Friday, 14 April 2017

प्राइवेट स्कूलों की ईंट से ईंट बजा दो, वो तुम्हारी ज़मीन पर बने हैं

दिल्ली में हूँ, यहाँ फुटों के हिसाब से ज़मीन बिकती है. उस ज़मीन का टॉयलेट भी खरीदने की भी क्षमता नहीं होती स्कूल के मेनेजर की. अरबों रुपये की ज़मीन होती है स्कूल के पास. है, किसी की औकात की ज़मीन खरीद कर चला ले स्कूल? 

किसकी है वो ज़मीन? पब्लिक की. आपकी. 

यह जो आप शब्द प्रयोग करते हैं न 'सरकारी'. हकीर है यह शब्द. फ़कीर है यह शब्द. 'सरकारी' शब्द से लगता है पब्लिक का तो कोई हक़ ही नहीं इसमें, सब सरकार का है. नहीं. 'पब्लिक' शब्द का प्रयोग कीजिये 'सरकारी' की जगह. 'सरकारी अफसर' नहीं 'पब्लिक सर्वेंट' कहें. 'सरकारी स्कूल' नहीं 'पब्लिक स्कूल' कहें. और यह जो खुद को 'प्राइवेट स्कूल' कहते हैं , ये भी 'पब्लिक स्कूल' हैं, जो पब्लिक की ज़मीन पर चलाए जाते हैं. रवीश कुमार स्कूलों की लूट पर जन-सुनवाई चला रहे हैं पिछले तीन-चार दिन से, लेकिन सरकारी और प्राइवेट और पब्लिक स्कूलों की परिभाषा नहीं समझ पाए, पॉइंट उठाया, लेकिन कौन सरकारी, कौन प्राइवेट, कौन पब्लिक स्कूल, यह नहीं समझ-समझा पाए.

असल में स्कूल का सारा धन्धा दान लेकर चलता है. ज़मीन दान में लेते हैं जिसके लिए अंग्रेज़ी का फैंसी सा शब्द है "ग्रांट". फिर बच्चों के मां-बाप से दान लेते हैं, जिसके लिए दूसरा फैंसी शब्द है, "डोनेशन". और असल में दोनों ही दान नहीं हैं. ग्रांट  'कैश रूपी चैक' और 'पहुँच रूपी जैक' लगा कर ली जाती है. 

और डोनेशन....डोनेशन नहीं है, लूट है...ज़बरन वसूली है....डोनेशन अपनी मर्ज़ी से दी जाती है...स्कूल में कौन अपनी मर्ज़ी से दे रहा है? लोग इसलिए देते हैं कि उनका बच्चा वहां रहेगा, अगर नहीं देंगे तो स्कूल वाले बच्चे की ज़िंदगी खराब कर देंगे.  स्कूल की बिल्डिंग के पैसे बच्चों से वसूले जाते हैं. 

मतलब न ज़मीन इनकी, न बिल्डिंग इनकी. हींग लगे न फिटकरी और रंग चोखा ही चोखा. 

मैं दिल्ली पश्चिम विहार में हूँ, यहाँ तकरीबन सब स्कूल DDA लैंड पर हैं, जो लाखों  तक एडमिशन वसूल रहे हैं......और फीस के अलावा अनेक तरह से पेरेंट्स की सारा साल पुंगी बजाते रहते हैं.

किताबें और स्कूल ड्रेस इस तरह से बनाई जाती हैं कि दुबारा किसी और के काम न आ सकें.  और आप आम टेलर से तो बनवा ही नहीं सकते स्कूल ड्रेस. स्कूल खुद बनवाता है, ड्रेस और किताब. बेचता है, लूटता है. पेमेंट की कोई रसीद नहीं देते. मोबाइल फ़ोन गेट पर ही धरवा लेते हैं ताकि कोई रिकॉर्डिंग न कर पाए. गेट पर चार-पांच पहरेदार खड़े किये रहते हैं. मामला फसादी लगे तो एक से ज़्यादा व्यक्ति को घुसने नहीं देते ताकि अंदर कोई गवाह तक न रहे कि क्या हुआ.  स्वागत के लिए मुंह-फट औरतें बिठा रखते हैं, ज़रा बहस हुई तो विजिटर पर इलज़ाम लगाया जा सकता है कि औरत से बदतमीज़ी की. चाहे बन्दा मार कर फेंक दें और आक्रमण का इलज़ाम भी मरने वाले के सर थोप दें.

व्यापार नहीं लूट है, पब्लिक ज़मीन का शोषण है. हाँ, अपनी ज़मीन खरीद कर चलायें, तो जैसा भी शुल्क वसूलें, वो कुछ समझ में आता है.

और जो फ्री एडमिशन दिया जाता है कुछ प्रतिशत बच्चों को, अहसान नहीं करते सेठ जी लोगों पर. उसमें भी तमाम कोशिश की जाती हैं कि इस तरह के एडमिशन न दिए जाएँ.

दान में ली ज़मीन और सेठ जी फ्री पढ़ा रहे हैं? नहीं, सेठ जी मुफ्त की ज़मीन और मुफ्त की बिल्डिंग को अपने बाप का माल समझ बैठे हैं.

लोग विरोध में खड़े हो रहे हैं और सही खड़े हो रहे हैं. लेकिन ये जो अभिभावक कोर्ट पहुँच रहे हैं कि उनके बच्चों को एडमिशन नहीं दे रहे स्कूल और फिर कोर्ट आर्डर से एडमिशन करवा रहे हैं, मूर्ख हैं. अबे, ऐसे स्कूलों की मान्यता रद्द करवाने के लिए जाओ कोर्ट. जो स्कूल नहीं देना चाहता एडमिशन उसके खिलाफ कोर्ट में जाने के बाद यदि उसी स्कूल में अपना बच्चा दाखिल करवाते हो तो यह ऐसे ही है जैसे किडनैपर को अपना बच्चा खुद सौपना.

सात अप्रैल, सत्रह की खबर है नवभारत टाइम्स की, एक गिरोह पकड़ा गया है, जो स्कूलों को लूटता था, ख़ास एडमिशन के दौरान. मैं इनके नेक काम के लिए इन्हें दिल से बधाई देना चाहता हूँ. वो जो चोर पकड़े गए, बहुत छोटे चोर हैं. चिंदी-चोर. फूहड़. अनगढ़. ये जो स्कूल हैं, शातिर डकैत हैं.  

"पब्लिक स्कूल कैसे चलने चाहिए फिर ?"

लगता है आपको कि जिस स्कूल में आपका बच्चा पढ़ रहा है, उस पर आपका कोई हक़ है?
नहीं. मुझे पता है नहीं लगता. 
आपको लगता है कि ये स्कूल किसी की मल्कियत हैं. स्कूल चलाने वालों की, उसके परिवार की.

गलत लगता है. वो स्कूल आपका है, मेरा है, हम सब का है.
और जो चला रहे हैं वो मात्र पब्लिक के नौकर हैं.

तो जब वो नौकर हैं तो फिर उनको जो काम दिया गया है उसका पूरा हिसाब किताब पब्लिक को देना चाहिए कि नहीं?

मोदी जी की तरह पूछता हूँ,”बोलो मित्रो, हिसाब किताब देना चाहिए कि नहीं?”

मेरा मानना है कि देना चाहिए. 
कितने टीचर हैं, और स्टाफ कितना है, कितने ड्राईवर हैं, किसको कितनी सैलरी जाती है?कितना पेट्रोल खर्च होता है, कितना बिजली का बिल, कितना पानी का, कितना कोई और खर्च, सब हिसाब सामने होना चाहिए.

अब मानो किसी स्कूल में बारह सौ बच्चे पढ़ रहे हैं......और स्कूल का खर्च ग्यारह लाख महीना है.....तो ठीक है.
हज़ार रुपैया हर बच्चे की फीस हो गई, ग्यारह लाख खर्चे में गए...एक लाख स्कूल का मेनेजर अपनी सैलरी ले ले.
एक बात.

तनख्वाह तक नहीं देते टीचर को महीनों.....और साइन करा लेते हैं, तनख्वाह आधी भी नहीं देते. और न ही अभिभावकों को पेमेंट की रसीद देते हैं. कैसे चेक होगा हिसाब-किताब. उसके लिए. सब स्कूल में CCTV लगे होने चाहियें. और रिकॉर्डिंग स्कूल की वेबसाइट पर चलती रहनी चाहिए, पब्लिक वेबसाइट पर चलती रहनी चाहिए, और पब्लिक को भी विडियो-ऑडियो रिकॉर्डिंग की छूट होनी चाहिए. खैर, यह मुद्दा हा हो सकता है.

दूसरी बात. स्कूल किसी की मल्कियत नहीं है. यदि पब्लिक को कोई बेहतर व्यक्ति दीखता है स्कूल चलाने वाला तो उसे मौका देना चाहे. बहुमत के साथ नए व्यक्ति को मौका दिया जाना चाहिए. हाँ, उसका तजुर्बा क्या है, कितना पढ़ा है, क्या पढ़ा है, क्या पढाया है, वो सब देखा जाना चाहिए. मैंने देखा है अक्सर कुछ लोग झुग्गियों में सालों से पढ़ाते हैं, बड़े मन से, बड़े जतन से. ऐसे लोगों को मौका दिया जा सकता है

स्कूल पीढी दर पीढी सौपे नहीं जाने चाहिए, कतई नहीं. जब पब्लिक स्कूल पब्लिक के हैं तो फिर किसी एक पीढी का क्या मतलब? कोई प्राइवेट प्रॉपर्टी थोड़ा है? 
कोई प्राइवेट स्कूल दे दें...आधी फीस और शुल्क वसूल कर चला कर दे देता हूँ...और फिर भी कमाऊँगा.

असल में तो इन मेनेजर को बस साल-दर-साल ही स्कूल मिलने चाहियें..ठेके पर...फिर नए लोग आयें तो आ जाएँ.....बहुत कुछ सुधर जाएगा, अपने आप.

पब्लिक प्रॉपर्टी है......जो सबसे अच्छा पढाये, सबसे सस्ता पढाये, उसे मौका मिले..बात खत्म

इतने से ही आप देखेंगे फीसें आधी भी नहीं रही.......पुरानी किताबें काम में आने लगेंगी......और सैकड़ों तरह के फालतू के खर्चे उड़ जायेंगे .....और स्कूल की खाली जगह को छुटियों में जो सार्वजानिक प्रोग्राम के लिए किराए पर दिया जाएगा उससे फीस में और कमी आ जायेगी

बोलो मितरो, फीस घट जायगी कि नहीं. ऐसा होना चाहिए कि नहीं.

होना चाहिए.

टोन ज़रूर मोदी जी की पकड़ी है. लेकिन मेरी बात से आप समझ सकते हैं कि ये मात्र बात नहीं है, लात है और वो भी जोर की. 

!!! प्राइवेट स्कूलनामा !!! 

एक  मित्र ने फ़ोन पर कुछ बात  की प्राइवेट स्कूलों के बारे में, कुछ शिकायत, बस जैसे  अन्दर कुछ  दबा  था फूट पड़ा, क्या दबा  था?   आईये देखिये,   शायद   आप  के भीतर कुछ   वैसा ही विस्फोटक सामान दबा  हो, स्वागत है---

"भाग- 1"
पब्लिक स्कूल मतलब पब्लिक की ज़मीन पर बना पब्लिक के बच्चों के लिए स्कूल.....कितनी कारगर है यह परिभाषा? यदि नहीं, तो मेरे साथ आइये, छीन लें इन डकैतों सब कुछ

"भाग- 2"
"अरे ओ साम्भा........सुना है ई रामगढ़ के पब्लिक स्कूल वाले पुरानी किताबें फिर से प्रयोग नहीं करते?"
"जी सरदार, यदि पुरानी किताबें प्रयोग करेंगे तो फिर नई किताबों की खरीद से कमीशन कैसे खायेंगे ?"

"भाग- 3"
जज पब्लिक स्कूल के मालिक से, "तुमने ट्रैफिक का नियम तोडा है, सो तुमसे दस हज़ार जुर्माना लिया जाएगा, और अगले साल पन्द्रह हज़ार, और अगले साल बीस हज़ार, इस तरह हर साल पांच हज्जार बढ़ के जुर्माना वसूला जाएगा"

"मी लार्ड, यह तो नाइंसाफी है, एक जुर्म के लिए हर साल ज़ुर्माना, वो भी बढ़ा बढ़ा कर"

"अबे चोप्प, श्याणे, जब तू अपने स्कूल में दाख़िल बच्चों से हर साल दाखिला फीस वसूलता है, तब नहीं तुझे यही तर्क समझ में आता, हरामखोर, अभी तो तुझ से वो सब भी ब्याज समेत वसूलना है "

"भाग- 4"

"पापा पापा, दान तो मर्ज़ी से दिया जाता है और वो भी अपनी गुंजाइश के मुताबिक, नहीं?"

"बिलकुल बिटिया"

"फिर पापा हमारे स्कूल वाले तो डोनेशन हर नए दाखिल होने वाले बच्चे से लेते हैं, हम से भी लिया था और वो भी अपने हिसाब से, आपने कितना मुश्किल दिया था , मुझे आज भी याद है, फिर यह कैसा दान है?"

"बेटा, नियम से वो लोग दाखिले के लिए कोई पैसे ले नहीं सकते, इसीलिए इस वसूली का नाम उन्होंने 'दान' रखा है"

"तो हम कुछ नहीं कर सकते क्या इस नाइंसाफी के खिलाफ?"

