यार-प्यार में ज़ेहन में मज़हब की ख़ाज-दाद डाल दी थी? नाना ने अक्ल के प्रयोग को ना-ना करना सिखा दिया था? बड़ों ने लकड़ी की काठी के घोड़े दौड़ाना तो सिखाया लेकिन अक्ल के घोड़े दौड़ाने पर रोक लगा दी?
क्या सिर्फ मोदी-भक्त ही भक्त है?
असल में आप-हम सब भक्त हैं.
भक्त क्या, रोबोट हैं.
मशीन हैं.
भक्त सिर्फ मोदी के ही नहीं है. भक्ति असल में खून में है लोगों के. सुना था लोग भगवान के भक्त हुआ करते थे पहले, लेकिन आज तो सचिन तेंदुलकर को ही भगवान मानने लगे. अमिताभ बच्चन, रजनी कान्त और पता नहीं किस-किस के मंदिर बन चुके. सो सिर्फ मोदी-भक्त को ही दोष मत दो. थोड़ा समय पहले तक लोग कहते थे कि वो कांग्रेस को वोट इसलिए देते हैं, चूँकि वो कांग्रेस को वोट देते हैं, चूँकि उनके पिता कांग्रेस को वोट देते थे, चूँकि उनके पिता के पिता कांग्रेस को वोट देते थे. सो सवाल मोदी-भक्ति नहीं है, सवाल 'भक्ति' है. सवाल यह है कि व्यक्ति भक्ति में अपनी निजता को इतनी आसानी से खोने को उतावला क्यूँ है? जवाब है कि इन्सान को आज-तक अपने पैरों पर खड़ा होना ही नहीं आया, वो आज भी किसी चमत्कारी व्यक्ति के इन्तेज़ार में है, वो आज भी भक्तिरत है.
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खबर की कबर
एक ज़माना था सलमा सुलतान, शम्मी नारंग का. क्या शालीनता थी! तब खबर सिर्फ खबर हुआ करती थी. आज तो टीवी खबरनवीस बिना साँस लिए ऐसे बोलते हैं, जैसे खाज खाए हुए कुत्ते इनके पीछे पड़े हों. खबर में मिर्च-मसाले डालते हैं, इतने ज़्यादा कि उसे बदमज़ा कर देते हैं. उसकी चटनी बना देंते हैं. उसे घोटे जायेंगे, पीसे जायेंगे, इतना कि जान ही निकाल देते हैं. आज के खबरनवीस कबरनवीस हैं. खबर को कबर तक पहुंचा कर दम लेते हैं और वक्त-बेवक्त ख़बर को कबर में से फिर-फिर उखाड़ लाते हैं.
whats-app ज्ञान- 4
न्यायालय मे पूरी ईमानदारी से काम होता है।
सचिवालय मे पूरी ईमानदारी से काम होता है
नगरपालिका मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
आटीओ मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
हास्पिटल में पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
इनकम टैक्स डिपार्टमेन्ट मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
सेल्स टैक्स डिपार्टमेन्ट मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
रेलवे डिपार्टमेन्ट मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
पासपोर्ट डिपार्टमेन्ट मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
सरकारी विद्यालयों मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
भारत के संसद मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
मिडिया मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
यहाँ तक की मुरदाघरो मे भी पूरी ईमानदारी से काम होता है।
बस भारत के व्यापारी ईमानदारी से काम नहीं करते ।
जय हो भारत की जनता ।
सचिवालय मे पूरी ईमानदारी से काम होता है
नगरपालिका मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
आटीओ मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
हास्पिटल में पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
इनकम टैक्स डिपार्टमेन्ट मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
सेल्स टैक्स डिपार्टमेन्ट मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
रेलवे डिपार्टमेन्ट मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
पासपोर्ट डिपार्टमेन्ट मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
सरकारी विद्यालयों मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
भारत के संसद मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
मिडिया मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
यहाँ तक की मुरदाघरो मे भी पूरी ईमानदारी से काम होता है।
बस भारत के व्यापारी ईमानदारी से काम नहीं करते ।
जय हो भारत की जनता ।
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नोट-बंदी,
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मोदी सरकार
व्हाट्स- एप - ज्ञान-- 3
पार्टी को:-- 100% छूट।
चोर को:-- 50% छूट ।
जनता को:-- 5000 का भी हिसाब देना पड़ेगा,
समझ नहीं आ रहा है कि ऐसे कौन सा काला धन निकलेगा ??
एक तनख्वाह से कितनी बार टैक्स दूँ और क्यों..........
मैनें तीस दिन काम किया,
तनख्वाह ली - टैक्स दिया
मोबाइल खरीदा - टैक्स दिया
रिचार्ज किया - टैक्स दिया
डेटा लिया - टैक्स दिया
बिजली ली - टैक्स दिया
घर लिया - टैक्स दिया
TV फ्रीज़ आदि लिये - टैक्स दिया
कार ली - टैक्स दिया
पेट्रोल लिया - टैक्स दिया
सर्विस करवाई - टैक्स दिया
रोड पर चला - टैक्स दिया
टोल पर फिर - टैक्स दिया
लाइसेंस बनाया - टैक्स दिया
गलती की तो - टैक्स दिया
रेस्तरां मे खाया - टैक्स दिया
पार्किंग का - टैक्स दिया
पानी लिया - टैक्स दिया
राशन खरीदा - टैक्स दिया
कपड़े खरीदे - टैक्स दिया
जूते खरीदे - टैक्स दिया
किताबें ली - टैक्स दिया
टॉयलेट गया - टैक्स दिया
दवाई ली तो - टैक्स दिया
गैस ली - टैक्स दिया
सैकड़ों और चीजें ली फिर टैक्स दिया, कहीं फ़ीस दी, कही बिल, कही ब्याज दिया, कही जुर्माने के नाम पे तो कहीं रिश्वत देनी पड़ी, ये सब ड्रामे के बाद गलती से सेविंग मे बचा तो फिर टैक्स दिया----
सारी उम्र काम करने के बाद कोई सोशल सेक्युरिटी नहीं, कोई पेंशन नही , कोई मेडिकल सुविधा नहीं, बच्चों के लिये अच्छे स्कूल नहीं, पब्लिक ट्रांस्पोर्ट नहीं, सड़के खराब, स्ट्रीट लाईट खराब, हवा खराब, पानी खराब, फल सब्जी जहरीली, हॉस्पिटल महंगे, हर साल महंगाई की मार,आपदाए, उसके बाद हर जगह लाइनें।।।।
सारा पैसा गया कहाँ????
करप्शन में...........
