Friday, 21 April 2017

ऋषियों की तपस्या भंग करने के लिए उर्वशी, मेनका जैसी अप्सराएं बनीं थीं
और
डाइटिंग करते लोगों की तपस्या भंग करने के लिए नाना और दादा प्रकार के व्यंजन बने हैं.

कौन है पैगम्बर ,गुरु, अवतार

हर वो बात जिससे दुनिया में बेहतरी आती हो
आयत है, धुर की बाणी है, भगवत गीता है
और
ऐसी बात करने वाला हर शख्स 
पैगम्बर है, गुरु है, अवतार है
और 
जो यह बात न समझे वो
उल्लू नहीं है, गधा नहीं है, बंदर नहीं है
बस 
इडियट है.

राजनीति में पदार्पण का विचार

कांटे को निकालने के लिए काँटा प्रयोग करना होता है कहते हैं कि कीचड़ में पत्थर मारोगे तो छींट खुद पर भी पडेंगी. लेकिन कीचड़ को साफ़ करने के लिए कीचड़ में उतरना पड़ता है दीवार को साफ़ रखने के लिए "यहाँ न थूकें" जितना लिख कर खराब करना ही पड़ता है. करना पड़ता है. इसे विज्ञान की भाषा में 'नेसेसरी ईविल' कहते हैं बुराई है लेकिन ज़रूरी बुराई है. नेसेसरी ईविल. जैसे फ्रिक्शन. यानि घर्षण. इससे गति में बाधा पड़ती है. जितनी ज़्यादा होगी फ्रिक्शन, उतनी गति घटती जायेगी लेकिन अगर फ्रिक्शन जीरो होगी तो गति बिलकुल नहीं होगी. जैसे मानो फर्श पर तेल गिरा हो, ऐसे चिकने तल पर आगे बढ़ना लगभग असम्भव हो जाता है. लेकिन अगर किसी सरफेस पर बहुत पत्थर हों, खड्डे हों तो भी चलना मुश्किल हो जाता है.नेसेसरी ईविल. सोचता हूँ राजनीति, जिसमें कोई नीति नहीं, उसमें चला ही जाऊं. नहीं?

Wednesday, 19 April 2017

MCD

मेरी गली में जो सफाई कर्मचारी है, उसने आगे लड़के रखे हैं, कम सैलरी पर, वो उठाते हैं, कूड़ा, जितना भी उठाते हैं.

MCD के काम देखते हुए इनके वेतन बढ़ाने नहीं घटाने चाहियें...वैसे तो लगभग सभी सरकारी कर्मचारियों के वेतन बहुत ज़्यादा हो चुके हैं, छुट्टियाँ बहुत ज़्यादा हैं, भत्ते बहुत ज़्यादा हैं और इनके कामों पर कोई अंकुश है नहीं, तभी तो हर कोई सरकारी नौकरी के लिए मरा जाता है.

भाजपा ने जगह-जगह ये बड़े होर्डिंग लगाये हैं, MCD की उपलब्धियां लिखी हैं. एक भी बोर्ड ऐसा नहीं जिसपे लिखा हो कि हमने दिल्ली की सफाई की है या करेंगे.


Political Correctness

अभी-अभी एक पोस्ट नाज़िल हुई है मुझ पर. हाज़िर है.

"एक शब्द-संधि है "Political Correctness". इसका अर्थ समझने लायक है, मतलब व्यक्ति जिसे सही कहता है या जिसे गलत कहता है, वो यह इसलिए नहीं कहता कि उसे वो सही लगता है या गलत लगता है. नहीं, ऐसा वो इसलिए कहता है कि राजनैतिक तौर पर ऐसा कहना उसके लिए सही है, करेक्ट है, फायदेमंद है. Political Correctness. भारत में यह टर्म बहुत कम प्रयोग होती है, होनी चाहिए, शातिरों को एक्सपोज़ करती है यह टर्म. दूसरी टर्म है "Social Correctness". इसका मतलब आप खुद ही समझ चुके होंगे. इसे भी प्रयोग होना चाहिए."

Sunday, 16 April 2017

क्यों वोट दें "आप " को, दिल्ली MCD चुनाव में?

नमस्कार मित्रो,
मैं तुषार कॉस्मिक.

पिछले ऑडियो में मैंने बताया था कि क्यूँ आप सबको वोट भाजपा या कांग्रेस को न देकर सिर्फ आम आदमी पार्टी को ही देना चाहिए.

इस ऑडियो में बात आगे बढ़ाता हूँ लेकिन स्थानीय मुद्दों को मद्दे-नज़र रखते हुए.

मैं पश्चिम विहार, A-4 में रहता हूँ. हमारे पास एक park है राजीव गांधी park.

पहले तो मुझे park का यह नाम ही नहीं जमता. गांधी परिवार के अलावा भी अनेक लोगों का योगदान है इस मुल्क को आगे बढ़ाने में.

लेकिन एअरपोर्ट तो इंदिरा गांधी, मेट्रो स्टेशन तो राजीव गांधी, सब तरफ गांधी ही गांधी. यह गांधी की गंध से कब आज़ाद होंगे हम?

कब भगत सिंह, चन्द्रशेखर आज़ाद, विवेकानन्द, लाला लाजपत रॉय, चित्त्गाँव के मास्टर दा, सी वी रमन, रामानुजन जैसे लोगों के प्रति अपना सम्मान पेश करेंगे? यह एक ही परिवार की गुलामी कब छोडेंगे हम?

कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी और सोनिया गांधी, उनके पल्ले बस एक ही बात है कि वो गांधी परिवार से हैं. दूसरी कोई योग्यता है क्या इनके पल्ले. योग्यता, जिस के दम पर ये दोनों मुल्क को नेतृत्व दे सकते हैं? कुछ नहीं.

खैर, जनवरी, दो हजार सोलह में एक ई-मेल किया था मैंने हमारी पार्षद रेनू काम्बोज जी को. जिसमें मैंने इस park के विषय में बिन्दुवार कुछ सुझाव दिए थे. हालांकि नतीजा जीरो आया था लेकिन ई-मेल आज भी मेरे पास ऑन-रिकॉर्ड हैं, कॉपी कोई भी मित्र मुझ से ले सकते हैं.

इस ई-मेल में पहला पॉइंट था कि park में प्ले-ग्राउंड और सिटींग एरिया को अलग-अलग नहीं दिखाया गया है. तो होता यह है कि जहाँ लैंड-स्केपिंग की गई है, वहां लोग-बाग़ बैठते हैं उनका बैठना सही भी है, लेकिन वहीं बच्चे क्रिकेट खेलते हैं, फुटबाल खेलते हैं, तो क्यूँ न आप बोर्ड लगवा दें कि जिससे पता लगे कि खेलने के लिए कौन सा एरिया है और बैठने के लिए कौन सा?

अगला पॉइंट था, park में कुत्ते बहुत होते हैं और तो और स्थानीय लोग भी अपने कुत्ते घुमाते हैं तो पहले तो ऐसे गेट लगाये जा सकते हैं कि जानवर न पार न जा पायें, दूजा कुत्ते न घुमाएं जाएँ, ऐसे बोर्ड भी क्यूँ न लगाये जाएँ?

तीसरा पॉइंट था कि park के एक हिस्से के बीचों-बीच एक सीमेंट का चबूतरा बना है, शायद स्केटिंग के लिए, लेकिन इस चबूतरे की वजह से वो सारा हिस्सा ही ठीक से प्रयोग नहीं हो पाता, वरना park का वो टुकड़ा, एक बड़े मैदान के तौर पर प्रयोग होता, जहाँ फ़ुटबाल, क्रिकेट आदि खेला जा सकता था. और स्केटिंग वहां करता भी नहीं कोई.

पांचवा पॉइंट था, कि लोग देवी-देवता की फोटो-मूर्ती पेड़ों के इर्द-गिर्द विसर्जित करते हैं, मना करो भाई उनको, बोर्ड लगाओ मनाही के, ऐसे park इन कामों के लिए थोड़ा हैं. विसर्जन करें जैसे भी, लेकिन स्थानीय park में नहीं.

छठा पॉइंट था, park में रेगुलर सफाई नहीं है, सफाई करायें. सन्दर्भ के लिए बता दूं कि अभी कुछ दिन पहले तक जहाँ फाइबर का झूला लगा है, वहां कूड़े को ढेर किया जाता था और वहीं कूड़ा जलाया भी जाता था, यह तो था सफाई का हाल.

सातवां पॉइंट था, वाल्किंग के लिए जो ट्रैक बनाया गया है, वहां जो सख्त पत्थर बिछे हैं, वो हटा लिए जाएँ. चूँकि पत्थरीला सरफेस न तो दौड़ने के लिए अच्छा माना जाता है और न ही चलने के लिए. घुटनों, टखनों और अन्य जोड़ों पर कुप्रभाव पड़ता है सख्त तल पर लगातार दौड़ने चलने से. और यह मूर्खता मुल्क भर में चलती है.

इस में चौथा पॉइंट मैंने स्किप किया था जान-बूझ कर. आखिरी में पेश करने को. चौथा पॉइंट park के कोने में बने टॉयलेट को लेकर था. मैंने लिखा कि यह टॉयलेट ऐसा है कि न वहां कोई लाइट का इंतेज़ाम है, न सफाई कर्मचारी है, न पानी का इंतेज़ाम है और यह अलग-थलग सा पड़ा है, जहाँ कोई नहीं जाता.

