Thursday, 19 May 2022

हिन्दू लोग खुद को शांतिप्रिय मानते हैं. ...सच में क्या?

with Public
Public क्या हिन्दूओं ने कभी किसी पे आक्रमण नहीं क्या?
हिन्दू यह कहते हैं कि उन्होंने कभी किसी पर आक्रमण नहीं किया तो झूठ बोलते हैं........खूब लड़ते-मरते थे.
राम और रावण में मुसलमान तो कोई नहीं था. दोनों के इष्ट एक ही थे. शिव. किसी ने किसी पर आक्रमण नहीं किया तो यह युद्ध क्यों हुआ?
क्या आप को पता है, युद्ध के दौरान राम की सेना ने लंकावासियों को जिन्दा जला दिया था? Ram's army burnt and killed Civilians of Lanka (Yudha Kand/Sarg-75)
राम ने अपने राज्य की सीमा बढ़ाने को ही तो अश्व छोड़ा था. जहाँ-जहाँ अश्व जाता था, वहां के राजा को यह मेसेज था कि युद्ध करो या फिर राम की अधीनता स्वीकार करो. यह युद्ध-पिपासा नहीं तो और क्या था?
महाभारत में न सिर्फ भारत बल्कि आस-पास के राजा भी लड़े मरे थे....तभी तो नाम महाभारत हुआ....कौन थे ये लोग? कौरव पांडव? यह एक गृहयुद्ध था जो देश-विदेश तक फ़ैल गया था और हम कहते हैं कि हिन्दुओं ने कभी कोई आक्रमण नहीं किया. किसी ने भी आक्रमण नहीं किया तो फिर यह युद्ध हो ही कैसे गया?
कलिंग के युद्ध में घोर रक्त-पात कोई मुसलमानों ने नहीं किया था.....पृथ्वीराज चौहान भरे दरबार में से संयोगिता को उठा लाया था और खूब युद्ध हुआ था जयचंद और उसका.............बात सिर्फ इतनी है कि यदि तैमूर-लंग तबाही मचाये तो वो विदेशी आक्रान्ता है, निंदनीय है और यदि अशोक राज्य फैलाए तो वो सम्माननीय है, सड़कों को उसका नाम दिया जा सकता है, अशोक चक्र को तिरंगे में लगाया जा सकता है.
मार-काट तो शैव और वैष्णवों में भी हुई.
मैंने सुना है कि बुद्ध धर्म के लोग के मुताबिक बुद्ध मन्दिर तोड़े गए, उन को भगाया गया, हिन्दू लोगों द्वारा. शायद ये जो साधुओं के अखाड़े है, ये इसी लिए बनाये गए थे. इन को वहां शस्त्र चलाना सीखाया जाता था ताकि ये बौद्ध लोगों को मार भगा सकें चूँकि बुद्ध की शिक्षाएं हिन्दुओं की जमी जमाई दूकान खराब कर रही थीं.
कुम्भ के शाही स्नान में कौन पहले करेगा इसलिए भी खूनी लडाइयां होती थी नागा बाबा अखाड़ों में. यह लडाईयाँ अंग्रेजों ने बंद करवाई थीं.
गुरु गोबिंद सिंह के बच्चे और परिवार जो शहीद हुए तो वजह सिर्फ़ मुग़ल हुक्मरान ही नहीं थे, पहाड़ी हिंदू राजे भी थे. कोई 50 के करीब थे ये राजे, जिन्होंने मुग़लों के साथ मिल कर गुरु साहेब पे आक्रमण किया था. नतीजा हुआ अनेक सिंहों और गुरु साहेब के परिवार की शहीदियाँ.
हिन्दू महासभा के ही किसी व्यक्ति ने तो ओशो पर भी हमला किया था.
दाभोलकर, पनसारे, कलबुरगी, Gauri Lankesh आदि लेखकों का मारा जाना निश्चित ही हिंदुत्व वादी सोच का नतीजा हैं
असल में हमारी दुनिया ही सीमित थी. हम बहुत दूर तक लड़ने जा नहीं पाए. जहाँ तक लड़ सकते थे लड़ते रहे.
इस के अलावा हिन्दुओं में जो जाति प्रथा है, वो क्या है? समाज के एक बड़े हिस्से को शूद्र (क्षुद्र) कर दिया गया, यह क्या कम हिंसक है? अभी भी खबरें आती रहतीं है कि छोटी जाति वाले ने बड़ी जात में शादी कर ली तो उस की हत्या कर दी गयी. यह है हिन्दू सहिष्णुता.
किसी रेखा को छोटा करना हो तो उस के बगल में बड़ी रेखा खींच दो. और वो रेखा इस्लाम ने खींच दी. सो अब वो छोटी रेखा नज़र ही नहीं आती.
इतिहास ठीक से समझिये, वर्तमान सही सही समझने में मदद मिलेगी.
~ तुषार कॉस्मिक

इन्सान अपनी लानतें अपने कुत्तों पे भी भेज रहा है.

खाना कम नहीं करो ....शारीरिक श्रम बढ़ाओ...फिर खाना खाते हुए भी सोचोगे कि बहुत मेहनत करनी पड़ती है.....सो थोडा हिसाब से खाओ.....यह है तरीका...वो भी खाना घटाने का नहीं, बस बदलने का होता है.....जैसे घास फूस बढ़ाओ खाने में........फल-फूल-पत्ते ज़्यादा खाओ....जैसे चौपाये खाते हैं......फिर मिला जुला अनाज खाओ....जैसे पक्षी खाते हैं...तुम ने कोई जानवर, कोई पक्षी मोटा देखा?.. जो हैं, तो वो इंसानों की कुसंग की वजह से. मैंने देखें हैं पालतू कुत्ते जिन से चला तक नहीं जाता, इतने मोटे हैं. इन्सान अपनी लानतें अपने कुत्तों पे भी भेज रहा है. जानवरों से, पंछियों से सीखो. वो अभी इंसानी मूर्खताओं से दूर हैं. ~ तुषार कॉस्मिक

Tuesday, 17 May 2022

ज्ञानवापी मस्जिद???

भसड़ मची है. काशी की ज्ञानवापी मस्जिद मंदिर तोड़ के बनाई गयी थी या नहीं. मेरी राय. देखिये पहली तो बात यह है कि मुस्लिम मूर्तिभंजक है. सबूत देता हूँ. 2001 में बामियान में बुद्ध की विशालकाय मूर्तियाँ डायनामाइट लगा तोड़ीं गईं. कुतब मीनार के पास मस्जिद है, वो कई जैन मंदिर तोड़ बनाई गयी. अजमेर में "अढाई दिन का झोपड़ा" नाम की मस्जिद है. अढाई दिन में मन्दिर तोड़ मस्जिद में तब्दील की गयी थी. मंदिर के अवशेष अभी रखे हैं वहां. ये बस चंद मिसाल हैं.....


