तारेक फ़तेह साहेब बताते हैं कि मोहम्मद साहेब के मरते ही मुस्लिमों में झगड़े शुरू हो गए थे. उनका शव अठारह घंटे रखा रहा लेकिन उनको 'नमाज़-ए-जनाज़ा' तक नसीब नहीं हुई. फिर उनकी सारी फॅमिली को मुसलमानों ने क़त्ल किया. और पूरी दुनिया में दूसरी मस्ज़िद भारत में बनी. दक्षिण के किसी हिन्दू राजा ने ज़मीन दी मस्ज़िद बनाने को, जिसके लिए दुनिया के तमाम मुसलमानों को शुक्रगुजार होना चाहिए. मेरा कहना बस इतना है कि यह सब निश्चित ही खोज का विषय है.
Thoughts, not bound by state or country, not bound by any religious or social conditioning. Logical. Rational. Scientific. Cosmic. Cosmic Thoughts. All Fire, not ashes. Take care, may cause smashes.
Sunday, 27 December 2015
तारेक फ़तेह साहेब बताते हैं कि---
तारेक फ़तेह साहेब बताते हैं कि मोहम्मद साहेब के मरते ही मुस्लिमों में झगड़े शुरू हो गए थे. उनका शव अठारह घंटे रखा रहा लेकिन उनको 'नमाज़-ए-जनाज़ा' तक नसीब नहीं हुई. फिर उनकी सारी फॅमिली को मुसलमानों ने क़त्ल किया. और पूरी दुनिया में दूसरी मस्ज़िद भारत में बनी. दक्षिण के किसी हिन्दू राजा ने ज़मीन दी मस्ज़िद बनाने को, जिसके लिए दुनिया के तमाम मुसलमानों को शुक्रगुजार होना चाहिए. मेरा कहना बस इतना है कि यह सब निश्चित ही खोज का विषय है.
Friday, 9 October 2015
आरक्षण पर ओशो से मेरा मत विरोध
प्रस्तुत लेख में मैं आरक्षण के विषय में उनके और फिर बाद में अपने ख्यालात पेश कर रहा हूँ.....ओशो आरक्षण का समर्थन करते हैं और मैं विरोध...पढ़िए, आशा है अच्छा लगेगा-----
"ओशो की दृष्टि में आरक्षण"
यही ब्राह्मण.... इस देश में, इस देश की बड़ी से बड़ी संख्या शूद्रों को सता रहे हैं, सदियों से........... ये कैसे शान्त लोग हैं?........ और अभी भी इनका दिल नहीं भरा, अभी भी वही उपद्रव जारी है....... अभी सारे देश में आग फैलती जाती है.... और गुजरात से क्यों शुरू होती है आग?...... पहले भी गुजरात से शुरू हुई थी, तब ये जनता के बुद्धू सिर पर आ गये थे, अब फिर गुजरात से शुरू हुई है.... गुजरात से शुरू होने का कारण साफ़ है..... ये ‘’महात्मा गाँधी’’ के शिक्षण का परिणाम है, वे दमन सिखा गये हैं, और सबसे ज्यादा गुजरात ने उनको माना है, क्यों कि गुजरात के अहंकार को बड़ी तृप्ति मिली है, की गुजरात का बेटा और पूरे भारत का बाप हो गया..... अब और क्या चाहिए?
गुजराती का दिल बहुत खुश हुआ, उसने जल्दी से खादी पहन ली. मगर खादी के भीतर तो वही आदमी है जो पहले था, महात्मा गाँधी के भीतर खुद वही आदमी था जो पहले था, उसमे भी कोई फर्क नहीं था, महात्मा गाँधी बहुत खिलाफ थे इस बात के, कि शूद्र हिन्दू धर्म को छोड़ें, उन्होंने इसके लिए उपवास किया था, आजन्म आजीवन मर जाने की धमकी दी थी............ आमरण अनशन............. कि, शूद्र को अलग मताधिकार नहीं होना चाहिए......
क्यों?........पांच हजार सालों में इतना सताया हैं उसको, कम से कम उसको अब कुछ तो सत्ता दो? .........कुछ तो सम्मान दो?..... उसके अलग मताधिकार से घबराहट क्या थी? ...........घबराहट ये थी कि शूद्रों की संख्या बड़ी है.......... और शूद्र, ब्राह्मणों को पछाड़ देंगे, अगर उन्हें मत का अधिकार प्रथक मिल जाये.......... तो मत का अधिकार रुकवाया गाँधी ने........आमरण अनशन की धमकी हिंसा है, अहिंसा नहीं ! और एक आदमी के मरने से, या ना मरने से, कोई फर्क नहीं पड़ता.....यूं ही मारना है....लेकिन .......दबाव डाला गया शूद्रों पर सब तरह का, कि तुम पर ये लांछन लगेगा की महात्मा गाँधी को मरवा डाला.......यूं ही तुम लांछित हो, ऐसे ही तुम अछूत हो, ऐसे ही तुम्हारी छाया भी छु जाये किसी को तो पाप हो जाता है... तो तुम्हे और लांछन अपने सिर लेने के झंझट नहीं लेनी चाहिए...........बहुत दबाव डाला गया, दबाव डाल कर गाँधी का अनशन तुडवाया गया...........और शूद्रों का मताधिकार खो गया............
अब गुजरात में जो उपद्रव शुरू हुआ है की शूद्रों को जो भी आरक्षित स्थान मिलते हैं विश्वविधालय में, मेडिकल कॉलेजों में, इन्जीनियरिंग कॉलेजों में............वो नहीं मिलने चाहिए.......... क्यों?...... क्यों कि स्वतन्त्रता में और लोकतन्त्र में सब को सामान अधिकार होना चाहिए................मगर शूद्रों को तुमने पांच हजार साल में इतना दबाया है की उनके विचारों के सामान अधिकारों का सवाल ही कहाँ उठता है?..............सब को गुण के अनुसार स्थान मिलना चाहिए...... लेकिन....... पांच हजार साल से जिनको किताबें भी ना छूने दी गईं, जिनको किसी तरह की शिक्षा मिली, वो ब्राह्मणों से, छत्रियों से, वैश्यों से, कैसे टक्कर ले सकेंगे? उनके बच्चे तो पिट जायेंगे., उनके बच्चे तो कहीं भी नहीं टिक सकते, .उनके बच्चों को तो विशेष आरक्षण मिलना ही चाहिए, और ये कोई दस- बीस वर्षों तक में मामला हल होने वाला नहीं है, पाँच हजार, दस हजार साल जिनको सताया गया है, तो कम से कम १०० –२०० साल तो निश्चित ही उनको विशेष आरक्षण मिलना ही चाहिए., ताकि इस योग्य हो जाएँ कि वो खुद सीधा मुकाबला कर सकें. जिस दिन इस योग्य हो जायेंगे, उस दिन आरक्षण अपने आप ही बंद हो जायेगा.
लेकिन आरक्षण उनको नहीं मिलना चाहिए, इसके पीछे चालबाजी है..........षड़यंत्र है........ षड़यंत्र वही है क्यों की सब कुछ जाहिर है..........जिनके पैर दस हजार साल तक तुमने बाँध रखे, और अब दस हजार साल के बाद तुमने उनके पैर की जंजीर तो अलग कर ली..... .तुम कहते हो सब को सामान अधिकार है?.......... इस लिए तुम भी दौड़ो दौड में.............लेकिन जो लोग दस हजार साल से दौड़ते रहे हैं, धावक हैं...........उनके साथ, जिनके पैर दस हजार साल तक बंधे रहे हैं, उनको दौड़ाओगे ? तो सिर्फ फज़ीहत होगी इनकी, ये दो चार कदम भी ना चल पाएंगे और गिर जायेंगे..... ये कैसे जीत पाएंगे? ये प्रतिष्पर्धा में कैसे खड़े हो पाएंगे?
थोड़ी शर्म भी नहीं है इन लोगों को, जो आरक्षण विरोधी आन्दोलन चला रहे हैं, और ये आग फैलती जा रही है, अब राजस्थान में पहुच गयी, अब मध्य प्रदेश में पहुचेगी, और एक दफे बिहार में पहुच गयी तो बिहार तो बुद्धुओं का..... अड्डा है, बस गुजरात के उल्लू और बिहार के बुद्धू अगर मिल जाएँ.......तो पर्याप्त हैं...... इस देश की बर्बादी के लिए फिर कोई और चीज़ की जरूरत नहीं है......... और जादा देर नहीं लगेगी........जो बिहार के बुद्धू हैं, वो तो हर मौके का उपयोग करना जानते हैं, जरा बुद्धू हैं इस लिए देर लगती है उनको, गुजरात से उन तक खबर पहुचने तक थोड़ा समय लगता है, मगर पहुच जायेगी, और एक दफे उनके हाथ में मशाल आ गयी ........तो फिर बहुत मुश्किल है.........फिर उपद्रव भारी हो जाने वाला है, और ये आग फैलने वाली है, ये बचने वाली नहीं है...........और इस सब आग की पीछे ब्राह्मण है."
"आरक्षण पर मेरे विचार"
यदि बाप ने क़त्ल किया हो तो क्या बेटे को फांसी दी जानी चाहिए?
यदि बलात्कार किया हो किसी ने तो सज़ा के रूप में उसकी बहन से बलात्कार किया जाए क्या? जैसे अक्सर खाप पंचायत के फैसले सुने जाते हैं.
नहीं न. तो फिर इतिहास की सज़ा वर्तमान को क्यों दे रहे हो?
खत्म करो यह आरक्षण की बीमारी
क्या गोली सबके शरीर के आरपार जाती है या कोई भेदभाव करती है?
क्या तलवार का वार सभी के शरीर को काट सकता है या कोई भेदभाव करता है?
क्या बीमारी, तंगहाली, गंदगी, बदबू सबको परेशान करती हैं या कोई भेदभाव करती हैं?
क्या गरीबी की लानत सब पर बराबर बरसती है या कोई भेदभाव करती है?
"गरीब की जोरू सबकी भाभी" क्या यह कहावत हर गरीब के लिए है या किसी ख़ास जात के गरीब के लिए? नहीं समझ आया न कि मैं कहना क्या चाहता हूँ......मित्रवर ......गरीबी गरीबी है और हर गरीब सामाजिक कुव्यवस्था का शिकार है.
इस देश ने एक से एक छिछले विचारक पैदा किये हैं...अम्बेडकर उनमें से एक हैं.....गरीबी इसलिए नहीं है कि जाति पति का भेदभाव है...इसलिए भी है कि जात पात का भेदभाव है...सो तुम यदि समाज की गरीबी को टुकड़ों में बाँट कर देखते हो तो तुम्हारी आँख पक्षपाती है, मोतियाबिंद की शिकार है .....एक जात के गरीबों को उठाओ बाकियों ने जैसे कोई गुनाह किया है
पुरखों के गुनाहों की सज़ा उनके बच्चों को नहीं दी जाती.....अब समय है कि इस आरक्षण नाम की बीमारी से समाज को मुक्त किया जाए......जात पात को हमेशा के लिए खत्म किया जाए...गरीबी को....समाज के हर हिस्से की ग़रीबी को दूर करने का प्रयास किया जाए....अंधे पूंजीवाद...जो सबसे बड़ा आरक्षण है उसके खिलाफ लामबंद हुआ जाए
राम विलास शर्मा के हाथों एक कत्ल हो गया गाँव में...अब क्या फांसी इसके भाई को दे दें जो दिल्ली में रहता है, जिसका इस क़त्ल से दूर दराज़ का कोई नाता नहीं है? नहीं न.
ठीक है भाई कोई आपके साथ जात पात के नाम पर भेद भाव कर रहा है .....दलन कर रहा है..तो आवाज़ उठाइये इनके खिलाफ. दिल्ली में गरीब शर्मा जी, गुप्ता जी, सिद्धू साहेब के बच्चों से आप काहे बदला ले रहे हैं, जिनका इस सब से कोई लेना देना ही नहीं ?
मंदिर में आपको पुजारी बनना है...नहीं घुसने देते बामन लोग.....अपने मंदिर बना लीजिये......और भगवान कौन से मंदिर में बैठे हैं? जहाँ तक मैं जानता हूँ भगवान कहीं भी हो सकते हैं लेकिन मंदिर मस्ज़िद गिरजे आदि में तो बिलकुल नहीं हो सकते.
आरक्षण के पक्ष में पोस्ट उभर रही हैं...दलित पर अत्याचार दिखाया जा रहा है.......स्वार्थी.....जैसे भी बस ..तैसे भी फायदा उठा लें......इन्हें यह बात हज़म ही नहीं कि यदि ये लोग गरीब हैं तो समाज को फर्ज़ है कि इनकी मदद करे, सभी की मदद करे.....न....न....इनको तो बस सरकारी नौकरी चाहिए, उम्र भर की बादशाहत .......मेरा मानना यह है कि जो ऑफर की जाने वाली मदद से इनकार करे और ज़िद करे कि नहीं, आरक्षण ही चाहिए, उसे वो मदद भी नहो मिलनी चाहिए.......मुल्क आजादी से ले कर अब तक एक बकवास में उलझा है..सही समस्या का गलत समाधान......इतिहास की गलती की भरपाई वर्तमान से .... इस मामले में आंबेडकर भारत का भारी नुक्सान कर गए हैं.....आरक्षण कभी भी जात पात को खत्म नहीं होने देगा...बढ़ावा देगा......बहुत पहले किसी ने कहा था जाति जाती ही नहीं...कैसे जायेगी? जब आप जात पर बाँट कर रखेंगे समाज को...कैसे जायेगी.....नेता को लालच है आरक्षण के वोट का...लेकिन आप यदि आरक्षण के विरोध में है तो साफ़ कहिये अपने नेता को कि जब तक आरक्षण खत्म नहीं करेंगे वोट नहीं मिलेगा
और वो संघ के भागवत जी ..शायद कहा उन्होंने कि आरक्षण ठीक है.....अब अपनी समझ से बाहर है यह सब..आरक्षण जितना जल्दी खत्म हो उतना अच्छा....सिर्फ वोट की राजनीति है यह स्टेटमेंट
समाज में जब भी, जहाँ भी असंतुलन होगा, तनाव बढ़ेगा........एक समय था एक हिस्से को शूद्र कह कर उसका जीवन शूद्र कर दिया गया, नरक कर दिया गया. फिर आरक्षण ला कर समाज में असंतुलन पैदा किया गया, एक हिस्सा जो ज़्यादा कुशल था जब उसे नौकरी छीन कर कम कुशल व्यक्ति को दी जाने लगी तो फिर से तनाव पैदा हो गया. आज दोनों वर्गों की पीड़ा सच्ची है, आप बात छेड़ लो आरक्षण की, दोनों तरफ से तलवारे खिच जायेंगी..और दोनों अपनी जगह सही हैं...जिसे शूद्र कह कर दलन किया गया वो भी अपनी पीड़ा के प्रति सच्चा है...जिससे काबिल होते हुए रोज़गार छीना गया, वो भी सच्चा है
हम पंजाब से हैं, बठिंडा..........मैं छोटा था......हमारे घर में पाखाना छत पर था.....खुला...बस चारदीवारी थी........हमारा मैला उठाने औरत आया करती थी...जो सर पर टोकरी में ले जाती थी हमारी टट्टी....उन्हें हरिजन कहते थे..उनकी बस्ती शहर से बाहर हुआ करती थी.......और हमारे घरों में उनको चूड़ा कहा जाता था......एक अजीब तरह की हिकारत , नफ़रत के साथ उनका ज़िक्र होता था....और अक्सर कहा जाता था कि नीच नीच ही रहते हैं.......नीच अपनी जात दिखा ही देते हैं......और एक बात बता दूं अब मैं दिल्ली में रहता हूँ...यहाँ भी मादीपुर जे जे कॉलोनी लगती है पास में......यहाँ भी एक ब्लाक चूड़ों का कहा जाता है...और सीवर, नाली साफ़ करने वाले यहीं से आते हैं.....मैंने नहीं देखा कि कोई शर्मा जी, त्रिपाठी जी, कोई अरोड़ा जी, कोई अग्रवाल जी सीवर साफ़ करते हों........ब्रह्मण हमारे घरों से रोटी लेने आता था और जमादार टट्टी.....यह है जिंदा सबूत जात पात के भेद भाव का
अब सवाल है कि आज आरक्षण दिया जाये या नहीं.........मेरा मानना है कि हिन्दू समाज ने अपने एक अंग को मात्र सेवा लेने के लिए अनपढ़ रखा....उसका उपयोग, दुरूपयोग किया.......लेकिन क्या समाज ने ऐसा सिर्फ शुद्र के साथ किया......नहीं, स्त्री के साथ भी ऐसा ही किया........समाज ने हरेक कमज़ोर के साथ ऐसा ही किया...उसे दबाया...उसका प्रयोग किया.....तो कहना यह है कि जो गरीब है वो भी समाज का ही बनाया है.....पूंजीवाद का बनाया है.....पीढी पीढी दर पूंजी के transfer सिस्टम का बनाया है........
आज नौकरी में आरक्षण का कोई मतलब नहीं है.....सरकारी नौकरी वैसे ही खत्म होती जा रही है...आप कहाँ तक दोगे किसी को नौकरी .......पूंजी के आरक्षण को खत्म करने का......आप जितना मर्ज़ी कमाओ, जितना मर्ज़ी जमा करो...आपकी अगली पीढी को एक निश्चित सीमा से ज़्यादा ट्रान्सफर नहीं होगा....बाक़ी पैसा आपको सामाजिक कामों में लगाना होगा....या फिर अपने आप पब्लिक डोमेन में चला जायेगा
हम पूरे समाज में ही गरीबी अमीरी का फासला क्यों न कम करें........मैं किसी भी तरह के आरक्षण के खिलाफ हूँ........हाँ, कमज़ोर वर्ग को हर तरह की सुविधा के पक्ष में हूँ......शिक्षा , स्वास्थ्य हर तरह से...वो भी हर गरीब को...
अरे, भाई, एक कहावत है, गरीब की जोरू. हरेक की भाभी........गरीब तो वैसे ही शुद्र होता है...चाहे वो..किसी भी जात का हो
और गरीब वो है समाज की वजह से...वरना एक डॉक्टर क्यों करोड़ो कमाए और एक मोची क्यों बस कुछ सौ...किस ने बनाया यह सब सिस्टम....समाज ने......क्या समाज को नाली, सीवर साफ़ करने वाले की ज़रुरत नहीं...ज़रा, चंद दिन ये लोग, जिनको नाली साफ़ कराने के काम में लगाया जाता है...चंद दिन यदि काम बंद कर दें...सबकी अक्ल ठिकाने आ जायेगी......फिर लाखों देकर भी सीवर साफ़ कराया जाएगा
मेरा ख्याल है कि जो हो गया ..हो गया......अब कोई फ़ायदा नहीं कि हम झगड़ते रहें.....और यह इस तरह का आरक्षण भी बंद होना चाहिए...नौकरी......सरकारी नौकरी तो वैसे भी सब CCTV तले होनी चाहिए....सरकारी नौकर को जमाता जैसा नहीं, एक नौकर जैसा ही ट्रीटमेंट मिलना चाहिए...हाँ नौकर को बेहतर ट्रीटमेंट मिलना चाहिए, वो एक दीगर बात है
और मेरा सुझाव है कि डर्टी जॉब्स, पूरे समाज को रोटरी सिस्टम से करनी चाहिए....क्यों कोई ज़िम्मा ले किसी का........हम ऐसा समाज क्यों नहीं बना सकते कि आपके धन से खरीद शक्ति को सीमित कर दिया जाए...आप जितने मर्ज़ी अमीर होते रहें..लेकिन.....आप अपने लिए एक सफाई वाला नहीं खरीद सकते....आपको अपने हिस्से की डर्टी जॉब खुद करनी ही होगी..इस तरह से कुछ
बच्चे पैदा करने की राशनिंग होनी चाहिए, प्लानिंग होनी चाहिए.........सामूहिक लेवल पर.....एक निश्चित भोगोलिक क्षेत्र कितने बच्चे आसानी से अफ्फोर्ड कर सकता है, बस उतने ही बच्चे पैदा होने चाहिए.........और एक जोड़े को हो सके तो एक से ज़्यादा बच्चे का अधिकार न दिया जाए....और हो सके तो बच्चे सामूहिक हों न कि व्यक्तिगत.......
समाज का एक बड़ा हिस्सा बहुत गरीब है...पूंजी मात्र थोड़े से , चंद लोगों के पास है...........जीवन का स्वर्ग बस चंद लोगों के हिस्से है और नर्क लगभग पूरी मानवता के हिस्से......इलाज आरक्षण नहीं है....कुछ और सोचना होगा...और पूरे सामाजिक ताने बाने को फिर से देखना होगा.......पुराने दर्दों के नए इलाज खोजने होंगे...प्रयोग करने होंगे....तभी कोई रस्ता निकलेगा....
ज़रूरी है कि बच्चे पैदा करना भी सीमित हो......गरीब आमिर का सवाल नहीं...बच्चा पैदा करने का फैसला व्यक्तिगत कैसे हो सकता है जब आप सारी ज़िम्मेदारी सरकार पर थोपते हैं....जब आप शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा हर चीज़ सरकार से मांगते हैं तो फिर बच्चे पैदा करने का हक़ भी सार्वजानिक हितों को ध्यान में रख कर क्यों न हो.....वो हक़ कैसे व्यक्तिगत हो सकता है....वरना बच्चे पैदा कोई करता रहे और फिर सरकार से, समाज से हर तरह की सुविधा की आपेक्षा करता रहे...यह कहाँ का न्याय है?
यह सब तुरत बंद होना चाहिए, हाँ बड़े पूंजीपति की व्यक्तिगत पूंजी का पीढी दर पीढी ट्रान्सफर खत्म होना चाहिए......
समाजवाद और पूंजीवाद का सम्मिश्रण होना चाहिए
न्याय यह नहीं कि सरकारी नौकरी दी जाए..न्याय यह है कि अच्छा प्रशासन दिया जाए......और आरक्षित नौकरियां.......दामादों जैसी नौकरियां.........पक्की नौकरियां.... क्या अच्छा प्रशासन देंगी......नौकरी तो वैसे ही पक्की नहीं होनी चाहिए..
सरकारी नौकरी को दुधारू गाय भैंस की तरह प्रयोग किया गया है......मोटी तनख्वाह, छुटियाँ ही छुटियाँ......हरामखोरी......और किसी का डर नहीं.....
इस तरह की नौकरी से सिर्फ नौकर का ही भला हो सकता है और किसी का नहीं...समाज का नहीं.......जिसे यह नौकर सेवा दे रहे हैं पब्लिक..उसका नहीं.....यह एक दुश्चक्र है
इससे बाहर आना ज़रूरी है........ सरकारी संस्थान पिटने लगे....प्राइवेट क्षेत्र के आगे.....सरकारी पद अपने आप घटने लगे हैं...ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि शुरू से ही एप्रोच गलत थी...
नौकरी को नौकरी न मान कर नौकर के जीवन का आरक्षण मान लिया गया
अगर किसी के साथ भी समाज में अन्याय होता है तो इसका मतलब यह कदापि नहीं कि सरकारी नौकरियां बांटी जाएँ.....वो पूरे समाज के ताने बाने को अव्यवस्थित करना है.....अन्याय की भरपाई सम्मान से की जा सकती है....आपसी सौहार्द से की जा सकती है......मुफ्त शिक्षा से की जा सकती है.....मुफ्त स्वस्थ्य सहायता से की जा सकती है......आर्थिक सहायता से की जा सकती है....लेकिन आरक्षण किसी भी हालात में नहीं दिया जाना चाहिए.....
आज ही पढ़ रहा था कि कोई हरियाणा की महिला शूटर को सरकार ने नौकरी देने का वायदा पूरा नहीं किया तो वो शिकायत कर रही थीं...अब यह क्या मजाक है....कोई अगर अच्छी शूटर है तो वो कैसे किसी सरकारी नौकरी की हकदार हो गयी....उसे और बहुत तरह से प्रोत्साहन देना चाहिए..लेकिन सरकारी नौकरी देना...क्या बकवास है.....एक शूटिंग मैडल जीतना कैसे उनको उस नौकरी के लिए सर्वश्रेष्ठ कैंडिडेट बनाता है..? एक नौकरी के अलग तरह की शैक्षणिक योग्यता चाहिए होती है.....अलग तरह की कार्यकुशलता चाहिए होती है......और एक अच्छा खिलाड़ी होना...यह अलग तरह की योग्यता है...क्या मेल है दोनों में?
लेकिन कौन समझाये, यहाँ तो सरकारी नौकरी को बस रेवड़ी बांटने जैसा काम मान लिया गया है, बस जिसे मर्ज़ी दे दो......
कोई दंगा पीड़ित है , सरकारी नौकरी दे दो
कोई किसी खेल में मैडल जीत गया, नौकरी दे दो
कोई शुद्र कहा गया सरकारी नौकरी दे दो
जैसे दंगा पीड़ित होना, दलित होना, खेल में मैडल जीतना किसी सरकारी नौकरी विशेष के लिए उचित eligibility हो
भारत में न सिर्फ गलत ढंग से सरकारी नौकरी बांटने की परम्परा है यहाँ तो सांसद तक गलत ढंग से बनाये जाते हैं...सचिन तेंदुलकर, लता मंगेशकर, रेखा...अब इनका राजनीति में क्या दखल.....होंगे अच्छे कलाकार, होंगे अच्छे खिलाड़ी..लेकिन सांसद होने के लिए अलग तरह की क्षमता होनी दरकार है.....और यहीं थोड़ा ही बस है यहाँ तो मंत्री पद और प्रधानमंत्री पद तक गलत तरीके से बाँट दिए गए हैं.... मात्र सरकारी नौकरी का ही आरक्षण है क्या.....बहुत तरह के आरक्षण हैं......बहुत भयंकर
कितना ही अन्याय हुआ हो.....लेकिन उस मतलब यह नहीं है कि मुफ्त में सरकारी नौकरियां बांटी जाएँ ....
सरकारी नौकरी वैसे ही कम होती जा रही हैं और ये सरकारी नौकर बहुत गैर ज़िम्मेदार रहे हैं...यह सब तो वैसे भी नहीं चलाना चाहिए.......समाज के जिस भी हिस्से से कोई अन्याय हुआ है उसे हर सम्भव मदद करनी चाहिए.....लेकिन वो मदद अंधी मदद न हो, यह भी देखना ज़रूरी है.....
उद्धरण अन्याय के और भी बहुत मिल
जायेंगे......पाकिस्तान बना.....बहुत लोग सब कुछ गवा दिए...
अक्सर दंगे होते हैं, लोगों का सब कुछ लुट, पिट जाता है.....बहुत मदद दी भी जाती है..लेकिन मदद का मतलब यह नहीं की सरकारी नौकरी दी जाए...व्यक्ति काम कर सकता है या नहीं, यह देखा ही न जाए.....और एक ज्यादा सक्षम व्यक्ति को काम न देकर कम सक्षम आदमी को काम दिया जाए.....यह अन्याय उन लोगों के प्रति भी है जो वो सर्विस लेंगे.....पूरे समाज के प्रति अन्याय है....