"कौन लड़ाई करे बेटा इन मगरमच्छों से"

"नहीं पापा, यह गलत है, मैं लडूंगी, मैं लडूंगी, मैं लडूंगी"

"भाग- 5"

संता," यार बंता, अपना सोहन सिंह पिछले दस साल से पुल के नीचे झुग्गी बस्ती के बच्चों को पढ़ा रहा है, सुना है कुछ बच्चे तो बहुत आगे तक निकल गए उसके पढाये......."

बंता,"हाँ, यार, सोहन तो वाकई सोहन है, सोहना मेरा वीर"
संता," यार, अपने ये जो पब्लिक स्कूल हैं, ये अगर सोहन जैसे वीर चलायें तो?"

बंता," ओये, पागल हो गया, सोहन जैसे लोगों को तो ऐसे स्कूल वाले पास भी न फटकने दें"

संता," फेर यार, नाले कहंदे ने, पब्लिक स्कूल, पब्लिक वास्ते, पब्लिक की ज़मीन पर?"

बंता," छड्ड यार, वड्डे लोकां दे खेड ने प्यारियो"

संता," यार , मेरी अक्ल मोटी है, पर कुझ तां गड़बड़ है, पर कुझ तां गड़बड़ है, पर कुझ तां गड़बड़ है, पर कुझ तां गड़बड़ है..........."

"भाग- 6"

पब्लिक स्कूल मालिक," देखो जी, बिल्डिंग फण्ड तो देना ही पड़ेगा, आखिर आपका बच्चा इसी बिल्डिंग में तो पढ़ेगा न जी"

बच्चे की माँ," वो तो ठीक है सर, पर जब बच्चा स्कूल छोड़ेगा तब बिल्डिंग तो यहीं रह जायेगी, आप कोई तो वापिसी भी करो न जी उस फण्ड की?"

"देखो जी, साथ तो कुछ भी नहीं जाता, हम मरते हैं साथ कुछ ले जाते हैं, सब यहीं रह जाता है जी"

"भूतनी दिया, खड़ा हो सीट से, स्कूल तेरे बाप का है, ज़मीन पब्लिक की, बिल्डिंग का पैसा पब्लिक का, तू मामा लगता है इस स्कूल का? तेरे से बेहतर और कम फीस लेकर चलाने वाले मिल जायेंगे हमें अभी के अभी .....ऐसी की तैसी तेरी......निकल खाली हाथ, वैसे भी साथ थोड़ा किसी ने कुछ ले जाना होता है, निकल "

"भाग- 7"

"माँ, वो आज पानीपत का दूसरा युद्ध पढाया गया हमें, यह सब आपने भी पढ़ा था क्या?"

"हाँ, बेटा"

"कुछ याद है मां जो पढ़ा था"
"न, बेटा वो तो परीक्षा कक्ष से बाहर आते ही लगभग साफ़ हो गया था"

"माँ, यह सब पढ़ा कहीं काम आया आपके"

"नहीं बेटा, फिर कभी ज़िक्र तक न हुआ, आज कर रही है तू बस"

"माँ, ये तो शायद मेरे भी कोई काम न आएगा, नहीं?"

"मोइआ दा सर, स्वाह ते मिट्टी, यह सब का कोई मतलब ही नहीं होता ज़िंदगी में"

"माँ, फिर मैं क्यों पढूं?"

"पढ़ ले बेटा, नहीं पढेगी, डिग्री नहीं मिलेगी , वो भी तो ज़रूरी है"

अब बेटी पढ़ तो रही है, पर सोच रही है अपनी तीन साल की छोटी बहन को देख, "मैं कुछ करूंगी, मेरी बहन को यह सब बकवास न पढनी पढ़े"

"भाग- 8"

सेठ दौलत हराम," भाई जी, कोई ऐसा तरीका बताओ न कि अपने पैसे खप जाएँ, पूंजी बढ़ती भी रहे और मासिक आमदनी भी चोखी हो"

हरामखोर प्रॉपर्टीज,"सेठ जी, ऐसा है, आपको एक चलता हुआ पब्लिक स्कूल दिलवा देता हूँ"

"पर सुना है, उसकी कोई रजिस्ट्री नहीं होती"

"वो तो ठीक है सेठ जी, माल तो पब्लिक का होता है न, किसी का मालिकाना हक़ तो होता नहीं, सो रजिस्ट्री तो नहीं होती लेकिन फिर भी कोई रिस्क नहीं"

"कैसे भाया?"

"सेठ जी, खरीद बेच सब होगी, इधर आप तय रकम अदा करोगे और उधर स्कूल की मैनेजमेंट इस्तीफ़ा देगी, नई मैनेजमेंट आप अपने परिवार को बना सकते हैं"

"और मासिक आमदनी?"

"वो तो बल्ले बल्ले, सेठ जी, हर जगह कमाई....देखिये, हर साल एडमिशन फीस, बिल्डिंग फण्ड, डोनेशन, मासिक फीस तथा और भी बहुत कुछ"

"और बहुत कुछ क्या?"

"सेठ जी, जब मर्ज़ी यूनिफार्म बदल दो उसमें कमीशन, हर साल नई किताबें उसमें कमीशन, सालाना फंक्शन उसमें कमाई, बच्चों को लाने ले जाने वाली बसों में कमाई, सेठ जी कमाई ही कमाई....इसके अलावा सेठ जी एक सबसे बड़ा फायदा तो मैं बताना ही भूल गया"

"वो क्या?"

"सेठ जी, आपको सारा पैसा नकद देना है, किसी को कानों कान खबर नहीं कि कोई डील हुई भी, है न बढ़िया......सेठ जी इससे बढ़िया क्या ढंग होगा कि आप अपना पैसा खपा दो, क्या ज़रुरत स्विस बैंक की, जब हमारे पास यहीं भारत में ही उससे बढ़िया स्विस बैंक मौजूद हैं?"

"हम्म....बात तो ठीक है, ठीक है फिर दिखाओ कोई डील"

"बस सेठ जी, कल तक सारी डील कन्फर्म करके वापिस आता हूँ"

"बिलकुल,लेकिन कल क्यों, आज ही चलो"

"ठीक सेठ जी, फिर आज ही "

"बिलकुल "

"भाग- 9"

माँ , "अजी सुनते हो, आज बिटिया के स्कूल वालों ने फिर से पर्चियां सी दी हैं, चंदा इकट्ठा करके लाने को, कोई 'फेट' नाम से प्रोग्राम करना है"

बाप "सब कमाई के धंधे इनके......बच्चों से भीख मंगवाते हैं....."

माँ "सो तो है जी, कोई भी पर्ची कटवाता नहीं है, किसे पड़ी है ऐसे प्रोग्राम देखने की, वो तो माँ बाप को मजबूरी में देखना पड़ता है"

बाप "छोड़ भागवाने, हम खुद ही दे देंगे जितने पैसे चाहिए इन कमीनों को.....एक रुपैया खर्च होगा तो दस रुपये वसूलते हैं, दे देंगे....बच्चे पढ़ाने जो हैं ...लेकिन यह है ग़लत.....बहुत ग़लत"

"भाग- 10"

मैं खुद हैरान हूँ, मैं "पब्लिक स्कूल" लिखता लिखता "प्राइवेट स्कूल" क्यों लिख गया......असल में इन स्कूल वालों ने हम सब को समझा रखा है कि ये स्कूल इनके हैं,निजी हैं, प्राइवेट हैं, इनकी सम्पत्ति हैं ...."पब्लिक स्कूल" माने पब्लिक को लूटने के यंत्र

"भाग- 11"

शादी में चार यार बकिया मतलब बतिया रहे हैं

एक --"यार, आज कल ये प्राइवेट स्कूल वाले बहुत लूटन लाग रहे हैं......अब बच्चा दसवीं तक पढ़ रहा है, ग्याहरवी में फिर से दाखिला फीस मांग रहे हैं'

दूसरा," छोड़ यार, काहे नशा उतार रहा है? अबे, अपने बच्चे पढ़ते हैं वहां, तुझे क्या लगता है, हमें नहीं पता यह सब, साले रोज़ किसी न किसी बहाने से जेब काटते हैं, पर अपने बच्चे पढ़ते हैं वहां, उनके पास होते हैं आधा दिन, हम कुछ कदम उठायेंगे तो हमारे बच्चों को नुक्सान पहुंचा सकते हैं, सो ज़्यादा दिमाग लगाने का कोई फायदा नहीं, मूड खराब मत कर, कोई और बात कर"

तीसरा,"यार, बात तो दोनों ठीक कह रहे हो, कुछ हो नहीं सकता क्या, इन चोरों की ऐसी तैसी नहीं की जा सकती?

चौथा,"आईडिया! हम खुद सामने आकर कुछ नहीं कर सकते, क्यों न हम एक दूसरे के बच्चों के स्कूलों पर हमला करें?"

"हाँ, यह सोचा जा सकता है" सबके स्वर और सर सहमति में मिलने और हिलने लगे और वो सब अगले दिन वकील से मिलने का पक्का कर लिए

सादर नमन......कॉपी राईट मैटर है ओये चोट्टे लोगो.......दफा जाओ यदि चोरी करते हो या चोरी करना सही मानते हो

