Thoughts, not bound by state or country, not bound by any religious or social conditioning. Logical. Rational. Scientific. Cosmic. Cosmic Thoughts. All Fire, not ashes. Take care, may cause smashes.
Friday, 20 October 2017
शब्द
Monday, 16 October 2017
राजनीति का कूड़ा सफाई का ढंग
सनातन
सनातन, तथा-कथित सनातन अगर वाकई सनातन है तो open डिबेट मन्दिरों में आयोजित करे, चाहे वो राम के खिलाफ हो, चाहे पक्ष में...चाहे कृष्ण को खंडित करे, चाहे मंडित....चाहे कोई पंडित हो चाहे खंडित ....सनातन को क्या परवा?.....बदलने दो अगर कुछ बदलाव आता है तो...Change is the only Constant.
मीठे-2 फॉरवर्डड मेसेज
पटाखे
जय शाह बनाम 'द वायर' केस
Friday, 13 October 2017
सरकार और कोर्ट
मोदी के मुकाबला का सही ढंग
नई राजनीति
भारत माता ध्वस्त होनी चाहिए
Thursday, 12 October 2017
अमिताभ बच्चन जन्म-दिवस स्पेशल
लानत है, उस मुल्क कि सभ्यता संस्कृति पे, जहाँ सदी के महानायक के रूप में ऐसे व्यक्ति को प्रतिबिम्बित किया जाता रहा है ----
1) जिन्होंने ने फिल्मों में काम करने के अलावा लगभग कुछ नहीं किया...अरे यदि मानदंड फिल्मों में काम ही रखना था तो बेहतर था गुरुदत्त को या आम़िर खान जैसे व्यक्ति को महानायक मान लेते.....कम से कम इन लोगों ने समाज को अपनी फिल्मों के ज़रिये बहुत कुछ सार्थक देने का प्रयास तो किया ....अमिताभ की ज्यदातर फिल्मों में दिखाया क्या गया...एक एंग्री यंग मैन .....जो समाज की बुराईयों से लड़ता है शरीर के जोर पे.....सब बकवास ....शरीर नहीं विचार के जोर से समाज की बुराई खतम की जा सकती है..और जिन कलाकारों ने यह सब दिखाने का प्रयास किया, वो चले गए नेपथ्य में...उनकी फिल्मों को आर्ट फिल्में, बोर फिल्में कह के ठुकरा दिया गया.....समाज को कचरा चाहिए था..अमिताभ की फिल्मों ने कचरा परोस दिया.....काहे की महानता? कला में क्या बलराज साहनी, ॐ पूरी, नसीरुद्दीन शाह किसी से कम रहे हैं....अगर सिनेमा के महानायक की ही बात कर लें तो भी अमिताभ मात्र कचरा सिनेमा के ही महानायक हैं. कुछ फिल्में अच्छी की हैं, लेकिन अधिकांश कचरा.
2) जिन्होंने पैसों की खातिर अंट-शंट advertisements की, इनसे तो बेहतर गोपी चंद पुलेला हैं, जिन्होंने पेप्सी की advertisement का बड़ा ऑफर ठुकरा दिया और इसलिए ठुकरा दिया क्योंकि उन्हें पता है कि पेप्सी सेहत के लिए हानिकारक है
कुछ ही समय पहले अमिताभ ने एक advertisement किया है ....पारले जी बिस्कुट का .......इस में वो एक अमीर व्यक्ति दिखाये गए हैं जो अपने नौकर पे इसलिए खफा होते हैं कि वो "सोचता" है ...श्रीमानजी फरमाते हैं , "अच्छा, तो अब आप सोचने भी लगे हैं"...जैसे सोचने का ठेका सिर्फ मालिक को है....जैसे नौकर ने सोच लिया तो गुनाह कर दिया
http://www.youtube.com/watch?v=x9VmK0L5vrk
Life taught me that Khushiyan (Happiness) can be brought in life through understanding of Life, but Amitabh Bachan is teaching me that Khushiyan are can be brought by eating MAGGI (2 Minute Me Khushiyan).