शुद्र जिनको किया गया...और उसके लिए आंबेडकर ने जो आरक्षण का हल दिया....वो तो शुरू से ही गलत था....है......सरकारी नौकर से रोज़ पाला पड़ता है, क्या हाल करते हैं वो आम पब्लिक का.....पब्लिक को गुलाम समझते हैं.....हरामखोरी, रिश्वतखोरी ही की ज्यदातर ऐसे लोगों ने.....बिलकुल खत्म होना चाहिए यह सब..
समाज में बराबरी का मतलब यह है कि सरकारी तंत्र को निकम्मा कर दो? क्या बकवास है....?
समाज के एक हिस्से से अन्याय हुआ तो सारे समाज के ताने बाने को ख़राब कर दो....यह कोई ढंग नहीं था...न है...गलत ढंग था....नतीज़ा सामने है....सरकारी तंत्र बर्बाद है.....सरकारी संस्थान घाटे में हैं..पब्लिक सरकारी आदमी से त्रस्त है, चाहे कोई भी महकमा हो.शुद्र कह के समाज के एक बड़े हिस्से के प्रति अन्याय किया गया, सत्य है, तथ्य है......लेकिन हल सरकारी नौकरी का आरक्षण नहीं है ...
समाज में जब भी, जहाँ भी असंतुलन होगा, तनाव बढ़ेगा........एक समय था एक हिस्से को शूद्र कह कर उसका जीवन शूद्र कर दिया गया, नरक कर दिया गया.
फिर आरक्षण ला कर समाज में असंतुलन पैदा किया गया, एक हिस्सा जो ज़्यादा कुशल था जब उसे नौकरी छीन कर कम कुशल व्यक्ति को दी जाने लगी तो फिर से तनाव पैदा हो गया.
आज दोनों वर्गों की पीड़ा सच्ची है, आप बात छेड़ लो आरक्षण की, दोनों तरफ से तलवारे खिच जायेंगी.और दोनों अपनी जगह सही हैं.जिसे शूद्र कह कर दलन किया गया वो भी अपनी पीड़ा के प्रति सच्चा है.जिससे काबिल होते हुए रोज़गार छीना गया, वो भी सच्चा है.
इलाज आरक्षण नहीं है लेकिन जो पिछड़ गया उसके लिए आर्थिक, शैक्षणिक, न्यायिक, समाजिक मदद दी जानी चाहिए न कि आरक्षण......हर तरह का आरक्षण खत्म होना चाहिए....आरक्षण दुनिया की निकृष्टतम सोच है
इलाज आरक्षण नहीं है लेकिन व्यक्तिगत पूँजी का पीढी दर पीढ़ी आरक्षण का खात्मा है
इलाज आरक्षण नहीं है लेकिन समाज के ताने-बाने का पुनर्गठन है, सन्तान उत्पति को व्यक्तिगत न होकर समाजगत करना है
COPY RIGHT MATTER
TUSHAR COSMIC
Monday, 5 October 2015
“नया समाज-1”
मैंने घोषणा की हैं
मैं अपना गुरु खुद हूँ, मुझे किसी का हुक्मनामा नहीं चाहिए
मैं अपना पैगम्बर खुद हूँ, मुझे किसी की हिदायत नहीं चाहिए
मैं अपना मसीहा खुद हूँ, किसी और की कमांडमेंट की क्या ज़रुरत?
मैं स्वयम ब्रह्म हूँ, मैं खुद खुदा हूँ खुद का, मुझे क्या ज़रुरत पुराण कुरान की?
मैं स्वयं की रोशनी स्वयं हूँ, मुझे शताब्दियों, सहस्त्राब्दियों पुराने व्यक्तियों की आँखों से नहीं, खुद की आँखों से जीना है
बड़े साधारण शब्द हैं मेरे ..लेकिन काश कि आप भी यह सब कह पाते!
दुनिया चंद पलों में बदल जायेगी.
इन्सान जिस जन्नत का हकदार है, वो दिनों में नसीब होगी
मुल्ले, पण्डे, पुजारी, पादरी विदा हो जायेंगे
मंदर, मसीत, गुरुद्वारे, गिरजे बस देखने भर की चीज़ रह जायेंगे
हिन्दू मुस्लिम, इसाई आदि का ठप्पा लोग उतार फेंकेंगे
सदियों की गुलामी से आज़ादी
लोग आज के हिसाब से जीयेंगे.....
किसी किताब से नहीं बंधेंगे
किताब हो, इतिहास हो, बस उसका प्रयोग करेंगे....जो सीखना है सीखेंगे उनसे लेकिन इतिहास की गुलामी कभी स्वीकार नहीं करेंगे
बहस इस बात की नहीं होगी कि मेरी किताब में यह लिखा है तो यह सही है या गलत है...बहस इस बात की होगी कि तथ्य, प्रयोग यह कहते हैं तो यह सही है और यह गलत है
नेता इस बात पर वोट नहीं मांगेंगे कि वो मंदिर बनायेंगे या मसीत बचायेंगे, बल्कि वोट इस बात पर मांगेंगे कि वो नाली बनायेंगे, सड़क बनायेंगे
बच्चों को अक्ल प्रयोग करना सिखाया जाएगा न कि किसी किताब पर अंधविश्वास करना
जो मानव के लिए उपयोगी है वो अपना लिया जाएगा जो कचरा है वो दफा कर दिया जाएगा
यदि बिजली उपयोगी है तो इससे क्या मतलब कि वो दुनिया के किस कोने से आई?
यदि योग काम का है तो क्या फर्क की वो कहाँ से आया?
आबादी नियंत्रित कर ली जाएगी, सम्पति का असीमित जमाव प्रतिबंधित कर दिया जाएगा.
क्या आज कोई व्यक्ति यदि कहे कि मैं ज़्यादा बुद्धिशाली हूँ, शक्तिशाली हूँ, उद्यमशील हूँ तो मुझे हक़ होना चाहिए ज़्यादा हवा इक्कट्ठा करना का, साफ़ पानी का.....चाहे कोई और लोग प्यासे मरते हों तो मरें....सांस की बीमारी से मरते हैं तो मरें.....नहीं, आप हाँ नहीं कहेंगे लेकिन एक आदमी पृथ्वी पर कई मकान कब्जा ले और अनेक लोग सड़कों पर सोएं, वो आपको स्वीकार हैं...यदि है तो आपकी व्यवस्था लानती है और जो कि है ..लेकिन मेरी बात पर यदि विचार कर लिया जाए तो बहुत सम्भव है कि वैसा आगे न रहे
आबादी पर नियन्त्रण हो, सम्पति का एक सीमा के बाद अगली पीढी को हस्तांरण प्रतिबाधित हों, जीवन वैसे ही खुशहाल हो जायेगा ..पैसे की आपाधापी लगभग खत्म हो जायेगी
अगली बड़ी चुनौती इन्सान के लिए सेक्स है ....सेक्स कुदरत की सबसे बड़ी नियामत है इन्सान को..लेकिन सबसे बड़ी चुनौती बना हुआ है...इंसान अपने सेक्स से छुप रहा है...छुपा रहा है...सेक्स गाली बन चुका है......देखते हैं सब गालियाँ सेक्स से जुड़ी हैं ..हमने संस्कृति की जगह विकृति पैदा की है..
कोई समाज शांत नहीं जी सकता जब तक सेक्स का समाधान न कर ले.....सो बहुत ज़रूरी है कि स्त्री पुरुष की दूरी हटा दी जाए.....समाज की आँख इन सम्बन्धों की चिंता न ले.......सबको सेक्स और स्वास्थ्य की शिक्षा दी जाए....सार्वजानिक जगह उपलब्ध कराई जाएँ.
देवालय से ज़्यादा ज़रुरत है समाज को सम्भोगालय की......पत्थर के लिंग और योनि पूजन से बेहतर है असली लिंग और योनि का पूजन........सम्भोगालय....पवित्र स्थल...जहाँ डॉक्टर मौजूद हों.....सब तरह की सम्भोग सामग्री...कंडोम सहित..
और भविष्य खोज ही लेगा कि स्त्री पुरुष रोग रहित हैं कि नहीं ...सम्भोग के काबिल हैं हैं कि नहीं ...और यदि हों काबिल तो सारी व्यवस्था उनको सहयोग करेगी .....मजाल है कोई पागल हो जाए.
आज जब कोई पागल होता है तो ज़िम्मेदार आपकी व्यवस्था होती है, जब कोई बलात्कार करता है तो ज़िम्मेदार आपका समाजिक ढांचा होता है...लेकिन आप अपने गिरेबान में झाँकने की बजाये दूसरों को सज़ा देकर खुद को भरमा लेते हैं
समझ लीजिये जिस समाज में सबको सहज रोटी न मिले, साफ़ हवा न मिले, पीने लायक पानी न मिले, सर पे छत न मिले, आसान सेक्स न मिले, बुद्धि को प्रयोग करने की ट्रेनिंग की जगह धर्मों की गुलामी मिले वो समाज पागल होगा ही
और आपका समाज पागल है
आपकी संस्कृति विकृति है
आपकी सभ्यता असभ्य है
आपके धर्म अधर्म हैं
इस पागलपन, विकृति, असभ्यता, इस अधर्म से निकलने के आसान ढंग बताएं हैं मैंने. यदि मेरी बात का सामंजस्य अपने पुराण, कुरान से बिठाने की कोशिश करेंगे तो मेरी बात पल्ले नहीं पड़ेगी....दायें, बायें, ऊपर नीचे से निकल जायेगी, छूएगी तक नहीं आपको. हाँ, थोड़ा ग्रन्थों की ग्रन्थियों से आज़ाद हो पाएं तो निश्चित ही परवाज़ हो जाए
खैर, सोचियेगा ज़रूर, सादर नमन, कॉपी राईट हमेशा की तरह
Tushar Cosmic
मैं अपना गुरु खुद हूँ, मुझे किसी का हुक्मनामा नहीं चाहिए
मैं अपना पैगम्बर खुद हूँ, मुझे किसी की हिदायत नहीं चाहिए
मैं अपना मसीहा खुद हूँ, किसी और की कमांडमेंट की क्या ज़रुरत?
मैं स्वयम ब्रह्म हूँ, मैं खुद खुदा हूँ खुद का, मुझे क्या ज़रुरत पुराण कुरान की?
मैं स्वयं की रोशनी स्वयं हूँ, मुझे शताब्दियों, सहस्त्राब्दियों पुराने व्यक्तियों की आँखों से नहीं, खुद की आँखों से जीना है
बड़े साधारण शब्द हैं मेरे ..लेकिन काश कि आप भी यह सब कह पाते!
दुनिया चंद पलों में बदल जायेगी.
इन्सान जिस जन्नत का हकदार है, वो दिनों में नसीब होगी
मुल्ले, पण्डे, पुजारी, पादरी विदा हो जायेंगे
मंदर, मसीत, गुरुद्वारे, गिरजे बस देखने भर की चीज़ रह जायेंगे
हिन्दू मुस्लिम, इसाई आदि का ठप्पा लोग उतार फेंकेंगे
सदियों की गुलामी से आज़ादी
लोग आज के हिसाब से जीयेंगे.....
किसी किताब से नहीं बंधेंगे
किताब हो, इतिहास हो, बस उसका प्रयोग करेंगे....जो सीखना है सीखेंगे उनसे लेकिन इतिहास की गुलामी कभी स्वीकार नहीं करेंगे
बहस इस बात की नहीं होगी कि मेरी किताब में यह लिखा है तो यह सही है या गलत है...बहस इस बात की होगी कि तथ्य, प्रयोग यह कहते हैं तो यह सही है और यह गलत है
नेता इस बात पर वोट नहीं मांगेंगे कि वो मंदिर बनायेंगे या मसीत बचायेंगे, बल्कि वोट इस बात पर मांगेंगे कि वो नाली बनायेंगे, सड़क बनायेंगे
बच्चों को अक्ल प्रयोग करना सिखाया जाएगा न कि किसी किताब पर अंधविश्वास करना
जो मानव के लिए उपयोगी है वो अपना लिया जाएगा जो कचरा है वो दफा कर दिया जाएगा
यदि बिजली उपयोगी है तो इससे क्या मतलब कि वो दुनिया के किस कोने से आई?
यदि योग काम का है तो क्या फर्क की वो कहाँ से आया?
आबादी नियंत्रित कर ली जाएगी, सम्पति का असीमित जमाव प्रतिबंधित कर दिया जाएगा.
क्या आज कोई व्यक्ति यदि कहे कि मैं ज़्यादा बुद्धिशाली हूँ, शक्तिशाली हूँ, उद्यमशील हूँ तो मुझे हक़ होना चाहिए ज़्यादा हवा इक्कट्ठा करना का, साफ़ पानी का.....चाहे कोई और लोग प्यासे मरते हों तो मरें....सांस की बीमारी से मरते हैं तो मरें.....नहीं, आप हाँ नहीं कहेंगे लेकिन एक आदमी पृथ्वी पर कई मकान कब्जा ले और अनेक लोग सड़कों पर सोएं, वो आपको स्वीकार हैं...यदि है तो आपकी व्यवस्था लानती है और जो कि है ..लेकिन मेरी बात पर यदि विचार कर लिया जाए तो बहुत सम्भव है कि वैसा आगे न रहे
आबादी पर नियन्त्रण हो, सम्पति का एक सीमा के बाद अगली पीढी को हस्तांरण प्रतिबाधित हों, जीवन वैसे ही खुशहाल हो जायेगा ..पैसे की आपाधापी लगभग खत्म हो जायेगी
अगली बड़ी चुनौती इन्सान के लिए सेक्स है ....सेक्स कुदरत की सबसे बड़ी नियामत है इन्सान को..लेकिन सबसे बड़ी चुनौती बना हुआ है...इंसान अपने सेक्स से छुप रहा है...छुपा रहा है...सेक्स गाली बन चुका है......देखते हैं सब गालियाँ सेक्स से जुड़ी हैं ..हमने संस्कृति की जगह विकृति पैदा की है..
कोई समाज शांत नहीं जी सकता जब तक सेक्स का समाधान न कर ले.....सो बहुत ज़रूरी है कि स्त्री पुरुष की दूरी हटा दी जाए.....समाज की आँख इन सम्बन्धों की चिंता न ले.......सबको सेक्स और स्वास्थ्य की शिक्षा दी जाए....सार्वजानिक जगह उपलब्ध कराई जाएँ.
देवालय से ज़्यादा ज़रुरत है समाज को सम्भोगालय की......पत्थर के लिंग और योनि पूजन से बेहतर है असली लिंग और योनि का पूजन........सम्भोगालय....पवित्र स्थल...जहाँ डॉक्टर मौजूद हों.....सब तरह की सम्भोग सामग्री...कंडोम सहित..
और भविष्य खोज ही लेगा कि स्त्री पुरुष रोग रहित हैं कि नहीं ...सम्भोग के काबिल हैं हैं कि नहीं ...और यदि हों काबिल तो सारी व्यवस्था उनको सहयोग करेगी .....मजाल है कोई पागल हो जाए.
आज जब कोई पागल होता है तो ज़िम्मेदार आपकी व्यवस्था होती है, जब कोई बलात्कार करता है तो ज़िम्मेदार आपका समाजिक ढांचा होता है...लेकिन आप अपने गिरेबान में झाँकने की बजाये दूसरों को सज़ा देकर खुद को भरमा लेते हैं
समझ लीजिये जिस समाज में सबको सहज रोटी न मिले, साफ़ हवा न मिले, पीने लायक पानी न मिले, सर पे छत न मिले, आसान सेक्स न मिले, बुद्धि को प्रयोग करने की ट्रेनिंग की जगह धर्मों की गुलामी मिले वो समाज पागल होगा ही
और आपका समाज पागल है
आपकी संस्कृति विकृति है
आपकी सभ्यता असभ्य है
आपके धर्म अधर्म हैं
इस पागलपन, विकृति, असभ्यता, इस अधर्म से निकलने के आसान ढंग बताएं हैं मैंने. यदि मेरी बात का सामंजस्य अपने पुराण, कुरान से बिठाने की कोशिश करेंगे तो मेरी बात पल्ले नहीं पड़ेगी....दायें, बायें, ऊपर नीचे से निकल जायेगी, छूएगी तक नहीं आपको. हाँ, थोड़ा ग्रन्थों की ग्रन्थियों से आज़ाद हो पाएं तो निश्चित ही परवाज़ हो जाए
खैर, सोचियेगा ज़रूर, सादर नमन, कॉपी राईट हमेशा की तरह
Tushar Cosmic
नया समाज-2
मैं लिख रहा हूँ अक्सर कि एक सीमा के बाद निजी सम्पति अगली पीढी को नहीं जानी चाहिए.......बहुत मित्र तो इसे वामपंथ/ कम्युनिस्ट सोच कह कर ही खारिज कर रहे हैं.....आपको एक मिसाल देता हूँ......भारत में ज़मींदारी खत्म हुई कोई साठ साल पहले......पहले जो भी ज़मीन का मालिक था वोही रहता था...लेकिन कानून बदला गया....अब जो खेती कर रहा था उसे मालिक जैसे हक़ दिए गए.....उसे “भुमीदार” कहा जाने लगा...यह एक बड़ा बदलाव आया...."ज़मींदार से भुमिदार".
भुमिदार ज़रूरी नहीं मालिक हो... वो खेती मज़दूर भी हो सकता था....वो बस खेती करता होना चाहिए किसी भूभाग पर....उसे हटा नहीं सकते....वो लगान देगा...किराया देगा...लेकिन उसकी अगली पीढी भी यदि चाहे तो खेती करेगी वहीं.
कल अगर ज़मीन को सरकार छीन ले, अधिग्रहित कर ले तो उसका मुआवज़ा भी भुमिदार को मिलेगा
यह था बड़ा फर्क
यही फर्क मैं चाहता हूँ बाकी प्रॉपर्टी में आये......पूँजी पीढी दर पीढी ही सफर न करती रहे...चंद खानदानों की मल्कियत ही न बनी रहे ...एक सीमा के बाद पूंजी पब्लिक डोमेन में जानी चाहिए
इसे दूसरे ढंग से समझें....आप कोई इजाद करते हैं...आपको पेटेंट मिल सकता है...लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि आप या आपकी आने वाली पीढ़ियों को हमेशा हमेशा के लिए उस पेटेंट पर एकाधिकार रहेगा..नहीं, एक समय सीमा के बाद वो खत्म हो जायेगा...फिर उस इजाद पर पब्लिक का हक़ होगा.....आप देखते हैं पुरानी क्लासिक रचनाएँ इन्टरनेट पर मुफ्त उपलब्ध हैं.
धन भी एक तरह की इजाद है, एक सीमा तक आप रखें, उसके बाद पब्लिक डोमेन में जाना चाहिए
एक और ढंग से समझें.....पैसे की क्रय शक्ति की सीमा तय की जा सकती है..और की जानी चाहिए यदि समाज में वो असंतुलन पैदा करता हो........आप कुछ दशक पीछे देखें राजा लोगों की एक से ज़्यादा बीवियां होती थीं....लेकिन आज बड़े से बड़ा राजनेता एक से ज़्यादा बीवी नहीं रख सकता ....रखैल रखे, चोरी छुपे रखे वो अलग बात है...खुले आम नहीं रख सकता....क्यूँ? चूँकि यदि आप पैसे वालों को एक से ज़्यादा स्त्री रखने का हक़ खुले आम दे देंगे तो समाज में असंतुलन पैदा होगा.....हडकम्प मच जायेगा...सो पैसे की सीमा तय की गयी
एक और ढंग से समझें, आप घी तेल, चीनी जमा नहीं कर सकते...काला बाज़ारी माना जाएगा..लेकिन आप मकान जमा कर सकते हैं.....वो काला बाज़ारी क्यूँ नहीं है.....वो सम्मानित क्यूँ है? निवेश क्यूँ है? वो काला बाज़ारी क्यूँ नहीं है? बिलकुल है. जब आप घी, तेल, चीनी आदि जमा करते हैं तो समाज में हाय तौबा मच जाते है..आप बाकी लोगों को उनकी बेसिक ज़रूरत से मरहूम करते हैं.....आप जब मकान जमा करते हैं तब क्या होता है? आप को खुद तो ज़रुरत है नहीं. आप ज़रूरतमंद को लेने नहीं देते. आप बाज़ार पर कब्जा कर लेते हैं. आप निवेश के नाम पर हर बिकाऊ सौदा खरीद लेते हैं और उसे असल ज़रूरतमंद को अपनी मर्ज़ी के हिसाब से बेचते हैं. यह काला बाज़ारी नहीं तो और क्या है?
एक निश्चित सीमा तक किसी भी व्यक्ति का कमाया धन उसके पास रहना चाहिए, उसकी अगली पीढ़ियों तक जाना चाहिए....इतना कि वो सब सम्मान से जी सकें.....बाकी पब्लिक डोमेन में ...
आपको यह ना-इंसाफी लग सकती है ..लेकिन नहीं है... यह इन्साफ है....मिसाल लीजिये, आपके पास आज अरबों रुपैये हों..आप घर सोने का बना लें लेकिन बाहर सड़क खराब हो सकती है, हाईवे सिंगल लाइन हैं, दुतरफा ट्रैफिक वाले.....आपको इन पर सफर करना पड़ सकता है , एक्सीडेंट में मारे जा सकते हैं आप....साहिब सिंह वर्मा, जसपाल भट्टी और कितने ही जाने माने लोग सड़क एक्सीडेंट में मारे गए हैं ....
दूसरी मिसाल लीजिये, समाज में यदि बहुत असंतुलन होगा, तो हो सकता है कि आपके बच्चे का कोई अपहरण कर ले, क़त्ल कर दे....अक्सर सुनते हैं कि बड़े अमीर लोगों के बच्चे अपहरण कर लिए जाते हैं और फिर फिरौती के चक्कर में मार भी दिए जाते हैं ....
सो समाज में यदि पैसा बहेगा, सही ढंग से पैसा प्रयोग होगा तो व्यवस्था बेहतर होगी, संतुलन होगा, सभी सम्मानपूर्वक जी पायेंगे यदि तो उसका फायदा सबको होगा..अब मैं आज की व्यवस्था की बात नहीं कर रहा हूँ जिसमें व्यवस्थापक सबसे बड़ा चोर है......यह तब होना चाहिए जब व्यवस्था शीशे की तरह ट्रांसपेरेंट हो...और ऐसा जल्द ही हो सकता है...व्यवस्थापक को CCTV तले रखें, इतना भर काफी है
और निजी पूँजी सीधे भी पब्लिक खाते में डाली जा सकती है, सीधे कोई भी व्यक्ति लाइब्रेरी, सस्ते अस्पताल, मुफ्त स्कूल बनवा सकता है और कुछ भी जिससे सब जन को फायदा मिलता हो
मेरे हिसाब से यह पूंजीवाद और समाजवाद का मिश्रण है, ऐसा हम अभी भी करते हैं...तमाम तरह के अनाप शनाप टैक्स लगा कर जनता से पैसा छीनते हैं और जनता के फायदे में लगाने का ड्रामा करते हैं, कर ही रहे हैं. लेकिन यदि यह व्यवस्था सही होती तो आज अधिकांश लोग फटे-हाल नहीं, खुश-हाल होते.
सो ज़रुरत है, बदलाव की. व्यवस्था शीशे जैसे ट्रांसपेरेंट हो....टैक्स बहुत कम लिया जाए..आटे में नमक जैसा. अभी तो सुनता हूँ कि यदि सब टैक्स जोड़ लिया जाए तो सौ में सत्तर पैसा टैक्स में चला जाता है...यह चोर बाज़ारी नहीं तो और क्या है? कोई टैक्स न दे तो उसका पैसा दो नम्बर का हो गया, काला हो गया. इडियट. कभी ध्यान दिया सरकार चलाने को, निजाम चलाने को, ताम-झाम चलाने को जो पैसा खर्च किया जाता है, यदि ढंग से उसका लेखा-जोखा किया जाए तो मेरे हिसाब से आधा पैसा खराब होता होगा..आधे में ही काम चल जाएगा....फ़िज़ूल की विदेश यात्रा, फ़िज़ूल के राष्ट्रीय उत्सव, शपथ ग्रहण समारोह, और सरकारी नौकरों को अंधी तनख्वाह.....किसके सर से मुंडते हैं?...सब जनता से न. जनता से हिसाब लेते है कि क्या कमाया, क्या खाया, क्या हगा, क्या मूता, कभी जनता को हिसाब दिया, कभी बताया कि कहाँ कहाँ पैसा खराब किया, कहाँ कहाँ बचाया जा सकता था, कभी जनता की राय ली कि क्या क्या काम बंद करें/ चालू करें तो जनता पर टैक्स का बोझ कम पड़े.
व्यवस्था बेहतर होगी तो आपको वैसे भी बहुत कम पुलिस, वकील, जज, अकाउंटेंट, डॉक्टर, आदि की ज़रुरत पड़ने वाली है ..सरकारी खर्चे और घट जायेंगे.
व्यवस्था शीशे की तरह हो, व्यवस्थापक अपने खर्चे का जनता को हिसाब दें, जनता से अपने खर्च कम ज़्यादा करने की राय लें...जहाँ खर्च घटाए जा सकते हैं, वहां घटाएं...टैक्स कम से कम हों.......निजी पूंजी को एक सीमा के बाद पब्लिक के खाते में लायें.....यह होगा ढंग गरीब और अमीर के बीच फासले को कम करने का....समाज को आर्थिक चक्रव्यूह से निकालने का
अब इसमें यह भी जोड़ लीजिये कि जब निजी पूँजी पर अंकुश लगाया जाना है तो निजी बच्चे पर भी अंकुश लगाना ज़रूरी है....सब बच्चे समाज के हैं.....निजी होने के बाद भी...यदि अँधा-धुंध बच्चे पैदा करेंगे तो समाज पर बोझ पड़ेगा....सिर्फ खाने, पीने, रहने, बसने, चलने फिरने का ही नहीं, उनकी जहालत का भी. एक जाहिल इंसान पूरे समाज के लिए खतरा है, उसे बड़ी आसानी से गुमराह किया जा सकता है. भला कौन समझदार व्यक्ति अपने तन पर बम बाँध कर खुद भी मरेगा और दूसरे आम जन को भी मारेगा? जाहिल है, इसलिए दुष्प्रयोग किया हा सकता है. बड़ी आसानी से कहीं भी उससे जिंदाबाद मुर्दाबाद करवाया जा सकता है. असल में समाज की बदहाली का ज़िम्मेदार ही यह जाहिल तबका है. उसके पास वोट की ताकत और थमा दी गयी है. सो यह दुश्चक्र चलता रहता है. एक बच्चे को शिक्षित करने में सालों लगते हैं, पैसा लगता है, मेहनत लगती है......आज बच्चा पैदा करने का हक़ निजी है लेकिन अस्पताल सरकारी चाहिए, स्कूल सरकारी चाहिए..नहीं, यह ऐसे नहीं चलना चाहिए, यदि आपको सरकार से हर मदद चाहिए, सार्वजानिक मदद चाहिए तो आपको बच्चा भी सार्वजानिक हितों को ध्यान में रख कर ही पैदा करने की इजाज़त मिलेगी. आप स्वस्थ हैं, नहीं है, शिक्षित हैं नहीं है, कमाते हैं या नहीं..और भी बहुत कुछ. बच्चा पैदा करने का हक़ कमाना होगा. वो हक़ जन्मजात नहीं दिया जा सकता.