Tuesday, 11 April 2017

दिल्ली के नगर निगम चुनाव

नमस्कार मित्रो. अगले चंद मिनटों में क्लियर करता हूँ कि आप को वोट मात्र "आम आदमी पार्टी" को क्यूँ देना चाहिए और क्यूँ भाजपा या कांग्रेस को अपना बेशकीमती वोट नहीं देना चाहिए. बस चंद मिनट. ये चंद मिनट आपके, आपके परिवार और बच्चों की भलाई के लिए सही इन्वेस्टमेंट साबित होंगे मित्रो. एम् सी डी चुनाव हैं. म्युनिसिपल कारपोरेशन. जिसके सबसे अहम कामों में से है एक है, शहर की सफाई. अभी पीछे एक प्रोग्राम देखा, जिसमें बताया गया कि मोहनजोदाड़ो और हडप्पा की खुदाई में आधुनिक कमोड और सीवरेज सिस्टम से मिलता जुलता इंतेज़ाम मिला है. माने सदियों पहले यहाँ गन्दगी निपटाने का इतेजाम किया गया था लेकिन आज उस मुल्क की राजधानी, दिल्ली कूड़े का ढेर बन चुकी है. कौन ज़िम्मेदार है? दिखाया ऐसे जा रहा है, समझाया ऐसे जा रहा है, जैसे गन्दगी के लिए, चिकनगुनिया या डेंगू के लिए केजरीवाल ज़िम्मेदार हों. अरे भाई, जब सफाई का ज़िम्मा उनका है ही नहीं तो वो ज़िम्मेदार कैसे हो गए? दिल्ली में बरसों से MCD में भाजपा है, ज़िम्मा उसका है, ज़िम्मा उसका था. अब पोस्टर लगें हैं भाजपा की तरफ से, लिखा है,“नए चेहरे, नई सोच.” और नए चेहरे कौन से नए हैं ? मोदी जी, अमित शाह जी और वो भोजपुरी फिल्मों के एक्टर मनोज तिवारी जी. वैरी गुड. कौन नए चेहरे हैं ये. मोदी जी और अमित शाह जी? वो तो दशकों से राजनीति में हैं. फिर कैसे नए चेहरे? हाँ, मनोज भाई जी नए चेहरे कहे जा सकते हैं. लेकिन वो गाना है न, “चेहरा न देखो, दिल को देखो, चेहरे ने लाखों को लूटा” तो दोस्तों, चेहरा नया हो पुराना हो, उससे क्या मतलब? उस चेहरे के पीछे दिमाग कैसा है, सोच कैसी है, वो सब माने रखता है. है कि नहीं? लेकिन लगी है भाजपा आपको भरमाने कि नए चेहरे पेश किये जा रहे हैं. दशकों से किसके पास था दिल्ली का नगर निगम? भाजपा के पास न. तो फिर क्यूँ नहीं चमका लिया दिल्ली को? अब क्या तीर मार लेंगे? क्या प्लान है सफाई का इनके पास? स्वच्छ अभियान? जो सिर्फ यह सिखाने की कोशिश करता है कि आम-जन गंद न फैलाए तो सफाई अपने आप रहेगी. जो सफाई की सही मनैजमेंट की बात ही नहीं करता. चंद मिसाल देता हूँ सफाई की मैनेजमेंट की. दिल्ली मेट्रो में कैसे सफाई रहती है? मेट्रो में सफर करने वाले कोई और भारतीय हैं? नहीं. लेकिन स्वच्छ अभियान सिखाता है कि गंद मत फैलाओ. आप सरकारी सार्वजनिक शौचालय में चले जाएँ, उल्टी आने को होगी, वहीं सुलभ शौचालय में जाएँ, सब ठीक-ठाक मिलेगा. सुलभ में जाने वाले कोई और लोग हैं क्या? नहीं. बस सफाई का बेहतर इन्तेजाम है. आप अपना घर कैसे साफ़ रखते हैं? बच्चों वाला घर एक घंटा भर न सम्भालो, तो तितिर-बितर हो जाता है. लेकिन गृहणी साथ-साथ समेटती जाती है, और सफाई बनी रहती है. लेकिन प्रधान-मंत्री जी मात्र एक ही बात पर जोर दिए हैं कि गंद मत फैलाओ. दूसरी बात पर जोर ही नहीं देते, कि गंद जल्दी उठाओ. कूड़े का निपटान तुरंत करो. कर्मचारियों को आधुनिक यंत्र दो. कर्मचारियों की गिनती, उनकी हाजिरी का समय, उनका कर्मक्षेत्र वहां के निवासियों को, दूकानदारों को, फैक्ट्री-मालिकों को, दफ्तर चलाने वालों को बताओ. न सिर्फ बताओ बल्कि वहां की एसोसिएशन को साथ लेकर, दिखा कर सफाई करो-कराओ. एक्टिव पार्टिसिपेशन ऑफ़ पब्लिक इन गवर्नेंस. देखें कैसे नहीं होती सफाई? प्रधान-मंत्री जी का स्वच्छ अभियान मात्र अभियान है. विज्ञापन अभियान. जिसमें ब्रांड एम्बेसडर हैं, नारे हैं, फोटो हैं, लेकिन उससे आगे कुछ नहीं. होता तो दिल्ली कूड़े का ढेर नहीं होती. दिल्ली जो एक शहर ही नहीं है, भारत की राजधानी है. अगर दिल्ली में गन्दगी है तो यही एक वजह काफी है साबित करने को कि भाजपा निगम चुनाव में एक भी वोट लेने की हकदार नहीं है. चूँकि केंद्र में भाजपा है, निगम में भाजपा है, उसके बाद यदि गन्दगी है शहर में तो फिर ज़िम्मेदार कौन है? मात्र भाजपा. किस मुंह से वोट मांग रही है भाजपा? ताकि अगले पांच साल इस शहर को और बड़ा कूड़े के ढेर में तब्दील कर दे? वैरी गुड. ये बड़े होर्डिंग लगा दिए हैं कि कूड़े से बिजली बनाने का संयंत्र लगा दिया है. वैरी वैरी गुड. शानदार, जिंदाबाद. तो सर जी, कूड़ा उठाना भी सीख लेते पहले. उसके लिए कोई संयंत्र क्यों नहीं लगाये? बिजली के बिल भी कम करा देते फिर, उसके लिए कोई प्रोग्राम क्यों नहीं पेश किया? होर्डिंग लगे हैं कि निगम के स्कूलों में CCTV लगवा दिए हैं, उनसे निगरानी होगी अब. तकरीबन तीन साल हो गए भाजपा को केंद्र में. सालों- साल हो गए भाजपा को निगम में, अब याद आया CCTV लगवाना? चलिए अब पब्लिक की ज़मीन पर बने प्राइवेट कहे जाने वाले स्कूलों में भी लगवा दीजिये CCTV, वहां तो विजिटर का मोबाइल फ़ोन तक रखवा लिया जाता है बाहर, ताकि रिकॉर्डिंग न कर ले कोई. ज़मीन पब्लिक की है, स्कूल ऐसे चलाते हैं जैसे ज़र-खरीद हो मेनेजर लोगों की. करो भाजपा वालो कुछ इस क्षेत्र में, तो मानें. असल में वैज्ञानिक तो आविष्कार दे चुकता है लेकिन राजनेता के झोल-झोल प्रयासों का नतीजा होता है से जन-जन तक उसका फायदा आता है सालों में, दशकों में. CCTV उसकी मिसाल है. लोगों ने अपने घरों, दुकानों में कब के लगवा लिए CCTV, लेकिन आज भी पुलिस स्टेशन, कोर्ट, स्कूलों, अस्पतालों, सडकों पर CCTV नहीं लग पाए हैं. और कांग्रेस भी वोट मांग रही है. यह वही कांग्रेस है, जो दशकों तक पॉवर में रही है, एक समय था इलाके में MP, MLA और काउंसलर सब कांग्रेस से आते थे, तब क्या गलियों में, पार्कों में सफाई थी, तब क्या दिल्ली अमेरिका जैसा साफ़ था? तब क्या सड़कें टूटी-फूटी नहीं थीं? किस हक़ से ये लोग दुबारा-दुबारा वोट मांगने आते हैं? आप सब को आजमा चुके भई. एक कर्मचारी जिसे सालों मौका दिया गया हो और वो अपनी जिम्मेदारी सही से न निभा सका हो, तो क्या वो आगे नौकरी मांगने का हक़दार है? खैर, वो तो नौकरी मांगे जाएगा लेकिन ऐसे कर्मचारी को यदि आप मौका देते हैं तो यह उसकी होशियारी नहीं है, आपकी मूर्खता है मित्रो. आम आदमी पार्टी ने घोषणा की है कि हाउस टैक्स माफ़ करेंगे, कैसे करेंगे, किस एक्ट, किस सेक्शन से करेंगे, वो सब भी बताया है. लेकिन विपक्षी लगे हैं हांकने कि मुफ्तखोरी को बढ़ावा दे रही है आम आदमी पार्टी. मित्रो एक अच्छी व्यवस्था में सब नागरिकों को, ग्रामीणों को, वनवासियों को, सब को सुविधायें मिलनी चाहियें और सुविधाएं सुविधाएं होनी चाहियें, न कि दुविधाएं. सुविधाएं सस्ती होनी चाहियें और मुफ्त होनी चाहियें. ज़िन्दगी जीने के लिए है न कि जीने के साधन इंतेज़ाम करते-करते मरने के लिए है. कल्पना करें कि किसी निर्जन द्वीप पर कुछ लोग उतरते हैं, ऐसा द्वीप जहाँ नारियल हैं, फल हैं, गुफाएं हैं, साफ़ सुथरी....समन्दर है...नदियाँ हैं......अब यहाँ लोग लगभग सब मुफ्त पाते हैं......खाना, पीना...रहना. हाँ, कुछ काम तो करने ही पड़ते हैं, जैसे फल तोड़ने पड़ते हैं, पानी नदी से लाना पड़ता है, बिस्तर बिछाने पड़ते हैं. मेरा मानना है कि हम अपनी दुनिया उस द्वीप जैसी बना सकते हैं...जहाँ काम तो सब करें और उन्ही कामों में बेसिक ज़रूरतें सबको मुफ्त मिल जाएँ. अभी हम में से अधिकांश लोग काम कर-कर खप जाते हैं, लेकिन फिर भी बेसिक ज़रूरतें नहीं पूरी नहीं हो पाती जीवन भर. तो आने वाले समय में तो और बहुत कुछ सस्ता होना चाहिए, मुफ्त होना चाहिए और ऐसा किया जा सकता है. मात्र बढ़िया मैनेज-मेंट चाहिए. और आम आदमी पार्टी ने ऐसा कर दिखाया है बिजली पानी के क्षेत्र में. बहुत मित्रों को बिजली पानी के बिलों में राहत मिली है पीछे और अब हाउस टैक्स में राहत देने का एलान है. लेकिन आप सोशल मीडिया देखें, आम आदमी पार्टी और ख़ास करके केजरीवाल जी के खिलाफ अपशब्दों की भरमार होगी. उन्हें तो पागल घोषित कर रहा है विपक्ष. अगर वो नोट-बंदी का विरोध करें तो पागल. EVM का विरोध करें तो पागल. क्यूँ भाई, क्या फायदा हो गया नोट-बंदी से? प्रधान-मंत्री जी जापान में कह रहे थे नोट-बंदी के बाद कि बस नोट-बंदी का तय-शुदा समय बीत जाए,फिर सब बढ़िया ही बढ़िया हो जाएगा. सब शिगूफा साबित हुआ. याद रखियेगा, उस सारे दौर को, जब आप को अपने ही पैसे लेने के लिए बैंकों के आगे ये बड़ी कतारों में खड़ा कर दिया गया था. हाँ, मुल्क का फायदा होता कुछ तो सही था, लेकिन आज भी रिश्वत है, आतंक है, काला-बाजारी है, स्मगलिंग है, सब है. केजरीवाल ने पंजाब इलेक्शन के बाद से EVM का विरोध किया, विपक्ष ने मज़ाक उड़ाया, थोड़े दिन में ही विडियो आ गया, EVM की कार्यविधि का प्रदर्शन देख रही थीं कोई अफसर, और बटन दबाने पर जब गलत पर्ची निकली तो वो अफसर कह रही थी कि मीडिया में नहीं जानी चाहिए बात, वरना जेल भेज दिया जाएगा. वैरी गुड. चीज़ें साबित होती जा रही हैं, लेकिन केजरीवाल फिर भी पागल हैं. खैर, तो इस पागल आदमी का साथ दीजिये यदि मुल्क को पागलपन से बाहर निकालना है. कोई भी शंका हो, सवाल हो तो भेजिए kusu167@gmail.com पर. यथासम्भव जवाब दिया जाएगा. और सब आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं से भी अपील है कि जन-जन से जो भी तर्क मिलें, सवाल मिले, हमें भेजें. तुरत आपको उसका जवाब देंगे हम. यह तर्कों की लड़ाई है, यदि कोई वोट देता है तो उसके पास कुछ तर्क हैं और नहीं देता है तो उसके पास अपने तर्क हैं. तो जो नहीं देता, नहीं देना चाहता, उसके तर्कों का जवाब देंगे हम, उसे तर्क से मज़बूर करेंगे, मजबूत करेंगे कि वो हमें वोट दे. और जिन लोगों को लगता है कि केजरीवाल ने कुछ नहीं किया, उन्हें बता दें कि केजरीवाल किये से ही अनेक लोगों को बिजली-पानी सस्ता मिल रहा है, उन्ही के किये से मोहल्ला क्लिनिक बने हैं, उन्ही के किये से अब इलाज सस्ता होने जा रहा है. और यह तब है जब उनके हाथ में पॉवर बहुत काम है. जब अधिकांश पॉवर एल जी साहेब के पास है. आगे और भी बहुत कुछ शुभ होगा मित्रो. अभी समय ही कितना हुआ उनको? समय दीजिये, वोट दीजिये और विकास लीजिये. वोट दीजिये आम आदमी पार्टी को, दिल्ली की साफ़-सफाई के लिए, हाउस-टैक्स से राहत के लिए, वोट दीजिये पानी-बिजली के बिलों का फायदा उठाते रहने के लिए और सब से बड़ा कारण, वोट दीजिये लोकतंत्र बचाए रखने के लिए.
नमस्कार...Tushar Cosmic.. Copy Right Matter

Tuesday, 4 April 2017

~रामलीला, कृष्णलीला: इहलीला लीलती लीलाएं~

आप एक फिल्म कितनी बार देख सकते हैं? आखिर थक जायेंगे. आपकी सबसे पसंदीदा फिल्म भी कई बार देखने के बाद आप देखना छोड़ देते हैं. कितना ठस्स होता है ऐसा व्यक्ति जो यह कहता है कि मैंने फलां फिल्म सत्रह बार देखी, अठारह बार देखी. 

हैरान हूँ कि लोग हर साल, साल-दर-साल कैसे राम लीला देखते हैं! वही कहानी, वही पात्र! वही सब कुछ! फिर भी लोग देखते हैं! देखे चले जाते हैं!

हर साल रावण मारते हैं, जलाते हैं, वो फिर जिंदा हो जाता है, फिर-फिर जिंदा हो जाता है. असल में तो वो मरता ही नहीं. मरता तो फिर दुबारा मारने की ज़रूरत ही कैसे पड़े? राम सदियों से उसे मारने का असफल प्रयास कर रहे हैं. लेकिन हमें समझ नहीं आती. हम कहते हैं,"बुराई पर अच्छाई की विजय हो गई."  अगर हो ही जाती हो ऐसे  विजय, तो फिर हर साल किस लिए दशहरा मानते हैं, क्या ज़रूरत साल दर साल यह सब दुहाराने की?  यह दोहराना ही साबित करता है कि यह सब करना निष्फल है.सब कुंठित हो चुकी बुद्धि का नमूना है. 

असल में तो जो जितना बुद्धिशाली होगा, उतनी ही जल्दी बोर हो जायेगा. एक तेज़ दिमाग प्राणी नई-नई चीज़ें खोजता है. आज मनोरंजन बड़े से बड़े व्यापारों में से एक है. व्यक्ति पहले की अपेक्षा जल्दी बोर होने लगा है. आप पिछली फिल्में देखों, कोई दस-बीस साल पुरानी, सब की सब कहानियाँ एक जैसी. वही हीरो, वही विलन. वही मार कूट. दो-चार  फिल्म देख लो, समझो सभी देख लीं.

आज पैदा होता बच्चा कंप्यूटर इन्टरनेट के सम्पर्क में आता है. बहुत तेज़ी से बहुत देख-सुन चुका होता है. वो और जल्दी बोर होता है. कैसे कोई राम-लीला साल-दर-साल बर्दाश्त कर सकता है?

मुझे याद है, बठिंडा में, जब मैं छोटा था तो जाता था कभी #रामलीला देखने, हर एक-दो सीन बाद एक आइटम सोंग दिखाया जाता था. लड़के, लड़की बन, फ़िल्मी गानों पर ठुमकते थे, ठीक आज के फ़िल्मी आइटम सोंग की तरह. जिस सोंग का फिल्म की कहानी से सीधे तौर पर कोई लेना–देना नहीं होता लेकिन दर्शक को बांधे रखने के लिए, कुछ सेक्सी परोसा जाता है.

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1. सिपाही (घबराई हुई आवाज़ में ) – “सर, कल रात जेल के अंदर कैदियों ने रामलीला का आयोजन किया था …!”

जेलर – “वैरी गुड ! ये तो अच्छी बात है पर तुम इतने घबराए हुए क्यों हो ?”

सिपाही – “जिस कैदी ने हनुमान का रोल किया था वो अब तक संजीवनी लेकर वापस नहीं आया है … !!!”

