Man has evolved from double standard to triple, to quadruple, to multiple.Wow! Gr8...9..10...........!!
Thoughts, not bound by state or country, not bound by any religious or social conditioning. Logical. Rational. Scientific. Cosmic. Cosmic Thoughts. All Fire, not ashes. Take care, may cause smashes.
Tuesday, 3 January 2017
Monday, 2 January 2017
“#कॉमन_सिविल_कोड/ कुछ सवाल-कुछ जवाब”
हिन्दू ब्रिगेड हाहाकारी तरीके से कॉमन सिविल कोड के समर्थन में खड़ी है. मानना यह है इनका कि मुस्लिम समाज ने अलग सिविल कानून की आड़ में बहुत से फायदे ले रखे हैं और समाज को असंतुलित कर रखा है. मुस्लिम एक से ज़्यादा शादी करते हैं, बिन गिनती के बच्चे पैदा करते हैं. आदि-आदि. तो क्यूँ न एक साझा कानून बनाया जाए? क्रिमिनल कोड एक ही है मुल्क में. क़त्ल करे कोई तो सज़ा एक ही है, चाहे हिन्दू हो, चाहे मुसलमान, चाहे सिक्ख. लेकिन हिन्दू बेटी को पिता की सम्पति में जो अधिकार है, वो मुसलमान बेटी को नहीं है. तलाक के बाद हिन्दू पत्नी को पति से जो सहायता मिलती है, वैसी मुस्लिम स्त्री को नहीं है.
तो क्यूँ न एक ही कानून हो? कॉमन सिविल कोड. अनेकता में एकता.
इसमें कुछ पेच हैं. अनेकता में एकता के फोर्मुले पर ही सारा जोर है जबकि एकता में अनेकता बनाए रखना भी ज़रूरी है. जहाँ तक हो सके, किसी भी समाज के नेटिव फैब्रिक को नहीं छेड़ा जाए.
आदिवासी समाज में कुछ अलग कायदे हैं. वहां घोटुल व्यवस्था है. शादी से पहले जवां लड़के-लड़कियां एक साझे हाल में जीवन के नियम सीखते हैं. सेक्स भी. प्रैक्टिकल. आपका बड़ा से बड़ा स्कूल सेक्स एजुकेशन में उनसे पीछे है. अब आप कहें कि यह अनैतिक है, गैर कानूनी है. इसे हमारे तथा-कथित विकसित सामाजिक ढाँचे के हिसाब से परिभाषित करना चाहें तो आप मूर्ख है. उल्टा आपको उनसे कुछ सीखने की ज़रुरत है.
तो कॉमन कोड के नाम पर कुछ स्थानीय, कुछ कबीलाई, ग्रामीण, आदिवासी परम्पराएं इसलिए ही तहस-नहस न हो जाएं कि एक ही झंडे तले लाना है. हो सकता है, वो हमारी आधुनिक मान्यताओं से बेहतर साबित हों. तो साझा कानून लागू करने से पहले गहन बहस होनी चाहिए कि बेहतर सामाजिक व्यवस्था क्या है.
मैंने तो कल ही लिखा कि शादी का हक़ तब तक नहीं होना चाहिए जब तक स्त्री-पुरुष दोनों एक सीमा तक कमाने न लगें और यह कमाई पांच वर्ष की निरन्तरता न लिए हो. एक छोटा loan लेना हो तो बैंक तीन साल के फाइनेंसियल मांगता है और दो लोग परिवार बनायेंगे, बच्चे पैदा करेंगे, उनकी फाइनेंसियल ताकत कोई ढंग से नहीं पूछता और लड़की की तो बिलकुल नहीं! कल अगर नहीं झेल पायेंगे खर्च, तो बोझ समाज पर पड़ेगा.
बहुएं जला दी जाती थीं. फिर कानून बना डोमेस्टिक वायलेंस एक्ट/ 498-A आया. अब विक्टिम आदमी हो गया. बहुत से शादी-शुदा आदमियों की बैंड बजा दी उनकी बीवियों ने.
चौराहे पर सिग्नल न हो तो लोग दिक्कत महसूस करते हैं. टकराने लगते हैं एक दूजे से. लड़ने लगते हैं. और सिग्नल हो, लेकिन खराब हो जाए ज़रा देर के लिए, तो भी गदर मच जाता है.
समस्या का हल यह नहीं था कि दहेज विरोधी कानून बना दो. ऐसे अनेक कानून हैं जो सिर्फ किताबों में बंद रहते हैं. सार्वजानिक स्थलों पर बीड़ी, सिगरेट पीना मना है, तो भी आपको हर जगह लोग दूसरों के नाक-मुंह में अपना उगला गंदा धुंआ घुसेड़ते नज़र आयेंगे. दहेज बंद हो गया क्या? लोग भव्य शादियाँ करते हैं. शादी नहीं करते, एक मेला लगाते हैं, शादी मेला, शाही मेला. और उनमें दोनों पक्षों में खूब ले-दे भी होता है. बेतुके कानून बनाए गए, और कुछ मामला सुलझा लेकिन कुछ और उलझ गया. अब दूल्हा पक्ष भी फंसने लगा.
शादी के कॉन्ट्रैक्ट को गोल-मोल न रख के, सब पहले से निश्चित किया जाए. पश्चिम में prenuptial कॉन्ट्रैक्ट बनाए जाते हैं. वो सब जगह होने चाहियें. यह सात-आठ जन्म के साथ वाली बात बकवास है. सीधा सीधा हिसाबी-किताबी रिश्ता होता है. कानूनी बंधन. कहते भी हैं. सिस्टर-इन-लॉ. कानूनी बहन. असल में तो आधी घर वाली ही मानते हैं. Brother-in-law देवर को कहते हैं. कानूनी भाई. लेकिन असल में दूसरा वर भी माना जाता है. और कई समाजों में तो पति के मर जाने के बाद देवर के साथ ही भाभी की शादी कर दी जाती है. एक चादर मैली सी. एक फिल्म है, देख लीजिए अगर मौका मिले तो.
शादी का हक़, बच्चा पैदा करने का हक़ जन्म-सिद्ध अधिकार नहीं होना चाहिए. यह Birth Right नहीं होना चाहिए, यह Earned Right होना चाहिए, कमाया हुआ हक़. स्त्री पुरुष दोनों के लिए. और तलाक ट्रिपल नहीं होना चाहिए, सिंगल होना चाहिए. तुरत.
कानून हो कि कोई भी बच्चा किसी भी धर्म में दीक्षित न किया जाए, जब तक वो अठारह साल का न हो, और अगर कोई कोशिश भी करे तो उसे सज़ा हो. अंग्रेज़ी भाषा सीखने से ज़रूरी नहीं कि छठी कक्षा का बच्चा शेक्सपियर को समझ सकता है. पंजाबी सीखने का मतलब नहीं कि गुरु ग्रन्थ में क्या लिखा है, समझ आ जाए. धर्म के नाम पर बच्चों का रोबोटीकरण ही होता है.
बच्चा व्यक्तिगत होना ही नहीं चाहिए. तो मान लेगा क्या समाज आज? मेरे हिसाब से तो बच्चा पैदा करने का कानूनी हक़ खत्म कर देना चाहिए. लेकिन यह कब होगा? बच्चा सार्वजनिक होना चाहिए.
मैं तो चाहता हूँ कि कानून हो कि धन कमाने की तो कोई सीमा न हो, लेकिन एक सीमा के बाद धनपति न तो अपने लिए धन रख सके और न ही अपने बच्चों के लिए. बाकी धन को स्वेच्छा से पब्लिक डोमेन में डाल दे, न डाले तो ऐसा कानूनन किया जाए.
तो कॉमन सिविल कोड की बक-झक करने वालों को समझना चाहिए कि इसके ऊपर-नीचे, दाएं-बाएँ भी बहुत कुछ है. बहुत सी वर्तमान और भविष्य की अल्टरनेटिव व्यवस्थाओं को मद्दे नज़र रखना चाहिए. क्या आप कुछ साल पहले सोच सकते थे कि लोग सेम सेक्स में शादी करेंगे और इसे कानूनी मान्यता भी दी जाएगी? लिव-इन को भी कानूनी मान्यता देनी पड़ेगी, सोच सकते थे क्या आप?लव मैरिज ही पूरे गाँव की, मोहल्ले की चर्चा का मुद्दा रहती थी महीनों, सालों. टॉक ऑफ़ दा टाउन.
कुछ समय पहले तक शादी ही एक मात्र व्यवस्था थी कि स्त्री पुरुष सहवास कर सकें, आज शादी उनमें से एक व्यवस्था है, कल ग्रुप-लिव-इन आ सकता है. परसों और भी व्यवस्थाएं उत्पन्न होंगी. आपको कायदे कानून बदलने पडेंगे. multiple सिस्टम खड़े हो सकते हैं. आप डंडा नहीं रख सकते कि एक ही व्यवस्था चलेगी. लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि कोई समाज कोई ऐसी व्यवस्था अपनाने लगे जो पूरे देश दुनिया के ताने-बाने को उलझा दे. जैसे कोई कहे कि जनसंख्या पर इसलिए नियंत्रण नहीं करेंगे चूँकि उनके धर्म में ऐसा करना मना है तो वहां जबरदस्ती करनी होगी.
चूँकि आज आक्रमण सिर्फ बन्दूकों, तोपों, गोलों से ही नहीं होते, जनसंख्या विस्फोट से भी होते हैं. किसी भी समाज में घुस के जनसंख्या विस्फोट कर के वहां के समाजिक ताने-बाने को तहस-नहस किया जा सकता है. इसका ख्याल रखना भी ज़रूरी है.
डंडा घुमाने की आज़ादी सबको है लेकिन वो वहीं खत्म हो जाती है जहाँ दूसरे की नाक शुरू होती है. अब कोई छूत का रोगी कहे कि उसे छूट होनी चाहिए कि वो सबको छू सके, अगर आप रोको तो आप छूआछूत को बढ़ा रहे हो, तो गलत बात है. आज़ादी है लेकिन दूसरों को रोगी करने की नहीं. तो अगर व्यक्तिगत बच्चा पैदा करने की, पालने की आज़ादी दी भी जा रही हो किसी समाज में तो वो अल्टीमेट, अनलिमिटेड आज़ादी नहीं होनी चाहिए जैसी कि आज है. आज वो आज़ादी दूसरों के नाक ही नहीं, आँख, कान सब फोड़ रही है. दूसरों को छू रही है और छूत का रोगी कर रही है.