http://www.youtube.com/watch?v=ww8o0aCNDR0
3) जिनमें राजनीति की न सोच थी, न समझ... बस कूद गए बिना सोचे समझे....लेकिन फ़िर भागे मैदान छोड़ के तो दोबारा नहीं पलटे...अरे, मुल्क का समय, पैसा, उम्मीदें सब बर्बाद होती हैं ऐसे गैर ज़िम्मेदार नेताओं की वजह से ..... यदि वास्तव में ही जज़्बा होता देश सेवा का, तो सीखते और टिके रहते मैदान में.
4) जो अमर सिंह जैसे नेता को साथ चिपकाये रहे......वो अमर सिंह... जिनका शायद ही देश की दिशा-दशा सुधारने में कोई योगदान किसी को पता हो.
5) लानत है..... इस देश को सदी महानायक के लिए आंबेडकर, सी वी रमण, जगदीश बसु, मुंशी प्रेम चंद, भगत सिंह, आज़ाद, सुरजो सेन, अशफाकुल्लाह खान, राम प्रसाद बिस्मिल जैसे लोग न दिखे...
ऐसे लोग न दिखे जो समाज के दिए में तेल कि जगह अपना लहू जलाते रहे, दिखे तो पाद मारने के भी पैसे लेने वाले एक्टर, लानत है.
जन-जीवन के लिए जो असली नायक हैं, महानायक हैं...वो चले गए हाशिये पे और ऐसे व्यक्तियों ने जगह घेर ली जिनका योगदान नगण्य है या फिर ऋणात्मक है.
6) हमारा समाज यदि उन्हें मात्र सिनेमा का ही महानायक मानता तो वो आपको मैगी, कोला जैसी अंट-शंट advertisement में न दीखते... व्यापारी वर्ग कोई मूर्ख नहीं है जो उनको करोड़ों रुपये देगा चंद सेकंड की परदे पे मौजूदगी के....व्यापारी को पता है कि भारतीय समाज सिनेमा के नायक को भगवान् की तरह पूजता है, मंदिर तक बनाता है, और यहीं मेरा विरोध है .....आप लाख कहते रहो कि वो तो मात्र सिनेमा के नायक हैं, महानायक हैं......लेकिन सब जानते हैं कि फिल्म-कलाकार भारतीय जनमानस के देवता हैं.
7 ) लाख गीत गाते रहो अपनी महान सभ्यता संस्कृति के, महानायक के चुनाव से सब ज़ाहिर होता है कितनी महान सभ्यता है, कितनी महान है संस्कृति.
8 ) जिस दिन इस देश के मापदंड बदलेंगे उस दिन कोई उम्मीद बनेगी, वरना जैसी देश की कलेक्टिव सोच है, वैसे ही नायक मिलेंगें, वैसे ही महानायक, वैसी ही सरकार बनेगी, वैसे ही बे-असरदार सरदार मिलेंगें, और खिलाड़ी ओलंपिक्स में पिटते रहेंगें और रुपया बाज़ार में धूल फांकता रहेगा.