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2. गाँव मे रामलीला हो रही थी

सीता स्वयंवर में राम जी के धनुष तोड़ने पर परशुराम जी का आगमन हुआ।
परशुराम जी क्रोधित होकर अपने पैर को चौकी से बने स्टेज पर पटकने लगे और चिल्लाने लगे.

"किसने तोड़ा धनुष, किसने तोड़ा धनुष "

तभी दर्शकों में से आवाज आई, "अरे बेटा परशुराम .धनुषवा चाहे कोई तोड़े, हमार चौकीया टूटल न तो तोहार सब गर्मी निकाल देब सरऊ||"

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3. एक बार रामलीला में जो हनुमान बन रया था, वो बीमार हो गया .
रामलीला आले रलदु ने पकड़ ल्याए, आक तू बन ज्या हनुमान .
रलदु बोल्या, "साहब मन्ने नु तो कोनी बेरा अक बोलना के स ?
रामलीला आले बोले, "जो बोलना स वो पंडितजी बता देंगे पाच्छे ते."
तो हनुमान जाके रावण आगे खड़ा हो गया..पाछे ते पंडितजी बोल्या " बेटा नु बोल""....आर फेर घना लंबा डाईलोक बोल दिया.... वो रलदु के समझ ना आया.
तो रलदु बोल्या "देखे ओ रावण ..जिस तरा पंडितजी कहवे स उस तरिया करदे ..नही तो तेरा नाश हो ज्यागा !!"

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4. पप्पू हम यहां मौजूद हैं फिल्म रामलीला के फर्स्ट डे फर्स्ट शो में और हमारे साथ हैं दर्शक नंदू जो अभी-अभी फिल्म देखकर निकले हैं..

पप्पू-नंदू जी बताएं आपको भंसाली की फिल्म 'रामलीला' कैसी लगी..?

नंदू-जी बिल्कुल राजकपूर की 'राम तेरी गंगा मैली'.... जैसी..

पप्पू रिपोर्टर-क्या मतलब..

नंदू-उसमें भी हम ये सोचकर पूरी फैमिली के साथ घुस गए थे कि फिल्म धार्मिक होगी और इसमें भी पत्नी और बच्चन के साथ यही सोचकर घुसे थे, लेकिन राम..राम..दिमाग खराब हो गया
कसम से..!!!

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रामलीला और हिंदी फिल्मों में साम्य है कि कहानी से कोई मतलब नहीं, पुरानी हो, घिसी हुई हो, चलेगी, बस थोड़ा मसाला डाल दो. आज भी देखता हूँ कि रामलीला करने-कराने वाले बोर्ड लगाते हैं कि उनकी राम-लीला में कोई टीवी कलाकार रोल अदा कर रहा है, कोई सीन बढ़िया इलेक्ट्रिक अरेंजमेंट  में दर्शाए जायेंगे, बढ़िया झांकी. बस यह है नवीनता.

क्या झख है!  दिमाग भक्क है!!

सबको पता है कि धनुष राम ही तोडेंगे, सीता का विवाह उनसे ही होगा, फिर भी देख रहे हैं. सबको पता है कि रावण जितना मर्ज़ी रौबदार हो, जितना मर्ज़ी गरज-बरस ले, मरना उसी ने है, हारना उसी ने है, फिर भी देख रहे हैं. 

यह बार-बार का देखना, पूरे जन-मानस की सोच को एक चक्कर-व्यूह में डालना है, जहाँ बुद्धि गोल-गोल घूमती है बस, नया कुछ नहीं होता. कैसे कुछ नया सोचेंगे, जब इस तरह की लीलाएं देखेंगे?

भारतीय जन-मानस को राम-लीला से बाहर निकलना ही होगा, यदि कुछ नया सोचना है, कुछ आविष्कृत करना है तो.

छोड़िये यह सब. आप कोई राम से कम हैं. हो चुके राम. अब कुदरत ने हमें-आपको भेजा लीला करने को. अपनी लीला कीजिये. और आप हैं कि राम छोड़िये, शाहरुख़-सलमान तक की लीला  में उलझे हैं.

गाते हो, "होली खेलत रघुबीरा अवध माँ"

"ब्रज में होली खेलत नन्दलाल"

लानत! खेलनी हैं होली तुम खेलो भाई. तुम क्या किसी रघुबीर या नंदलाल से कम हो?

अपना बच्चा चलना शुरू करेगा तो गाने लगेंगे.
"ठुमक-ठुमक चले श्याम."

अबे ओए, तुम्हारे बच्चे किसी शाम, किसी राम से कम नहीं है.

जीसस सन ऑफ़ गॉड!
वैरी गुड!! बाकी क्या सन ऑफ़ डॉग हैं?

मोहम्मद. अल्लाह के रसूल. वो भी आखिरी.
शाबाश!! अल्लाह मियां चौदह सौ साल पहले ही बुढा गए. थक गए. चुक गए. या फिर सनक गए. 

होश में आओ मित्रवर, होश में आओ. 

आप, आपके बच्चे किसी राम, श्याम, किसी जीसस, किसी भी रसूल से कम नहीं हो. 

आप, हम सब कोई इस धरती पर सेकंड क्लास, थर्ड क्लास कृतियाँ नहीं हैं उस कुदरत की, उस प्रभु की, उस स्वयंभू की. नहीं. ऐसा कुछ भी नहीं है. 

हम सब किसी अवतार, किसी रसूल, किसी परमात्मा के इकलौते पुत्र की चबी-चबाई कहानियाँ चबाने को नहीं हैं. हम कोई आसमानी किताबों की, कोई धुर की बाणी, कोई भगवत गीता की गुलामी को नहीं हैं यहाँ इस धरती पर.

इस मानसिक गुलामी से बाहर आओ.

चबे-चबाये चबेने थूक दो. कुछ नहीं रखा इन सब में. आखिर चीऊंग-गम भी कितनी देर चबाते हैं आप?

मेरा मेसेज साफ़ है,  हम सब अपनी लीला खेलने आये हैं. क्यूँ किसी और की लीला ही देखते रहें? हम किसी से कम नहीं. और यदि अपनी लीला को बेहतर बनाने के लिए किसी और की लीला से कुछ सीखना भी हो तो यह कोई तरीका नहीं कि किसी एक ही की लीला को देखे जाओ और वो भी बंद अक्ल के, सब कुछ सही गलत पहले से ही मान कर?

फ़ोन स्मार्ट हो गए, हम पता नहीं कब होंगे? हम तो बस स्मार्ट फ़ोन से भी राम-लीला के दृश्य कैद करने में लगे हैं. नहीं, भई, दिमाग खोलो, स्मार्ट बनो और स्मार्ट फ़ोन ही नहीं, स्मार्ट ज़िन्दगियाँ आविष्कृत करो.

नमन...तुषार कॉस्मिक

प्रशांत भूषण के बोल बच्चन

राम का पूर्वज बलात्कारी था...सन्दर्भ चाहिए...दे सकता हूँ.....वाल्मीकि रामायण से. अब क्या धारा में बंद करवायेंगे मुझे?

नहीं, मित्र, यहाँ भारत में अलग-अलग विचार रखने वाले लोग हैं, एक दूजे से विपरीत विचार रखने वाले. सो इसमें कोई हाय-तौबा मचाने की बात नहीं कि प्रशांत भूषण ने क्या कहा. इसे इस्लामिस्तान न बनाएं. 

क्या रावण को भी नहीं पूजते लोग? उसका भी सम्मान नहीं करते?

क्या यह कथा नहीं है कि रावण मरने पर राम ने लक्ष्मण को उससे ज्ञान ग्रहण करने को कहा? तो वो रावण के सर पर जा खड़ा हुआ...तब राम ने ही उसे कहा कि नहीं, ज्ञान लेना है तो रावण के पैरों की तरफ जा कर खड़े होवो. नहीं है क्या यह कथा?

महाभारत के विलन दुर्योधन को भी पूजते हैं लोग, तो क्या ये सब लोग देस-द्रोही हो गए? गलत हो गए? मात्र इसलिए कि बहुत लोग कृष्ण को पूजते हैं?

भारत खजुराहो का देश है, कामसूत्र का, कृष्ण लीला का.....प्रेम, सेक्स यहाँ पूजा गया है.........मेरी समझ है कि कृष्ण और गोपिकाओं में प्रेम लीला और लम्पटता में बस एक ही फर्क है...वो है राज़ी और ना-राज़ी का....... ज़बरदस्ती जो करे, वो गलत है.....क्या कृष्ण बलात कुछ कर रहे थे? मुझे नहीं लगता. 

सो प्रशांत भूषण का कथन मैं सही नहीं मानता......आज के लम्पट भी रोमियो न ही कहे जाएँ तो बेहतर.....रोमियो-जूलिएट की कहानी तो प्रेम कहानी है...लम्पटता बात बिलकुल अलग है...इसका कैसे भी समर्थन नहीं होना चाहिए.

असल में "एंटी-रोमियो स्क्वाड" की जगह "एंटी-लम्पट-स्क्वाड" कहें. मुद्दा साफ़ हो जाता. अब कैसे कृष्ण से मेल बिठायेंगे? 

न रोमियो से कोई सम्बन्ध और न ही कृष्ण से. 

कुल मतलब यह है कि प्रशांत भूषण और योगी आदित्य दोनों के गलत उद्धरण का तर्क से जवाब दीजिये...जो मैं देख रहा हूँ, वो हुज्ज्ज़त बाज़ी है.

Sunday, 2 April 2017

तुझे तमीज नहीं औरत से बात कैसे करनी है?

ज़रा  झड़प जाए औरत से आदमी... कहती हैं मोहतरमा.. "तुझे तमीज नहीं औरत से बात कैसे करनी है?"

मुझे आज तक समझ नहीं आया कि जब औरत, आदमी बराबर है तो औरत से बात करने के लिए कोई अलग से तमीज़ क्यूँ होनी चाहिए?

और जिन औरतों को कोई ज़्यादा तमीज़ की दरकार हो उन्हें घर क्यूँ नहीं बैठना चाहिए?

है कि नहीं?

अब समझ आया क्यूँ रिसेप्शन पर स्कूल वाले, अस्पताल वाले, जाली कम्पनी वाले औरतों को, लड़कियों को बैठाते हैं?

ताकि आपके जायज़ तर्क को बदतमीज़ी साबित किया जा सके, ताकि  आप डरें कि औरत है तो कहीं आप पर बलात्कार का आरोप ही न लगा दे. बल से किया गया कार्य. कैसा भी. 

"तमीज नहीं औरत से बात कैसे करनी है?"

वैरी गुड. अरे भई, मुझे  बात ही नहीं करनी ऐसी औरत से, बात छोड़ो शक्ल नहीं देखनी, शक्ल देखनी छोड़ो थूकना तक नहीं ऐसी की शक्ल पर, थूकना छोड़ो.....खैर, छोड़ो, आगे आप खुद्दे समझ गए होंगे.

आदमी बिठाओ न. अब अगर औरत बिठाओगे तो बता दो कौन सा एक्ट, सेक्शन, सब-सेक्शन कहता है  कि आदमी को  ज़्यादा  तमीज़ की ज़रूरत है औरत से बात करने के  लिए आदमी के मुकाबले?

इडियट!

और जब मैं "इडियट" लिखता हूँ तो समझ जाइए उसमें @&^%$#*? सब शामिल होता है.

Friday, 31 March 2017

लाईयो रे मेरा लट्ठ

सुना है डॉक्टर बन्नुओं को लोग धुनने पे आ गए हैं. अब डागदर बाबु चिल्ला-चिल्ली कर रिये हैं, "हम भगवान थोड़ा है, इंसान ही तो हैं."
@#$%^&, जब तुम फीस लेवो, वो भी इंसानों जैसी ही होवे, भगवानों जैसी थोड़ा न होवे कोई?
लाईयो रे मेरा लट्ठ.

Saturday, 25 March 2017

सब युद्ध असल में विचार-युद्ध हैं.