धर्मों पर मेरा नज़रिया है कि मैं किसी भी तथा-कथित धर्म को नहीं मानता. लेकिन आपको ईश्वर, अल्लाह, वाहगुरू जो मर्ज़ी मानना हो, आप आज़ाद होने चाहिए. आस्तिक्ता की आजादी होनी चाहिए और नास्तिकता की भी. धर्म निहायत निजी मामला होना चाहिए. और आज़ादी बस वहीं तक जहाँ तक दूसरे की आज़ादी में खलल न डालती हो. लाउड स्पीकर बंद. सड़कों का दुरूपयोग बंद. कोई लंगर नहीं, कोई नमाज़, कोई शोभा यात्रा नहीं सड़क पर. जागरण भी करना हो तो साउंड प्रूफ कमरों में करो. नमाज़ की कॉल करने के लिए sms प्रयोग करें या कुछ भी और जिससे बाकी समाज को दिक्कत न हो. और स्कूलों में भगवान की कोई प्रार्थना नहीं. स्कूल शिक्षा स्थल है, वहां तो चार्वाक, बुद्ध और मार्क्स भी पढ़ाया जाना है, वो पक्षपात कैसे कर सकता है?
सरकारी कामों में किसी भी धर्म का समावेश नहीं होना चाहिए. कोई भूमि-पूजन नहीं, कोई नारियल फोड़न नहीं. पश्चिम ने चर्च और सरकार को अलग किया. हमारे यहाँ भी सैधांतिक तौर पर ऐसा ही है, लेकिन असल में धर्म जीवन के हर पहलु पर छाया हुआ है. यहाँ नेता किसी एक वर्ग का प्रतिनिधित्व करता रहता है. ओवेसी साफ़ बोलता है कि मैं मुस्लिम -परस्त हूँ. भाजपा हिन्दू-परस्त है. और ये सब गरीब-परस्त है. जबकि प्रजातंत्र की परिभाषा ही यह है कि जो सरकार बने, वो सेकुलर हो, तो ये मुस्लिम-हिन्दू-गरीब-परस्त सेकुलर कैसे होंगे? इन पर तो दसियों वर्षों के लिए पाबंदी लगनी चाहिए. अक्ल ठिकाने आ जाए.
कुछ कॉमन होना चाहिए, कुछ अन-कॉमन रहने देना चाहिए. कहीं एकता में अनेकता और कहीं एकता में अनेकता होनी चाहिए. कहीं जबरदस्ती नहीं करनी चाहिए. कहीं जबरदस्ती की सख्त ज़रूरत है. वर्तमान के साथ भविष्य के सामाजिक बदलावों को भी नज़र में रखने की ज़रूरत है. कुछ पुराना रखना चाहिए, कुछ नया रखना चाहिए.
सो कोई भी कदम उठाने से पहले गहन चर्चा होनी चाहिए, जहाँ तक हो सके जन-मानस तैयार करना चाहिए, फिर कदम-कदम बदलाव लाने चाहियें. थोड़ा बदलाव लाकर प्रयोग करें, देखें कि नतीजा क्या आता है, फिर अगले कदम उठाएं.
और मैं विधान ही नहीं, संविधान की तबदीली में भी यकीन रखता हूँ. विधान, संविधान सब हमारे लिए है. जनतंत्र की परिभाषा ही है, जन के लिए, जन द्वारा, जन की सरकार.
अभी लोग कॉमन सिविल कोड के समर्थन में खड़े हैं, वो भी मूर्ख हैं और जो विरोध में खड़े हैं, वो भी मूर्ख हैं चूँकि दोनों के पास वजहें बड़ी ही अहमकाना हैं. थोड़ा गहरे में सोचेंगे तो कॉमन/ अन-कॉमन/ ज़बरदस्ती / जन-मानस सहमति सबको जगह देनी पड़ेगी कायदा कानून बनाने में.
नोट---चुराएं न, किसी ने भी लिखा हो, मेहनत लगती है, उसे सम्मान दें अगर पसंद हो तो. वरना अपना विरोध तो ज़ाहिर कर ही सकते हैं, स्वागत है.
जो भी मित्र पूछते हैं कि मोदी का विरोध करता हूँ मैं, तो फिर विकल्प क्या है, उनसे उल्टा पूछना चाहता हूँ मैं कि मोदी के अलावा भारत बुद्धि, कौशल, क्षमता से विहीन है क्या? खुद में सम्भावना क्यूँ नहीं तलाशते आप? अन्यथा बन्दा तो हमेशा हाज़िर-नाज़िर है. आप स्टार्ट-up फाइनेंस arrange कीजिये, बाकी सब मैं पेश करता हूँ.
आमिर खान-इन-दंगल---- म्हारी छोरियां छोरों से कम हैं क्या?
एक ख़बर----मेट्रो में 90 प्रतिशत पॉकेट-मारी महिलाओं ने की.
एक ख़बर----मेट्रो में 90 प्रतिशत पॉकेट-मारी महिलाओं ने की.
Sunday, 1 January 2017
मैं हर तथा-कथित धर्म के खिलाफ हूँ, एक नहीं हजारों बार लिख चुका हूँ....लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि किसी भी व्यवस्था में यदि ज़रा सा भी कुछ अच्छा हो तो वो न लिया जाए. क्या मैं नुसरत फ़तेह अली का गाना इसलिए नापसंद कर दूं कि वो पाकिस्तानी थे और मुसलमान भी? मैं ऐसा नहीं कर सकता. आज-कल मीशा शफी के गाने बहुत सुनता हूँ मैं. पाकिस्तानी हैं और मुस्लिम भी. पाकिस्तान की अचार-मसाले बनाने वाली कंपनी है "शान". इसके कुछ अचार हमें इतने पसन्द हैं कि हर "ट्रेड फेयर" में हम अपनी ट्राली इन्ही के सामान से भर लेते हैं. मेरी मित्र Veena Sharma अक्सर पाकिस्तानी ड्रामों की तारीफ लिखती हैं. एक टीवी प्रोग्राम है पाकिस्तान का "हस्बेहाल", बहुत पसंद है मुझे. एक हास्य कलाकार हैं 'अज़ीज़ी', बहुत पसंद हैं मुझे. हसन निसार साहेब भी कहीं पसंद, कहीं नापसंद हैं मुझे. मैं तो एक वाक्य में से भी किसी एक शब्द को ना-पसंद और बाकी शब्दों को पसंद कर सकता हूँ. मेरी पसंद नापसंद बहुत पॉइंटेड है, कृपा करके समझें.
"सम्मोहन का राजनीतिक दुष्प्रयोग"
कुछ लोगों का धंधा ही था राजा की शान में कसीदे गढ़ना. राग दरबारी.
मोदी क्या आए, बिल्ली के भागों छींका क्या टूटा, ऑनलाइन क्या और ऑफलाइन क्या ऐसे लोग पैदा हो गए, गली-गली. किस्से गढ़े जाने लगे, मोदी जी की शान में.
मोदी जी का नाता Nostradamus तक से गढ़ दिया गया. तारक फ़तेह साहेब तक कनाडा से आ-आ कर समझाने लगे कि मोदी साहेब कोई काम गलत करते ही नहीं.
कोई कसर नहीं छोड़ी जनता का दिमाग खराब करने की. इंसानी स्वभाव की कमज़ोरी का फायदा उठाया गया. मालूम है कि इन्सान को अपने तर्कों पर बहुत भरोसा नहीं होता. वो बहुत देर तक तर्कों पर टिका नहीं रहता.
कोला ज़हर है, आपको पता होता रहे लेकिन शादी में अगर वेटर एक बार सामने लाये भरा गिलास लाये तो आप मना कर देते हैं, दूसरी बार मना कर देते हैं, तीसरी बार मना कर देते हैं, लेकिन चौथी-पांचवीं बार उठा ही लेते हैं.
टीवी पर एक बार कोला की मशहूरी आती है, आप ख़ास ध्यान नहीं देते. दूसरी बार आती है आप कुछ-कुछ ध्यान देते हैं, पांचवीं, छठी, सातवीं बार वो आपके ज़ेहन में उतरती ही चली जाती है.
यह एडवरटाइजिंग नहीं है, हिप्नोटाईजिंग है. यह इन्सान की आत्मा का बलात्कार है. उसकी सोच-समझ का कत्ल है.
मैं हैरान होता कि अब्बी तो आई थी कोला की ad, फिर से, फिर से, फिर-फिर से. वही किया गया पिछले चुनाव में. जिसने ज़्यादा किया, वो बाज़ी मार गया.
ये जो नववर्ष की बधाई के पोस्टर लगे हैं मेरी-आपकी गली में, उनका आप और हमारी बधाई से कोई मतलब नहीं है, वो बस इसलिए हैं कि हमारे ज़ेहन में कुछ नाम बसे रहें.
सम्मोहन पैदा किया गया. कोशिश अभी भी जारी है. सब कलई खुल जाएगी एक-दो ढंग के चुनाव हार जाएँ.
Saturday, 31 December 2016
"अब तक का 'ट्रिपल तलाक' का विरोध और सहयोग--दोनों बकवास"
"अब तक का '#ट्रिपल_तलाक' का विरोध और सहयोग--दोनों बकवास"
मैं मुसलमानों के ट्रिपल तलाक का कुछ कुछ पक्षधर हूँ, कुछ कुछ पक्षधर नहीं हूँ.
कोई शादी तब तक नहीं होगी जब तक लड़का, लड़की दोनों अलग-अलग कमाने-खाने के लायक न हों. कम से कम पांच साल का रिकॉर्ड दें. एक छोटा loan लेना हो तो बैंक तीन साल के फाइनेंसियल मांगता है और दो लोग परिवार बनायेंगे, बच्चे पैदा करेंगे, उनकी फाइनेंसियल ताकत कोई ढंग से नहीं पूछता और लड़की की तो बिलकुल नहीं!
तलाक तो तुरत ही होना चाहिए. कुछ रद्दो-बदल के साथ.वर्षों-दशकों तक तलाक के लिए एडियाँ रगड़ना कहाँ की अक्ल है? दो लोग नहीं रहना चाहते साथ, बात खत्म हो गई और क्या सबूत चाहिए. शादी निरा कॉन्ट्रैक्ट है, आप माने या न मानें. लेकिन कॉन्ट्रैक्ट की शर्तें बदलने की ज़रुरत है. अक्सर झगड़े तब पड़ते हैं जब कॉन्ट्रैक्ट पुख्ता तरीके से न बना हो. अगर कॉन्ट्रैक्ट एयर-टाइट हो तो लोग कोर्ट जाने की हिम्मत ही नहीं करते. प्रॉपर्टी के धंधे में हूँ और अच्छे से जानता हूँ कि अधिकांश कॉन्ट्रैक्ट ही निकम्मे होते हैं. अगर कॉन्ट्रैक्ट बनाने पर मेहनत कर ली जाए तो मुकद्दमों की नौबत ही न आए.