और अब मुझे पता लगा कि इस टॉयलेट को बनवाने में छ लाख से ज़्यादा खर्च किये गए. rti लगा पता किया है मित्रों ने. वैरी गुड. धेले का नहीं है यह टॉयलेट. आज तक एक भी बन्दा इसे प्रयोग करता मैंने नहीं देखा है. है ही ऐसी बेतुकी जगह कि कोई क्या प्रयोग करेगा? और ज़रूरत भी क्या ऐसे पार्कों में टॉयलेट की. सब तरफ आबादी है सटी हुई, जिसने जाना है टॉयलेट अपने घर जायेगा, यहाँ क्या इतनी मारा-मारी? जहाँ भी बनायेंगे बदबू भरेंगे. इस टॉयलेट की ज़रूरत किसे थी? निश्चित ही यहाँ के वासियों को तो थी नहीं. बाकी आप खुद नतीजा निकालें.

मित्रो, आपका घर पचास गज का हो, सौ गज का हो, एक एक इंच सही प्रयोग हो, एक एक पैसे का सदुपयोग हो, आप प्रयास करते हैं. करते हैं कि नहीं? पंजाबी की कहावत है, “सांझा बाप न रोवे कोई?” यहाँ सांझी ज़मीन है, सांझा पैसा है तो कोई सही डिजाइनिंग नहीं है, कोई वैज्ञानिक समझ नहीं है, बस जहाँ मर्ज़ी landscaping कर दी, जहाँ मर्ज़ी स्केटिंग की जगह बना दी, जहाँ मर्ज़ी टॉयलेट बना दिए, जहाँ मर्ज़ी ये बड़े बड़े बेतुके से गेट खड़े कर दिए, जिनकी कोई उपयोगिता नहीं.

आज भी भाजपा के समय के लगाये लोहे के पुराने झूले टूटे-फूटे पड़े हैं उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं. जनता तो पागल है न उसे दिखाता कहाँ है? भाजपा जो पार्कों में फाइबर के झूले लगाने के होर्डिंग लगवा रही है उसे इस park के पुराने झूलों के दर्शन करवा दिए जाएँ. मामला साफ़ हो जायेगा, किसी को कुछ समझाना नहीं पड़ेगा.

कांग्रेस के एक पार्षद ने तो इस park में चार-पांच फुट की ऊंचाई के पिलरों पर बल्ब लगवा दिए थे. चार हफ्ते नहीं चले वो बल्ब. सब टूट-फूट गए. ज़रा कॉमन सेंस नहीं लगाई. अपने घर के बाहर आप छोड़ दीजिये चार फुट की ऊंचाई पर CFL, कुछ दिन बाद न CFL बचेगा, न होल्डर.

पुरानी बात है, कांग्रेस थी पॉवर में. A-4 फ्लैट्स की एंट्री पर कूड़ेदान हुआ करता था, लोग कूड़े से पहले ही परेशान थे, मोबाइल टॉयलेट और खड़ा करवा दिया लाकर, वहां पर. उस समय वहां झुग्गियां थीं और कांग्रेस के लिए वो वोट-बैंक था. याद रखियेगा कांग्रेस का वह दौर, जो आज कहती है, “अनुभव है उनके पास”. अनुभव दिल्ली को गंद-खाना बनाने का, लूटने का.

सर्विस लेन के खांचे कूड़े से भरे पड़े हैं, व्यक्तिगत खर्चे से साफ़ करवाते हैं लोग. और ऐसा इसलिए है कि कोई सुध लेने वाला नहीं है कि घरों से निकलने वाले मल की सही निकासी हो रही है कि नहीं.

ये जो स्थानीय मुद्दे पेश किये हैं मैंने, ये कोई मेरी ही स्थान के हों ऐसा बिलकुल भी नहीं है. आप जहाँ भी रहते हों, ऐसे ही मुद्दे आपके स्थान के इर्द-गिर्द भी बिखरे होंगे. ये मुद्दे यत्र-तत्र-सर्वत्र हैं.

और ये मुद्दे काफी हैं साबित करने को कि वोट भाजपा को नहीं जाना चाहिए, वोट कांग्रेस को नहीं जाना चाहिए.

एक और बात, आम आदमी पार्टी का एलान है कि हाउस-टैक्स माफ़ करेंगे. हालाँकि केजरीवाल जी ने बता दिया है कि MCD एक्ट के कौन से सेक्शन के तहत वो ऐसा कर सकते हैं, फिर भी सोशल मीडिया पर चिल्लम-चिल्ली है कि उनके पास पॉवर ही नहीं होगी ऐसा करने की. यह विरोध साबित करता है कि विपक्षियों के दिल में दिल्लीवासियों के लिए ज़रा प्यार, ज़रा दर्द नहीं है. अगर होता तो कहते कि ठीक है, अगर केजरीवाल दिल्ली की जनता को कैसी भी राहत दे पायेंगे तो हम उनका साथ देंगे, साथ देंगे अगर उनके पास पॉवर नहीं भी होगी तो भी, उनको कानूनी तन्त्र-मन्त्र में नहीं उलझायेंगे, जन-तन्त्र की मूल भावना का ख्याल रखेंगे. लेकिन जनता के लिए वाकई प्रेम हो तब न. देश किनसे बनता है? देश-वासियों से. और यदि देश-वासियों से प्रेम नहीं तो  देश-प्रेम का नारा मात्र जुमला है, चुनावी जुमला. और मित्रो, विपक्षियों का देश प्रेम वाकई जुमला है, शिगूफा है, फरेब है, चूँकि विपक्ष चाहता ही नहीं कि दिल्ली की जनता को कोई राहत मिले. याद रखियेगा, इसी विपक्ष ने दिल्ली में कूड़ा-कूड़ा कर दिया, इसी विपक्ष ने दिल्ली में बीमारियाँ फैलायीं, इसी विपक्ष ने आपको केजरीवाल को चुनने की सज़ा दी, आज मौका है, आप अपने वोट की ताकत से इनको सज़ा दें.

तो मित्रो, वोट सिर्फ आम आदमी पार्टी को वोट दीजिये. इनके कैंडिडेट को आज़मा कर देखिये. ये कोई हमारे रिश्तेदार नहीं बन जायेंगे, यह कोई हिन्दू मैरिज एक्ट के तहत शादी नहीं होने जा रही जिसमें तलाक़ मुश्किल है, कोई सात जन्मों का, जन्म-जन्मान्तर का बंधन नहीं बंधने जा रहा. नहीं, मात्र तीन साल बाद चुनाव फिर होंगे. नहीं काम करेंगे तो इनको भी धक्का दे दीजियेगा. लेकिन अभी आपके वोट पर सिर्फ हक़ आम आदमी पार्टी का है, और किसी का नहीं.

सुनने के लिए धन्यवाद...फिर से नमस्कार...मैं तुषार

Saturday, 15 April 2017

मेरा लेखन ---- नक्कार-खाने की तूती

शुरू-शुरू में प्रियंका त्रिपाठी ने जब मेरा लिखा पढ़ा तो उनको बिलकुल यकीन नहीं हुआ कि यह सब बकवास मैं खुद लिख रहा हूँ. उन्होंने तमाम ढंग से मेरे लिखे को टैली किया, कहाँ से कॉपी मार रहा हूँ? गूगल, फेसबुक सब खंगाल दिया. बहुत मुश्किल से उन्हें मेरी बक-बक करने की क्षमता पर भरोसा हुआ. ऑनलाइन छोड़ दूं तो घर हो या बाहर, मेरे लिखे को कोई टके सेर नहीं पूछता, कोई पढ़ता नहीं, पढ़ता छोड़ो देखता तक नहीं, देखता छोड़ो कोई थूकता तक नहीं, तो भी अपनी पड़ोसन को ज़बरन सुना रहा था एक बार. सुनने के बाद बोलीं, "अच्छा लिखा है भैया, आपने लिखा है यह सब?" मैं उनका मुंह ताकता रहा. अभी-अभी फेसबुक पर कोई भाई लिख रहा था कि फेसबुक पर लिखने से कुछ नहीं होगा. यहाँ भी मित्र लिखते हैं अक्सर,"लिखिए, लेकिन छोटा लिखिए". बिलकुल असहमत हूँ उनकी इस बात से. मैंने तो कल ही लिखा एक पाठक को, कि यदि आपको मेरा लेखन लम्बा लगता है तो आप मेरे लिखे को पढने के हकदार ही नहीं हैं, विदा लीजिये. आप सेक्स करते हैं तो उसे छोटा रखना चाहते हैं या चाहते हैं कि चलता रहे? जब आप छोटा लिखे की आशा करते हैं तो इसका मतलब है, आप मेरे लिखे को जल्द खत्म हुआ चाहते हैं. आप कोई बड़ा नावेल कैसे पढ़ते हैं? लाख व्यवधान आयें, फिर भी बुकमार्क करते जाते हैं और पढ़ते जाते हैं. आपको पता है, सर आर्थर कानन डोयल ने एक बार शर्लाक होल्म्स को मार दिया? किस्सा खतम. आगे लिखना ही नहीं चाहते थे. लेकिन इतने पत्र आये, इतना विरोध हुआ शर्लाक के खात्मे का, इतनी डिमांड हुए शेर्लोक की वापिसी की कि उनको शर्लाक दुबारा जिंदा करना पड़ा. जिसे आप पसंद करते है, उसका लेखन तो आप चाहेंगे कि पढ़ते ही जाएँ. सो मैं तो छोटा-बड़ा सब लिखता हूँ, जब लिखता हूँ तो. जिसने पढ़ना होगा, पढ़ेगा. ऑन-लाइन लिखने और पढ़ने का एक फायदा यह है कि यह दुनिया लगभग सेंसर-विहीन है, यहाँ वो सब लिखा-पढ़ा जा सकता है जो मेन स्ट्रीम मीडिया शायद हिम्मत ही न करे प्रकाशित करने की. 'पोलिटिकल करेक्टनेस', 'सोशल करेक्टनेस' की ऐसी की तैसी. "नक्कारखाने की तूती ही सही, बजाता जाऊंगा कोई सुने न सुने, फर्ज़ अपना निभाता जाऊंगा" "स्वागत मेरे लेखन में मेरी दुनिया देखन में कोई बिलबिला जाए तो कोई पिलपिला जाए कोई पीला हो तो कोई लाल हो कम ही को खुशी हो ज़्यादा को मलाल हो फिर भी आयें,आयें शुरू है धायं धायं" तुषार कॉस्मिक

विचार-योद्धा

मैं कहीं भी अकेला जाऊं, पीछे से घर वाले फ़ोन करते हैं, हर घंटे. क्यूँ? इसलिए कि कहीं मैं किसी से भिड़ तो नहीं गया?