आप ने मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि देखी है, इस की ठीक साथ सटा के मस्जिद बनाई गयी है. ऐसी ही ज्ञान वापी मस्जिद दिखती है, मंदिर से सटा के बनाए गयी. मस्जिद का नाम "ज्ञानवापी" ही एक हिन्दू नाम है. दूसरी बात ऐसा हो नहीं सकता कि एक कौम जो मूर्तिभंजक है, वो मूर्ती पूजकों के पूजा स्थलों को बख्श दे. मेरी मोटा-मोटी समझ यह है कि निश्चित ही बहुत से मन्दिर तोड़ मस्जिद बनाए गयी होंगीं.

तो अब क्या किया जाए? मेरी समझ के मुताबिक मंदिर और मस्जिद का धर्म से तो कोई लेना-देना है नहीं. यह मंदिर-मस्जिद की लड़ाई गिरोहों के वर्चस्व की लडाई. इन में इस्लाम सब से ज़्यादा आक्रामक है. सो इस्लाम की क्रिया की प्रतिक्रिया तो ज़रूरी है ही.

जबरन किये गए कृत्य, चाहे कभी भी किये गए हों, किसी ने भी किये हों, किसी भी गिरोह ने किये हों, अब इस दुनिया में बर्दाश्त नहीं होंगें, यह संदेश इस्लाम को ही नहीं, पूरी दुनिया को जाना ज़रूरी है. ~ तुषार कॉस्मिक

Wednesday, 11 May 2022

रोटी कपड़ा और मकान, जीवन की तीन पहली ज़रूरतें हैं~ सच में?

हम्म.......मैं असहमत हूँ. कुछ-कुछ.
"रोटी"
रोटी नहीं, फल हैं जीवन की ज़रूरत. कुदरती खाना. धो लो बस और खा लो. यह क्या है पहले गेहूं उगाओ, फिर पीसो, फिर गूंथों, फिर रोटी बनाओ, फिर घी लगाओ, फिर खाओ? इतना लम्बी प्रक्रिया! फिर ऐसे ही तो खा भी नहीं सकते. उसके लिए सब्ज़ी अलग से पकाओ. फिर साथ में अचार और पता नहीं क्या-क्या.....यह सब अप्राकृतिक है. खाना है ज़रूरत, लेकिन वो खाना रोटी ही है, इस से मैं असहमत हूँ. मेरे गणित से इन्सान न माँसाहारी है और न ही शाकाहारी. इन्सान फलाहारी है.
और इन्सान ने खेती कर कर ज़मीन चूस ली है. मैंने सुना है, पंजाब, हरियाणा जैसे प्रदेशों में धरती की उपजाऊ शक्ति काफी घट गयी है.
इसीलिए ज़हरीली खाद डाल-डाल धरती को चूसा जाता है, धरती माता का रस निकाला जाता है, ठीक वैसे ही जैसे भैंस मौसी या गाय माता का अतिरिक्त दूध निकालने के लिए इंजेक्शन ठोके जाते हैं.
बेहतर यही था कि इन्सान धरती पर जंगल रहने देता. थोड़ी ज़मीन अपने रहने के लिए साफ़ करता बाकी जगह पेड़-पौधे रहते तो ज़मीन कहीं ज़्यादा खुश-हाल होती. पेड़-पौधों पर उगे, फल-फूल से काम चलाता तो कहीं स्वस्थ भी रहता.
"कपड़ा" कपड़ों की ज़रूरत है लेकिन उतनी नहीं जितनी समझी जा रही है. मुझे लगता है कि तमाम इंसानियत कपड़ों के प्रति बहुत आसक्त है, मोहित है, पग्गल है. कपड़ा तुम्हें सर्दी से बचा सकता है. धूल-धक्कड़ से बचा सकता है, तेज धूप से भी बचा सकता है. तुम्हारे मल-मूत्र विसर्जन के अंग-प्रत्यंग, तुम्हारे जनन अंग ढक सकता है. इस सब के लिए कपड़ों का प्रयोग किया जा सकता है. लेकिन तुम क्या करते हो? तुम हर वक्त कपड़ों में लिपटे रहते हो.

मैं पार्क में भयंकर किस्म की एक्सरसाइज करता हूँ. बस लोअर स्पोर्ट्स-वियर पहन कर. मुख्य वजह सूरज की रौशनी का सेवन. कहते हैं विटामिन-डी सिर्फ सूरज की रौशनी से ही मिलती है. मुझे नहीं पता? लेकिन मुझे यह ज़रूर पता है कि सूरज है तो हम हैं. मुझे यह पता है कि हम हर सर्दियों में रजाई-गद्दे धूप में रखते हैं ताकि वो dis-infected हो जाएँ. हम अचार धूप में रखते हैं ताकि वो लम्बे समय तक चलें. मुझे यह पता है कि जितना कुदरत के नज़दीक जायेंगे, उतना सेहत-मंद रहेंगे, उतना तन-मन प्रफुल्लित रहेगा.

मैंने सुना कि गोरों के मुल्कों में चूँकि धूप एक नियामत है सो उन्होंने एक दिन रखा हफ्ते में ताकि वो धूप सेक सके अपने तन पर. उस दिन का नाम रखा गया Sunday. और इस दिन को छुट्टी का दिन रखा गया, इस दिन को पवित्र दिन कहा गया. Sunday is the Holiday.

और यहाँ भारत में लोग लड़ने आ जायेंगे यदि बनियान उतार कर धूप में बैठ गए तो. यहाँ भारत में तो सामाजिक मर्यादा भंग हो जाएगी. यहाँ भारत में रंग काला हो जायेगा यदि धूप में बैठे तो. बैठेंगे भी तो पूरे कपड़े पहन कर और सूरज की तरफ़ पीठ कर के.

यह मुल्क तो गाता ही है,"गोरी तेरा गाँव बड़ा प्यारा....."
न तो किसी को काली का गाँव प्यारा लगता और न ही काली लड़की.

"गोरी हैं कलाईयाँ, हरी-हरी चूड़ियाँ....."
यह तो गाया जा सकता है
लेकिन
क्या किसी ने गाया, "काली है कलाईयाँ, पीली-पीली चूड़ियाँ..?"

मैंने तो यह तक सुना कि Sunscreen भी बकवास सी चीज़ है. सूरज की रोशनी से तो सारा जीवन है, वो क्या नुक्सान करेगी? ज़्यादा धूप लगे, गर्मी लगे तो सहज सुलभ ही प्राणी छाया में चला जाता है, चले ही जाना चाहिए.

खैर, आशंका थी मुझे, कोई न कोई एतराज़ करेगा. और बहुत ही ज़बरदस्त एतराज़ किया गया, आर-एस-एस की शाखा लगाने वालों द्वारा. मैं खुद यह शाखा लगाता रहा हूँ. बहुत ही बेसिक किस्म का फलसफा है आर-एस-एस का. भारतीय संस्कृति ही महानतम है. आर-एस-एस इस्लाम की प्रतिछाया है कुछ अर्थों में. इस्लाम तो बहुत-बहुत हिंसक है. आर-एस-एस उस तरह से हिंसक तो कतई नहीं है लेकिन इसे कुछ भी नया स्वीकार नहीं है. नवीनता, वैज्ञानिकता के नाम पर इन के पास ऋषि-मुनि ही है. इन्हें भारतीय कूड़े की भी आलोचना पसंद नहीं है.