सो शादी के कॉन्ट्रैक्ट को गोल-मोल न रख के, सब पहले से निश्चित किया जाना ज़रूरी है. पश्चिम में prenuptial कॉन्ट्रैक्ट बनाए जाते हैं. वो सब जगह होने चाहियें. यह सात-आठ जन्म के साथ वाली बात बकवास है. सीधा सीधा हिसाबी-किताबी रिश्ता होता है. कानूनी बंधन. कहते भी हैं. सिस्टर-इन-लॉ. कानूनी बहन. असल में तो आधी घर वाली ही मानते हैं.Brother-in-law देवर को कहते हैं. कानूनी भाई. लेकिन असल में दूसरा वर भी माना जाता है. और कई समाजों में तो पति के मर जाने के बाद देवर के साथ ही भाभी की शादी कर दी जाती है. एक चादर मैली सी. एक फिल्म है देख लीजिए अगर मौका मिले तो.
तो बातें साफ़ करें. तलाक ट्रिपल ही क्यूँ? सिंगल होना चाहिए और वो दोनों तरफ से हो सकता हो, ऐसा होना चाहिए. और उसके बाद बच्चे का खर्चा आधा-आधा दें माँ-बाप, छुट्टी. वैसे तो बच्चे समाज के होने चाहियें. सार्वजनिक. लेकिन जब तक वहां नहीं पहुँचता समाज, तब तक के लिए यह इंतेज़ाम किया जा सकता है. या बच्चा सामाजिक हो या सार्वजनिक, इसको ऑप्शनल भी रखा गया हो यदि किसी समाज में, वहां भी मेरे वाल सुझाव काम आ सकते हैं.
और जिन भी लोगों ने ट्रिपल तलाक के पक्ष या विपक्ष में आज तक कहा है, लिखा है सब बकवास है. सब लगे बंधे दायरों के सवाल जवाब हैं. स्त्रियाँ तो इसलिए पक्षधर हैं कि उन्हें तलाक के बाद अलिमनी मिलती रहे और पुरुष इसलिए विरोध कर रहे हैं कि देना न पड़े कुछ और तर्क यह है कि कुरान में ऐसा नहीं लिखा. अब लिखा, नहीं लिखा, वो तो यही जाने. पहले तो यही साबित नहीं हो पता कि इन पवित्र ग्रन्थों में लिखा क्या है. खैर, मेरी नज़र और नज़रिया किसी भी धर्म या धर्म ग्रन्थ से नहीं बधा है. न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर.
शादी का हक़ जन्म-सिद्ध अधिकार नहीं होना चाहिए. यह Birth Right नहीं होना चाहिए, यह Earned Right होना चाहिए, कमाया हुआ हक़. स्त्री पुरुष दोनों के लिए. और तलाक ट्रिपल नहीं होना चाहिए, सिंगल होना चाहिए. तुरत.
कॉपी राईट
मोदी जी start-up नाम से कोई योजना चलाए हैं.बिज़नस स्टार्ट करना हो तो फाइनेंशियल सपोर्ट. तो मित्रगण, मैं राजनीतिक- समाजिक अभियान स्टार्ट करना चाहता हूँ. बिन पैसे के कुछ होगा नहीं, सिवा सोशल मीडिया पर टीपने के. तो यदि सच में कोई परिवर्तन चाहते हैं कि देश-दुनिया में हो तो मुझे start-up मनी इंतेज़ाम करवाएं. भविष्य का ब्लू-प्रिंट मिलेगा. नक्शा मिलेगा. सब क्लैरिटी के साथ. वरना हम आलोचक चाहे किसी के भी हों, उसे बाहर कर भी दें, तो उसके हटने से जो जगह खाली होगी, उसे भविष्य के साथ परियोजक से तो नहीं भर पायेंगे. और बन्दा हाज़िर है, भविष्य की परियोजना के साथ.बाकी मर्ज़ी है. मैं याद दिलाता रहूँगा गाहे-बगाहे.
दिल्ली में हूँ, जिस किसी को भी भारत के भविष्य की चिंता हो, मुझ से मिल सकते हैं, पैसे की दरकार है, ताकि भारत को एक वैज्ञानिकता दी जा सके, राजनितिक और सामाजिक, हर लिहाज़ से. है कोई माई का लाल तैयार. पूरा ब्लू-प्रिंट मिलेगा, खाली बकवास नहीं. वरना हम आलोचना तो करते रह सकते हैं, चाहे मोदी की हो चाहे किसी और की, लेकिन इनके हटने से जो vaccum पैदा होगा उसकी भरपाई किसी बेहतर इंतेज़ाम से नहीं कर पायेंगे. और वो बेहतर इंतेज़ाम मौजूद है, तुषार कॉस्मिक. डंके की चोट पर.
"हमारी सरकार गरीब के लिए है" मोदी
नहीं, वोट लेते टेम भी बोला करो कि हमें वोट सिर्फ गरीब का चइए. मध्यम वर्ग और अमीर वर्ग वोट और नोट विरोधियों को दे दें. लोकतंत्र की परिभाषा फिर से पढ़ लेते, समझ आ जाता कुछ.
जो भी व्यक्ति/ पार्टी समाज के किसी भी एक वर्ग की नुमाइंदगी पेश करता/करती हो, उसे तो अगले दस साल तक कभी किसी भी चुनाव में खड़े होने का हक़ ही नहीं होना चाहिए और उसके सार्वजानिक भाषणों पर सख्त पाबंदी लगनी चाहिए.
गुर्र्रर्र्र्रर्र्र..........इडियट चुनो और इडियट बनो.
नसबंदी पर पैसे देने चाहियें और
यहाँ गर्भवती होने पर पैसे दिए जाने का एलान.
इडियट आरएसएस, इडियट भाजपा, इडियट मोदी, इडियट भक्त.
IDIOTIC WORDS "HAPPY NEW YEAR"
Existence does not know any old year or old month or old day or old hour or old moment.
For it every moment, every hour, every day, every month, every year is new. Fresh. Full of hope.
It is only the idiotic humans, who need some particular day labelled as first day of a new year to celebrate as "Happy New Year".
Most of the days of an year are Unhappy, hence the humans have to say "HAPPY NEW YEAR" to keep themselves solaced, to keep themselves living in an oblivion.
In-fact humans don't understand the ways of the existence.
The day they understand, you will never hear such idiotic words "HAPPY NEW YEAR" because you will see them happy every moment.
2) TIME
In-fact there is no time, concept of time is just a fallacy.
It is non-existent.
Past is just memory, it does not exist outta memory and future is just an estimate/ imagination, it also does not exist outta imagination.
So now what remains, present.
Present is present always.
Can you call it time without past and without future?
I do not think so.
So, when I talk that one should live in the present, it simply means mind should not indulge in memories or in imaginations too much, rather it should learn to be present in the present also.
3) MY DOUBT REGARDING THEORY OF RELATIVITY
There is a theory in Physics, I have a vague idea, that if someone can move as fast as speed of light, one can travel in time, can go back and forth in time. Perhaps related to Einstein's theory of relativity.
Time is considered 4th dimension.
But I have my doubts. To me time is a Non-entity.
We all just feel that there is something like time, but actually there is nothing.
While looking at a fast moving fan, we feel that there is a wheel, moving wheel, but actually there are only 3 or 4 blades, which are moving so fast that the gaps which human eyes can see is surpassed, giving an illusion of a moving wheel.
We see stars in the sky, but there may be none. Many stars are gone, Only the light emitted by them is approaching us now and giving us an illusion of their entity.
Similarly time is just an illusion.
And if an illusion, how can anyone move back and forth in TIME?
I am not sure.
Comment plz.
4) LIVING IN PRESENT, IS IT POSSIBLE?
I do not think that this theory of living in present is of much value.
The only thing, I understand is, the subconscious should not be omni-potent, omni-present in human life.
The life should not become a victim of sub-consciousness.
But it does not mean that one should always, forcibly try to be conscious, fully conscious.
No, it is not even possible always.
Suppose, you drive a car for the first time, you will have to be conscious of its controls.
But once you become easier, what is the need to always think of clutch and brakes and accelerator.
No, all the jobs can be taken care of by the sub-conscious.
It is a servant, why not use it and think something more valuable.
And while thinking your mind may drift to past, present or future or something imaginary.
This is quite natural.
And this is the way, nothing wrong in it.
It is wrong to force oneself to be present in the present all the times.
No, no.not at all.
But then why all this hue and cry, of remaining conscious and remaining in the present.
There is a reason.
Sub-conscious is great servant but if not checked, it takes the seat of the owner.
The tenant becomes the owner, if never checked.
Hence the need of becoming conscious, remaining in the present.
You can see many people, it seems they are slept even while walking, talking.
Only a few days back, I was chatting with my advocate, she is fighting cases all the times.
In discussion, I refereed to some particular section of an ACT, she said yes, this a legal law.
I was amazed, what did she say?
A legal law.
Can there be an illegal law?
Clearly she uttered these words in a state of sub-consciousness.
Another daily life instance.
I was sitting in HaldiRam a few days back, in Paschim Vihar, Delhi.
An elderly lady slipped from the open stairs and came down sliding at least 10 steps.
Must have suffered multiple fractures.
One reason, I find, that we do not remain conscious to our surroundings.
In a BAT MAN movie, there was dialogue, villain utters while dying, and dialogues of villains are usually very powerful, the villain utters, "I am dying because I did not remain conscious of my surroundings"
So one should remain conscious, where standing, where sitting, where walking, one might not get hurt, injured or meet an accident.
This type of consciousness, I advise.
Not always remaining in the present.
No, never.
I think one must practice remaining in present, conscious. Conscious of one's thoughts, actions. Become conscious. Learn this.
Learn that human views, emotions, actions can be/ are hijacked by the sub-conscious.
First this much understanding be imbibed.
And start seeing oneself, one;s life whenever possible, how much of it is outta sub-consciousness.
The one's who are at new on this subject, I think will be amazed to see that many of their actions are just mechanical.
Years back, I attended a workshop, Landmark Forum, the end result of this workshop was to make us understood that MAN IS A MACHINE.
The whole instance of the saints and not-so-saints on remaining CONSCIOUS is to come outta this MACHINE-NESS.
But what I am trying to point out, it does not mean that we are to force ourselves to remain in present, remain conscious all the times. No, that is literally something impossible.