बड़ी बिटिया के स्कूल मात्र दो बार गया और दोनों बार लड़ आया, बाद में फैसला दिया गया कि मुझे कभी भी वहां नहीं जाने दिया जायेगा, चूँकि बच्ची वहीं पढ़ानी है.

आप मेरा लिखा पढ़ते हैं, निरी लड़ाई है. 

भारत इतने मुद्दों से जकड़ा है कि लड़ाई-भिड़ाई तो होगी ही.

जब आप व्यवस्था बदलने की कोशिश करेंगे तो पुरानी व्यवस्था आपको सुस्वागतम नहीं कहने वाली. वो तमाम कोशिश करेगी अपने आप को जमाए रखने के लिए. 

मेरा ख्याल है कि भिड़ना शुभ संकेत है. भारत को और बहुत लोग चाहियें जो भिड़ सकें.

जो भारत की वैचारिक बोझिलता को, अवैज्ञानिकता से भरी बे-वस्था को छिन्न-भिन्न कर सकें.

योद्धाओं का सम्मान होता था पहले. आज भी होना चाहिए. आज युद्ध तीर तलवार से नहीं, विचार से होने हैं. 

"मैं भी ठीक, तू भी ठीक", किस्म के लोग मात्र मिटटी लौंदे हैं, जिधर मोड़ो, मुड़ने को तैयार.  ये क्या लड़ेंगे? न...न....भारत को लड़ाकों की सख्त ज़रूरत है. योद्धाओं की, विचार-योद्धाओं की, जो अवैज्ञानिकता की ईंट से ईंट बजा कर रख दें. ईंट का जवाब पत्थर नहीं पहाड़ से दें. विचार-योद्धा.

असल भारतीयता क्या है

कहा-सुना जाता है कि मनु ने वर्ण-व्यवस्था बनाई. वैसे वर्ण का अर्थ रंग है. तो यह पहला रंग-भेद था शायद. न सिर्फ भेद था, भेद-भाव भी था. ब्राहमण को पूरे समाज के सर पर बिठा दिया. मैं तो हैरान हूँ आज भी मंदिरों में ब्राह्मण खुले-आम कहते हैं कि ब्राह्मण की सेवा की जाए.

और जो जातियां, उपजातियां पनपीं, वो सिर्फ ब्राह्मणों ने अपनी सुविधा के लिए अपने यजमानों की मोहरबंदी की है. जैसे ज़मीन बांटते चले जाएँ किसान के बच्चे और अपना हिस्सा अपने-अपने नाम रजिस्ट्री करवाते जाएँ, जैसे लोग अपनी गाय-भैंस पहचानने के लिए गर्म लोहे से इन जानवरों के शरीर दाग देते हैं, वैसे ही ब्राह्मणों के परिवार जैसे बढ़े तो उन्होंने अपनी सुविधा के लिए कि कौन किसका ग्राहक, यह पहचान के लिए लोगों कि उपजातियां और फिर उन उपजातियों की भी उपजातियां घड़ लीं. हरिद्वार चले जाएँ, पण्डे लेकर बैठे हैं पोथे. और कौन किसका यजमान, वो हिसाब जाति, उपजाति से होता है.

आज जिसे हिन्दू व्यवस्था कहा जाता है उसमें यह ब्राह्मण व्यवस्था एक धारा रही है न कि एक-मात्र धारा. वाल्मीकि रामायण में जाबालि राम का विरोध करता है तर्कों से, उसे क्या कहेंगे? चार्वाकों के तो ग्रन्थ जला दिए गए, उन्हें क्या कहेंगे? बुद्ध तो नास्तिक कहे जाते हैं, उन्हें क्या कहेंगे? नानक तो जनेऊ को इंकार किये हैं, उन्हें क्या कहेंगे? और अम्बेडकर ने तो मनु-स्मृति की होली जलवाई दी थी तो उनको क्या कहेंगे आप? और आर्य-समाजी तो मूर्ति पूजा का विरोध करते हैं, उनको क्या कहेंगे आप? यहाँ रावण को पूजने वाले भी हैं और दुर्योधन को पूजने वाले भी, इन्हें क्या कहेंगे?

यह जो ब्राहमणी व्यवस्था सर चढ़ बैठ गई है और हर मुद्दे पर बस बकवाद करती है, यही भारतीयता के खिलाफ है, वो भारतीयता जहाँ अनेक तरह के विचार पनपे हैं, एक दूजे के धुर विरोधी विचार.

असल भारतीयता ब्राह्मण-पंथी नहीं है, असल भारतीयता विचारवादिता है.

Friday, 14 April 2017

स्कूलों को लूटने वाले गिरोह के 3 मेंबर गिरफ्तार

एक गिरोह पकड़ा गया है, जो स्कूलों को लूटता था. मैं इनके नेक काम के लिए इन्हें दिल से बधाई देना चाहता हूँ. यह रही खबर और लिंक कमेंट बॉक्स में है. "स्कूलों को लूटने वाले गिरोह के 3 मेंबर गिरफ्तार" विशेष संवाददाता, द्वारका 40 से ज्यादा प्राइवेट स्कूलों में रॉबरी और चोरी करने वाले गिरोह के तीन मेंबर गिरफ्तार कर लिए गए। इनके टारगेट पर नेताओं के स्कूल भी रहते थे। एडमिशन के टाइम में इस गिरोह ने मोटी रकम मिलने की उम्मीद में यह वारदातें की। साउथ वेस्ट दिल्ली में पिछले दिनों कई प्राइवेट स्कूलों में चोरी और लूट की वारदातें हुई थी। दिन निकलने से पहले लुटेरे स्कूलों के गार्डों को बंधक बना कर इनके ऑफिस में रखी रकम लूट कर ले गए थे। डीसीपी सुरेंद्र कुमार के मुताबिक, एसीपी ऑपरेंशंस राजेंद्र सिंह की देखरेख में बनाई गई टीम ने इन वारदातों का सुराग लगाया। इंस्पेक्टर रमेश कुमार और एसआई नवीन कुमार की टीम ने तीन मुलजिम गिरफ्तार कर लिए। इनके नाम हैं बबलू, दीपक और सुनील लाला। बबलू और दीपक मजनूं का टीला इलाके में रहते हैं। सुनील बुराड़ी इलाके के संत नगर में रहता है। इन तीनों से स्कूलों से लूटा गया सामान और रकम बरामद की गई। डीसीपी के मुताबिक, इन तीनों ने बताया कि इनके गिरोह में 10 लोग हैं। इन्हें जानकारी मिली थी कि एडमिशन के दिनों में प्राइवेट स्कूल बच्चों के माता-पिता से दाखिले के लिए मोटी रकम वसूलते हैं। इन्हें उम्मीद थी कि स्कूलों में इन्हें मोटी रकम हाथ लगेगी। यह लोग सुबह टारगेट किए गए स्कूल के आसपास कार से पहुंचते थे। यह लोग ऐसी जगह से बाउंड्री वॉल पार कर स्कूल के अंदर जाते थे, जहां पर सीसीटीवी नहीं होते थे। अंदर जाकर यह लोग गार्ड्स को बंधक बना देते थे। उसके बाद अंदर लगे सीसीटीवी कैमरों को हटा देते थे और उनकी डीवीआर उठा लेते थे। उसके बाद यह लोग स्कूलों के दफ्तर के ताले तोड़ कर वहां रखी रकम लूट कर ले जाते थे। डीसीपी के अनुसार, इन मुलजिमों ने बताया कि इनके गिरोह ने 40 से ज्यादा स्कूलों में रॉबरी और चोरी की वारदातें की हैं। इनकी आठ वारदातों की जानकारी मिल चुकी है। खास बात यह है कि यह गिरोह पिछले चार सालों से एडमिशन के दिनों में यह वारदातें कर रहा है। यह एक सीजन में वारदातों के दौरान की गई गलतियों से सबक लेते हुए अगले साल के एडमिशन के सीजन में रॉबरी करते हैं। इनके टारगेट बने कई स्कूलों के मालिक राजनीतिक पार्टियों के जाने-माने नेता भी हैं। http://navbharattimes.indiatimes.com/metro/delhi/other-news/3-members-of-gang-robbery-arrested/articleshow/58054418.cms

प्राइवेट स्कूलों की ईंट से ईंट बजा दो, वो तुम्हारी ज़मीन पर बने हैं

दिल्ली में हूँ, यहाँ फुटों के हिसाब से ज़मीन बिकती है. उस ज़मीन का टॉयलेट भी खरीदने की भी क्षमता नहीं होती स्कूल के मेनेजर की. अरबों रुपये की ज़मीन होती है स्कूल के पास. है, किसी की औकात की ज़मीन खरीद कर चला ले स्कूल? 