इलेक्शन मे......
अमीरों की सब्सिड़ी में,
मालिया जैसो के भागने में,
अमीरों के फर्जी दिवालिया होने में,
स्विस बैंकों मे,
नेताओं के बंगले और कारों मे,सूट,बूट, विदेशी यात्राओं में ,रैली पर ,जियो पर
और हमें झण्डू बाम बनाने मे।
अब किस को बोलू कौन चोर है???
आखिर कब तक हमारे देशवासी यूँ ही घिसटती जिन्दगी जीते रहेंगे?????
मैं जितना देश और इस पर चिपके परजीवियों के बारे मे सोचता हूँ, व्यथित हो जाता हूँ।
समय आ गया है कि आगे बढें और ढोंगी ,नाटकबाजों को समझें तथा भक्ती से बाहर निकालें........
चोर को:-- 50% छूट ।
जनता को:-- 5000 का भी हिसाब देना पड़ेगा,
समझ नहीं आ रहा है कि ऐसे कौन सा काला धन निकलेगा ??
एक तनख्वाह से कितनी बार टैक्स दूँ और क्यों..........
मैनें तीस दिन काम किया,
तनख्वाह ली - टैक्स दिया
मोबाइल खरीदा - टैक्स दिया
रिचार्ज किया - टैक्स दिया
डेटा लिया - टैक्स दिया
बिजली ली - टैक्स दिया
घर लिया - टैक्स दिया
TV फ्रीज़ आदि लिये - टैक्स दिया
कार ली - टैक्स दिया
पेट्रोल लिया - टैक्स दिया
सर्विस करवाई - टैक्स दिया
रोड पर चला - टैक्स दिया
टोल पर फिर - टैक्स दिया
लाइसेंस बनाया - टैक्स दिया
गलती की तो - टैक्स दिया
रेस्तरां मे खाया - टैक्स दिया
पार्किंग का - टैक्स दिया
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टॉयलेट गया - टैक्स दिया
दवाई ली तो - टैक्स दिया
गैस ली - टैक्स दिया
सैकड़ों और चीजें ली फिर टैक्स दिया, कहीं फ़ीस दी, कही बिल, कही ब्याज दिया, कही जुर्माने के नाम पे तो कहीं रिश्वत देनी पड़ी, ये सब ड्रामे के बाद गलती से सेविंग मे बचा तो फिर टैक्स दिया----
सारी उम्र काम करने के बाद कोई सोशल सेक्युरिटी नहीं, कोई पेंशन नही , कोई मेडिकल सुविधा नहीं, बच्चों के लिये अच्छे स्कूल नहीं, पब्लिक ट्रांस्पोर्ट नहीं, सड़के खराब, स्ट्रीट लाईट खराब, हवा खराब, पानी खराब, फल सब्जी जहरीली, हॉस्पिटल महंगे, हर साल महंगाई की मार,आपदाए, उसके बाद हर जगह लाइनें।।।।
सारा पैसा गया कहाँ????
करप्शन में...........
इलेक्शन मे......
अमीरों की सब्सिड़ी में,
मालिया जैसो के भागने में,
अमीरों के फर्जी दिवालिया होने में,
स्विस बैंकों मे,
नेताओं के बंगले और कारों मे,सूट,बूट, विदेशी यात्राओं में ,रैली पर ,जियो पर
और हमें झण्डू बाम बनाने मे।
अब किस को बोलू कौन चोर है???
आखिर कब तक हमारे देशवासी यूँ ही घिसटती जिन्दगी जीते रहेंगे?????
मैं जितना देश और इस पर चिपके परजीवियों के बारे मे सोचता हूँ, व्यथित हो जाता हूँ।
समय आ गया है कि आगे बढें और ढोंगी ,नाटकबाजों को समझें तथा भक्ती से बाहर निकालें........
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हमारे पैसे हमारे अपने हैं। उन्हें हम नगद खर्च करें या ऑनलाइन - यह हमारी मर्ज़ी है। देश की सरकार को अगर कैशलेस ऑनलाइन व्यवस्था लागू करने की जल्दबाजी है तो बेहतर होगा कि वह इसकी शुरूआत ख़ुद से करके हमारे आगे उदाहरण उपस्थित करे। काले धन की गोद में पली-बढ़ी पार्टियां जब देश को सदाचार का पाठ पढ़ाती है तो गुस्सा तो आएगा ही। हम भारत सरकार के कैशलेस लेन-देन के प्रस्ताव को तबतक के लिए खारिज करते हैं जबतक सरकार हमारी तीन मांगे नहीं मान लेती।
पहली मांग यह कि सरकार क़ानून बनाकर यह सुनिश्चित करे कि भाजपा सहित तमाम राजनीतिक दल भविष्य में कैश में कोई चंदा स्वीकार नहीं करेंगे। उन्हें दिया जाने वाला कोई भी चंदा या दान सिर्फ चेक, डेबिट कार्ड या इलेक्ट्रॉनिक वॉलेट के माध्यम से ही दिया जाए। जैसे हम आयकर रिटर्न दाखिल करते हैं, हर पार्टी वित्तीय वर्ष के अंत में अपने आमद- खर्च का हिसाब अपने वेबसाइट पर ज़ारी करे। इनमें से किसी भी शर्त का उल्लंघन करने वाले दल की मान्यता ख़त्म करने का प्रावधान हो।
दूसरी मांग यह कि देश के सभी दलों के राजनेता उड़नखटोले से घूम-घूमकर महंगी-महंगी रैलियों और जन सभाओं में अपनी बात रखने या चुनाव प्रचार करने के बजाय आम जनता से ऑनलाइन संपर्क ही करें। इसके लिए सरकार एक ऐसे टीवी चैनल की व्यवस्था करे जहां राजनीतिक दलों के लिए अपनी पार्टी का पक्ष रखने का समय निर्धारित हो। राजनेता अगर चाहें तो अपना भाषण रिकॉर्ड कर यूट्यूब या सोशल साइट्स पर डाल दे सकते हैं।
तीसरी और अंतिम मांग यह है कि हैकिंग और कार्ड क्लोनिंग के इस दौर में सरकार या बैंक हमारे पैसों की सौ प्रतिशत सुरक्षा का ज़िम्मा ले। ऑनलाइन लेन-देन में जालसाजी होने पर हमारे पैसे ज्यादा से ज्यादा एक सप्ताह में जांच कर लौटाने की निश्चित व्यवस्था की जाय
जबतक ऐसा नहीं हो जाता, सरकार को हमें कैशलेस हो जाने का सुझाव देने का क्या कोई नैतिक अधिकार है ?