If it had been a virtue, how could ARCHIMEDES, find out some thing, go on yelling YUREKA, YUREKA, running naked on the road. He must have been taking a bath, but not only taking a bath but thinking something else also, that is why he got the idea.
This reminds me Einstein, I read, that he said that he gets a lot of ideas about galaxies, stars, while playing with soap bubbles.
He was such an absent minded person that he used to forget his destination while travelling in the train, it is said.
How can you be conscious to your surroundings while deeply thinking, pondering, contemplating over an issue?
No. that is impossible.
Mind can not be parted in that way.
It can be parted consciously and sub-consciously, it can not be parted consciously and consciously.
So my point is, it is neither possible nor a virtue to remain in the present always.
Should not be advised.
Then what should be advised?
I think we should all be BEWARED of our sub-consciousness.
We should be taught, trained, how it gets CONDITIONED, how it works.
We should be aware of its working.
We are not here to be VICTIM of sub-consciousness but rather be its MASTERS.
And for that first of all, we should be aware of all this, what I have said.
Sometimes ever mere knowledge is enough.
You become aware that a dangerous spider is walking over your body, mere knowledge is enough for you to get rid of it, immediate action will be there.
But in this matter people should be further trained that while eating, while walking, while drinking, whenever possible they should be conscious .
I am saying one should be conscious, learn the working of the sub-conscious, but I am not saying that one should always be conscious, always remain in the present.
That is literally not possible and even not beneficial, if somehow someone forces oneself to live like that.
That is what, I think, what I live.
NAMSKAAR
TUSHAR COSMIC
COPY RIGHT MATTER
SHARING IS ALLOWED BUT NOT STEALING
"How willingly we go through whatever situations we face decides the quality of our experience and the quality of our life."---- Sadguru Jaggi
"It is not how willingly but how well we go through whatever situations we face decides the quality of our experience and quality of our life."---- Tushar Cosmic
Thursday, 29 December 2016
"गरीब का भला करना गुनाह है"
ये जो लोग गरीब घरों के बच्चों को पढ़ा रहे हैं मुफ्त, या फिर उनको मुफ्त कपड़े-लत्ते दे रहे हैं, खाना दे रहे हैं और समझ रहे हैं, समझा रहे हैं कि बहुत भला कर रहे हैं दुनिया का, इडियट हैं. यह सब दुनिया का भला नहीं, बुरा है गहरे में. ऊपरी तौर पर यह सब बहुत अच्छा लग सकता है बस.
असल भला आप तभी करेंगे, जब आप साथ- साथ नसबंदी कार्यक्रम चलायें. मतलब जबरन नसबंदी से नहीं है.मतलब ऐसा अभियान चलाने से है जो इनको समझाए कि आप आ गए इस दुनिया में तो यह ज़रूरी नहीं कि आगे अपनी कापियां छोड़ के जाओ. "उल्लू मर गए, औलाद छोड़ गए", यह न ही हो तो अच्छा. खुद का वज़न नहीं झेल पा रहे तो आपके बच्चों का वज़न कैसे झेलोगे? आपका और आपके बच्चों का वज़न इस समाज को ही झेलना पड़ेगा.
और उसके लिए सरकार को और ज़्यादा टैक्स वसूलने पडेंगे. जिन लोगों का आपके और आपके बच्चों के जन्म में कोई हाथ-पैर या कोई भी अंग प्रत्यंग (?) नहीं है, उनको पालने के लिए सरकार दूसरों की जेबें काटेगी.
यह सब इन लोगों समझाए बिना, बड़े पैमाने पर समझाए बिना, किसी भी गरीब का कैसा भी भला करना गुनाह है. इस धरती के प्रति अपराध है. आने वाली नस्लों की बर्बादी है.
एक फोटो देखी होगी आपने सोशल मीडिया पर, एक भिखमंगी औरत को दूसरी औरत भीख दे रही है, लेकिन क्या दे रही हैं? कंडोम. चूँकि उस भिखमंगी के इर्द-गिर्द चार-पांच छोटे बच्चे हैं. और तो और पेट भी फूला है. यह फोटो कमाल की है, इसमें पूरा भविष्य छुपा है मानव जाति का. अगर ऐसा न किया गया तो मानव और उसके साथ- साथ पूरी पृथ्वी तबाह होनी निश्चित है.
असल भला आप तभी करेंगे, जब आप साथ- साथ नसबंदी कार्यक्रम चलायें. मतलब जबरन नसबंदी से नहीं है.मतलब ऐसा अभियान चलाने से है जो इनको समझाए कि आप आ गए इस दुनिया में तो यह ज़रूरी नहीं कि आगे अपनी कापियां छोड़ के जाओ. "उल्लू मर गए, औलाद छोड़ गए", यह न ही हो तो अच्छा. खुद का वज़न नहीं झेल पा रहे तो आपके बच्चों का वज़न कैसे झेलोगे? आपका और आपके बच्चों का वज़न इस समाज को ही झेलना पड़ेगा.
और उसके लिए सरकार को और ज़्यादा टैक्स वसूलने पडेंगे. जिन लोगों का आपके और आपके बच्चों के जन्म में कोई हाथ-पैर या कोई भी अंग प्रत्यंग (?) नहीं है, उनको पालने के लिए सरकार दूसरों की जेबें काटेगी.
यह सब इन लोगों समझाए बिना, बड़े पैमाने पर समझाए बिना, किसी भी गरीब का कैसा भी भला करना गुनाह है. इस धरती के प्रति अपराध है. आने वाली नस्लों की बर्बादी है.
एक फोटो देखी होगी आपने सोशल मीडिया पर, एक भिखमंगी औरत को दूसरी औरत भीख दे रही है, लेकिन क्या दे रही हैं? कंडोम. चूँकि उस भिखमंगी के इर्द-गिर्द चार-पांच छोटे बच्चे हैं. और तो और पेट भी फूला है. यह फोटो कमाल की है, इसमें पूरा भविष्य छुपा है मानव जाति का. अगर ऐसा न किया गया तो मानव और उसके साथ- साथ पूरी पृथ्वी तबाह होनी निश्चित है.
Tuesday, 27 December 2016
Sadguru Jaggi is an Idiot
"I refuse to recognise people as Muslims, Christians, or Hindus. I see human beings as human beings."
- Sadguru Jaggi, Founder Isha Foundation
Beings are not beings, he refuses to recognise them as beings, that is his misunderstanding. Right now they are not beings, they are Hindus, Muslims, Sikhs. Machines. Robots. Zombies. Idiots. They were Beings but then the accident happened and they had been turned into Non-beings. Now without the de-hypnotization they can not be bright back. And before that, it is fatal to recognise them as beings.
The POINT, it is better to recognise them as Machines, Robots, Zombies, namely Hindu, Muslim, Sikhs etc., who were BEINGS and who can be BEINGS again.
भारत ने एक से एक लम्बी दाढ़ी वाले इडियट पैदा किये हैं. श्रीमान भी एक हैं. आप मत मानो कि लोग हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई हैं. मत मानो. असल में वो हैं भी नहीं.लेकिन असल में वो असल में हैं ही नहीं. वो ह्यूमन बीइंग हैं ही नहीं. वो मात्र मशीन हैं, रोबोट हैं. अलग अलग नाम के रोबोट. हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई नाम के रोबोट. आप मानते रहो कि वो ह्यूमन बीइंग हैं. हो सकते हैं वापिस ह्यूमन बीइंग, लेकिन अभी नहीं हैं. अभी मशीन हैं. आप मत मानो उनको हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई लेकिन अभी वो हैं हिन्दू , मुस्लिम, ईसाई ही. और आपका उनको अभी इन्सान मात्र मानना आपकी थोपन हैं उन पर, जिसका वास्तविकता से कोई मतलब नहीं.
Monday, 26 December 2016
सोशल मीडिया की मेहरबानी है कि यहाँ हर मुद्दे पर बहस होती है. सोशल मीडिया नई चौपाल है. जनता की संसद है. कॉलेज की कैंटीन है. गली की नुक्कड़ है. विश्व-विद्यालय है. आप क्या सीखते सिखाते हैं, आप पर निर्भर है....इश्कियाना है, गप्पना-गप्पाना है या ढंग का कुछ सीखना-सिखाना है....मर्ज़ी आपकी है, मर्ज़ आपका है.और हाँ, सोशल मीडिया की कुछ सीमाएं भी हैं....अगर नहीं सहमत किसी से, तो अपनी बात कहें शोर्ट में....कुश्ती मत करें, दंगल नहीं. विचार-युद्ध है मल्ल-युद्ध नहीं......अगले ने अपना पॉइंट रखा...आपने अपना...... बस. वैसे भी टाइप करना बोलने से तो मुश्किल ही है...और विचार-युद्ध में शालीनता ही ग्राउंड रूल है....Agree to disagree.
उम्रे छुट्टियाँ माँग के लाये थे चार दिन, दो जाने में कट गये, दो आने में.आधे दायें, आधे बायें, बाकी मेरे पीछे. आधा जाने में, आधा आने में, बाकी समय घूमने में. थकावट उतारने गए थे घूमने और दोगुने थक कर लौटे. लौट के बुद्धू घर को आए, अपना सा मुंह लेकर, वो भी उतरा हुआ. बाकी बोम मारने को अच्छा है कि घूम कर आए, और हाँ, बाद में सेल्फियां देख-दिखा कर नकली खुश होने को भी अच्छा है. इडियट, तुम्हारा सब नकली क्यूँ है रे? मूर्खता को छोड़ कर.
कोई ईसा परमात्मा का इकलौता पुत्र था. जैसे हम सब किसी छोटे खुदा के बच्चे हों?
कोई मूसा समन्दर दो-फाड़ कर देता है.
कोई पैगम्बर चाँद को दो-फाड़ कर देता है.
कोई बन्दर उड़ता है मीलों. पहाड़ उठा लाता है. सूरज निगल लेता है.
किसी के गुरु पंजे से पहाडी से लुड़कती चट्टान रोक देते हैं.
अब यह सब मानो तो आप धार्मिक हैं.
पर आप धार्मिक नहीं, इन्सान के पट्ठे हैं.
पर आप धार्मिक नहीं, इन्सान के पट्ठे हैं.
उल्लू की बे-इज़्ज़ती नहीं करनी चाहिए क्यूंकि वो ऐसी गपोड़ कहानियाँ मानते नहीं देखा गया. यूँ अंदर से तो इंसान भी जानता है कि यह सब बकवास है. इसीलिए ऐसी कहानियों के लिए शब्द है Gospels. जो Gossip शब्द से बना है. जिसका अर्थ है गप्पबाजी. और हिंदी में भी एक शब्द है 'मिथिहास', यानि कि मिथ्या इतिहास, झूठा इतिहास. पता सब को सब है लेकिन मानना किसी ने नहीं कि यह सब नहीं मानना चाहिए.