एटम बम से भी खतरनाक मालूम है क्या है? तार्किक, फैक्ट विहीन विचार, मान्यताएं. जंगें कोई हथियारों से थोड़ा होती हैं, वो तो बस औज़ार है. असल कारण उनके पीछे के विचार हैं. सब युद्ध असल में विचार-युद्ध हैं. फिर से पढ़िए, "सब युद्ध असल में विचार-युद्ध हैं." सबसे खतरनाक हिन्दू, मुस्लिम होना नहीं है. खतरनाक है किसी भी विचार-धारा को पकड़-जकड़ लेना. असल में शब्द 'विचार-धारा' का प्रयोग ही गलत है. चूँकि अगर 'धारा' हो तो दिक्कत ही नहीं है और न ही उसे पकड़ा जा सकता है. यह तो विचार का पोखर है. गन्दला पोखर. तो जब कोई हिन्दू, मुस्लिम, यह, वह, हो जाता है, तो असल में किसी न किसी गंदले पोखर में दुबक जाता है, डुबक जाता है. पोखर इसलिए लिखा चूँकि उसमें कोई धारा नहीं है, वो रुके पानी जैसा है. और रूका पानी तो गन्दला ही होता है. दुनिया में अधिकांश गंद उसी गंदले पोखर की वजह है. विचार का गन्दला पोखर. बस हो जाओ हिन्दू, हो जाओ मुस्लिम, ईसाई या फिर कम्युनिस्ट. ठप्पा कोई भी हो. अब जो मर्ज़ी समझा लो, बाकी सब समझ आएगा लेकिन उस गंदले पोखर के खिलाफ कुछ भी समझ नहीं आएगा. हर नए विचार को कांट-छांट के उस पोखर में फिट करते रहेंगे. जो फिट हो गया, वो सही हो गया, जो न हुआ, वो गलत. सही-ग़लत इसलिए नहीं कि वो तार्किक है या नहीं, उसमें फैक्ट हैं या नहीं ... न..न. वो सही-ग़लत इसलिए कि उस गंदले पोखर में फिट हो रहा है या नहीं. मिसाल के लिए, हिन्दू को समझाया जा रहा है कि हनुमान और राम भगवान हैं. आप ले आओ, वाल्मीकि रामायण के उद्धरण कि अशोक वाटिका में बैठी सीता मां को पहचान के लिए हनुमान राम के लिंग और अंड-कोशों तक की पहचान बताते हैं. क्यूँ? हनुमान को कैसे पता? क्यूँ न इस विषय पर सोचा जाए? राम खुद अपने वंश की महानता का बखान बार-2 करते हैं लेकिन उन्ही के पूर्वज ने गुरु की बेटी से बलात्कार किया था. रघुकुल रीत सदा चली आई. लिखा है रामायण में भाई. अपनी तरफ से कुछ नहीं लिखा जा रहा. तो कैसे मानें कि जो भी राम के बारे में घोट के पिलाया जा रहा है, वो सही है? लेकिन यहाँ तो पड़ी है सबको कि कसम राम की खाते हैं, मंदिर वहीं बनायेंगे. लाख समझाते रहो मुस्लिम को कि कुरान में दसियों आयतें हैं कि जो कहती हैं कि जो न माने कि मोहम्मद पैगम्बर है, उसे मारो. अज़ीब दादागिरी है. यह धर्म है या माफिया. लेकिन उसे नहीं समझ आएगा. वो घुमा-फिरा कर सब सही करने का, फिट करने का प्रयास करेगा. यह होता है गन्दला पोखर में दुबकना, डुबकना. यह खतरनाक है दुनिया के लिए. एटम बम से भी ज़्यादा. चूँकि एटम बम भी चलता है तो वो ऐसे ही पोखरों में डुबके लोगों की वजह से होता है. इलाज एक ही है. तीसरा विश्व-युद्ध. विचार-युद्ध. गली-गली. नुक्कड़-नुक्कड़. सब बाहर निकालो. पुराण, कुरान सब. ग्रन्थ, बाइबिल सब. सब पर सवाल उठाया जाएगा. सब पर बहस होगी. और कोई किताब आसमानी, कोई ग्रन्थ गुरु, कोई गीता भगवत (भगवान का गीत) पहले से ही तय नहीं होगा. कोई राम पहले से ही मर्यादा पुरुषोत्तम, कोई कृष्ण ईश्वर, कोई मोहम्मद पैगम्बर, कोई जीसस 'सन ऑफ़ गॉड' पहले से ही नहीं माने जायेंगे. जो विचार-युद्ध तय करेगा, वो ही माना जायेगा. बात खत्म.

Friday, 10 March 2017

सम्भोग

सम्भोग शब्द का अर्थ है जिसे स्त्री पुरुष समान रूप से भोगे. लेकिन कुदरती तौर पर स्त्री पुरुष से कहीं ज़्यादा काबिल है इस मामले में. उसका सम्भोग कहीं गहरा है, इतना गहरा कि वो हर धचके के साथ कहीं गहरा आनंद लेती है, पुरुष ऊपर-ऊपर तैरता है, वो गहरे डुबकियाँ मार रही होती है, जभी तो हर कदम में बरबस उसकी सिसकियाँ निकलती हैं. और फिर ओर्गास्म. वो तो इतना गहरा कि पुरुष शायद आधा भी आनंदित न होता हो. कोई सेक्सो-मीटर हो तो वो मेरी बात को साबित कर देगा. और उससे भी बड़ी बात पुरुष एक ओर्गास्म में खल्लास, यह जो शब्द है स्खलित होना, उसका अर्थ ही है, खल्लास होना. खाली होना, चुक जाना. लेकिन वो सब पुरुष के लिए है, वो आगे जारी नहीं रख सकता. लेकिन स्त्री के साथ ऐसा बिलकुल नहीं है. वो एक के बाद एक ओर्गास्म तक जा सकती है. जाए न जाए, उसकी मर्ज़ी, उसकी शारीरिक और मानसिक क्षमता और एच्छिकता, लेकिन जा सकती है. तो मित्रवर, निष्कर्ष यह है कि सम्भोग शब्द बहुत ही भ्रामक है. सेक्स में सम्भोग, सम-भोग, समान भोग बिलकुल भी नहीं होता. स्त्री की कई गुणा सेक्स शक्ति के आगे पुरुष बहुत बौना है. मैं अक्सर सोचता कि कुदरत ने ऐसा भेदभाव क्यूँ किया? पुरुष को काहे नहीं स्त्री के मुकाबले बनाया? लेकिन फिर याद आया कि बच्चे को जन्म देने की पीड़ा भी तो वो ही सहती है, शायद उसी की क्षतिपूर्ती की कुदरत ने. पुरुष सेक्स में स्त्री से कमतर सामाजिक कारणों से भी है. वो सामाजिक बोझ को ढोता हुआ, स्त्री से बहुत पहले ही चुक चुका होता है. वो स्त्री के मुकाबले कहीं ज़्यादा बीमार रहता है, कहीं ज़्यादा नशों में लिप्त रहता है, जल्दी मर जाता है. एकाधिक ओर्गास्म छोड़िये, पुरुष अक्सर स्त्री को एक ओर्गास्म भी नहीं दे पाता. वो जैसे-तैसे बस अपना काम निपटाता है और हो जाती है सम्भोग की इतिश्री. अब आप इसे सम्भोग....समान भोग कैसे कहेंगे? किसी की क्षमता हो तीन रोटी खाने की और उसे आप आधी रोटी खिला दें तो कैसे उसका पेट भरे? यह है स्त्री की त्रासदी. और सामाजिक घेराबंदी कर दी गयी उसके गिर्द. वो चूं भी न करे. कई समाजों में तो उसकी भग-नासा तक काट दी जाती है बचपन में ही ताकि उसे कम से कम सेक्स का आनन्द अनुभव हो. सही सभ्यता तब होगी जब स्त्री अपनी सेक्स की क्षमताओं को पूर्णतया अनुभव करेगी. और करवाना हर पुरुष की ज़िम्मेदारी है. पुरुष को सीखना होगा बहुत कुछ. और सामाजिक ताना-बाना भी बदलना होगा. स्त्री उम्र में बड़ी हो, पुरुष छोटा हो तो ही बेहतर. अलावा इसके दोनों को बाकायदा ट्रेनिंग की ज़रुरत है. जैसे क्लच, ब्रेक दबाने और स्टीयरिंग घुमाना सीखने से कोई ड्राइविंग नहीं सीखता, उसके लिए रोड के कायदे भी समझ में आना ज़रूरी है, रोड सेंस होना भी ज़रूरी है, उसी तरह से लिंग और योनि तक ही सेक्स सीमित नहीं है, उसके लिए स्त्री पुरुष के तन और मन का ताल-मेल होना ज़रूरी है, जो सीखने की बात है, जो मात्र शब्दों में ही सीखा-सीखाया नहीं जा सकता, जो आप सबको सेक्स करते-कराते सीखना होगा. अधिकांश पुरुष चुक चुके होते हैं...कोई सिगरट तो कोई शराब, कोई मोटापे तो कोई बुढापे तो कोई किसी और स्यापे की वजह से. लेकिन यदि फिर भी दम बचा हो तो अपनी स्त्री के साथ सम्भोग करते चले जाओ, वो ओर्गास्म तक पहुंचेगी ही और यदि वहां तक तुम खुद न चुके तो अब गाड़ी आगे बढाते जाओ और बिना समय अंतराल दिए गतिमान रहो. स्त्री यदि ओर्गास्म तक पहुँच भी जाए तो उसे बहुत समय-गैप मत दो, सम्भोग को गतिशील रखो. स्त्री निश्चय ही आगामी ओर्गास्म को बढ़ती जायेगी. और ऐसे ही चलते जाओ. वीर तुम बढे चलो, धीर तुम बढे चलो. जब तक दोनों में से कोई एक बिलकुल निढ़ाल न हो जाए. बेसिक फंडे दे दिए हैं. कुछ पूछना हो तो स्वागत...नमन.

इमोशनल इंटेलिजेंस

मैं तर्क का हिमायती हूँ. इतना कि मेरा मानना है कि गली-गली नुक्कड़-नुक्कड़ तर्क युद्ध होना चाहिए. तर्क की अग्नि से गुज़रे बिना मानव मन पर सदियों-सदियों से पड़े अंध-विश्वासों की मैल गलेगी नहीं. लेकिन आज बात इमोशन की, भावनाओं की. क्या तार्किक होना इमोशनल होने के खिलाफ है? और यह 'इमोशनल इंटेलिजेंस' क्या है? आईये देखिये. आपने अक्सर खबरें सुनी होंगी, ज़रा सी बात पर कत्ल हो जाते हैं. मरने वाला तो मर जाता है लेकिन मारने वाला भी मर जाता है. उसके पीछे उसका परिवार भी मारा जाता है. “ज़रा सी बात”. दिल्ली में रोड़ रेज की खबरें लगभग रोज़ सुनते-पढ़ते होंगे आप. ऐसे में हो सकता है कि कोई इंसान किसी की बदतमीज़ी बर्दाश्त कर ले. हो सकता है कि वो बुज़दिल दिखाई दे, लेकिन उसकी यह वक्ती बुजदिली उसे ख्वाह्मखाह की मुसीबतों से बचा भी सकती है. इसे कहते हैं 'भावनात्मक बुद्धिमत्ता'. इमोशनल इंटेलिजेंस. अब अगली बात. मर्द को दर्द नहीं होता. लेकिन मर्द को सेक्स का मज़ा भी नहीं आता क्या? दर्द होता है, मर्द हो चाहे औरत. लेकिन मर्द ज़ाहिर नहीं करता. ज़ाहिर करेगा तो उसकी मर्दानगी पर शक किया जाएगा. लेकिन वो इतना पक्का हो जाता है कि सम्भोग के क्षणों में भी पत्थर बना रहता है. औरत सिसकारती रहती है, वो ऐसे बना रहता है जैसे उसे कुछ हो ही नहीं रहा हो. शब्द ज़रूर 'सम्भोग' है, समान भोग, लेकिन ऐसा है नहीं. औरत ज़्यादा एन्जॉय करती है, गहरे में एन्जॉय करती है. और ऐसा इसलिए कि औरत बच्चा पैदा करने की तकलीफ से गुज़रती है. तो कुदरत ने उसको उस कष्ट की क्षति-पूर्ति करने हेतु एक्स्ट्रा-बेनिफिट दिया है. मेरी थ्योरी है. कितनी सही है, सोच कर देखें. चलिए, औरत से कम ही सही, लेकिन आदमी भी एन्जॉय तो करता ही सेक्स. लेकिन जितना भी करता है, उतना भी ज़ाहिर नहीं करता. अपने आपको रोके रखता है. घसुन्न-वट्टा बना रहता है. उसने सीख रखा है कि इमोशन की मोशन में बहना नहीं है. खुद को रोके रखना है. मर्द को दर्द नहीं होता. बस यही है मेरा पॉइंट. यह जो आपको याद दिलाई रोड़ रेज की घटनाओं की. वो वक्ती इमोशन, नेगेटिव इमोशन का नतीजा होती हैं. इमोशन को नहीं पता कि वो नेगेटिव है या पॉजिटिव. इमोशन तो बस एक एनर्जी है, ऊर्जा, मोशन, गति. लेकिन हालात के हिसाब से वो नेगेटिव साबित होती हैं. तो ऐसी इमोशन पर, नेगेटिव इमोशन पर काबू पाना ज़रूरी है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम मुस्कुराएं भी तो नाप कर. हंसे भी तो तोल कर. मानता हूँ समाज ऐसा है कि ऐसा भी करना पड़ता है. लेकिन जहां नहीं मज़बूरी, वहां भी हम नाप-तोल कर, गिन-चुन कर भावनाओं का इज़हार कर रहे हैं, यह कहाँ की समझदारी है? कैसी इमोशनल इंटेलिजेंस? तो इमोशनल इंटेलिजेंस यह है कि जहाँ इमोशन को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना, वहां बिलकुल मत होने दें, खुद को याद दिलाते रहें कि बहस नहीं करनी है, लड़ना नहीं है, लोग तो @#$^&*% होते ही हैं आदि आदि. और यदि ध्यान समझते हों तो बेहतर है उस घटना के प्रति, उस नेगेटिव इमोशन के प्रति उदासीन हो जाएं. उदास नहीं, उदासीन. साक्षी हो जाएं, गवाह, विटनेस. लेकिन जहाँ आप बह सकते हैं, वहां शीतल वायु के साथ बह जायें, बच्चे के साथ खिलखिलाएं, अपनी महबूबा की सिसकारियों के साथ अपनी सिसकारियां मिला दें, और फिल्म देखते हुए रोना आये तो खूब रोयें. पता है कि पर्दा है, रोशनी का खेल है, वहां असल में कुछ भी घटित नहीं हो रहा लेकिन ऐसे तो जीवन भी खेल है. लीला. लेकिन खेल को खेल जानते हुए भी जी-जान से खेला जाता है कि नहीं? तो बस खेलें. लीला के रंग में रंग जाएँ. रोकें नहीं, टोके नहीं. बारिश की एक-एक बूँद को महसूस करें. गले में उतरते पानी के एक-एक घूँट का आनदं लें. खाना खाएं तो मशीन की तरह नहीं, इंसान की तरह, आखिरी कौर तक स्वाद का लेते हुए. नर्म बिस्तर, नर्म कम्बल, मखमली कम्बल की छूअन को अपने अंदर उतरने दें. ये अहसास, ये बहाव, ये भाव, ये भावनाएं जीवन को रंगीन बनाती हैं. होली इन्ही अहसासों को, इन्ही रंगीनियों को जगाने का एक ज़रिया है. रंगों के ज़रिये, छूअन के ज़रिये, नृत्य के ज़रिये, गायन के ज़रिये,पागल-पंथी के ज़रिये. तो जब मैं तर्क की बात करता हूँ तो उसका अर्थ जीवन को भावों से, भावनाओं से, अहसासों से विहीन करना नहीं है बल्कि इनमें भी समझदारी लाने से है. इमोशनल इंटेलिजेंस. नमन....तुषार कॉस्मिक