9) यार मेरे थम तो
ले थोडा दम तो
पहचान असली हीरो कौन है
वो जो कुछ कुछ मौन है
जो न नेता है
न अभिनेता है
जो क्रिकेट नहीं खेलता
पर रोज़ दंड पलता
वो जो पहाड़ धकेलता
उत्तराखंड को झेलता
वर्दी वाला देवता
छोटी पगार लेवता
बचा रहा है तुम को
बचा रहा है हम को
यार मेरे थम तो
ले थोडा दम तो
पहचान असली हीरो कौन है
वो जो कुछ कुछ मौन है
जो दिन रात लगाता है
भेद कुदरती सुलझाता है
सियासत पर भार बना
मज़हब का शिकार बना
कचहरी में उलझाया गया
जिंदा जलाया गया
जिसने बिजली दी कार दी
नवजीवन की फ़ुहार दी
सुविधायों की बौछार दी
जीवन को नयी धार दी
यार मेरे थम तो
ले थोडा दम तो
पहचान असली हीरो कौन है
वो जो कुछ कुछ मौन है
जो पत्थर घढ़ता है
जो शब्द गढ़ता है
कथा कहानी कहता है
खोया खोया रहता है
मीठा तो कभी ख़ार है
वो ही कलाकार है
जो मूर्तिकार है
जो चित्रकार है
यार मेरे थम तो
ले थोडा दम तो
पहचान असली हीरो कौन है
वो जो कुछ कुछ मौन है
नमन.......तुषार कॉस्मिक
Wednesday, 11 October 2017
भगवान
वो शून्य है
अब है तो फिर शून्य कैसे
और शून्य तो फिर है कैसे
लेकिन वो दोनों
कबीर समझायें तो उलटबांसी हो जाए
गोरख समझायें तो गोरख धंधा हो जाए
वो निराकार है
और साकार भी
साकार में निराकार
और निराकार में साकार
वो प्रभु
वो स्वयम्भु
वो कर्ता और कृति भी
वो नृत्य और नर्तकी भी
वो अभिनय और अभिनेता भी
वो तुम भी
और वो मैं भी
बस वो ...वो ...वो ...वो
मैं नास्तिक नहीं हूँ......हाँ, लेकिन जिस तरह आस्तिकता समझी जाती है, उन अर्थों में आस्तिक भी नहीं हूँ. मेरे लिए हमारा समाज ही भगवान है, हमारी धरती ही भगवती है, हमारा ब्रह्मांड ही ब्रह्मा है. मैं कॉस्मिक हूँ. मैं तुषार कॉस्मिक हूँ.
केवल कुछ प्रश्न और सभी धर्म और इन धर्मों पर आधारित संस्कृतियाँ धराशायी हो जाएँगी:---
प्रश्न 1:- यदि आप मानते हैं कि हर चीज़ का निर्माण किसी ने किया है और कोई ईश्वर या ईश्वर जैसी इकाई है, तो उस इकाई का निर्माण किसने किया? यदि वह इकाई स्वयं निर्मित हो सकती है, तो यह ब्रह्माण्ड क्यों नहीं?
प्रश्न 2: इस बात का प्रमाण कहां है कि आपके मंदिर, मस्जिद, चर्च, आपकी प्रार्थनाएं और आपके पुजारी उस ईश्वरीय इकाई से जुड़ने का एक तरीका हैं?
प्रश्न 3: इसका प्रमाण कहां है कि यदि आप प्रार्थना करते हैं तो ईश्वर जैसी इकाई आपकी इच्छाओं पर सकारात्मक प्रतिक्रिया देती है?
कुदरत ही भगवान है. जहान ही भगवान है. प्रभु से बढ़िया शब्द है. स्वयम्भू. सेल्फ क्रिएशन. शम्भू. लेकिन इसे पूजने से कोई फायदा नहीं. आदमी पूजन के चक्कर में इसे खराब करता है उल्टा. फूल चढ़ा ही हुआ है भगवान् को. उसे काट के, पत्थर की मूर्ती पे चढ़ा देता है. इडियट है. इन्सान को करना बस इतना है कि इस दुनिया में कुदरत के मुताबिक जीए. यही पूजा काफी है.
बिलकुल हम भी कुदरत का हिस्सा हैं, कुदरत ही हैं. लेकिन इन्सान तक आते आते कुदरत ने इन्सान को सेल्फ डिसिशन की शक्ति दी है. और होता यह है कि इन्सान संस्कृति के चक्कर में विकृति कर देता है. अब ज़रूरत यह है कि जितना जल्द हो सके कुदरत की और लौटना चाहिए. उसमें बहुत कम छेड़-छाड़, न के बराबर ही करनी चाहिए.