उसके लिए यह भी देखना होगा कि एक भू भाग आसानी से कितनी जनसंख्या झेल सकता है, उसके लिए सब तरह के वैज्ञानिकों से राय ली जा सकती है, आंकड़े देखे जा सकते हैं, उसके बाद तय किया जा सकता है. जैसे मानो आज आप तय करते हैं कि अमरनाथ यात्रा पर एक समय में एक निश्चित संख्या में ही लोग भेजे जाने चाहिए..ठीक वैसे ही
बस फिर क्या है, समाज आपका खुश-हाल होगा, जन्नत के आपको ख्वाब देखने की ज़रुरत नहीं होगी, ज़िंदगी पैसे कमाने मात्र के लिए नहीं होगी, आप सूर्य की गर्मी और चाँद की नरमी को महसूस कर पायेंगे, फूलों के खिलने को और दोस्तों के गले मिलने का अहसास अपने अंदर तक समा पायेंगे
अभी आप हम, जीते थोड़ा न हैं, बस जीने का भ्रम पाले हैं
जीवन कमाने के लिए है जैसे, जब कोई मुझ से यह पूछता है कि मैं क्या करता हूँ और जवाब में यदि मैं कहूं कि लेखक हूँ, वक्ता हूँ, वो समझेगा बेरोजगार हूँ, ठाली हूँ...कहूं कि विवादित सम्पत्तियों का कारोबारी हूँ तो समझेगा कि ज़रूर कोई बड़ा तीर मारता होवूँगा
खैर, कल कुछ सुझाव दिए थे सामाजिक परिवर्तन के वो भी आप इस लेख के साथ पढ़ सकते हैं
कुछ मैंने कहा, बाकी आप कहें, स्वागत है
नमन.....कॉपी राईट लेखन.......तुषार कॉस्मिक.
भुमिदार ज़रूरी नहीं मालिक हो... वो खेती मज़दूर भी हो सकता था....वो बस खेती करता होना चाहिए किसी भूभाग पर....उसे हटा नहीं सकते....वो लगान देगा...किराया देगा...लेकिन उसकी अगली पीढी भी यदि चाहे तो खेती करेगी वहीं.
कल अगर ज़मीन को सरकार छीन ले, अधिग्रहित कर ले तो उसका मुआवज़ा भी भुमिदार को मिलेगा
यह था बड़ा फर्क
यही फर्क मैं चाहता हूँ बाकी प्रॉपर्टी में आये......पूँजी पीढी दर पीढी ही सफर न करती रहे...चंद खानदानों की मल्कियत ही न बनी रहे ...एक सीमा के बाद पूंजी पब्लिक डोमेन में जानी चाहिए
इसे दूसरे ढंग से समझें....आप कोई इजाद करते हैं...आपको पेटेंट मिल सकता है...लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि आप या आपकी आने वाली पीढ़ियों को हमेशा हमेशा के लिए उस पेटेंट पर एकाधिकार रहेगा..नहीं, एक समय सीमा के बाद वो खत्म हो जायेगा...फिर उस इजाद पर पब्लिक का हक़ होगा.....आप देखते हैं पुरानी क्लासिक रचनाएँ इन्टरनेट पर मुफ्त उपलब्ध हैं.
धन भी एक तरह की इजाद है, एक सीमा तक आप रखें, उसके बाद पब्लिक डोमेन में जाना चाहिए
एक और ढंग से समझें.....पैसे की क्रय शक्ति की सीमा तय की जा सकती है..और की जानी चाहिए यदि समाज में वो असंतुलन पैदा करता हो........आप कुछ दशक पीछे देखें राजा लोगों की एक से ज़्यादा बीवियां होती थीं....लेकिन आज बड़े से बड़ा राजनेता एक से ज़्यादा बीवी नहीं रख सकता ....रखैल रखे, चोरी छुपे रखे वो अलग बात है...खुले आम नहीं रख सकता....क्यूँ? चूँकि यदि आप पैसे वालों को एक से ज़्यादा स्त्री रखने का हक़ खुले आम दे देंगे तो समाज में असंतुलन पैदा होगा.....हडकम्प मच जायेगा...सो पैसे की सीमा तय की गयी
एक और ढंग से समझें, आप घी तेल, चीनी जमा नहीं कर सकते...काला बाज़ारी माना जाएगा..लेकिन आप मकान जमा कर सकते हैं.....वो काला बाज़ारी क्यूँ नहीं है.....वो सम्मानित क्यूँ है? निवेश क्यूँ है? वो काला बाज़ारी क्यूँ नहीं है? बिलकुल है. जब आप घी, तेल, चीनी आदि जमा करते हैं तो समाज में हाय तौबा मच जाते है..आप बाकी लोगों को उनकी बेसिक ज़रूरत से मरहूम करते हैं.....आप जब मकान जमा करते हैं तब क्या होता है? आप को खुद तो ज़रुरत है नहीं. आप ज़रूरतमंद को लेने नहीं देते. आप बाज़ार पर कब्जा कर लेते हैं. आप निवेश के नाम पर हर बिकाऊ सौदा खरीद लेते हैं और उसे असल ज़रूरतमंद को अपनी मर्ज़ी के हिसाब से बेचते हैं. यह काला बाज़ारी नहीं तो और क्या है?
एक निश्चित सीमा तक किसी भी व्यक्ति का कमाया धन उसके पास रहना चाहिए, उसकी अगली पीढ़ियों तक जाना चाहिए....इतना कि वो सब सम्मान से जी सकें.....बाकी पब्लिक डोमेन में ...
आपको यह ना-इंसाफी लग सकती है ..लेकिन नहीं है... यह इन्साफ है....मिसाल लीजिये, आपके पास आज अरबों रुपैये हों..आप घर सोने का बना लें लेकिन बाहर सड़क खराब हो सकती है, हाईवे सिंगल लाइन हैं, दुतरफा ट्रैफिक वाले.....आपको इन पर सफर करना पड़ सकता है , एक्सीडेंट में मारे जा सकते हैं आप....साहिब सिंह वर्मा, जसपाल भट्टी और कितने ही जाने माने लोग सड़क एक्सीडेंट में मारे गए हैं ....
दूसरी मिसाल लीजिये, समाज में यदि बहुत असंतुलन होगा, तो हो सकता है कि आपके बच्चे का कोई अपहरण कर ले, क़त्ल कर दे....अक्सर सुनते हैं कि बड़े अमीर लोगों के बच्चे अपहरण कर लिए जाते हैं और फिर फिरौती के चक्कर में मार भी दिए जाते हैं ....
सो समाज में यदि पैसा बहेगा, सही ढंग से पैसा प्रयोग होगा तो व्यवस्था बेहतर होगी, संतुलन होगा, सभी सम्मानपूर्वक जी पायेंगे यदि तो उसका फायदा सबको होगा..अब मैं आज की व्यवस्था की बात नहीं कर रहा हूँ जिसमें व्यवस्थापक सबसे बड़ा चोर है......यह तब होना चाहिए जब व्यवस्था शीशे की तरह ट्रांसपेरेंट हो...और ऐसा जल्द ही हो सकता है...व्यवस्थापक को CCTV तले रखें, इतना भर काफी है
और निजी पूँजी सीधे भी पब्लिक खाते में डाली जा सकती है, सीधे कोई भी व्यक्ति लाइब्रेरी, सस्ते अस्पताल, मुफ्त स्कूल बनवा सकता है और कुछ भी जिससे सब जन को फायदा मिलता हो
मेरे हिसाब से यह पूंजीवाद और समाजवाद का मिश्रण है, ऐसा हम अभी भी करते हैं...तमाम तरह के अनाप शनाप टैक्स लगा कर जनता से पैसा छीनते हैं और जनता के फायदे में लगाने का ड्रामा करते हैं, कर ही रहे हैं. लेकिन यदि यह व्यवस्था सही होती तो आज अधिकांश लोग फटे-हाल नहीं, खुश-हाल होते.
सो ज़रुरत है, बदलाव की. व्यवस्था शीशे जैसे ट्रांसपेरेंट हो....टैक्स बहुत कम लिया जाए..आटे में नमक जैसा. अभी तो सुनता हूँ कि यदि सब टैक्स जोड़ लिया जाए तो सौ में सत्तर पैसा टैक्स में चला जाता है...यह चोर बाज़ारी नहीं तो और क्या है? कोई टैक्स न दे तो उसका पैसा दो नम्बर का हो गया, काला हो गया. इडियट. कभी ध्यान दिया सरकार चलाने को, निजाम चलाने को, ताम-झाम चलाने को जो पैसा खर्च किया जाता है, यदि ढंग से उसका लेखा-जोखा किया जाए तो मेरे हिसाब से आधा पैसा खराब होता होगा..आधे में ही काम चल जाएगा....फ़िज़ूल की विदेश यात्रा, फ़िज़ूल के राष्ट्रीय उत्सव, शपथ ग्रहण समारोह, और सरकारी नौकरों को अंधी तनख्वाह.....किसके सर से मुंडते हैं?...सब जनता से न. जनता से हिसाब लेते है कि क्या कमाया, क्या खाया, क्या हगा, क्या मूता, कभी जनता को हिसाब दिया, कभी बताया कि कहाँ कहाँ पैसा खराब किया, कहाँ कहाँ बचाया जा सकता था, कभी जनता की राय ली कि क्या क्या काम बंद करें/ चालू करें तो जनता पर टैक्स का बोझ कम पड़े.
व्यवस्था बेहतर होगी तो आपको वैसे भी बहुत कम पुलिस, वकील, जज, अकाउंटेंट, डॉक्टर, आदि की ज़रुरत पड़ने वाली है ..सरकारी खर्चे और घट जायेंगे.
व्यवस्था शीशे की तरह हो, व्यवस्थापक अपने खर्चे का जनता को हिसाब दें, जनता से अपने खर्च कम ज़्यादा करने की राय लें...जहाँ खर्च घटाए जा सकते हैं, वहां घटाएं...टैक्स कम से कम हों.......निजी पूंजी को एक सीमा के बाद पब्लिक के खाते में लायें.....यह होगा ढंग गरीब और अमीर के बीच फासले को कम करने का....समाज को आर्थिक चक्रव्यूह से निकालने का
अब इसमें यह भी जोड़ लीजिये कि जब निजी पूँजी पर अंकुश लगाया जाना है तो निजी बच्चे पर भी अंकुश लगाना ज़रूरी है....सब बच्चे समाज के हैं.....निजी होने के बाद भी...यदि अँधा-धुंध बच्चे पैदा करेंगे तो समाज पर बोझ पड़ेगा....सिर्फ खाने, पीने, रहने, बसने, चलने फिरने का ही नहीं, उनकी जहालत का भी. एक जाहिल इंसान पूरे समाज के लिए खतरा है, उसे बड़ी आसानी से गुमराह किया जा सकता है. भला कौन समझदार व्यक्ति अपने तन पर बम बाँध कर खुद भी मरेगा और दूसरे आम जन को भी मारेगा? जाहिल है, इसलिए दुष्प्रयोग किया हा सकता है. बड़ी आसानी से कहीं भी उससे जिंदाबाद मुर्दाबाद करवाया जा सकता है. असल में समाज की बदहाली का ज़िम्मेदार ही यह जाहिल तबका है. उसके पास वोट की ताकत और थमा दी गयी है. सो यह दुश्चक्र चलता रहता है. एक बच्चे को शिक्षित करने में सालों लगते हैं, पैसा लगता है, मेहनत लगती है......आज बच्चा पैदा करने का हक़ निजी है लेकिन अस्पताल सरकारी चाहिए, स्कूल सरकारी चाहिए..नहीं, यह ऐसे नहीं चलना चाहिए, यदि आपको सरकार से हर मदद चाहिए, सार्वजानिक मदद चाहिए तो आपको बच्चा भी सार्वजानिक हितों को ध्यान में रख कर ही पैदा करने की इजाज़त मिलेगी. आप स्वस्थ हैं, नहीं है, शिक्षित हैं नहीं है, कमाते हैं या नहीं..और भी बहुत कुछ. बच्चा पैदा करने का हक़ कमाना होगा. वो हक़ जन्मजात नहीं दिया जा सकता.
उसके लिए यह भी देखना होगा कि एक भू भाग आसानी से कितनी जनसंख्या झेल सकता है, उसके लिए सब तरह के वैज्ञानिकों से राय ली जा सकती है, आंकड़े देखे जा सकते हैं, उसके बाद तय किया जा सकता है. जैसे मानो आज आप तय करते हैं कि अमरनाथ यात्रा पर एक समय में एक निश्चित संख्या में ही लोग भेजे जाने चाहिए..ठीक वैसे ही
बस फिर क्या है, समाज आपका खुश-हाल होगा, जन्नत के आपको ख्वाब देखने की ज़रुरत नहीं होगी, ज़िंदगी पैसे कमाने मात्र के लिए नहीं होगी, आप सूर्य की गर्मी और चाँद की नरमी को महसूस कर पायेंगे, फूलों के खिलने को और दोस्तों के गले मिलने का अहसास अपने अंदर तक समा पायेंगे
अभी आप हम, जीते थोड़ा न हैं, बस जीने का भ्रम पाले हैं
जीवन कमाने के लिए है जैसे, जब कोई मुझ से यह पूछता है कि मैं क्या करता हूँ और जवाब में यदि मैं कहूं कि लेखक हूँ, वक्ता हूँ, वो समझेगा बेरोजगार हूँ, ठाली हूँ...कहूं कि विवादित सम्पत्तियों का कारोबारी हूँ तो समझेगा कि ज़रूर कोई बड़ा तीर मारता होवूँगा
खैर, कल कुछ सुझाव दिए थे सामाजिक परिवर्तन के वो भी आप इस लेख के साथ पढ़ सकते हैं
कुछ मैंने कहा, बाकी आप कहें, स्वागत है
नमन.....कॉपी राईट लेखन.......तुषार कॉस्मिक.
Tuesday, 25 August 2015
कानूनी दांव पेच—भाग 3
बड़े जजों के नाम के आगे जस्टिस लिखा जाता है. जैसे जस्टिस ढींगरा, जस्टिस काटजू . बकवास.
उपहार काण्ड में सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कितना न्याय हुआ है, आप सबके सामने है. कितने ही लोग मारे गए और मालिकों को मात्र जुर्माना. वो भी ऐसा कि उनके कान पर जूं न रेंगे. अबे, यदि वो दोषी हैं तो जेल भेजो और नहीं हैं तो छोड़ दो, यह पैसे लेने का क्या ड्रामा है? लेकिन दोषी तो वो हैं, तभी तो ज़ुर्माना किया है. हाँ, अमीर हैं सो उनकी सजा को जुर्माने तक ही सीमित किया गया है. बच्चा भी समझता है सिवा सुप्रीम कोर्ट के.
अमीर हो तो पैसे लेकर छोड़ दो और गरीब हो तो लटका दो.....यह इन्साफ है या रिश्वतखोरी?
पीछे सुना है कि भारतीय जज समाज की सामूहिक चेतना (Collective Consciousness of the society) की संतुष्टि के हिसाब से फैसले देने लगे हैं. लानत है. फैसले कानून के हिसाब से, तथ्यों और तर्कों के हिसाब से दिए जाने चाहिए या समाज क्या सोचता समझता है उसके हिसाब से?
समाज ने तो सुकरात को ज़हर पिलवा दिया, जीसस को सूली पर टंगवा दिया, जॉन ऑफ़ आर्क को जिंदा जलवा दिया, सब फैसले उस समय की अदालतों ने दिए थे. अदालतों को समाज ने प्रयोग किया, दुष्प्रयोग किया. तो आज भी क्या वैसा ही होना चाहिए? हमारे समय अदालतों को समझना होगा कि कल उन पर भी वोही लानतें भेजी जायेंगे जैसे आज मैं सुकरात, जीसस या जॉन ऑफ़ आर्क के समय की अदालतों पर भेज रहा हूँ.
हमारी अदालतों के फैसलों पर भविष्य कैसे फैसले सुनाएगा, मुझे तो आज ही पता है. पूत के पैर पालने में ही दिख जाते हैं और अदालतों के रंग फैसलों को टालने में ही दिख जाते हैं
सही कहा जाता है कि जज सिर्फ फैसले करता है, न्याय नहीं.
उपहार काण्ड में सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कितना न्याय हुआ है, आप सबके सामने है. कितने ही लोग मारे गए और मालिकों को मात्र जुर्माना. वो भी ऐसा कि उनके कान पर जूं न रेंगे. अबे, यदि वो दोषी हैं तो जेल भेजो और नहीं हैं तो छोड़ दो, यह पैसे लेने का क्या ड्रामा है? लेकिन दोषी तो वो हैं, तभी तो ज़ुर्माना किया है. हाँ, अमीर हैं सो उनकी सजा को जुर्माने तक ही सीमित किया गया है. बच्चा भी समझता है सिवा सुप्रीम कोर्ट के.
अमीर हो तो पैसे लेकर छोड़ दो और गरीब हो तो लटका दो.....यह इन्साफ है या रिश्वतखोरी?
पीछे सुना है कि भारतीय जज समाज की सामूहिक चेतना (Collective Consciousness of the society) की संतुष्टि के हिसाब से फैसले देने लगे हैं. लानत है. फैसले कानून के हिसाब से, तथ्यों और तर्कों के हिसाब से दिए जाने चाहिए या समाज क्या सोचता समझता है उसके हिसाब से?
समाज ने तो सुकरात को ज़हर पिलवा दिया, जीसस को सूली पर टंगवा दिया, जॉन ऑफ़ आर्क को जिंदा जलवा दिया, सब फैसले उस समय की अदालतों ने दिए थे. अदालतों को समाज ने प्रयोग किया, दुष्प्रयोग किया. तो आज भी क्या वैसा ही होना चाहिए? हमारे समय अदालतों को समझना होगा कि कल उन पर भी वोही लानतें भेजी जायेंगे जैसे आज मैं सुकरात, जीसस या जॉन ऑफ़ आर्क के समय की अदालतों पर भेज रहा हूँ.
हमारी अदालतों के फैसलों पर भविष्य कैसे फैसले सुनाएगा, मुझे तो आज ही पता है. पूत के पैर पालने में ही दिख जाते हैं और अदालतों के रंग फैसलों को टालने में ही दिख जाते हैं
सही कहा जाता है कि जज सिर्फ फैसले करता है, न्याय नहीं.
ज़ाहिर के परे
सेठ जी फोन पर व्यस्त थे........उनके केबिन में कुछ ग्राहक दाख़िल हुए लेकिन सेठ जी की बात फोन पर ज़ारी रही......लाखों के सौदे की बात थी....फिर करोड़ों तक जा पहुँची.........फोन पर ही करोड़ों की डील निबटा दी उन्होंने......ग्राहक अपनी बारी आने के इंतज़ार में उतावले भी हो रहे थे....लेकिन अंदर ही अंदर प्रभावित भी हो रहे थे........ इतने में ही एक साधारण सा दिखने वाला आदमी दाख़िल हुआ.........वो कुछ देर खड़ा रहा....फिर सेठ जी को टोका, लेकिन सेठ जी ने उसे डांट दिया, बोले, "देख नहीं रहे भाई , अभी बिजी हूँ"......वो आदमी थोड़ी देर खड़ा रहा, फिर से उसने सेठ जी को टोका, सेठ जी ने फिर से उसे डपट दिया............सेठ जी फिर व्यस्त हो गए......अब उस आदमी से रहा न गया, वो चिल्ला कर बोला , “सेठ जी, MTNL से आया हूँ, लाइनमैन हूँ, अगर आपकी बात खत्म हो गई हो तो जिस फोन से आप बात कर रहे हैं, उसका कनेक्शन जोड़ दूं?”
आप हंस लीजिये, लेकिन यह एक बहुत ही सीरियस मामला है.
पुलिस वाले यदि किसी पैसे झड़ने वाली आसामी को पकड़ लेते हैं तो उसके सामने किसी गरीब को ख्वाह-म-खाह कूटते-पीटते रहते हैं......वो कहते हैं न, बेटी को कहना और बहू को सुनाना ....कुछ कुछ वैसा ही.
अक्सर लोग अपनी धाक दिखाने को 'फ्री होल्ड गालियाँ' देते हैं, मैं इन्हें 'थर्ड पार्टी गालियाँ' भी कहता हूँ. बातचीत में बिना मतलब "माँ....की..... बहन की" करते रहेंगे .........ख्वाह-म-खाह .....सिर्फ अपनी दीदा दलेरी दिखाने को
वकील लोग चाहे केस का मुंह सर न समझ रहे हों, लेकिन प्रभावित करते हैं कभी न पढ़े जाने वाली अलमारियों में सजाई गई किताबों से....... अपने इर्द गिर्द पांच सात नौसीखिए वकीलों से......फ़ोन, कंप्यूटर, चलते प्रिंटर से ........इम्प्रैशन टूल.
आपको यह सब क्यों बता रहा हूँ? बस एक ही बात समझाना......Looking beyond the obvious.....जो ज़ाहिर है, उसके पार देखने की कोशिश करें...ज़रूरी नहीं उसके परे कुछ हो ही...नहीं भी हो...लेकिन शायद हो भी
अंग्रेज़ी में कहते हैं, "Reading between the lines". लाइनों के बीच पढ़ना, शब्दों के छुपे मंतव्य समझना.
नमन....कॉपी राईट
आप हंस लीजिये, लेकिन यह एक बहुत ही सीरियस मामला है.
पुलिस वाले यदि किसी पैसे झड़ने वाली आसामी को पकड़ लेते हैं तो उसके सामने किसी गरीब को ख्वाह-म-खाह कूटते-पीटते रहते हैं......वो कहते हैं न, बेटी को कहना और बहू को सुनाना ....कुछ कुछ वैसा ही.
अक्सर लोग अपनी धाक दिखाने को 'फ्री होल्ड गालियाँ' देते हैं, मैं इन्हें 'थर्ड पार्टी गालियाँ' भी कहता हूँ. बातचीत में बिना मतलब "माँ....की..... बहन की" करते रहेंगे .........ख्वाह-म-खाह .....सिर्फ अपनी दीदा दलेरी दिखाने को
वकील लोग चाहे केस का मुंह सर न समझ रहे हों, लेकिन प्रभावित करते हैं कभी न पढ़े जाने वाली अलमारियों में सजाई गई किताबों से....... अपने इर्द गिर्द पांच सात नौसीखिए वकीलों से......फ़ोन, कंप्यूटर, चलते प्रिंटर से ........इम्प्रैशन टूल.
आपको यह सब क्यों बता रहा हूँ? बस एक ही बात समझाना......Looking beyond the obvious.....जो ज़ाहिर है, उसके पार देखने की कोशिश करें...ज़रूरी नहीं उसके परे कुछ हो ही...नहीं भी हो...लेकिन शायद हो भी
अंग्रेज़ी में कहते हैं, "Reading between the lines". लाइनों के बीच पढ़ना, शब्दों के छुपे मंतव्य समझना.
नमन....कॉपी राईट
भूमि अधिग्रहण
अभी अभी आज़ादी दिवस मना के हटा है मुल्क.....आपको पता हो न हो शायद कि आजादी के साथ अंग्रेज़ों के जमाने के बनाये कानून भी दुबारा देखने की ज़रूरत थी, लेकिन नहीं देखे, नहीं बदले ...इतने उल्लू के पट्ठे थे हमारे नेता.....बेवकूफ , जाहिल, काहिल, बे-ईमान.....सब के सब.....सबूत देता हूँ....सन 1897 का कानून था जमीन अधिग्रहण का......अँगरेज़ को जब जरूरत हो, जितनी ज़रुरत हो वो किसान से उसकी ज़मीन छीन लेता था...कोई मुआवज़ा नहीं, कोई ज़मीन के बदले ज़मीन नहीं, कोई बदले में रोज़गार व्यवस्था नहीं...भाड़ में जाओ तुम.
आप हैरान हो जायेंगे कि मुल्क सन सैतालिस में आज़ाद हुआ माना जाता है लेकिन यह कानून अभी सन दो हज़ार तेरह में बदला गया.
पहले इस बदलाव से पहले की कुछ झलकियाँ आपको पेश करता हूँ. हमारी सरकारों ने इस भूमि अधिग्रहण कानून का खूब दुरुप्रयोग किया. सरकारी छत्रछाया में खूब पैसा बनाया गया ज़मीन छीन छीन कर किसान से. उसे या तो कुछ दिया ही नहीं गया या दिया भी गया तो ऊँट के मुंह में जीरा. भूमि अधिग्रहण कानून से बस किसान की ज़िंदगी पर ग्रहण ही लगाया गया.
कहते हैं भाखड़ा डैम के विस्थापितों को आज तक नहीं बसाया गया. कहते हैं दिल्ली में एअरपोर्ट बना तो किसान को नब्बे पैसे गज ज़मीन का भाव दिया गया. कहते हैं यमुना एक्सप्रेस वे, जो बना उसमें भी किसान को बड़े सस्ते में निबटा दिया गया और कहते हैं कि नॉएडा, ग्रेटर नॉएडा में तो ज़मीन ली गई उद्योग के नाम पर और बिल्डरों को बेच दी गई. सरकार ने काईयाँ प्रॉपर्टी डीलर का काम शुरू कर दिया. कहते हैं, लाखों एकड़ ज़मीन किसान से तो छीन ली गई लेकिन उस पर कोई काम शुरू ही नहीं किया सरकार ने, बरसों. दशकों. कहते हैं, सुप्रीम कोर्ट ने ग्रेटर नॉएडा का सरकारी ज़मीन अधिग्रहण रद्द कर दिया.कहते हैं कि पटवारी और कलेक्टरों ने खूब लूटा है मिल कर किसानों को. किसान अनपढ़. कानूनगो रिश्वतखोर. किसान की वो गत बनाई की तौबा तौबा.
आज स्थिति यह है कि सरकार को विकास के नाम पर ज़मीन चाहिए. उधर किसान सब समझ चुका है, वो जानता है कि सरकार ने उसके साथ आज तक धक्का किया है. अब किसान आसानी से तो ज़मीन देने को राज़ी नहीं है. मोदी सरकार को तथा कथित विकास की जल्दी है. उसे जल्दी है रेल की, सड़क की, फैक्ट्री की. बिना ज़मीन के यह सब हो नहीं सकता.
मेरे कुछ सुझाव हैं. यदि उन पर ख्याल किया जाए तो.
पहली तो बात यह कि किसान में विश्वास पैदा किया जाए. सबसे पहले तो जो भी ज़मीन अधिग्रहित हुई लेकिन प्रयोग नहीं हुई या फिर पहले प्रयोग हुई भी लेकिन अब प्रयोग नहीं हो रही या निकट भविष्य में प्रयोग नहीं होनी है तो उसे बिना शर्त किसान को वापिस किया जाए. यह वापिसी कुछ जिस किसान से ली गई उसे और कुछ भूमिहीन किसान को दी जा सकती है.