पहली मांग यह कि सरकार क़ानून बनाकर यह सुनिश्चित करे कि भाजपा सहित तमाम राजनीतिक दल भविष्य में कैश में कोई चंदा स्वीकार नहीं करेंगे। उन्हें दिया जाने वाला कोई भी चंदा या दान सिर्फ चेक, डेबिट कार्ड या इलेक्ट्रॉनिक वॉलेट के माध्यम से ही दिया जाए। जैसे हम आयकर रिटर्न दाखिल करते हैं, हर पार्टी वित्तीय वर्ष के अंत में अपने आमद- खर्च का हिसाब अपने वेबसाइट पर ज़ारी करे। इनमें से किसी भी शर्त का उल्लंघन करने वाले दल की मान्यता ख़त्म करने का प्रावधान हो।
दूसरी मांग यह कि देश के सभी दलों के राजनेता उड़नखटोले से घूम-घूमकर महंगी-महंगी रैलियों और जन सभाओं में अपनी बात रखने या चुनाव प्रचार करने के बजाय आम जनता से ऑनलाइन संपर्क ही करें। इसके लिए सरकार एक ऐसे टीवी चैनल की व्यवस्था करे जहां राजनीतिक दलों के लिए अपनी पार्टी का पक्ष रखने का समय निर्धारित हो। राजनेता अगर चाहें तो अपना भाषण रिकॉर्ड कर यूट्यूब या सोशल साइट्स पर डाल दे सकते हैं।
तीसरी और अंतिम मांग यह है कि हैकिंग और कार्ड क्लोनिंग के इस दौर में सरकार या बैंक हमारे पैसों की सौ प्रतिशत सुरक्षा का ज़िम्मा ले। ऑनलाइन लेन-देन में जालसाजी होने पर हमारे पैसे ज्यादा से ज्यादा एक सप्ताह में जांच कर लौटाने की निश्चित व्यवस्था की जाय
जबतक ऐसा नहीं हो जाता, सरकार को हमें कैशलेस हो जाने का सुझाव देने का क्या कोई नैतिक अधिकार है ?
Whats-app ज्ञान--1
प्रिय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी साहब,
नमस्ते,
मेरा नाम प्रसाद है। मेरा Balanagar हैदराबाद में एक छोटा उद्योग है। मेरे उद्योग की प्रति माह आमदनी लगभग 2 लाख रुपये है। इसका मतलब यह प्रति वर्ष 24 लाख रुपये है। ईमानदारी और सच्चाई से सभी छूटों के साथ मेरे द्वारा सरकार को लगभग 3 लाख आयकर का भुगतान किया जाना चाहिए। लेकिन मैं सिर्फ 30,000 भुगतान करता हूँ । क्यूं कर?
मैं एक मध्यम वर्गीय परिवार से हूँ और कड़ी मेहनत और अध्ययन के साथ स्वयं को स्थापित किया । शुरू में मैंने नौकरी की, लेकिन एक एक पैसा बचा कर मैंने अपना उद्योग प्रारम्भ किया। मेरे परिवार की जरूरतों और जीवन यापन के लिए 1 लाख पर्याप्त है और अन्य 1 लाख मैंने अपने भविष्य के लिए निवेश किया (सोने या शेयर या भूमि खरीदने में)
जो एक लाख मैं परिवार के लिए खर्च करता हूँ ,उसमें 30000 परोक्ष रूप से किसी न किसी टैक्स के रूप में सरकार को जा रहा है। किराने का सामान से टीवी और मोबाइल तक के लिए मैं केवल टैक्स में 20 से 30% का भुगतान कर रहा हूँ। अगर मैं ड्रिंक की एक छोटी सी पार्टी का आनंद लेना चाहूँ जिस पर 3000 का खर्च आना है तो 60% सरकार को कर के रूप में जायेगा।
यहाँ तक कि एक लीटर पेट्रोल के लिए 30 रुपये टैक्स के रूप में सरकार को जा रहा है। जब मैंने कार खरीदी अकेले करों के रूप में डेढ़ लाख का भुगतान किया। एक प्लाट के पंजीकरण के लिए मैंने शुल्क के रूप में 1 लाख का भुगतान किया। जिस कॉलोनी में मैं रह रहा हूँ वहां मानक के अनुरूप एक सड़क नहीं है फिर भी मैंने विकास शुल्क के रूप में 50,000 का भुगतान किया।
सरकारी अस्पतालों में मरीजों की दुर्दशा देखकर और निजी अस्पतालों की लूटपाट प्रकृति के कारण, मैंने अपने परिवार के सदस्यों के लिए एक स्वास्थ्य बीमा पॉलिसी ले लिया और बेशर्मी यह कि इसपर भी मुझसे सेवा कर चार्ज किया गया।
सरकार लुटेरों की तरह हर जगह टैक्स वसूल रही है यहाँ तक कि शमशान में भी। पर बदले में दे क्या रही है ?
अगर हम अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में दाखिल कराएं तो क्या हमें वहां उनके कुछ सीखने का भरोसा होगा ? यदि हम सरकारी अस्पतालों में इलाज के लिए जाएं तो क्या हमारे ज़िंदा वापस आने की कोई उम्मीद है ? देश के रक्षा क्षेत्र के अतिरिक्त अन्य कहीं हम समझ नहीं रहे हैं कहीं विकास कार्य हो रहा है । एक कार खरीदने जाएँ, वहाँ सड़क कर लग रहा है, सड़क पर आते हैं वहाँ टोल टैक्स है। क्या हम हर जगह ठगे नहीं जा रहे महोदय ?
करों के रूप में जो भुगतान हम कर रहे हैं वह पैसा कहाँ जा रहा है ? मैं अपने कर्मचारियों के वेतन में वृद्धि से पहले उनके काम का मूल्यांकन करता हूँ, लेकिन सरकार क्या कर रही है? कोई सरकारी कर्मचारी काम करता है या नहीं इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता उन्हें समान वेतन वृद्धि मिलती है। हमारा पैसा इतना सस्ता क्यों है सर? हमारे टैक्स से ऊंचे वेतन लेने वाले लोग हमारे ही काम नहीं करते हैं। कार्यालय का समय 10 बजे है लोग11 पर आते हैं और रिश्वत के बिना लैश मात्र भी क़दम नहीं बढ़ाते । इसलिए, हमें बताएं, क्यों हमें करों का भुगतान करना चाहिए? अपने उद्योग के लिए निर्बाध बिजली लेने के लिए मुझे रिश्वत देनी पड़ती है । सब मिला कर मैं प्रति माह रिश्वत के रूप में लगभग 10000 भुगतान करता हूँ । सर मैं व्हाइट मनी में इस रिश्वत को कैसे दिखा सकता हूँ??
