Thursday, 9 April 2020

भक्ति

भक्ति अगर गलत है तो मुस्लिम होना भी गलत है। चूंकि मुस्लिम होना ही कट्टर होना है सो उसके मुक़ाबले में भक्त हो गए हिन्दू लोग। बिना क्रिया समझे आप प्र्तिक्रिया नहीं समझ सकतीं। कल कोई अफगानिस्तान में मुस्लिम के खिलाफ खड़ा हो जाए अगर तो आप को वो भी भक्ति लगेगी लेकिन आप समझेंगे नहीं कि वो भक्ति क्यों पैदा हुई? नहीं होनी चाहिए, लेकिन मोहम्मद के प्रति भी नहीं होनी चाहिए।

Wednesday, 1 April 2020

कोरोना है करुणा ..... सामाजिक विकृतियों का इलाज है



कोरोना है करुणा। सामाजिक विकृतियों का इलाज है। Corona is a Bliss. Corona is Cure of social Disbalance......

लॉकडाउन (Lockdown/ Quarantine) तो ठीक है. चला लीजिये छह महीने. लेकिन  गरीब और मध्यम वर्गीय तबके का क्या होगा? उनको खाना-दाना कौन देगा?  उनकी रोज़मर्रा की ज़रूरतें कैसे पूरी होंगी? वीडियो देखिये और समझिये वो, जो कोई नहीं बोल रहा, हल जिसे कोई नहीं सुझा रहा.   

प्रधानमंत्री ने लॉक डाउन के आदेश  दिया. लेकिन उस आदेश के साथ उनको बहुत कुछ और आदेश नहीं दिए जो की उनको देने चाहिए थे. 

मैं आपको एक-एक कर के  बता रहा हूँ और वो आदेश उनको क्यों देने चाहिए  थे यह भी बताऊंगा. 

कोरोना का शोर शराबा  जब तक है तब तक यदि किसी के घर या दूकान का किराया पंद्रह  हज़ार रुपये तक है तो उसे वो किराया देने से छूट  मिलनी चाहिए थी. 

बस ट्रैन का किराया माफ़ करना चाहिए था. 

स्कूल कॉलेज की फीस माफ़ होनी चाहियें. 

जितना आपका एवरेज बिल आता है, कम से कम उतना बिजली पानी का बिल माफ़ होना चाहिए.  

जिस किसी ने कैसे भी पैसा उधार लिया हो, चाहे सोना रखकर चाहे घर रख कर, अगर उसका ब्याज पंद्रह  हज़ार रुपये  माह तक का है तो वो ब्याज माफ़ होना चाहिए  था. 

गाड़ी, घर की EMI  पोस्टपोन कर देनी चाहिए  थी, जब तक कोरोना का हो हल्ला शांत नहीं होता. . 
और 
जिन लोगों ने व्यक्तिगत  प्रयोग हेतु कार रखी हैं, उनको छोड़ कर बाकी सब को प्रति व्यक्ति गृह खर्चे के लिए कम से कम सात हज़ार रुपये  महीना देना  चाहिए थे. 

यह सब मैं सिर्फ उनके लिए कह रहा हूँ जिनकी आमदनी इस लॉक-डाउन में लॉक हो गयी है. 

जिनको इस समय में भी कहीं से सैलरी मिल रही है या ब्याज आ रहा है या फिर कोई और आमदनी आ रही है, उनके लिए यह सब बिलकुल नहीं दिया जाना चाहिए. 

और यह सब उस क्ष्रेणी के लिए तो बिलकुल नहीं है जो अमीर है, सुपर रिच है. न...न. वो तो यह सब खर्चा वहां करेंगे. 


सीधा सा सवाल है कि  यह सब देगा कौन? तो यही अमीर वर्ग देगा. 

जो रिच है, जो सुपर रिच है उससे छीना  जायेगा. आप कहेंगे कि  यह कैसे संभव है?

तो मेरा जवाब है कि  यह सब बहुत आसानी से संभव है. सिर्फ आपको समझ आ जाये कि  यह संभव है तो यह संभव है. 

मैं एक  मिसाल से समझाता हूँ. 
सोना ज़्यादा कीमती है या लोहा? 
सोना. जवाब होगा. 
लेकिन काम क्या ज़्यादा आता है. लोहा. 
तो फिर जो चीज़ कुछ ख़ास काम ही नहीं आती उसे क्यों इतना कीमती माना है?
वो सिर्फ इसलिए चूँकि हमने ऐसा माना है.  
यदि इंसान सोने को कीमती मानना छोड़ दे तो फिर सोना कीमती रहेगा क्या लोहे के मुकाबले में? 
नहीं न?

तो यह है ताकत मानने की. 

तुमने मान रखा है कि  एक आदमी अमीर रखा जा सकता है, बहुत अमीर और दूजे को भिखारी रखा जा सकता है. 

तुमने मान रखा है बस. वरना  कुदरत थोड़ा न किसी को अमीर गरीब पैदा करती है. 

कोई बच्चा गरीब पैदा नहीं होता. सब एक जैसे  पैदा होते हैं. 
सबको दो हाथ, दो पैर, दो कान मिलते हैं.  

ठीक है दो कानों के बीच दिमाग सबके अलग हैं लेकिन यह भी तो समझिये कि  जो भी इस धरती पर आता है उसे खाने, पीने, रहने का हक़ है.
कौन जानवर किराया देता है इंसान के अलावा? अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम. 

मतलब पागलों की तरह कौन चाकरी करता है? सिर्फ काम ही काम कौन करता है? सुबह से शाम तक काम ही काम कौन करता है?

ऐसा सिर्फ इडियट  इंसान करता है. 

असल में जो कुछ भी जीवन के लिए बहुत ज़रूरी हैं, वो सब लगभग मुफ्त होना चाहिए या फिर बहुत थोड़े प्रयास से मिलना चाहिए. यह सब संभव है. बिलकुल संभव है.  

हमने कानून बनाया न कि कोई कितना ही अमीर हो उसे एक से ज़्यादा बीवी या  एक से ज़्यादा पति नहीं मिल सकते. बनाया न कानून? 

इसी तरह से हम कानून बना सकते हैं कि  एक सीमा के बाद पैसा पब्लिक डोमेन में आ जायेगा, चाहे किसी का भी हो. 

एस करते ही आपको सुपर रिच नहीं दिखेंगे. और आपको अथाह गरीब नहीं दिखेंगे. 

मैं हैरान होता हूँ कि गरीबी रेखा से नीचे भी कोई होता है. तो फिर वो होता ही क्यों है भाई?
कत्ल कर दो न उसे. 

यह तुम्हे अमानवीय लगता है?
 तो फिर उसे इत्ता गरीब क्यों रखा है?

तो यह मौका है अमीर, बेइंतेहा अमीर से पैसा छीनने का और ज़रूरतमंद को देने का. 

मौका है और दस्तूर न भी तो बनाया जा सकता है  ......   

यह मौका है यह सोचने का कि  क्या हमने जो संस्कृति बनाई है, वो संस्कृति है?

 तीन शब्द  हैं. प्रकृति..संस्कृति...विकृति

इंसान को फ्रीडम है. 

वो प्रकृति से ऊपर उठ सकता है. वो प्रकृति से नीचे भी गिर सकता है. 

ऊपर उठा तो संस्कृति... 
नीच गिरा तो विकृति. 

तो जो समाज बनाया है हमने, जिसमें गरीब बड़े शहर छोड़ हज़ारों किलोमीटर पैदल ही चल पड़े, भूखे-प्यासे चल पड़े हों, इस समाज को संस्कृति कह सकते हैं? 

यह सिर्फ और सिर्फ विकृति है. 

संस्कृति तो ऐसी कृति को कहते हैं जिसमें कुछ बैलेंस हो, कुछ सौंदर्य हो. कुछ समन्वयता हो. 

जो कृति टेडी-मेढ़ी हो उसे संस्कृति कैसे कहेंगे? 

जिस संस्कृति में कोई बहुत अमीर और कोई बहुत बहुत गरीब हो, उसे संस्कृति कैसे कहेंगे?

यह मौका है कि समझने का कि समाज के बड़े हिस्से को अथाह गरीब रखने का दुष्परिणाम पूरे समाज को भुगतना पड़  सकता है. 
यह मौका है गहन अध्ययन करने का, ब्रेन स्टॉर्मिंग का कि  गरीबी अमीरी के बड़े फासले को काम कैसे किया जा सकता है?
यह मौका है यह सोचने का कि अथाह अमीरी को, अथाह गरीबी को  कैसे सीमित किया जाए.
यह मौका है यह सोचने का कि अथाह आबादी को कैसे सीमित किया जाए. 

यह मौका है सोचने का कि सामजिक फासलों  कैसे कम किया जाये?

वकती दिक्क्तें, इमीडियेट खड़ी समस्याएं आपको मौका दे रही हैं, सदा सदा से मौजूद समस्यायों को हल करने का. 
कोरोना ने इंसान के  दूषित किये नदी नाले, हवा पानी ही साफ़ नहीं किया, समाजिक डिस-बैलेंस, विकृत समाज को भी सही  करने का मौका दिया है.  

आप भी सोच कर देखिये. 

वीडियो देखने के धन्यवाद, जहा भी देख रहे हों, जिस भी प्लाटफॉर्म पर कमेंट ज़रूर कीजिये शेयर ज़रूर कीजिये और अपनी राय के साथ शेयर  कीजिये.,

नमस्कार

Tuesday, 24 March 2020

कोरोना से मानव को भविष्य के लिए क्या सीखना चाहिए? कोरोना- करुणा अवतार॥


कोरोना .... देर सबेर चल ही जायेगा. लेकिन इस से मानव को क्या सीखना है?

पहली बात.      तुम्हारे बनाये हुए राजनितिक अखाड़े जिन्हे तुम बड़े फख्र से मुल्क कहते हो. वतन कहते हो. बकवास है. और वतनपरस्ती को बहुत ही इज़्ज़त देते हो, राष्ट्रवाद को पूजते हो, बकवास है.

देखा तुमने एक नन्हे वायरस ने सारी दुनिया को एक धरातल पर ला पटका. तुम्हें लगता है कि तुम्हारा मुल्क कोई अलग ही दुनिया है तो तुम मूर्ख हो.

कभी चादर बिछाई है बेड  पर. एक कोना खींचोगे तो  खिंच जायेगा. ठीक वैसे ही है दुनिया. वायरस चीन में था तो क्या हुआ, पूरी दुनिया हो गयी न आड़ी-टेढ़ी? 

तो आज समझने की ज़रुरत है की भारत माता से बड़ी धरती माता है. चीन माता, रूस माता से बड़ी धरती माता है. आज समस्या जो लोकल नज़र आती हैं, वो लोकल नहीं हैं, ग्लोबल हैं. उनके हल भी ग्लोबल ही होने चाहियें.

जैसे आज पूरी दुनिया लगी है कोरोना से लड़ने. ठीक वैसे. स्वास्थ्य , शिक्षा, वैज्ञानिकता सारी दुनिया में फैलनी चाहिए, ऐसा नहीं चलेगा कि  कहीं बहुत स्वस्थ, साफ़-सुथरे  लोग हों और कहीं बदबू-गंदगी से बिदबिदाते हुए घर, गलियां, बस्तियां हों.  कहीं बहुत बहुत पढ़े-लिखे लोग हों  और कहीं निपट अनपढ़  लोग. ऐसा कैसे चलेगा?

पूरी दुनिया को खामियाज़ा भुगतना पड़ेगा. आपने देखा लोग गन उठा के बेक़सूर लोगों को भून देते हैं. बम बांध कर खुद भी मरते हैं और कई बेक़सूर लोगों को अपने साथ ले मरते हैं.

क्यों हैं ऐसा?