दूसरी बात यह कि जो ज़मीन बंज़र है, वहां पर उद्योग लगाने का प्रयास होना चाहिए.
तीसरी बात कि जिन भी किसानों को पिछले मुआवज़े नहीं मिले या मिले तो न मिलने जैसे, उन सब को यदि कहीं ज़मीन दे सकते हैं तो ज़मीन दी जाए और नहीं तो मुआवजा दिया जाए, आज के हिसाब से.
जब पिछला हिसाब किताब कुछ चुकता कर लेंगे, कुछ संतुलन बना लेंगे तो आगे की सोचनी चाहिए. और जब आगे की सोचते हैं तो यह भी सोचने की ज़रुरत है कि विकास का मतलब है क्या आखिर? यह कि जनसंख्या बढाते चले जाओ और फिर कहो कि अब इस के लिए घर चाहिए, रोज़गार चाहिए, रेल चाहिए, सड़क चाहिए, उद्योग चाहिए.
नालायक लोग. अबे पहले यह देखो कि कितने से ज़्यादा लोग नहीं होने चाहिए पृथ्वी के एक टुकड़े पर. पूछो अपने साइंसदानों से, पूछो अपने विद्वानों से, नहीं तो पूछो खुद कुदरत से. तुम जितना उद्योग खड़ा करते हो, कुदरत के साथ खिलवाड़ होता है, कुदरत तुम्हें कुदरती जीवन जीने की इच्छा से भरे है. तभी तो तुम्हारे ड्राइंग रूम में जो तसवीरें हैं, वो सब कुदरत के नजारों की हैं....नदी, जंगल, पहाड़, झरने....कभी धुआं निकालती फैक्ट्री क्यों नहीं लगाते अपने कमरों में? लगाओ अपने शयनकक्ष में, शायद नींद न आये.
लेकिन तुम्हें उद्योग चाहिए.
इडियट. नहीं चाहिए. बहुत कम चाहिए.
तुम्हें ज़रुरत है, आबादी कम करने के उद्योग चलाने की. बाकी सब समस्या अपने आप कम हो जायेंगी........न ज़्यादा उद्योग चाहिए होंगे, न सड़क, न ज़्यादा घर, न ही कुछ और?
लेकिन यह सब कौन समझाए?
विकास चाहिए, बहनों और भाईयो, हमारी सरकार आयेगी तो रोज़गार पैदा होगा, विकास पैदा होगा....तुम बस बच्चे पैदा करो बाकी सब साहेब पर छोड़ दो, अपने आप पैदा होगा.
लानत! कुछ पैदा नहीं होगा यही हाल रहा तो, सिवा झुनझुने के देखते रहिये मेरे साथ.
नमन......कॉपीराईट लेखन....चुराएं न.....साझा कर सकते हैं
आप हैरान हो जायेंगे कि मुल्क सन सैतालिस में आज़ाद हुआ माना जाता है लेकिन यह कानून अभी सन दो हज़ार तेरह में बदला गया.
पहले इस बदलाव से पहले की कुछ झलकियाँ आपको पेश करता हूँ. हमारी सरकारों ने इस भूमि अधिग्रहण कानून का खूब दुरुप्रयोग किया. सरकारी छत्रछाया में खूब पैसा बनाया गया ज़मीन छीन छीन कर किसान से. उसे या तो कुछ दिया ही नहीं गया या दिया भी गया तो ऊँट के मुंह में जीरा. भूमि अधिग्रहण कानून से बस किसान की ज़िंदगी पर ग्रहण ही लगाया गया.
कहते हैं भाखड़ा डैम के विस्थापितों को आज तक नहीं बसाया गया. कहते हैं दिल्ली में एअरपोर्ट बना तो किसान को नब्बे पैसे गज ज़मीन का भाव दिया गया. कहते हैं यमुना एक्सप्रेस वे, जो बना उसमें भी किसान को बड़े सस्ते में निबटा दिया गया और कहते हैं कि नॉएडा, ग्रेटर नॉएडा में तो ज़मीन ली गई उद्योग के नाम पर और बिल्डरों को बेच दी गई. सरकार ने काईयाँ प्रॉपर्टी डीलर का काम शुरू कर दिया. कहते हैं, लाखों एकड़ ज़मीन किसान से तो छीन ली गई लेकिन उस पर कोई काम शुरू ही नहीं किया सरकार ने, बरसों. दशकों. कहते हैं, सुप्रीम कोर्ट ने ग्रेटर नॉएडा का सरकारी ज़मीन अधिग्रहण रद्द कर दिया.कहते हैं कि पटवारी और कलेक्टरों ने खूब लूटा है मिल कर किसानों को. किसान अनपढ़. कानूनगो रिश्वतखोर. किसान की वो गत बनाई की तौबा तौबा.
आज स्थिति यह है कि सरकार को विकास के नाम पर ज़मीन चाहिए. उधर किसान सब समझ चुका है, वो जानता है कि सरकार ने उसके साथ आज तक धक्का किया है. अब किसान आसानी से तो ज़मीन देने को राज़ी नहीं है. मोदी सरकार को तथा कथित विकास की जल्दी है. उसे जल्दी है रेल की, सड़क की, फैक्ट्री की. बिना ज़मीन के यह सब हो नहीं सकता.
मेरे कुछ सुझाव हैं. यदि उन पर ख्याल किया जाए तो.
पहली तो बात यह कि किसान में विश्वास पैदा किया जाए. सबसे पहले तो जो भी ज़मीन अधिग्रहित हुई लेकिन प्रयोग नहीं हुई या फिर पहले प्रयोग हुई भी लेकिन अब प्रयोग नहीं हो रही या निकट भविष्य में प्रयोग नहीं होनी है तो उसे बिना शर्त किसान को वापिस किया जाए. यह वापिसी कुछ जिस किसान से ली गई उसे और कुछ भूमिहीन किसान को दी जा सकती है.
दूसरी बात यह कि जो ज़मीन बंज़र है, वहां पर उद्योग लगाने का प्रयास होना चाहिए.
तीसरी बात कि जिन भी किसानों को पिछले मुआवज़े नहीं मिले या मिले तो न मिलने जैसे, उन सब को यदि कहीं ज़मीन दे सकते हैं तो ज़मीन दी जाए और नहीं तो मुआवजा दिया जाए, आज के हिसाब से.
जब पिछला हिसाब किताब कुछ चुकता कर लेंगे, कुछ संतुलन बना लेंगे तो आगे की सोचनी चाहिए. और जब आगे की सोचते हैं तो यह भी सोचने की ज़रुरत है कि विकास का मतलब है क्या आखिर? यह कि जनसंख्या बढाते चले जाओ और फिर कहो कि अब इस के लिए घर चाहिए, रोज़गार चाहिए, रेल चाहिए, सड़क चाहिए, उद्योग चाहिए.
नालायक लोग. अबे पहले यह देखो कि कितने से ज़्यादा लोग नहीं होने चाहिए पृथ्वी के एक टुकड़े पर. पूछो अपने साइंसदानों से, पूछो अपने विद्वानों से, नहीं तो पूछो खुद कुदरत से. तुम जितना उद्योग खड़ा करते हो, कुदरत के साथ खिलवाड़ होता है, कुदरत तुम्हें कुदरती जीवन जीने की इच्छा से भरे है. तभी तो तुम्हारे ड्राइंग रूम में जो तसवीरें हैं, वो सब कुदरत के नजारों की हैं....नदी, जंगल, पहाड़, झरने....कभी धुआं निकालती फैक्ट्री क्यों नहीं लगाते अपने कमरों में? लगाओ अपने शयनकक्ष में, शायद नींद न आये.
लेकिन तुम्हें उद्योग चाहिए.
इडियट. नहीं चाहिए. बहुत कम चाहिए.
तुम्हें ज़रुरत है, आबादी कम करने के उद्योग चलाने की. बाकी सब समस्या अपने आप कम हो जायेंगी........न ज़्यादा उद्योग चाहिए होंगे, न सड़क, न ज़्यादा घर, न ही कुछ और?
लेकिन यह सब कौन समझाए?
विकास चाहिए, बहनों और भाईयो, हमारी सरकार आयेगी तो रोज़गार पैदा होगा, विकास पैदा होगा....तुम बस बच्चे पैदा करो बाकी सब साहेब पर छोड़ दो, अपने आप पैदा होगा.
लानत! कुछ पैदा नहीं होगा यही हाल रहा तो, सिवा झुनझुने के देखते रहिये मेरे साथ.
नमन......कॉपीराईट लेखन....चुराएं न.....साझा कर सकते हैं
Thursday, 20 August 2015
कानूनी दांव पेच--- भाग -2
इस भाग में मैं आपको अपने-आपके जीवन के इर्द गिर्द घटने वाले, घटने वाले कानूनी मसलों और मिसलों और मसालों की बात करूंगा.
1) शायद याद हो आपको, एक दौर था दिल्ली में जगह जगह लाटरी के स्टाल हुआ करते थे. लोग सब धंधे छोड़ छाड़ लाटरी में लिप्त थे. जिनके पास दुकानें थीं उन्होंने, अपने चलते चलाते धंधे बंद कर अपनी जगह लाटरी के काउंटर वालों को किराए पर देनी शुरू कर दी थीं. लोग सारा सारा दिन लाटरी खेलते थे. जमघट लगा रहता था. कईयों के घर बर्बाद हो गए. फिर कुछ लोगों ने आत्महत्या तक कर ली. सरकार के कान पर जूं सरक गई. लाटरी बंद हो गई दिल्ली में. लेकिन हरियाणा में चलती रही. लोग बॉर्डर पार कर लाटरी खेलने जाने लगे लेकिन वो सब चला नहीं ज़्यादा देर. उसके बाद वो बुखार उतर गया. यह एक तल्ख़ मिसाल है कि हमारी सरकारें किस कदर बेवकूफ होती हें.
आप सोच सकते हैं कि मैं यह गुज़रा दौर क्यों याद कर करवा रहा हूँ. वजह है. वजह यह है कि लाटरी आज भी जिंदा है. जैसे रावण के सर काटो तो फिर जुड़ जाते कहे जाते हैं. जैसे रक्तबीज. सर काटो तो और पैदा हो जाते हैं.आज लाटरी ने शक्ल बदल ली है. मुखौटा लगा लिया है निवेश स्कीम का. कोई एक व्यक्ति कमिटी चलाता है. पैसे उसके पास हर माह इकट्ठे होते हैं. फिर वो सब सदस्यों की पर्चियां/ टोकन डालता है और जिसका टोकन निकल आये उसे एक मुश्त धन राशि दी जाती है, या मोटर साइकिल या फिर फ्रिज या कुछ और. इसके स्वरूप थोड़े भिन्न हो सकते हैं, लेकिन मामला जारी है. पश्चिम विहार दिल्ली के टॉप मोस्ट इलाकों में से तो नहीं है लेकिन फिर भी अच्छे इलाकों में गिना जाता है. हैरान हो गया मैं पिछले हफ्ते यहाँ के अग्रसेन भवन में खुले आम यह जूआ चलते देख कर. कोई दो तीन हज़ार लोग. खुले आम टोकन निकाले जा रहे थे.
दो कानून भंग होते हैं एक तो लाटरी निषेध का दूसरा पब्लिक फण्ड लिए जाने का.
कोई भी व्यक्ति या संस्था इस तरह से पब्लिक से पैसा नहीं ले सकता. यह मना है. आप अपने दोस्त से, मित्र से पैसे का ले दे कर सकते हैं लेकिन पैसे के ले और दे को कमर्शियल ढंग से नहीं कर सकते. उसके लिए NBFC के टाइटल के अंतर्गत आपके पास मंजूरी होना ज़रूरी है. हालाँकि मैं इस कानून से पूरी तरह सहमत नहीं हूँ चूंकि पैसे को पब्लिक से लेने के नियम तो कड़े होने चाहिए, वो बात ठीक है, चूँकि बहुत सी असली नकली कम्पनी लोगों से पैसा इ्कट्ठा कर चम्पत हो जाती हैं.
पीछे एक दौर रहा जब बहुत सी प्लांटेशन कम्पनी कुकुरमुत्ते की तरह उग आई थीं. इन्होने लोगों को सपने दिखाए कि उड़ीसा, बिहार, झारखंड और पता नहीं कहाँ कहाँ इन्होने ज़मीन ले रखी थी, वहां सफेदे के पेड़ लगायेंगे. और फिर कुछ ही सालों बाद लोगों के पैसे कई गुणा कर के वापिस देंगे. इस तरह की बहुत सी स्कीम पश्चिमी मुल्कों में भी चलती रही हैं और वहां इनको PONZI SCHEME कहा जाता है. इसी का बाद में एक स्वरूप MLM (Multi Level Company) कम्पनियां थीं. खैर न तो प्लांटेशन कम्पनियों ने कुछ दिया लोगों को और न ही MLM कम्पनियों ने....सिवा ह्रदयघात के. तन मन और धन के नुक्सान के.
खैर, मेरा ख्याल है कि पैसा लेने के नियम तो कड़े रखना सही बात है लेकिन पैसा देने के नियम इतने कड़े नहीं होने चाहियें. यदि कोई अपना पैसा किसी को भी ब्याज पर देना चाहता है तो उसमें सरकार काहे का पंगा डालती है. आखिर बैंक भी तो यही काम करते हैं. NBFC (Non Banking Finance Company) भी यही करती हैं. बैंक लोगों का पैसा ही तो घुमाता है. बैंक के पास सिवा ब्याज के कौन सा धंधा है? NBFC भी सिवा ब्याज के कौन सा धंधा करती है?
2) अगला कानूनी मुद्दा जो आपकी नज़र में लाना चाहता हूँ वो है दिल्ली में चलने वाले "रेंट अग्रीमेंट" का. कानून यह कहता है कि ग्यारह महीने तक का अग्रीमेंट आप बिना रजिस्टर कराये मात्र पचास रूपये के स्टाम्प पेपर पर कर सकते हैं लेकिन यदि ग्यारह माह से ज़्यादा का अग्रीमेंट करते हैं तो फिर इसे रजिस्टर कराया जाना लाज़िमी है. इस क्लॉज़ को मालिकों ने इस तरह से लिया कि वो अपने मकान दूकान मात्र ग्यारह माह के लिए ही देने लगे. ग्यारह माह का ही बैरियर बना लिया गया. अब ग्यारह माह में किरायेदार को अपना सामान लाने ले जाने की सर दर्दी करनी होती है. उसका खर्च वहन करना होता है. अपने बच्चों के स्कूल आदि में दाखिला कराना होता है. और अपने राशन कार्ड, वोटर कार्ड आदि को बदलवाना होता है. वो यह सब काम अभी कर ही चुकता है कि ग्यारह माह पूरे हो जाते हैंऔर उस पर जगह छोड़ने का डंडा सवार हो जाता है. अब वो फिर से नई जगह तलाश करे. नए सिरे से प्रॉपर्टी डीलर को कमिशन दे, बस इस चक्रव्यूह में फंस जाता है. इस में प्रॉपर्टी डीलर को सबसे ज़्यादा फायदा है. वो इसलिए कि हर नये किरायेदार से वो कमीशन लेता है, उसकी तो चांदी है यदि रोज़ किरायेदार बदले.
उस पर तुर्रा यह है कि जो अग्रीमेंट बनाये जाते हैं, वो पूरी तरफ से एक तरफ़ा. किरायेदार को कभी भी सड़क पर खड़ा किया जा सकता है. अग्रीमेंट में एक क्लॉज़ लिखा जाता है कि एक महीने के नोटिस पर किरायेदार कभी भी खाली कर सकता है और मकान मालिक कभी भी खाली करवा सकता है. इस क्लॉज़ पर कोई किरायेदार ध्यान नहीं देता. उसे लगता है कि उसके साथ ग्यारह माह का अग्रीमेंट किया जा रहा है और ग्यारह माह तक तो उसे कोई हिला नहीं पायेगा. लेकिन उसे पता ही नहीं होता कि अग्रीमेंट मात्र एक माह का है. उसे कभी भी एक महीने के नोटिस पर बाहर निकाला जा सकता है. यह ना-इंसाफी है. ऊपर से कोढ़ में पड़े खाज की तरह इस अग्रीमेंट के आधे पैसे भी किरायेदार से लिए जाते हैं. चूँकि उसे जगह किराए पर लेनी होती है सो वो सब बर्दाश्त करता है.
और भी बड़ी ना-इंसाफी यह कि दिल्ली में प्रॉपर्टी के रेट पिछले तीन साल में आधे रह गए हैं और किराए भी गिरे हैं लेकिन मकान-दूकान मालिक लोग हर ग्यारह माह में किराया दस प्रतिशत बढाये जाने का क्लॉज़ अग्रीमेंट में डाले रहते हैं. चूँकि किरायेदार को अपना सब ताम झाम उखाड़ना बहुत भारी पड़ता है सो वो यह सब बर्दाश्त करता है.
मैंने अपनी जगह किराए पर दी भी हैं और दूसरों की जगह किराए पर ली भी हैं. मेरा मानना है कि हमारे मुल्क में दोनों तरफ से ना-इन्साफियाँ हुई हैं और हो रही हैं. आपको पुरानी दिल्ली में हजारों लाखों घर दूकान ऐसे मिल जायेंगे जो किरायेदारों के होकर रह गए और लाखों लोग आज ऐसे मिल जायेंगे, नए किरायेदार, जो नए अग्रीमेंट का शिकार हैं. यदि वो एक अति है तो यह भी एक अति है.
एक बैलेंस की ज़रुरत है. मेरे ख्याल से नया किरायेदार यदि किराया समय पर देता है और किराया भी वाजिब देता है तो उसे निश्चित ही तीन से पांच साल तक एक जगह पर टिके रहने का हक़ दिया जाना चाहिए और यदि उससे जगह खाली भी करानी हो तो कम से कम छह माह का समय दिया जाना चाहिए. यह ग्यारह माह की नौटंकी तुरत खत्म होनी चाहिए. और इसे खत्म करने का ही प्रयास किया भी गया है. सुप्रीम कोर्ट ने सन २०११ में कुछ नियम दिए थे कि कोई किरायेदार से पांच साल तक जगह खाली नहीं कराई जा सकती यदि वो किराया, बिजली पानी और प्रॉपर्टी टैक्स आदि सही समय पर भरता है तो. यह फैसला मेरी नज़र में बहुत हद तक सही था.इसमें दो बात मुझे नहीं जंची. पहली प्रॉपर्टी टैक्स किरायेदार क्यूँ भरे? दूसरी किराया अग्रीमेंट के तहत बढाये जा सकता है, ऐसा माना गया. अब किराए पर लेते समय किरायेदार की मजबूरी होती है, उसे सब बात मंज़ूर करनी ही होती हैं. जैसा मैंने ऊपर लिखा कि उससे तो ग्यारह माह का अग्रीमंट कह कर एक माह पर खाली करने वाली क्लॉज़ भी लिखा ली जाती है, तो उस समय उसकी मजबूरी का खूब फायदा उठाया जाता है. सो मेरा मानना है कि यदि किरायेदार किराया और बिजली पानी समय पर चुकता करता है तो उसे तीन से पांच साल तक रहने दिया जाना चाहिए और किराया तीन साल से पहले नहीं बढाया जाना चाहिए. तीन साल बाद दस प्रतिशत किराया बढाया जा सकता है.
ऊपर लिखित जजमेंट (Judgement ---Rent Paying Tenants cannot be evicted before 5 years--- C.A. No.__@ SLP(C)No. 6319 of 2007/ http://www.lawyersclubindia.com/forum/files/120292_185668_36_hon_ble_sc_judgment___guidelines.pdf ) को आये लगभग चार साल बीत गए हैं लेकिन आज भी इसका नामलेवा कोई नहीं है. हमारे समाज को मकान दूकान किराए पर देने में और एक टेंट किराए पर देने में फर्क को समझना चाहिए.
3) आपको पता ही हो शायद हमारे यहाँ पर प्रॉपर्टी की खरीद फरोख्त की रजिस्ट्री पर सरकार छह से आठ प्रतिशत टैक्स लेती है. यह सीधी सीधी लूट है. कोई जायदाद चाहे बीस लाख की हो, चाहे बीस करोड़ की, सरकार को उसके रजिस्ट्री पर एक जैसा ही खर्च पड़ता है फिर यह कैसी लूट? और मात्र रिकॉर्ड रखने की इतनी फीस? यह ना-इंसाफी है. आज जब सब कुछ डिजिटल किया जा सकता है तो इस तरह की स्टाम्प ड्यूटी लिया जाना सरासर डकैती है. सरकार कह सकती है कि उसका खर्च आता है यह सब सुविधा देने में, लेकिन आप देखेंगे कि सरकार फ़िज़ूल खर्च कर रही है. अभी पिछले कुछ सालों में रजिस्ट्री ऑफिस पञ्च तारा होटल जैसे बना दिए गए हैं, कॉर्पोरेट स्टाइल. इधर प्रॉपर्टी के रेट औंधे मुंह गिरे हैं अब वहां इक्का दुक्का रिजिस्टरी होती हैं.....सब फ़िज़ूल खर्च.
4) कभी बिल देखें हैं बिजली पानी के. निश्चित तारिख तक न भरो तो आसमानी जुर्माना. अब किसने हक़ दिया इनको कि इस तरह का जुर्माना वसूला जा सकता है. ठीक है कोई लेट हो गया तो उससे जुर्माना लो लेकिन किस हद तक? असल में जहाँ कम्पनी और सरकार शब्द आ जाता है, वहां अधिकांश व्यक्तियों को लगता है कि जैसे एक दीवार से सर टकराना है, सामने कोई इंसान तो है नहीं, जिससे लड़ा जाए. खैर, बता दूं कि कानून की नज़र में कम्पनी, सरकार और व्यक्ति में कोई भेद नहीं.
5) बयाने पर आप बयाने का लेन देन नहीं कर सकते, जब तक आप किसी प्रॉपर्टी के मालिक नहीं हैं, आप कैसे उसे बेचने का वायदा कर सकते हैं? क्या आप कोई सरकरी पार्क बेच सकते हैं? नहीं न. समझ लीजिये कि किसी को बयाना देने से आप मालिक नहीं बन जाते. और जब तक आप मालिक नहीं तो आप आगे बयाना ले नहीं सकते.
कोई भी अग्रीमेंट जब तक कानून संगत न हो, उसका कोई अर्थ नहीं.
कौरव पांडव जूआ खेलते हैं और एक अग्रीमेंट करते हैं कि द्रौपदी कैसे हारी या जीती जा सकती है. उस अग्रीमेंट पर भीष्म पितामह, कर्ण, कौरव, पांडव सबके दस्तखत हैं. मामला कोर्ट पहुँचता है....क्या लगता है आपको? क्या होगा? कोर्ट सबको मुर्गा बना देगा. यह कोई अग्रीमेंट करने का है.
मैं और आप कनपटी पर भरी गन चलाने का खेल खेलना चाहते हैं. एक अग्रीमेंट बनाते हैं. आप और मैं दस्तखत कर चुके और बहुत से लोग गवाही भी. अब आपने गोली चलाई और आप बच गए. मेरी बारी आई, मैं मुकर गया. मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा. क्या लगता है आपको? क्या होगा? कोर्ट सबको मुर्गा बना देगा और अंडा देने को विवश भी करेगा. अग्रीमेंट का मतलब यह नहीं कि कैसा भी अग्रीमेंट कर लो.
6) मैं वकील नहीं हूँ. लेकिन कानून मात्र वकील ही समझे यह ज़रूरी नहीं. मेरी समझ गलत भी हो सकती है, सो कोई दावा नहीं है. लेकिन सही होने की सम्भावना ज़्यादा होगी ऐसा मेरा मानना है. यह कुछ मुद्दे सामने लाया हूँ. ऐसे अनेक मुद्दे हो सकते हैं. कुछ आपकी नज़र में भी हो सकते हैं, सांझे कीजियेगा, मिल कर विचार करेंगे. प्रचार करेंगे और कहीं कहीं हाथ दो चार भी करेंगे.
नमस्कार.....हमेशा की तरह कॉपी राईट......चुराएं न, साझा कर सकते हैं
1) शायद याद हो आपको, एक दौर था दिल्ली में जगह जगह लाटरी के स्टाल हुआ करते थे. लोग सब धंधे छोड़ छाड़ लाटरी में लिप्त थे. जिनके पास दुकानें थीं उन्होंने, अपने चलते चलाते धंधे बंद कर अपनी जगह लाटरी के काउंटर वालों को किराए पर देनी शुरू कर दी थीं. लोग सारा सारा दिन लाटरी खेलते थे. जमघट लगा रहता था. कईयों के घर बर्बाद हो गए. फिर कुछ लोगों ने आत्महत्या तक कर ली. सरकार के कान पर जूं सरक गई. लाटरी बंद हो गई दिल्ली में. लेकिन हरियाणा में चलती रही. लोग बॉर्डर पार कर लाटरी खेलने जाने लगे लेकिन वो सब चला नहीं ज़्यादा देर. उसके बाद वो बुखार उतर गया. यह एक तल्ख़ मिसाल है कि हमारी सरकारें किस कदर बेवकूफ होती हें.
आप सोच सकते हैं कि मैं यह गुज़रा दौर क्यों याद कर करवा रहा हूँ. वजह है. वजह यह है कि लाटरी आज भी जिंदा है. जैसे रावण के सर काटो तो फिर जुड़ जाते कहे जाते हैं. जैसे रक्तबीज. सर काटो तो और पैदा हो जाते हैं.आज लाटरी ने शक्ल बदल ली है. मुखौटा लगा लिया है निवेश स्कीम का. कोई एक व्यक्ति कमिटी चलाता है. पैसे उसके पास हर माह इकट्ठे होते हैं. फिर वो सब सदस्यों की पर्चियां/ टोकन डालता है और जिसका टोकन निकल आये उसे एक मुश्त धन राशि दी जाती है, या मोटर साइकिल या फिर फ्रिज या कुछ और. इसके स्वरूप थोड़े भिन्न हो सकते हैं, लेकिन मामला जारी है. पश्चिम विहार दिल्ली के टॉप मोस्ट इलाकों में से तो नहीं है लेकिन फिर भी अच्छे इलाकों में गिना जाता है. हैरान हो गया मैं पिछले हफ्ते यहाँ के अग्रसेन भवन में खुले आम यह जूआ चलते देख कर. कोई दो तीन हज़ार लोग. खुले आम टोकन निकाले जा रहे थे.
दो कानून भंग होते हैं एक तो लाटरी निषेध का दूसरा पब्लिक फण्ड लिए जाने का.
कोई भी व्यक्ति या संस्था इस तरह से पब्लिक से पैसा नहीं ले सकता. यह मना है. आप अपने दोस्त से, मित्र से पैसे का ले दे कर सकते हैं लेकिन पैसे के ले और दे को कमर्शियल ढंग से नहीं कर सकते. उसके लिए NBFC के टाइटल के अंतर्गत आपके पास मंजूरी होना ज़रूरी है. हालाँकि मैं इस कानून से पूरी तरह सहमत नहीं हूँ चूंकि पैसे को पब्लिक से लेने के नियम तो कड़े होने चाहिए, वो बात ठीक है, चूँकि बहुत सी असली नकली कम्पनी लोगों से पैसा इ्कट्ठा कर चम्पत हो जाती हैं.