खैर, बाबा रामदेव हजारों लोगों के सामने अर्ध-नग्न हो कर एक्सरसाइज कर लें, टी.वी. के माध्यम से घर-घर आ जाएँ तो ठीक है, लेकिन मैं ऐसा कर लूं तो वो बर्दाश्त नहीं है. एक अर्ध-नग्न आदमी जिस्म पर चाबुक मारता हुआ, गली-गली घूम भीख मांगे, वो मंज़ूर है, लेकिन मेरा एक्सरसाइज करना मंज़ूर नहीं है. इन की लड़कियां और औरतें शिव-लिंग, गौर करें 'लिंग' की पूजा करें, वो मंज़ूर है, लेकिन मेरा एक्सरसाइज करना मंज़ूर नहीं है. ये लोग अपनी शाखाओं में "सूर्य नमस्कार" सिखाते हैं. जिस का अर्थ ही है सूर्य को नमन करते हुए योगासन करना. सूर्य को भी नहीं पता होगा कि उस के और इन्सान के बीच कपड़ों का आना ज़रूरी है. काश कुदरत नंगे-पुंगे बच्चे न पैदा कर के कपड़ों में लिपटे बच्चे पैदा करती. कम से कम निकर बनियान तो पहना के ही भेजती बच्चों को. यह बहुत ही गलत है. नंग-धड़ंग बच्चे. मर्यादा भंग होती है ऐसे समाज की.

खैर, मेरा मानना यह है कि आप जितना बिना कपड़ों के रहेंगे, उतना तन और मन से स्वस्थ रहेंगे. कुछ दशक पहले की बात है, हम लोग छत्तों पर सोते थे रात को. तारे गिनते हुए. खुली हवा में. जैसे सूर्य स्नान है, वैसे ही वायु स्नान है. शरीर को खुली हवा भी लगनी चाहिए. लेकिन उस के लिए भी नग्न होना चाहिए तन.

जिन के पास निजी स्थान की सुविधा हो उन को तो कतई निर्वस्त्र हो कर धूप ग्रहण करनी चाहिए. बिना अंडर वियर के. उन को बाकयदा एक Sun Room (सूर्य कक्ष) बनाना चाहिए. जिस का फ्रंट सूर्य की तरफ खुला हो और जिस पर छत न हो. हैरान मत होईये, जब "खाना कक्ष", "पाखाना कक्ष" हो सकता है तो सूर्य कक्ष भी हो सकता है.
आप को ध्यान है, महाभारत की कथा? दुर्योधन जा रहा था माँ के सामने निर्वस्त्र चूँकि माँ गांधारी ने ता-उम्र जो आँख पर पट्टी बंधी थी, वो खोलने जा रही थी और उन की आँख के तेज से दुर्योधन का जिस्म वज्र जैसा मज़बूत होने जा रहा था. लेकिन रास्ते में कृष्ण बहका देते हैं, "अरे, माँ के सामने ऐसे जाओगे? बच्चे थोड़ा न हो? कम से कम यौन अंग ही ढक लो." और दुर्योधन यौन अंग ढक लेता है. और युद्ध में यौन अंग पर जब भीम वार करता है तो दुर्योधन मारा जाता है. Beaches पर भी जो लोग धूप लेने जाते 100% नंगे तो वो भी नहीं होते. जननांग तो वो भी ढके रहते हैं. हमारे यौन अंग तो ता-उम्र धूप देख ही नहीं पाते. तो यह जो Sun Room का कांसेप्ट दिया न मैंने, इस से यौन अंग भी धूप पा लेंगे और वज्र तो न भी हों लेकिन स्वस्थ ज़रूर हो जायेंगे. आप देखते हो, जंघा और यौन अंग के बीच की चमड़ी पसीना मरते रहने की वजह से गल-गली सी हो जाती है. यदि Sun Room का प्रयोग करेंगे तो इस तरह की कोई भी दिक्कत नहीं होगी. प्रॉपर्टी डीलर हूँ. Sun-facing प्रॉपर्टी की डिमांड सब से ज़्यादा रहती है. आप जानते हैं, घरों में, दुकानों में, गोदामों में धूप,अगरबत्ती, हवन करने का क्या कारण है? आप शब्द देख रहे हैं? "धूप अगरबत्ती". सूर्य की धूप की कमी को इस तरह से "धूप अगरबत्ती" पूरा करने का प्रयास किया जा रहा है. नहीं? खैर, मेरा नजरिया यह है कि ये Closed Premises के अंदर की बासी,अशुद्ध हवा को शुद्ध करने का प्रयास होता है. तो फिर इस धूप से क्या बचना?
उल्लू के ठप्पे हैं लोग जो 'सूर्य-नमस्कार' भी करते हैं तो छाया में. तुम्हें पता ही नहीं, तुम्हारे पुरखों ने जो सूर्य-भगवान को पानी देने का नियम बनाया था न, वो इसलिए कि सूर्य की किरणें उस बहाने से तुम्हारे बदन पे गिरें. और तुम हो कि डरते रहते हो कि कहीं त्वचा काली न पड़ जाए. कुछ बुरा न होगा रंग गहरा जायेगा तो. बल्कि ज़ुकाम-खांसी से बचोगे. हड्ड-गोडे सिंक जायेगें तो पक्के रहेंगे. ठीक वैसे ही जैसे एक कच्चा घड़ा आँच पर सिंक जाता है तो पक्का हो जाता है. बाकी डाक्टरी भाषा मुझे नहीं आती. विटामिन-प्रोटीन की भाषा में डॉक्टर ही समझा सकता है. मैं तो अनगढ़-अनपढ़ भाषा में ही समझा सकता हूँ. हम जो ज़िंदगी जीते हैं वो ऐसे जैसे सूरज की हमारे साथ कोई दुश्मनी हो. एक कमरे से दूसरे कमरे में. घर से दफ्तर-दूकान और वहां से फिर घर. रास्ते में भी कार. और सब जगह AC. एक करेला ऊपर से नीम चढ़ा. कोढ़ और फिर उसमें खाज. कल्पना करो. इन्सान कैसे रहता होगा शुरू में? जंगलों में कूदता-फांदता. कभी धूप में, कभी छाया में. कभी गर्मी में, कभी ठंड में. इन्सान कुदरत का हिस्सा है. इन्सान कुदरत है. कुदरत से अलग हो के बीमारी न होगी तो और क्या होगा? उर्दू में कहते हैं कि तबियत 'नासाज़' हो गई. यानि कि कुदरत के साज़ के साथ अब लय-ताल नहीं बैठ रही. 'नासाज़'. अँगरेज़ फिर समझदार हैं जो धूप लेने सैंकड़ों किलोमीटर की दूरियां तय करते हैं. एक हम हैं धूप शरीर पर पड़ न जाये इसका तमाम इन्तेजाम करते हैं. "धूप में निकला न करो रूप की रानी.....गोरा रंग काला न पड़ जाये." महा-नालायक अमिताभ गाते दीखते हैं फिल्म में. खैर, स्वयंभू ने मुझे बताया है:- "हम ने सर्द दिन बनाये और सर्द रातें बनाई लेकिन तुम्हारे लिए नर्म नर्म धूपें भी खिलाई जाओ, निकलो बाहर मकानों से जंग लड़ो दर्दों से, खांसी से और ज़ुकामों से."
"जादू" याद है. अरे भई, ऋतिक रोशन की फ़िल्म कोई मिल गया वाला जादू. वो 'धूप-धूप' की डिमांड करता है. शायद उसे धूप से एनर्जी मिलती है. आपको भी मिल सकती है और आप में भी जादू जैसी शक्तियाँ आ सकती हैं. धूप का सेवन करें. मैं पैदाईश हूँ वीडियो गेम के पहले की.
हम पतंग उड़ाते थे, गलियों में कंचे खेलते थे, कभी ताश भी, कभी गुल्ली डंडा. धूप, गर्मी, हवा में. और कभी बारिश में भी.
आज बच्चे वीडिओ गेम खेलते देखता हूँ तो मन खिन्न हो जाता है. आँखें और हाड-गोड्डों के जोड़ ही नहीं बुद्धि भी खराब कर लेंगे.
कल आप को रोबोट मिल जायेंगे सेक्स तक करने के लिए. लेकिन याद रखना नकली खेल, नकली सेक्स, नकली प्रेम नकली ही रहेगा.
विडियो गेम से यदि ड्राइविंग सीखने में मदद मिलती हो तो ठीक है लेकिन इसे असल ड्राइविंग समझने की भूल करेंगे तो मारे जायेंगे.
खुली हवा में, धूप रहिये, खेलिए, नकली को असली की जगह मत लेने दीजिये.
"मकान" इन्सान को मकान चाहिए, चाहिए भी या नहीं, इस पर मेरे अपने कुछ तर्क हैं.