चूँकि ऐसे लोगों को  कहीं यह सब करना सिखाया गया है. अब कौन इन्हे सिखाएगा कि  यह नहीं करना है?

कल कोई मूर्ख एटम बम फोड़ देगा. कौन है ज़िम्मेदार?

पूरी दुनिया की ज़िम्मेदारी है.

आपको पता है, दिल्ली में हर साल पड़ोस के राज्यों की किसानी की वजह से एयर-पोलुशन बढ़ जाता है.

मतलब यह है भाई कि  हवा पानी  कोई एक राज्य, कोई एक मुल्क बरबाद करेगा और नतीजा पड़ोस को,  पड़ोसी मुल्क को भुगतना पडेगा, सारी दुनिया को भुगतना पड़ सकता है.

सो पूरी दुनिया को एक प्लेटफार्म पर आने की बहुत ज़रूरत है.

आबादी, कितनी होनी चाहिए, शिक्षा कैसी होनी चाहिए, स्वास्थ्य  प्रबंधन कैसा होना चाहिए, न्याय व्यवस्था कैसी होनी चाहिए, सफाई व्यवस्था क्या हो .... यह सब अब पूरी दुनिया को कलेक्टिवेली देखनी होगी. ये सब अब ग्लोबल इशू हैं. सारी दुनिया को मिल के संभालने होंगे.

कोरोना के मामले में देखा आपने अगर एक मुल्क की भी मेडिकल व्यवस्था कमज़ोर है तो उसका नुक्सान बाकी दुनिया को भुगतना पड़  सकता है. एक कोई अरब का आदमी अमेरिका जाके बम फोड़ आता है. चीन का वायरस दुनिया बर्बाद कर देता है.

यह राइट टाइम है, दुनिया समझे कि दुनिया में एक वर्ल्ड आर्डर लाना बहुत ज़रूरी है.

ठीक वैसे ही जैसे भारत के सब राज्य एक  संविधान के तले हैं,  ऐसे ही पूरी दुनिया का एक "विश्व संविधान" के तले होना ज़रूरी है.


दूसरी बात........ आपने देखा लगभग सभी धार्मिक, मज़हबी स्थल बंद कर दिए गए. क्यों भई? तुम्हारे अल्लाह, गुरु, भगवान, गॉड की मर्ज़ी के बिना तो पत्ता भी नहीं हिलता,  सब करने-कराने वाला तो वही है.  सब दुःख-तकलीफ हरने वाला वही है न?

ॐ जय जगदीश हरे, दुःख तकलीफ हरे.

अल्लाह-ताला, लगा दे हर परेशानी पर ताला.

जीसस, इश्वर के पुत्र. ये तो हमारे लिए आपके लिए आज भी सूली पर लटके हैं.

नहीं ?

तो फिर आज क्यों बंद कर रहे हो इनकी मुकद्द्स जगहें?


चूँकि तुम्हे पता है कोई मदद नहीं आने वाली वहां से.  मदद अगर आएगी तो अस्पताल से आएगी. डॉक्टर से आएगी. वैज्ञानिक से आएगी.

तो तुम्हें क्या सबक लेना चाहिए?

समझ जाओ भाई, ये जो दिन रात तुम मत्थे रगड़ते फिरते हो, बेकार है. ये जो तुमने अपना सारा जीवन, जन्म से लेकर मरण तक मंदिर मस्जिद, गुरूद्वारे के गिर्द लपेट रखा है बेकार है. तुम्हें मौलवी, पंडित की नहीं सुननी, तुम्हे वैज्ञानिक की सुननी है. वैज्ञानिक कोई लेबोरेटरी में परख नली पकड़े बैठा व्यक्ति ही नहीं होता, समाज शास्त्री, सोशल साइंटिस्ट भी वैज्ञानिक  भी होता है. जो तुम्हें बताता है कब तुम्हारा समाज किस ढंग से चलना चाहिए. लेकिन ऐसे में तुम उसकी न सुन कर अपने धार्मिक ग्रंथ निकाल लेते हो. इडियट हो.

खैर, यह मौका है सीखो. सीखो, अगर सीख सकते  हो तो सीखो. इंसान बनो. बिना ठप्पे के, बिना ब्रांड के, बिना लेबल के इंसान बनो. बाकी अगर तुम हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख ही बने रहना चाहते हो तो तुम्हारी मर्ज़ी.


तीसरी बात ...     विज्ञान के प्रयोग में भी वैज्ञानिकता होनी चाहिए.

मिसाल से समझिये, विज्ञान ने प्लास्टिक पैदा किया तो उसका मतलब यह नहीं कि  हर तरफ प्लास्टिक ही प्लास्टिक कर दें. विज्ञान ने एटम बम बना दिए तो उसका मतलब यह नहीं कि  हर मुल्क एटम बनाने की दौड़ में शामिल हो जाए. यह समझ है वैज्ञानिकता.

विज्ञान की पैदा की हर चीज़ का उत्पादन नहीं करना.  विज्ञान की पैदा की हर चीज़ प्रयोग नहीं करनी. विज्ञान रोज़ नई चीज़ें ईजाद करता है.  लेकिन हर चीज़ इंसानी जीवन में उतारी ही जाए, यह ज़रूरी नहीं है. यह समझ वैज्ञानिकता है.

आज यह देखने का है कि कहीं इंसानी ईजाद धरती ही न खा जाए. मोटर वाहन, हवाई जहाज, समंदरी जहाज, क्या ये सब जो धरती की छाती रौंद रहे हैं, धरती को बर्दाश्त हैं क्या? धुआं उगलती फैक्टरियां कुदरत को बर्दाश्त हैं क्या?

अपने ड्राइंग रूम  में आप गंदे नालों की, फैक्टरियों की तस्वीरें लगाते हैं क्या? नहीं .. आप साफ़-सुथरे नदी-तालाब, फूल, बाग़-बगीचों की तस्वीर लगाते हैं.

तो सोचिये धरती माता को अपने घर में क्या पसंद होगा? उसे भी फैक्ट्री  पसंद नहीं है.  ज़हरीला धुआं उगलती, ज़हरीले केमिकल उगलती फैक्ट्री उसे भी नहीं पसंद.

तो आज पूरी दुनिया को यह समझना है कि इंसानी  जीवन में विज्ञान की खोज और फिर उस खोज का  प्रयोग ऐसा न हो कि  प्रकृति को  विकृति कर दे. तभी इंसानी सभ्यता  संस्कृति कही जा सकती है.

आज सारी दुनिया की चिंता बस एक है कि  किसी तरह से कोरोना  छूट जाए. लेकिन यह तीन बिंदु जो मैंने दिए इन  पर पूरी दुनिया को सोचने-समझने की ज़रूरत है.  राम रावण युद्ध ध्यान कीजिये. आप खरदूषण मार देंगे तो मेघनाद आ जायेगा. मेघनाद मार देंगे तो कुम्भकरण  आ जायेगा. मिसाल के लिए समझाया है.  मतलब  कि कोरोना  से पिंड छुड़ा लेंगे और सुधरेंगे नहीं तो तबाही की कोई और वजह आ जाएगी, उससे छुड़वा लेंगे तो उससे भी बड़ी कोई और वजह आ जाएगी.  कब तक बचोगे ऐसे?  नहीं बदलोगे  तो कुदरत बदला लेगी, कुदरत सब बदल देगी. हो सकता है उसे इंसान का सफाया ही करना पड़े.

मैंने कहीं पढ़ा है. "Human Beings are the virus for mother Earth and Corona is the Vaccine." इंसान है वायरस और कोरोना है वैक्सीन. वैक्सीन जो कुदरत ने अपने लिए तैयार की है. ताकि इंसान से पिंड  छुड़ा सके.

उम्मीद है समझोगे.

जनाब इकबाल का शेर पेश है, थोड़ी तबदीली के  साथ

"दुनिया की फ़िक्र कर ऐ नादाँ, मुसीबत आने वाली है
तेरी  बर्बादियों के मशवरे हैं आसमानों में

न समझोगे तो मिट जाओगे ए  दुनिया वालों,
तुम्हारी दास्ताँ  भी न होगी दास्तानों में."

आप लगे रहते हैं भविष्य पीढ़ी का जीवन सुधारने में. और पैसा कमा लूँ, और कमा लूँ . गुड. आपको पता है अम्बानी की अगली पीढ़ी अनिल अम्बानी दीवालिया हो चूका है. नेहरू, इंदिरा की अगली पीढ़ी राहुल गांधी तक आते आते उनकी राजनीतिक  विरासत लगभग खतम हो चुकी है.

देखने के लिए थैंक्यू, शुक्रिया, धन्यवाद. कमेंट  करके अपने विचार ज़रूर लिखयेगा. मिल जुल कर काम आगे बढ़ाएंगे. और बाकी कोरोना पर यह चौथा वीडियो है, बाकी भी मेरी फेसबुक टाइम लाइन पर मिल  जाएंगे. सबके लिए खुला अकाउंट है. और हाँ, शेयर ज़रूर कीजियेगा, तभी तो बात आगे जायेगी, बात आगे जायेगी तभी तो बात बनेगी.

नमस्कार.

Sunday, 26 January 2020

दिल्ली वालो मत दो वोट केजरीवाल को

मैसेज है मेरा दिल्ली वालों को.  मत दो वोट केजरीवाल  को. 

निश्चित ही सवाल पूछेंगे आप कि  क्यों नहीं देना चाहिए वोट केजरीवाल को उसने बहुत कुछ सस्ता किया और बहुत फ्री किया.  फिर क्यों कह रहा हूँ मैं कि उसे वोट नहीं देना चाहिए?

जवाब लीजिये. 

पहला पॉइंट  है. केजरीवाल  इस्लामिक थ्रेट, जिसे लगभग सारी  गैर-इस्लामिक दुनिया समझ रही है, महसूस कर रही है, उसे नहीं समझता. उसे लगता है कि हिन्दू-मुस्लिम कि बात करना फ़िज़ूल है. गलत है वो. सौ प्रतिशत गलत है. मूर्ख है वो.

मुस्लिम नारे लगाते फिरते हैं.
"तेरा मेरा रिश्ता क्या? ला-इलाहा-लिलल्लाह".
"रोहिंग्या से रिश्ता क्या? ला-इलाहा-लिलल्लाह"


कलमा जानते हैं क्या है?
"ला-इलाहा-लिलल्लाह. मोहम्मदुर्रसूल अल्लाह."

भगवान सिर्फ एक है और वो है अल्लाह. और Muhammad is the messenger of Allah.  बात खतम. और क़ुरान है वो मैसेज जो अल्लाह ने भेजा. जो माने वो ईमानदार. जो न माने बे-ईमान. काफिर.

क़ुरआन पढ़िए सब समझ आ जायेगा. गूगल पर है. अंग्रेजी तरजुमे के साथ. भरी पड़ी  हैं आयतें गैर-मुस्लिम के खिलाफ.  और उन आयतों का नतीजा पूरी  दुनिया भुगत  रही है.  अगर ऐसा नहीं होता तो खालसा का सृजन ही नहीं होता? अगर ऐसा न होता तो चीन में इस्लाम पर अनेकों पाबंदियां न होती. अगर ऐसा न होता तो सन   सैतालीस में मुल्क न बंटता. लाखों लोग न मारे जाते. कश्मीर से हिन्दू न भगाये जाते. 

लेकिन  केजरीवाल कहता है कि  हिन्दू-मुस्लिम कुछ  नहीं होता. धर्म की राजनीति नहीं करनी चाहिए. ठीक बात है. धर्म की राजनीति बिलकुल नहीं करनी चाहिए. फिर क्यों तीर्थ-यात्रा करवा रहे हो भाई? क्यों मुफ्त तीर्थ यात्रा करवा रहे हो?