पीछे एक दौर रहा जब बहुत सी प्लांटेशन कम्पनी कुकुरमुत्ते की तरह उग आई थीं. इन्होने लोगों को सपने दिखाए कि उड़ीसा, बिहार, झारखंड और पता नहीं कहाँ कहाँ इन्होने ज़मीन ले रखी थी, वहां सफेदे के पेड़ लगायेंगे. और फिर कुछ ही सालों बाद लोगों के पैसे कई गुणा कर के वापिस देंगे. इस तरह की बहुत सी स्कीम पश्चिमी मुल्कों में भी चलती रही हैं और वहां इनको PONZI SCHEME कहा जाता है. इसी का बाद में एक स्वरूप MLM (Multi Level Company) कम्पनियां थीं. खैर न तो प्लांटेशन कम्पनियों ने कुछ दिया लोगों को और न ही MLM कम्पनियों ने....सिवा ह्रदयघात के. तन मन और धन के नुक्सान के.
खैर, मेरा ख्याल है कि पैसा लेने के नियम तो कड़े रखना सही बात है लेकिन पैसा देने के नियम इतने कड़े नहीं होने चाहियें. यदि कोई अपना पैसा किसी को भी ब्याज पर देना चाहता है तो उसमें सरकार काहे का पंगा डालती है. आखिर बैंक भी तो यही काम करते हैं. NBFC (Non Banking Finance Company) भी यही करती हैं. बैंक लोगों का पैसा ही तो घुमाता है. बैंक के पास सिवा ब्याज के कौन सा धंधा है? NBFC भी सिवा ब्याज के कौन सा धंधा करती है?
2) अगला कानूनी मुद्दा जो आपकी नज़र में लाना चाहता हूँ वो है दिल्ली में चलने वाले "रेंट अग्रीमेंट" का. कानून यह कहता है कि ग्यारह महीने तक का अग्रीमेंट आप बिना रजिस्टर कराये मात्र पचास रूपये के स्टाम्प पेपर पर कर सकते हैं लेकिन यदि ग्यारह माह से ज़्यादा का अग्रीमेंट करते हैं तो फिर इसे रजिस्टर कराया जाना लाज़िमी है. इस क्लॉज़ को मालिकों ने इस तरह से लिया कि वो अपने मकान दूकान मात्र ग्यारह माह के लिए ही देने लगे. ग्यारह माह का ही बैरियर बना लिया गया. अब ग्यारह माह में किरायेदार को अपना सामान लाने ले जाने की सर दर्दी करनी होती है. उसका खर्च वहन करना होता है. अपने बच्चों के स्कूल आदि में दाखिला कराना होता है. और अपने राशन कार्ड, वोटर कार्ड आदि को बदलवाना होता है. वो यह सब काम अभी कर ही चुकता है कि ग्यारह माह पूरे हो जाते हैंऔर उस पर जगह छोड़ने का डंडा सवार हो जाता है. अब वो फिर से नई जगह तलाश करे. नए सिरे से प्रॉपर्टी डीलर को कमिशन दे, बस इस चक्रव्यूह में फंस जाता है. इस में प्रॉपर्टी डीलर को सबसे ज़्यादा फायदा है. वो इसलिए कि हर नये किरायेदार से वो कमीशन लेता है, उसकी तो चांदी है यदि रोज़ किरायेदार बदले.
उस पर तुर्रा यह है कि जो अग्रीमेंट बनाये जाते हैं, वो पूरी तरफ से एक तरफ़ा. किरायेदार को कभी भी सड़क पर खड़ा किया जा सकता है. अग्रीमेंट में एक क्लॉज़ लिखा जाता है कि एक महीने के नोटिस पर किरायेदार कभी भी खाली कर सकता है और मकान मालिक कभी भी खाली करवा सकता है. इस क्लॉज़ पर कोई किरायेदार ध्यान नहीं देता. उसे लगता है कि उसके साथ ग्यारह माह का अग्रीमेंट किया जा रहा है और ग्यारह माह तक तो उसे कोई हिला नहीं पायेगा. लेकिन उसे पता ही नहीं होता कि अग्रीमेंट मात्र एक माह का है. उसे कभी भी एक महीने के नोटिस पर बाहर निकाला जा सकता है. यह ना-इंसाफी है. ऊपर से कोढ़ में पड़े खाज की तरह इस अग्रीमेंट के आधे पैसे भी किरायेदार से लिए जाते हैं. चूँकि उसे जगह किराए पर लेनी होती है सो वो सब बर्दाश्त करता है.
और भी बड़ी ना-इंसाफी यह कि दिल्ली में प्रॉपर्टी के रेट पिछले तीन साल में आधे रह गए हैं और किराए भी गिरे हैं लेकिन मकान-दूकान मालिक लोग हर ग्यारह माह में किराया दस प्रतिशत बढाये जाने का क्लॉज़ अग्रीमेंट में डाले रहते हैं. चूँकि किरायेदार को अपना सब ताम झाम उखाड़ना बहुत भारी पड़ता है सो वो यह सब बर्दाश्त करता है.
मैंने अपनी जगह किराए पर दी भी हैं और दूसरों की जगह किराए पर ली भी हैं. मेरा मानना है कि हमारे मुल्क में दोनों तरफ से ना-इन्साफियाँ हुई हैं और हो रही हैं. आपको पुरानी दिल्ली में हजारों लाखों घर दूकान ऐसे मिल जायेंगे जो किरायेदारों के होकर रह गए और लाखों लोग आज ऐसे मिल जायेंगे, नए किरायेदार, जो नए अग्रीमेंट का शिकार हैं. यदि वो एक अति है तो यह भी एक अति है.
एक बैलेंस की ज़रुरत है. मेरे ख्याल से नया किरायेदार यदि किराया समय पर देता है और किराया भी वाजिब देता है तो उसे निश्चित ही तीन से पांच साल तक एक जगह पर टिके रहने का हक़ दिया जाना चाहिए और यदि उससे जगह खाली भी करानी हो तो कम से कम छह माह का समय दिया जाना चाहिए. यह ग्यारह माह की नौटंकी तुरत खत्म होनी चाहिए. और इसे खत्म करने का ही प्रयास किया भी गया है. सुप्रीम कोर्ट ने सन २०११ में कुछ नियम दिए थे कि कोई किरायेदार से पांच साल तक जगह खाली नहीं कराई जा सकती यदि वो किराया, बिजली पानी और प्रॉपर्टी टैक्स आदि सही समय पर भरता है तो. यह फैसला मेरी नज़र में बहुत हद तक सही था.इसमें दो बात मुझे नहीं जंची. पहली प्रॉपर्टी टैक्स किरायेदार क्यूँ भरे? दूसरी किराया अग्रीमेंट के तहत बढाये जा सकता है, ऐसा माना गया. अब किराए पर लेते समय किरायेदार की मजबूरी होती है, उसे सब बात मंज़ूर करनी ही होती हैं. जैसा मैंने ऊपर लिखा कि उससे तो ग्यारह माह का अग्रीमंट कह कर एक माह पर खाली करने वाली क्लॉज़ भी लिखा ली जाती है, तो उस समय उसकी मजबूरी का खूब फायदा उठाया जाता है. सो मेरा मानना है कि यदि किरायेदार किराया और बिजली पानी समय पर चुकता करता है तो उसे तीन से पांच साल तक रहने दिया जाना चाहिए और किराया तीन साल से पहले नहीं बढाया जाना चाहिए. तीन साल बाद दस प्रतिशत किराया बढाया जा सकता है.
ऊपर लिखित जजमेंट (Judgement ---Rent Paying Tenants cannot be evicted before 5 years--- C.A. No.__@ SLP(C)No. 6319 of 2007/ http://www.lawyersclubindia.com/forum/files/120292_185668_36_hon_ble_sc_judgment___guidelines.pdf ) को आये लगभग चार साल बीत गए हैं लेकिन आज भी इसका नामलेवा कोई नहीं है. हमारे समाज को मकान दूकान किराए पर देने में और एक टेंट किराए पर देने में फर्क को समझना चाहिए.
3) आपको पता ही हो शायद हमारे यहाँ पर प्रॉपर्टी की खरीद फरोख्त की रजिस्ट्री पर सरकार छह से आठ प्रतिशत टैक्स लेती है. यह सीधी सीधी लूट है. कोई जायदाद चाहे बीस लाख की हो, चाहे बीस करोड़ की, सरकार को उसके रजिस्ट्री पर एक जैसा ही खर्च पड़ता है फिर यह कैसी लूट? और मात्र रिकॉर्ड रखने की इतनी फीस? यह ना-इंसाफी है. आज जब सब कुछ डिजिटल किया जा सकता है तो इस तरह की स्टाम्प ड्यूटी लिया जाना सरासर डकैती है. सरकार कह सकती है कि उसका खर्च आता है यह सब सुविधा देने में, लेकिन आप देखेंगे कि सरकार फ़िज़ूल खर्च कर रही है. अभी पिछले कुछ सालों में रजिस्ट्री ऑफिस पञ्च तारा होटल जैसे बना दिए गए हैं, कॉर्पोरेट स्टाइल. इधर प्रॉपर्टी के रेट औंधे मुंह गिरे हैं अब वहां इक्का दुक्का रिजिस्टरी होती हैं.....सब फ़िज़ूल खर्च.
4) कभी बिल देखें हैं बिजली पानी के. निश्चित तारिख तक न भरो तो आसमानी जुर्माना. अब किसने हक़ दिया इनको कि इस तरह का जुर्माना वसूला जा सकता है. ठीक है कोई लेट हो गया तो उससे जुर्माना लो लेकिन किस हद तक? असल में जहाँ कम्पनी और सरकार शब्द आ जाता है, वहां अधिकांश व्यक्तियों को लगता है कि जैसे एक दीवार से सर टकराना है, सामने कोई इंसान तो है नहीं, जिससे लड़ा जाए. खैर, बता दूं कि कानून की नज़र में कम्पनी, सरकार और व्यक्ति में कोई भेद नहीं.
5) बयाने पर आप बयाने का लेन देन नहीं कर सकते, जब तक आप किसी प्रॉपर्टी के मालिक नहीं हैं, आप कैसे उसे बेचने का वायदा कर सकते हैं? क्या आप कोई सरकरी पार्क बेच सकते हैं? नहीं न. समझ लीजिये कि किसी को बयाना देने से आप मालिक नहीं बन जाते. और जब तक आप मालिक नहीं तो आप आगे बयाना ले नहीं सकते.
कोई भी अग्रीमेंट जब तक कानून संगत न हो, उसका कोई अर्थ नहीं.
कौरव पांडव जूआ खेलते हैं और एक अग्रीमेंट करते हैं कि द्रौपदी कैसे हारी या जीती जा सकती है. उस अग्रीमेंट पर भीष्म पितामह, कर्ण, कौरव, पांडव सबके दस्तखत हैं. मामला कोर्ट पहुँचता है....क्या लगता है आपको? क्या होगा? कोर्ट सबको मुर्गा बना देगा. यह कोई अग्रीमेंट करने का है.
मैं और आप कनपटी पर भरी गन चलाने का खेल खेलना चाहते हैं. एक अग्रीमेंट बनाते हैं. आप और मैं दस्तखत कर चुके और बहुत से लोग गवाही भी. अब आपने गोली चलाई और आप बच गए. मेरी बारी आई, मैं मुकर गया. मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा. क्या लगता है आपको? क्या होगा? कोर्ट सबको मुर्गा बना देगा और अंडा देने को विवश भी करेगा. अग्रीमेंट का मतलब यह नहीं कि कैसा भी अग्रीमेंट कर लो.
6) मैं वकील नहीं हूँ. लेकिन कानून मात्र वकील ही समझे यह ज़रूरी नहीं. मेरी समझ गलत भी हो सकती है, सो कोई दावा नहीं है. लेकिन सही होने की सम्भावना ज़्यादा होगी ऐसा मेरा मानना है. यह कुछ मुद्दे सामने लाया हूँ. ऐसे अनेक मुद्दे हो सकते हैं. कुछ आपकी नज़र में भी हो सकते हैं, सांझे कीजियेगा, मिल कर विचार करेंगे. प्रचार करेंगे और कहीं कहीं हाथ दो चार भी करेंगे.
नमस्कार.....हमेशा की तरह कॉपी राईट......चुराएं न, साझा कर सकते हैं
Wednesday, 12 August 2015
मुझे प्रधान मंत्री बना दे रे...ओ भैया दीवाने
मुझे कोई कह रहा था कि मुझे छोटे-मोटे चुनाव जीतने चाहिए पहले, फिर प्रधान मंत्री पद तक की सोचनी चाहिए.
ठीक है यार, जहाँ सुई का काम हो, वहां तलवार नहीं चलानी चाहिए
जहाँ बन्दूक का काम हो, वहां तोप नहीं चलानी चाहिए
लेकिन इससे उल्टा भी तो सही है, आप तलवार से सुई का काम लोगे तो वो भी तो गलत होगा, आप तोप से बन्दूक का काम लोगे तो वो भी तो सही नहीं होगा
हम तोप हैं भाई जी, इंडिया की होप हैं
वैसे मैंने सुना है भारत में चुनाव हारे हुए लोग भी मंत्री वन्त्री बन जाया करते हैं और बिना चुनाव लड़े भी प्रधान संत्री मंत्री
मैं तो फिर भी प्रधानमंत्री पद की दावेदारी बाकायदा ठोक रहा हूँ
हूँ कौन भाई मैं? मैं आप हूँ मित्र, आप.
लोक तंत्र है न भाई...लोगों का तंत्र...हम लोगों का तन्त्र
ऐसा तन्त्र जिसमें कोई भी प्रधानमंत्री बन सकता हो
तो फिर मैं क्यों नहीं?
इस “मैं” में आप खुद को देखिये, खोजिये, खो मत जईये , खोजिये
ठीक है यार, जहाँ सुई का काम हो, वहां तलवार नहीं चलानी चाहिए
जहाँ बन्दूक का काम हो, वहां तोप नहीं चलानी चाहिए
लेकिन इससे उल्टा भी तो सही है, आप तलवार से सुई का काम लोगे तो वो भी तो गलत होगा, आप तोप से बन्दूक का काम लोगे तो वो भी तो सही नहीं होगा
हम तोप हैं भाई जी, इंडिया की होप हैं
वैसे मैंने सुना है भारत में चुनाव हारे हुए लोग भी मंत्री वन्त्री बन जाया करते हैं और बिना चुनाव लड़े भी प्रधान संत्री मंत्री
मैं तो फिर भी प्रधानमंत्री पद की दावेदारी बाकायदा ठोक रहा हूँ
हूँ कौन भाई मैं? मैं आप हूँ मित्र, आप.
लोक तंत्र है न भाई...लोगों का तंत्र...हम लोगों का तन्त्र
ऐसा तन्त्र जिसमें कोई भी प्रधानमंत्री बन सकता हो
तो फिर मैं क्यों नहीं?
इस “मैं” में आप खुद को देखिये, खोजिये, खो मत जईये , खोजिये
डरपोक धर्म
जिस तरह से किसी को मंदिर मस्ज़िद में दिन रात यह कहने का हक़ है कि भगवान, अल्लाह, गॉड ऐसा है, वैसा है...... उसके अवतार, उसके पैगम्बर ये हैं, वे हैं, उसी तरह से किसी को भी यह कहने का हक़ है कि वो इन सब बातों को गलत मानता है.....और उसको हक़ है यह कहने का कि उसकी नज़र में सही क्या है......
सेकुलरिज्म का और फ्रीडम ऑफ़ एक्सप्रेशन का मतलब यही है........इसमें तथाकथित मदिरवाद, मस्ज़िदवाद गुरुद्वारावाद की यदि छूट है तो इसमें इन सब को न मानने की भी छूट है......आप भगवान, अल्लाह, दीन, धर्म, मज़हब के बारे में अपना मत रख सकते हैं.
आप किसी भी चली आ रही परिपाटी को "हाँ" कर सकते हैं और मैं न कर सकता हूँ......आप उसके समर्थन में खड़े हो सकते हैं.....मैं उसके विरोध में खड़ा हो सकता हूँ.....आपके हिसाब से हिन्दू या मुस्लिम या ईसाई जीवन पद्धति सही हो सकती है, मेरे हिसाब से कोई और जीवन पद्धति .....आप मेरी विचारधारा को गलत कह सकते हाँ, मैं आपकी विचार धारा को....इसमें तकलीफ क्या है?
लेकिन तकलीफ है, तथा कथित धार्मिक को बड़ी तकलीफ है?
उसे बड़ा डर है....सदियों से जमी दुकानदारी गिर न जाए.......कहीं मंदिर मस्ज़िद ध्वस्त न हो जाएं...इसलिए तमाम तरह के तर्क घड़े जाते हैं.
किसी धर्म के खिलाफ मत बोलो? अटैक मत करो... तुम्हारा धर्म जो अटैक करता है हर रोज़ हमारी विचारधारा पर...हर रोज़ मंदिर से तुम चीखते हो, भगवान ऐसा है, वैसा है....वो जो अटैक करता है तुम्हारा पंडित, वो?
मुझे कहते रहेंगे कि यदि मैंने अलां धर्म में से कुछ गलत देख लिख दिया तो दूसरे धर्म के विषय में क्यों नहीं लिखा.........असल मतलब बस इतना है कि किसी तरह से अपना धंधा बंद न हो जाए...जो मैंने लिखा उसकी ठीक गलत की तहकीकात तो करनी नहीं है? उसके विषय में कोई खोजबीन नहीं करनी है.....उसमें तथ्य कितना है वो तो देखना नहीं है ....अपने धार्मिक ग्रन्थ पलट कर देख लें ...फिर अपनी बुद्धि पलट कर देख लें ......न न...वो सब नहीं करना है......मेरे धर्म पर अटैक कयों किया?
अटैक तब होता है जब तुम्हारे धार्मिक ग्रन्थ में जो लिखा है उससे कोई सन्दर्भ लिए बिना ही कोई बात कही जाए......वहां लिखे शब्द भी मेरे नहीं होते....और कई बार तो व्याख्या भी मेरी नहीं होती, फिर भी तकलीफ है....फिर भी इनको लगता है कि अटैक हो गया.
मैंने लिखा कि वाल्मीकि रामायण में शबरी के जूठे बेर खाने का कोई किस्सा नहीं है.....इसमें अटैक हो गया.....किताब उठा कर देख लो....यदि मैं सही हूँ तो तुम्हें तो मुझे धन्यवाद देना चाहिए कि मैंने एक नामालूम जानकारी सामने ला कर रख दी.....एक झूठ का पर्दाफाश किया.नहीं?लेकिन यह अटैक है...यह इनके धर्म पर अटैक है...यह धर्म है या झूठों का पुलिंदा?
और अब यदि व्याख्या मैं कर दूं अपने हिसाब से तो और भी परेशानी है ......ये लोग ...ये मुल्ले मौलवी, ये पोंगे पंडित ...ये व्याख्या करते रहें दिन रात.....अपने हिसाब से समझाते रहें ...किताबों में लिखे का मतलब....मैंने समझा दिया अपने गणित से तो तकलीफ हो गई.
बहुत डर है इनको........
डरो मत भाई...स्वागत करो.......यदि कोई आपकी किताबों पर दिमाग लगाना चाहता है तो लगाने दो
जिसे जो ठीक लगता हो, उसे मानने दो.
दूसरे के धर्म को गलत साबित करने से तुम्हारा धर्म कैसे सही हो जायेगा?
और जब तुम यह कहते हो कि दूसरे के धर्म पर कमेंट करो.....मात्र मेरे ही धर्म पर क्यूँ...जब तुम यह कहते हो कि यदि दलेरी है तो फिर दूसरे धर्म पर बात करो, इस धर्म पर करो, उस धर्म पर करो...तो तुम्हारी कायरता साफ़ दीखती है....तुम इतना डरे हो कि तुम चाहते ही नहीं कोई भी तुम्हारे धर्म की छानबीन करे.........तुम्हारी इच्छा मात्र इतनी है कि किसी भी तरह से तुम्हारी दूकान जमी रहे.....कहीं लोग सवाल न उठाने लगें...कहें लोग अपना दिमाग प्रयोग न करने लगें ...बस
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सेकुलरिज्म का और फ्रीडम ऑफ़ एक्सप्रेशन का मतलब यही है........इसमें तथाकथित मदिरवाद, मस्ज़िदवाद गुरुद्वारावाद की यदि छूट है तो इसमें इन सब को न मानने की भी छूट है......आप भगवान, अल्लाह, दीन, धर्म, मज़हब के बारे में अपना मत रख सकते हैं.
आप किसी भी चली आ रही परिपाटी को "हाँ" कर सकते हैं और मैं न कर सकता हूँ......आप उसके समर्थन में खड़े हो सकते हैं.....मैं उसके विरोध में खड़ा हो सकता हूँ.....आपके हिसाब से हिन्दू या मुस्लिम या ईसाई जीवन पद्धति सही हो सकती है, मेरे हिसाब से कोई और जीवन पद्धति .....आप मेरी विचारधारा को गलत कह सकते हाँ, मैं आपकी विचार धारा को....इसमें तकलीफ क्या है?
लेकिन तकलीफ है, तथा कथित धार्मिक को बड़ी तकलीफ है?
उसे बड़ा डर है....सदियों से जमी दुकानदारी गिर न जाए.......कहीं मंदिर मस्ज़िद ध्वस्त न हो जाएं...इसलिए तमाम तरह के तर्क घड़े जाते हैं.
किसी धर्म के खिलाफ मत बोलो? अटैक मत करो... तुम्हारा धर्म जो अटैक करता है हर रोज़ हमारी विचारधारा पर...हर रोज़ मंदिर से तुम चीखते हो, भगवान ऐसा है, वैसा है....वो जो अटैक करता है तुम्हारा पंडित, वो?
मुझे कहते रहेंगे कि यदि मैंने अलां धर्म में से कुछ गलत देख लिख दिया तो दूसरे धर्म के विषय में क्यों नहीं लिखा.........असल मतलब बस इतना है कि किसी तरह से अपना धंधा बंद न हो जाए...जो मैंने लिखा उसकी ठीक गलत की तहकीकात तो करनी नहीं है? उसके विषय में कोई खोजबीन नहीं करनी है.....उसमें तथ्य कितना है वो तो देखना नहीं है ....अपने धार्मिक ग्रन्थ पलट कर देख लें ...फिर अपनी बुद्धि पलट कर देख लें ......न न...वो सब नहीं करना है......मेरे धर्म पर अटैक कयों किया?
अटैक तब होता है जब तुम्हारे धार्मिक ग्रन्थ में जो लिखा है उससे कोई सन्दर्भ लिए बिना ही कोई बात कही जाए......वहां लिखे शब्द भी मेरे नहीं होते....और कई बार तो व्याख्या भी मेरी नहीं होती, फिर भी तकलीफ है....फिर भी इनको लगता है कि अटैक हो गया.
मैंने लिखा कि वाल्मीकि रामायण में शबरी के जूठे बेर खाने का कोई किस्सा नहीं है.....इसमें अटैक हो गया.....किताब उठा कर देख लो....यदि मैं सही हूँ तो तुम्हें तो मुझे धन्यवाद देना चाहिए कि मैंने एक नामालूम जानकारी सामने ला कर रख दी.....एक झूठ का पर्दाफाश किया.नहीं?लेकिन यह अटैक है...यह इनके धर्म पर अटैक है...यह धर्म है या झूठों का पुलिंदा?
और अब यदि व्याख्या मैं कर दूं अपने हिसाब से तो और भी परेशानी है ......ये लोग ...ये मुल्ले मौलवी, ये पोंगे पंडित ...ये व्याख्या करते रहें दिन रात.....अपने हिसाब से समझाते रहें ...किताबों में लिखे का मतलब....मैंने समझा दिया अपने गणित से तो तकलीफ हो गई.
बहुत डर है इनको........
डरो मत भाई...स्वागत करो.......यदि कोई आपकी किताबों पर दिमाग लगाना चाहता है तो लगाने दो
जिसे जो ठीक लगता हो, उसे मानने दो.
दूसरे के धर्म को गलत साबित करने से तुम्हारा धर्म कैसे सही हो जायेगा?
और जब तुम यह कहते हो कि दूसरे के धर्म पर कमेंट करो.....मात्र मेरे ही धर्म पर क्यूँ...जब तुम यह कहते हो कि यदि दलेरी है तो फिर दूसरे धर्म पर बात करो, इस धर्म पर करो, उस धर्म पर करो...तो तुम्हारी कायरता साफ़ दीखती है....तुम इतना डरे हो कि तुम चाहते ही नहीं कोई भी तुम्हारे धर्म की छानबीन करे.........तुम्हारी इच्छा मात्र इतनी है कि किसी भी तरह से तुम्हारी दूकान जमी रहे.....कहीं लोग सवाल न उठाने लगें...कहें लोग अपना दिमाग प्रयोग न करने लगें ...बस
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THREE IMPORTANT WORDS
There are 3 words in English language.
1) Proactive.
2) Active
3) Reactive
These are not merely words but life philosophies. I explain.
1) Proactive is an individual who gets every bit of his car up-to-date. He will timely get air pressure, balancing, alignment of tyres checked & corrected. He will get brake oil, engine oil, gear oil changed/ fulfilled time to time. He will get his car thoroughly serviced on-time.
2) Active is an individual who gets his car repaired on slight recommendation of the mechanic.
3) And reactive is an individual who gets his car repaired after meeting with an accident due to some malfunctioning of the same. In-fact the word re-pair was meant for such an individual. His vehicle gets 'im-paired', so had to be 're-paired'.
Which one of these you are, now find out.
Namas- car....Copy-right
1) Proactive.
2) Active
3) Reactive
These are not merely words but life philosophies. I explain.
1) Proactive is an individual who gets every bit of his car up-to-date. He will timely get air pressure, balancing, alignment of tyres checked & corrected. He will get brake oil, engine oil, gear oil changed/ fulfilled time to time. He will get his car thoroughly serviced on-time.
2) Active is an individual who gets his car repaired on slight recommendation of the mechanic.
3) And reactive is an individual who gets his car repaired after meeting with an accident due to some malfunctioning of the same. In-fact the word re-pair was meant for such an individual. His vehicle gets 'im-paired', so had to be 're-paired'.
Which one of these you are, now find out.
Namas- car....Copy-right
गुरु शिष्य सम्बन्ध — कुछ अनछूए पहलु
शिष्य गुरु को माफ़ नहीं करते...........जीसस को जुदास ने बेचा था, उनके परम शिष्यों में से एक था......ओशो का अमेरिका स्थित कम्यून जो नष्ट हुआ उसमें मा शीला का बड़ा हाथ था....... उनकी सबसे प्रिय शिष्या थी
अक्सर आप देखते हैं कि आप किसी को कोई काम सिखाओ ...वो आप ही के सामने अपनी दूकान सजा कर बैठ जाता है........इसलिए तो सयाने व्यापारी अपने कर्मचारियों के लिए अलग केबिन बनाते है.....खुद से दूर रखते हैं........अपने कारोबार में जितना पर्दा रख सकते हैं, रखते हैं.