धर्मों पर मेरा नज़रिया है कि मैं किसी भी तथा-कथित धर्म को नहीं मानता. लेकिन आपको ईश्वर, अल्लाह, वाहगुरू जो मर्ज़ी मानना हो, आप आज़ाद होने चाहिए. आस्तिक्ता की आजादी होनी चाहिए और नास्तिकता की भी. धर्म निहायत निजी मामला होना चाहिए. और आज़ादी बस वहीं तक जहाँ तक दूसरे की आज़ादी में खलल न डालती हो. लाउड स्पीकर बंद. सड़कों का दुरूपयोग बंद. कोई लंगर नहीं, कोई नमाज़, कोई शोभा यात्रा नहीं सड़क पर. जागरण भी करना हो तो साउंड प्रूफ कमरों में करो. नमाज़ की कॉल करने के लिए sms प्रयोग करें या कुछ भी और जिससे बाकी समाज को दिक्कत न हो. और स्कूलों में भगवान की कोई प्रार्थना नहीं. स्कूल शिक्षा स्थल है, वहां तो चार्वाक और मार्क्स भी पढ़ाया जाना है, वो पक्षपात कैसे कर सकता है?
सरकारी कामों में किसी भी धर्म का समावेश नहीं होना चाहिए. कोई भूमि-पूजन नहीं, कोई नारियल फोड़न नहीं. पश्चिम ने चर्च और सरकार को अलग किया. हमारे यहाँ भी सैधांतिक तौर पर ऐसा ही है, लेकिन असल में धर्म जीवन के हर पहलु पर छाया हुआ है. यहाँ नेता किसी एक वर्ग का प्रतिनिधित्व करता रहता है. ओवेसी साफ़ बोलता है कि मैं मुस्लिम -परस्त हूँ. भाजपा हिन्दू-परस्त है. और ये सब गरीब-परस्त है. जबकि प्रजातंत्र की परिभाषा ही यह है कि जो सरकार बने, वो सेकुलर हो, तो ये मुस्लिम-हिन्दू-गरीब-परस्त सेकुलर कैसे होंगे? इन पर तो दसियों वर्षों के लिए पाबंदी लगनी चाहिए. अक्ल ठिकाने आ जाए.
और जिस तरह सुबह-शाम धार्मिक स्थल, बाबा, गुरु लोग प्रवचन करते हैं धार्मिकता पर, वैसे ही वैज्ञानिकता पर भी समाज में प्रवचन करवाने चाहियें. वैज्ञानिकता से मतलब फिसिक्स, केमिस्ट्री ही नहीं होता. जीवन के हर पहलु में वैज्ञानिकता लाए जाने की दरकार है.
आज एक राज़फाश करता हूँ......ये जो भगवान, परमात्मा, प्रभु, अल्लाह, वाहगुरू जो भी नाम प्रयोग करते हो न और मांगते हो...मंदर, मस्ज़िद, गुरुद्वारे में झुक-झुक कर. आरतियाँ उतारते हो, अरदासें करते हो, सब मोनोलोग हैं.मतलब तुम्हारी तुमसे ही बातचीत.सड़क पर चलते अक्सर देखे होंगे ऐसे लोग, जो खुद से ही बतियाते चलते हैं. क्या समझते हैं ऐसे लोगों को देख कर? यही कि कुछ पेच ढीला है. सुनने वाला कोई नहीं, फिर भी सुनाए जाते हैं....लेकिन मन्दिर, गुरुद्वारे, चर्च में तुम्हे खुद पर हैरानी नहीं होती...झुक-झुक जाते हो, बक-बकाये जाते हो.....कोई नहीं देख रहा, कोई नहीं सुन रहा.लेकिन तुम्हें वहम है......और पुजारी, भाई जी, मौलवी जी को कुछ-कुछ पता है कि सब ड्रामा है लेकिन वो कभी सच तुम पर उजागर नहीं होने देंगे...वरना रोज़ी-रोटी छिन्न जाएगी......सो वो पूरा दम-खम लगाए रहते हैं कि तुम्हारा वहम कायम रहे.........जो मांगे ठाकुर आपने ते, सो ही सो ही देवे.......कुछ नहीं देने वाला है, वो. जो देना था, दे चुका.....हाथ पैर दे दिए, सर दे दिया, सर में दिमाग दे दिया. छुट्टी. प्रयोग करो, इन एसेट को. उसके बाद न वो कुछ देता है, न देने वाला है, समझ लो. लेकिन अगर समझ लोगे तो ये गिरजे, गुरूद्वारे, मंदर, मसीत गिर जायेंगे, इनकी डिमांड न के बराबर हो जायेगी, मात्र इस इकलौती बात के समझ आते ही.