किसकी है वो ज़मीन? पब्लिक की. आपकी. 

यह जो आप शब्द प्रयोग करते हैं न 'सरकारी'. हकीर है यह शब्द. फ़कीर है यह शब्द. 'सरकारी' शब्द से लगता है पब्लिक का तो कोई हक़ ही नहीं इसमें, सब सरकार का है. नहीं. 'पब्लिक' शब्द का प्रयोग कीजिये 'सरकारी' की जगह. 'सरकारी अफसर' नहीं 'पब्लिक सर्वेंट' कहें. 'सरकारी स्कूल' नहीं 'पब्लिक स्कूल' कहें. और यह जो खुद को 'प्राइवेट स्कूल' कहते हैं , ये भी 'पब्लिक स्कूल' हैं, जो पब्लिक की ज़मीन पर चलाए जाते हैं. रवीश कुमार स्कूलों की लूट पर जन-सुनवाई चला रहे हैं पिछले तीन-चार दिन से, लेकिन सरकारी और प्राइवेट और पब्लिक स्कूलों की परिभाषा नहीं समझ पाए, पॉइंट उठाया, लेकिन कौन सरकारी, कौन प्राइवेट, कौन पब्लिक स्कूल, यह नहीं समझ-समझा पाए.

असल में स्कूल का सारा धन्धा दान लेकर चलता है. ज़मीन दान में लेते हैं जिसके लिए अंग्रेज़ी का फैंसी सा शब्द है "ग्रांट". फिर बच्चों के मां-बाप से दान लेते हैं, जिसके लिए दूसरा फैंसी शब्द है, "डोनेशन". और असल में दोनों ही दान नहीं हैं. ग्रांट  'कैश रूपी चैक' और 'पहुँच रूपी जैक' लगा कर ली जाती है. 

और डोनेशन....डोनेशन नहीं है, लूट है...ज़बरन वसूली है....डोनेशन अपनी मर्ज़ी से दी जाती है...स्कूल में कौन अपनी मर्ज़ी से दे रहा है? लोग इसलिए देते हैं कि उनका बच्चा वहां रहेगा, अगर नहीं देंगे तो स्कूल वाले बच्चे की ज़िंदगी खराब कर देंगे.  स्कूल की बिल्डिंग के पैसे बच्चों से वसूले जाते हैं. 

मतलब न ज़मीन इनकी, न बिल्डिंग इनकी. हींग लगे न फिटकरी और रंग चोखा ही चोखा. 

मैं दिल्ली पश्चिम विहार में हूँ, यहाँ तकरीबन सब स्कूल DDA लैंड पर हैं, जो लाखों  तक एडमिशन वसूल रहे हैं......और फीस के अलावा अनेक तरह से पेरेंट्स की सारा साल पुंगी बजाते रहते हैं.

किताबें और स्कूल ड्रेस इस तरह से बनाई जाती हैं कि दुबारा किसी और के काम न आ सकें.  और आप आम टेलर से तो बनवा ही नहीं सकते स्कूल ड्रेस. स्कूल खुद बनवाता है, ड्रेस और किताब. बेचता है, लूटता है. पेमेंट की कोई रसीद नहीं देते. मोबाइल फ़ोन गेट पर ही धरवा लेते हैं ताकि कोई रिकॉर्डिंग न कर पाए. गेट पर चार-पांच पहरेदार खड़े किये रहते हैं. मामला फसादी लगे तो एक से ज़्यादा व्यक्ति को घुसने नहीं देते ताकि अंदर कोई गवाह तक न रहे कि क्या हुआ.  स्वागत के लिए मुंह-फट औरतें बिठा रखते हैं, ज़रा बहस हुई तो विजिटर पर इलज़ाम लगाया जा सकता है कि औरत से बदतमीज़ी की. चाहे बन्दा मार कर फेंक दें और आक्रमण का इलज़ाम भी मरने वाले के सर थोप दें.

व्यापार नहीं लूट है, पब्लिक ज़मीन का शोषण है. हाँ, अपनी ज़मीन खरीद कर चलायें, तो जैसा भी शुल्क वसूलें, वो कुछ समझ में आता है.

और जो फ्री एडमिशन दिया जाता है कुछ प्रतिशत बच्चों को, अहसान नहीं करते सेठ जी लोगों पर. उसमें भी तमाम कोशिश की जाती हैं कि इस तरह के एडमिशन न दिए जाएँ.

दान में ली ज़मीन और सेठ जी फ्री पढ़ा रहे हैं? नहीं, सेठ जी मुफ्त की ज़मीन और मुफ्त की बिल्डिंग को अपने बाप का माल समझ बैठे हैं.

लोग विरोध में खड़े हो रहे हैं और सही खड़े हो रहे हैं. लेकिन ये जो अभिभावक कोर्ट पहुँच रहे हैं कि उनके बच्चों को एडमिशन नहीं दे रहे स्कूल और फिर कोर्ट आर्डर से एडमिशन करवा रहे हैं, मूर्ख हैं. अबे, ऐसे स्कूलों की मान्यता रद्द करवाने के लिए जाओ कोर्ट. जो स्कूल नहीं देना चाहता एडमिशन उसके खिलाफ कोर्ट में जाने के बाद यदि उसी स्कूल में अपना बच्चा दाखिल करवाते हो तो यह ऐसे ही है जैसे किडनैपर को अपना बच्चा खुद सौपना.

सात अप्रैल, सत्रह की खबर है नवभारत टाइम्स की, एक गिरोह पकड़ा गया है, जो स्कूलों को लूटता था, ख़ास एडमिशन के दौरान. मैं इनके नेक काम के लिए इन्हें दिल से बधाई देना चाहता हूँ. वो जो चोर पकड़े गए, बहुत छोटे चोर हैं. चिंदी-चोर. फूहड़. अनगढ़. ये जो स्कूल हैं, शातिर डकैत हैं.  

"पब्लिक स्कूल कैसे चलने चाहिए फिर ?"

लगता है आपको कि जिस स्कूल में आपका बच्चा पढ़ रहा है, उस पर आपका कोई हक़ है?
नहीं. मुझे पता है नहीं लगता. 
आपको लगता है कि ये स्कूल किसी की मल्कियत हैं. स्कूल चलाने वालों की, उसके परिवार की.

गलत लगता है. वो स्कूल आपका है, मेरा है, हम सब का है.
और जो चला रहे हैं वो मात्र पब्लिक के नौकर हैं.

तो जब वो नौकर हैं तो फिर उनको जो काम दिया गया है उसका पूरा हिसाब किताब पब्लिक को देना चाहिए कि नहीं?

मोदी जी की तरह पूछता हूँ,”बोलो मित्रो, हिसाब किताब देना चाहिए कि नहीं?”

मेरा मानना है कि देना चाहिए. 
कितने टीचर हैं, और स्टाफ कितना है, कितने ड्राईवर हैं, किसको कितनी सैलरी जाती है?कितना पेट्रोल खर्च होता है, कितना बिजली का बिल, कितना पानी का, कितना कोई और खर्च, सब हिसाब सामने होना चाहिए.

अब मानो किसी स्कूल में बारह सौ बच्चे पढ़ रहे हैं......और स्कूल का खर्च ग्यारह लाख महीना है.....तो ठीक है.
हज़ार रुपैया हर बच्चे की फीस हो गई, ग्यारह लाख खर्चे में गए...एक लाख स्कूल का मेनेजर अपनी सैलरी ले ले.
एक बात.

तनख्वाह तक नहीं देते टीचर को महीनों.....और साइन करा लेते हैं, तनख्वाह आधी भी नहीं देते. और न ही अभिभावकों को पेमेंट की रसीद देते हैं. कैसे चेक होगा हिसाब-किताब. उसके लिए. सब स्कूल में CCTV लगे होने चाहियें. और रिकॉर्डिंग स्कूल की वेबसाइट पर चलती रहनी चाहिए, पब्लिक वेबसाइट पर चलती रहनी चाहिए, और पब्लिक को भी विडियो-ऑडियो रिकॉर्डिंग की छूट होनी चाहिए. खैर, यह मुद्दा हा हो सकता है.

दूसरी बात. स्कूल किसी की मल्कियत नहीं है. यदि पब्लिक को कोई बेहतर व्यक्ति दीखता है स्कूल चलाने वाला तो उसे मौका देना चाहे. बहुमत के साथ नए व्यक्ति को मौका दिया जाना चाहिए. हाँ, उसका तजुर्बा क्या है, कितना पढ़ा है, क्या पढ़ा है, क्या पढाया है, वो सब देखा जाना चाहिए. मैंने देखा है अक्सर कुछ लोग झुग्गियों में सालों से पढ़ाते हैं, बड़े मन से, बड़े जतन से. ऐसे लोगों को मौका दिया जा सकता है

स्कूल पीढी दर पीढी सौपे नहीं जाने चाहिए, कतई नहीं. जब पब्लिक स्कूल पब्लिक के हैं तो फिर किसी एक पीढी का क्या मतलब? कोई प्राइवेट प्रॉपर्टी थोड़ा है? 
कोई प्राइवेट स्कूल दे दें...आधी फीस और शुल्क वसूल कर चला कर दे देता हूँ...और फिर भी कमाऊँगा.