प्रॉपर्टी के कांसेप्ट को दुनिया का निकृष्टतम कांसेप्ट मानता हूँ. धरती माता ने किसी के नाम रजिस्ट्री आज तक की नहीं है. इन्सान आते-जाते रहते हैं. धरती वहीं रहती है. यदि इन्सान निजी सम्पति का कांसेप्ट छोड़ दे तो सारी धरती सब इंसानों के लिए available रहेगी. यह धरती सब की है और सब इस धरती के हैं. सिवा इन्सान के कोई भी प्राणी इस धरती पर रहने के लिए किराया नहीं देता. इन्सान को छोड़ किसी भी प्राणी के घर वैध-अवैध नहीं होते.

मकान हमें गर्मी-सर्दी से बचाते हैं. मल-मूत्र विसर्जन की निजता देते हैं. सम्भोग करने की निजता देते हैं. सो मकानों की ज़रूरत तो है लेकिन वो मकान निजी सम्पतियाँ हों, यहाँ मैं सहमत नहीं हूँ. आप देखते हैं, अनेक मकान खाली पड़े रहते हैं, और उधर लाखों लोग सड़क पर होते हैं. आधे से ज्यादा अपराध और मुकदमे तो प्रॉपर्टी से ही जुड़े होते हैं.

और निजी प्रॉपर्टी के कांसेप्ट की वजह से ही इन्सान अधिकांशत: घरों के अंदर ही अंदर घुसा रहता है. यह घर-घुस्सापन अपने आप में ही बीमारयों की जड़ है. जब मेरे जैसे लोग निजी सम्पति के कांसेप्ट के खिलाफ लिखते-बोलते हैं तो हमें वामपंथी बोला जाता है, कम्युनिस्ट (कौम-नष्ट) लिखा जाता है. हमें कहा जाता है कि पहले अपनी सम्पत्तियों की बली हम दें. ठप्पा मात्र इस लिए लगाया जाता है ताकि हमारी विश्वसनीयता ही खत्म की जा सके. दूसरी बात, जब तक आप किसी को वर्तमान व्यवस्था से बेहतर व्यवस्था में डालने का विश्वास नहीं दिला पायेंगे कौन अपनी वर्तमान व्यवस्था छोड़ेगा? हम आप को एक कांसेप्ट दे रहे हैं. उस कांसेप्ट पर काम कीजिये. उस पर प्रयोग कीजिये. जब प्रयोग सफल होने लगेंगे तो निश्चित ही बड़े स्तर पर उन प्रयोगों को उतार दीजिये.

तो निकलो बाहर मकानों से, जंग लड़ो .....किस से? अब आगे यह आप खुद तय कर लीजिये.

तुषार कॉस्मिक

आपकी धार्मिक और सांस्कृतिक भावनाएँ आहत होना इस बात का सबूत नहीं है कि आप सही हैं।

क्योंकि लोगों की धार्मिक भावनाएँ तो तब भी आहत हुई थी, जब गैलीलियो ने कहा था कि पृथ्वी गोल है, जब राजाराम मोहन राय ने सती प्रथा का विरोध किया था, जब ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने विधवाओं के पुनर्विवाह का समर्थन किया था और जब सावित्रीबाई फुले एक भारतीय विदुषी ने लड़कियों और दलितों के लिये पहले -पहल स्कूल की स्थापना की थी।

-By Jyoti Pethakar Ji from Facebook

गहरे में देखें तो श्रीलंका संकट पूरी दुनिया के लिए शुभ है

श्रीलंका में यह जो मंत्री पीटे जा रहे हैं न, बिलकुल सही किया जा रहा है. नकली महामारी से आम-जन का जीना हराम कर दिया. सब मिले हुए हैं मंत्री से लेकर संतरी. ये क्या अंधे थे जिन्होंने बिना कोई सबूत, बिना कोई सोच-समझ पूरे मुल्क को lockdown में झोंक दिया? Lockdown का नतीजा ही है आर्थिक संकट. वो संकट जो इन नेता लोगों की मूर्खताओं की वजह से पूरी दुनिया के आम-जन को झेलना पड़ रहा है. इन के साथ ऐसा ही होना चाहिए. दुनिया भर में.

गहरे में देखें तो श्रीलंका संकट पूरी दुनिया के लिए शुभ है. यह नकली महामारी की विदाई का कारण बनेगा. Tushar Cosmic

इन दो सवालों से सारी सामाजिक व्यवस्था भरभरा कर गिर जायेगी

मात्र 2 सवाल और एक तिहाई दुनिया की व्यवस्था गिर जाएगी.
क्या हैं वो सवाल?