गुरु भी समझते हैं इस बात को....वो अक्सर शिष्यों को खूब घिसते हैं, बेंतेहा पिसते हैं ..........कभी कार मिस्त्री के पास काम करने वाले लड़कों को देखो...वो उस्ताद की मार भी खाते हैं और गाली भी और गधों की तरह काम भी करते हैं........उनको काम जो सीखना है और गुरु भी गुरु घंटाल है, उसे भी पता है कि जितना काम ले सकूं, ले लूं.........खुर्राट वकील के पास काम करने वाले नए नए वकीलों को देखो.....उनसे मजदूरों की तरह काम लिया जाता है,.... निपट मजदूरी.....सालों घिसा जाता है उनको
ऑस्कर वाइल्ड मुझे बहुत प्रिय हैं...... पता नहीं मेरे बाल उनसे कुछ मेल खाते हैं इसलिए या ख्याल ......वो एक जगह कहते हैं कि कोई भी बेहतरीन काम बिना सजा पाए रहता नहीं........No good deed remains unpunished.....आप किसी को कुछ सिखाओ ....वो आपको माफ कर दे ऐसा होना बहुत मुश्किल है.....जिसे आप कुछ सिखाओ उसका ईगो...उसका अभिमान आहत हो जाता है...आप उससे ज़्यादा कैसे जानते हैं........हो कौन आप...ठीक है वक्त आने पर आपको औकात दिखा दी जायेगी.....
पढ़ा था कहीं कि पैसे से सक्षम गुरु भी भिक्षा मांगते हैं.....असली गुरु....शिक्षा देते हैं लेकिन फिर साथ में भिक्षा भी मांगते हैं....भिक्षा इसलिए कि जिसे शिक्षा दी गयी है वो जब भिक्षा दे तो उसे लगे कि उसने भी कुछ दिया है बदले में...शिक्षा यूँ ही नहीं ली.........आप देखिये न भिक्षा और शिक्षा दोनों शब्द कितने करीब हैं...सहोदर
सच बात यह है कि आप कभी किसी ढंग की शिक्षा की कीमत चुका ही नहीं सकते....आप जो भी चुकाते हैं वो आपकी चुकाने की सीमा है, न कि उस शिक्षा की कीमत......मिसाल के लिए जिसने भी बल्ब दिया दुनिया को आप उसकी देन की कीमत कैसे चुकायेंगे...सदियों सदियों नहीं चुका सकते,,,,,,जिसने दुनिया को आयुर्वेद दिया उसकी कीमत कैसे चुकायेंगे .....आप दवा की कीमत दे सकते हैं, लेकिन उस के पीछे के ज्ञान की कीमत कैसे चुकायेंगे? सही शिक्षा बेशकीमती है. .
मैं तो गुरु शिष्य सम्बन्धों को पारम्परिक ढंग से नहीं मानता...मेरा मानना है कि हर व्यक्ति गुरु है कहीं, तो कहीं शिष्य है......बहुत लोगों से मैंने सीखा और बहुतों ने मुझ से सीखा....पहले तो लोग मानने को ही तैयार नहीं होते कि उन्होंने आपसे कुछ सीखा है....क्रेडिट देने में ही जान निकल जाती है....यहीं फेसबुक पर ही देख लीजिये......मेरा लिखा अक्सर चुराते हैं और यदि मना करूं तो मुझे ही गरियाते हैं.....क्रेडिट देकर राज़ी नहीं....जो लोग मान भी लेते हैं कि मुझ से कुछ सीखा है उनमें से कुछ के मानने में भी मानने जैसा कुछ है नहीं, वो वक्त पड़ने पर मुझ पर तीर चलाने से नहीं चूकते ......
एक लड़का झुग्गियों में रहता था.....सालों पहले की बात बता रहा हूँ...मेरा दफ्तर था प्रॉपर्टी का......उसे काम पर लगा लिया....कुछ नहीं आता था उसे....साथ रह रह बहुत कुछ सीख गया....आज भी कहता है कि मुझ से सीखा है बहुत कुछ.....लेकिन पीछे उसके ज़रिये कुछ माल खरीदना था.....पट्ठा कमीशन मारने से नहीं चूका......कमीशन लेना गलत नहीं लेकिन उसे मैं अलग से उसके समय की कीमत दे रहा था इसलिए गलत था......महान शिष्य.
एक और मित्रनुमा शत्रु.....दोस्त की खाल में दुश्मन......बहुत कुछ मुझ से सीखा उसने.........जूतों के छोटे मोटे काम में था.......प्रॉपर्टी में आ गया ....आज तक खूब जमा हुआ है लेकिन पीठ पीछे कभी मेरे खिलाफ लात या बात चलाने में नहीं चूका...महान शिष्य.
जब भी कोई मुझे कहता है कि उसने मुझ से बहुत कुछ सीखा है, जीवन बदल गया है, दशा और दिशा सुधर गयी है, मेरा दिल दहल जाता है, पसीने छूट जाते हैं, पैर काँप जाते हैं, नज़र धुंधला जाती है, चींटी भी हाथी नज़र आती है
मैंने ही लिखा था कहीं, “No Guru is real Guru until half the world wants him dead.”कोई गुरु महान नहीं जब तक आधी दुनिया उसकी मौत न चाहती हो.
सिखाने की कीमत चुकानी पड़ती है बाबू मोशाय........
गुरु शिष्य परम्परा बहुत महान मानी जाती है, मैं नहीं कहता कि जो मैंने लिखा है वो ही एक मात्र सच है.....लेकिन वो भी एक सच है .... यह थोड़ा वो पहलु है जो कम ही दीखता है, दिखाया जाता है, सो बन्दा हाज़िर है, अपने फन के साथ, अपने ज़हर उगलते फन के साथ
नमस्कार.....तुषार कोस्मिक.....कॉपी राईट
अक्सर आप देखते हैं कि आप किसी को कोई काम सिखाओ ...वो आप ही के सामने अपनी दूकान सजा कर बैठ जाता है........इसलिए तो सयाने व्यापारी अपने कर्मचारियों के लिए अलग केबिन बनाते है.....खुद से दूर रखते हैं........अपने कारोबार में जितना पर्दा रख सकते हैं, रखते हैं.
गुरु भी समझते हैं इस बात को....वो अक्सर शिष्यों को खूब घिसते हैं, बेंतेहा पिसते हैं ..........कभी कार मिस्त्री के पास काम करने वाले लड़कों को देखो...वो उस्ताद की मार भी खाते हैं और गाली भी और गधों की तरह काम भी करते हैं........उनको काम जो सीखना है और गुरु भी गुरु घंटाल है, उसे भी पता है कि जितना काम ले सकूं, ले लूं.........खुर्राट वकील के पास काम करने वाले नए नए वकीलों को देखो.....उनसे मजदूरों की तरह काम लिया जाता है,.... निपट मजदूरी.....सालों घिसा जाता है उनको
ऑस्कर वाइल्ड मुझे बहुत प्रिय हैं...... पता नहीं मेरे बाल उनसे कुछ मेल खाते हैं इसलिए या ख्याल ......वो एक जगह कहते हैं कि कोई भी बेहतरीन काम बिना सजा पाए रहता नहीं........No good deed remains unpunished.....आप किसी को कुछ सिखाओ ....वो आपको माफ कर दे ऐसा होना बहुत मुश्किल है.....जिसे आप कुछ सिखाओ उसका ईगो...उसका अभिमान आहत हो जाता है...आप उससे ज़्यादा कैसे जानते हैं........हो कौन आप...ठीक है वक्त आने पर आपको औकात दिखा दी जायेगी.....
पढ़ा था कहीं कि पैसे से सक्षम गुरु भी भिक्षा मांगते हैं.....असली गुरु....शिक्षा देते हैं लेकिन फिर साथ में भिक्षा भी मांगते हैं....भिक्षा इसलिए कि जिसे शिक्षा दी गयी है वो जब भिक्षा दे तो उसे लगे कि उसने भी कुछ दिया है बदले में...शिक्षा यूँ ही नहीं ली.........आप देखिये न भिक्षा और शिक्षा दोनों शब्द कितने करीब हैं...सहोदर
सच बात यह है कि आप कभी किसी ढंग की शिक्षा की कीमत चुका ही नहीं सकते....आप जो भी चुकाते हैं वो आपकी चुकाने की सीमा है, न कि उस शिक्षा की कीमत......मिसाल के लिए जिसने भी बल्ब दिया दुनिया को आप उसकी देन की कीमत कैसे चुकायेंगे...सदियों सदियों नहीं चुका सकते,,,,,,जिसने दुनिया को आयुर्वेद दिया उसकी कीमत कैसे चुकायेंगे .....आप दवा की कीमत दे सकते हैं, लेकिन उस के पीछे के ज्ञान की कीमत कैसे चुकायेंगे? सही शिक्षा बेशकीमती है. .
मैं तो गुरु शिष्य सम्बन्धों को पारम्परिक ढंग से नहीं मानता...मेरा मानना है कि हर व्यक्ति गुरु है कहीं, तो कहीं शिष्य है......बहुत लोगों से मैंने सीखा और बहुतों ने मुझ से सीखा....पहले तो लोग मानने को ही तैयार नहीं होते कि उन्होंने आपसे कुछ सीखा है....क्रेडिट देने में ही जान निकल जाती है....यहीं फेसबुक पर ही देख लीजिये......मेरा लिखा अक्सर चुराते हैं और यदि मना करूं तो मुझे ही गरियाते हैं.....क्रेडिट देकर राज़ी नहीं....जो लोग मान भी लेते हैं कि मुझ से कुछ सीखा है उनमें से कुछ के मानने में भी मानने जैसा कुछ है नहीं, वो वक्त पड़ने पर मुझ पर तीर चलाने से नहीं चूकते ......
एक लड़का झुग्गियों में रहता था.....सालों पहले की बात बता रहा हूँ...मेरा दफ्तर था प्रॉपर्टी का......उसे काम पर लगा लिया....कुछ नहीं आता था उसे....साथ रह रह बहुत कुछ सीख गया....आज भी कहता है कि मुझ से सीखा है बहुत कुछ.....लेकिन पीछे उसके ज़रिये कुछ माल खरीदना था.....पट्ठा कमीशन मारने से नहीं चूका......कमीशन लेना गलत नहीं लेकिन उसे मैं अलग से उसके समय की कीमत दे रहा था इसलिए गलत था......महान शिष्य.
एक और मित्रनुमा शत्रु.....दोस्त की खाल में दुश्मन......बहुत कुछ मुझ से सीखा उसने.........जूतों के छोटे मोटे काम में था.......प्रॉपर्टी में आ गया ....आज तक खूब जमा हुआ है लेकिन पीठ पीछे कभी मेरे खिलाफ लात या बात चलाने में नहीं चूका...महान शिष्य.
जब भी कोई मुझे कहता है कि उसने मुझ से बहुत कुछ सीखा है, जीवन बदल गया है, दशा और दिशा सुधर गयी है, मेरा दिल दहल जाता है, पसीने छूट जाते हैं, पैर काँप जाते हैं, नज़र धुंधला जाती है, चींटी भी हाथी नज़र आती है
मैंने ही लिखा था कहीं, “No Guru is real Guru until half the world wants him dead.”कोई गुरु महान नहीं जब तक आधी दुनिया उसकी मौत न चाहती हो.
सिखाने की कीमत चुकानी पड़ती है बाबू मोशाय........
गुरु शिष्य परम्परा बहुत महान मानी जाती है, मैं नहीं कहता कि जो मैंने लिखा है वो ही एक मात्र सच है.....लेकिन वो भी एक सच है .... यह थोड़ा वो पहलु है जो कम ही दीखता है, दिखाया जाता है, सो बन्दा हाज़िर है, अपने फन के साथ, अपने ज़हर उगलते फन के साथ
नमस्कार.....तुषार कोस्मिक.....कॉपी राईट
Monday, 27 July 2015
पुलिस
बहुत रौला रप्पा है दिल्ली पुलिस के बारे में इन दिनों.
रवि नाम का लड़का काम करता था मेरे साथ कुछ साल पहले.....अभी आया दो तीन रोज़ पहले....किसी औरत ने छेड़छाड़ का केस दर्ज़ करवा दिया उस पर.....घबराया था.....मैंने केस पढ़ा एक दम बेजान.....बेतुके आरोप. जैसे किसी ने नशे में जो मन में आया लिख दिया हो...कोई सबूत नहीं.....कोई गवाह नहीं....कोई ऑडियो, विडियो रिकॉर्डिंग नहीं.....और साथ में पैसों के ले-दे का भी ज़िक्र....आरोप कि रवि पैसे वापिस नहीं दे रहा
रवि ने बताया, “भैया, पैसों वाली बात सच है, मैंने इनके पचास हज़ार देने थे. साल भर से ब्याज दे रहा था..अभी नौकरी छूट गयी है सो दो महीने से ब्याज नहीं दे पाया....मैंने बोला दे दूंगा....कुछ इंतेज़ाम होते ही..पर बेसब्री में मेरे घर आकर गाली गलौच कर दी....इसीलिए ये केस दर्ज़ करवा दिया है”
यह किस्सा सुनाने का एक मन्तव्य है. पुलिस के IO (Inspecting Officer) का रोल क्या होना चाहिए? यही न कि जो भी केस उसके हिस्से आये वो उसकी छानबीन करे. यहाँ मालूम क्या छानबीन होती है? पैसे कहाँ से मिल सकते हैं? पैसे कैसे लिए जा सकते हैं? थाने में IO खुद जज, वकील सब बना बैठा होता है. दोनों पार्टियाँ यदि समझौता करने पर राज़ी हो भी जाएँ तब तक फैसला होने नहीं देगा जब तक उसकी खुद की धन पूजा न हो जाए...जान बूझ कर समय खराब करेगा......कभी कहीं चला जाएगा, कभी कहीं.....जितना मानसिक दबाव बना पायेगा, बनाएगा........और कई बार तो किसी अमीर से पैसे लेने के लिए किसी गरीब को खामखाह कूट देगा
एक किस्सा याद आया. एक बार मेरे कजन ने किसी को पीट दिया...वो भी पैसों का ही मामला था....रात को फ़ोन आय मुझे...पहुँच गया मैं.......वहां जिस कमरे में कजन था वहीं कोई गरीब से तीन चार लडके भी फर्श पर बिठाल रखे थे.....मैं जब गया तो मुझ से बात करते करते IO उन लडकों पर डंडे, जूते बरसा रहा था. कुछ ही देर में मैं समझ गया. समझ गया कि मुझ से पैसे झाड़ने को IO दबाव बना रहा है. परोक्ष में मुझे धमकी दे रहा है कि यदि पैसे न मिले तो ऐसे ही मेरे कज़न को भी पीट दिया जाएगा.मैंने कज़न से बात की, उसे समझाया कि IO का क्या जाएगा? रात भर यदि यहीं रहा तो कभी भी हाथ चला सकता है. वो मान गया कि पैसे दे देने चाहिए ......खैर, पैसे दिए गये कज़न थाणे से बाहर हो गया
यह करता है IO. होना तो यह चाहिए कि जैसे रवि के केस में बिना किसी गवाह, सबूत के IO ने केस बनाया है तो केस खारिज होने पर IO पर भी कार्रवाही होनी चाहिए. हर इस तरह के केस जिसमें से IO की गलती दिखे उसकी सैलरी में से कुछ रकम कट कर विक्टिम को मिलनी चाहिए....एक निश्चित समय तक तो मिलनी चाहिए और जो IO बहुत सारे बकवास केस कोर्ट पर थोपता हो उसे निष्कासित कर देना चाहिए. उसे IO बनाया किस लिए गया? झूठे , बेबुनियाद केस थोपने के लिए क्या? नहीं. न. मेरा सुझाव मानेंगे ओ अक्ल आ जायेगी.
दिल्ली पुलिस की तरफ से एक छपता है “शोरा गोगा”. मुझे ठीक ठीक पता नहीं कि इसका मतलब क्या होता है. न पता होने की भी वजह यह है कि पुलिस आज भी अपने काम काज में मुगलकालीन भाषा प्रयोग करती है. वो भी बदलने की जरूरत है. भाषा वो होनी चाहिए जो स्थानीय लोग प्रयोग करते हों. तो बात कर रहा था शोरा गोगा की. यह एक तरह का इश्तिहार होता है जो किसी गुमशुदा की तलाश के लिए या किसी अनजान लाश की शिनाख्त के लिए पुलिस छापती है. यकीन जानो इतनी बकवास ब्लैक एंड वाइट फोटो छपती है कि खुद जिसकी फोटो है वो भी न पहचान सके.
मुझे आज तक समझ नहीं आई कि जब किसी संदिग्ध को पकड़ने का इश्तिहार छापा जाता है तो उमें स्केच के आधार पर आम फोटो कैसे नहीं बनाई जा सकती...स्केच भी दे दें, उससे ही बनी विभिन्न तरह की फोटो भी
मुझे आज तक समझ नहीं आया कि जब पुलिस वालों की भर्ती होती है तो उनकी शारीरिक फिटनेस देखते हैं, वैसा हर साल क्यूँ नहीं किया जाता? क्या कुछ ही सालों में रिश्वत खाए, तोंद फुलाए पुलिस वालों को बर्खास्त नहीं कर देना चाहिए? क्या फिटनेस की ज़रुरत शुरू में ही होती है?
रवि नाम का लड़का काम करता था मेरे साथ कुछ साल पहले.....अभी आया दो तीन रोज़ पहले....किसी औरत ने छेड़छाड़ का केस दर्ज़ करवा दिया उस पर.....घबराया था.....मैंने केस पढ़ा एक दम बेजान.....बेतुके आरोप. जैसे किसी ने नशे में जो मन में आया लिख दिया हो...कोई सबूत नहीं.....कोई गवाह नहीं....कोई ऑडियो, विडियो रिकॉर्डिंग नहीं.....और साथ में पैसों के ले-दे का भी ज़िक्र....आरोप कि रवि पैसे वापिस नहीं दे रहा
रवि ने बताया, “भैया, पैसों वाली बात सच है, मैंने इनके पचास हज़ार देने थे. साल भर से ब्याज दे रहा था..अभी नौकरी छूट गयी है सो दो महीने से ब्याज नहीं दे पाया....मैंने बोला दे दूंगा....कुछ इंतेज़ाम होते ही..पर बेसब्री में मेरे घर आकर गाली गलौच कर दी....इसीलिए ये केस दर्ज़ करवा दिया है”
यह किस्सा सुनाने का एक मन्तव्य है. पुलिस के IO (Inspecting Officer) का रोल क्या होना चाहिए? यही न कि जो भी केस उसके हिस्से आये वो उसकी छानबीन करे. यहाँ मालूम क्या छानबीन होती है? पैसे कहाँ से मिल सकते हैं? पैसे कैसे लिए जा सकते हैं? थाने में IO खुद जज, वकील सब बना बैठा होता है. दोनों पार्टियाँ यदि समझौता करने पर राज़ी हो भी जाएँ तब तक फैसला होने नहीं देगा जब तक उसकी खुद की धन पूजा न हो जाए...जान बूझ कर समय खराब करेगा......कभी कहीं चला जाएगा, कभी कहीं.....जितना मानसिक दबाव बना पायेगा, बनाएगा........और कई बार तो किसी अमीर से पैसे लेने के लिए किसी गरीब को खामखाह कूट देगा
एक किस्सा याद आया. एक बार मेरे कजन ने किसी को पीट दिया...वो भी पैसों का ही मामला था....रात को फ़ोन आय मुझे...पहुँच गया मैं.......वहां जिस कमरे में कजन था वहीं कोई गरीब से तीन चार लडके भी फर्श पर बिठाल रखे थे.....मैं जब गया तो मुझ से बात करते करते IO उन लडकों पर डंडे, जूते बरसा रहा था. कुछ ही देर में मैं समझ गया. समझ गया कि मुझ से पैसे झाड़ने को IO दबाव बना रहा है. परोक्ष में मुझे धमकी दे रहा है कि यदि पैसे न मिले तो ऐसे ही मेरे कज़न को भी पीट दिया जाएगा.मैंने कज़न से बात की, उसे समझाया कि IO का क्या जाएगा? रात भर यदि यहीं रहा तो कभी भी हाथ चला सकता है. वो मान गया कि पैसे दे देने चाहिए ......खैर, पैसे दिए गये कज़न थाणे से बाहर हो गया
यह करता है IO. होना तो यह चाहिए कि जैसे रवि के केस में बिना किसी गवाह, सबूत के IO ने केस बनाया है तो केस खारिज होने पर IO पर भी कार्रवाही होनी चाहिए. हर इस तरह के केस जिसमें से IO की गलती दिखे उसकी सैलरी में से कुछ रकम कट कर विक्टिम को मिलनी चाहिए....एक निश्चित समय तक तो मिलनी चाहिए और जो IO बहुत सारे बकवास केस कोर्ट पर थोपता हो उसे निष्कासित कर देना चाहिए. उसे IO बनाया किस लिए गया? झूठे , बेबुनियाद केस थोपने के लिए क्या? नहीं. न. मेरा सुझाव मानेंगे ओ अक्ल आ जायेगी.
दिल्ली पुलिस की तरफ से एक छपता है “शोरा गोगा”. मुझे ठीक ठीक पता नहीं कि इसका मतलब क्या होता है. न पता होने की भी वजह यह है कि पुलिस आज भी अपने काम काज में मुगलकालीन भाषा प्रयोग करती है. वो भी बदलने की जरूरत है. भाषा वो होनी चाहिए जो स्थानीय लोग प्रयोग करते हों. तो बात कर रहा था शोरा गोगा की. यह एक तरह का इश्तिहार होता है जो किसी गुमशुदा की तलाश के लिए या किसी अनजान लाश की शिनाख्त के लिए पुलिस छापती है. यकीन जानो इतनी बकवास ब्लैक एंड वाइट फोटो छपती है कि खुद जिसकी फोटो है वो भी न पहचान सके.
मुझे आज तक समझ नहीं आई कि जब किसी संदिग्ध को पकड़ने का इश्तिहार छापा जाता है तो उमें स्केच के आधार पर आम फोटो कैसे नहीं बनाई जा सकती...स्केच भी दे दें, उससे ही बनी विभिन्न तरह की फोटो भी
मुझे आज तक समझ नहीं आया कि जब पुलिस वालों की भर्ती होती है तो उनकी शारीरिक फिटनेस देखते हैं, वैसा हर साल क्यूँ नहीं किया जाता? क्या कुछ ही सालों में रिश्वत खाए, तोंद फुलाए पुलिस वालों को बर्खास्त नहीं कर देना चाहिए? क्या फिटनेस की ज़रुरत शुरू में ही होती है?
Friday, 24 July 2015
मेरी भोजन यात्रा
यात्रा वृतांत पढ़े होंगे, सुने होंगे आपने. आज भोजन वृतांत पढ़िए. यात्रा वृतांत जैसा ही है, बस फोकस भोजन पर है ...भोजन यात्रा ..मेरी भोजन यात्रा .....मन्तव्य मात्र पीना-खाना है और मेरे जीवन में आपको खुद के जीवन की झलकियाँ दिखाना है. चलिए फिर, चलते हैं.
कहते हैं आदमी के दिल का रास्ता पेट से हो के गुजरता है... सही है ..... वैसे दिल के दौरे का रास्ता भी पेट से ही हो के गुजरता है और दिल का रास्ता पेट की बजाए पेट के थोड़ा नीचे से शोर्ट कट है. सीक्रेट है थोड़ा, लेकिन है.
बचपने में बासी रोटी को पानी की छींट से हल्की गीली करके लाल मिर्च और नमक छिड़क कर दूसरी रोटी से रगड़ कर खाना याद है. और याद है रोटी खाना पानी में नमक और लाल मिर्च घोल के साथ ..हमारे घर में खाने-पीने की कभी कमी तो नहीं रही लेकिन वहां बठिंडा में कभी-कभी ऐसे भी खाते थे....एक बार घर से लड़ कर वहीं एक फैक्ट्री में मजदूरी की दिन भर, मजदूरों के साथ बैठ खाना खाया, अचार, हरी मिर्च और प्याज़ के साथ ...वो भी कभी भूला नहीं.
आज भोजन-भट्ट तो नहीं हूँ लेकिन थोड़ा ज़्यादा खा जाता हूँ लेकिन जो खाता हूँ अच्छा खाता हूँ...कहते हैं थोड़ा खाओ, अच्छा खाओ......मैं इस कहावत का आखिरी आधा हिस्सा ही अपना पाता हूँ.
चांदनी चौक, फतेहपुरी मस्जिद के ठीक साथ एक मिठाई की दूकान है…चैना राम हलवाई…मैं पहली बार वहाँ तब गया जब टाइम्स फ़ूड गाइड या शायद किसी और अखबार की फ़ूड गाइड में इनका नाम पढ़ा … दिल्ली के सर्वश्रेष्ठ हलवाई का खिताब दिया गया था इनको. वो भी एक बार नहीं कई बार.....एक बार गए तो फिर बहुत बार जाना हुआ वहां.....खूब मिठाई लाते रहे, खाते रहे...अभी पीछे गए तो रात ज़्यादा हो चुकी थी, वो दूकान बंद थी लेकिन उसके साथ ही एक जैन स्वीट्स नाम से दूकान है, वो खुली थी ....फतेहपुरी मस्ज़िद के गेट के एक तरफ चैना राम है तो दूसरी तरफ जैन .......मुझे सूझा कि इनसे ही कुछ मिठाई ली जाए.......शुरू की तो लेते चले गए....कोई आठ-दस तरह की मिठाई ले ली गई....बड़ी बेटी को काजू कतली पसंद है, तो छोटी वाली का मन इमरती पर आ गया...मैं ढोढा पसंद से खाता हूँ.....श्रीमती जी ने कोई मेवों से बनी मिठाई ले ली.....खैर, कार घर की तरफ चलती रही और हम सब लोग एक-एक कर अलग-अलग मिठाई खाते रहे.........और सबका अंत में फैसला यही था कि जैन वालों की मिठाई चाइना राम से बेहतर थी.
अभी पीछे जाना हुआ, जेल रोड, वहां ओम स्वीट वालों ने ये बड़ा मिठाई भंडार खोल रखा है, शो रूम टाइप.....ये ओम स्वीट कभी गुडगाँव में हुआ करता था.....जब पहली बार इनका नाम सुना था तो गाड़ी उठा स्पेशल गुडगाँव ढोढा लेने गये थे...लेकिन अब लगा कि जैन के ढोढा के आगे इनका ढोढा बकवास था.
जैन और चैना राम, दोनों देसी घी की मिठाई बनाते हैं...आपको साफ़ समझ आ जायेगा कि देसी घी मात्र छिड़का नहीं गया...खुल कर प्रयोग किया गया है और मेवे मात्र दिखाने को नहीं, खिलाने को डाले गए हैं. इनके रेट हल्दी राम और बीकानेर वालों से कहीं कम हैं और क्वालिटी कहीं बेहतर.