क्या दयालु भगवान?
सुनता हूँ कि भगवान बड़ा दयावान है, कृपालु है.....सभी धर्मों में कहते हैं...कुरआन में तो शुरू में ही लिखा है.
मेरा ख्याल है कि यदि भगवान कोई है भी तो वो कतई दयालु, कृपालु नहीं है....दुनिया देख कर तो यह लगता है कि जैसे वो कोई बदला ले रहा हो इन्सान से.....या मज़ा ले रहा हो जैसे रोमन सम्भ्रांत वर्ग अपने योद्धाओं को लड़वा कर खेल की तरह मजा लेते थे........योद्धा (ग्लैडिएटर ) लड़ते थे, एक दूसरे का लहू बहाते थे.......कत्ल करते थे और सम्भ्रांत वर्ग ताली पीटता था....ऐसी ही है यह दुनिया....अधिकांश लोग कीड़े मकोड़ों की तरह पैदा होते हैं........गरीबी में जीते हैं, गरीबी में मर जाते हैं........एक संघर्ष, इंसान का इन्सान के बीच संघर्ष...... सम्भ्रांत का बाकी समाज के साथ संघर्ष सब जगह व्याप्त है ..
इतिहास उठा कर देख लो...वर्तमान देख लो........छोटी बेटी के लिए नर्सरी गीत लगाते हैं हम यू- ट्यूब पर.....बाबा ब्लैक शीप........उसमें भेड़ से ऊन माँगी जाती है.........ऊन माँगी जाती है मालिक के लिए, मालकिन के लिए और सड़क पर रहने वाले के लिए.......रामायण पढ़ो.गणिका मौजूद है. रावण को मार जब सब लौटते हैं तो भरत हनुमान को बहुत सी लड़कियां उपहार स्वरूप देता है......व्यवस्था कैसी थी, ठीक आज जैसी.......मालिकों, मालकिनों, मजदूरों और बेघर गरीबों से भरी .......यह है दुनिया......दयालु है भगवान?
कहा जाता है कि यह दुनिया उसी की लीला है...ठीक है उसके लिए तो लीला है लेकिन बहुत लोगों की खुशी को लील रही है यह लीला..... काहे का दयालू? वो तो सर्वशक्तिमान है. वो तो दाता है. वो तो दयालु है, कृपालु है. दुनिया का सुलतान है, मालिक है तो फिर क्यों नहीं इस तरह की दुनिया सही करता? ज्यादातर इन्सान सुखी होने चाहियें, खुश होने चाहिए, जीवन की ख़ास न सही लेकिन आम ज़रूरतें तो आराम से मौजूद होनी चाहियें .......दुनिया में तंदुरुस्ती और मनदुरुस्ती होनी चाहिए....कोई कोई भूखा हो, दुखी हो अपवाद स्वरूप तो माना जा सकता है कि अल्लाह दयालु है......लेकिन दुनिया देखो...उल्टा है........कोई कोई सुखी दीखता है, खुश दीखता है.......धन धान्य जिनके पास भरपूर है, वो चंद लोग ही हैं .........बस चंद लोग मज़ा मारते दीखते हैं....बाकी तो चक्रव्यूह में फंसे फंसे दुनिया से चले जाते हैं ........दुनिया एक बड़ा पागलखाना लगती है....बीमार....गरीबी की मार. ये कैसी दुनिया बनाई है भगवान ने, खुदा ने? दयालु, कृपालु ने?