Saturday, 24 December 2016
Exposed Modi's Swachh Bharat Abhiyan-- पर्दा-फाश मोदी के स्वच्छ भारत अभि...
मार्किट में नया है. टेढ़ा है पर मेरा है. देखिये और टीका टिपण्णी भी टीपीए, हम न नहीं कहेंगे करीना के बापू की तरह.
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"नाम में क्या रखा है"
ग़लत कहा था शेक्सपियर ने कि नाम में क्या रखा है. अगर नहीं रखा, तो क्यूँ नहीं लोग अपना नाम 'कुत्ता' रख लेते? हाँ, कुत्ते का नाम 'टाइगर' ज़रूर रखते हैं.
हम पूछते हैं, "क्या शुभ नाम है आपका?" उसकी वजह है, नाम हमेशा शुभ ही रखे जाते हैं. लेकिन शुभ नाम वाले जब अशुभ सिद्ध हुए तो फिर वो नाम कम ही रखे जाते हैं. जैसे सीता शब्द का अर्थ है, वह रेखा जो जमीन जोतते समय हल की फाल के धँसने से पड़ती जाती है या फिर हल से जुती भूमि. लेकिन फिर भी हिन्दू समाज अपनी बेटियों का नाम जल्दी से सीता नहीं रखता. चूँकि सीता के साथ जैसा हुआ, वो शुभ नहीं था. वो सारी उम्र जंगलों में ही भटकती रही. अब मेघ-नाद शब्द का अर्थ है जिसका आवाज़ बादलों के गर्जन जैसी हो. अब इसमें क्या बुरा है? अगर आवाज़ में दम हो तो बढ़िया है. जैसे अमिताभ बच्चन और राज कुमार अपनी आवाज़ की वजह से आज भी जाने-माने जाते हैं. लेकिन आपने शायद ही यह नाम दुबारा सुना हो. कंस शब्द का अर्थ है कांसा या फिर कांसे का बना कोई बर्तन. इसमें क्या खराबी है? लेकिन चूँकि कंस एक विलन माना जाता है, सो कोई नहीं रखता अपने बच्चे का नाम वैसा. दुर्योधन का असल नाम सुयोधन माना जाता है और दुशाला का सुशाला और दुशासन का सुशासन, लेकिन लोग नाम न दुर्योधन रखते हैं, न सुयोधन रखते हैं, न दुशाला, न सुशाला, न दुशासन न सुशासन.
मतलब यह कि हम सिर्फ यह नहीं देखते कि नाम रखते हुए जो शब्द प्रयोग किया जाए, उसका अर्थ शुभ हो बल्कि हम यह भी देखते हैं कि उस नाम से समाज में कोई अशुभ संदेश न जाता हो, बच्चे के ज़ेहन में कुछ अशुभ फ़लीभूत न हो. यह है शुभ नाम से अर्थ.
बाकी मर्ज़ी तो सभी की अपनी है. जब मुसलमानों को औरंगज़ेब का नाम सड़क से हटाना तक मंज़ूर नहीं हुआ तो तैमूर में कहाँ कोई ख़ामी दिखेगी?
आपके आदर्श क्या हैं, काफ़ी हैं बताने को कि आपकी सोच क्या है. और आपकी सोच काफ़ी है यह बताने को कि आपका एक्शन कैसा होगा. फिर कहते हैं कि हम पर सारी दुनिया ख्वाह्मखाह शक करती है.
नहीं, यह निजी मुद्दा नहीं है...जब ये लोग सेलेब्रिटी बनने के लिए आम-जन के बेड-रूम में घुस-पैठ करते हैं, जगह-जगह अपना सा मुंह दिखाते फ़िरते हैं.....कोई भी बेकार प्रोडक्ट बेचने लगते हैं, मात्र अपने चौखटे के ज़रिये, तो इनका कोई भी मुद्दा निजी नहीं रह जाता. एक बात.
और यह सोशल मीडिया की मेहरबानी है कि यहाँ हर मुद्दे पर बहस होती है. सोशल मीडिया नई चौपाल है. जनता की संसद है. कॉलेज की कैंटीन है. गली की नुक्कड़ है. दूसरी बात.
और कौन सा मुद्दा बड़ा है या छोटा है. इस पर बहुत पहले एक लेख पढ़ा था दसवीं में.पंजाबी में. टाइटल था "छोटियां गल्लां". उसमें लेखक बताता है कि कैसे छोटी समझी जाने वाली बातों ने इतिहास बदल दिया. वाटरलू का युद्ध मात्र एक बदली बरसने से हार गया था नपोलियन. तीसरी बात
कोई बीमार हो और बीमारी के कीटाणु न चाहते हुए भी पूरे मोहल्ले में फैला रहा हो और हम इलाज को कहें तो माने नहीं, कहे कि उसका निजी मुद्दा है. कैसे है निजी मुद्दा? मुद्दा सार्वजानिक है. चौथी बात
ठीक है, अपने बच्चों का नाम कोई चंगेज़ खान रखे या औरंगज़ेब. मर्ज़ी है उसकी, लेकिन उस पर टीका-टिप्पणी करना हमारी मर्ज़ी है. आखिरी बात
हम पूछते हैं, "क्या शुभ नाम है आपका?" उसकी वजह है, नाम हमेशा शुभ ही रखे जाते हैं. लेकिन शुभ नाम वाले जब अशुभ सिद्ध हुए तो फिर वो नाम कम ही रखे जाते हैं. जैसे सीता शब्द का अर्थ है, वह रेखा जो जमीन जोतते समय हल की फाल के धँसने से पड़ती जाती है या फिर हल से जुती भूमि. लेकिन फिर भी हिन्दू समाज अपनी बेटियों का नाम जल्दी से सीता नहीं रखता. चूँकि सीता के साथ जैसा हुआ, वो शुभ नहीं था. वो सारी उम्र जंगलों में ही भटकती रही. अब मेघ-नाद शब्द का अर्थ है जिसका आवाज़ बादलों के गर्जन जैसी हो. अब इसमें क्या बुरा है? अगर आवाज़ में दम हो तो बढ़िया है. जैसे अमिताभ बच्चन और राज कुमार अपनी आवाज़ की वजह से आज भी जाने-माने जाते हैं. लेकिन आपने शायद ही यह नाम दुबारा सुना हो. कंस शब्द का अर्थ है कांसा या फिर कांसे का बना कोई बर्तन. इसमें क्या खराबी है? लेकिन चूँकि कंस एक विलन माना जाता है, सो कोई नहीं रखता अपने बच्चे का नाम वैसा. दुर्योधन का असल नाम सुयोधन माना जाता है और दुशाला का सुशाला और दुशासन का सुशासन, लेकिन लोग नाम न दुर्योधन रखते हैं, न सुयोधन रखते हैं, न दुशाला, न सुशाला, न दुशासन न सुशासन.
मतलब यह कि हम सिर्फ यह नहीं देखते कि नाम रखते हुए जो शब्द प्रयोग किया जाए, उसका अर्थ शुभ हो बल्कि हम यह भी देखते हैं कि उस नाम से समाज में कोई अशुभ संदेश न जाता हो, बच्चे के ज़ेहन में कुछ अशुभ फ़लीभूत न हो. यह है शुभ नाम से अर्थ.
बाकी मर्ज़ी तो सभी की अपनी है. जब मुसलमानों को औरंगज़ेब का नाम सड़क से हटाना तक मंज़ूर नहीं हुआ तो तैमूर में कहाँ कोई ख़ामी दिखेगी?
आपके आदर्श क्या हैं, काफ़ी हैं बताने को कि आपकी सोच क्या है. और आपकी सोच काफ़ी है यह बताने को कि आपका एक्शन कैसा होगा. फिर कहते हैं कि हम पर सारी दुनिया ख्वाह्मखाह शक करती है.
नहीं, यह निजी मुद्दा नहीं है...जब ये लोग सेलेब्रिटी बनने के लिए आम-जन के बेड-रूम में घुस-पैठ करते हैं, जगह-जगह अपना सा मुंह दिखाते फ़िरते हैं.....कोई भी बेकार प्रोडक्ट बेचने लगते हैं, मात्र अपने चौखटे के ज़रिये, तो इनका कोई भी मुद्दा निजी नहीं रह जाता. एक बात.
और यह सोशल मीडिया की मेहरबानी है कि यहाँ हर मुद्दे पर बहस होती है. सोशल मीडिया नई चौपाल है. जनता की संसद है. कॉलेज की कैंटीन है. गली की नुक्कड़ है. दूसरी बात.
और कौन सा मुद्दा बड़ा है या छोटा है. इस पर बहुत पहले एक लेख पढ़ा था दसवीं में.पंजाबी में. टाइटल था "छोटियां गल्लां". उसमें लेखक बताता है कि कैसे छोटी समझी जाने वाली बातों ने इतिहास बदल दिया. वाटरलू का युद्ध मात्र एक बदली बरसने से हार गया था नपोलियन. तीसरी बात
कोई बीमार हो और बीमारी के कीटाणु न चाहते हुए भी पूरे मोहल्ले में फैला रहा हो और हम इलाज को कहें तो माने नहीं, कहे कि उसका निजी मुद्दा है. कैसे है निजी मुद्दा? मुद्दा सार्वजानिक है. चौथी बात
ठीक है, अपने बच्चों का नाम कोई चंगेज़ खान रखे या औरंगज़ेब. मर्ज़ी है उसकी, लेकिन उस पर टीका-टिप्पणी करना हमारी मर्ज़ी है. आखिरी बात
Friday, 23 December 2016
"क्या सिर्फ मोदी-भक्त ही भक्त है?"
संघ ने नब्बे साल पहले एक बीज डाला था. जो पेड़ बना चुका. यह पेड़ नब्बे साल बाद स-फल हो ही गया. इस पर मोदी नाम का फल लगा जिसे कॉर्पोरेट मनी की हवा से फुला कर कुप्पा कर दिया गया. अब क्या संघी और क्या कुसंगी, मोदी-मोदी भज रहे हैं. नारा ही दे दिया,"हर-हर मोदी, घर-घर मोदी".
भक्त क्या मोदी-मोदी भजने वाला ही है? वो तो है ही. लेकिन आप- हम झांके अपने अंदर कि क्या हम भी किसी के भक्त तो नहीं. अंध-भक्त.