बस यही कारण है कि हमें सरकारों को कर का भुगतान करने से नफरत है। सर इसका मतलब यह नहीं है कि मेरी कोई सामाजिक जिम्मेदारी नहीं है। जब आपने सेना कोष के लिए मदद करने की अपील की मैंने 10000 दिए । मैं 20000 मेरे पड़ोस में एक अनाथालय के लिए हर साल देता हूँ और मेरे पिता के नाम पर 1 लाख का दान दिया था जब मेरे गांव के लोगों ने कहा कि वे स्कूल का उत्थान करना चाहते हैं । लेकिन खेद है सर, सरकार को कर का भुगतान करने के लिए मेरे पास वही दिल नहीं है!
वैसे भी, यह अतीत है। अब हम सफेद में सब कुछ देखेंगे। चूंकि आपने निश्चय कर लिया है तो मैं 10 लाख पर 30% कर का भुगतान करके अपने धन को सफेद कर लूँगा । लेकिन मुझे विश्वास है कि 10000 रिश्वत हर महीने देने की जरूरत नहीं है? या फिर आप लोगों को अनुमति देंगे कि चेक के रूप में भी रिश्वत स्वीकार करें?
मैंने अभी नेताओं की तो बात ही नहीं की ! एक सड़क छाप नेता से लेकर MLA तक और सभी पार्टी के इलेक्शन फण्ड में भी हमें देना है। अगर मैं ऐसा न करूँ तो बर्बाद कर दिया जाऊँगा। क्या आप ऐसे फंड्स को केवल चेक से स्वीकार करने का अधिनियम लाएंगे? क्या पार्टी फंड जनता के सामने खोल कर रखा जाएगा?
पहले से ही हम इतने सारे करों का भुगतान कर रहे हैं, बदले में सरकार हमें क्या दे रही है। सर हम राजनेताओं की विलासितापूर्ण जीवन के लिए या निकम्मे सरकारी कर्मचारियों के वेतन के लिए करों का भुगतान नहीं कर सकते । हम जितना संभव होगा भुगतान नहीं करने की कोशिश करेंगे।
अगले 10 वर्षों में देश में हम फिर से काले धन की भारी वृद्धि देखेंगे। क्या एक बार फिर demonetization हो सकता है? सर हमने आप को इसलिए नहीं चुना है। आप हमारा विश्वास जीतें , जिन करों का हम भुगतान कर रहे हैं उनके साथ न्याय करें, तभी लोगों का सरकारों में विश्वास बहाल होगा। हम आप का समर्थन करने के लिए तैयार हैं, और आप के एक्शन का इंतजार कर रहे हैं !
आपका - एक मतदाता
नमस्ते,
मेरा नाम प्रसाद है। मेरा Balanagar हैदराबाद में एक छोटा उद्योग है। मेरे उद्योग की प्रति माह आमदनी लगभग 2 लाख रुपये है। इसका मतलब यह प्रति वर्ष 24 लाख रुपये है। ईमानदारी और सच्चाई से सभी छूटों के साथ मेरे द्वारा सरकार को लगभग 3 लाख आयकर का भुगतान किया जाना चाहिए। लेकिन मैं सिर्फ 30,000 भुगतान करता हूँ । क्यूं कर?
मैं एक मध्यम वर्गीय परिवार से हूँ और कड़ी मेहनत और अध्ययन के साथ स्वयं को स्थापित किया । शुरू में मैंने नौकरी की, लेकिन एक एक पैसा बचा कर मैंने अपना उद्योग प्रारम्भ किया। मेरे परिवार की जरूरतों और जीवन यापन के लिए 1 लाख पर्याप्त है और अन्य 1 लाख मैंने अपने भविष्य के लिए निवेश किया (सोने या शेयर या भूमि खरीदने में)
जो एक लाख मैं परिवार के लिए खर्च करता हूँ ,उसमें 30000 परोक्ष रूप से किसी न किसी टैक्स के रूप में सरकार को जा रहा है। किराने का सामान से टीवी और मोबाइल तक के लिए मैं केवल टैक्स में 20 से 30% का भुगतान कर रहा हूँ। अगर मैं ड्रिंक की एक छोटी सी पार्टी का आनंद लेना चाहूँ जिस पर 3000 का खर्च आना है तो 60% सरकार को कर के रूप में जायेगा।
यहाँ तक कि एक लीटर पेट्रोल के लिए 30 रुपये टैक्स के रूप में सरकार को जा रहा है। जब मैंने कार खरीदी अकेले करों के रूप में डेढ़ लाख का भुगतान किया। एक प्लाट के पंजीकरण के लिए मैंने शुल्क के रूप में 1 लाख का भुगतान किया। जिस कॉलोनी में मैं रह रहा हूँ वहां मानक के अनुरूप एक सड़क नहीं है फिर भी मैंने विकास शुल्क के रूप में 50,000 का भुगतान किया।
सरकारी अस्पतालों में मरीजों की दुर्दशा देखकर और निजी अस्पतालों की लूटपाट प्रकृति के कारण, मैंने अपने परिवार के सदस्यों के लिए एक स्वास्थ्य बीमा पॉलिसी ले लिया और बेशर्मी यह कि इसपर भी मुझसे सेवा कर चार्ज किया गया।
सरकार लुटेरों की तरह हर जगह टैक्स वसूल रही है यहाँ तक कि शमशान में भी। पर बदले में दे क्या रही है ?
अगर हम अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में दाखिल कराएं तो क्या हमें वहां उनके कुछ सीखने का भरोसा होगा ? यदि हम सरकारी अस्पतालों में इलाज के लिए जाएं तो क्या हमारे ज़िंदा वापस आने की कोई उम्मीद है ? देश के रक्षा क्षेत्र के अतिरिक्त अन्य कहीं हम समझ नहीं रहे हैं कहीं विकास कार्य हो रहा है । एक कार खरीदने जाएँ, वहाँ सड़क कर लग रहा है, सड़क पर आते हैं वहाँ टोल टैक्स है। क्या हम हर जगह ठगे नहीं जा रहे महोदय ?