समझिये, अधिकांश दुनिया मानती है कि कोई शक्ति है जिसने दुनिया बनाई है, जो दुनिया को चला रही है. और ध्यान, प्रार्थना, आरती, अरदास, नमाज़ से इस शक्ति से मदद ली जा सकती है.

इन से पूछिए, यदि दुनिया को बनाने वाला कोई है तो फिर उस बनानें वाले को बनाने वाला कौन है, फिर उस बनाने वाले को बनाने को बनाने वाला कौन है.....?

और

यदि ईश्वर/गॉड अपने आप अस्तित्व में आ सकता है तो यह दुनिया, यह कायनात क्यों नहीं? यह है पहला सवाल.

दूसरा सवाल यह है, तुम्हारे पास क्या सबूत है कि तुम्हारे कीर्तन, तुम्हारी प्रार्थना, नमाज़, आरती, विनती, उस परम शक्ति तक पहुँचती है और वो परम शक्ति उस के मुताबिक कोई रिस्पांस देती ही है?

तुम देखोगे, तुम्हारे इन दो सवालों का इन के पास कोई जवाब नहीं  होगा.

तुम देखोगे, इन दो सवालों से सारी सामाजिक व्यवस्था भरभरा कर गिर जायेगी. और यह गिर ही जानी चाहिए. ~ तुषार कॉस्मिक

Monday, 9 May 2022

लड़का हिन्दू और लड़की मुस्लिम. प्रेम. शादी. यह बरदाश्त ही नहीं है, इस्लाम में

नागराजू का क़त्ल कर दिया गया सुल्ताना के भाई द्वारा. दिन दिहाड़े. हैदराबाद की सड़क पर.

लड़का हिन्दू और लड़की मुस्लिम. प्रेम. शादी. यह बरदाश्त ही नहीं है, इस्लाम में. चूँकि अब बच्चे हिन्दू हो जायेंगे. मुस्लिम समाज की संख्या कमतर हो जाएगी. इस्लाम तो पलता-पनपता ही संख्या बल पर है.

हां, यदि उल्टा होता तो स्वागत है. लड़की ब्याह लायें हिन्दू की तो स्वागत है. चूँकि अब बच्चे मुस्लिम होंगें. संख्या बल बढ़ेगा. अल्लाह-हू-अकबर !

~ तुषार कॉस्मिक

Saturday, 7 May 2022

आज बच्चे वीडिओ गेम खेलते देखता हूँ तो मन खिन्न हो जाता है

मैं पैदाईश हूँ वीडियो गेम के पहले की. हम पतंग उड़ाते थे, गलियों में कंचे खेलते थे, कभी ताश भी, कभी गुल्ली डंडा. धूप, गर्मी, हवा में. और कभी बारिश में भी. आज बच्चे वीडिओ गेम खेलते देखता हूँ तो मन खिन्न हो जाता है. आँखें और हाड-गोड्डों के जोड़ ही नहीं बुद्धि भी खराब कर लेंगे. कल आप को रोबोट मिल जायेंगे सेक्स तक करने के लिए. लेकिन याद रखना नकली खेल, नकली सेक्स, नकली प्रेम नकली ही रहेगा. विडियो गेम से यदि ड्राइविंग सीखने में मदद मिलती हो तो ठीक है लेकिन इसे असल ड्राइविंग समझने की भूल करेंगे तो मारे जायेंगे. नकली को असली की जगह मत लेने दीजिये.~तुषार कॉस्मिक

Sunday, 1 May 2022

सोशल मीडिया और उल्लू के ठप्पे लोग

सोशल मीडिया ने सब को अपनी बात-बकवास कहने का मंच दिया है.

कोई सुबह शाम गुड मोर्निंग, गुड इवनिंग कर रहे हैं.

कोई होली दीवाली, ईद-बकरीद की बधाई दे रहे हैं.

कोई उधार की सूक्तियां आगे पेलने को ही महान ज्ञान समझ रहे हैं.

कोई सिर्फ अपना धार्मिक या राजनीतिक एजेंडा ही पेले जा रहे हैं.

कोई अपनी भोंडी आवाज़ के साथ बेसुरे गायन को karaoke पर गाये जा रहे हैं.

कोई गाने पर हेरोइन जैसी सिर्फ़ भाव-भंगिमा दिखा के एक्टर बनने का शौक पूरा किये जा रही हैं.

ये सब सस्ते तरीके हैं. इन से आप को कोई नाम-दाम मिलने से रहा. और गलती से दो-चार दिन के लिए आप मशहूर हो भी गए तो वापिस गुमनाम होने में भी देर नहीं लगेगी."सेल्फी मैंने ले ली आज " वाली ढीन्ठक पूजा कितने लोगों को याद है आज?

कुल जमा मतलब यह कि कचरा लोग सोशल मीडिया पर कचरा ही फैला रहे हैं.

अबे, कुछ क्रिएटिविटी लाओ, कुछ बुद्धि लगाओ, कोई कला पैदा करो पहले. फिर आना सोशल मीडिया पर. वरना सीखो. सोशल मीडिया बहुत कुछ सिखाता भी है. सीखो पहले.

याद रहे, तुम्हारा कूड़ा दूसरों को साफ़ करने में भी मेहनत लगती है. होली दीवाली के अगले दिन जैसे गलियों में गन्दगी बढ़ जाती है, ऐसे ही फोन और कंप्यूटर पर भी कूड़ा बढ़ जाता है, जिसे डिलीट करना अपने आप में समय खाऊ काम होता है.
कूड़ा मत बढ़ाओ.

तुषार कॉस्मिक

Wednesday, 27 April 2022

प्रशांत किशोर जैसे लोग प्रतीक हैं कि भारतीय राजनीति जनता और उसकी वास्तविक समस्याओं से पलायन कर एक छद्म माहौल की रचना से वोटों की फसल काटने की अभ्यस्त होती जा रही है ~ By Hemant Kumar Jha Good Article on the Modern Politics