दिल्ली वालो, आज सस्ते बिजली पानी पर अगर वोट देते हो तो याद रखो कि  महाराणा  प्रताप जंगल जंगल भटके लेकिन लड़ते रहे. घास की रोटी खाते रहे लेकिन लड़ते रहे. गुरु गोबिंद ने, उनके सारे परिवार ने  और अनेक सिंहों ने शहीदियाँ दी, किसलिए? कोई व्यक्तिगत दुश्मनी थी. न. बस आइडियोलॉजी की लड़ाई थी.  

तुम्हें क्या लगता है कि मुस्लिम नहीं समझता आइडियोलॉजी की लड़ाई? आप जितनी मर्ज़ी सुविधा दे दो, सहूलियत बढ़ा दो, वो फिर भी गैर-मुस्लिम सरकार से अंदर-अंदर लड़ता रहेगा. उसे अल्लाह का निज़ाम स्थापित करना होता है. 

आइडियोलॉजी की लड़ाई में भाजपा का साथ दो दिल्ली वालो. भाजपा हिंदुत्व की बात करती है. हिंदुत्व अपने आप में कोई धर्म नहीं है. इसमें  कुछ भी लगा-बंधा नहीं है. आप आस्तिक-नास्तिक, कुछ भी हो सकते हैं. आप राम कृष्ण की आलोचना कर सकते हैं. आज भी राम ने सीता छोड़ी जंगल में तो लोग सवाल उठाते हैं. यहाँ कोई ईश-निंदा blasphemy जैसा कानून नहीं है कि  आपने राम-कृष्ण के खिलाफ कुछ लिख दिया कह दिया तो फांसी चढ़ा दिए जाओगे. यहाँ सोच पर पहरे नहीं बिठाये गए. यहाँ बहुत सी विरोधी विचार-धारा  वाले लोग रहते हैं. और ऐसे ही समाज में सोच-विचार पैदा हो सकता है. जहाँ आपकी सोच को एक किताब के दायरे में बांध  दिया जाए वहां आप सिर्फ गुलाम हो  जाएंगे.   

कौन सी आइडियोलॉजी को चुनना है आपने? यदि आपको ऐसी सोच वाला  समाज चाहिए जहाँ वैचारिक गुलामी हो तो आप वोट दीजिये केजरीवाल को, हिन्दू मुस्लिम को कोई मुद्दा ही न समझने वालों को अन्यथा आपके पास भाजपा का विकल्प है. उसे वोट कीजिये.    

 दूसरा  पॉइंट  ...  चीज़ें सस्ती होनी चाहिए.... मुफ्त भी होनी चाहिए लेकिन उसका यह तरीका नहीं है. इंसान का क्या है. उसे सब कुछ चाहिए. सबको सब कुछ चाहिए. मुफ्त चाहिए. और यह काफी कुछ संभव है. लेकिन वो तभी संभव है जब इंसान  वैज्ञानिकों से, समाज-वैज्ञानिकों (सोशल साइंटिस्ट) से अपनी समाजिक और व्यक्तिगत मान्यताएं लें न कि किन्ही आसमानी कही जाने वाली किताबों से. इस धरती पर इंसान का वज़न, उसी मूर्खताओं का वज़न पूरे प्लेनेट को खतरे में डाले हुए हैं, अब प्लेनेट तभी बच सकता है यदि इंसान विज्ञान  के मुताबिक जीने को राज़ी हो, समाज विज्ञान के मुताबिक जीने को राज़ी हो. और  जो इंसान विज्ञान के साथ नहीं चलना चाहता, जो इंसान अपनी तथा-कथित धार्मिक-मज़हबी किताबों से, इलाही किताबों से टस से मस  नहीं होना चाहता, उसको कुछ मुफ्त नहीं मिलना चाहिए. कुछ सस्ता नहीं मिलना चाहिए. यह कोई तरीका नहीं कि मूर्ख भीड़ पैदा किये जाओ. सब कुछ मुफ्त पाओ और अँधा-धुंध इस धरती को निचोड़ दो. न यह कोई तरीका नहीं  है. 

केजरीवाल उथला व्यक्ति है. यह "मुफ्त मुफ्त स्कीमें " गहरी समस्याओं के उथले हल हैं.   

जैसे उसकी ओड-इवन स्कीम. दिल्ली में पॉलुशन  है तो वो ओड इवन से थोड़ा न हल होगा?  कुत्ते ज़्यादा होते हैं तो क्या करते हो? नसबंदी. इंसान ज़्यादा न हों तो क्या करते हो? नसबंदी. कार-स्कूटर-ट्रक  ज़्यादा हों तो क्या करना चाहिए. गाड़ी बंदी. नयी मोटर व्हीकल पर पाबंदी. यह होते हैं हल. अगर है हिम्मत तो टकराओ  समस्या से सीधा.   यह उथले हल मत दो. 

तीसरा  पॉइंट   ... साढ़े चार साल केजरीवाल कहता रहा कि  भाजपा उसे काम नहीं करने दे रही और आखिरी छह महीने में, जब चुनाव करीब आ गए तो भाजपा ने उसे काम करने दिया? किसलिए? ताकि वोट केजरीवाल की तरफ खिसक जाए. इतनी मूर्ख है न भाजपा? वैरी गुड. किसे मूर्ख समझता है केजरीवाल? सब बकवास था. केजरीवाल खुद निकम्मा था. न-तज़ुर्बेकार था. अन्यथा जो नियामतें-रिआयतें वो चुनाव के ठीक पहले दे रहा था, वो पांच साल पहले से देना शुरू कर सकता था. मूर्ख बना रहा है जनता को, अब जनता को चाहिए  उसे मूर्ख बनाये. रिआयतें जो दीं, ले भी लीं तो भी वोट भाजपा को दे. केजरीवाल तो खुद कहता था कि  जो भी तुम्हार वोट खरीदने आये उससे पैसे ले लो, मन मत करो  लेकिन वोट उसे मत दो. अब केजरीवाल तुम्हारा वोट खरीदने आया है. तुम्हें मुफ्त की चीज़ें देकर  तुम्हारा वोट खरीदने आया है, उसे वोट मत देना. वो तुम्हारी संस्कृति, तुम्हारी समाजिक मान्यतों की लड़ाई लड़ने नहीं आया,  उसे वोट मत देना. 

चौथा  पॉइंट ...  जिनको  केजरीवाल बहुत पढ़ा-लिख, बहुत समझदार लगता है, बता दूँ वो जब नया-नया आया  था  तो मुद्दा एक ही था लोकपाल. लोकपाल. बड़ी धीर-गंभीर शक्ल बना कर लोकपाल को प्रायोजित करते थे श्रीमान. सुना आपने दुबारा लोकपाल उसके मुंह से? हो गया करप्शन खत्म दिल्ली में? असल बात यह है कि समाज में न तो भ्र्ष्टाचार  कोई एक मात्र  मुद्दा है और न ही लोकपाल कोई एक रामबाण समाधान. वो बात ही उथली थी. उथला आदमी. उथली बात.  

पांचवा पॉइंट   ... जब वो आया  था तो उसके साथ बहुत गण्य-मान्य लोग थे. अन्ना  हज़ारे. किरण बेदी. कुमार बिस्वास. प्रशांत भूषण. योगेन्द्र यादव. कहाँ गए वो लोग? शुरू में ये सब लोग साथ थे केजरीवाल के. क्यों अलग-थलग हो गए ये लोग? चूँकि यह श्रीमान उनको साथ लेकर चल ही नहीं पाए. कोई एक-आध बंदा गया होता तो मैं इस मुद्दे को तूल नहीं देता, लेकिन इतने सारे  लोग छोड़-छोड़, प्रमुख लोग साथ छोड़ जाएं तो  ज़रूर कोई मसला है. और मसला यह है कि केजरीवाल को लोगों को अपने साथ लेकर चलना ही नहीं आता. जो चंद लोगों को अपने साथ नहीं लेकर चल पाया, वो इस भारत को, जहाँ रंग-बिरंगे लोग हैं, एक दम  भिन्न-भिन्न मान्यताओं के लोग हैं, विपरीत मान्यताओं  के लोग हैं,  साथ लेकर चल पायेगा? कदापि नहीं. उसे वोट मत देना. 

और आखिरी में बता दूँ तुषार कॉस्मिक नाम है मेरा. गूगल करेंगे मिल जाएगा. मैं कोई भाजपा का बंदा नहीं और न ही मोदी भक्त हूँ और न आरएसएस का स्वयं सेवक. मैं  स्वतंत्र हूँ. आलोचक हूँ. मैं तो इस लोकतंत्र से भी आगे के तंत्र की रूप-रेखा दे चूका हूँ. मेरे ब्लॉग है. पढ़ सकते हैं. लेकिन फिलहाल जैसी व्यवस्था है उसके मुताबिक भाजपा को वोट देने के लिए कह रहा हूँ और  कल अगर ये काम नहीं करेंगे, अपेक्षा के अनुसार काम नहीं करेंगे या कोई मूर्खता करेंगे तो इनके भी खिलाफ बोलूँगा, पुरज़ोर बोलूँगा. 

सो यह  मुफ्त  का लालच छोड़ों, वैसे भी मुफ्त कुछ नहीं होता. किसी न किसी को कीमत अदा करनी ही पड़ती है. 


तो अपील है मेरी, पुरजोर अपील है,  वोट दो, भाजपा को वोट दो. 

नमस्कार.  

Saturday, 18 January 2020

Islam is not a religion

John Bennett, a Republican state legislator in Oklahoma, said in 2014, “Islam is not even a religion; it is a political system that uses a deity to advance its agenda of global conquest.”

In 2015, a former assistant United States attorney, Andrew C. McCarthy, 
wrote in National Review that Islam “should be understood as conveying a belief system that is not merely, or even primarily, religious.”

In 2016, Michael Flynn, who the next year was briefly President Trump’s national security adviser, 
told an ACT for America conference in Dallas that “Islam is a political ideology” that “hides behind the notion of it being a religion.”

In a January 2018 news release, Neal Tapio of South Dakota, a Republican state senator who was planning to run for the United States House of Representatives, 
questioned whether the First Amendment applies to Muslims.


https://www.nytimes.com/2018/09/26/opinion/islamophobia-muslim-religion-politics.html

Saturday, 4 January 2020

बहुत ज़्यादा आरामपसंदगी हरामपसंदगी है.

आप सोचते हैं कि जो कष्ट आपने सहे हैं वो आपके बच्चे न सहें. बिलकुल ठीक बात है. लेकिन इस चक्कर में आपके बच्चे पिलपिले हो जाते हैं-थुलथुले  हैं.

बहुत ज़्यादा आरामपसंदगी हरामपसंदगी है.

आपके बच्चे हों , आपका शरीर हो, इन्हें ज़्यादा पुचकारें न. इन्हें  थोड़ा सख्त मिज़ाज़ से पालें.

मैं प्रॉपर्टी डीलिंग करता हूँ, देखता हूँ लोग ऊपर के फ्लोर खरीद के राज़ी नहीं. लिफ्ट चाहिए सब को. न. लिफ्ट हो तो भी सीढ़ी चढ़ें. सीढ़ी उतरें. Gym में आपको स्टेप ऊपर चढ़ने और नीचे उतरने को बोला जाता है. क्यों? चूँकि आप सीढ़ी  चढ़ना ही नहीं चाहते असल जीवन में.

पैदल चलें, जहाँ तक हो सके. वहां Gym में वो आपको ट्रेडमिल पर चलवाते हैं. वो इसलिए चूँकि आप असल जीवन में पैदल चलना नहीं चाहते. आप एस्क्लेटर पर खड़े होकर राज़ी है. बस आप खड़े रहें. एस्क्लेटर चलता रहे. ट्रेडमिल ठीक उससे उल्टा है. ट्रेडमिल खड़ा रहता है और आपको चलना होता है उसके ऊपर.

 सख्त मिजाज़ बनिए.