असल में तो इन मेनेजर को बस साल-दर-साल ही स्कूल मिलने चाहियें..ठेके पर...फिर नए लोग आयें तो आ जाएँ.....बहुत कुछ सुधर जाएगा, अपने आप.

पब्लिक प्रॉपर्टी है......जो सबसे अच्छा पढाये, सबसे सस्ता पढाये, उसे मौका मिले..बात खत्म

इतने से ही आप देखेंगे फीसें आधी भी नहीं रही.......पुरानी किताबें काम में आने लगेंगी......और सैकड़ों तरह के फालतू के खर्चे उड़ जायेंगे .....और स्कूल की खाली जगह को छुटियों में जो सार्वजानिक प्रोग्राम के लिए किराए पर दिया जाएगा उससे फीस में और कमी आ जायेगी

बोलो मितरो, फीस घट जायगी कि नहीं. ऐसा होना चाहिए कि नहीं.

होना चाहिए.

टोन ज़रूर मोदी जी की पकड़ी है. लेकिन मेरी बात से आप समझ सकते हैं कि ये मात्र बात नहीं है, लात है और वो भी जोर की. 

!!! प्राइवेट स्कूलनामा !!! 

एक  मित्र ने फ़ोन पर कुछ बात  की प्राइवेट स्कूलों के बारे में, कुछ शिकायत, बस जैसे  अन्दर कुछ  दबा  था फूट पड़ा, क्या दबा  था?   आईये देखिये,   शायद   आप  के भीतर कुछ   वैसा ही विस्फोटक सामान दबा  हो, स्वागत है---

"भाग- 1"
पब्लिक स्कूल मतलब पब्लिक की ज़मीन पर बना पब्लिक के बच्चों के लिए स्कूल.....कितनी कारगर है यह परिभाषा? यदि नहीं, तो मेरे साथ आइये, छीन लें इन डकैतों सब कुछ

"भाग- 2"
"अरे ओ साम्भा........सुना है ई रामगढ़ के पब्लिक स्कूल वाले पुरानी किताबें फिर से प्रयोग नहीं करते?"
"जी सरदार, यदि पुरानी किताबें प्रयोग करेंगे तो फिर नई किताबों की खरीद से कमीशन कैसे खायेंगे ?"

"भाग- 3"
जज पब्लिक स्कूल के मालिक से, "तुमने ट्रैफिक का नियम तोडा है, सो तुमसे दस हज़ार जुर्माना लिया जाएगा, और अगले साल पन्द्रह हज़ार, और अगले साल बीस हज़ार, इस तरह हर साल पांच हज्जार बढ़ के जुर्माना वसूला जाएगा"

"मी लार्ड, यह तो नाइंसाफी है, एक जुर्म के लिए हर साल ज़ुर्माना, वो भी बढ़ा बढ़ा कर"

"अबे चोप्प, श्याणे, जब तू अपने स्कूल में दाख़िल बच्चों से हर साल दाखिला फीस वसूलता है, तब नहीं तुझे यही तर्क समझ में आता, हरामखोर, अभी तो तुझ से वो सब भी ब्याज समेत वसूलना है "

"भाग- 4"

"पापा पापा, दान तो मर्ज़ी से दिया जाता है और वो भी अपनी गुंजाइश के मुताबिक, नहीं?"

"बिलकुल बिटिया"

"फिर पापा हमारे स्कूल वाले तो डोनेशन हर नए दाखिल होने वाले बच्चे से लेते हैं, हम से भी लिया था और वो भी अपने हिसाब से, आपने कितना मुश्किल दिया था , मुझे आज भी याद है, फिर यह कैसा दान है?"

"बेटा, नियम से वो लोग दाखिले के लिए कोई पैसे ले नहीं सकते, इसीलिए इस वसूली का नाम उन्होंने 'दान' रखा है"

"तो हम कुछ नहीं कर सकते क्या इस नाइंसाफी के खिलाफ?"

"कौन लड़ाई करे बेटा इन मगरमच्छों से"

"नहीं पापा, यह गलत है, मैं लडूंगी, मैं लडूंगी, मैं लडूंगी"

"भाग- 5"

संता," यार बंता, अपना सोहन सिंह पिछले दस साल से पुल के नीचे झुग्गी बस्ती के बच्चों को पढ़ा रहा है, सुना है कुछ बच्चे तो बहुत आगे तक निकल गए उसके पढाये......."

बंता,"हाँ, यार, सोहन तो वाकई सोहन है, सोहना मेरा वीर"
संता," यार, अपने ये जो पब्लिक स्कूल हैं, ये अगर सोहन जैसे वीर चलायें तो?"

बंता," ओये, पागल हो गया, सोहन जैसे लोगों को तो ऐसे स्कूल वाले पास भी न फटकने दें"

संता," फेर यार, नाले कहंदे ने, पब्लिक स्कूल, पब्लिक वास्ते, पब्लिक की ज़मीन पर?"

बंता," छड्ड यार, वड्डे लोकां दे खेड ने प्यारियो"

संता," यार , मेरी अक्ल मोटी है, पर कुझ तां गड़बड़ है, पर कुझ तां गड़बड़ है, पर कुझ तां गड़बड़ है, पर कुझ तां गड़बड़ है..........."

"भाग- 6"

पब्लिक स्कूल मालिक," देखो जी, बिल्डिंग फण्ड तो देना ही पड़ेगा, आखिर आपका बच्चा इसी बिल्डिंग में तो पढ़ेगा न जी"

बच्चे की माँ," वो तो ठीक है सर, पर जब बच्चा स्कूल छोड़ेगा तब बिल्डिंग तो यहीं रह जायेगी, आप कोई तो वापिसी भी करो न जी उस फण्ड की?"

"देखो जी, साथ तो कुछ भी नहीं जाता, हम मरते हैं साथ कुछ ले जाते हैं, सब यहीं रह जाता है जी"

"भूतनी दिया, खड़ा हो सीट से, स्कूल तेरे बाप का है, ज़मीन पब्लिक की, बिल्डिंग का पैसा पब्लिक का, तू मामा लगता है इस स्कूल का? तेरे से बेहतर और कम फीस लेकर चलाने वाले मिल जायेंगे हमें अभी के अभी .....ऐसी की तैसी तेरी......निकल खाली हाथ, वैसे भी साथ थोड़ा किसी ने कुछ ले जाना होता है, निकल "

"भाग- 7"

"माँ, वो आज पानीपत का दूसरा युद्ध पढाया गया हमें, यह सब आपने भी पढ़ा था क्या?"

"हाँ, बेटा"

"कुछ याद है मां जो पढ़ा था"
"न, बेटा वो तो परीक्षा कक्ष से बाहर आते ही लगभग साफ़ हो गया था"

"माँ, यह सब पढ़ा कहीं काम आया आपके"

"नहीं बेटा, फिर कभी ज़िक्र तक न हुआ, आज कर रही है तू बस"

"माँ, ये तो शायद मेरे भी कोई काम न आएगा, नहीं?"

"मोइआ दा सर, स्वाह ते मिट्टी, यह सब का कोई मतलब ही नहीं होता ज़िंदगी में"

"माँ, फिर मैं क्यों पढूं?"

"पढ़ ले बेटा, नहीं पढेगी, डिग्री नहीं मिलेगी , वो भी तो ज़रूरी है"

अब बेटी पढ़ तो रही है, पर सोच रही है अपनी तीन साल की छोटी बहन को देख, "मैं कुछ करूंगी, मेरी बहन को यह सब बकवास न पढनी पढ़े"

"भाग- 8"

सेठ दौलत हराम," भाई जी, कोई ऐसा तरीका बताओ न कि अपने पैसे खप जाएँ, पूंजी बढ़ती भी रहे और मासिक आमदनी भी चोखी हो"

हरामखोर प्रॉपर्टीज,"सेठ जी, ऐसा है, आपको एक चलता हुआ पब्लिक स्कूल दिलवा देता हूँ"

"पर सुना है, उसकी कोई रजिस्ट्री नहीं होती"

"वो तो ठीक है सेठ जी, माल तो पब्लिक का होता है न, किसी का मालिकाना हक़ तो होता नहीं, सो रजिस्ट्री तो नहीं होती लेकिन फिर भी कोई रिस्क नहीं"

"कैसे भाया?"

"सेठ जी, खरीद बेच सब होगी, इधर आप तय रकम अदा करोगे और उधर स्कूल की मैनेजमेंट इस्तीफ़ा देगी, नई मैनेजमेंट आप अपने परिवार को बना सकते हैं"

"और मासिक आमदनी?"

"वो तो बल्ले बल्ले, सेठ जी, हर जगह कमाई....देखिये, हर साल एडमिशन फीस, बिल्डिंग फण्ड, डोनेशन, मासिक फीस तथा और भी बहुत कुछ"

"और बहुत कुछ क्या?"

"सेठ जी, जब मर्ज़ी यूनिफार्म बदल दो उसमें कमीशन, हर साल नई किताबें उसमें कमीशन, सालाना फंक्शन उसमें कमाई, बच्चों को लाने ले जाने वाली बसों में कमाई, सेठ जी कमाई ही कमाई....इसके अलावा सेठ जी एक सबसे बड़ा फायदा तो मैं बताना ही भूल गया"

"वो क्या?"