लेकिन नहीं.....असल बात यह है कि लीला अवश्य उसी की है.....लेकिन व्यवस्था उस की नहीं है...व्यवस्था हमने बनानी है और बनाने के औज़ार उसने हमें दिए हैं...इन औजारों से हम चाहें तो जो उसने दिया उससे खुद को बेहतर कर लें या नीचे गिरा लें...और इन्सान को देख साफ़ हो जाता है कि उसने खुद को नीचे गिरा लिया है.....प्रकृति से ऊपर उठ संस्कृति नहीं, नीचे गिर विकृति पैदा की है....संस्कृति शब्द को देखें ...सम+ कृति ....ऐसी कृति जिसमें कोई समता हो. कैसी समता पैदा की है हमने? चंद लोग "मैं चाहे ये करूं, मैं चाहे वो करूं, मेरी मर्ज़ी" गायें और बाकी "दुनिया में आये हैं तो जीना ही पड़ेगा, ज़िंदगी अगर ज़हर है तो पीना ही पड़ेगा" गायें ....यह संस्कृति है?
न....न...वो भगवान, वो खुदा...तटस्थ है....वो बस हमें संघर्ष करते, बेहतर होते देखना चाहता है.........उसने इन्सान को जो देना था दे दिया...और 'वो' जो देना था, वो 'बुद्धि' है, 'फ्री विल' है, 'मुक्त इच्छा'.......बुद्धि प्रयोग करो, अपने चुनाव करो,अपनी इच्छा और अपनी बुद्धि से अपने चुनाव करो....अच्छे बुरे के लिए तुम स्वयम ज़िम्मेवार हो....वो तटस्थ रहता है.......मौन, मग्न, ....दूर से देखता हुआ, दूर दर्शक.......वो बीच में नहीं आता.
उसने तुम्हें ‘फ्री विल’ दी, ‘मुक्त इच्छा’ दी लेकिन तुम्हारे पण्डे, मौलवी, पादरी, महात्मा तुम्हें परमात्मा की मर्ज़ी मानने को कहते रहेंगे....नहीं, उसकी मर्ज़ी यही है कि तुम अपनी मर्ज़ी से जीवन जीयो.....अपना भार अपने कन्धों पर लो......अपनी ज़िम्मेदारी खुद लो.......लेकिन तुम्हे समझाया जाता रहता है कि मनमति मत प्रयोग करो......गुरमति प्रयोग करो......कोई कहेगा कि फलां किताब से हुक्मनामा लो, हिदायत लो, कमांडमेंट लो ....सब षड्यंत्र हैं.....अष्टयंत्र हैं, सहस्त्रयंत्र हैं....... सब परमात्मा की इच्छा के खिलाफ हैं.....उसकी इच्छा यह है कि तुम अपनी इच्छा से जीवन जीयो और तुम्हारे धर्म कहते हैं कि नहीं, परमात्मा की इच्छा से जीयो........लेकिन जब वो कहते हैं कि परमात्मा की इच्छा से जीयो तो उनका कहना यह नहीं होता कि परमात्मा की इच्छा यह है कि तुम अपनी इच्छा से जीयो, यदि यह कहना हो तो फिर कहने की ज़रूरत ही नहीं कुछ....नहीं उनका मतलब होता है...अलां किताब, फलां किताब के हिसाब जीयो.....किसी गुज़रे जमाने के इंसान के हिसाब से जीयो......सब बकवास है यह ...इंसान से उसकी आज़ादी, वो आज़ादी जो खुद खुदा ने दी है, वो छीनने का घिनोना खेल है