 अपने प्रति अपने बच्चों के प्रति

आराम हराम है

भारतीय रसोई दवाखाना है

एक  सम्मोहन है जो हमारे दिमागों में TV के ज़रिये बिठाया गया है. टीवी की Advertisement कोई मशहूरी मात्र नहीं है. सम्मोहन है. इसीलिए वो बार-बार बार-बार दिखाते हैं. उन्होंने बताया की पिज़्ज़ा बर्गर कोई अमृतनुमा चीज़ है. मैक्डोनाल्ड और पिज़्ज़ा-हट नहीं गए, डोमिनो का पिज़्ज़ा नहीं खाया तो जीवन अधूरा है. निरा मैदा है. आपको पता है मक्डोनल्ड को कितनी ही बार जुर्माना लगता है. खाने में गड़बड़ की वजह से.

भारतीय खाना खाएं. हमारी रसोई दवाख़ाना है. हमारे मसाले सब दवा हैं. हल्दी, अजवाइन, काला  नमक, सेंधा नमक, काली मिर्च, दाल चीनी...सब दवा हैं. वो वहां वेस्ट में इनको दवा के नाम से पेटेंट करवा रहे हैं. TV के सम्मोहन से बाहर आएं.

बुड्ढा होगा तेरा बाप

INTRODUCTION & BENEFITS:--

"इंक़ेलाब ज़िंदाबाद" 


3 idiots फिल्म किस किस ने देखी  है? उसमें आमिर खान था, याद है? क्या नाम था उसका उस फिल्म में?

"रेंचो". 


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इंक़ेलाब का मतलब क्या है? क्रांति. मतलब बदलाव. मतलब उथल-पुथल. लेकिन पॉजिटिव. कुछ बेहतरी के लिए. तो मेरी रिक्वेस्ट है आप सब से की अगले पंद्रह मिनट आप पूरी तरह से अटेंटिव हो कर मेरी बात सुनें. आधे-अधूरे मन से नहीं, पूरे मन से सुनें. अपने फोन बंद करके सुनें. बिना पड़ोसी से बात किये सुनें. बिना यह सोचें सुनें कि  मैं कौन हूँ? बस इस बात पर ध्यान दें कि मैं क्या कह रहा हूँ. 


क्या पॉजिटिव इंक़ेलाब हो सकता है मेरी बात पंद्रह मिनट भर सुनने से, एक ऐसे ज़माने में जब आप सब के पास दुनिया भर की इनफार्मेशन मुट्ठी में है?

इंक़ेलाब यह हो सकता है कि आपकी उम्र कोई दस-बीस-तीस साल बढ़ जाए. इंक़ेलाब यह हो सकता है कि  आपकी हेल्थ में इज़ाफ़ा हो जाए, रोग से लड़ने की ताकत बढ़ जाए. 

तो शुरू करता हूँ STORIES:--

1. FIRST STORY:--जॉर्ज बर्नार्ड शॉ.अंग्रेज़ी के साहित्यकार थे. जाने -माने. स्कूलों में इनके लेख पढ़ाये जाते हैं. ये लंदन रहते थे. जब ये कोई साठ साल की उम्र के आस-पास पहुंचे तो इन्होने अपना बोरिया-बिस्तर लंदन से समेट  लिया. बोले अब नहीं रहना यहाँ. दोस्त-रिश्तेदार सब परेशान. क्यों नहीं रहना लंदन में? बोले नहीं, अब कतई नहीं रहना और सच में लंदन छोड़ दिया. और निकल पड़े नया ठिकाना खोजने  .... भटकते रहे गाँव-गाँव शहर-शहर. फिर एक कब्रिस्तान से गुज़र रहे थे तो एक कब्र पर लिखी इबारत पढ़ ठिठक गए. लिखा था, "यहाँ वो शख़्स  दफन  है जो सौ साल की कम उम्र में मर गया." बस. अब उन्होंने आगे कहीं न जाने की ठान ली और उसी गाँव में रहना स्वीकार  किया, जिस गाँव का वो कब्रिस्तान था. उनसे पूछा गया कि पूरी दुनिया छोड़, लन्दन छोड़ आप ने यहाँ क्यों ठिकाना बनाया? "

उनका जवाब था, "अगर मैं लन्दन रहता तो मैं जल्द ही बीमार पड़ जाता-मर जाता.. चूँकि मेरे इर्द-गिर्द मेरी उम्र के लोग लोग बीमार रहने लगे थे... मरते जा रहे  थे. दिन में दस बार मुझे यह याद दिलाया जाता था कि  मैं बूढ़ा  हो चुका हूँ, कमज़ोर हो चुका  हूँ. मुझे यह नहीं करना चाहिए, मुझे वह नहीं करना चाहिए. ऐसे माहौल में मैं कितने दिन स्वस्थ रहता? कितने दिन और ज़िंदा रहता? यहाँ देखो. यहाँ तो सौ साल के आदमी को भी कम उम्र समझा जाता है. यहाँ तो हर कोई मुझे जवान समझता है. मेरी उम्र के लोग नाचते फिरते हैं यहाँ."

और वो वहीं रहे और तकरीबन सौ साल जीए. स्वस्थ जीए. 

2. दूसरी STORY :-- फौजा सिंह. सिख हैं, इंग्लैंड में रहते हैं,  अपनी उम्र के ग्रुप में मैराथन चैंपियन रहे हैं, आज भी खूब दौड़ते हैं,  Adidas की मॉडलिंग करते देखा है मैंने इनको ..लोग प्यार से टरबंड टॉरनेडो ( पगड़ी वाला तूफान ) कहते हैं.....

पांच साल की उम्र तक चल नहीं पाए..टाँगे बहुत कमज़ोर थी....बच्चे छेड़ते थे.....छेड़ थी "डंडा" .  और ये कोई बचपन से ही नहीं दौड़ते थे. कोई पचास की उम्र के बाद ही इन्होने दौड़ना शुरू किया था. 

3. तीसरी STORY:-- MDH  के महाशय जी. इंटरनेट पर अक्सर लोग उनके बुढ़ापे का मज़ाक उड़ाते थे. कहते थे  कि  वो तो यमराज से अमर होने का वरदान लेकर आये हैं. 

मज़ाक उड़ाना चाहिए क्या? प्रेरणा लेनी चाहिए. 

DEDUCTIONS FROM THE STORIES:---- 

क्या साबित करना चाहता हूँ मैं? मैं साबित यह करना चाहता हूँ  फौजा सिंह की कहानी से, जॉर्ज की कहानी से, महाशय जी की कहानी से कि हमारा स्वास्थय, हमारी उम्र  हमारी सोच पर निर्भर करती है.हमारी मौत कब होगी यह तक हमारी सोच पर निर्भर करता है और हमारी सोच सामाजिक सम्मोहन पर निर्भर करती है.  समाज तय कर देता है. आपकी उम्र के साथ आपका  बुढ़ापा. बुढ़ापे के साथ रोग. उसके बाद एक निश्चित उम्र तक पहुँचते-पहुँचते मौत. 

हम अंग्रेजी बोलने में फख्र महसूस करते हैं. करना चाहिए. कोई बुराई नहीं लेकिन उनकी हर बुराई हमने नहीं खरीदनी. अंग्रेजी में  छह साल के बच्चे को भी कहते हैं, He is six years old. ध्यान दीजिये छह साल का बूढ़ा  ....  मतलब छह साल का बच्चा नहीं.....  छह साल का जवान नहीं   ........  छह साल का बूढा. मतलब सोच ही यह है कि  इंसान पैदा होते ही बूढ़ा  होना शुरू हो जाता है. भाड़ में गया बचपना. भाड़ में गयी जवानी. भाड़ में गयी मिडिल ऐज.... सीधा बुढ़ापा. पैदा  डायरेक्ट फ्लाइट बुढ़ापे में लैंड करती है. ऐसी सोच में जीएंगे तो कैसे यौवन आएगा, कैसे स्वस्थ  रहेंगे ?

तो आप क्या करें. जॉर्ज की तरह शहर छोड़ दें? वो प्रैक्टिकल नहीं है. सबके लिए सम्भव नहीं है. और सब ऐसे गाँव पहुँच गए तो उस गाँव को भी अपने जैसा बना देंगे. फिर हो सकता है उस गाँव के लोग इनके सामूहिक सम्मोहन के तले दब जायें.

तो क्या करें? 

CONCLUSIONS:-   आप बस यह जो मैंने कहा इसे जज़्ब कर लें. दिन रात. मेरी बात को दोहराते चले जाएँ. खुद को याद दिलाते चले जाएँ कि नहीं बीमार होना है, नहीं बूढ़े होना है, नहीं मरना है. आपको क्या लगता है कि फौजा सिंह ने, महाशय जी ने  यह सब बकवास नहीं सुनी होगे कि उम्र के साथ व्यक्ति यह नहीं कर सकता, वह नहीं कर सकता.कमज़ोर होता जाता है, मौत के करीब आ जाता है......सब सुना होगा, लेकिन इनकार कर दिया

आप ढीठ हो जाएँ कि नहीं मरना आप लम्बा जी जाएंगे. आप ढीठ हो जाएँ कि नहीं बीमार होना है  आपके स्वस्थ रहने  की संभावना बढ़ जायेगी.  इसे कहते हैं माइंड  ओवर मैटर.   मन की ताकत. मन का पीछा करता है तन. मन मज़बूत तो तन मज़बूत हो ही जाएगा. 

कोई भी उम्र हो आपकी, खिले-खिले चटक रंग पहनें. खेलें-कूदें.. पार्क  में झूला झूलें....स्टापू खेलें ....गिल्ली डंडा खेलें  .... खुद को कभी इस  विश्वास में मत डालें कि आप बूढ़े हो गए हैं. जिस  दिन आपने सामाजिक सम्मोहन ओढ़ लिया कि  अब आप बूढ़े हो चुके हैं. उस दिन गई भैंस पानी में. उस दिन आप बूढ़े हो गए. आपका  हमारा जीना-मरना सब सामाजिक सम्मोहन का नतीजा है. इस  सम्मोहन को तोड़ दें.  

इस advertisement, इस सम्मोहन, सामाजिक सम्मोहन के फेर में न आएं कि  इंसान कितनी उम्र में बूढ़ा  होता है, कितनी उम्र में  बीमार रहने लगता है. On average कितनी उम्र में मरता है. आप ने बहुत पुरानी  वह मशहूरी शायद  देखी हो, "साठ साल के बुड्ढे या साठ साल के जवान".  तो यह किसी झंडू च्यवनप्राश के सेवन पर बहुत कम निर्भर करता है आपकी सोच पर बहुत ज़्यादा निर्भर करता है तो सोच बदलिए, आपका Life Span  बदल जाएगा. आपका स्वास्थ्य  बदल जाएगा  और अगर कोई आपको बूढ़ा कहे तो उसे कहें, "बुड्ढा  होगा तेरा बाप!" अमिताभ की फिल्म भी है. देख लीजिये. 


और मेरे साथ ज़ोर से एक नारा लगाएं, "बुड्ढा  होगा तेरा बाप." 
स्वस्थ रहें. मस्त रहें. 

नमस्कार. 

Friday, 3 January 2020

"टांका"

यह वो धन है जो प्रॉपर्टी डीलर  तयशुदा ब्रोकरेज के अलावा डील में से निकाल लेता है. 
कैसे संभव है यह?

खरीद-दार कभी नहीं चाहता कि  ऐसा हो, फिर भी यह होता है, अक्सर होता है और  अक्सर डील के अंत तक उसे पता लग ही जाता है कि डीलर ने उसकी डील में टांका मारा है. 

यह न हो इसके लिए Seller और Purchaser दोनों को प्रयास करना चाहिए. 