"सेठ जी, आपको सारा पैसा नकद देना है, किसी को कानों कान खबर नहीं कि कोई डील हुई भी, है न बढ़िया......सेठ जी इससे बढ़िया क्या ढंग होगा कि आप अपना पैसा खपा दो, क्या ज़रुरत स्विस बैंक की, जब हमारे पास यहीं भारत में ही उससे बढ़िया स्विस बैंक मौजूद हैं?"

"हम्म....बात तो ठीक है, ठीक है फिर दिखाओ कोई डील"

"बस सेठ जी, कल तक सारी डील कन्फर्म करके वापिस आता हूँ"

"बिलकुल,लेकिन कल क्यों, आज ही चलो"

"ठीक सेठ जी, फिर आज ही "

"बिलकुल "

"भाग- 9"

माँ , "अजी सुनते हो, आज बिटिया के स्कूल वालों ने फिर से पर्चियां सी दी हैं, चंदा इकट्ठा करके लाने को, कोई 'फेट' नाम से प्रोग्राम करना है"

बाप "सब कमाई के धंधे इनके......बच्चों से भीख मंगवाते हैं....."

माँ "सो तो है जी, कोई भी पर्ची कटवाता नहीं है, किसे पड़ी है ऐसे प्रोग्राम देखने की, वो तो माँ बाप को मजबूरी में देखना पड़ता है"

बाप "छोड़ भागवाने, हम खुद ही दे देंगे जितने पैसे चाहिए इन कमीनों को.....एक रुपैया खर्च होगा तो दस रुपये वसूलते हैं, दे देंगे....बच्चे पढ़ाने जो हैं ...लेकिन यह है ग़लत.....बहुत ग़लत"

"भाग- 10"

मैं खुद हैरान हूँ, मैं "पब्लिक स्कूल" लिखता लिखता "प्राइवेट स्कूल" क्यों लिख गया......असल में इन स्कूल वालों ने हम सब को समझा रखा है कि ये स्कूल इनके हैं,निजी हैं, प्राइवेट हैं, इनकी सम्पत्ति हैं ...."पब्लिक स्कूल" माने पब्लिक को लूटने के यंत्र

"भाग- 11"

शादी में चार यार बकिया मतलब बतिया रहे हैं

एक --"यार, आज कल ये प्राइवेट स्कूल वाले बहुत लूटन लाग रहे हैं......अब बच्चा दसवीं तक पढ़ रहा है, ग्याहरवी में फिर से दाखिला फीस मांग रहे हैं'

दूसरा," छोड़ यार, काहे नशा उतार रहा है? अबे, अपने बच्चे पढ़ते हैं वहां, तुझे क्या लगता है, हमें नहीं पता यह सब, साले रोज़ किसी न किसी बहाने से जेब काटते हैं, पर अपने बच्चे पढ़ते हैं वहां, उनके पास होते हैं आधा दिन, हम कुछ कदम उठायेंगे तो हमारे बच्चों को नुक्सान पहुंचा सकते हैं, सो ज़्यादा दिमाग लगाने का कोई फायदा नहीं, मूड खराब मत कर, कोई और बात कर"

तीसरा,"यार, बात तो दोनों ठीक कह रहे हो, कुछ हो नहीं सकता क्या, इन चोरों की ऐसी तैसी नहीं की जा सकती?

चौथा,"आईडिया! हम खुद सामने आकर कुछ नहीं कर सकते, क्यों न हम एक दूसरे के बच्चों के स्कूलों पर हमला करें?"

"हाँ, यह सोचा जा सकता है" सबके स्वर और सर सहमति में मिलने और हिलने लगे और वो सब अगले दिन वकील से मिलने का पक्का कर लिए

सादर नमन......कॉपी राईट मैटर है ओये चोट्टे लोगो.......दफा जाओ यदि चोरी करते हो या चोरी करना सही मानते हो