करों के रूप में जो भुगतान हम कर रहे हैं वह पैसा कहाँ जा रहा है ? मैं अपने कर्मचारियों के वेतन में वृद्धि से पहले उनके काम का मूल्यांकन करता हूँ, लेकिन सरकार क्या कर रही है? कोई सरकारी कर्मचारी काम करता है या नहीं इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता उन्हें समान वेतन वृद्धि मिलती है। हमारा पैसा इतना सस्ता क्यों है सर? हमारे टैक्स से ऊंचे वेतन लेने वाले लोग हमारे ही काम नहीं करते हैं। कार्यालय का समय 10 बजे है लोग11 पर आते हैं और रिश्वत के बिना लैश मात्र भी क़दम नहीं बढ़ाते । इसलिए, हमें बताएं, क्यों हमें करों का भुगतान करना चाहिए? अपने उद्योग के लिए निर्बाध बिजली लेने के लिए मुझे रिश्वत देनी पड़ती है । सब मिला कर मैं प्रति माह रिश्वत के रूप में लगभग 10000 भुगतान करता हूँ । सर मैं व्हाइट मनी में इस रिश्वत को कैसे दिखा सकता हूँ??
बस यही कारण है कि हमें सरकारों को कर का भुगतान करने से नफरत है। सर इसका मतलब यह नहीं है कि मेरी कोई सामाजिक जिम्मेदारी नहीं है। जब आपने सेना कोष के लिए मदद करने की अपील की मैंने 10000 दिए । मैं 20000 मेरे पड़ोस में एक अनाथालय के लिए हर साल देता हूँ और मेरे पिता के नाम पर 1 लाख का दान दिया था जब मेरे गांव के लोगों ने कहा कि वे स्कूल का उत्थान करना चाहते हैं । लेकिन खेद है सर, सरकार को कर का भुगतान करने के लिए मेरे पास वही दिल नहीं है!
वैसे भी, यह अतीत है। अब हम सफेद में सब कुछ देखेंगे। चूंकि आपने निश्चय कर लिया है तो मैं 10 लाख पर 30% कर का भुगतान करके अपने धन को सफेद कर लूँगा । लेकिन मुझे विश्वास है कि 10000 रिश्वत हर महीने देने की जरूरत नहीं है? या फिर आप लोगों को अनुमति देंगे कि चेक के रूप में भी रिश्वत स्वीकार करें?
मैंने अभी नेताओं की तो बात ही नहीं की ! एक सड़क छाप नेता से लेकर MLA तक और सभी पार्टी के इलेक्शन फण्ड में भी हमें देना है। अगर मैं ऐसा न करूँ तो बर्बाद कर दिया जाऊँगा। क्या आप ऐसे फंड्स को केवल चेक से स्वीकार करने का अधिनियम लाएंगे? क्या पार्टी फंड जनता के सामने खोल कर रखा जाएगा?
पहले से ही हम इतने सारे करों का भुगतान कर रहे हैं, बदले में सरकार हमें क्या दे रही है। सर हम राजनेताओं की विलासितापूर्ण जीवन के लिए या निकम्मे सरकारी कर्मचारियों के वेतन के लिए करों का भुगतान नहीं कर सकते । हम जितना संभव होगा भुगतान नहीं करने की कोशिश करेंगे।
अगले 10 वर्षों में देश में हम फिर से काले धन की भारी वृद्धि देखेंगे। क्या एक बार फिर demonetization हो सकता है? सर हमने आप को इसलिए नहीं चुना है। आप हमारा विश्वास जीतें , जिन करों का हम भुगतान कर रहे हैं उनके साथ न्याय करें, तभी लोगों का सरकारों में विश्वास बहाल होगा। हम आप का समर्थन करने के लिए तैयार हैं, और आप के एक्शन का इंतजार कर रहे हैं !
आपका - एक मतदाता
Thursday, 22 December 2016
चन्दू ने गलती से एक अच्छा सा कच्छा क्या ऑनलाइन आर्डर कर दिया, वो तो कल से लगे हैं उसे बताने कि आपकी शिपमेंट यहाँ पहुँच गयी, यहाँ तक पहुँच गयी, बस पहुँचने ही वाली है...बस पहुँची कि पहुँची. मैसेज बॉक्स भरता जा रहा है और चन्दू की घबड़ाहट बढ़ती जा रही है....कच्छा ही आर्डर किया था या कुछ और? यह शिप से क्या भेजा जा रहा है? शायद VIP का कच्छा आर्डर करो तो VIP हो जाता है इन्सान, सो कच्छा भी समुद्री जहाज़ से भेजा जाता हो? चन्दू बेहद दुविधा में है.
Wednesday, 21 December 2016
Tuesday, 20 December 2016
Sunday, 18 December 2016
Saturday, 17 December 2016
Thursday, 15 December 2016
“HOLYSHIT”
यह बहुत ही कीमती शब्द है. कई बार कोई एक शब्द ही ढोल की पोल खोल देता है. यह एक शब्द काफ़ी है, विभिन्न तथा-कथित संस्कृतियों को छिन्न-भिन्न करने को. इस शब्द का अर्थ है 'पवित्र टट्टी'. मतलब जो कुछ भी पवित्र समझा जाता है, धार्मिक माना जाता है, टट्टी है. वाह! इससे आसान और कैसे समझाया जा सकता है? वाह! HOLYSHIT!! #पवित्र#टट्टी!!!
"जो बीवी से करे प्यार, प्रेस्टीज से कैसे करे इनकार?"
#नास्तिक कोई हो ही नहीं सकता....नास्तिक में भी #आस्तिक है......#अस्तित्व से कैसे कोई इनकार कर सकता है? जो अस्तित्व से इनकार करे उसे खुद के होने से इनकार करना होगा. करता रहे. कोर्ट भी आपकी न को ऐसे ही नहीं मानती, उसका भी सबूत देना होता है. और यहाँ सबूत मांगने वाला खुद ही सबूत है.पहले इस्तेमाल करे फिर विश्वास करें. कर ही रहे खुद को बरसों से इस्तेमाल, फिर भी #विश्वास नहीं है तो कोई क्या करे?
Wednesday, 14 December 2016
#बेईमान कौन है, तुम या हम?#
नौकर पिछली तनख्वाह का हक़ तो अदा कर नहीं रहा और जिद्द कर रहा है, जबरदस्ती कर रहा है तनख्वाह बढ़वाने की.
जिस चीज़ के आगे सरकारी शब्द लग चुका है वो सब सड़ चुकी है. सरकारी अस्तपाल बदबू मारता है, सरकारी स्कूल में बच्चों से लेबर कराई जाती है. सरकारी न्याय लेने के लिए पीढियां घिस जाती हैं, दाढ़ी से मूंछे बड़ी हो जाती हैं. #सरकारी सड़क खड़क चुकी हैं. सरकारी बस की बस हो चुकी है. सरकारी पुलिस दोनों तरफ से रिश्वत लेती है. कौन सही, कौन गलत, उसे कोई मतलब नहीं. थाने गुंडागर्दी के अड्डे हैं और पुलिस मुल्क का सबसे बड़ा माफ़िया. हर सरकारी चीज़ बस सरक रही है किसी तरह से.