क्या हम हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई मात्र इसलिए तो नहीं कि माँ ने दूध के साथ धर्म का ज़हर भी पिला दिया था, बाप ने चेचक के टीके के साथ मज़हब का टीका भी लगवा दिया था? दादा ने प्यार-प्यार में ज़ेहन में मज़हब की ख़ाज-दाद डाल दी थी? नाना ने अक्ल के प्रयोग को ना-ना करना सिखा दिया था? बड़ों ने लकड़ी की काठी के घोड़े दौड़ाना तो सिखाया लेकिन अक्ल के घोड़े दौड़ाने पर रोक लगा दी?
क्या सिर्फ मोदी-भक्त ही भक्त है?
असल में आप-हम सब भक्त हैं.
भक्त क्या, रोबोट हैं.
मशीन हैं.
भक्त सिर्फ मोदी के ही नहीं है. भक्ति असल में खून में है लोगों के. सुना था लोग भगवान के भक्त हुआ करते थे पहले, लेकिन आज तो सचिन तेंदुलकर को ही भगवान मानने लगे. अमिताभ बच्चन, रजनी कान्त और पता नहीं किस-किस के मंदिर बन चुके. सो सिर्फ मोदी-भक्त को ही दोष मत दो. थोड़ा समय पहले तक लोग कहते थे कि वो कांग्रेस को वोट इसलिए देते हैं, चूँकि वो कांग्रेस को वोट देते हैं, चूँकि उनके पिता कांग्रेस को वोट देते थे, चूँकि उनके पिता के पिता कांग्रेस को वोट देते थे. सो सवाल मोदी-भक्ति नहीं है, सवाल 'भक्ति' है. सवाल यह है कि व्यक्ति भक्ति में अपनी निजता को इतनी आसानी से खोने को उतावला क्यूँ है? जवाब है कि इन्सान को आज-तक अपने पैरों पर खड़ा होना ही नहीं आया, वो आज भी किसी चमत्कारी व्यक्ति के इन्तेज़ार में है, वो आज भी भक्तिरत है.
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खबर की कबर
एक ज़माना था सलमा सुलतान, शम्मी नारंग का. क्या शालीनता थी! तब खबर सिर्फ खबर हुआ करती थी. आज तो टीवी खबरनवीस बिना साँस लिए ऐसे बोलते हैं, जैसे खाज खाए हुए कुत्ते इनके पीछे पड़े हों. खबर में मिर्च-मसाले डालते हैं, इतने ज़्यादा कि उसे बदमज़ा कर देते हैं. उसकी चटनी बना देंते हैं. उसे घोटे जायेंगे, पीसे जायेंगे, इतना कि जान ही निकाल देते हैं. आज के खबरनवीस कबरनवीस हैं. खबर को कबर तक पहुंचा कर दम लेते हैं और वक्त-बेवक्त ख़बर को कबर में से फिर-फिर उखाड़ लाते हैं.
whats-app ज्ञान- 4
न्यायालय मे पूरी ईमानदारी से काम होता है।
सचिवालय मे पूरी ईमानदारी से काम होता है
नगरपालिका मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
आटीओ मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
हास्पिटल में पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
इनकम टैक्स डिपार्टमेन्ट मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
सेल्स टैक्स डिपार्टमेन्ट मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
रेलवे डिपार्टमेन्ट मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
पासपोर्ट डिपार्टमेन्ट मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
सरकारी विद्यालयों मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
भारत के संसद मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
मिडिया मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
यहाँ तक की मुरदाघरो मे भी पूरी ईमानदारी से काम होता है।
बस भारत के व्यापारी ईमानदारी से काम नहीं करते ।
जय हो भारत की जनता ।
सचिवालय मे पूरी ईमानदारी से काम होता है
नगरपालिका मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
आटीओ मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
हास्पिटल में पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
इनकम टैक्स डिपार्टमेन्ट मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
सेल्स टैक्स डिपार्टमेन्ट मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
रेलवे डिपार्टमेन्ट मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
पासपोर्ट डिपार्टमेन्ट मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
सरकारी विद्यालयों मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
भारत के संसद मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
मिडिया मे पूरी ईमानदारी से काम होता है ।
यहाँ तक की मुरदाघरो मे भी पूरी ईमानदारी से काम होता है।
बस भारत के व्यापारी ईमानदारी से काम नहीं करते ।
जय हो भारत की जनता ।
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अरुण जेटली,
कैश-बैन,
कैश-लेस,
नोट बैन,
नोट-बंदी,
मोदी,
मोदी सरकार
व्हाट्स- एप - ज्ञान-- 3
पार्टी को:-- 100% छूट।
चोर को:-- 50% छूट ।
जनता को:-- 5000 का भी हिसाब देना पड़ेगा,
समझ नहीं आ रहा है कि ऐसे कौन सा काला धन निकलेगा ??
एक तनख्वाह से कितनी बार टैक्स दूँ और क्यों..........
मैनें तीस दिन काम किया,
तनख्वाह ली - टैक्स दिया
मोबाइल खरीदा - टैक्स दिया
रिचार्ज किया - टैक्स दिया
डेटा लिया - टैक्स दिया
बिजली ली - टैक्स दिया
घर लिया - टैक्स दिया
TV फ्रीज़ आदि लिये - टैक्स दिया
कार ली - टैक्स दिया
पेट्रोल लिया - टैक्स दिया
सर्विस करवाई - टैक्स दिया
रोड पर चला - टैक्स दिया
टोल पर फिर - टैक्स दिया
लाइसेंस बनाया - टैक्स दिया
गलती की तो - टैक्स दिया
रेस्तरां मे खाया - टैक्स दिया
पार्किंग का - टैक्स दिया
पानी लिया - टैक्स दिया
राशन खरीदा - टैक्स दिया
कपड़े खरीदे - टैक्स दिया
जूते खरीदे - टैक्स दिया
किताबें ली - टैक्स दिया
टॉयलेट गया - टैक्स दिया
दवाई ली तो - टैक्स दिया
गैस ली - टैक्स दिया
सैकड़ों और चीजें ली फिर टैक्स दिया, कहीं फ़ीस दी, कही बिल, कही ब्याज दिया, कही जुर्माने के नाम पे तो कहीं रिश्वत देनी पड़ी, ये सब ड्रामे के बाद गलती से सेविंग मे बचा तो फिर टैक्स दिया----
सारी उम्र काम करने के बाद कोई सोशल सेक्युरिटी नहीं, कोई पेंशन नही , कोई मेडिकल सुविधा नहीं, बच्चों के लिये अच्छे स्कूल नहीं, पब्लिक ट्रांस्पोर्ट नहीं, सड़के खराब, स्ट्रीट लाईट खराब, हवा खराब, पानी खराब, फल सब्जी जहरीली, हॉस्पिटल महंगे, हर साल महंगाई की मार,आपदाए, उसके बाद हर जगह लाइनें।।।।
सारा पैसा गया कहाँ????
करप्शन में...........
इलेक्शन मे......
अमीरों की सब्सिड़ी में,
मालिया जैसो के भागने में,
अमीरों के फर्जी दिवालिया होने में,
स्विस बैंकों मे,
नेताओं के बंगले और कारों मे,सूट,बूट, विदेशी यात्राओं में ,रैली पर ,जियो पर
और हमें झण्डू बाम बनाने मे।
अब किस को बोलू कौन चोर है???
आखिर कब तक हमारे देशवासी यूँ ही घिसटती जिन्दगी जीते रहेंगे?????
मैं जितना देश और इस पर चिपके परजीवियों के बारे मे सोचता हूँ, व्यथित हो जाता हूँ।
समय आ गया है कि आगे बढें और ढोंगी ,नाटकबाजों को समझें तथा भक्ती से बाहर निकालें........
चोर को:-- 50% छूट ।
जनता को:-- 5000 का भी हिसाब देना पड़ेगा,
समझ नहीं आ रहा है कि ऐसे कौन सा काला धन निकलेगा ??
एक तनख्वाह से कितनी बार टैक्स दूँ और क्यों..........
मैनें तीस दिन काम किया,
तनख्वाह ली - टैक्स दिया
मोबाइल खरीदा - टैक्स दिया
रिचार्ज किया - टैक्स दिया
डेटा लिया - टैक्स दिया
बिजली ली - टैक्स दिया
घर लिया - टैक्स दिया
TV फ्रीज़ आदि लिये - टैक्स दिया
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सर्विस करवाई - टैक्स दिया
रोड पर चला - टैक्स दिया
टोल पर फिर - टैक्स दिया
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पार्किंग का - टैक्स दिया
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टॉयलेट गया - टैक्स दिया
दवाई ली तो - टैक्स दिया
गैस ली - टैक्स दिया
सैकड़ों और चीजें ली फिर टैक्स दिया, कहीं फ़ीस दी, कही बिल, कही ब्याज दिया, कही जुर्माने के नाम पे तो कहीं रिश्वत देनी पड़ी, ये सब ड्रामे के बाद गलती से सेविंग मे बचा तो फिर टैक्स दिया----
सारी उम्र काम करने के बाद कोई सोशल सेक्युरिटी नहीं, कोई पेंशन नही , कोई मेडिकल सुविधा नहीं, बच्चों के लिये अच्छे स्कूल नहीं, पब्लिक ट्रांस्पोर्ट नहीं, सड़के खराब, स्ट्रीट लाईट खराब, हवा खराब, पानी खराब, फल सब्जी जहरीली, हॉस्पिटल महंगे, हर साल महंगाई की मार,आपदाए, उसके बाद हर जगह लाइनें।।।।
सारा पैसा गया कहाँ????
करप्शन में...........
इलेक्शन मे......
अमीरों की सब्सिड़ी में,
मालिया जैसो के भागने में,
अमीरों के फर्जी दिवालिया होने में,
स्विस बैंकों मे,
नेताओं के बंगले और कारों मे,सूट,बूट, विदेशी यात्राओं में ,रैली पर ,जियो पर
और हमें झण्डू बाम बनाने मे।
अब किस को बोलू कौन चोर है???
आखिर कब तक हमारे देशवासी यूँ ही घिसटती जिन्दगी जीते रहेंगे?????
मैं जितना देश और इस पर चिपके परजीवियों के बारे मे सोचता हूँ, व्यथित हो जाता हूँ।
समय आ गया है कि आगे बढें और ढोंगी ,नाटकबाजों को समझें तथा भक्ती से बाहर निकालें........