ये लोग कराची हलवा भी बनाते हैं...किसी जमाने में हलवाई शायद अपने हलवों की वजह से जाने जाते होंगे...तभी नाम हो गया हलवाई........उसी तरह कराची शहर का हलवा मशहूर होगा.....तो शहर के नाम से कराची हलवा मशहूर हो गया.
एक समय था, हम लोग खाने-पीने के नए-नए ठिकाने ढूंढते थे......HT Food Guide और Times Guide ले दिल्ली की गलियां छानते रहते....लोग हमें विदेश से आया समझते...कुछ मेरे लम्बे बालों की वजह से भी.
इसी दौर में अजमेरी गेट इलाके में कोई दो कुल्फी बनाने वालों के पास भी पहुंचे....वो लोग सैंकड़ों तरह की कुल्फी बनाते थे....पञ्चतारा होटलों और बड़ी शादियों में सप्लाई थी उनकी.......हम ने बहाना किया कि घर में शादी है, सो सैंपल taste कराओ ....पैसे ले के खिलाया, लेकिन खिला दिया......बहुत सी कुल्फीयां .....ऐसी जैसी जल्दी से और कहीं नहीं मिलतीं....शायद कूड़ा मल्ल नाम था उनमें से एक का.
एक जमाना था निरुला का नाम था, हम लोग ख़ास कनाट प्लेस जाते उनकी आइस क्रीम खाने.....फिर उनके रेस्तरां में खाना खाने लगे....मुझे उनकी पनीर मकखनी जो कुछ कुछ शाही पनीर जैसी थी, आज भी याद है, उसके जैसी उस तरह की पनीर की डिश और कहीं नहीं मिली...फिर निरुला खो ही गया....अभी दीखता है कहीं-कहीं लेकिन अब जाना नहीं हुआ, लम्बा समय बीत चुका.
मौर्या शेरटन में 'बुखारा' नाम से है एक रेस्तरां...वहां की 'दाल बुखारा' का बहुत नाम है और नाम बिलकुल सही है .......दम है उनकी दाल में...शायद मंदी आंच पर बीस या चौबीस घंटे रिझाते हैं दाल को....अलग ही फ्लेवर है उनकी दाल का......लेकिन एक बात जो खटकती थी वो यह कि खाना परोसने वाले और जूठे बर्तन उठाने वाले अलग-अलग नहीं थे...अब तो पता नहीं ऐसा है कि नहीं, जब हम जाते थे तब ऐसा ही था.
आज जो वेज कबाब का चलन हो गया है....छोटे बड़े ठिकाने खुल गए हैं जगह जगह .....कोई दसेक साल पहले नहीं था ऐसा......हम लोग रैडिसन जाया करते थे.....एअरपोर्ट के पास वाले....काफी ड्राइव हो जाती थी लेकिन जाते थे.......कबाब फैक्ट्री .....वो लोग एक फिक्स अमाउंट में जितना खा सको उतना देते जाते थे.......पहले खूब सारा कबाब, फिर दो तरह की दाल के साथ रोटी...फिर अंत में मीठा.......इनका खाना मुझे सर्वश्रेष्ठ लगता था....चूँकि मैं कबाब का शौक़ीन था...कई बार जाना हुआ.... लेकिन एक बार देखा कि लॉबी में उन्होंने एक बड़ा सा कालीन बिछाया था वो मैला था, पञ्चतारा के हिसाब से सही नहीं लगा ...बाद में तो इनकी कबाब फैक्ट्री पंजाबी बाग भी खुल गयी ..गए भी वहां, लेकिन वो मज़ा कभी नहीं आया जो रैडिसन होटल जा कर आता था.
कोई पन्द्रह साल हो गये मांस खाना छोड़े हुए......मैंने छोड़ा तो हमारे घर में सबने छोड़ दिया....जब खाते थे तो जामा मस्ज़िद के पास “करीम” कई बार जाना हुआ....फिर इनका ही एक और रेस्तरां निजामुद्दीन ...वहां भी जाना हुआ.......लेकिन जामा मस्ज़िद वाला ही सही लगता था..... मटन मसाला ...बेहद स्वादिष्ट.
“अथोर्टी वाला गुल्लू”. इसका बनाया मीट भी ज़बरदस्त.
गोल मार्किट में ‘गेलिना’ करके एक रेस्तरां....यहाँ का चिकेन....स्वाद तो बहुत नहीं था लेकिन औरों के मुकाबले सस्ता था
और यहीं घर के पास क्लब रोड, पंजाबी बाग़ पर 'चावला चिकन'.....कोई जवाब नहीं ...वाह!
जामा मस्ज़िद के पास ही बचपने मिएँ खाए चिकन के पकोड़े भी याद हैं.
एक बार तो तीतर बटेर मँगा कर घर बनवाए......शायद चोरी-छुपे बिकते थे...स्वाद कुछ अलग नहीं लगा..चिकन जैसा ही शायद कुछ.
मछली बहुत नहीं खाई...शायद गंध की वजह से....शायद बनानी नहीं आती थी हमें......शायद खरीदनी भी नहीं आती थी.
खूब गाढ़े लहसुन, प्याज़, अदरक के मसाले में अक्सर गुर्दे कलेजी हमारे घर में बनती थी...मटन, चिकन से ज़्यादा.
कुदरत ने स्वाद के साथ जानवर की हिंसा न रखी होती तो कभी नहीं छोड़ता मीट खाना......जो लोग मांस खाना छोड़ देते हैं, उन्ही के लिए सोयाबीन चांप का आविष्कार हुआ लगता है. वैसे ही शक्ल दी जाती है जैसे मुर्गे की टांग हो, लकड़ी की डंडी भी बीच में इसीलिए लगाई जाती है कि खाने वाले को हड्डी की कमी न महसूस हो, ऊपर से लाल रंग भी किया होता है चांप को. इडियट....खाने वाले भी खिलाने वाले भी. छोड़ दिया तो छोड़ दिया मांस खाना. इस तरह की बेवकूफियों में क्या रखा है? वैसे मेरा मानना है कि भविष्य में वैज्ञानिक हुबहू मांस जैसा स्वाद लैब में तैयार आकर लेंगे. कितना सही होगा, कितना गलत भविष्य ही बताएगा.
अब नहीं खाता मांस मछली ...लेकिन मेरी भोजन यात्रा में यह सब भी शामिल तो है ही.
कुछ लोग सडक पर रेहड़ी लगाते-लगाते करोडपति हो गए...आप भी ऐसे लोगों को जानते होंगे....यहीं रानी बाग में 'बिट्टू टिक्की वाला' ऐसे ही लोगों में से है .....अब तो और भी बहुत कुछ बनाता है, बेचता है लेकिन मेरे ख्याल से उसकी टिक्की ही जानदार है बस. लेकिन फिर भी चांदनी चौक वाले नटराज वाले से बेहतर नहीं. हम चांदनी चौक जाते हैं तो हमारा एक ठीया 'नटराज टिकी-भल्ले वाला' भी है. इसके मुकाबले हमें भारत नगर का भल्ले वाला भी पसंद नहीं.
चांदनी चौक से ही याद आया......कुछ लोग ख्वाह-मखाह भी मशहूर हो जाते हैं......फतेहपुरी में ज्ञानी फलूदा वाले के साथ ही एक नान वाला है, वो बहुत बड़े साइज़ के नान बनाता है......वो मशहूर इसीलिए है कि बड़े नान बनाता है ...अब समझने की बात यह है कि मात्र साइज़ में बड़े होने से ही कोई खाने की चीज़ बढ़िया कैसे हो गई? यकीन मानिये एक नम्बर का बकवास खाना है इसका, लेकिन फिर भी मशहूर है. यही हाल परांठे वाली गली का है. पहली बात, इन के परांठे परांठे है ही नहीं. ये डीप फ्राई की हुई पूड़ियाँ हैं. बड़ी सी. दूसरी बात, जो हैं भी, जैसी भी हैं, बकवास हैं. तीसरी बात, सब्ज़ियाँ भी कोई ख़ास स्वाद नहीं. बैठने तक की ढंग की जगह नहीं. लकड़ी के फट्टे जैसे बेंच. छोटी-छोटी सी जगहें. रेट भी वाजिब नहीं हैं. परांठों के नाम पर कलंक हैं इन के परांठे. सिर्फ चाँदनी चौक के नाम पर बिक रहे हैं. ऊंची दूकान, फीका पकवान. खैर, इन की तो दूकान भी ऊँची नहीं हैं. हां,नाम ऊंचा है, बेवजह ऊंचा है.
एक बार किसी ने बताया कि 'गुच्छियाँ' करके कोई सब्जी होती है,. फतेहपुरी से मिली, बहुत ढूँढने के बाद. बहुत मंहगी......सब्ज़ी के हिसाब से बहुत ज़्यादा महंगी....शायद दो बार या तीन बार मंगवाई........स्वाद अच्छा बनता था, फिर दिमाग से उतर गयी....आज लिखने बैठा तो याद आ गईं.
कनाट प्लेस में शिवाजी स्टेडियम बस अड्डे पर एक कढी चावल वाला है....अक्सर वहां भी पहुंचना हो जाता है....कोई ख़ास नहीं है खाना...लेकिन कढी चावल और कहीं आसानी से मिलते नहीं..... भीड़ लगी रहती है वहां.
"आप क्या चूक रहे हैं आपको तब तक पता नहीं लगता जब तक आपने उसका स्वाद न लिया हो"
मैंने तकरीबन बीस साल की उम्र तक कोई साउथ इंडियन खाना नहीं खाया था...वहां पंजाब में उन दिनों यह होता ही नहीं था, बठिंडा में तो नहीं था.....यहाँ दिल्ली आया तो खाया.
मुझे इनका अनियन उत्तपम जो स्वाद लगा तो बस लग गया........कनौट प्लेस में मद्रास होटल हमारा ख़ास ठिकाना हुआ करता था, सादा सा होटल, नंगे पैर घूमते बैरे. आपको सांबर माँगना नहीं पड़ता था... खत्म होने से पहले ही कटोरे भर जाते थे, गरमा गर्म....वो माहौल, वो सांबर, वो बैरे..वो सब कुछ आज भी आँखों के आगे सजीव है.......मद्रास होटल अब बंद हो चुका है......वैसा दक्षिण भारतीय खाना फिर नहीं मिला.....फ़िर 'श्रवण भवन' जाते थे, कनाट प्लेस भी और करोल बाग भी, लेकिन कुछ ख़ास नहीं जंचा...... अब 'सागर रत्न' रेस्तरां मेरे घर के बिलकुल साथ है...मुझे नहीं जमता.
खैर, आज भी डबल-ट्रिपल प्याज़ डलवा कर तैयार करवाता हूँ.....उत्तपम क्या बस, प्याज़ से भरपूर परांठा ही बनवा लेता हूँ.....और खूब मज़े से आधा घंटा लगा खाता हूँ......अंत तक सांबर चलता रहता है साथ में......और अक्सर सोचता हूँ कि काश पहले खाया होता, अब शायद हों वहां बठिंडा में डोसा कार्नर, मैंने तो अभी भी नहीं देखे.
यहाँ उत्तर भारत में हम लोग दक्षिण के खाने के नाम पर मात्र डोसा वडा ही समझते हैं लेकिन मुंबई में वहां थाली में छोटी छोटी बहुत सी कटोरियों में अलग-अलग डिश देते हैं, उसी में मीठा भी, वो भी एक तजुर्बा लेने लायक है.
छोले भठूरे मुझे न पहाड़गंज वाले सीता राम के पसंद आये, न शादीपुर डिपो वाले 'आओ जी पेस्ट्री' के और न ही देव नगर में ओम के .......वो तो एक बार श्रीमती जी ने घर बनाए थे...बहुत पहले, वैसे कहीं नहीं खाए ..लेकिन श्रम काफी हो जाता है, न हमें घर बनवाना याद आया, न उन्होंने याद दिलाया.
गफ्फार मार्किट जब भी जाना होता है, वहां MCD मार्किट के बाहर एक मटर कुलचे वाला खड़ा होता है..मजाल है हमारी कि बिना खाए वहां से निकल लें......मटर पर खूब सारा नीबूं निचोड़ा जाता है और साथ में अचार ताज़ा हरी मिर्च और आम का .....वाह!
गुरद्वारे जाना होता है कई बार, बंगला साहेब.....पत्नी या किसी रिश्तेदार की डिमांड पर...मेरी रूचि मात्र कड़ाह प्रसाद में होती है ....कड़ाह प्रसाद का जवाब नहीं....वो आज कल बहुत कम कम देने लगे हैं, लेकिन फिर भी मैं दो तीन बार ले लेता हूँ.....लंगर खाते हैं लेकिन मुझे कुछ सही नहीं लगता.....जो खाना वहां परोसा जाता है, वैसा खाना घरों में आजकल शायद ही कोई खाता हो. सूखा आटा लगी मोटी रोटियां, सादी सादी दाल, सब्ज़ी. और जब तक दाल/सब्ज़ी मिलती है, रोटी ठंडी हो जाते है और रोटी मिलती है तो दाल/ सब्ज़ी ठंडी हो जाती है. ऊपर से उनका एक सिस्टम है कि जब तक हाल में बैठे आखिरी व्यक्ति को सर्व नहीं हो जायेगा, पहला व्यक्ति नहीं खायेगा.....सब खाना ठंडा हो जाता है इस तरह से.....बहुत बदलाव की ज़रुरत है वहां ....कोई पञ्च-तारा खाने की अपेक्षा नहीं कर रहा लेकिन आम घरों में जैसा खाना होता है कम से कम वैसा स्तर तो रखना ही चाहिए. और थाली तक आते और फिर थाली से मुंह तक आते आते खाना ठंडा न हो जाए, इसका भी ख्याल रखना चाहिए.
पञ्च-तारा याद करता हूँ तो हयात होटल में बफे सिस्टम में खाया याद आ रहा है लेकिन शायद क्वालिटी याद करने लायक नहीं है कुछ.
'गोला सिज्लेर' याद आ गया, भूल गया था....सबसे पहले ओडियन सिनेमा के साथ वाले में जाना होता था.......फिर डिफेन्स कॉलोनी.....फिर राजौरी गार्डन वाले ...वो प्लेट में डिश आती है धुंआ छोड़ती हुई.....सिज्ज्लेर........शूं शूं करती हुई...स्वादिष्ट है खाना.
कनाट प्लेस में ही परिक्रमा रेस्तरां हुआ करता था.....पता नहीं अब है कि नहीं.......ऊपर गोल घूमता था, दिल्ली दिखती थी वहां से.......बहुत टाइट जगह थी.......खाना ठीक-ठाक था.
बहुत से रेस्तरां अपनी तरह का थीम लिए होते हों.....बदलाव के लिए अच्छा लगता है...जैसे कनाट प्लेस में ही एक रेस्तरां है, जो काऊबॉय थीम पर आधारित है, मेक्सिकन खाना मिलता है. खाना और थीम दोनों बढ़िया हैं. वहीं क्लारिजेज़ होटल में एक रेस्तरां है जिसमें उन्होंने आधा ट्रक ही दीवार पर बना रखा है, खाना देसी, उत्तर भारतीय, पंजाबी. मुंबई गये तो वहां पहली बार देखा रेस्तरां में वेटर नंगे पाँव घूम रहे थे...कई रेस्तरां में गज़ल गायकों को बिठाने का भी चलन है, ख़ास करके पञ्च-तारा में. अलग अलग थीम होते हैं अक्सर.
चीनी खाने का बहुत शौक़ीन नहीं हूँ. आपको खाना ही हो तो कनाट प्लेस स्थित BERCO’S जा सकते हैं.....हम गए हैं दो तीन बार....इन्हीं का एक रेस्तरां पश्चिमी दिल्ली जनक पुरी डिस्ट्रिक्ट सेंटर भी है......जनकपुरी वाला ज़्यादा खुला-खुला था ...अब का मालूम नहीं, क्या हाल है.
हाँ, भूल ही गया था, एक पाकिस्तानी कम्पनी है “शान”. अचार बनाती है. इनके बनाये अचार, तौबा! इनका पता लगा था हमें ट्रेड फेयर से......इनका हैदराबादी अचार...वैसा अचार शायद ही कोई दूसरा हो दुनिया में. और एक लहसुन का अचार. वो हम लहसुन की वजह से भी खाते हैं.......कोई मुकाबला नहीं दूर दूर तक........ये अमृतसरी अचार और पानीपत अचार वाले नौसीखिए हैं इनके सामने... इनका एक ठिकाना था ‘प्रेम आयल’ करके फतेहपुरी में, फिर तो हमने वहां से भी लिए इनके अचार कई बार.
ट्रेड फेयर से याद आया....यहाँ का खाना महंगा और बकवास होता है. जगह बहुत बड़ी है, पैदल घूम-घूम हालत पतली हो जाती है, भूख तो लग ही जाती है, और वो भी ज़बरदस्त .....पहले पंजाब पवेलियन की छत्त पर मक्की की रोटी और साग मिलता था, बहुत बढ़िया तो नहीं थी क्वालिटी लेकिन फिर भी खाने लायक थी और पूरे प्रगति मैदान में मिल रहे बाकी खानों के मुकाबले अच्छी थी. अब पिछली बार देखा तो वहां वो मिलना भी बंद हो चुका था. मुझे और कुछ याद करने लायक बस बिहार का लिट्टी चोखा और अनरसा लगता है...अनरसा एक तरह की मिठाई है जो चावल के आटे, तिल, खोये और गुड/चीनी से बनाई जाती है ..... वहां वो लोग हमारे सामने बना रहे होते हैं ...ताज़ा...ट्रेड फेयर में मैं कभी मिस नहीं करता अनरसा और बाद में बहुत मिस करता हूँ अनरसा ...और हाँ, कश्मीर पवेलियन में पीया काहवा भी याद आया, यह एक गर्म ड्रिंक है, जिसमें पीस कर काजू बादाम डाले जाते हैं, स्वाद भी और सेहत भी..इस काहवा से ही प्रेरित हो कर मैंने अपने लिए हॉट ड्रिंक बनाई है....बहुत सारे देसी मसाले......दालचीनी, लौंग, इलायची छोटी बड़ी दोनों, सौंफ, सौंठ, पिसे काजू, बादाम तथा और भी बहुत कुछ.
एक बार उत्तराँचल का टूर किया था....पन्द्रह दिन...सपरिवार....अपनी कार से घूमते रहे.....यादगार....अलग से किसी आर्टिकल में लिखूंगा....अभी बस इतना ही कि पूरी यात्रा में एक ही दाल मिलती रही रेस्तराओं पर...शायद उसे तुअर की दाल कहते हैं.....पसंद भी आई...लेकिन यहाँ दिल्ली में फिर कभी ख्याल में ही न रही.
पानीपत जाना होता है अक्सर. मुरथल वाले ढाबे.....मशहूर हैं...एक साथ सटे हैं ....ये अब ढाबे कम और रेस्तरां ज़्यादा हैं....... एयर कंडिशन्ड ....साफ़ सुथरे......खाना ठीक है......सब पे तो नहीं खाया, लेकिन जिन पर खाया बढ़िया लगा.... 'अमरीक सुखदेव', अपने नाम के हिसाब से वैल्यू दे देता है आपको. जब उस रास्ते पर हो तो ज़रूर खाएं.
दिल्ली से पानीपत को जाओ तो वहीं थोड़ा सा ही आगे 'बर्फी वाला' है .....ये वहीं बर्फी बना रहे होते हैं, आपकी आँखों के सामने....हल्के ब्राउन रंग की है इनकी बर्फी...जैसे दूध को बहुत ज़्यादा काढ़ा गया हो.......काबिले तारीफ़ है ... ये लोग लस्सी भी बेचते हैं....लस्सी क्या है, निरी दही होती है, बहुत गाढ़ी.....मज़ा आ जाता है.
आम शादियों या शादियों जैसे प्रोग्रामों में खाने का कतई मज़ा नहीं आता...खड़े हो खाओ.....एक ही प्लेट में सब....दाल पनीर से गले मिलने लगती है तो छोले मिक्स वेज पर डोरे डालने लगते हैं. कई शादियाँ अटेंड की......ये बड़ी........कुछ फ़ार्म हाउस में भी........या बड़े लॉन में ......बहुत अच्छा लगता है खुला खुला....अभी कुछ साल पहले अलवर में एक शादी अटेंड की.....शहर के बाहर कोई पहाड़ी पर था लॉन......रात को बहुत अच्छा माहौल बना वहां...ठंडा ठंडा.......ज़ेहन से उतरा ही नहीं........खाने के साथ-साथ बाकी इंतेज़ाम कैसा है, वो भी बहुत माने रखता है.
Veena Sharma से मिला एक बार उनके घर पर, हो गए शायद पांच-छः साल के करीब, उनके खिलाये पकोड़े याद हैं, वजह है मिलने की खुशी का पकोड़ों में मिला होना.
अब इस सारी यात्रा में मैने पिज़्ज़ा हट, डोमिनो’ज़ पिज़्ज़ा, मैक-डोनाल्ड के बर्गर का ज़िक्र क्यों नहीं किया? सिंपल. मेरा जाना हुआ है, खाना भी हुआ है लेकिन मैं इनको खाने लायक ही नहीं मानता.
मेरा दावा है कि बास्किन रोब्बिंस की आइस क्रीम हो, चाहे डंकिनज़ के डोनट हों, चाहे मैक-डोनाल्ड का बर्गर, या फिर डोमिनोज़ का पिज़्ज़ा, इन सब को अधिकांश कुत्ते तक खाने से इनकार कर देंगे...वजह है.....वजह है कि इनका दिमाग ब्रांडिंग के नाम पर की जाने वाली ब्रेन-वाशिंग से अभी अछूता है.
बस ऐसे ही खाते-खिलाते बहुत कुछ सीखा खाने के बारे में.
एक कहावत है, मैं अंडा नहीं दे सकता लेकिन आमलेट के बारे में मुर्गी से ज़्यादा जानता हूँ ...मैं न तो आमलेट बना सकता हूँ और न ही चाय लेकिन खाने की विद्या यदि साठ प्रतिशत श्रीमती जी मायके से लायीं थी तो बाकी मेरे साथ रह कर सीखी होंगी......वैसे वक्त के साथ सीखने वाला यूँ ही सीखता जाता है......खाना अच्छा बनाती हैं, बहुत ही अच्छा ........नहीं कभी अच्छा लगता तो बोल देता हूँ और अच्छा बना होता है तो वो तो ज़रूर बोलता हूँ....आज भी करेले बने थे भरपूर तारीफ की...साथ में अगली बार करेलों की सब्ज़ी के साथ मूंगी की दाल बनाना भी याद दिलाया......हम ऐसा अक्सर करते हैं...करेलों के साथ धोई मूंगी की दाल.
मेरे पिता जी गुज़रे तो सात साल तक उनकी बरसी मनाई हमने......हर साल भोज......भोज क्या महा-भोज, माँ का हुक्म था, बजाया. जिन्होंने खाने का काम शुरू करना होता है उनको अक्सर कहते सुना है मैंने कि कारीगर ख़ास होना चाहिए, बढ़िया होना चाहिए. मेरा मानना है कि आप एक आम रसोईये से भी बेहतरीन खाना बनवा सकते हो बशर्ते आपको पता हो कि बनवाना कैसे है......मैंने अपने रसोइये को पहली बार जब बुलवाया तो उससे सारे समान की लिस्ट ले ली.....प्याज़, टमाटर, लहसुन, अदरक आदि उसने जितने लिखवाये थे वो लगभग डबल कर दिए.....हर दाल सब्ज़ी और खीर आदि के लिए खूब काजू, बादाम आदि मंगवा लिए.....वो कहे, "बाबू जी दाल में कहाँ कोई बादाम डलते हैं?", मैं कहूं."तू डाल, जब दाल मना करेगी तो नहीं डालेंगे?" लोग आज भी वो खाना याद करते हैं. आप मुझे बुलवा सकते हैं यदि कभी खाना बनवाना हो. मेवे मंगवा लीजिये और अपनी आँखों के सामने खाने में डलवा दीजिये, दाल में, मिक्स वेज में, पनीर में, खीर में, लगभग हर डिश में
कहीं पढ़ा था कि एक बार एक इलाके में सूखा पड़ गया लोग खाने को मोह्ताज़ हो गये...बादशाह ने अपनी रसोई से खाना बनवाना शुरू किया. अब चूँकि बहुत लोगों का खाना बनाना होता था तो रसोइओं ने एक ही कडाही में चावल और सब्जियां डालनी शुरू कर दी....लोगों को जो स्वाद लगा तो आज तक लगा हुआ है ...बिरयानी आविष्कृत हो गई.
घर पर आप नए-नए तजुर्बे कर सकते हैं, हर डिश ऐसे ही इन्वेंट हुए होगी... हो सकता है आपके बहुत तजुर्बे फेल हों और आपका बनाया खाना आपका कुत्ता भी खाने से इनकार कर दे लेकिन ‘हम होंगे कामयाब’ नारा बुलंद रखिये, याद रखिये..... जब हो जाएँ कामयाब तो मुझे याद रखिये...ज़्यादा कुछ नहीं बस वो कामयाब डिश खिला दीजिये.
स्वादिष्ट नमन....कॉपी राईट....आर्टिकल खाएं न.....शेयर करें.
Tuesday, 21 July 2015
कानूनी दाँव पेंच
एक समय था मुझे कानून की ABCD नहीं पता थी.......सुना था कि कचहरी और अस्पताल से भगवान दुश्मन को भी दूर रखे.......लोगों की उम्रें निकल जाती हैं........जवानी से बुढापे और बुढापे से लाश में तब्दील हो जाते हैं और जज सिर्फ तारीखें दे रहे होते हैं
लेकिन मेरा जीवन.....मुझे कचहरी के चक्कर में पड़ना था सो पड़ गया .........शुरू में वकील से बात भी नहीं कर पाता था ठीक से.....वकील की बात को समझने की कोशिश करता लेकिन समझ नहीं पाता...जैसे डॉक्टर की लिखत को आप समझना चाहें भी तो नहीं समझ पाते वैसे ही वकील की बात का कोई मुंह सर निकालना चाहते हुए भी नहीं निकाल पाता
एक वकील से असंतुष्ट हुआ, अधर में ही उसे छोड़ दूसरा पकड़ा......वो भी समझ नहीं आया ..तीसरा पकड़ा......कुछ पता नहीं था....तारीख का मतलब बस जैसे तैसे कचहरी में हाज़िरी देना ही समझता था
तकरीबन तीन साल चला केस.....यह मेरी ज़िन्दगी का पहला केस था...और जायज़ केस था.....किसी से पैसे लेने थे....चेक का केस था और फिर भी मैं हार गया......
जब घर वापिस आया तो औंधा मुंह लेट गया, घंटों पड़ा रहा....गहन ग्लानि
खुद को पढ़ा लिखा समझदार समझता था लेकिन एक कम पढ़े लिखे आदमी से अपने जायज़ पैसे नहीं ले पाया
फिर उस आदमी ने मुझ पर वापिस केस डाला.....लाखों रुपैये वसूली का........कि मैंने उस पर नाजायज़ केस किया था.....उसे नुक्सान हुआ.