और सरकार को और टैक्स चाहिए. आप चाहे #कैशलेस हो जाओ, चाहे #लेसकैश लेकिन सरकार को और टैक्स चाहिए.
कौन समझाए कि सरकार इसलिए बकवास नहीं थी कि उसे जनता टैक्स कम दे रही थी? वो इसलिए बकवास थी चूँकि वो बकवास थी, वो बे-ईमान थी. अगर सरकारी कर्मचारी को कम पैसे मिलते होते तो काहे हर कोई सरकारी नौकरी के लिए मरा जा रहा है? अगर सरकार को पैसे कम पड़ रहे होते तो काहे हर कोई नेता बनने को जान देने को है? काहे रोज़ नेता अरबों रुपये के स्कैम में फंस रहे होते?
नहीं. अभी पिछले पैसों का हिसाब ही नहीं दिया और चले हैं और ज़्यादा मांगने. जनता को उठ खड़े होना चाहिए और उस नेता का कालर पकड़ पूछना चाहिए जो टैक्स न देने वालों को रोज़ बे-ईमान कह रहा है, पूछना चाहिए उसे कि बे-ईमान कौन है बे, तुम या हम?
उल्टा चोर कोतवाल को डांटे.
उल्टा बे-ईमान नौकर मालिक को मारे चांटेे.
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Tuesday, 13 December 2016
#फ़कीरी मेरी नज़र में#
पीछे मोदी जी ने खुद को फ़कीर क्या कह दिया सारा समाज फकीरी पर चर्चा करने लगा.
एक रहिन ईर, एक रहिन बीर, एक रहिन फत्ते, एक रहिन हम. ईर कहिन फकीरी, बीर कहिन फकीरी, फत्ते कहिन फकीरी. तो फिर हमहू कहिन फकीरी.
जिस फ़कीर को अपने #फक्कड़पन में ऐश्वर्य नज़र न आता हो, वो फ़कीर है ही नहीं. ऐश्वर्य का मतलब ऐश करना ही नहीं है, इसका मतलब ईश्वरीय होना भी है. हमारे यहाँ ‘महाराज’ शब्द राजा के लिए तो प्रयोग हुआ ही है, फकीर के लिए भी प्रयोग हुआ है. फ़कीर राजाओं का भी राजा है. वो महाराजा है. बुल्ले 'शाह' याद हैं.शाह शब्द पर गौर कीजिये. वो कोई बादशाह नहीं हैं, लेकिन फिर भी शाहों के शाह हैं. फकीरी का मतलब कोई झोला-वोला उठा कर, कटे-फटे कपड़े पहन कर जीना नहीं है. फकीरी का मतलब है, अलमस्त रहना. फकीरी का मतलब ‘अजीबो-गरीब’ होना नहीं है, फकीरी ‘अजीबो-अमीर’ होना है. दुनिया का सबसे अमीर आदमी भी फ़कीर हो सकता है. बिल गेट्स ने अपनी जायदाद का अधिकांश हिस्सा दान कर दिया, क्या यह फकीरी का लक्षण नहीं है? एक ऐश्वर्यशाली व्यक्ति ही फ़कीर हो सकता है.
Monday, 12 December 2016
करप्ट होना करप्ट है भी कि नहीं?
अमिताभ उतरता है अन्नू कपूर के साथ माल-गाड़ी के डिब्बे से. अन्नू कपूर
कहता है कि ठंड बहुत लग रही है और भूख भी. अमिताभ उसे सुझाव देता है कि ठंड लगे तो
भूख को याद करो, ठंड नहीं लगेगी और भूख लगे तो ठण्ड को याद करो, भूख नहीं लगेगी.
एक आदमी सोया हो ठंड में और कद हो छह फ़ुट लेकिन कम्बल हो उसके पास पांच फ़ुट का. तो कैसे पूरा पड़ेगा उस पर? सर की तरफ खींचेगा तो पैरों की तरफ से नंगा हो जाएगा. पैरों की तरफ खींचेगा तो सर की तरफ से नंगा हो जाएगा.
एक फिल्म में डायलाग था कि भूखा चोरी करे तो उसे चोरी नहीं कहते, लेकिन भरे पेट का चोरी करे उसे चोरी नहीं, डकैती समझना चाहिए. मेरे ख्याल में तो भरे पेट वाला भी कहीं न कहीं भूख का शिकार है. भूख के डर का शिकार.
करप्शन कभी बंद नहीं हो सकता एक अभावग्रस्त समाज में. एक आर्थिक रूप से असुरक्षित समाज में. जयललिता के कपड़ों के अम्बार और जूतों की भरमार के पीछे क्या मानसिकता है? यही कि कल हो न हो.
करप्शन सिर्फ एक लक्षण जो एक बीमार समाज की खबर दे रहा है. हम बीमारी खत्म करने की बजाए उसके लक्षणों, सिमटोम पर टूट पड़े है.
बीमारी है समाज का असंतुलन. एक समाज जहाँ कोई कोठड़ी में है तो कोई कोठी में. कहीं किसी के पास दस कमरों का घर है तो कहीं दस आदमी एक कमरे में सोते हैं. ऐसे समाज में करप्शन खत्म होगा? होना भी चाहिए?
ऐसे समाज में करप्शन बंद कभी नहीं हो सकती. आप लाख कोशिश कर लें.
एक आदमी सोया हो ठंड में और कद हो छह फ़ुट लेकिन कम्बल हो उसके पास पांच फ़ुट का. तो कैसे पूरा पड़ेगा उस पर? सर की तरफ खींचेगा तो पैरों की तरफ से नंगा हो जाएगा. पैरों की तरफ खींचेगा तो सर की तरफ से नंगा हो जाएगा.
एक फिल्म में डायलाग था कि भूखा चोरी करे तो उसे चोरी नहीं कहते, लेकिन भरे पेट का चोरी करे उसे चोरी नहीं, डकैती समझना चाहिए. मेरे ख्याल में तो भरे पेट वाला भी कहीं न कहीं भूख का शिकार है. भूख के डर का शिकार.
करप्शन कभी बंद नहीं हो सकता एक अभावग्रस्त समाज में. एक आर्थिक रूप से असुरक्षित समाज में. जयललिता के कपड़ों के अम्बार और जूतों की भरमार के पीछे क्या मानसिकता है? यही कि कल हो न हो.