Thursday, 9 March 2017

स्वास्थ्य

बड़ा विषय है. जो कुछ भी लिखने जा रहा हूँ, वो बस कुछ-कुछ ही है. बहुत पहले लिखा था कहीं कि इंसान बूढ़ा उम्र से नहीं, ग्रेविटी से होता है. आपने कभी पढ़ा-सुना हो कि जो लोग स्पेस में रहे बीस-तीस साल, जब वो वापिस आये तो उनके बच्चे उनके बराबर की उम्र के दिख रहे थे.स्पेस में रहने वाले लोगों की उम्र रुक गई थी. आगे ही नहीं बढ़ी. मुझे नहीं पता कि यह कितना सत्य है. लेकिन मेरी समझ से सत्य होना चाहिए. वजह है. वजह है ग्रेविटी. ग्रेविटेशनल पुल. आपका वज़न क्या है? मानो सत्तर किलो. इसका मतलब है कि आपके शरीर पर प्रतिपल सत्तर किलो का खिचांव पड़ रहा है नीचे को. मान लीजिये कि आपके कंधों पर बीस किलो वज़न डाल दिया गया, तो आपको क्या लगता है कि आप सिर्फ बीस किलो उठा रहे हैं? नहीं. अब आप नब्बे किलो वज़न उठा रहे हैं. सत्तर अपना मिला कर. अब धरती आप को नीचे की तरफ नब्बे किलो वज़न से खींच रही है. अब जिस चीज़ को कोई लगातार सत्तर किलो वज़न से नीचे को खींचा जा रहा हो तो उसका मांस नहीं लटकेगा क्या? उस के जोड़ों में खिंचाव नहीं आएगा क्या? उसके बाकी सिस्टम में कोई नेगेटिव फर्क नहीं आएगा क्या? बिलकुल आएगा. आपके अंडर-वियर का इलास्टिक साल-छह महीने में ढीला हो जाता है, अंडर-वियर जॉकी का ही क्यूँ न हो, जिसे दिखाने की आप में कभी-कभी छद्म इच्छा जागृत हो उठती है. तो यह इलास्टिक क्यूँ ढीला हो जाता है? चूँकि लगातार खिंचाव पड़ रहा होता है. तो जस्ट इमेजिन. जब आपके-हमारे शरीर पर लगातार अपने वज़न जितना खिंचाव पड़ेगा तो उसका क्या हाल होगा? तो वज़न कम रखें. कितना कम? मैं आपको इंचों में, किलो में नहीं बताने वाला. मेरा पैमाना सीधा है. जब आप सीधे खड़े हों तो आप अपने पैर देख सकें. मतलब बीच में पेट न आता हो. आपने बच्चे देखे हों. मैं शहर के, अमीरों के बच्चों की बात नहीं कर रहा. मैं भुखमरी के शिकार इलाकों के बच्चों की बात भी नहीं कर रहा. आम घरों के बच्चे. आपको शायद ही कोई आड़ा-टेड़ा दीखता हो. सब फिट. बस वैसा शरीर आदर्श है. किसी डॉक्टर के पैमाने पर मत जाएं. मेरी छोटी बिटिया को आज भी अंडर-वेट कहते हैं, लेकिन वो कल भी स्वस्थ थी और आज भी है. तो वज़न सही होगा तो फालतू गुरुत्व-आकर्षण नहीं पड़ेगा शरीर पर. आप देर से बूढ़े होंगे, कम बीमार होंगे. अब यह क्या बात? वज़न कम रखें. यह तो अक्सर सुनते आये हैं आप. ठीक. लेकिन जो वजह मैंने बताई, जैसे बताई, वो सब नहीं सुना होगा. अब इलाज पढ़िए. इलाज है योग-आसन. यह एकमात्र विधि है जो गुरुत्व-आकर्षण के खिलाफ काम करती है. मैंने अनेक तरह की व्यायाम किये हैं जीवन में. एक समय में लोग अपने व्यायाम छोड़ मुझे देखते थे कि यह आदमी मशीन की तरह कैसे इतनी हरकत कर लेता है. लगातार. मान लीजिये आप रस्सी कूद रहे हैं. ठीक. यह आपको व्यायाम दे रही है लेकिन आप के शरीर पर गुरुत्व बल उतना ही पड़ रहा है जितना हमेशा पड़ता है. आप रोजाना पैदल चलते हैं, दौड़ते हैं, आपका शरीर उसी स्थिति में होता है, जैसा होता है अक्सर. ज़मीन पर पैरों के बल नब्बे डिग्री पर. गुरुत्व बल वैसे ही अपना काम करता रहता है. एक मात्र योग-आसन ऐसी विधा है जो शरीर को गुरुत्व-बल के खिलाफ खड़ा करती है. जिससे हम जो गुरुत्व बल हमारे खिलाफ काम कर रहा होता है, उसे ही अपने पक्ष में कर लेते हैं. बीमारी को ही इलाज बना देते है. दुश्मन को दोस्त बना लेते हैं. अब यह क्या नई बात बताई मैंने? योग-आसन के फायदे होते हैं, यह तो आपको पहले ही पता था. राईट? लेकिन वो फायदे कैसे होते हैं, उसकी जो एक्सप्लेनेशन मैंने दी, वो शायद आपको नहीं पता था. राईट? योगासन कोई बाबा रामदेव की देन नहीं हैं. उनसे पहले धीरेन्द्र ब्रह्मचारी सिखाते थे टीवी पर. 'भारतीय योग संस्थान' बहुत पहले से पार्कों में योग सिखा रहा है, करा रहा है. बहुत लोग व्यक्तिगत स्तर पर योग कक्षाएं लीड करते आ रहे हैं. विदेशों में विक्रम योगा काफी मशहूर रहा है. योग-आसन पतंजलि के अष्टांग योग का एक हिस्सा है और यह भारत की दुनिया को बड़ी देन में से एक है. तो योग-आसन मात्र ही होने चाहिएं क्या व्यायाम में? मेरा ख्याल है कि नहीं. गुरबाणी में शायद पढ़ा था,"नचणा टप्पणा मन का चाओ.” इंसानी मन का चाव है, नाचना, टापणा. तो कुछ ऐसा ज़रूर करें कि जिसमें कूदना, फांदना, भागना, चलना-फिरना भी हो जाए. क्षमता अनुसार, हालांकि क्षमता भी बढ़ाई जा सकती है और क्षमता की सीमाएं बहुत कुछ मानसिक अवरोधों की वजह से भी बनी होती हैं. रस्सी कूदी जा सकती है. बिना रस्सी के भी कूदा जा सकता है. खड़े-खड़े हाफ स्टेप रनिंग की जा सकती है. बॉक्सिंग किट पर घूंसे-बाज़ी की जा सकती है, किक की जा सकती हैं. और भी बहुत कुछ. खैर, इन्हें हम 'फ्री-हैण्ड एक्सरसाइज' कह सकते हैं. ऐसी सब एक्सरसाइज मानसिक रेचन के लिए भी ज़रूरी हैं. भावनात्मक वाष्पीकरण. अगली महत्व-पूर्ण व्यायाम विधा है वजन उठाना. जैसा मैंने ऊपर लिखा कि योग-आसन हमारा गुरुत्व-बल के खिलाफ हथियार है. वज़न उठाना दूसरा हथियार है. गुरुत्व-बल के ही खिलाफ. प्रतिपल पड़ने वाले गुरुत्व-बल के खिलाफ ही हम अपने शरीर को और मज़बूत कर रहे हैं. दंड पेलना, बैठकें मारना, सब इसमें आता है. ये बॉडी-वेट एक्सरसाइज कहलाती हैं. हम अपने ही शरीर के वज़न को अपने शरीर के ख़ास अंगों पर डाल कर शरीर को मज़बूत करते हैं. या फिर हम डम्ब-बेल, बार-बेल, मशीनों आदि का प्रयोग करते हैं. यह भी असल में है, ग्रेविटी के खिलाफ ही हथियार. यूँ समझें कि एक साठ साल के व्यक्ति का शरीर अगर अस्सी किलो का है और अगर एक बीस साल के लड़के का शरीर भी अस्सी किलो का है तो वज़न तो दोनों का बराबर है लेकिन उनकी क्षमता बराबर नहीं होगी. क्यूँ? साठ साल के व्यक्ति के शरीर में वो ताकत नहीं है जो बीस साल के व्यक्ति के शरीर में है. अंडर-वियर का इलास्टिक ढीला हो चुका है. लेकिन अगर वही व्यक्ति वज़न उठा-उठा कर अपने शरीर को मज़बूत कर ले तो? अब शायद वो बीस साल के आम लड़के का भी मुकाबला कर ले. यह ढीले इलास्टिक को मशीन में डाल फिर से मज़बूत करने का ढंग है. बाकी गुरुत्व बल तो हर हालात में अपना काम एक जैसा ही करता है. तो व्यायाम को तीन हिस्सों में बांटता हूँ. १.योगासन. २.फ्री-हैण्ड एक्सरसाइज (नाचना-कूदना आदि) ३.वज़न उठाना मिला-जुला कर करें, लेकिन योग-आसन को सबसे ऊपर रखें. अष्टांग योग के ही दो अंग हैं. धारणा और ध्यान. स्वास्थ्य में इनका क्या महत्व है, देखिये मेरे साथ. मन ड्राईवर है शरीर का. और अगर ड्राईवर दारू पीये हो, अनाड़ी हो तो वो गाड़ी ठोक देगा. गाड़ी चाहे कितनी ही बढ़िया हो. 'रोल रोयस' ही क्यूँ न हो. तो ये दोनों विधाएं दारू पीये मन को सूफ़ी करने में काम आती हैं. धारणा है धारण कर लेना कुछ. मन में कुछ बिठा लेना. मैंने अक्सर ज़िक्र किया है 'लैंडमार्क फोरम' का. उस वर्कशॉप का एक निचोड़ यह था कि हम वो ही हो जाते हैं, जो हमारे मन में कभी जाने-अनजाने बैठ जाता है, बिठा दिया जाता है. और यह जो बैठता है, अधिकांशत: नेगेटिव होता है. इंसान की सबसे ज़्यादा पिटाई वो खुद ही करता है. ज्यादातर लोगों की 'सेल्फ इमेज' बहुत खराब होती है. कोई अपनी चौड़ी नाक से परेशान है तो कोई अपनी छोटी हाइट से. कोई गंजा हो रहा है तो कोई मोटा. बहुत कम लोग हैं, जो जैसे हैं, वैसे खुश हैं. समाज इस तरह से पेश आता है एक बच्चे से कि उसे अपना बहुत कुछ खराब लगता है, बेकार लगता है. वो लगातार खुद को कोसता रहता है. तो भैया जी, बहिन जी, खुद को जुत्तियां मारनी बंद कीजिये. आप सही हैं और बेहतर हो सकते हैं. यह जो नॉन-स्टॉप रेडियो चलाए रखते हैं अपने खिलाफ़ उसे बंद करें. बस, फुल स्टॉप. 'नेगेटिव सेल्फ-टॉक' से 'पॉजिटिव सेल्फ-टॉक' करें. लेकिन मात्र पॉजिटिव पॉजिटिव पॉजिटिव का गीत गाने से कुछ नहीं होगा यदि उसके पीछे तार्किक ग्राउंड नहीं होगी तो. आपका मन खुद ही ऐसी धारणा को नकार देगा और आप पहले से भी बदतर स्थिति में होंगे. पुराना मन कहेगा, "देखा, मैं न कहता था, यह नहीं हो सकता. आया बड़ा तीस मार खां." तो पॉजिटिव धारणा से मतलब पॉजिटिव बकवास-बाज़ी चलाए जाने से नहीं है. न. उसके पीछे मज़बूत तार्किक ग्राउंड रखने से भी है. अगर आप उम्र में छोटे हैं और दौड़ प्रतियोगिता में हिस्सा लेना चाहते हैं तो आप बुधिया सिंह की मिसाल ले सकते हैं, जिसने बचपने में ही कई रिकॉर्ड तोड़ दिए थे. और उम्र में बड़े हैं तो फौजा सिंह को अपने सामने रख सकते हैं, जो सौ साल के होकर भी मीलों दौड़ते हैं रोज़. अब अगर आप कहीं आप असफल भी होते हैं तो आपका पुराना मन आप पर हावी नहीं हो पायेगा. यह एक तरह का आत्म-सम्मोहन है. सम्मोहन में भी यदि कुछ धारणा मन में बिना तार्किक आधार के बिठा दी जायेगी तो वो कितनी ही पॉजिटिव दिखे लेकिन कुछ ही समय बाद बैक-फायर करेगी. तो आत्म-सम्मोहन हो, दूसरे द्वारा सम्मोहन हो, सेल्फ-टॉक हो, पॉजिटिव धारणाएं धारण करें लेकिन तार्किक आधार के साथ. बुनियाद मज़बूत न हो तो बिल्डिंग कितनी बड़ी खड़ी कर लें, भर-भरा कर गिर जायेगी. दूसरी विधा है 'ध्यान'. बहुत लिखा-कहा जाता है ध्यान पर आज कल. जिन्हें कुछ नहीं पता, उन्हें भी सब पता है. खैर, मेरा भी एक आर्टिकल है इसी विषय पर. शोर्ट में कहता हूँ . ध्यान पर ध्यान ही ध्यान है. हमारी ज्यादातर बीमारियाँ मन से आती हैं. ध्यान भटकता है इधर-उधर. और इसी भटकन में वो एक खिंचाव पैदा किये रहता है और वो खिंचाव शरीर को अंदर से बीमार करता है. तो यह दूसरा खिंचाव है. गुरुत्व-बल बाहर से खींचता है. मानसिक खिंचाव अंदर से खींचता है. रक्त-चाप को अनियमित कर देता है, ह्रदय-रोग दे जाता है, शर्करा बन जाता है, ब्रेन हैमरेज दे जाता है, कुछ भी कर जाता है. तो मित्रवर, ध्यान सीख लीजिये. तुरत काम आता है. आपको जब भी लगे मामला गड़बड़ होने जा रहा है. तुरत ध्यान विषय से हटा लीजिये और ध्यान को ध्यान पर ले आईये. ध्यान का तीर प्रत्यंचा से छूटे नहीं. वो हर दम तैयार है छूटने को. लेकिन आपकी नज़र अगर जमी है उस पर, तो वो नहीं छूटेगा. समन्दर में उठा भंवर शांत होता जाएगा. बस सीखने की विधा है. हर वक्त काम आती है. आपके बगल में बैठे व्यक्ति को पता तक नहीं लगेगा कि आपने कैसे खुद का इलाज कर लिया. वो शब्द है न. स्वस्थ. स्वयं में स्थित. वो यही है. ध्यान पर ध्यान. अपने आप में स्थित होना. आप, हम सिवा ध्यान के कुछ नहीं हैं. और जब आप खुद पर स्थापित हो जाते हैं तो स्वस्थ हो जाते हैं. अगला मुद्दा है "आहार". आहार मात्र भोजन नहीं है. जो भी कुछ हम शरीर में डालते हैं, वो आहार है. जो मन में डालते हैं, वो भी आहार है. तो ज़रूरी है कि हम क्या पढ़ रहे हैं, क्या देख रहे हैं, क्या सुन रहे हैं, वो सब भी स्तरीय हो. स्वास्थ्यकारी हो, कचरा डालेंगे तो कचरा ही बाहर आएगा. गार्बेज इन, गार्बेज आउट. अच्छा डालेंगे तो आउटकम भी अच्छा ही होगा. आजकल हॉलीवुड की फिल्में बनती हैं. "ज़ोम्बी" विषय पर. सीरीज़ बनती चली आ रही हैं. अब यह कचरा नहीं तो और क्या है? हॉरर फिल्मों की सीरीज़ बनती चली आती हैं. बीमार मनोरंजन. बॉक्सिंग क्या है? बीमार मनोरंजन. इंसान इंसान को मार-कूट के धराशाई कर दे, तो यह खेल हुआ? वो रोम में होता था ऐसा. लड़ाके छोड़ दिए जाते थे अखाड़े में. एक दूजे को मारते हुए. दर्शक दीर्घ में बैठे भद्रजन ताली पीटते थे. तो मन में जो डाला जाए, वो स्वास्थ्यकारी होना ज़रूरी है. और तो तन में जो डाला जाए, वो भी स्वास्थ्यकारी होना ज़रूरी है. तन के आहार में भोजन बड़ा हिस्सा है. लेकिन पहले बात धूप की. जितना ज़रूरी अच्छा खाना-पीना है, उतना ही ज़रूरी धूप का सेवन है. गर्मी हो या सर्दी, आधा घंटा, एक घंटा धूप में ज़रूर रहें. हो सके तो कपड़े उतार कर. वो गोरे मीलों दूर उड़ कर समुद्र किनारे नंगे पड़े रहते हैं धूप में और हमारे यहाँ यही चिंता रहती है कि कहीं काले न हो जाएँ. धूप लेंगे तो सर्दी, खांसी ज़ुकाम नहीं होगा. हड्डियाँ कड़-कड़ नहीं बोलेंगी. धूप कुदरत का तरीका है, हमारे तन को सेकने का, पकाए रखने का. नहीं लेंगे तो शरीर कच्चा पड़ना शुरू हो जाएगा. मैंने लिखा था कुछ समय पहले कि प्रभु कह रहे हैं इंसान से. "हम ने सर्द दिन बनाये और सर्द रातें बनाई, लेकिन तुम्हारे लिए नर्म नर्म धूपें भी खिलाई. जाओ, निकलो बाहर मकानों से, जंग लड़ो दर्दों, खांसी और ज़ुकामों से" अब भोजन की बात. आग की खोज से हमारे सभ्य होने की यात्रा की शुरूआत मानी जाती है. आग ने बहुत कुछ दिया है हमें. अभी कुछ समय पहले तक ट्रेन आग से चलाई जातीं थी. आग से पानी को गर्म करके भाप बनाई जाती थी और भाप की ताकत से ट्रेन दौड़ती थी. लेकिन आग से हमारा बहुत कुछ नुक्सान भी हुआ है. आग को हम घर ले आए. रसोई घर. हमने वो तक पका लिया जो शायद हमारे खाने के लिए था ही नहीं. बहुत पहले डिस्कवरी चैनल पर एक प्रोग्राम देखा था. कुछ बीमार लोगों को एक जगह इकट्ठा कर लिया गया और उनको कच्चा खाना दिया गया. बिना पका. लगातार. बड़ी मुश्किल से खा पा रहे थे वो लोग. लेकिन कुछ ही समय में उनके बहुत से रोग अपने आप दूर हो गए. खाना हम खाते हैं या खाना हमें खाता है? यह गहन प्रश्न है. इतनी तरह का खाना हम ईजाद कर चुके हैं कि क्या खाएं और क्या न खाएं, यह भी एक विज्ञान बन गया है. डाइट विज्ञान. कुदरत को हम बेवकूफ समझते हैं. हमें लगता है कि हम सबसे सयाने हैं और जो हम करते हैं, वो ही सही है. सूरज किस लिए है? वो अपनी गर्मी से फल-सब्जियां-नारियल पकाता है कि नहीं? उनमें बहुत कुछ ऐसा है कि नहीं जिसे इंसान सीधा खा सकता है? बस वही खाने लायक है. बाकी जो कुछ भी आप-हम खा रहे हैं. बकवास है. सीधी बात, नो बकवास. गली में सर्वे करते फिर रहे थे....आपके बच्चे सूप कौन सी कंपनी का पीते हैं? इडियट. दिल किया थप्पड़ मार कर भगा दूं. एक तो वैसे ही दरवाज़े बजा-बजा कर घर की औरतों को मज़बूर कर रहे थे कि इन महाराज के सवालों का जवाब दें. ऊपर से सवाल इतने बकवास. मैंने कहा, "सूप पीते हैं लेकिन टमाटर का. सब्ज़ियों का. किसी कम्पनी का नहीं." वो अज़ीब शक्ल बना कर देख रहे थे. मुझे लगा नहीं कि उनको मेरी बात समझ में आई. मैं तो इस हक़ में भी नहीं कि सूप भी बनाया जाए. सीधा जो सब्ज़ी खा सकते हैं, खा लेनी चाहिए. लेकिन मुझे आभास है कि एक दम से सब कुछ कुदरत की आग में पका ही आप खाएं, यह लगभग असम्भव है. हाँ, आप अपने भोजन में जितना हो सके कुदरती खाना शामिल करें, यह सम्भव है. तो ये थोड़ी सी बात, खान-पान और व्यायाम के विषय में. हालांकि और भी पहलु हैं. स्वास्थ्य के लिए जीवन स्वस्थ होना चाहिए. जीवन संतुलित होना चाहिए. जीवन में अगर असंतुलन होगा तो यह सब जो लिखा है मैंने ऊपर कुछ काम नहीं आएगा. मिसाल के लिए अगर किसी की आर्थिक स्थिति सही न हो तो यह सारी विधाएं अपनाने के बाद भी वो अस्वस्थ हो सकता है. और अगर ट्रैफिक के नियमों के साथ खिलवाड़ करेगा तो टांग तुड़वा बैठेगा, लाख करता रहे आसन. सेक्स न मिले तो पगला जाएगा. लेकिन ये सब फिर कभी. नमन...मदारी...तुषार कॉस्मिक