By Hemant Kumar Jha a Very Good Article on the Modern Politics ~~~

प्रशांत किशोर जैसे लोग इस तथ्य के प्रतीक हैं कि भारतीय राजनीति किस तरह जनता और उसकी वास्तविक समस्याओं से पलायन कर एक छद्म माहौल की रचना के सहारे वोटों की फसल काटने की अभ्यस्त होती जा रही है।
यह अकेले कोई भारत की ही बात नहीं है। चुनाव अब एक राजनीतिक प्रक्रिया से अधिक प्रबंधन का खेल बन गया है और यह खेल अमेरिका से लेकर यूरोप के देशों तक में खूब खेला जाने लगा है।
ऐसा प्रबंधन, जिसमें मतदाताओं को अपने पाले में लाने के लिये भ्रम की कुहेलिका रची जाती है, छद्म नायकों का निर्माण किया जाता है और उनमें जीवन-जगत के उद्धारक की छवि देखने के लिये जनता को प्रेरित किया जाता है।
दुनिया में कितनी सारी कंपनियां हैं जो राजनीतिक दलों को चुनाव लड़वाने का ठेका लेती हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव हो या ब्राजील, तुर्की से लेकर सुदूर फिलीपींस के राष्ट्रपति का चुनाव हो, इन कंपनियों ने नेताओं का ठेका लेकर जनता को भ्रमित करने में अपनी जिस कुशलता का परिचय दिया है उसने राजनीति को प्रवृत्तिगत स्तरों पर बदल कर रख दिया है।
जैसे, बाजार में कोई नया प्रोडक्ट लांच होता है तो उसकी स्वीकार्यता बढाने के लिये पेशेवर प्रबंधकों की टीम तरह-तरह के स्लोगन लाती है। ये स्लोगन धीरे-धीरे लोगों के अचेतन में प्रवेश करने लगते हैं और उन्हें लगने लगता है कि यह नहीं लिया तो जीवन क्या जिया।
भारत में नरेंद्र मोदी राजनीति की इस जनविरोधी प्रवृत्ति की पहली उल्लेखनीय पैदावार हैं जिनकी छवि के निर्माण के लिये न जाने कितने अरब रुपये खर्च किये गए और स्थापित किया गया कि मोदी अगर नहीं लाए गए तो देश अब गर्त्त में गया ही समझो।
प्रशांत किशोर इस मोदी लाओ अभियान के प्रमुख रणनीतिकारों में थे। तब उन्होंने मोदी की उस छवि के निर्माण में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था जो राष्ट्रवाद, विकासवाद और हिंदूवाद के घालमेल के सहारे गढ़ी गई थी।
सूचना क्रांति के विस्तार ने प्रशांत किशोर जैसों की राह आसान की क्योंकि जनता से सीधे संवाद के नए और प्रभावी माध्यमों ने प्रोपेगेंडा रचना आसान बना दिया था।
अच्छे दिन, दो करोड़ नौकरियाँ सालाना, चाय पर चर्चा, महंगाई पर लगाम, मोदी की थ्रीडी इमेज के साथ चुनावी सभाएं आदि का छद्म रचने में प्रशांत किशोर की बड़ी भूमिका मानी जाती है।
वही किशोर अगले ही साल "बिहार में बहार है, नीतीशे कुमार है" का स्लोगन लेकर बिहार विधानसभा चुनाव में मोदी की पार्टी के विरोध में चुनावी व्यूह रचना करते नजर आए।
दरअसल, ठेकेदारों या प्रबंधन कार्मिकों की अपनी कोई विचारधारा नहीं होती। हो भी नहीं सकती और न ही इसकी जरूरत है। वे जिसका काम कर रहे होते हैं उसके उद्देश्यों के लिए सक्रिय होते हैं।
कभी प्रशांत किशोर मोदी की चुनावी रणनीति बनाने के क्रम में राष्ट्रवाद का संगीत बजा रहे थे, बाद के दिनों में ममता बनर्जी के लिये काम करने के दौरान बांग्ला उपराष्ट्रवाद की धुनें बजाते बंगाली भावनाओं को भड़काने के तमाम जतन कर रहे थे। कोई आश्चर्य नहीं कि तमिलनाडु में स्टालिन के लिये काम करने के दौरान वे उन्हें हिंदी के विरोध, सवर्ण मानस से परिचालित भाजपा के हिंदूवाद के विरोध के फायदे समझाएं। जब जैसी रुत, तब तैसी धुन।
बार-बार चर्चा की लहरें उठती हैं और फिर चर्चाओं के समंदर में गुम हो जाती हैं कि प्रशांत किशोर देश की सबसे पुरानी पार्टी की जर्जर संरचना को नया जीवन, नया जोश देने का ठेका ले रहे हैं। मुश्किल यह खड़ी हो जा रही है कि अब वे ठेकेदारी से आगे बढ़ कर अपनी ऐसी राजनीतिक भूमिका भी तलाशने लगे हैं जो किसी भी दल के खुर्राट राजनीतिज्ञ उन्हें आसानी से नहीं देंगे।
प्रशांत किशोर, उनकी आई-पैक कंपनी या इस तरह की दुनिया की अन्य किसी भी कंपनी की बढ़ती राजनीतिक भूमिका राजनीति में विचारों की भूमिका के सिमटते जाने का प्रतीक है।
जहां छद्म धारणाओं के निर्माण के सहारे मतदाताओं की राजनीतिक चेतना पर कब्जे की कोशिशें होंगी वहां जनता के जीवन से जुड़े वास्तविक मुद्दे नेपथ्य में जाएंगे ही।
टीवी और इंटरनेट ने दुनिया में बहुत तरह के सकारात्मक बदलाव लाए हैं। कह सकते हैं कि एक नई दुनिया ही रच दी गई है, लेकिन राजनीति पर इसके नकारात्मक प्रभाव ही अधिक नजर आए। अब प्रोपेगेंडा करना बहुत आसान हो गया और उसे जन मानस में इंजेक्ट करना और भी आसान।
जिस तरह कम्प्यूटर के माध्यम से किसी बौने को बृहदाकार दिखाना आसान हो गया उसी तरह किसी कल्पनाशून्य राजनीतिज्ञ को स्वप्नदर्शी बताना भी उतना ही आसान हो गया।
चुनाव प्रबंधन करने वाली कम्पनियों की सफलताओं ने राजनीति को जनता से विमुख किया है और नेताओं के मन में यह बैठा दिया है कि वे चाहे जितना भी जनविरोधी कार्य करें, उन्हें जनोन्मुख साबित करने के लिये कोई कंपनी चौबीस घन्टे, सातों दिन काम करती रहेगी।
डोनाल्ड ट्रम्प का राष्ट्रपति बनना, ब्राजील के बोल्सेनारो का शिखर तक पहुंचना, तुर्की में एर्दोआन का राष्ट्रनायक की छवि ओढ़ना, फिलीपींस में रोड्रिगो दुतेरते का जरूरत से अधिक बहादुर नजर आना...ये तमाम उदाहरण इन छवि निर्माण कंपनियों की बढ़ती राजनीतिक भूमिका को साबित करते हैं। ट्रम्प अगले चुनाव में हारते-हारते भी कांटे की टक्कर दे गए और आज तक कह रहे हैं कि दरअसल जीते वही हैं।
अपने मोदी जी की ऐसी महिमा तो अपरम्पार है। वे एक से एक जनविरोधी कदम उठाते हैं और प्रचार माध्यम सिद्ध करने में लग जाते हैं कि जनता की भलाई इसी में है, कि यही है मास्टर स्ट्रोक, जो अगले कुछ ही वर्षों में भारत को न जाने कितने ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बना देगा
तभी तो, दुनिया के सबसे अधिक कुपोषितों से भरे देश में 80 करोड़ निर्धन लोगों के मुफ्त अनाज पर निर्भर रहने के बावजूद देशवासियों को रोज सपने दिखाए जाते हैं कि भारत अब अगली महाशक्ति बनने ही वाला है।
उससे भी दिलचस्प यह कि शिक्षा को कारपोरेट के हवाले करने के प्रावधानों से भरी नई शिक्षा नीति के पाखंडी पैरोकार यह बताते नहीं थक रहे कि भारत अब 'फिर से' विश्वगुरु के आसन पर विराजमान होने ही वाला है।
प्रशांत किशोर जैसे राजनीतिक प्रबंधक इस बात को सुनिश्चित करते हैं कि जनता को उसका सच पता नहीं चले बल्कि जनता उसी को सच माने जो उनकी कंपनी के क्लाइंट नेता समझाना चाहें।
अमेरिका, यूरोप, तुर्की आदि तो धनी और साधन संपन्न हैं भारत के मुकाबले। वहां की जनता अगर राजनीतिक शोशेबाजी में ठगी की शिकार होती भी है तो उसके पास बहुत कुछ बचा रह जाता है। लेकिन भारत में ऐसे प्रबंधकों ने जिस तरह की राजनीतिक संस्कृति विकसित की है उसमें जनता ठगी की शिकार हो कर बहुत कुछ खो देती है। देश ने बड़े पैमाने पर सार्वजनिक संपत्तियों को निजी हाथों में जाते देखा, गलत नीतियों के दुष्प्रभाव से करोड़ों लोगों को बेरोजगार होते देखा, गरीबों की जद से शिक्षा को और दूर, और दूर जाते देखा, मध्यवर्गियों को निम्न मध्यवर्गीय जमात में गिरते देखा, निम्नमध्यवर्गियों को गरीबों की कतार में शामिल हो मुफ्त राशन की लाइन में लगते देखा...न जाने क्या-क्या देख लिया, लेकिन, अधिसंख्य नजरें इन सच्चाइयों को नजरअंदाज कर उन छद्म स्वप्नों के संसार मे भटक रही हैं जहां अगले 15 वर्षों में अखंड भारत का स्वप्न साकार होना है, उसी के समानांतर हिन्दू राष्ट्र की रचना होनी है और...यह सब होते होते उस महान स्वप्न तक पहुंचना है, जिसे 'राम राज्य' कहते हैं, जहां होगा 'सबका साथ, सबका विकास'।