करप्शन सिर्फ एक लक्षण जो एक बीमार समाज की खबर दे रहा है. हम बीमारी खत्म करने की बजाए उसके लक्षणों, सिमटोम पर टूट पड़े है.
बीमारी है समाज का असंतुलन. एक समाज जहाँ कोई कोठड़ी में है तो कोई कोठी में. कहीं किसी के पास दस कमरों का घर है तो कहीं दस आदमी एक कमरे में सोते हैं. ऐसे समाज में करप्शन खत्म होगा? होना भी चाहिए?
ऐसे समाज में करप्शन बंद कभी नहीं हो सकती. आप लाख कोशिश कर लें.
लाओत्से की ख्याति बहुत थी कि पंहुचा हुआ फ़कीर है. राजा ने उसे जबरन न्याय-मंत्री बना दिया गया. अब एक सेठ आया कि चोर ने उसका गल्ला चुरा लिया. लाओत्से ने चोर को स्कूल में पढने की सज़ा दी, स्टेट के खर्चे पर, तब तक जब तक वो अच्छा कमाने लायक न हो जाए. और बीस कोड़े की सज़ा दी सेठ को. राजा हैरान! लाओत्से को कारण बताने को कहा. लाओत्से कहते हैं कि इस सेठ ने मजबूर किया कि चोर चोरी करे. इसने अभाव क्रिएट किया. राजा कुछ कह पाता उससे पहले ही लाओत्से ने तीस कोड़े वित्त-मंत्री को भी मारने को कहा. राजा ने कारण पूछा? लाओत्से ने कहा, “चूँकि यह मंत्री ऐसी वित्तीय प्रणाली पैदा ही नहीं कर सकता कि किसी को चोरी न करनी पड़े. इसलिए यह गुनाह-गार है.” राजा हैरान! अब लाओत्से ने चालीस कोड़े राजा को मारने का हुक्म दिया. अब राजा की हिम्मत नहीं हुई आगे पूछने की. वो समझ गया कि लाओत्से का जवाब क्या होना था.
राजा तो समझ गया आप समझे कि नहीं? ये जो राजा है, वही ज़िम्मेदार है. चोर चोरी करता है और उस पर ध्यान न जाए इसलिए वही सबसे ज़्यादा चिल्लाता है, “चोर, चोर, पकड़ो पकड़ो.” लोग समझते हैं कि कम से कम ये बेचारा तो चोर नहीं हो सकता.
हमारा नेता ही ज़िम्मेदार है, ऐसा बे-हिसाब समाज पैदा करने के लिए. और वो ही चिल्ला-चिल्ली कर रहा है कि करप्शन खत्म करेगा. कोई नोट बंद कर रहा है, तो कोई लोक-पाल कानून लाने को आमदा है. जड़ में कोई नहीं जाना चाहता कि एक करप्ट समाज में करप्ट होना करप्ट है भी कि नहीं?
लक्षणों से उलझे हैं सब, डायग्नोसिस ही नहीं करना चाहते, इलाज क्या ख़ाक करेंगे?
नमन....तुषार कॉस्मिक. कॉपी राईट लेखन
मैं आठवीं जमात तक अंग्रेज़ी सीख चुका था...लेकिन शेक्सपियर का लेखन मुझे समझ नहीं आता था........ भाषा समझ लेने का अर्थ यह बिलकुल नहीं कि हमने जो पढ़ा, वो हमें समझ आ ही गया.....हम कुछ का कुछ समझ सकते हैं....अर्थ का अनर्थ कर सकते हैं...व्यर्थ कर सकते हैं......मतलब आदमी अपने हिसाब से निकालता है जनाब. ऐसे मतलब जिनका लेखक के मतलब से कोई मतलब ही नहीं होता.
Friday, 9 December 2016
अरुण जेटली हैं वित्त-मंत्री. वैसे सुना था कि अमृतसर में जो इलेक्शन फाइट किया था इनने, तो रिकॉर्ड बनाया था. हारने
का जी. अजीब है हमारे यहाँ के कानून. जिसकी काबलियत पर जनता को यकीन पहले ही नहीं
था उसे सरकार ने मंत्री बना दिया. अब मंत्री ने मंत्र मार दिया है. देखते जाईये,
भारत की इकॉनमी बीस दिन बाद ही आसमान छूने लगेगी. ठीक वैसे ही जैसे जादूगर का
ज़मूरा बिना सहारे की रस्सी पर चढ़ आसमान छूने लगता है.
"शेख-चिल्ली और कैश-लेस भारत"
शेख-चिल्ली की मशहूर कहानी है. सर में टोकरी रखी है उसके और कुछ अंडे हैं उसमें वो लगा है कल्पना के घोड़े दौडाने. इन अण्डों में से मुर्गे-मुर्गियां निकलेगीं. फिर उनके बच्चे होंगे. फिर उनके बच्चों के बच्चे होंगे और इस तरह से एक बड़ा पोल्ट्री फार्म होगा. और कुछ ही समय में वो अमीर हो जाएगा.
लेस-कैश वाला भारत कुछ ही दिन में कैश-लेस ले-दे करेगा और सरकार को कई गुणा टैक्स देगा और बदले में सरकार इस पैसे से हर भारतीय को कई गुणा अमीर कर देगी. मालामाल.
शेख-चिल्ली को ठोकर लगी थी और सर पे रखी अंडे की टोकरी ज़मीन पर और अण्डों का क्या हुआ होगा ...आप खुददे बहुत समझदार हैं, सोच सकते हैं.
"मोदी की खतरनाक राजनीति"
मोदी अपना वोट बैंक बदल रहा है, वो भिखमंगे और जिनके पल्ले कुछ नहीं था, उनको टारगेट कर रहा है. उसे पता है, कि ये लोग jealous थे अमीरों से, और ये निहायत खुश हैं.
उसे वोट अच्छा नौकरी पेशा देगा.
या फिर जो कुछ भी पैसा नहीं जोड़ नहीं पाया, वो देगा.
व्यापरी जी जान लगा देगा, मोदी को गिराने में.
यह पक्का है.
शत प्रतिशत.
और मोदी को अब इस व्यापारी के पैसे की ज़रूरत नहीं है, चूँकि उसके पास टॉप-मोस्ट व्यापारी हैं, अम्बानी, अदानी. सो उसे अब छुट-पुट लोगों की कोई ज़रूरत नहीं है.
और वोट वो इन्ही का पैसा फेंक कर, फिर से खींच लेगा, ऐसी उसे समझ है.