पहली हिदायत:-  यह Purchaser के लिए है. Purchaser को सीधा कहना चाहिए ब्रोकर को, "भाई आपको hire कर रहा हूँ लेकिन आपकी ईमानदारी  जांचने के लिए डील के दौरन मैं आपको किसी भी वक्त  पॉलीग्राफ (Lie Detector) टेस्ट करवाने के लिए बोल सकता हूँ और आपको लिख कर देना होगा कि आप यह टेस्ट करवाएंगे." 

यकीन जानें आपका डीलर बौखला जाएगा यह सुन कर. या तो डील छोड़ देगा या फिर नाक की सीध में चलेगा. 

दूसरी हिदायत:-  यह Seller के लिए है. यदि आप सेलर हैं तो कभी भी डीलर को यह न कहें, "हमें तो हमारी तयशुदा रकम दिलवा दीजिये, बाकी आप ऊपर से जितना मर्ज़ी ले लीजिये."  Seller ऐसा इसलिए कहता है कि  असल में ब्रोकरेज चाहे Seller  पक्ष की हो चाहे Purchaser पक्ष की, वो जाती Purchaser की जेब से ही है. कैसे? सिम्पल. ब्रोकरेज चाहे 10 प्रतिशत हो, Seller को कभी कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि वो ठीक उतना प्रतिशत प्रॉपर्टी का रेट बढ़ा लेता है. 

सो सेलर की तरफ से तो अक्सर सीधा-सीधा ऑफर होता है  कि डीलर चाहे तो डील में टांका लगा ले.  यह सरासर गलत है. कल जब आप  Purchaser होंगे तब यदि आपको पता लगेगा कि आपकी डील में डीलर ने टांका मारा है तो आपको बहुत बुरा लगेगा. सो स्वार्थी मत बनें. लकीर पर चलें. डीलर भी लकीर पर तभी चलेगा. 

तीसरी हिदायत:- यह Seller और Purchaser दोनों के लिए है. डीलर पढ़ा-लिखा hire करें, जिसे प्रॉपर्टी के काम का तज़ुर्बा हो, प्रॉपर्टी से जुड़े कायदे-कानून की जानकारी हो. किसी भी नाई, कसाई, हलवाई को अपना डीलर मत बना लें. लोग तो दूधिये तक के ज़रिये  प्रॉपर्टी का लेन-देन  कर लेते हैं. पीछे पछताते हैं. 

प्रॉपर्टी का खरीदना-बेचना बिस्कुट का पैकेट खरीदने-बेचने जैसा सीधा काम नहीं है. इसमें तमाम तरह की कानूनी और प्रैक्टिकल जानकारियां होना ज़रूरी है, जो किसी प्रोफेशनल डीलर को ही होती हैं. 

भारत में डीलर की शिक्षा और ट्रेनिंग का कोई सिस्टम नहीं है और न ही यहाँ कोई सिस्टम है कि डीलर कितनी ब्रोकरेज लेगा. सिर्फ हरियाणा में एक कानून है, "प्रॉपर्टी डीलर एक्ट", जो एक तरफा है. ऐसा लगता है प्रॉपर्टी डीलर से दुश्मनी निकाली गई  हो. या फिर RERA ACT  है. लेकिन हर कोई High-Rise बिल्डिंग्स में ही तो डील नहीं करता.   

जो ब्रोकरेज डीलर को दी जाती है, वो उसके काम, उसके ऊपर लादी गयी ज़िम्मेदारी की अपेक्षा बहुत ही कम होती है. ऊँट के मुंह में जीरा. करोड़ों रुपये की डील उसके कंधे पर होती हैं और उसे 1  से 1/2 प्रतिशत कमीशन ही दी जाती है. कई बार तो वो भी नहीं दी जाती. ज़रा-ज़रा सी बात पर उसकी कमीशन काट ली जाती है. कमीशन के लिए उसे लड़ना पड़  जाता है. कमज़ोर डीलर को तो लोग छुट-पुट कमीशन दे कर ही भगा देते हैं.  ऐसे में होशियार डीलर चोर रास्ता अख्तियार करते हैं, टांका लगाने का. लेकिन दिक्कत यह है कि  फिर होशियार डीलर सीधी-शरीफ पार्टी को भी टाँका लगाने से नहीं चूकते. असल में शरीफ खरीदार को ही सबसे ज़्यादा टाँका  लगाया जाता है. 

मैं इस सबके खिलाफ हूँ.  

टांका लगाने के सख्त खिलाफ हूँ. लेकिन मैं कम कमीशन देने वालों के भी खिलाफ हूँ. मुझसे किसी खरीद-दार ने तयशुदा कमीशन से कम पैसे लेने के लिए कहा. मैंने कहा, "ठीक है फिर, मैं आपको प्रॉपर्टी के कुछ कागज़ात भी कम ही दूंगा, बोलिये मंज़ूर है?"

पूरे पैसे दीजिये, पूरा काम लीजिये.

तुषार

Wednesday, 1 January 2020

नववर्ष

क्या आप  सहमत होंगे मुझे से अगर मैं कहूँ कि  समय नाम की कोई चीज़ नहीं होती? दिन-वार, तिथि, वर्ष, माह....  कुछ नहीं होता.सिवा इंसान के किसी पशु-पक्षी, पेड़-पौधे को नहीं पता कि आज कोई नववर्ष की शुरुआत है  चूँकि समय का विभाजन सिर्फ इंसान की कल्पना है.असल में समय ही इंसान की कल्पना है. कल्पना है बदलते मौसम को, दिन-दोपहर, रात को समझने के लिए. 

जब समय सिर्फ कल्पना है तो फिर कैसा नव-वर्ष? 
फिर नव वर्ष का सेलिब्रेशन? फिर शुभ कामनाएं? क्या मतलब इस सब का?

असल में तो जीवन ही अपने आप सेलिब्रेशन होना चाहिए. 
हल पल सेलिब्रेशन होना चाहिए. सेलिब्रेशन के लिए बहाने नहीं खोजने पड़ने चाहिएं.  

और

हम सब में विश्व-कल्याण का भाव सदैव होना चाहिए. 
हम सब सदैव एक दूजे के लिए शुभ-भाव से भरे होने चाहिए. शुभ-कामनाओं से भर-पूर होने चाहिए. 

लेकिन यह सब अभी दूर की कौड़ी है.दिल्ली अभी दूर है. बहुत दूर. 

सो फिलहाल हम काम चला रहे हैं नव-वर्ष की शुभ कामनाओं से. स्वीकार करें. 

नमन...तुषार कॉस्मिक.

Monday, 30 December 2019

चमत्कार

मैं हूँ ज़िंदा चमत्कार. छोटा सा ही सही. लेकिन हूँ चमत्कार. समझाता हूँ. बहुत ठंड है न. शायद रिकॉर्ड टूट गए हैं ठंड के. शायद बहुत लोग तो  लोग नहाते तक न हों इन दिनों. 

क्या आप सर्द पानी से नहाने की सोच सकते हैं इस सर्दी में? 

मैं नहाता हूँ रोज़. 
और
कम  से कम  पंद्रह मिनट लगातार नहाता हूँ. शुरुआत करता हूँ कोसे पानी से. फिर धीरे-धीरे इसमें ठंडा पानी मिलाता जाता हूँ. और फिर यह पानी पूरी तरह से सर्द हो जाता है. बर्फ जैसा. और मेरा नहाना ज़ारी  रहता है. 
फायदा क्या हुआ?

तकरीबन बीस साल से मैं सर्दियों में परेशान रहता था. आधी सर्दियां मेरी बिस्तर में कटती थीं. चूँकि  नाक बहती रहती  थी. खांसता रहता था. छींकता रहता था.आवाज़ तक घर्र-घर्र करती  थी. मैं  खुद पर हँसता हुआ कहता था, "मेरी बॉडी का 'थर्मोस्टेट' सिस्टम खराब है. और सच में ही यह सिस्टम खराब था. मुझे ज़रूरत से ज़्यादा ठंड लगती थी. मैं गर्मियों में भी बिना पंखा चलाये सो जाता था. 

पिछले दो साल से सब  समस्या नब्बे प्रतिशत खतम. ठंडे पानी से नहाना शरीर को राज़ी करना है ठंड बर्दाश्त करने के लिए.

बहुत लोग गर्मी हो, सर्दी हो ठंडे पानी से नहाते हैं. 


वहां रूस में तो एक धार्मिक उत्सव है ईसाइयों का, वो ठंड में बर्फ में खड्ड खोद कर डुबकियां लगाते हैं. 

हमारे यहाँ भी कार्तिक स्नान की रीत है. 

आप देखते हैं, चोट लग जाए तो बहुत पहले गर्म पानी का सेक किया जाता है, आज बर्फ का सेक किया जाता है. 

थ्री इडियट फिल्म याद है आपको? उसमें  आमिर खान ने रेंचो का करैक्टर अदा  किया था. वो सोनम वांगचुक नाम के व्यक्ति पर आधारित था. वो सर्दियों में सिंध नदी में तैरते हैं. उनका वीडियो मिल जाएगा आपको यूट्यूब आप बर्फीली नदी में तैरते हुए. 

इससे एक बात और साबित होती है. अंदर ताकत है हम सब में. उसे Explore  करें. आप पता नहीं क्या-क्या चमत्कार कर जाएँ. 