Tuesday, 11 April 2017

दिल्ली के नगर निगम चुनाव

नमस्कार मित्रो. अगले चंद मिनटों में क्लियर करता हूँ कि आप को वोट मात्र "आम आदमी पार्टी" को क्यूँ देना चाहिए और क्यूँ भाजपा या कांग्रेस को अपना बेशकीमती वोट नहीं देना चाहिए. बस चंद मिनट. ये चंद मिनट आपके, आपके परिवार और बच्चों की भलाई के लिए सही इन्वेस्टमेंट साबित होंगे मित्रो. एम् सी डी चुनाव हैं. म्युनिसिपल कारपोरेशन. जिसके सबसे अहम कामों में से है एक है, शहर की सफाई. अभी पीछे एक प्रोग्राम देखा, जिसमें बताया गया कि मोहनजोदाड़ो और हडप्पा की खुदाई में आधुनिक कमोड और सीवरेज सिस्टम से मिलता जुलता इंतेज़ाम मिला है. माने सदियों पहले यहाँ गन्दगी निपटाने का इतेजाम किया गया था लेकिन आज उस मुल्क की राजधानी, दिल्ली कूड़े का ढेर बन चुकी है. कौन ज़िम्मेदार है? दिखाया ऐसे जा रहा है, समझाया ऐसे जा रहा है, जैसे गन्दगी के लिए, चिकनगुनिया या डेंगू के लिए केजरीवाल ज़िम्मेदार हों. अरे भाई, जब सफाई का ज़िम्मा उनका है ही नहीं तो वो ज़िम्मेदार कैसे हो गए? दिल्ली में बरसों से MCD में भाजपा है, ज़िम्मा उसका है, ज़िम्मा उसका था. अब पोस्टर लगें हैं भाजपा की तरफ से, लिखा है,“नए चेहरे, नई सोच.” और नए चेहरे कौन से नए हैं ? मोदी जी, अमित शाह जी और वो भोजपुरी फिल्मों के एक्टर मनोज तिवारी जी. वैरी गुड. कौन नए चेहरे हैं ये. मोदी जी और अमित शाह जी? वो तो दशकों से राजनीति में हैं. फिर कैसे नए चेहरे? हाँ, मनोज भाई जी नए चेहरे कहे जा सकते हैं. लेकिन वो गाना है न, “चेहरा न देखो, दिल को देखो, चेहरे ने लाखों को लूटा” तो दोस्तों, चेहरा नया हो पुराना हो, उससे क्या मतलब? उस चेहरे के पीछे दिमाग कैसा है, सोच कैसी है, वो सब माने रखता है. है कि नहीं? लेकिन लगी है भाजपा आपको भरमाने कि नए चेहरे पेश किये जा रहे हैं. दशकों से किसके पास था दिल्ली का नगर निगम? भाजपा के पास न. तो फिर क्यूँ नहीं चमका लिया दिल्ली को? अब क्या तीर मार लेंगे? क्या प्लान है सफाई का इनके पास? स्वच्छ अभियान? जो सिर्फ यह सिखाने की कोशिश करता है कि आम-जन गंद न फैलाए तो सफाई अपने आप रहेगी. जो सफाई की सही मनैजमेंट की बात ही नहीं करता. चंद मिसाल देता हूँ सफाई की मैनेजमेंट की. दिल्ली मेट्रो में कैसे सफाई रहती है? मेट्रो में सफर करने वाले कोई और भारतीय हैं? नहीं. लेकिन स्वच्छ अभियान सिखाता है कि गंद मत फैलाओ. आप सरकारी सार्वजनिक शौचालय में चले जाएँ, उल्टी आने को होगी, वहीं सुलभ शौचालय में जाएँ, सब ठीक-ठाक मिलेगा. सुलभ में जाने वाले कोई और लोग हैं क्या? नहीं. बस सफाई का बेहतर इन्तेजाम है. आप अपना घर कैसे साफ़ रखते हैं? बच्चों वाला घर एक घंटा भर न सम्भालो, तो तितिर-बितर हो जाता है. लेकिन गृहणी साथ-साथ समेटती जाती है, और सफाई बनी रहती है. लेकिन प्रधान-मंत्री जी मात्र एक ही बात पर जोर दिए हैं कि गंद मत फैलाओ. दूसरी बात पर जोर ही नहीं देते, कि गंद जल्दी उठाओ. कूड़े का निपटान तुरंत करो. कर्मचारियों को आधुनिक यंत्र दो. कर्मचारियों की गिनती, उनकी हाजिरी का समय, उनका कर्मक्षेत्र वहां के निवासियों को, दूकानदारों को, फैक्ट्री-मालिकों को, दफ्तर चलाने वालों को बताओ. न सिर्फ बताओ बल्कि वहां की एसोसिएशन को साथ लेकर, दिखा कर सफाई करो-कराओ. एक्टिव पार्टिसिपेशन ऑफ़ पब्लिक इन गवर्नेंस. देखें कैसे नहीं होती सफाई? प्रधान-मंत्री जी का स्वच्छ अभियान मात्र अभियान है. विज्ञापन अभियान. जिसमें ब्रांड एम्बेसडर हैं, नारे हैं, फोटो हैं, लेकिन उससे आगे कुछ नहीं. होता तो दिल्ली कूड़े का ढेर नहीं होती. दिल्ली जो एक शहर ही नहीं है, भारत की राजधानी है. अगर दिल्ली में गन्दगी है तो यही एक वजह काफी है साबित करने को कि भाजपा निगम चुनाव में एक भी वोट लेने की हकदार नहीं है. चूँकि केंद्र में भाजपा है, निगम में भाजपा है, उसके बाद यदि गन्दगी है शहर में तो फिर ज़िम्मेदार कौन है? मात्र भाजपा. किस मुंह से वोट मांग रही है भाजपा? ताकि अगले पांच साल इस शहर को और बड़ा कूड़े के ढेर में तब्दील कर दे? वैरी गुड. ये बड़े होर्डिंग लगा दिए हैं कि कूड़े से बिजली बनाने का संयंत्र लगा दिया है. वैरी वैरी गुड. शानदार, जिंदाबाद. तो सर जी, कूड़ा उठाना भी सीख लेते पहले. उसके लिए कोई संयंत्र क्यों नहीं लगाये? बिजली के बिल भी कम करा देते फिर, उसके लिए कोई प्रोग्राम क्यों नहीं पेश किया? होर्डिंग लगे हैं कि निगम के स्कूलों में CCTV लगवा दिए हैं, उनसे निगरानी होगी अब. तकरीबन तीन साल हो गए भाजपा को केंद्र में. सालों- साल हो गए भाजपा को निगम में, अब याद आया CCTV लगवाना? चलिए अब पब्लिक की ज़मीन पर बने प्राइवेट कहे जाने वाले स्कूलों में भी लगवा दीजिये CCTV, वहां तो विजिटर का मोबाइल फ़ोन तक रखवा लिया जाता है बाहर, ताकि रिकॉर्डिंग न कर ले कोई. ज़मीन पब्लिक की है, स्कूल ऐसे चलाते हैं जैसे ज़र-खरीद हो मेनेजर लोगों की. करो भाजपा वालो कुछ इस क्षेत्र में, तो मानें. असल में वैज्ञानिक तो आविष्कार दे चुकता है लेकिन राजनेता के झोल-झोल प्रयासों का नतीजा होता है से जन-जन तक उसका फायदा आता है सालों में, दशकों में. CCTV उसकी मिसाल है. लोगों ने अपने घरों, दुकानों में कब के लगवा लिए CCTV, लेकिन आज भी पुलिस स्टेशन, कोर्ट, स्कूलों, अस्पतालों, सडकों पर CCTV नहीं लग पाए हैं. और कांग्रेस भी वोट मांग रही है. यह वही कांग्रेस है, जो दशकों तक पॉवर में रही है, एक समय था इलाके में MP, MLA और काउंसलर सब कांग्रेस से आते थे, तब क्या गलियों में, पार्कों में सफाई थी, तब क्या दिल्ली अमेरिका जैसा साफ़ था? तब क्या सड़कें टूटी-फूटी नहीं थीं? किस हक़ से ये लोग दुबारा-दुबारा वोट मांगने आते हैं? आप सब को आजमा चुके भई. एक कर्मचारी जिसे सालों मौका दिया गया हो और वो अपनी जिम्मेदारी सही से न निभा सका हो, तो क्या वो आगे नौकरी मांगने का हक़दार है? खैर, वो तो नौकरी मांगे जाएगा लेकिन ऐसे कर्मचारी को यदि आप मौका देते हैं तो यह उसकी होशियारी नहीं है, आपकी मूर्खता है मित्रो. आम आदमी पार्टी ने घोषणा की है कि हाउस टैक्स माफ़ करेंगे, कैसे करेंगे, किस एक्ट, किस सेक्शन से करेंगे, वो सब भी बताया है. लेकिन विपक्षी लगे हैं हांकने कि मुफ्तखोरी को बढ़ावा दे रही है आम आदमी पार्टी. मित्रो एक अच्छी व्यवस्था में सब नागरिकों को, ग्रामीणों को, वनवासियों को, सब को सुविधायें मिलनी चाहियें और सुविधाएं सुविधाएं होनी चाहियें, न कि दुविधाएं. सुविधाएं सस्ती होनी चाहियें और मुफ्त होनी चाहियें. ज़िन्दगी जीने के लिए है न कि जीने के साधन इंतेज़ाम करते-करते मरने के लिए है. कल्पना करें कि किसी निर्जन द्वीप पर कुछ लोग उतरते हैं, ऐसा द्वीप जहाँ नारियल हैं, फल हैं, गुफाएं हैं, साफ़ सुथरी....समन्दर है...नदियाँ हैं......अब यहाँ लोग लगभग सब मुफ्त पाते हैं......खाना, पीना...रहना. हाँ, कुछ काम तो करने ही पड़ते हैं, जैसे फल तोड़ने पड़ते हैं, पानी नदी से लाना पड़ता है, बिस्तर बिछाने पड़ते हैं. मेरा मानना है कि हम अपनी दुनिया उस द्वीप जैसी बना सकते हैं...जहाँ काम तो सब करें और उन्ही कामों में बेसिक ज़रूरतें सबको मुफ्त मिल जाएँ. अभी हम में से अधिकांश लोग काम कर-कर खप जाते हैं, लेकिन फिर भी बेसिक ज़रूरतें नहीं पूरी नहीं हो पाती जीवन भर. तो आने वाले समय में तो और बहुत कुछ सस्ता होना चाहिए, मुफ्त होना चाहिए और ऐसा किया जा सकता है. मात्र बढ़िया मैनेज-मेंट चाहिए. और आम आदमी पार्टी ने ऐसा कर दिखाया है बिजली पानी के क्षेत्र में. बहुत मित्रों को बिजली पानी के बिलों में राहत मिली है पीछे और अब हाउस टैक्स में राहत देने का एलान है. लेकिन आप सोशल मीडिया देखें, आम आदमी पार्टी और ख़ास करके केजरीवाल जी के खिलाफ अपशब्दों की भरमार होगी. उन्हें तो पागल घोषित कर रहा है विपक्ष. अगर वो नोट-बंदी का विरोध करें तो पागल. EVM का विरोध करें तो पागल. क्यूँ भाई, क्या फायदा हो गया नोट-बंदी से? प्रधान-मंत्री जी जापान में कह रहे थे नोट-बंदी के बाद कि बस नोट-बंदी का तय-शुदा समय बीत जाए,फिर सब बढ़िया ही बढ़िया हो जाएगा. सब शिगूफा साबित हुआ. याद रखियेगा, उस सारे दौर को, जब आप को अपने ही पैसे लेने के लिए बैंकों के आगे ये बड़ी कतारों में खड़ा कर दिया गया था. हाँ, मुल्क का फायदा होता कुछ तो सही था, लेकिन आज भी रिश्वत है, आतंक है, काला-बाजारी है, स्मगलिंग है, सब है. केजरीवाल ने पंजाब इलेक्शन के बाद से EVM का विरोध किया, विपक्ष ने मज़ाक उड़ाया, थोड़े दिन में ही विडियो आ गया, EVM की कार्यविधि का प्रदर्शन देख रही थीं कोई अफसर, और बटन दबाने पर जब गलत पर्ची निकली तो वो अफसर कह रही थी कि मीडिया में नहीं जानी चाहिए बात, वरना जेल भेज दिया जाएगा. वैरी गुड. चीज़ें साबित होती जा रही हैं, लेकिन केजरीवाल फिर भी पागल हैं. खैर, तो इस पागल आदमी का साथ दीजिये यदि मुल्क को पागलपन से बाहर निकालना है. कोई भी शंका हो, सवाल हो तो भेजिए kusu167@gmail.com पर. यथासम्भव जवाब दिया जाएगा. और सब आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं से भी अपील है कि जन-जन से जो भी तर्क मिलें, सवाल मिले, हमें भेजें. तुरत आपको उसका जवाब देंगे हम. यह तर्कों की लड़ाई है, यदि कोई वोट देता है तो उसके पास कुछ तर्क हैं और नहीं देता है तो उसके पास अपने तर्क हैं. तो जो नहीं देता, नहीं देना चाहता, उसके तर्कों का जवाब देंगे हम, उसे तर्क से मज़बूर करेंगे, मजबूत करेंगे कि वो हमें वोट दे. और जिन लोगों को लगता है कि केजरीवाल ने कुछ नहीं किया, उन्हें बता दें कि केजरीवाल किये से ही अनेक लोगों को बिजली-पानी सस्ता मिल रहा है, उन्ही के किये से मोहल्ला क्लिनिक बने हैं, उन्ही के किये से अब इलाज सस्ता होने जा रहा है. और यह तब है जब उनके हाथ में पॉवर बहुत काम है. जब अधिकांश पॉवर एल जी साहेब के पास है. आगे और भी बहुत कुछ शुभ होगा मित्रो. अभी समय ही कितना हुआ उनको? समय दीजिये, वोट दीजिये और विकास लीजिये. वोट दीजिये आम आदमी पार्टी को, दिल्ली की साफ़-सफाई के लिए, हाउस-टैक्स से राहत के लिए, वोट दीजिये पानी-बिजली के बिलों का फायदा उठाते रहने के लिए और सब से बड़ा कारण, वोट दीजिये लोकतंत्र बचाए रखने के लिए.
नमस्कार...Tushar Cosmic.. Copy Right Matter

Tuesday, 4 April 2017

~रामलीला, कृष्णलीला: इहलीला लीलती लीलाएं~

आप एक फिल्म कितनी बार देख सकते हैं? आखिर थक जायेंगे. आपकी सबसे पसंदीदा फिल्म भी कई बार देखने के बाद आप देखना छोड़ देते हैं. कितना ठस्स होता है ऐसा व्यक्ति जो यह कहता है कि मैंने फलां फिल्म सत्रह बार देखी, अठारह बार देखी. 

हैरान हूँ कि लोग हर साल, साल-दर-साल कैसे राम लीला देखते हैं! वही कहानी, वही पात्र! वही सब कुछ! फिर भी लोग देखते हैं! देखे चले जाते हैं!