ये जो लोग मोदी-मोदी के नारे उछाल रहे हैं, वो बहुत पेड होंगे.
अपनी पार्टी rti में लायेंगे नहीं.
अपना पैसा पहले ही सफेद कर चुके
दूसरी दलों को कंगला कर दिए, अब आगे फिर से अँधा पैसा प्रयोग होगा, और वो बीजेपी की तरफ से होगा और शुरू हो भी चुका असल में.
यह है राजनीति.
उसे वोट अच्छा नौकरी पेशा देगा.
या फिर जो कुछ भी पैसा नहीं जोड़ नहीं पाया, वो देगा.
व्यापरी जी जान लगा देगा, मोदी को गिराने में.
यह पक्का है.
शत प्रतिशत.
और मोदी को अब इस व्यापारी के पैसे की ज़रूरत नहीं है, चूँकि उसके पास टॉप-मोस्ट व्यापारी हैं, अम्बानी, अदानी. सो उसे अब छुट-पुट लोगों की कोई ज़रूरत नहीं है.
और वोट वो इन्ही का पैसा फेंक कर, फिर से खींच लेगा, ऐसी उसे समझ है.
ये जो लोग मोदी-मोदी के नारे उछाल रहे हैं, वो बहुत पेड होंगे.
अपनी पार्टी rti में लायेंगे नहीं.
अपना पैसा पहले ही सफेद कर चुके
दूसरी दलों को कंगला कर दिए, अब आगे फिर से अँधा पैसा प्रयोग होगा, और वो बीजेपी की तरफ से होगा और शुरू हो भी चुका असल में.
यह है राजनीति.
साम्भा--- आखिर कितने दिन और जनता का पैसा बैंकों में ही रोके रखना है सरदार, मतलब सरकार?
सरदार मतलब सरकार--- ऐसे तो हम जनता को जीने लायक कैश दे ही रहे हैं....और थोड़े दिन में अधिकांश लोग कैश-लेस ले-दे करने लगेंगे.
साम्भा-- सरदार मतलब सरकार, और थोड़े दिन में तो बहुत लोग वैसे ही कैश-लेस हो जायेंगे. न रहेगा बांस, न बजेगी बंसरी. दंगा ही न हो जाए?
सरदार मतलब सरकार---- ऐसा कुछ नहीं होगा, जब पचास-पचास कोस तक कोई हमें कोस रहा होता है तो समझदार लोग कहते हैं ,"चुप हो जा पगले नहीं तो सरदार, मतलब सरकार आ जाएगी."
Thursday, 8 December 2016
"सरकार की समझ सरकारी है, सो राम-लीला ज़ारी है"
भारत की आबादी—1.25 करोड़
ग़रीबी रेखा के नीचे—22 करोड़
एडल्ट- 60 प्रतिशत
ग़रीबी रेखा के नीचे तकरीबन 13 करोड़ लोग एडल्ट होंगे. अगर इनमें से आधे लोगों के कैसे भी खाते हों तो हुई 6.5 करोड़ और अगर हरेक के खाते में एक लाख भी जमा हुआ तो कुल हुआ 6.5 लाख करोड़ रुपैया.
और यह सिर्फ ग़रीबी रेखा से नीचे के लोग हैं. ग़रीबी रेखा के आस-पास के लोगों को भी मिला लें तो यह संख्या सहज ही सरकार के चौदह-पन्द्रह लाख करोड़ रुपियों को पार कर जानी है.
मतलब यह कि काश सरकते हुए आर्थिक रूप से निचले तबके के खातों में कई दिशाओं तक पहुंचा है, जैसे एडवांस सैलरी दी जा रही है साल भर की. मतलब यह कि निचला तबका कहीं तो काम-धंधा करता है न तो उसको काम देने वाले लोग उसके ज़रिये काश अकाउंट तक पहुंचाएंगे कि नहीं.
ज़रा सी समझ नहीं आई सरकार को. काश रातों-रात बदला नहीं जा सकता था. उसके लिए समय चाहिए ही था और उसी समय में यह सब हो जाएगा, इसे सरकार समझ ही नहीं पाई. जो रास्ते देने ही पड़ने थे, उन्ही रास्तों से यह सब होगा ही सरकार समझ ही नै पाई. चूँकि सरकार की समझ सरकारी है. सरक सरक कर चलती है.
अब लगे हैं, विभिन्न तरह से ज़बरन लोगों को कैश के बिना लेन-देन करवाने. सब उल्टा गिरेगा इन्ही की उलटी खोपड़ियों परम जिनमें भेजे को कुदरत ने भेजा ही नहीं.
देखते जाइए, राम-लीला ज़ारी है.
"टाइटैनिक और नोट-बंदी"
टाइटैनिक फिल्म देखी सुनी होगी आपने. वो जो जहाज़ जिसका नाम टाइटैनिक था, वो कहते हैं कि किसी आइस-बर्ग से ही टकराया था.
आइस-बर्ग समझते ही होंगे आप कि क्या होता है. बर्फ की ये बड़े बड़ी चट्टान. आइस-बर्ग सिर्फ दस प्रतिशत ही नज़र आता है. नब्बे प्रतिशत नीचे समुद्र में होता है.
आपको ये जो कतार दिख रही हैं न नोट-बंदी की वजह से बैंक और एटीएम के आगे, और ये जो समस्याओं का आपको हमें सामना करना पड़ रहा है रोज़-मर्रा के जीवन में, डे-टू-डे लाइफ की प्रॉब्लम, ये आइस-बर्ग का वो हिस्सा है जो ऊपर से नज़र आता है, दस प्रतिशत. ये नज़र आ रहा है , इसलिए सब ऊपर से नीचे तक के लोग, पक्ष विपक्ष के लोग इसी पर जद्दो-जहद करने में जुटे हैं. इससे उपजी और उपजने वाली समस्याओं नब्बे प्रतिशत हिस्सा है वो है जो अभी लोगों को ठीक से नज़र नहीं आ रहा. वो है कि आप से सरकार टैक्स लेना चाहती है. वो भी डैकैतों जैसा. हर मोड़ पर, हर चौराहे पर, तिराहे पर. हर transaction पर. वो दो तो आप काम कर पाओगे, धंधा कर पाओगे, वरना आप अपराधी.
जब तक आप इस आइस-बर्ग नब्बे प्रतिशत हिस्सा जो ओझल है, उसे नहीं देख पाएंगे, उसे मुद्दा नहीं बनायेंगे, आपका टाइटैनिक इस आइस-बर्ग से टकराना ही है.
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