दो सलाहें

१.सब मित्रों से गुज़ारिश, फेसबुक का 'रिप्लाई' आप्शन न प्रयोग कर सीधे कमेंट लिखें, वो सबको नज़र आता है और किसी व्यक्ति विशेष को सम्बोधित करना हो तो उसका नाम लिख दें. २.और 'शेयर' आप्शन भी न प्रयोग करके सीधे कॉपी पेस्ट करें और ओरिजिनल लेखक का नाम टैग कर दें. ज़्यादा पढ़ा जाएगा.

वैसे तो कोई टके सेर नहीं पूछता मुझे, फिर भी खुश-फ़हमी हुई मुझे आज कि शायद किसी को मुझ से बात करने का मन हो. नम्बर दिया है.... 9876543210


कट्टर

अक्सर सुनता हूँ कहते मित्रों को," मैं फलां पंथ को मानता हूँ लेकिन कट्टर नहीं हूँ" "किसी भी धर्म को, मज़हब को, दीन को मानो लेकिन कट्टर मत होवो." बकवास! जब आप किसी ख़ास ढांचे में, खांचे में खुद को ढालते हैं तो वो कट्टर होना ही होता है. मतलब किसी दीन, मज़हब, धर्म, पंथ, सम्प्रदाय को मानना और कट्टर होना, दो नहीं एक ही बात है. कट्टर होना/ फंडामेंटल होना.......मतलब अपनी मान्यताओं से टस से मस नहीं होना...कोई लाख तर्क दे....तथ्य दे...प्रयोग से बताये...साबित कर दे......"पंचों का कहा, सर माथे लेकिन परनाला उत्थे दा उत्थे". धार्मिक, दीनी लोगों को कोई भी तर्क दे, कैसा भी तर्क दे...वो आम तौर पर टस से मस नहीं होते. इस लिए अब एक विचार यह भी पैदा हो रहा है कि किसी तरह से नए बच्चों की परवरिश दीनी, धार्मिक लोगों की पकड़ से बाहर की जाए. कट्टर मतलब दूसरों को अपनी बात जबरन मनवाने से नहीं है......न... कट्टर होना, यह नहीं है. यह मुसलमान होना है. कट्टर होना, मतलब आप जो भी मानते हैं, बस वो ही मानते हैं. जोर से. आपकी पकड़, जकड़ तर्क के दायरे से बाहर हो जाती है. वो मानना कुछ भी हो सकता है. कट्टरता का मतलब खुद को एक खूंटे से बाँध लेने से है. तो जब कोई कहता है कि मैं धार्मिक हूँ लेकिन कट्टर नहीं, तो मैं अंदर अंदर ही हँसता हूँ.

अक्सर लोग गलत को गलत और सही को सही मानने में यकीन करते हैं लेकिन दिक्कत तो यह है उनका गलत ज़रूरी नहीं गलत हो और उनका सही ज़रूरी नहीं सही हो.