हर साल रावण मारते हैं, जलाते हैं, वो फिर जिंदा हो जाता है, फिर-फिर जिंदा हो जाता है. असल में तो वो मरता ही नहीं. मरता तो फिर दुबारा मारने की ज़रूरत ही कैसे पड़े? राम सदियों से उसे मारने का असफल प्रयास कर रहे हैं. लेकिन हमें समझ नहीं आती. हम कहते हैं,"बुराई पर अच्छाई की विजय हो गई."  अगर हो ही जाती हो ऐसे  विजय, तो फिर हर साल किस लिए दशहरा मानते हैं, क्या ज़रूरत साल दर साल यह सब दुहाराने की?  यह दोहराना ही साबित करता है कि यह सब करना निष्फल है.सब कुंठित हो चुकी बुद्धि का नमूना है. 

असल में तो जो जितना बुद्धिशाली होगा, उतनी ही जल्दी बोर हो जायेगा. एक तेज़ दिमाग प्राणी नई-नई चीज़ें खोजता है. आज मनोरंजन बड़े से बड़े व्यापारों में से एक है. व्यक्ति पहले की अपेक्षा जल्दी बोर होने लगा है. आप पिछली फिल्में देखों, कोई दस-बीस साल पुरानी, सब की सब कहानियाँ एक जैसी. वही हीरो, वही विलन. वही मार कूट. दो-चार  फिल्म देख लो, समझो सभी देख लीं.

आज पैदा होता बच्चा कंप्यूटर इन्टरनेट के सम्पर्क में आता है. बहुत तेज़ी से बहुत देख-सुन चुका होता है. वो और जल्दी बोर होता है. कैसे कोई राम-लीला साल-दर-साल बर्दाश्त कर सकता है?

मुझे याद है, बठिंडा में, जब मैं छोटा था तो जाता था कभी #रामलीला देखने, हर एक-दो सीन बाद एक आइटम सोंग दिखाया जाता था. लड़के, लड़की बन, फ़िल्मी गानों पर ठुमकते थे, ठीक आज के फ़िल्मी आइटम सोंग की तरह. जिस सोंग का फिल्म की कहानी से सीधे तौर पर कोई लेना–देना नहीं होता लेकिन दर्शक को बांधे रखने के लिए, कुछ सेक्सी परोसा जाता है.

~~             ~~                   ~~                    ~~                         ~~

1. सिपाही (घबराई हुई आवाज़ में ) – “सर, कल रात जेल के अंदर कैदियों ने रामलीला का आयोजन किया था …!”

जेलर – “वैरी गुड ! ये तो अच्छी बात है पर तुम इतने घबराए हुए क्यों हो ?”

सिपाही – “जिस कैदी ने हनुमान का रोल किया था वो अब तक संजीवनी लेकर वापस नहीं आया है … !!!”

~~             ~~                   ~~                    ~~                        ~~

2. गाँव मे रामलीला हो रही थी

सीता स्वयंवर में राम जी के धनुष तोड़ने पर परशुराम जी का आगमन हुआ।
परशुराम जी क्रोधित होकर अपने पैर को चौकी से बने स्टेज पर पटकने लगे और चिल्लाने लगे.

"किसने तोड़ा धनुष, किसने तोड़ा धनुष "

तभी दर्शकों में से आवाज आई, "अरे बेटा परशुराम .धनुषवा चाहे कोई तोड़े, हमार चौकीया टूटल न तो तोहार सब गर्मी निकाल देब सरऊ||"

~~             ~~                   ~~                    ~~                         ~~

3. एक बार रामलीला में जो हनुमान बन रया था, वो बीमार हो गया .
रामलीला आले रलदु ने पकड़ ल्याए, आक तू बन ज्या हनुमान .
रलदु बोल्या, "साहब मन्ने नु तो कोनी बेरा अक बोलना के स ?
रामलीला आले बोले, "जो बोलना स वो पंडितजी बता देंगे पाच्छे ते."
तो हनुमान जाके रावण आगे खड़ा हो गया..पाछे ते पंडितजी बोल्या " बेटा नु बोल""....आर फेर घना लंबा डाईलोक बोल दिया.... वो रलदु के समझ ना आया.
तो रलदु बोल्या "देखे ओ रावण ..जिस तरा पंडितजी कहवे स उस तरिया करदे ..नही तो तेरा नाश हो ज्यागा !!"

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4. पप्पू हम यहां मौजूद हैं फिल्म रामलीला के फर्स्ट डे फर्स्ट शो में और हमारे साथ हैं दर्शक नंदू जो अभी-अभी फिल्म देखकर निकले हैं..

पप्पू-नंदू जी बताएं आपको भंसाली की फिल्म 'रामलीला' कैसी लगी..?

नंदू-जी बिल्कुल राजकपूर की 'राम तेरी गंगा मैली'.... जैसी..

पप्पू रिपोर्टर-क्या मतलब..

नंदू-उसमें भी हम ये सोचकर पूरी फैमिली के साथ घुस गए थे कि फिल्म धार्मिक होगी और इसमें भी पत्नी और बच्चन के साथ यही सोचकर घुसे थे, लेकिन राम..राम..दिमाग खराब हो गया
कसम से..!!!

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रामलीला और हिंदी फिल्मों में साम्य है कि कहानी से कोई मतलब नहीं, पुरानी हो, घिसी हुई हो, चलेगी, बस थोड़ा मसाला डाल दो. आज भी देखता हूँ कि रामलीला करने-कराने वाले बोर्ड लगाते हैं कि उनकी राम-लीला में कोई टीवी कलाकार रोल अदा कर रहा है, कोई सीन बढ़िया इलेक्ट्रिक अरेंजमेंट  में दर्शाए जायेंगे, बढ़िया झांकी. बस यह है नवीनता.

क्या झख है!  दिमाग भक्क है!!

सबको पता है कि धनुष राम ही तोडेंगे, सीता का विवाह उनसे ही होगा, फिर भी देख रहे हैं. सबको पता है कि रावण जितना मर्ज़ी रौबदार हो, जितना मर्ज़ी गरज-बरस ले, मरना उसी ने है, हारना उसी ने है, फिर भी देख रहे हैं. 

यह बार-बार का देखना, पूरे जन-मानस की सोच को एक चक्कर-व्यूह में डालना है, जहाँ बुद्धि गोल-गोल घूमती है बस, नया कुछ नहीं होता. कैसे कुछ नया सोचेंगे, जब इस तरह की लीलाएं देखेंगे?

भारतीय जन-मानस को राम-लीला से बाहर निकलना ही होगा, यदि कुछ नया सोचना है, कुछ आविष्कृत करना है तो.

छोड़िये यह सब. आप कोई राम से कम हैं. हो चुके राम. अब कुदरत ने हमें-आपको भेजा लीला करने को. अपनी लीला कीजिये. और आप हैं कि राम छोड़िये, शाहरुख़-सलमान तक की लीला  में उलझे हैं.

गाते हो, "होली खेलत रघुबीरा अवध माँ"

"ब्रज में होली खेलत नन्दलाल"

लानत! खेलनी हैं होली तुम खेलो भाई. तुम क्या किसी रघुबीर या नंदलाल से कम हो?

अपना बच्चा चलना शुरू करेगा तो गाने लगेंगे.
"ठुमक-ठुमक चले श्याम."

अबे ओए, तुम्हारे बच्चे किसी शाम, किसी राम से कम नहीं है.

जीसस सन ऑफ़ गॉड!
वैरी गुड!! बाकी क्या सन ऑफ़ डॉग हैं?

मोहम्मद. अल्लाह के रसूल. वो भी आखिरी.
शाबाश!! अल्लाह मियां चौदह सौ साल पहले ही बुढा गए. थक गए. चुक गए. या फिर सनक गए. 

होश में आओ मित्रवर, होश में आओ. 

आप, आपके बच्चे किसी राम, श्याम, किसी जीसस, किसी भी रसूल से कम नहीं हो. 

आप, हम सब कोई इस धरती पर सेकंड क्लास, थर्ड क्लास कृतियाँ नहीं हैं उस कुदरत की, उस प्रभु की, उस स्वयंभू की. नहीं. ऐसा कुछ भी नहीं है. 

हम सब किसी अवतार, किसी रसूल, किसी परमात्मा के इकलौते पुत्र की चबी-चबाई कहानियाँ चबाने को नहीं हैं. हम कोई आसमानी किताबों की, कोई धुर की बाणी, कोई भगवत गीता की गुलामी को नहीं हैं यहाँ इस धरती पर.

इस मानसिक गुलामी से बाहर आओ.

चबे-चबाये चबेने थूक दो. कुछ नहीं रखा इन सब में. आखिर चीऊंग-गम भी कितनी देर चबाते हैं आप?

मेरा मेसेज साफ़ है,  हम सब अपनी लीला खेलने आये हैं. क्यूँ किसी और की लीला ही देखते रहें? हम किसी से कम नहीं. और यदि अपनी लीला को बेहतर बनाने के लिए किसी और की लीला से कुछ सीखना भी हो तो यह कोई तरीका नहीं कि किसी एक ही की लीला को देखे जाओ और वो भी बंद अक्ल के, सब कुछ सही गलत पहले से ही मान कर?

फ़ोन स्मार्ट हो गए, हम पता नहीं कब होंगे? हम तो बस स्मार्ट फ़ोन से भी राम-लीला के दृश्य कैद करने में लगे हैं. नहीं, भई, दिमाग खोलो, स्मार्ट बनो और स्मार्ट फ़ोन ही नहीं, स्मार्ट ज़िन्दगियाँ आविष्कृत करो.

नमन...तुषार कॉस्मिक