तुम प्रार्थना करोगे या नहीं करोगे उस अल्लाह, खुदा, भगवान को कोई मतलब है नहीं.......तुम्हारी मन्नतों से, तुम्हारी प्रार्थनाओं से, अरदासों से उसे कोई मतलब है ही नहीं......तुम्हारे सवा रुपैये या सवा लाख या सवा करोड़ रुपैये चढ़ाने से उसे कोई मतलब ही नहीं है....आकर पढता हूँ कि शिर्डी मंदिर में, या दक्षिण के किसी मंदिर में किसी ने करोड़ों रुपये का सोना चढ़ा दिया.......मूर्ख हैं, बेहतर हो पैसे का कोई बेहतर उपयोग खोजें....कुछ भी समझ न आये तो मुझे दे दें....मैं रोज़ लिखता हूँ, लिखता क्या लड़ता हूँ, जूझता हूँ कि दुनिया बेहतर हो सके...लेकिन नहीं, मैं कोई उस तरह का सौदा नहीं कर सकता. कोई गारंटी नहीं दे सकता कि आप मुझे एक रूपया दोगे तो बदले में आपको हज़ार, लाख, करोड़ मिलेंगे...मैं तो कहूँगा कि इस तरह का सौदा ही झूठा सौदा होता है....अक्सर कहा जाता है कि कोई भी डील यदि बहुत बढ़िया दीखती हो, असम्भव फायदे का वायदा करते दीखती हो तो बहुत सम्भावना है कि वो डील ही झूठी हो....मेरे हिसाब से मंदिर, मज़ार, गुरुद्वार में जो डील की जाती हैं सब असम्भव डील हैं, झूठी डील हैं ...मैं दूसरी डील दे सकता हूँ....डील दे सकता हूँ कि सडकें बेहतर बनें, स्कूल, अस्पताल सही चलें, शिक्षा बेहतर हो ......लेकिन मेरे जैसे बंदे को कोई फूटी कौड़ी नहीं देगा.....अस्तु, न दे.....मैं फिर भी हाज़िर हूँ
मेरे यह चंद शब्द मजहबों की मूल धारणा की जडें हिला सकती है....चूँकि धर्मों की तो दुकानीं ही इस बात पर चलती हैं कि भगवान आपकी प्रार्थना सुनता है.........उसका जवाब भी देता है...यदि आपने ठीक से चापलूसी की तो आपको मदद भी करता है........ सब मंदिर, गुरुद्वारे, मजारें बस ठिकाने हैं प्रार्थनाओं के, अरदासों के, मन्नतों के.......आप रब, खुदा, भगवान की सिफतें गाओ........ थोड़ा पैसा खर्च करो मतलब दान दो और बदले में हजारों गुणा वापिस पाओ....यह है सौदा
लेकिन जब मैं यह कहूं कि वो खुदा, परमात्मा बिलकुल तटस्थ है, तो फिर क्यूँ कोई जाए मंदिर, गुरुद्वारे, मस्ज़िद? ये लोग वहां कोई ज्ञान, कोई जीवन दर्शन सीखने थोडा पहुँचते हैं...सब एक अलिखित सौदे के तहत वहां मौजूद होते हैं, हाजिरी लगवाते हैं...और कहीं कहीं तो लिखित अर्जियां भी लगती हैं.....मैं बहुत पहले राजस्थान मेह्दीपुर बालाजी गया था...वहां लिखित में बालाजी को अर्जियां लगती थीं
अस्तु, मेरा गणित कहता है कि सब प्रार्थनाएं व्यर्थ हैं........कव्वों की कांव कांव से अगर ढोर मरने लगें तो सारा गाँव श्मशान हो जाए.....न न....कुदरत/परमात्मा/खुदा का अपना एक चक्कर है............वो कभी हमारी प्रार्थनाओं, अरदासों, मन्नतों के चक्कर में नहीं पड़ती/पड़ता.....वो कभी उस चक्कर में हस्तक्षेप नहीं करती/करता.
भगवान- My YouTube Video