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हमारे पैसे हमारे अपने हैं। उन्हें हम नगद खर्च करें या ऑनलाइन - यह हमारी मर्ज़ी है। देश की सरकार को अगर कैशलेस ऑनलाइन व्यवस्था लागू करने की जल्दबाजी है तो बेहतर होगा कि वह इसकी शुरूआत ख़ुद से करके हमारे आगे उदाहरण उपस्थित करे। काले धन की गोद में पली-बढ़ी पार्टियां जब देश को सदाचार का पाठ पढ़ाती है तो गुस्सा तो आएगा ही। हम भारत सरकार के कैशलेस लेन-देन के प्रस्ताव को तबतक के लिए खारिज करते हैं जबतक सरकार हमारी तीन मांगे नहीं मान लेती।
पहली मांग यह कि सरकार क़ानून बनाकर यह सुनिश्चित करे कि भाजपा सहित तमाम राजनीतिक दल भविष्य में कैश में कोई चंदा स्वीकार नहीं करेंगे। उन्हें दिया जाने वाला कोई भी चंदा या दान सिर्फ चेक, डेबिट कार्ड या इलेक्ट्रॉनिक वॉलेट के माध्यम से ही दिया जाए। जैसे हम आयकर रिटर्न दाखिल करते हैं, हर पार्टी वित्तीय वर्ष के अंत में अपने आमद- खर्च का हिसाब अपने वेबसाइट पर ज़ारी करे। इनमें से किसी भी शर्त का उल्लंघन करने वाले दल की मान्यता ख़त्म करने का प्रावधान हो।
दूसरी मांग यह कि देश के सभी दलों के राजनेता उड़नखटोले से घूम-घूमकर महंगी-महंगी रैलियों और जन सभाओं में अपनी बात रखने या चुनाव प्रचार करने के बजाय आम जनता से ऑनलाइन संपर्क ही करें। इसके लिए सरकार एक ऐसे टीवी चैनल की व्यवस्था करे जहां राजनीतिक दलों के लिए अपनी पार्टी का पक्ष रखने का समय निर्धारित हो। राजनेता अगर चाहें तो अपना भाषण रिकॉर्ड कर यूट्यूब या सोशल साइट्स पर डाल दे सकते हैं।
तीसरी और अंतिम मांग यह है कि हैकिंग और कार्ड क्लोनिंग के इस दौर में सरकार या बैंक हमारे पैसों की सौ प्रतिशत सुरक्षा का ज़िम्मा ले। ऑनलाइन लेन-देन में जालसाजी होने पर हमारे पैसे ज्यादा से ज्यादा एक सप्ताह में जांच कर लौटाने की निश्चित व्यवस्था की जाय
जबतक ऐसा नहीं हो जाता, सरकार को हमें कैशलेस हो जाने का सुझाव देने का क्या कोई नैतिक अधिकार है ?
पहली मांग यह कि सरकार क़ानून बनाकर यह सुनिश्चित करे कि भाजपा सहित तमाम राजनीतिक दल भविष्य में कैश में कोई चंदा स्वीकार नहीं करेंगे। उन्हें दिया जाने वाला कोई भी चंदा या दान सिर्फ चेक, डेबिट कार्ड या इलेक्ट्रॉनिक वॉलेट के माध्यम से ही दिया जाए। जैसे हम आयकर रिटर्न दाखिल करते हैं, हर पार्टी वित्तीय वर्ष के अंत में अपने आमद- खर्च का हिसाब अपने वेबसाइट पर ज़ारी करे। इनमें से किसी भी शर्त का उल्लंघन करने वाले दल की मान्यता ख़त्म करने का प्रावधान हो।
दूसरी मांग यह कि देश के सभी दलों के राजनेता उड़नखटोले से घूम-घूमकर महंगी-महंगी रैलियों और जन सभाओं में अपनी बात रखने या चुनाव प्रचार करने के बजाय आम जनता से ऑनलाइन संपर्क ही करें। इसके लिए सरकार एक ऐसे टीवी चैनल की व्यवस्था करे जहां राजनीतिक दलों के लिए अपनी पार्टी का पक्ष रखने का समय निर्धारित हो। राजनेता अगर चाहें तो अपना भाषण रिकॉर्ड कर यूट्यूब या सोशल साइट्स पर डाल दे सकते हैं।
तीसरी और अंतिम मांग यह है कि हैकिंग और कार्ड क्लोनिंग के इस दौर में सरकार या बैंक हमारे पैसों की सौ प्रतिशत सुरक्षा का ज़िम्मा ले। ऑनलाइन लेन-देन में जालसाजी होने पर हमारे पैसे ज्यादा से ज्यादा एक सप्ताह में जांच कर लौटाने की निश्चित व्यवस्था की जाय
जबतक ऐसा नहीं हो जाता, सरकार को हमें कैशलेस हो जाने का सुझाव देने का क्या कोई नैतिक अधिकार है ?
Whats-app ज्ञान--1
प्रिय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी साहब,
नमस्ते,
मेरा नाम प्रसाद है। मेरा Balanagar हैदराबाद में एक छोटा उद्योग है। मेरे उद्योग की प्रति माह आमदनी लगभग 2 लाख रुपये है। इसका मतलब यह प्रति वर्ष 24 लाख रुपये है। ईमानदारी और सच्चाई से सभी छूटों के साथ मेरे द्वारा सरकार को लगभग 3 लाख आयकर का भुगतान किया जाना चाहिए। लेकिन मैं सिर्फ 30,000 भुगतान करता हूँ । क्यूं कर?
मैं एक मध्यम वर्गीय परिवार से हूँ और कड़ी मेहनत और अध्ययन के साथ स्वयं को स्थापित किया । शुरू में मैंने नौकरी की, लेकिन एक एक पैसा बचा कर मैंने अपना उद्योग प्रारम्भ किया। मेरे परिवार की जरूरतों और जीवन यापन के लिए 1 लाख पर्याप्त है और अन्य 1 लाख मैंने अपने भविष्य के लिए निवेश किया (सोने या शेयर या भूमि खरीदने में)
जो एक लाख मैं परिवार के लिए खर्च करता हूँ ,उसमें 30000 परोक्ष रूप से किसी न किसी टैक्स के रूप में सरकार को जा रहा है। किराने का सामान से टीवी और मोबाइल तक के लिए मैं केवल टैक्स में 20 से 30% का भुगतान कर रहा हूँ। अगर मैं ड्रिंक की एक छोटी सी पार्टी का आनंद लेना चाहूँ जिस पर 3000 का खर्च आना है तो 60% सरकार को कर के रूप में जायेगा।
यहाँ तक कि एक लीटर पेट्रोल के लिए 30 रुपये टैक्स के रूप में सरकार को जा रहा है। जब मैंने कार खरीदी अकेले करों के रूप में डेढ़ लाख का भुगतान किया। एक प्लाट के पंजीकरण के लिए मैंने शुल्क के रूप में 1 लाख का भुगतान किया। जिस कॉलोनी में मैं रह रहा हूँ वहां मानक के अनुरूप एक सड़क नहीं है फिर भी मैंने विकास शुल्क के रूप में 50,000 का भुगतान किया।
सरकारी अस्पतालों में मरीजों की दुर्दशा देखकर और निजी अस्पतालों की लूटपाट प्रकृति के कारण, मैंने अपने परिवार के सदस्यों के लिए एक स्वास्थ्य बीमा पॉलिसी ले लिया और बेशर्मी यह कि इसपर भी मुझसे सेवा कर चार्ज किया गया।
सरकार लुटेरों की तरह हर जगह टैक्स वसूल रही है यहाँ तक कि शमशान में भी। पर बदले में दे क्या रही है ?
अगर हम अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में दाखिल कराएं तो क्या हमें वहां उनके कुछ सीखने का भरोसा होगा ? यदि हम सरकारी अस्पतालों में इलाज के लिए जाएं तो क्या हमारे ज़िंदा वापस आने की कोई उम्मीद है ? देश के रक्षा क्षेत्र के अतिरिक्त अन्य कहीं हम समझ नहीं रहे हैं कहीं विकास कार्य हो रहा है । एक कार खरीदने जाएँ, वहाँ सड़क कर लग रहा है, सड़क पर आते हैं वहाँ टोल टैक्स है। क्या हम हर जगह ठगे नहीं जा रहे महोदय ?
करों के रूप में जो भुगतान हम कर रहे हैं वह पैसा कहाँ जा रहा है ? मैं अपने कर्मचारियों के वेतन में वृद्धि से पहले उनके काम का मूल्यांकन करता हूँ, लेकिन सरकार क्या कर रही है? कोई सरकारी कर्मचारी काम करता है या नहीं इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता उन्हें समान वेतन वृद्धि मिलती है। हमारा पैसा इतना सस्ता क्यों है सर? हमारे टैक्स से ऊंचे वेतन लेने वाले लोग हमारे ही काम नहीं करते हैं। कार्यालय का समय 10 बजे है लोग11 पर आते हैं और रिश्वत के बिना लैश मात्र भी क़दम नहीं बढ़ाते । इसलिए, हमें बताएं, क्यों हमें करों का भुगतान करना चाहिए? अपने उद्योग के लिए निर्बाध बिजली लेने के लिए मुझे रिश्वत देनी पड़ती है । सब मिला कर मैं प्रति माह रिश्वत के रूप में लगभग 10000 भुगतान करता हूँ । सर मैं व्हाइट मनी में इस रिश्वत को कैसे दिखा सकता हूँ??
बस यही कारण है कि हमें सरकारों को कर का भुगतान करने से नफरत है। सर इसका मतलब यह नहीं है कि मेरी कोई सामाजिक जिम्मेदारी नहीं है। जब आपने सेना कोष के लिए मदद करने की अपील की मैंने 10000 दिए । मैं 20000 मेरे पड़ोस में एक अनाथालय के लिए हर साल देता हूँ और मेरे पिता के नाम पर 1 लाख का दान दिया था जब मेरे गांव के लोगों ने कहा कि वे स्कूल का उत्थान करना चाहते हैं । लेकिन खेद है सर, सरकार को कर का भुगतान करने के लिए मेरे पास वही दिल नहीं है!
वैसे भी, यह अतीत है। अब हम सफेद में सब कुछ देखेंगे। चूंकि आपने निश्चय कर लिया है तो मैं 10 लाख पर 30% कर का भुगतान करके अपने धन को सफेद कर लूँगा । लेकिन मुझे विश्वास है कि 10000 रिश्वत हर महीने देने की जरूरत नहीं है? या फिर आप लोगों को अनुमति देंगे कि चेक के रूप में भी रिश्वत स्वीकार करें?
मैंने अभी नेताओं की तो बात ही नहीं की ! एक सड़क छाप नेता से लेकर MLA तक और सभी पार्टी के इलेक्शन फण्ड में भी हमें देना है। अगर मैं ऐसा न करूँ तो बर्बाद कर दिया जाऊँगा। क्या आप ऐसे फंड्स को केवल चेक से स्वीकार करने का अधिनियम लाएंगे? क्या पार्टी फंड जनता के सामने खोल कर रखा जाएगा?