अब मैं और ज़्यादा अवसाद में पहुँच गया.....कोशिश की समझौते की...उल्टा मैं उसे पैसे देने को राज़ी हो गया लेकिन वो माने ही नहीं........पहाड़ी पर चढ़ गया.....मैं तुषार से माफी मंगवाऊंगा......लिखित में ...मोहल्ले के सामने.
खैर, मुझे समझ आ गया कि बेटा, तुझे अब लड़ना ही होगा......अब लड़ना ही है तो फिर कोई अच्छा वकील करना होगा...खैर, मैंने एक महंगा वकील किया
अभी तक मुझे कुछ कानून समझ नहीं आया था....इसी बीच हमारे एक मकान पर किसी किरायेदार ने कब्जा कर लिया......अब उसे खाली कराने के लिए मुझे फिर से, बहुत से वकीलों से मिलना होता था.......जो भी वो बताते मैं इन्टरनेट पर चेक करता.....कई वकीलों ने पहली मीटिंग के पैसे लिए, कईयों ने नहीं लिए.......अपने चल रहे वकील से भी अपने केस की बात की लेकिन जमा नहीं कि उसे यह केस भी दिया जाए.........
फिर एक वकील जोड़ी, (एक स्त्री और एक पुरुष), इन को हायर किया ...... तब तक काफी कुछ अपने केस के बारे में समझ चुका था.....मेरे वकील भी समझते थे कि मैं कुछ कुछ चीज़ें समझता हूँ....एक मैत्री बन गयी.....अक्सर वकील ऐसे पेश आते हैं अपने मुवक्किल से जैसे मुवक्किल उनका नौकर हो जबकि होता उल्टा है.....मुवक्किल जब चाहे अपने वकील को हटा सकता है
अब मैंने अपने दोनों केस इस जोड़ी को सौंप दिए......इन को मैंने एक मुश्त रकम तय की हर केस की....जिसे मुझे बीच बीच में देना था.....उसके अलावा मैंने खुद से उनको जीतने पर एक मुश्त रकम देने का वादा किया.....और इसके भी अलावा मैंने हर मीटिंग के पैसे अलग तय किये....वो इसलिए कि मेरी मीटिंग उनके साथ लम्बी होने वाली थी...मैं उनसे इतना कुछ सीखना और सिखाना चाहता था, इतना सर खाना चाहता था जो आम मुवक्किल नहीं करता
खैर, हर तारीख के बीच बीच हम मीटिंग करते ..लम्बी ....घंटों....... वो जो ड्राफ्टिंग करते वो मुझे ई-मेल करते....मैं अपनी तरफ से उस ड्राफ्टिंग को कई दिन तक बेहतर करता रहता.....फिर वो लोग उसे फाइनल करते.....हम हर बात को तर्क और कानून के हिसाब से फिट बिठाते........सब रज़ामंदी से........नतीजा यह हुआ कि मैं सब केस जीत गया
उनके साथ जो तय था वो सब पैसे दिए...जो जीतने पर इनाम जैसे पैसे देने थे वो भी दिए और उनसे जो सम्बन्ध बना तो आज तक कायम है
उसके बाद कुछ और केस भी फाइट किये... सब जीतता चला गया
पली, रिप्लाई, रेप्लिकेशन, रेबटल, एविडेंस, आर्गुमेंट, आर टी आई ....सब मेरे ज़ेहन में बस गये
उसके बाद एक बार बिजली कम्पनी ने बिना मतलब मेरे ऑफिस छापा मार एक नोटिस भेज दिया मुझे.....मुझ से जवाब माँगा...उस जवाब में ही मैंने उनको इतना झाड़ दिया कि कुछ ही दिन बाद उनका लैटर आ गया कि मुझ पर कोई चार्ज नाही बनता
एक बार MCD का पंगा पड़ा तो उन्होंने मुझे कारण बताओ नोटिस भेजा....जवाब में मैंने उनसे ढेर सारे सवाल पूछ लिए...मामला खत्म
फिर तो कई मित्रगणों को बचाया मैंने खामख्वाह कि कानूनी उलझनों से
अब तो काम ही करता हूँ कानूनी पेचीदगियों में फंसी प्रॉपर्टी का
बहुत लोग अपनी प्रॉपर्टी मिटटी करे बैठे हैं....विदेश रहते हैं......या फिर अपढ़ हैं....या उनके पास पैसे ही नहीं कि वो अपनी लगभग खत्म प्रॉपर्टी को जिंदा कर पाएं......मैं देखता हूँ कि जिंदा होने लायक है तो एक अग्रीमेंट के तहत अपने खर्चे से उसे जिंदा करता हूँ और फिर अग्रीमेंट के तहत हिस्सा बाँट लेता हूँ
आपको यह सब अपनी कहानी इसलिए सुनाई कि मेरी कहानी में आपको बहुत जगह अपनी, अपने रिश्तेदार की, अपने दोस्त की कहानी नज़र आयेगी
जिन चीज़ों की शिक्षा मिलनी चाहिए, वो न मिल के बकवास विषयों पर सालों खराब करवाए जाते हैं. कानून ऐसा ही एक क्षेत्र है, जो पढाया जाना चाहिए लेकिन नहीं पढ़ाया जाता..नतीजा यह है कि हम कानून के मामले में लगभग जीरो होते हैं.....उसका नतीजा यह होता है कि हम खामख्वाह के केस में फंस जाते है...वकीलों और कचहरी से जुड़े लोगों का घर भरते जाते हैं.....
पुलिस का IO..उसका काम होता है कि वो केस की तफ्तीश करे, लेकिन वो तफ्तीश यह करता है कि जेब किसकी भारी है और उसे पैसे कहाँ से मिलने वाले हैं......मैंने कल ही एक केस देखा जो बिना किसी सबूत के कचहरी में दाख़िल था.......मतलब कोई गवाह नहीं, कोई और किसी तरह का सबूत नहीं....मात्र बयान से केस थोप दिया गया.........ऐसे तो कोई भी किसी पर भी केस लगा देगा ....खैर मेरे हिसाब से तो जिस केस में IO की भूमिका गलत साबित होती हो उसे भी तुरत सज़ा मिलनी चाहिए....
मेरे हिसाब से जब तक जज किसी को मुजरिम साबित न कर दे उसे सजा मिलनी ही नहीं चाहिए. लेकिन पुलिस लॉकअप अपने आप में एक नर्क होता है. भले ही बन्दा निर्दोष छूटे लेकिन लॉकअप में रहा हो तो समाज में कद कुछ तो कम हो ही जाता है
वकील लोग चूँकि तारीख तारीख दर पैसे ले रहे होते हैं सो जो केस साल में खत्म हो सकता है उसे वो दस साल चलाते हैं......वो क्यूँ चाहेंगे कि सोने का अंडा देने वाली मुर्गी जल्द हाथ से निकल जाए...आपका मामला चलता रहे और आप उसे पैसे देते रहें इसी में तो उनकी भलाई है....फिर आपको तो पता भी नहीं कि क्या होना चाहिए और क्या नहीं....सो वो अपनी मनमर्जी करते रहते हैं
मेरे तजुर्बे से सीखें.....जीत हार आपकी होनी है, आपके वकील की नहीं...नफा नुक्सान आपका होना है.... केस आपका है.....अपने केस के विद्यार्थी बनिए.......सारा काम वकील पर छोड़ कर खुद बेक सीट पर मत बैठे रहिये...खुद आगे वकील के साथ वाली सीट पर बैठिये.....वो क्या कर रहा है, क्यूँ कर रहा है ......पूरी कार्यविधि समझिये....और जो वकील न समझने दे, उसे एक पल गवाए बिना दफा कर दीजिये.....इन्टरनेट से हर मुद्दा चेक करते रहिये.......मैं तो देखता हूँ लोगों के पास अपने केस की फाइल तक नहीं होती...सब वकील के पास....क्या ख़ाक पढेंगे अपना केस
कहते हैं कि भारतीय व्यवस्था वकीलों के लिए चारागाह है.........सही कहते हैं ..... शिक्षा वैसे ही कम है.......और जो है भी वो आधी अधूरी है.....ऐसे में आप लूटे नहीं जायेंगे तो और क्या होगा आपके साथ?
वकील को कभी तारीख दर तारीख पैसे मत दीजिये...एक मुश्त पैसे तय कीजिये और जीतने पर अलग से पैसे देने का वादा कीजिये, लिखित भी दे सकते हैं
अपने केस की सारी की सारी सर्टिफाइड कापियां अपने पास रखें.....कोर्ट से जल जाएँ, जला दी जाएं, गुम जाएं, गुमा दी जाएं तो भी आपके वाली कापियां काम आ सकती हैं
अपने केस से जुड़े केसों के फैसले पढ़िए, आपको समझ आ जायेगा कि फैसले किन आधारों पर किये जाते हैं, उससे आपको अपने केस का भविष्य देखने में भी आसानी रहेगी
एक और बात, कोर्ट में सारी की कार्रवाई लिखित में करें...यानि आप कोर्ट पर भरोसा मत करें कि आप जो भी कोई जुबानी बात कह रहे हैं वो वैसे रिकॉर्ड में ही रहेगी.....हमारे कोर्ट में विडियो या ऑडियो नहीं होती जो जज को कई तरह की सुविधा देती है....सो आप कोई भी सबमिशन देना चाहते हैं लिखित में दें....आर्गुमेंट भी लिखित में दें.
लिखना अपने आप में बहुत समय खाने वाला काम है सो वकील लोग कोताही बरत सकते हैं लेकिन मेरा तजुर्बा है कि यदि आपने आर्गुमेंट आदि लिखित में दिया होगा तो कोई माई का लाल रिकॉर्ड से उसे हटा नहीं पायेगा और फैसले में उसे नज़रंदाज़ नहीं कर पायेगा
जब आप का केस कोर्ट में हो तो आप मात्र अपने Opponent से ही केस नहीं लड़ रहे होते आप अपने वकील और जज से भी केस लड़ रहे होते हैं.
आपको देखना है कि आप केस ऐसे फाइट करें कि कोई चूं तक न कर पाए....छिद्र छोडेंगे तो कोई भी नाजायज़ फायदा उठा लेगा.
हमें न्याय व्यवस्था पर यकीन होना चाहिए.....कहते ज़रूर हैं लेकिन यदि हर फैसला सही होता तो फिर फैसले पलटी ही नहीं होते अगली अदालतों में.....और बहुत बार तो एक ही जैसे केस में एक कोर्ट कुछ फैसला दे रहा होता है, दूसरा कुछ और...........अभी पीछे ही मार्कंदय काटजू किसी जज के भ्रष्ट होने पर खूब लिख रहे थे...... हमें न्याय व्यवस्था पर यकीन होना चाहिए, लेकिन आँख बंद कर हमें न अपने वकील पर भरोसा करना चाहिए न ही जज पर
केस ऐसे फाइट करना चाहिए...इतने फैक्ट्स दें, इतनी दलील दें, इतने सबूत दें........इतनी Citation दें कि जज मजबूर हो जाए आपके हक में फैसला देने को......Citation एक तरह की मिसाल हैं, कानूनी मिसाल....आपके केस से मिलते जुलते पहले से हो रखे फैसले.....Citation ढूँढना अपने आप में मेहनत का काम होता है.......Manupatra.com है एक वेबसाइट जिसके पास सब तरह के फैसले होते हैं, वो फीस देकर उनसे लिए जा सकते हैं....लेकिन कम ही वकील ऐसा करते हैं..लेकिन आपको ज़रूर करना चाहिए...वैसे आप गूगल करके भी काफी फैसले खोज सकते हैं...indiankanooon.org से भी बहुत फैसले आपको मिल सकते हैं
एक साईट है Lawyersclubindia.com यहाँ से आप वकील बंधुओं से मुफ्त सलाह ले सकते हैं
Yahooo Answers पर Vijay M Lawyer नाम से एक वकील हैं, इन्होने बहुत सवाल जवाब लिखे हैं वहां पर.....मेरी समझ के मुताबिक इनकी कानूनी समझ बहुत गहरी है....इनके लेख बहुत काम के साबित हो सकते हैं
मैंने भी कुछ और लेख, टीका टिप्पणी की हैं.......वो गूगल से अलग अलग बिखरी तो मिल सकती हैं लेकिन एक जगह इकट्ठी नहीं हैं अभी.....इकट्ठा करके एक आर्टिकल में पिरो लूँगा तो उसका लिंक यहाँ दूंगा...वो भी काम आ सकता है.....एक आम आदमी का कानून और कानून के रखवालों के प्रति नजरिया
खैर, सब तो नहीं लिख पाया हूँ....आप चाहें तो मुझ से अपने किसी केस की राय ले सकते हैं
सादर नमन.......कॉपी राईट.......चुराएं न.....समझ लीजिये मुझे कॉपी राईट लॉ भी पता है
लेकिन मेरा जीवन.....मुझे कचहरी के चक्कर में पड़ना था सो पड़ गया .........शुरू में वकील से बात भी नहीं कर पाता था ठीक से.....वकील की बात को समझने की कोशिश करता लेकिन समझ नहीं पाता...जैसे डॉक्टर की लिखत को आप समझना चाहें भी तो नहीं समझ पाते वैसे ही वकील की बात का कोई मुंह सर निकालना चाहते हुए भी नहीं निकाल पाता
एक वकील से असंतुष्ट हुआ, अधर में ही उसे छोड़ दूसरा पकड़ा......वो भी समझ नहीं आया ..तीसरा पकड़ा......कुछ पता नहीं था....तारीख का मतलब बस जैसे तैसे कचहरी में हाज़िरी देना ही समझता था
तकरीबन तीन साल चला केस.....यह मेरी ज़िन्दगी का पहला केस था...और जायज़ केस था.....किसी से पैसे लेने थे....चेक का केस था और फिर भी मैं हार गया......
जब घर वापिस आया तो औंधा मुंह लेट गया, घंटों पड़ा रहा....गहन ग्लानि
खुद को पढ़ा लिखा समझदार समझता था लेकिन एक कम पढ़े लिखे आदमी से अपने जायज़ पैसे नहीं ले पाया
फिर उस आदमी ने मुझ पर वापिस केस डाला.....लाखों रुपैये वसूली का........कि मैंने उस पर नाजायज़ केस किया था.....उसे नुक्सान हुआ.
अब मैं और ज़्यादा अवसाद में पहुँच गया.....कोशिश की समझौते की...उल्टा मैं उसे पैसे देने को राज़ी हो गया लेकिन वो माने ही नहीं........पहाड़ी पर चढ़ गया.....मैं तुषार से माफी मंगवाऊंगा......लिखित में ...मोहल्ले के सामने.
खैर, मुझे समझ आ गया कि बेटा, तुझे अब लड़ना ही होगा......अब लड़ना ही है तो फिर कोई अच्छा वकील करना होगा...खैर, मैंने एक महंगा वकील किया
अभी तक मुझे कुछ कानून समझ नहीं आया था....इसी बीच हमारे एक मकान पर किसी किरायेदार ने कब्जा कर लिया......अब उसे खाली कराने के लिए मुझे फिर से, बहुत से वकीलों से मिलना होता था.......जो भी वो बताते मैं इन्टरनेट पर चेक करता.....कई वकीलों ने पहली मीटिंग के पैसे लिए, कईयों ने नहीं लिए.......अपने चल रहे वकील से भी अपने केस की बात की लेकिन जमा नहीं कि उसे यह केस भी दिया जाए.........
फिर एक वकील जोड़ी, (एक स्त्री और एक पुरुष), इन को हायर किया ...... तब तक काफी कुछ अपने केस के बारे में समझ चुका था.....मेरे वकील भी समझते थे कि मैं कुछ कुछ चीज़ें समझता हूँ....एक मैत्री बन गयी.....अक्सर वकील ऐसे पेश आते हैं अपने मुवक्किल से जैसे मुवक्किल उनका नौकर हो जबकि होता उल्टा है.....मुवक्किल जब चाहे अपने वकील को हटा सकता है
अब मैंने अपने दोनों केस इस जोड़ी को सौंप दिए......इन को मैंने एक मुश्त रकम तय की हर केस की....जिसे मुझे बीच बीच में देना था.....उसके अलावा मैंने खुद से उनको जीतने पर एक मुश्त रकम देने का वादा किया.....और इसके भी अलावा मैंने हर मीटिंग के पैसे अलग तय किये....वो इसलिए कि मेरी मीटिंग उनके साथ लम्बी होने वाली थी...मैं उनसे इतना कुछ सीखना और सिखाना चाहता था, इतना सर खाना चाहता था जो आम मुवक्किल नहीं करता
खैर, हर तारीख के बीच बीच हम मीटिंग करते ..लम्बी ....घंटों....... वो जो ड्राफ्टिंग करते वो मुझे ई-मेल करते....मैं अपनी तरफ से उस ड्राफ्टिंग को कई दिन तक बेहतर करता रहता.....फिर वो लोग उसे फाइनल करते.....हम हर बात को तर्क और कानून के हिसाब से फिट बिठाते........सब रज़ामंदी से........नतीजा यह हुआ कि मैं सब केस जीत गया
उनके साथ जो तय था वो सब पैसे दिए...जो जीतने पर इनाम जैसे पैसे देने थे वो भी दिए और उनसे जो सम्बन्ध बना तो आज तक कायम है
उसके बाद कुछ और केस भी फाइट किये... सब जीतता चला गया
पली, रिप्लाई, रेप्लिकेशन, रेबटल, एविडेंस, आर्गुमेंट, आर टी आई ....सब मेरे ज़ेहन में बस गये
उसके बाद एक बार बिजली कम्पनी ने बिना मतलब मेरे ऑफिस छापा मार एक नोटिस भेज दिया मुझे.....मुझ से जवाब माँगा...उस जवाब में ही मैंने उनको इतना झाड़ दिया कि कुछ ही दिन बाद उनका लैटर आ गया कि मुझ पर कोई चार्ज नाही बनता
एक बार MCD का पंगा पड़ा तो उन्होंने मुझे कारण बताओ नोटिस भेजा....जवाब में मैंने उनसे ढेर सारे सवाल पूछ लिए...मामला खत्म
फिर तो कई मित्रगणों को बचाया मैंने खामख्वाह कि कानूनी उलझनों से
अब तो काम ही करता हूँ कानूनी पेचीदगियों में फंसी प्रॉपर्टी का
बहुत लोग अपनी प्रॉपर्टी मिटटी करे बैठे हैं....विदेश रहते हैं......या फिर अपढ़ हैं....या उनके पास पैसे ही नहीं कि वो अपनी लगभग खत्म प्रॉपर्टी को जिंदा कर पाएं......मैं देखता हूँ कि जिंदा होने लायक है तो एक अग्रीमेंट के तहत अपने खर्चे से उसे जिंदा करता हूँ और फिर अग्रीमेंट के तहत हिस्सा बाँट लेता हूँ
आपको यह सब अपनी कहानी इसलिए सुनाई कि मेरी कहानी में आपको बहुत जगह अपनी, अपने रिश्तेदार की, अपने दोस्त की कहानी नज़र आयेगी
जिन चीज़ों की शिक्षा मिलनी चाहिए, वो न मिल के बकवास विषयों पर सालों खराब करवाए जाते हैं. कानून ऐसा ही एक क्षेत्र है, जो पढाया जाना चाहिए लेकिन नहीं पढ़ाया जाता..नतीजा यह है कि हम कानून के मामले में लगभग जीरो होते हैं.....उसका नतीजा यह होता है कि हम खामख्वाह के केस में फंस जाते है...वकीलों और कचहरी से जुड़े लोगों का घर भरते जाते हैं.....
पुलिस का IO..उसका काम होता है कि वो केस की तफ्तीश करे, लेकिन वो तफ्तीश यह करता है कि जेब किसकी भारी है और उसे पैसे कहाँ से मिलने वाले हैं......मैंने कल ही एक केस देखा जो बिना किसी सबूत के कचहरी में दाख़िल था.......मतलब कोई गवाह नहीं, कोई और किसी तरह का सबूत नहीं....मात्र बयान से केस थोप दिया गया.........ऐसे तो कोई भी किसी पर भी केस लगा देगा ....खैर मेरे हिसाब से तो जिस केस में IO की भूमिका गलत साबित होती हो उसे भी तुरत सज़ा मिलनी चाहिए....
मेरे हिसाब से जब तक जज किसी को मुजरिम साबित न कर दे उसे सजा मिलनी ही नहीं चाहिए. लेकिन पुलिस लॉकअप अपने आप में एक नर्क होता है. भले ही बन्दा निर्दोष छूटे लेकिन लॉकअप में रहा हो तो समाज में कद कुछ तो कम हो ही जाता है
वकील लोग चूँकि तारीख तारीख दर पैसे ले रहे होते हैं सो जो केस साल में खत्म हो सकता है उसे वो दस साल चलाते हैं......वो क्यूँ चाहेंगे कि सोने का अंडा देने वाली मुर्गी जल्द हाथ से निकल जाए...आपका मामला चलता रहे और आप उसे पैसे देते रहें इसी में तो उनकी भलाई है....फिर आपको तो पता भी नहीं कि क्या होना चाहिए और क्या नहीं....सो वो अपनी मनमर्जी करते रहते हैं
मेरे तजुर्बे से सीखें.....जीत हार आपकी होनी है, आपके वकील की नहीं...नफा नुक्सान आपका होना है.... केस आपका है.....अपने केस के विद्यार्थी बनिए.......सारा काम वकील पर छोड़ कर खुद बेक सीट पर मत बैठे रहिये...खुद आगे वकील के साथ वाली सीट पर बैठिये.....वो क्या कर रहा है, क्यूँ कर रहा है ......पूरी कार्यविधि समझिये....और जो वकील न समझने दे, उसे एक पल गवाए बिना दफा कर दीजिये.....इन्टरनेट से हर मुद्दा चेक करते रहिये.......मैं तो देखता हूँ लोगों के पास अपने केस की फाइल तक नहीं होती...सब वकील के पास....क्या ख़ाक पढेंगे अपना केस
कहते हैं कि भारतीय व्यवस्था वकीलों के लिए चारागाह है.........सही कहते हैं ..... शिक्षा वैसे ही कम है.......और जो है भी वो आधी अधूरी है.....ऐसे में आप लूटे नहीं जायेंगे तो और क्या होगा आपके साथ?
वकील को कभी तारीख दर तारीख पैसे मत दीजिये...एक मुश्त पैसे तय कीजिये और जीतने पर अलग से पैसे देने का वादा कीजिये, लिखित भी दे सकते हैं
अपने केस की सारी की सारी सर्टिफाइड कापियां अपने पास रखें.....कोर्ट से जल जाएँ, जला दी जाएं, गुम जाएं, गुमा दी जाएं तो भी आपके वाली कापियां काम आ सकती हैं
अपने केस से जुड़े केसों के फैसले पढ़िए, आपको समझ आ जायेगा कि फैसले किन आधारों पर किये जाते हैं, उससे आपको अपने केस का भविष्य देखने में भी आसानी रहेगी
एक और बात, कोर्ट में सारी की कार्रवाई लिखित में करें...यानि आप कोर्ट पर भरोसा मत करें कि आप जो भी कोई जुबानी बात कह रहे हैं वो वैसे रिकॉर्ड में ही रहेगी.....हमारे कोर्ट में विडियो या ऑडियो नहीं होती जो जज को कई तरह की सुविधा देती है....सो आप कोई भी सबमिशन देना चाहते हैं लिखित में दें....आर्गुमेंट भी लिखित में दें.
लिखना अपने आप में बहुत समय खाने वाला काम है सो वकील लोग कोताही बरत सकते हैं लेकिन मेरा तजुर्बा है कि यदि आपने आर्गुमेंट आदि लिखित में दिया होगा तो कोई माई का लाल रिकॉर्ड से उसे हटा नहीं पायेगा और फैसले में उसे नज़रंदाज़ नहीं कर पायेगा
जब आप का केस कोर्ट में हो तो आप मात्र अपने Opponent से ही केस नहीं लड़ रहे होते आप अपने वकील और जज से भी केस लड़ रहे होते हैं.
आपको देखना है कि आप केस ऐसे फाइट करें कि कोई चूं तक न कर पाए....छिद्र छोडेंगे तो कोई भी नाजायज़ फायदा उठा लेगा.
हमें न्याय व्यवस्था पर यकीन होना चाहिए.....कहते ज़रूर हैं लेकिन यदि हर फैसला सही होता तो फिर फैसले पलटी ही नहीं होते अगली अदालतों में.....और बहुत बार तो एक ही जैसे केस में एक कोर्ट कुछ फैसला दे रहा होता है, दूसरा कुछ और...........अभी पीछे ही मार्कंदय काटजू किसी जज के भ्रष्ट होने पर खूब लिख रहे थे...... हमें न्याय व्यवस्था पर यकीन होना चाहिए, लेकिन आँख बंद कर हमें न अपने वकील पर भरोसा करना चाहिए न ही जज पर
केस ऐसे फाइट करना चाहिए...इतने फैक्ट्स दें, इतनी दलील दें, इतने सबूत दें........इतनी Citation दें कि जज मजबूर हो जाए आपके हक में फैसला देने को......Citation एक तरह की मिसाल हैं, कानूनी मिसाल....आपके केस से मिलते जुलते पहले से हो रखे फैसले.....Citation ढूँढना अपने आप में मेहनत का काम होता है.......Manupatra.com है एक वेबसाइट जिसके पास सब तरह के फैसले होते हैं, वो फीस देकर उनसे लिए जा सकते हैं....लेकिन कम ही वकील ऐसा करते हैं..लेकिन आपको ज़रूर करना चाहिए...वैसे आप गूगल करके भी काफी फैसले खोज सकते हैं...indiankanooon.org से भी बहुत फैसले आपको मिल सकते हैं
एक साईट है Lawyersclubindia.com यहाँ से आप वकील बंधुओं से मुफ्त सलाह ले सकते हैं
Yahooo Answers पर Vijay M Lawyer नाम से एक वकील हैं, इन्होने बहुत सवाल जवाब लिखे हैं वहां पर.....मेरी समझ के मुताबिक इनकी कानूनी समझ बहुत गहरी है....इनके लेख बहुत काम के साबित हो सकते हैं
मैंने भी कुछ और लेख, टीका टिप्पणी की हैं.......वो गूगल से अलग अलग बिखरी तो मिल सकती हैं लेकिन एक जगह इकट्ठी नहीं हैं अभी.....इकट्ठा करके एक आर्टिकल में पिरो लूँगा तो उसका लिंक यहाँ दूंगा...वो भी काम आ सकता है.....एक आम आदमी का कानून और कानून के रखवालों के प्रति नजरिया
खैर, सब तो नहीं लिख पाया हूँ....आप चाहें तो मुझ से अपने किसी केस की राय ले सकते हैं
सादर नमन.......कॉपी राईट.......चुराएं न.....समझ लीजिये मुझे कॉपी राईट लॉ भी पता है
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