Friday, 20 December 2019

मेरी ऑरोविले-पांडिचेरी-महाबलिपुरम यात्रा

यह एक बिज़नेस ट्रिप था. प्रॉपर्टी दिल्ली की. मालकिन ऑरोविले की. वयोवृद्ध. हुक्म था, "एक ही बार आ सकती हूँ दिल्ली. बयाना देना है तो आप लोगों को ही आना होगा मेरे पास." ठीक. मेरे क्लाइंट ने स्वीकार कर लिया. हम दो प्रॉपर्टी डीलर, हमें क्या एतराज़ होना था? दूजे डीलर ने मेरे क्लाइंट से कहा, "खर्चा आप का होगा." मैंने कहा, "नहीं, यह ठीक नहीं है. ख्वाहमख़ाह पचास हज़ार का वज़न इन पर डालना ठीक नहीं. खर्चा अपना-अपना होगा. " उसने कहा, "ठीक है, लेकिन अभी तो खर्चा इनको ही करना होगा. बाद में ब्रोकरेज में से हम कटवा देंगे." "ठीक है. लेकिन ये सिर्फ टिकट का खर्चा देंगे. बाकी खर्च हमें अपना-अपना करना है. " "ठीक है" तय हो गया. एयर-टिकट बुक कर ली मेरे क्लाइंट ने. फ्लाइट का दिन करीब आया तो ठीक दो दिन पहले मेरी एक उबर कैब वाले से भिड़ंत हो गयी. मॉडल टाउन से मैं और बड़ी बिटिया बैठे थे. उसने जो कान में लीड डाली, तो सारे रास्ते फोन पर किसी और ड्राइवर से बतियाता रहा. रस्ते में मैंने टोका. वो फिर न माना. उतरते हुए मैंने कहा, " यह तुम ठीक नहीं कर रहे थे जो गाड़ी चलाते हुए फोन पर बात कर रहे थे." "आप बात करो फोन पे तो ठीक है, मैं करूँ तो गलत है? नौ लाख की गाड़ी है मेरी. फिर क्या हो गया जो मैं फोन पे बात कर रहा था तो?" वो ऐंठ कर बोला. "हाँ, गलत कर रहे थे तुम, चूँकि गाड़ी तुम चला रहे थे, मैं नहीं." बात बढ़ती गयी. धक्का-मुक्की तक पहुंच गयी. वो कूदने-फांदने लगा तो मैं पूरी तरह से रौद्र रूप में आ गया. एक-आध हाथ उसे पड़ गया. लगा चीखने चिल्लाने. श्रीमती भी पहुँच चुकीं थी वहां. काफी ड्रामा हो गया. मुझे खींच कर वो बच्चों की नानी के घर ले गईं. सब परेशान हो चुके थे. अभी पांच-दस मिनट ही हुए होंगे. वो ड्राइवर घर के बाहर पुलिस लेकर पहुँच गया. मुझे निकलने से मना किया सबने. साले साहेब ने संभालने की कोशिश की लेकिन मामला नहीं सम्भलना था, न सम्भला. अंत में उन्होनें मुझे कहा कि बाहर आना ही होगा. खैर. मैं निकला. देखा बहुत भीड़ थी बाहर, जैसे कत्ल हो गया हो, या कोई उग्रवादी पकड़ना हो. दो तीन पुलिस वाले थे और उनके साथ खड़ा वो ड्राइवर रोता-चीखता-चिल्लाता जा रहा था, "मुझे बहुत मारा. बहुत कूटा." एक फॅमिली, पता नहीं थी वहां या नहीं, गवाह बनी हुई थी. मेरी तरफ देख कर उनमें से एक औरत बोली, "इसने हमारे सामने ड्राइवर को बहुत मारा." सब झूठ था. वो एक हाथा-पाई थी, जिसमें मैं हावी हो गया था. बस. वो बहुत पिट जाता लेकिन उससे पहले मुझे श्रीमती जी ने तथा और लोगों ने थाम लिया था. एक-एक को तड़-तड़ जवाब दिए मैंने. "झूठ बोले तो सबके पॉलीग्राफ टेस्ट करवाने को लिखूंगा. बार-बार लिखूंगा. तुम्हारा इंकार ही तुम्हारे झूठे होने का इशारा कर देगा और अगर टेस्ट करवाओगे तब तो झूठ बिलकुल पकड़ा जाएगा. उल्टा केस ठोकूंगा तुम पे." IO एक नंबर का बकवास आदमी था. मुझ से कहा उसने, "आपकी तो बॉडी लैंग्वेज और टोन ही ठीक नहीं." "हम्म.. तो आप जज करेंगे मुझे? जज हैं आप?" वो शरलॉक होल्म्स का बाप था... नहीं पड़दादा था... नहीं ट्रेनर था. जो मेरी शक्ल देखते ही समझ गया था कि सब ग़लती मेरी थी. इडियट. इत्ते में एक पड़ोसी ने भी IO को झपड़ दिया. थोड़ा सा ठंडा हुआ वो. बोला, "चलो थाने." "ठीक है चलता हूँ." कुल मिला कर दो घंटे खराब हुए, मामला रफा-दफा हुआ. नतीजा यह कि ड्राइवर तो घटिया था ही IO भी घटिया था. बकवास. मुझे हमेशा लगता है कि वकीलों ने जो पुलिस वालों को कूटा था, सही किया था. एक दिन में बीवी-बच्चे लेकर सड़क पर बैठ गए थे पुलिस वाले. ओवरस्मार्ट इडियट. इनको लगता है जैसे इनकी टेढ़-मेढ़ हमें समझ ही नहीं आती. धेले की अक्ल नहीं होती इनको और थाने में वकील-जज सब बन बैठ जाते हैं. खैर, मुझे भी फॅमिली द्वारा यही समझाया जा रहा था कि फ्लाइट है मेरी दो दिन बाद, सो ज़्यादा पंगा करने का कोई फायदा नहीं है. सो ज़्यादा पंगा नहीं किया. अगले दिन पैकिंग की और फिर अगली रात सो ही नहीं पाया चूँकि सुबह छह बजे की फ्लाइट थी. सब तकरीबन साढ़े तीन बजे मिल गए. शायद अकेला मैं ऐसा था जिसने कभी अंदर से एयर-पोर्ट तक नहीं देखा था. गधा-रेहड़ी पे चलने वाला आदमी. डर तो नहीं, हल्का सा कौतूहल था. जहाज़ अंदर से बड़ी बस जैसा था. इकॉनमी क्लास. टाइट सीट. टेक ऑफ करते हुए हल्का सा कानों में दबाव. एक बार जहाज़ सीधा हुआ तो फिर पता ही नहीं लगा कि उड़ते जहाज़ में हैं या ड्राइंग रूम में. अढ़ाई घंटे का सफर. एयर इंडिया की फ्लाइट. बीच में नाश्ता. जो मैंने सिर्फ खाने को समझने के लिए खाया. बकवास. परांठे आलू के... लेकिन बस आटा ही आटा... फिलिंग नाम-मात्र. सब्ज़ी आलू की, जिसमें आलू नज़र ही नहीं आ रहे थे. खैर, चेन्नई उतर गए. दिल्ली-चेन्नई एयर-पोर्ट अंदर से दोनों खूबसूरत लगे मुझे. बाहर निकलते ही मौसम गर्म. बनियान में आना पड़ा जबकि दिसंबर था. आगे तकरीबन दो सौ किलोमीटर सड़क का सफर था. ऑरोविले के लिए इन्नोवा ली गयी. गाड़ी ठीक थी. सब खुले-खुले बैठ गए. AC बढ़िया. कोई दिक्कत नहीं. चेन्नई दिल्ली जैसा ही लग रहा था. जैसे ही चेन्नई से निकले. एकदम साफ़ आसमान. साफ़ हवा. चावल की खेती ... लम्बी घास....हलके हरे चटक रंग की घास और नारियल के पेड़. सब तरफ खुला खुला क्लाइमेट. "हम दिल्ली में रह ही क्यों रहे हैं?" सब अफ़सोस सा करने लगे. वीडियो कॉल से बीच-बीच में हम दोनों डीलर अपनी फॅमिली को सफर दिखाते रहे. कोई तीन घंटे के आस-पास का सफर. हम ऑरोविले पहुँच गए. मेरी क्लाइंट फॅमिली का होटल बुक था. हम डीलर बंधुओं ने अपने बैग उनके रूम में छोड़े और स्टाम्प पेपर लेने निकल पड़े. पॉण्डीचेरी पहुंचे, जो कि वहां से मात्र तीन-चार किलोमीटर ही है. वहां स्टॉकहोल्डिंग्स के दफ्तर में लंच हो चुका था. सीट पर एक महिला थीं. घरेलू. शादी-शुदा. सुंदर. "अब आपको लंच के बाद आना होगा." वो ठीक हिंदी बोल रही थीं. मैं पीछे हैट गया. बंधुवर ने प्रयास किया, "मैडम, प्लीज् दे दीजिये पेपर, हम दिल्ली से आये हैं." "सिस्टम बंद हो चुका, मैं कुछ कर ही नहीं सकती." मुझे साफ़ लग रहा था कि वो सही कह रही हैं. मैंने बंधु को कहा, "चलिए न, दुबारा आ जाएंगे" "ठीक है." अब हमारे पास तकरीबन एक घंटा था इंतज़ार करने को. वहीं एक रेस्त्रां ढूँढा. वो वाकई बढ़िया निकला. साफ़ सुथरा टॉयलेट. खुला खुला हाल. टेबल एक दूजे से सटे नहीं थे. देसी-विदेसी सब लोग मौजूद. दो थाली आर्डर कीं हमने. कोई दस कटोरी. किसी में दाल, किसी में सब्ज़ी, किसी में दही, किसी में मीठा. मेरे पंसंद की एको सब्ज़ी नहीं थी उसमें. खैर, खा लिया, खाने लायक फिर भी था वो सब. मात्र डेढ़ सौ रुपये प्रति थाली बिल. हम वापिस स्टॉकहोल्डिंग्स दफ्तर पहुंचे. हमने बताया कि ऑरोविले में सेल एग्रीमेंट होना है. मादाम बोलीं, "तब तो आपको तमिलनाडु का स्टाम्प पेपर चाहिए." "मतलब?" "पांडिचेरी तो अलग स्टेट है. " ओह! मैं जैसे पहाड़ से गिरा. मुझे याद आया कि पोंडीचेरी तो यूनियन टेरिटरी है. हम वहां से निकले. नीचे थोड़ा दूर कुछ टाइपिस्ट बैठे थे. उनसे पूछा कि तमिलनाडु का स्टाम्प पेपर कहाँ मिलेगा. एक जगह बता दी गयी. हम दोनों वहां पहुंचे. वो कोई दूकानदार था. उसने कहा कि साढ़े तीन बजे के बाद ही मिल पायेगा स्टाम्प पेपर. मेरे बंधु बिदक गए, "इतनी देर कौन रुकेगा यहाँ? मैं तो थक चुका हूँ. मुझे तो नींद आ रही है. मुझे तो टॉयलेट जाना है." "तो?" "मैं तो वापिस होटल जाऊंगा." "ठीक है, चले जाएँ आप," मैंने ठंडा सा जवाब दिया. और वो सच में चले गए, मुझे मँझदार में ही छोड़ कर चले गए. खैर, मैं उस दूकान के बाहर पड़े स्टूल पर बैठ गया. मेरा सेल फोन बंद हो गया.वहां सब लोग हिंदी नहीं समझते. तमिल या फिर टूटी-फूटी अंग्रेजी समझते हैं. दूकान-दार को इशारे से समझाया कि फोन चार्जिंग पर लगाना है. थोड़ी सी किस्मत सही रही. जिसने स्टाम्प-पेपर देना था, वो कोई तीन बजे ही आ गया. पांच मिनट में उसने स्टाम्प पेपर दे दिए. ऑटो करके मैं होटल पहुंचा. एग्रीमेंट के प्रिंट-आउट मैं दिल्ली से ही निकाल ले गया था. ऑटो से सब प्रॉपर्टी मालकिन के घर पहुंचे. वाओ! वैसे घर मैंने अंग्रेजी फिल्मों में ही देखे थे. खुले-बड़े-बड़े घर. जैसे ज़मीन मुफ्त में मिली हो. तकरीबन हज़ार गज में एक घर. फिर दूसरा घर कोई पचास मीटर जगह छोड़ कर.तीसरा घर चालीस मीटर जगह छोड़ कर. बीच में खाली जगह. वनस्पति. पेड़-पौधे. जैसे जंगल के बीच-बीच बने हों घर. बड़े ही आत्मीय ढंग से सबका स्वागत हुआ. चाय-पकौड़ों के बीच मेरे क्लाइंट ने ऑनलाइन धन ट्रांसफर किया और सबने एग्रीमेंट साइन किया. कोई डेढ़ घंटे में ही प्यारा सा माहौल बन गया. उठते हुए सब गले मिले. फोटो लीं. "आप ऐसे रहते हैं, डर नहीं लगता?" मैंने पूछ ही लिया. "नहीं, सबने कुत्ते रखे हुए हैं." लेकिन हम में से कोई भी आश्वस्त न हुआ. मात्र कुत्तों के सहारे ऐसी जगह में कैसे रहा जा सकता है? जगह स्वर्ग जैसी. उनके अपने ही पेड़-पौधे थे, इत्ते कि उनकी कुछ ज़रूरत खुद की खेती पूरी कर दे, लेकिन कोई गॉर्ड नहीं, पुलिस नहीं, चार दीवारी नहीं, ऐसे कैसे रह सकते हैं? यहाँ दिल्ली में तो LIG फ्लैटों को भी लोगों ने चार-दीवारी कर के गॉर्ड रखे होते हैं. काम हमारा हो गया. सब ख़ुशी-ख़ुशी वहां से निकले. अब हम दोनों डीलर बंधुओं को होटल ढूंढना था. "हम तीन-चार होटल देख लेते हैं, आईडिया आ जायेगा." मेरा हमेशा से ख्याल रहा है की होटल ऑनलाइन बुक करने से बेहतर है साइट पर जाकर बुक करना. घंटा आध घंटे की मेहनत से अच्छी डील ढूंढी जा सकती है. वही हमने किया. अंत में हम दोनों ने एक होटल फाइनल कर दिया. वो मेरे क्लाइंट के होटल के ठीक पास ही था. अँधेरा हो चुका था. अगले दिन सुबह घूमना था, सो खा-पी कर सब होटल में ही दुबक गए. मेरे डीलर बंधु ने बताया कि उनका पेट खराब हो गया था और उन्होंने दस्त बंद करने की दवा भी ले ली थी. मैंने उन्हें डांटते हुए कहा कि दस्त लग्न मात्र इस बात की निशानी थी की आपने अपने शरीर में कुछ ज़्यादा या फिर कुछ गड़बड़ दाल दिया है जिसे वो निकाल रहा है. लेकिन आप ठहरे समझदार. अपने शरीर से ज़्यादा समझदार. सो आप वो गंद निकल न पाए इसलिए दवा लेके उस गंद को शरीर में ही रोके हुए हैं. वाह! वाह जनाब!! फिर मैंने उन्हें यह भी बताया कि मेरे पिता जी तो हर चार-छह महीने बाद जुलाब लिया करते थे. किसलिए? ताकि शरीर में से गंदगी बाहर निकल सके. खैर उन्हें कुछ समझ आया या नहीं लेकिन उन्होंने कहा यही कि उन्हें यह सब पता है. मैं सोच रहा था, "अब जब पता ही है तो फिर उस ज्ञान का प्रयोग कयों नहीं किया मेरे भाई?" अगली सुबह मैं जल्दी उठ गया. होटल रूम में ही दंड बैठक मारीं. जूते पहने और ऑरोविले की मेन सड़क पर पहुँच गया. आबादी कम ही है वहां. सो सड़क पर कोई ख़ास हल-चल नहीं थी. बस्ती में से होते हुए वापिस ऑरोविले बीच पर आ गया. हर घर के बाहर चाक से रंगोली बनाई हुई थी. ज़मीन की कोई खास मारो-मार महसूस नहीं हो रही थी चूँकि घर एक-डेढ़ मंज़िला ही थे. कई घर तो बस झोंपड़ीनुमा ही थे. जीवन शांत था. लोगों के चेहरों पर बदहवासी नहीं थी.
A House near Auroville Beach
यहाँ समंदर तो साफ़ है लेकिन बीच पर थोड़ी गंदगी है. मैंने कोई दो किलोमीटर रनिंग-वाकिंग की. फिर चट्टानों पर बैठ एक वीडियो भी बनाया.
"समंदर...लहरें....आत्मा... परमात्मा." कुल मतलब यह कि लहर अलग दीखते हुए भी समंदर से अलग नहीं है. जन्म से लेकर विलीन होने तक, वो कभी अलग नहीं है समंदर से. वो समंदर ही है. हवा यदि बर्तन में हो तो क्या वो सर्वत्र मौजूद हवा से कुछ भिन्न होती है? बिजली जो बल्ब को रोशन कर रही है क्या कुछ अलग है जो तारों में बह रही है? लेकिन लहर को वहम हो गया कि वो समंदर से अलग है, बल्ब को वहम हो गया कि उसे रोशन करने वाली बिजली कुछ अलग है? गिलास को वहम हो गया कि उसमें जो हवा है, वो कुछ अलग है. इंसान को वहम हो गया की वो अस्तित्व से कुछ अलग है, उसकी अलग कुछ एंटिटी है, अस्तित्व है. आत्मा है. वहम है. हम सब इस ब्रह्माण्ड से कभी भी अलग नहीं हैं,हम परमात्मा ही हैं. आत्मा न कभी थे, न होंगे. आत्मा सिर्फ भरम है, जैसे लहर का अलग से कोई भी अस्तित्व सिर्फ एक भरम है. अगली सुबह मेरे डीलर बंधु मेरे क्लाइंट फॅमिली के आगे वही गीत गाने लगे, "रात को मेरा पेट खराब हो गया था." मैंने उन्हें फिर टोका, "आप क्यों खुद को याद दिलवा रहे हैं बार-बार? पेट खराब हो गया था. मेरा पेट खराब हो गया था. हो गया था तो हो गया था. रात गयी, बात गयी. आपको पता है कि आपके इस तरह खुद को बार-बार याद दिलवाने का भी आप पर नेगेटिव असर पड़ता है? आपकी मानसिकता का अनुसरण करता है आपका शरीर." कोई बारह बजे सब निकले. तय हुआ कि सबसे पहले मातृ-मंदिर जाएंगे. यह मंदिर "मदर" ने बनवाया था. वो ऑरबिंदो से एसोसिएटेड थीं. असल में तो Auroville नाम भी Aurbindo+Village का जोड़ ही लगता है मुझे. ऑटो लिए गए. वो फारेस्ट एरिया से होते हुए हमें मातृ-मंदिर ले गए. यह बहुत ही बढ़िया जगह है. फ्रेश हवा, वनस्पति की गंध से भरी. "यह हवा मैं अटैची में भर के दिल्ली ले जाऊंगा", मैंने कहा.
Myself in Matri Mandir, Auroville