पहले से ही हम इतने सारे करों का भुगतान कर रहे हैं, बदले में सरकार हमें क्या दे रही है। सर हम राजनेताओं की विलासितापूर्ण जीवन के लिए या निकम्मे सरकारी कर्मचारियों के वेतन के लिए करों का भुगतान नहीं कर सकते । हम जितना संभव होगा भुगतान नहीं करने की कोशिश करेंगे।
अगले 10 वर्षों में देश में हम फिर से काले धन की भारी वृद्धि देखेंगे। क्या एक बार फिर demonetization हो सकता है? सर हमने आप को इसलिए नहीं चुना है। आप हमारा विश्वास जीतें , जिन करों का हम भुगतान कर रहे हैं उनके साथ न्याय करें, तभी लोगों का सरकारों में विश्वास बहाल होगा। हम आप का समर्थन करने के लिए तैयार हैं, और आप के एक्शन का इंतजार कर रहे हैं !
आपका - एक मतदाता
नमस्ते,
मेरा नाम प्रसाद है। मेरा Balanagar हैदराबाद में एक छोटा उद्योग है। मेरे उद्योग की प्रति माह आमदनी लगभग 2 लाख रुपये है। इसका मतलब यह प्रति वर्ष 24 लाख रुपये है। ईमानदारी और सच्चाई से सभी छूटों के साथ मेरे द्वारा सरकार को लगभग 3 लाख आयकर का भुगतान किया जाना चाहिए। लेकिन मैं सिर्फ 30,000 भुगतान करता हूँ । क्यूं कर?
मैं एक मध्यम वर्गीय परिवार से हूँ और कड़ी मेहनत और अध्ययन के साथ स्वयं को स्थापित किया । शुरू में मैंने नौकरी की, लेकिन एक एक पैसा बचा कर मैंने अपना उद्योग प्रारम्भ किया। मेरे परिवार की जरूरतों और जीवन यापन के लिए 1 लाख पर्याप्त है और अन्य 1 लाख मैंने अपने भविष्य के लिए निवेश किया (सोने या शेयर या भूमि खरीदने में)
जो एक लाख मैं परिवार के लिए खर्च करता हूँ ,उसमें 30000 परोक्ष रूप से किसी न किसी टैक्स के रूप में सरकार को जा रहा है। किराने का सामान से टीवी और मोबाइल तक के लिए मैं केवल टैक्स में 20 से 30% का भुगतान कर रहा हूँ। अगर मैं ड्रिंक की एक छोटी सी पार्टी का आनंद लेना चाहूँ जिस पर 3000 का खर्च आना है तो 60% सरकार को कर के रूप में जायेगा।
यहाँ तक कि एक लीटर पेट्रोल के लिए 30 रुपये टैक्स के रूप में सरकार को जा रहा है। जब मैंने कार खरीदी अकेले करों के रूप में डेढ़ लाख का भुगतान किया। एक प्लाट के पंजीकरण के लिए मैंने शुल्क के रूप में 1 लाख का भुगतान किया। जिस कॉलोनी में मैं रह रहा हूँ वहां मानक के अनुरूप एक सड़क नहीं है फिर भी मैंने विकास शुल्क के रूप में 50,000 का भुगतान किया।
सरकारी अस्पतालों में मरीजों की दुर्दशा देखकर और निजी अस्पतालों की लूटपाट प्रकृति के कारण, मैंने अपने परिवार के सदस्यों के लिए एक स्वास्थ्य बीमा पॉलिसी ले लिया और बेशर्मी यह कि इसपर भी मुझसे सेवा कर चार्ज किया गया।
सरकार लुटेरों की तरह हर जगह टैक्स वसूल रही है यहाँ तक कि शमशान में भी। पर बदले में दे क्या रही है ?
अगर हम अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में दाखिल कराएं तो क्या हमें वहां उनके कुछ सीखने का भरोसा होगा ? यदि हम सरकारी अस्पतालों में इलाज के लिए जाएं तो क्या हमारे ज़िंदा वापस आने की कोई उम्मीद है ? देश के रक्षा क्षेत्र के अतिरिक्त अन्य कहीं हम समझ नहीं रहे हैं कहीं विकास कार्य हो रहा है । एक कार खरीदने जाएँ, वहाँ सड़क कर लग रहा है, सड़क पर आते हैं वहाँ टोल टैक्स है। क्या हम हर जगह ठगे नहीं जा रहे महोदय ?
करों के रूप में जो भुगतान हम कर रहे हैं वह पैसा कहाँ जा रहा है ? मैं अपने कर्मचारियों के वेतन में वृद्धि से पहले उनके काम का मूल्यांकन करता हूँ, लेकिन सरकार क्या कर रही है? कोई सरकारी कर्मचारी काम करता है या नहीं इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता उन्हें समान वेतन वृद्धि मिलती है। हमारा पैसा इतना सस्ता क्यों है सर? हमारे टैक्स से ऊंचे वेतन लेने वाले लोग हमारे ही काम नहीं करते हैं। कार्यालय का समय 10 बजे है लोग11 पर आते हैं और रिश्वत के बिना लैश मात्र भी क़दम नहीं बढ़ाते । इसलिए, हमें बताएं, क्यों हमें करों का भुगतान करना चाहिए? अपने उद्योग के लिए निर्बाध बिजली लेने के लिए मुझे रिश्वत देनी पड़ती है । सब मिला कर मैं प्रति माह रिश्वत के रूप में लगभग 10000 भुगतान करता हूँ । सर मैं व्हाइट मनी में इस रिश्वत को कैसे दिखा सकता हूँ??
बस यही कारण है कि हमें सरकारों को कर का भुगतान करने से नफरत है। सर इसका मतलब यह नहीं है कि मेरी कोई सामाजिक जिम्मेदारी नहीं है। जब आपने सेना कोष के लिए मदद करने की अपील की मैंने 10000 दिए । मैं 20000 मेरे पड़ोस में एक अनाथालय के लिए हर साल देता हूँ और मेरे पिता के नाम पर 1 लाख का दान दिया था जब मेरे गांव के लोगों ने कहा कि वे स्कूल का उत्थान करना चाहते हैं । लेकिन खेद है सर, सरकार को कर का भुगतान करने के लिए मेरे पास वही दिल नहीं है!
वैसे भी, यह अतीत है। अब हम सफेद में सब कुछ देखेंगे। चूंकि आपने निश्चय कर लिया है तो मैं 10 लाख पर 30% कर का भुगतान करके अपने धन को सफेद कर लूँगा । लेकिन मुझे विश्वास है कि 10000 रिश्वत हर महीने देने की जरूरत नहीं है? या फिर आप लोगों को अनुमति देंगे कि चेक के रूप में भी रिश्वत स्वीकार करें?
मैंने अभी नेताओं की तो बात ही नहीं की ! एक सड़क छाप नेता से लेकर MLA तक और सभी पार्टी के इलेक्शन फण्ड में भी हमें देना है। अगर मैं ऐसा न करूँ तो बर्बाद कर दिया जाऊँगा। क्या आप ऐसे फंड्स को केवल चेक से स्वीकार करने का अधिनियम लाएंगे? क्या पार्टी फंड जनता के सामने खोल कर रखा जाएगा?
पहले से ही हम इतने सारे करों का भुगतान कर रहे हैं, बदले में सरकार हमें क्या दे रही है। सर हम राजनेताओं की विलासितापूर्ण जीवन के लिए या निकम्मे सरकारी कर्मचारियों के वेतन के लिए करों का भुगतान नहीं कर सकते । हम जितना संभव होगा भुगतान नहीं करने की कोशिश करेंगे।
अगले 10 वर्षों में देश में हम फिर से काले धन की भारी वृद्धि देखेंगे। क्या एक बार फिर demonetization हो सकता है? सर हमने आप को इसलिए नहीं चुना है। आप हमारा विश्वास जीतें , जिन करों का हम भुगतान कर रहे हैं उनके साथ न्याय करें, तभी लोगों का सरकारों में विश्वास बहाल होगा। हम आप का समर्थन करने के लिए तैयार हैं, और आप के एक्शन का इंतजार कर रहे हैं !
आपका - एक मतदाता
Thursday, 22 December 2016
चन्दू ने गलती से एक अच्छा सा कच्छा क्या ऑनलाइन आर्डर कर दिया, वो तो कल से लगे हैं उसे बताने कि आपकी शिपमेंट यहाँ पहुँच गयी, यहाँ तक पहुँच गयी, बस पहुँचने ही वाली है...बस पहुँची कि पहुँची. मैसेज बॉक्स भरता जा रहा है और चन्दू की घबड़ाहट बढ़ती जा रही है....कच्छा ही आर्डर किया था या कुछ और? यह शिप से क्या भेजा जा रहा है? शायद VIP का कच्छा आर्डर करो तो VIP हो जाता है इन्सान, सो कच्छा भी समुद्री जहाज़ से भेजा जाता हो? चन्दू बेहद दुविधा में है.
Wednesday, 21 December 2016
Tuesday, 20 December 2016
Sunday, 18 December 2016
Saturday, 17 December 2016
Thursday, 15 December 2016
“HOLYSHIT”
यह बहुत ही कीमती शब्द है. कई बार कोई एक शब्द ही ढोल की पोल खोल देता है. यह एक शब्द काफ़ी है, विभिन्न तथा-कथित संस्कृतियों को छिन्न-भिन्न करने को. इस शब्द का अर्थ है 'पवित्र टट्टी'. मतलब जो कुछ भी पवित्र समझा जाता है, धार्मिक माना जाता है, टट्टी है. वाह! इससे आसान और कैसे समझाया जा सकता है? वाह! HOLYSHIT!! #पवित्र#टट्टी!!!
"जो बीवी से करे प्यार, प्रेस्टीज से कैसे करे इनकार?"
#नास्तिक कोई हो ही नहीं सकता....नास्तिक में भी #आस्तिक है......#अस्तित्व से कैसे कोई इनकार कर सकता है? जो अस्तित्व से इनकार करे उसे खुद के होने से इनकार करना होगा. करता रहे. कोर्ट भी आपकी न को ऐसे ही नहीं मानती, उसका भी सबूत देना होता है. और यहाँ सबूत मांगने वाला खुद ही सबूत है.पहले इस्तेमाल करे फिर विश्वास करें. कर ही रहे खुद को बरसों से इस्तेमाल, फिर भी #विश्वास नहीं है तो कोई क्या करे?
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