Saturday, 23 April 2022

अजब-गजब बाबा


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"राधा स्वामी-पव्वा सवेरे और अद्धा शामी." खैर, यह तो मजाक में कहा जाता है लेकिन इस डेरे ने दिल्ली में छतरपुर में सैंकड़ों एकड़ ज़मीन हथिया रखी थी, जिसे कोर्ट आर्डर से खाली करवाया गया. क्या कोई प्रॉपर्टी डीलर मुकाबला करेगा इन का?

इसी लेख का वीडियो है, देख लीजिये

आसा राम जी और उन के सपूत पर  बलात्कार के आरोप लगे, साबित भी हुए, दोनों अंदर हैं. आसा राम तो अब शायद कभी बाहर आ भी न पाएं लेकिन भक्त-जन आज भी उन के हँसते हुए चेहरे के कैलेंडर घर में लगाये हैं और श्रधा से सर झुकाए हैं. गुरु चाहे गोबर हो जाये, चेला तो शक्कर बना ही रहेगा. 

बाबा राम देव. यह जनाब जब मोदी सरकार नहीं बनी थी तो कह रहे थे कि एक बार मोदी जी आ जाएँ तो पेट्रोल शायद पानी जितना सस्ता हो गया. और अब धमका रहे हैं, "हाँ, कहा था ऐसा. अब नहीं हुआ सस्ता पेट्रोल तो क्या पूछ पाड़ेगा?" इन का समाज विज्ञान इतना गहन है कि बड़े नोट बंद करने से ही भ्रष्टाचार खत्म कर देगा. वाह!

पंजाब में एक बाबा थे आशुतोष जी महाराज. यह सिधार गए हैं. कहाँ? नरक या स्वर्ग पता नहीं . लेकिन इन के शिष्य तो यह भी स्वीकार करने को तैयार नहीं कि मर चुके. शिष्यों ने इन की बॉडी डीप फ्रीज़र में रख रखी है. बाबा की आत्मा भ्रमण कर रही है, वापिस लौटेगी. "मेरे करण-अर्जुन आयेंगे........."

एक थे बाबा राम रहीम सिंह जी इंसान. खिलाड़ी, गायक, एक्टर, डायरेक्टर, फिल्म निर्माता.भक्तों  के पिता जी थे. हालांकि पिता जी पर भक्तों की बेटियों के बलात्कार का आरोप था. साबित भी हुआ और पिता जी जेल भी चले गए लेकिन भक्तों के लिए आज भी ये पिता जी हैं......  

एक थे हरियाणा के संत राम पाल. ये कबीर वाणी  की व्याख्या करते करते खुद ही दिव्य हो गए. शायद पढ़ा था कहीं कि जिस द्रव्य से ये नहाते थे लोग उसे पीते थे. खैर जेल यात्रा इन को भी मिली.आसानी से तो पकड़ में भी नहीं आये थे. फोर्सेज के साथ बहुत धक्का-मुक्का ही थी. 

एक और स्वामी थे नित्यानंद. इन पर भी क्रिमिनल  आरोप लगे. लेकिन ये होशियार-चंद निकले. ये आसाराम और राम पाल जैसों का हश्र देख चुके थे सो मुल्क छोड़ भाग गए. सुना है कोई ISLAND खरीद कर एक नया मुल्क ही बना लिया है इन ने. कैलासा. वैरी गुड.

अभी-अभी के खबर है कि दिल्ली रोहिणी में कोई "अध्यात्मिक विश्वविद्यालय" था. इस में सैंकड़ों औरतों को जानवरों के स्तर पर रखा गया था. अंदर सूरज की रौशनी एक किरण तक नहीं पहुँचती थी. 
अध्यात्मिक विश्वविद्यालय! 

ये आप को चंद बड़ी सूचनाएं दीं हैं, बाकी छोटी-मोटी खबरें रोज़ आती ही रहती हैं,  बाबा बलात्कारी निकला, बाबा चोर निकला, बाबा फ्रॉड निकला...आदि आदि.......

असल में इन बाबा लोगों में कोई कमाल नहीं है. कमाल तो जनता की मूर्खता है. इस का कोई अंत नहीं है. 
हरि नाम अनंता हरि कथा अनन्ता....

एक थे निर्मल बाबा. "थे" कहना ठीक नहीं है, वो अभी भी "हैं". ये तो सब अटकी हुई "कृपा" गोलगप्पों की चटनी और गुलाब जामुन खाने से ही बरसा देते थे.

अभी इस सूची में ३ और लोग जोड़ने रह गए हैं.