 कोई चार किलोमीटर पैदल चलते हुए हम मातृ-मंदिर पहुंचे. यह एक गोल्डन गोला है. शायद किसी मैटल का प्रयोग किया गया है ऊपर-ऊपर. अंदर जाने नहीं दिया गया. बस दूर से देखा. बहुत प्यारी जगह है. देखने लायक.
मंजिल से ज़्यादा सफर बढ़िया था. फिर से वनस्पति सूंघते हुए वापिस हो लिए.

रास्ते में एक जगह चाय पी. पीतल की कटोरियों में पीतल के मीडियम टम्बलर. पता नहीं चाय बढ़िया थी या बर्तन बढ़िया थे या दोनों बढ़िया थे..... नतीजा...... मज़ा आ गया.

Tea in Matri Mandir, Auroville
अब हमने अगली मंजिल तय की. "पैराडाइस बीच". ऑटो से सब वहां पहुंचे. समंदर के बीच टापू है. मोटर बोट से पहुंचाए गए. वाकई पैराडाइस जैसी जगह है. साफ़-सुथरा बीच और साफ़-सुथरा समंदर. डीलर बंधु को उसी रोज़ वापिस दिल्ली आना था सो वो तो कोई पंद्रह-बीस मिनट में ही वापसी हो लिए. मैं और मेरी क्लाइंट फॅमिली कोई डेढ़-दो घंटा वहां रहे. पानी के साथ खेलते. बाकी लोगों को देखते हुए. नव-युवा-युवतियां. विवाहित-अविवाहित. सब थे वहां. उत्साहित. समंदर से खेलते हुए. खुश. होना भी चाहिए था. वो जगह ही ऐसी थी. सबको भूख लग आयी थी. कुछ रेस्त्रां बने हुए थे बीच पे. लेकिन उनका मेनू किसी को पसंद नहीं आया. पचास रुपये की एक रोटी. तय हुआ, यहाँ नहीं खाना. वहां से कैब की और ऑरबिंदो आश्रम पहुंचे. यहाँ ऑरबिंदो की समाधि है और उन्हीं की किताबों की लाइब्रेरी और शॉप है. ऑरबिंदो की समाधि के इर्द-गिर्द कुछ लोग आँख बंद कर ध्यान-मग्न बैठे थे. तकरीबन आधे घंटे में वहां से सब निपट गए. तय हुआ वापिस होटल चलें. आराम करके खाना इकट्ठा खाएंगे. मेरे क्लाइंट के होटल में फर्स्ट फ्लोर की छत पर रेस्त्रां था. उनका होटल बिलकुल समंदर किनारे था. उनके कमरे से समंदर सीधा दीखता था. और समंदर की ठंडी हवा और बारिश आती थी कमरे के अंदर तक. आनंद ही आनंद. बरसता हुआ. जैसे-तैसे बारिश से बचते-बचाते फर्स्ट फ्लोर पहुंचे. खाना आर्डर किया. भूख बहुत लगी हुई थी. मैंने नाश्ता तक नहीं किया था. सारा दिन का भूखा था मैं. जितना उस फॅमिली ने खाया होगा उतना मैंने अकेले ने खाया होगा.


वहां होटल वालों के पास बड़ी सी छतरी थी. आम छतरी से दो गुना बड़ी. एक एक कर के उस छतरी में वेटर हमें नीचे छोड़ कर आया. मैंने कहा, "मुझे मेरे होटल तक ही छोड़ दीजिये प्लीज. बारिश रुकने वाली नहीं लगती."
मुझे छोड़ा गया, लेकिन मेरे स्पोर्ट्स शूज फिर भी भीग गए. ज़बरदस्त बारिश थी वह. दस किलोमीटर से ज़्यादा वाकिंग की थी उस दिन मैंने. और दंड-बैठक भी मारी थीं. बिस्तर पर गिरते ही बेहोश हो गया. कोई चार बजे नींद खुली. मैं ऐसे ही सोता हूँ. कभी भी सो जाता हूँ. कभी भी उठ जाता हूँ. नींद मुझे किश्तों में आती है. खैर, सुबह कोई छह बजे के करीब मैं फिर से बीच पर पहुँच गया. पैराडाइस बीच पर हम में से कोई भी समंदर में नहा नहीं पाया था चूँकि अलग से कपड़े हम ले कर ही नहीं गए थे. अब मैं इंतेज़ाम करके गया. अकेला गया. समंदर में डुबकियां मारी. यकीन जानिये समंदर कोई नहाने की जगह नहीं है. पानी नहीं नमक है. और मोटी दर-दरी रेत. गारमेंट्स में घुस जाए तो निकले नहीं .. वापिस होटल पहुंचा .... बाथ-रूम ...बड़ी ही शिद्दत से खुद से रेत अलग की. लम्बा समय लगा. कोई ग्यारह बजे क्लाइंट फॅमिली का मैसेज था कि सब तैयार हैं. निकलें. कैब बुक की हुयी थी. हम वापिस चले. चेन्नई से पहले मामल्लापुरम पड़ा. इसका पुराना नाम महाबलीपुरम है. यहाँ मोदी और चीन के राष्ट्रपति ने फोटो खिंचवाई थी एक गोल चट्टान के नीचे खड़े होकर. यही सब देखना तय हुआ था.
Mamalla Motel & Restaurant
वहां सिर्फ वही चट्टान नहीं थी और भी देखने लायक चट्टाने और चट्टानों को काट कर बनाये गए मंदिर थे. गाइड ने बताया की पल्लव वंश ने ये सब मंदिर तेरह सौ साल पहले बनाये थे. समझने लायक बात यह थी कि कैसे पहाड़ जैसी चट्टानें काट मंदिर बना दिए गए. शिल्प कोई बहुत महीन नहीं था लेकिन फिर भी उस समय के मुताबिक काबिले-तारीफ़ था. एक मंदिर की एंट्री पर पैर धोने की हौदी बनी थी. ठीक वैसी जैसे आज गुरुद्वारों की एंट्री पर बनी होती है. कमाल! उस ज़माने में यह सब सोचना और फिर बनाना!!
महाबलीपुरम पल्लव वंश निर्मित शिल्प और हम 
Feet washing arrangement as in Gurudwaras- Mahabalipuram Temple



Round Boulder Mamalla Puram

Monkey Family
A Temple Mamallapuram

वहीं समंदर किनारे महाबलीपुरम का मंदिर है. शिल्प के हिसाब से यह मंदिर भी कुछ ख़ास नहीं है, लेकिन यह भी शायद एक ही चट्टान काट के बना है तो उस लिहाज से बढ़िया है.

हमारे पास अभी काफी समय था. फ्लाइट नौ बजे की थी. हम कोई एक जगह और देख सकते थे. लेकिन सब थके हुए थे. एयर-पोर्ट जाना तय हुआ.