आप ने विडियो देखे होंगे, जिस में एक ईसाई Priest जरा सा सर पे छूता है किसी शख्श के और वो शख्स एक दम कूदता-फांदता है, उस में अजीब शक्ति का प्रसार हो जाता है. अब यह सब नौटंकी है. घटिया. उथली. किसी भी तरह से दुसरे धर्मों के लोगों को अपने खेमे में खींच लाने का टुच्चा प्रयास. 

दूसरा, इस लिस्ट में ज़ाकिर नायक को जोड़ना है. इसे मैं ज़ाकिर ना-लायक कहता हूँ. यह बन्दा मुल्ला दाढ़ी में, कोट पेंट पहन कर सब धर्म ग्रन्थों का रिफरेन्स गति से फेंकता था. हजारों की संख्या में लोग मौजूद. मन्तव्य वही. किसी भी तरह से बाकी धर्मों के लोगों को इस्लाम में खींच लाना. इस बंदे के पास एक ही हथियार था, वो था धर्म ग्रन्थों का उल्लेखन, रिफरेन्स देना. सुनने वाले चमत्कृत. कहाँ क्या लिखा है, इसे याद रख लेने में क्या? असल बात है, आप इस दुनिया को नया क्या देते हो, क्या ज्ञान-विज्ञान छोड़ के जाते हो पीछे. आप के जीवन में, कथन में क्या कलात्मकता है, क्या वैज्ञानिकता है. और जब ज़ाकिर नायक जैसों की हर बात कुरान से शुरू और कुरान पे ही खत्म होती है इन से ज्ञान, विज्ञान, कला की क्या अपेक्षा करें.     

अंत में भिंडरावाला. इस व्यक्ति पर मैंने अलग से लेख लिखा है, जिस पर फेसबुक पर बहुत घमासान हुआ भी है. इसे आज भी बहुत से सिख अपना हीरो मानते हैं. इस की तस्वीर अपनी कारों पर चिपकाते हैं. इस की छपी तस्वीर वाली टी-शर्ट पहनते हैं. जिन दिनों पंजाब में आतंकवाद चल रहा था, मैं बठिंडा में ही था. पढ़ रहा था. अस्सी के बाद से ही हिन्दुओं के कत्ल शुरू हो गए थे. बसों से उतर कर, कतार में खड़े कर के गोलियों से भून दिया जाता था. ऐसा रोज़ ही होता था. 10/20/30 हिन्दू रोज़ मारे जाते थे. और यह महान काम करते थे सिक्ख आतंकवादी. जिन को खाड़कू कहा जाता था. भिंडरावाला इन सब का हीरो बन चुका था. संत भिंडरावाला. यदि वो संत था तो संत की परिभाषा फिर से गढ़नी होगी.  

Albert Einstein once said, “Two things are infinite: the universe and human stupidity.” 

मुझ से अक्सर दोस्त लोग कहते हैं, "इत्ता अच्छा बोल लेते हो, लिख लेते हो, सोच लेते हो, क्या फायदा? बाबा बन जाओ." लेकिन मैं मूर्ख हूँ. मुझे दुनिया को मूर्ख नहीं बनाना बल्कि मूर्ख बनने से बचाना है जो कि ज़्यादा मुश्किल काम है. लेकिन मैंने मुश्किल काम ही चुना है. 

नमन.
तुषार कॉस्मिक  

Friday, 22 April 2022

तुम पत्थर को शैतान समझ मारो, वो ठीक, और जो पत्थर को शिवलिंग, हनुमान, पिंडी देवी समझ पूजे वो गलत?

मुस्लिम जब हज करते हैं तो शैतान को पत्थर मारते हैं. 

असल में यह  शैतान भी एक पत्थर ही है. जब पत्थर भगवान नहीं हो सकता तो शैतान कैसे हो सकता है? और यदि पत्थर शैतान हो सकता है तो भगवान क्यों नहीं? 

तुम पत्थर को शैतान समझ मारो, वो ठीक, और जो पत्थर को शिवलिंग, हनुमान, पिंडी देवी समझ पूजे वो गलत? 

कमाल!

तुषार कॉस्मिक

सबसे मुश्किल भरा होता है खुद को नादान से चौकस बनाना.

सबसे मुश्किल भरा होता है खुद को नादान से चौकस बनाना. आप होते नहीं और ना ऐसा करने की ज़रूरत ही समझते हैं लेकिन अचानक आपको लगता है कि अब तक आप जैसे बेफिक्र चले जा रहे थे वो गलत था. फिर आप रोज़ खुद को थोड़ा-थोड़ा बदलते हैं. चोटों और नाकामयाबी से बचने के लिए ऐसा करना ज़रूरी हो जाता है मगर कुछ साल बाद आप खुद को आइने के सामने पाते हैं. शक्ल पहचान पाना मुश्किल हो जाता है. आइने में दिख रहा चेहरा उस इंसान जैसा लगता है जिससे आप कुछ वक्त पहले इसलिए नफरत करते थे क्योंकि वो बहुत चालाक था - copied

क्या तुम ने कभी किसी वैज्ञानिक की तस्वीर लगाई अपनी id पे?

क्या तुम ने कभी किसी वैज्ञानिक की तस्वीर लगाई अपनी id पे? बाबा बूबी लगाए फिरते हो. विज्ञान तुम्हें रोशनी देता है और ये गुरु घण्टाल तुम्हें घण्टे की तरह बजाते हैं. लेकिन फिर भी तुम.... Idiots!

~ तुषार कॉस्मिक

पत्थर मारना इब्रह्मिक धर्मों की संस्कृति है.

पत्थर मार-मार के जान से मार देने का इब्रह्मिक धर्मों में पुरानी रवायत है. एक वेश्या को लोग पत्थर मार के मार देना चाह रहे थे तो, जीसस ने उस बचाया, यह कह कर कि पत्थर वही मारे, जिसने खुद कोई गुनाह न किया हो. मजनूँ को लोग पत्थर मार रहे थे चूँकि वो लैला को अल्लाह से ज़्यादा मोहब्बत करता था, जिस की इजाज़त इस्लाम में है ही नहीं. फिर लैला गाती है, "कोई पत्थर से न मारे मेरे दीवाने को.....". मंसूर (सूफी संत) को मुसलमानों ने पत्थर मार-मार मार दिया. आप को YouTube पर फिल्म मिल जाएगी Stoning of Soraya. इस फिल्म में एक मुस्लिम स्त्री पर परगमन का झूठा इल्जाम लगा कर उसे पत्थर मार मार के मार दिया जाता है. मुस्लिम जब हज करते हैं तो शैतान को पत्थर मारते हैं. असल में यह शैतान भी एक पत्थर ही है. पत्थर कोई कश्मीर में ही नहीं मारे जाते फ़ौज पर, अभी-अभी स्वीडन की पुलिस पर भी मुसलामानों ने पत्थर फेंके हैं. जहाँगीर-पुरी दिल्ली में भी यही हुआ है. पत्थर मारना इब्रह्मिक धर्मों की संस्कृति है. ~तुषार कॉस्मिक