फिर अढ़ाई घंटे की फ्लाइट. डिनर कोई ख़ास नहीं था. मैंने तय किया कि जहाँ तक हो सके फ्लाइट में दिया जाने वाला खाना नहीं खाना है आगे से.
फ्लाइट कोई दो घंटे लेट थी. एयर-पोर्ट पर चहल-कदमी करते रहे. मेरे लिए तो एयर-पोर्ट भी दखने की जगह थी. रिक्शा-स्कूटर पर चलंने वाला आदमी.
दिल्ली पहुँचते ही मेरे क्लाइंट का ओला कैब वाले से झगड़ा हो गया. मुझे ताज़ा अनुभव था, बात बिगड़ सकती थी और इतने अच्छे ट्रिप की किरकिरी हो सकती थी. फिर अब उस फॅमिली के साथ मुझे लगाव हो गया था. उनके साथ दो बच्चे भी थे. मुझे ठीक अपनी फॅमिली जैसा ही लगता रहा सारे रास्ते. वैसे भी अपने क्लाइंट को मैं फॅमिली जैसा ही महत्व देता हूँ. भरोसा करके वो प्रॉपर्टी लेते हैं मेरे ज़रिये. उम्र भर की पूंजी लगनी होती है. उनके भरोसे की कद्र करता हूँ.
मैंने बीच-बचाव किया. मामला रफा-दफा. फिर दूसरी कैब ली गयी. हम बात कर रहे थे कि दिल्ली की हवा ही अलग है. लड़ाके लोग हैं. साउथ इंडिया के लोग ज़्यादा शांत हैं, ज़्यादा शिक्षित हैं, ज़्यादा तमीज़दार हैं.
कैब वाला हमारी आपसी बातों में ज़बरन शामिल हो गया. सब चुप हो गए.
ओला उबर के ड्राइवर और उनके कम्यूटर के वैचारिक, समाजिक, आर्थिक लेवल में बहुत फर्क होता है. ट्रेनिंग की ज़रूरत है सब ड्राइवर को. कम्यूटर से न उलझें. सवारी की आपसी बातचीत में शामिल न होवें. गाड़ी चलाते हुए फोन पे बात न करें. सिर्फ और सिर्फ गाड़ी चलाएं. पैसे लें और चलते बनें.
और विमान सेवा देने वाले एक हास्यस्पद खानापूर्ति पूरी करते हैं. महज खानापूर्ति. क्या? फ्लाइट से ठीक पहले क्रू-मेंबर यात्रियों को इशारों से समझाते हैं, रिकार्डेड वॉइस मैसेज के साथ कि इमरजेंसी में लाइफ जैकेट कैसे प्रयोग करनी है, ऑक्सीजन मास्क कैसे प्रयोग करना है आदि-आदि. यकीन जानिये यह एक-दम बकवास तरीका है समझाने का. इमरजेंसी में मुझे नहीं लगता कि बिना क्रू-मेंबर की मदद के लोग यह सब कर पाएंगे. इसका सही तरीका यह हो सकता है कि फ्लाइट के ठीक पहले यात्रियों को प्रक्टिकली सब करवाया जाए. एक-एक यात्री को. महज दस मिनट की एक्सरसाइज बहुत ही मददगार साबित होगी.
वैसे यहीं दिल्ली में ही नहीं चेन्नई, ऑरोविले, पांडिचेरी, सब जगह ड्राइवर लोग गाड़ी चलाते हुए फोन पर बात करते जा रहे थे. गलत बात है. ये लोग अपने साथ यात्रियों को भी खतरे में डाल रहे हैं.
और दूसरी बड़ी कमी यह पायी मैंने कि जहाज के उतरने के बाद जब बैग कनवेयर बेल्ट पर आते हैं, तो वहां से यात्री खुद ही अपने अपने बैग उठाते हैं और उसके बाद सीधा ही एयरपोर्ट से बाहर निकल जाते हैं. कोई भी व्यक्ति जाने-अनजाने किस दूसरे यात्री का बैग उठा के चलता बन सकता है. कोई पूछने-देखने वाला नहीं है. इसे बड़ी आसानी से सिस्टेमेटिक किया जा सकता है. सिर्फ कुछ स्टाफ लगाना पड़ेगा, जो "बैगेज टिकट" देख-देख बैग की डिलीवरी दे.


खैर, रात के करीब दो बजे सब सही-सलामत घर वापिस.
बड़ी बिटिया और श्रीमती जागती रहीं. मैंने मातृ-मंदिर से अगरबत्तियों के पैकेट लिए थे. महाबलीपुरम मंदिर के बाहर से पत्थर और मोतियों की कोई दस मालाएं लीं थी. एयरपोर्ट से चॉकलेट लीं थी. और समंदर से सीप इकट्ठा कीं थी. देख खुश हो गए सब. कोई दो घंटे मैं सफ़र की बातें सुनाता रहा. चार बजे सुबह सवेरे मैं सो गया.
मेरे ट्रिप से कुछ सीखने लायक मिला हो तो ज़रूर लिखिए.
नमन...तुषार कॉस्मिक

Thursday, 19 December 2019

क्या #CAA (citizenship amendment act 2019) संविधान के खिलाफ है?- #NRC/ #CAA-2

मियाँ भाई फरमा रिये हैं :- "ये जो CAA है न यह कंटीटूशन के खिलाफ है. हमारा कंटीटूशन तो सब को बराबर धार्मिक/मज़हबी का हक़ देता है." मेरा मानना है कि CAA बिलकुल भी संविधान के खिलाफ नहीं है. और अपनी इस मान्यता की सपोर्ट में जो मैं आपको बताने वाला हूँ वो आज तक किसी ने भी ने भारत में न कहा है न लिखा है. बात ठीक है कि कंटीटूशन बराबर का हक़ देता है सब मज़हब/ दीन /धरम को लेकिन कुछ शर्त भी हैं संविधान में. देखिये संविधान का अनुच्छेद २५ :-- ये कहता है (1) Subject to public order, morality and health and to the other provisions of this Part, all persons are equally entitled to freedom of conscience and the right freely to profess, practise and propagate religion मतलब सबको धार्मिक आज़ादी है बशर्ते कि सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता, स्वास्थ्य बना रहे. अब देखिये क़ुरआन क्या कहती है "ओ नबी, जो भी नहीं मानते, या असल में नहीं मानते लेकिन मानने का झूठा नाटक करते हैं, उनके खिलाफ भंयकर युद्ध कर. जहन्नुम ही उनका घर है. ( आयत नम्बर -66.9) O Prophet! strive hard against the unbelievers and the hypocrites, and be hard against them; and their abode is hell; and evil is the resort. (Quran 66.9)" अब जो दीन न मानने वालों के खिलाफ भयंकर युद्ध करने की ठाने बैठा हो, क्या उसे हमारा कंस्टीटूशन में बराबरी का दर्जा सकता है? दे रहा है? नहीं दे रहा. संविधान तो कहता है कि आपको धार्मिक आज़ादी है लेकिन तभी जब सार्वजनिक व्यवस्था, स्वास्थ्य, नैतिकता बनी रहे. लेकिन यदि धर्म/दीन सिर्फ इसलिए युद्ध करता है कि उसे नहीं माना जा रहा तो उससे सार्वजानिक व्यवस्था बनी रहेगी या भंग होगी, उससे सर्वजन का स्वास्थ्य बनेगा या बिगड़ेगा? जब बम फूटेंगे, क़त्ल होंगे, मार-काट होगी तो सार्वजानिक स्वास्थ्य बना रहेगा या भंग होगा? और जब हम किसी ऐसे दीन/ धर्म को अपने आप को फैलाने की आज़ादी देंगे जो खुद को न मानने वालों के खिलाफ जंग करे तो समाज में कैसी नैतिकता को बढ़ावा दे रहे हैं हम? दुबारा से संविधान का आर्टिकल 25 पढ़ें. धार्मिक आज़ादी है लेकिन उसके साथ जो शर्तें जुड़ी हैं वो भी पढ़िए. फिर कहिये कि मौजूदा सरकार के उठाये कदम असंवैधानिक है. इस्लाम को धर्मों की श्रेणी से बाहर करना चाहिए चूँकि यह धर्म के नाम पर छद्म सामाजिक, राजनीतिक और सैनिक संगठन है. इस्लाम की मुक्कदस किताब कुरान गवाह है, पढ़ सकते हैं. और यह कोई मेरा ओरिजिनल आईडिया नहीं है, अमेरिका और बहुत से अन्य मुल्कों में ऐसे सुझाव दिए जा रहे हैं कि इस्लाम को धर्मों की श्रेणी से बाहर किया जाये. इस्लाम कोई रोज़े, नमाज़, रमजान, ईद, बकरीद का ही नाम नहीं है. इस्लाम में शरिया है जो एक पूरी सामाजिक व्यवस्था है, जिसके अपने कानून हैं. इस्लाम जिहाद है. इस्लाम में इस्लाम के पसारे के लिए हिंसा है. इस्लाम सियासी आइडियोलॉजी है. तो यह कैसे कोई धर्म हो गया? और जब धर्म की परिभाषा में ही इस्लाम फिट नहीं होता तो कैसी धार्मिक बराबरी? तो फिर कैसे CAA संविधान के खिलाफ? ज़ाकिर ना-लायक की बड़ी इज़्ज़त है इस्लामिक दुनिया में. वो श्रीमन कहते हैं कि दीन सिर्फ एक है और वो है इस्लाम. बाकी को करो आखिरी सलाम. गुड बाई. इसलिए तो इस्लामिक मुल्कों में किसी भी और धर्म के इबादतगाह नहीं बनने दिए जाते. सीधी बात. बाकी सब धर्म हैं बकवास.Of Course according to Islam. इस्लाम किसी भी और धर्म को बराबरी का हक़ नहीं देता. बराबरी का हक़ उसे ही मिलना चाहिए जो दूसरों को भी बराबरी का हक़ देने को तैयार हो. तो मित्रवर, मेरे मुताबिक CAA के अंतर्गत जो मुस्लिम को नागरिकता देने से परहेज़ किया जा रहा है, वो बिलकुल सही है. और CAA कतई संविधान के खिलाफ नहीं है. इसका स्वागत होना चाहिए. इसका पालन होना चाहिए. मेरी नज़र में धरती माता भारत माता से बड़ी हैं. मैं वसुधैव कुटुंबकम को मानता हूँ. विश्व बंधुत्व को मानता हूँ. राष्ट्र को मात्र राजनीतिक सीमाएं मानता हूँ, जिन्हें आज नहीं तो कल खत्म होना ही चाहिए. किसी एक संस्कृति-सभ्यता को नहीं मानता हूँ. सारी धरती हमारी है और इस धरती का सारा ज्ञान -विज्ञान हमारा है, चाहे वो धरती के किसी कोने से आया हो. और मेरा मानना है कि दुनिया को Nation- State से World-state में बदलना चाहिए. लेकिन लोकल मान्यताओं का भी जहाँ तक हो सके पालन करते हुए. तो फिर मैं CAA का क्यों स्वागत कर रहा हूँ? वो इसलिए चूँकि अभी इंसानियत वसुधैव कुटुंबकम से बहुत दूर है. दुनिया में फैले भांति-भांति के धर्म/दीन/ मज़हब वसुधैव कुटुंबकम की राह में रोड़ा हैं. इस्लाम सबसे बड़ा रोड़ा है. इस्लाम अवैज्ञानिक है, अतार्किक है, हिंसक है. यदि हम इस्लाम को इस दुनिया से हटाने में कामयाब हो जाते हैं तो बाकी धर्मों का सामना करना, उनमें सामंजस्य बिठाना बड़ा आसान हो जायेगा. ग्लोबल Culture, ग्लोबल आइडियोलॉजी पैदा करना आसान हो जायेगा. राष्ट्रों को महाराष्ट्रों में तब्दील करना और इन महाराष्ट्रों को एक ग्लोबल गवर्नमेंट के झंडे के नीचे लाना आसान हो जायेगा.
इसलिए वक्त ज़रूरत के मुताबिक मैं CAA का स्वागत करता हूँ और पुरज़ोर स्वागत करता हूँ. नमन... तुषार कॉस्मिक