बदमाश औरतें

लानत है. आज किसी स्त्री पर अत्याचार सुन भर लिया जाए....क्या औरत, क्या मर्द.....निकल पडेंगे.....मोमबत्तियां लेकर.......फेसबुक भर जायेगा स्त्री समर्थन में ......इडियट. जब औरत मर्द पर अत्याचार करती है तब कहाँ होते हैं ऐसे लोग....ख़ास करके औरतें....वो क्यों नहीं खड़ी होतीं ऐसे में आदमी के साथ? एक कोई जसलीन कौर थीं... तिलक नगर दिल्ली का केस था...एक लडके को खाहमखाह फांस रखा था केस में.......चैनल दर चैनल दिखा रहे थे पीछे. उम्दा केस... यह समझने को कि समाज में पलड़ा किसी भी एक तरफ झुक जाए तो ना-इंसाफी होनी शुरू हो जाती है. उस लड़के पर आरोप कि उसने लड़की को छेड़ा.........सबूत कुछ भी नहीं ....गवाह जसलीन के खिलाफ बोल रहे थे...फिर भी केस लड़के के खिलाफ ........उस लड़के ने लड़की को टच तक नहीं किया. कुछ कहा सुनी ज़रूर हुई. मैं आपसे पूछता हूँ कि यदि आदमी आदमी को थप्पड़ मार दें तो क्या यह सेक्सुअल आक्रमण का केस है? नहीं न. अब यदि जिसे थप्पड़ मारा हो वो औरत हो तो क्या? लेकिन सम्भावना है कि सेक्सुअल आक्रमण का केस बनाया जाए. एक बहुत प्रसिद्ध केस था. निशा शर्मा का.लड़की को नायिका बना दिया गया था. क्यूँ? चूँकि उसने दहेज़ मांगने वालों की बारात लौटा दी थी. सालों केस चला और नतीजा यह निकला कि लड़की पक्ष झूठा था. लड़के की ज़िंदगी खराब कर दी. पूरे परिवार को ज़िल्लत झेलनी पड़ी. 04/03/2017 'जागरण' (jagran.com) की खबर है. "बस में छेड़छाड़ का आरोप लगा कर तीन युवकों को पीटने वाली 'बहादुर बहनों' पर बड़ा सवाल उठ गया है। रोहतक के एसीजेएम हरीश गोयल की अदालत ने तीनों आरोपी युवकों को बरी कर दिया। अदालत को इस केस में पीड़ित पक्ष की तरफ से कोई ठोस गवाह या फिर सबूत नहीं मिला है। बचाव पक्ष के अधिवक्ता का कहना है कि अब केस कोर्ट में आगे नहीं चलेगा। हालांकि, पीड़ित पक्ष के अधिवक्ता का कहना है कि वह हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाएंगे। युवकों और युवतियों का लाई डिटेक्टिव टेस्ट भी कराया गया, जिसमें युवतियों को झूठा और युवकों को सच बताया गया। इसके अतिरिक्त अदालत में युवाओं के वकील ने कई साक्ष्य पेश किए। उधर, दोनों युवतियों की तरफ से कोई ठोस सबूत नहीं पेश किया गया। बता दें कि घटना के बाद बस के कंडक्टर और चालक को निलंबित कर दिया गया था, लेकिन आरोपों पर संदेह के बाद उन्हें भी बहाल कर दिया गया। दोनों बहनों के बहादुरी के दावे के बाद उन्हें कई संस्थाओं ने सम्मानित किया। प्रदेश सरकार ने भी दोनों को पांच लाख रुपये का नकद पुरस्कार देने और 26 जनवरी पर सम्मानित करने का फैसला किया था। लेकिन, जब सच्चाई सामने आने लगी तो सरकार ने पुरस्कार की राशि रोक ली और सम्मानित करने का फैसला भी रोक दिया। अब इस मामले में अदालत का फैसला आने के बाद सम्मान भी नहीं मिलेगा। जिन युवकों पर छेड़छाड़ का आरोप लगा उनमें से दो दीपक व कुलदीप उस समय जाट कॉलेज में पढ़ते थे। तीसरा मोहित नेकीराम कॉलेज का छात्र था और तीनों ही बीए सेकंड ईयर में थे। दीपक और कुलदीप ने सेना भर्ती का फिजिकल पास कर लिया था। कुलदीप ने मेडिकल भी क्लीयर कर लिया था। फरवरी में उसकी ज्वाइनिंग थी। लेकिन घटना के बाद सेना ने दोनों के आवेदन निरस्त कर दिए थे।" ओ भाई, औरतों को अमोघस्त्र मत पकड़ाओ....कोई दूध की धुली नहीं होती सब......अगर मुकाबिल औरत हो तो उसके औरत होने से ही तय मत कीजिये कि आदमी पर कौन सा केस लगाया जाए.....498- A और DV Act के तले कितने ही आदमी पीस कर रख दिए ही औरतों ने. महिलाओं में एक अलग ही ब्रिगेड तैयार हो गयी है......बदमाश ब्रिगेड...जो बात बेबात आदमियों को गाली देती हैं, हाथ उठा देती हैं, थप्पड़, लात घूंसे जड़ देती हैं......और अक्सर आदमी बेचारा पिटता है, सरे राह. क्या है इन औरतों की शक्ति का राज़? इन्हें लगता है कि इनका औरत होना सबसे बड़ी शक्ति है....खास करके भीड़ में..........समाज का सामूहिक परसेप्शन बन चुका है कि आदमी शिकारी है और औरत शिकार, बेचारी अबला.....सो यह बेचारी अबला बस मौका देखते ही आदमी की इज्ज़त उतार देती है. इसे लगता है कि अव्वल तो आदमी उस पर वापिसी हाथ उठाने की हिम्मत ही नहीं करेगा और करेगा भी तो वो अपने कपड़े फाड़ लेंगी.......शोर मचा देंगी........बलात्कार का आरोप लगा देंगी. इलाज़ क्या है? इलाज एक तो यह है कि समाज में यह विचार प्रसारित किया जाए कि औरत मर्द किसी को भी एक दूजे के खिलाफ अत्याचार की छूट नहीं दी जा सकती. दूजा है, ये जो बदमाश किस्म की औरतें हैं इनको जब भी सम्भव हो बाकायदा तरीके से धुना जाए. लकड़ी को लकड़ी नहीं काटती...लेकिन लोहे को लोहा काटता है. यदि मर्द को औरत की इज्ज़त से खिलवाड़ करने का हक़ नहीं है तो औरत को कैसे है? कानून बिलकुल अपना काम करता है, लेकिन आप पर कोई जिस्मानी वार करे तो आप क्या करेंगे? आत्म रक्षा आपका कानूनी हक़ है. निश्चिंत रहें किसी के भी कपड़े फटे होने से साबित नहीं होता कि उसके साथ बलात्कार हुआ है. इस तरह के आरोप केस के शुरू में ही धराशायी हो जायेंगे. कॉपी राईट

Tuesday, 7 March 2017

कायनात अल्लाह की किताब है और ज़र्रा ज़र्रा उसका पैगम्बर.


मज़मा

आईये, आईये, मेहरबान, कदरदान, पानदान, पीकदान...आईये, आईये.

ए साहेब, जनाब, मोहतरमा ध्यान किदर है......सबसे अच्छी पोस्ट इधर है.......रंग-बिरंग-बदरंग पोस्ट......आईये, आईये,

सेक्स पे पढ़ना हो या टैक्स पे........धरम  पे पढना हो या भरम  पे......मज़मा चालू है...आईये, आईये.

ए मैडम, आप भी आयें...अपने साहेब को लेते आईये...जी....हाँ जी, हज़ूर...आईये ...आपके बाल  उड़ गए हैं  या जहाँ बाल नहीं होने चाहियें वहां जुड़ गए हैं.....  चिंता न करें...हम मदद करेंगे......मैं हूँ न.......आईए, आईये.

उलझों को सुलझाते हैं और सुलझों को उलझाते हैं....नहीं..नहीं...मल्लब सुलझों को और सुलझाते हैं...ढंग से मिस-गाइड करना अपना फर्ज़ और कानून है.....आईए, आईये.

अपने साथ यारों, प्यारों, बेकरारों, बेकारों को...सबको साथ लेते आईये...मज़मा चालू है......थोड़ी देर का शो है..... कल हम कहाँ तुम कहाँ.... आईये. आईये.

मदारी...तुषार कॉस्मिक.

पहले तुम्हें सेक्स से नवाज़ा गया, जब तुम उस नेमत का सही इस्तेमाल नहीं समझे तो तुम्हें हाथ दिए और जब तुम फिर भी नहीं समझे तो तुम्हें "अपना हाथ जगन्नाथ की" हिदायत दी गई. सच में जगन्नाथ बड़ा मेहरबान है.


::: तारक फतह से सावधान :::

तारक फतह बहुत मुसलमानों की आँख की किरकिरी बने हैं. और बहुत से हिन्दुओं के चहेते. 

होना उल्टा चाहिए. 

मुसलमानों को उनका शुक्र-गुज़ार होना चाहिए कि वो मुसलमानों को सिखा रहे हैं कि किसी तरह से ठुक-पिट कर आज की दुनिया में रहने के काबिल बन जाओ. डेमोक्रेसी को मानो, सेकुलरिज्म को मानो. कत्लो-गारत से हटो.

लेकिन  बाकी दुनिया को उनसे सावधान होना चाहिए.

चूँकि  असल में वो धोखा दे रहे हैं. उनका फंडा है, "एक अल्लाह का इस्लाम है, एक मुल्ला का इस्लाम है."

फिर से पढ़ें, चश्मा लगा कर पढें, अगर नज़र सही है तो माइक्रोस्कोप के नीचे रख पढ़ें. अंडरलाइन नहीं दिख रहा, बोल्ड नहीं दिख रहा लेकिन  अंडरलाइन और बोल्ड मान कर पढें. 

तारक फतह का बेसिक फंडा है," "एक अल्लाह का इस्लाम है, एक मुल्ला का इस्लाम है."

ज़ाहिर है, वो अल्लाह के इस्लाम के साथ खड़े हैं.

उनके मुताबिक अल्लाह के इस्लाम में न बुरका है और न ही दुसरे किसी  मज़हब की खिलाफ़त.

बकवास!

कोई दो इस्लाम नहीं हैं. इस्लाम सिर्फ एक है. जो कुरान से आता है. 

कुरान पढ़ लीजिए, सब साफ़ हो जाएगा.

वहां से सब आता है. 

इस्लाम में न सेकुलरिज्म आ सकता है, न डेमोक्रेसी. और न ही सह-अस्तित्व, जिसे ओवैसी मल्टी-कल्चरिज्म कहता है और अक्सर मुस्लिम "गंगा जमुनी तहज़ीब" कहते हैं. 

न...न. इस्लाम में यह सब कुछ नहीं है.

लेकिन तारक फतह लगे हैं धोखा देने कि नहीं, अल्लाह का इस्लाम बड़ा पाक-साफ़ है. शांति सिखाता है. प्यार सिखाता है. भाई-चारा सिखाता है. यह तो मुल्ला का इस्लाम है जो सब दंगा मचाये है. 

सावधान! 
तारक फतह कितने ही सही लगते हों, ऐसे लोग दुनिया के लिए खतर-नाक हैं. ये डेंटेड-पेंटेड  मुसलमान पेश करना चाहते हैं. इस्लाम की असल हकीकत छुपाना चाहते हैं. आज हकीकत हमारी नज़रों से ओझल कर देंगे. कल क्या होगा? 

ज़रा सा पॉवर में आते ही मुसलमान सब को तिड़ी का नाच नचा देगा. उखाड़ लेना तब उसका जो उखाड़ सको? इतिहास गवाह है. नहीं. एक ही इलाज है. 

"तारक फतह साहेब, अगर कहना है  तो साफ कहिये कि इस्लाम की आधुनिक दुनिया में कोई जगह नहीं है. न. जाएँ मुसलमान अपने मुल्कों में वापिस. बाय-बाय. टा...टा."

नमन.....तुषार कॉस्मिक

Monday, 6 March 2017

सर्वे

गली में सर्वे करते फिर रहे थे....आपके बच्चे सूप कौन सी कंपनी का पीते हैं? इडियट. दिल किया थप्पड़ मार कर भगा दूं. एक तो वैसे ही दरवाज़े बजा-बजा कर घर की औरतों को मज़बूर कर रहे थे कि इन महाराज के सवालों का जवाब दें. ऊपर से सवाल इतने बकवास. चलते-चलते मैंने कहा, "सूप पीते हैं हम लेकिन टमाटर का. सब्ज़ियों का. किसी कम्पनी का नहीं." वो अज़ीब शक्ल बना कर देख रहे थे. मुझे लगा नहीं कि उनको मेरी बात समझ में आई.

गंगा जमुनी तहज़ीब! बुल शिट!!

टीवी हमारे घर में है नहीं. कब विदा हो गया पता ही नहीं लगा. चुपके-चुपके उसकी जगह डेस्कटॉप, लैपटॉप्स और टैबलेट ने ले ली.
बुद्धू-बक्से की विदाई. इन्टरनेट हमें हमारी मर्ज़ी के मुताबिक, हमारे समय के मुताबिक प्रोग्राम देखने की आज़ादी देता है. तो तारक फतह का टीवी प्रोग्राम "फतह का फतवा" देख रहा था. टीवी पर नहीं, youtube पर. प्रोग्राम नंबर 9. एक मौलाना साहेब गर्म बहस में तमतमा गए. और फतह साहेब के खिलाफ लगे अनाप-शनाप कहने. उनके तरकश में से निकले तर्कों के बड़े तीरों में से एक था कि फतह साहेब की बेटी ने एक हिन्दू से विवाह किया है. और इस्लाम में इसकी इजाज़त ही नहीं है. इस्लाम के मुताबिक, एक मुस्लिम औरत की शादी गैर-मुस्लिम से गर होती है तो यह "जिना" है. "जिना" व्यभिचार/ छिनाल-पने को कहा जाता है. ऐसा कहते हुए इन मौलाना ने वहाँ मौज़ूद एक और मुस्लिम महिला पर भी यही आरोप लगाया कि उनकी शादी भी किसी हिन्दू से हो रखी है और वो भी "जिना" कर रही हैं. खैर, मौलाना साहेब को ऑनलाइन प्रोग्राम से निकाल बाहर किया गया. लेकिन मुझे लगता है कि मौलाना साहेब सही फरमा रहे थे. वो इस्लाम बता रहे थे और सही बता रहे थे चूँकि इस्लाम किसी और धर्म को मानने वाले को दुश्मन की नज़र से देखता है तो मुस्लिम का गैर-मुस्लिम से ब्याह कैसे वाजिब मान सकता है? यह तो गुनाह माना ही जाएगा. यह जिना माना ही जाएगा. गंगा जमुनी तहज़ीब! बुल शिट!! थोड़े में ज़्यादा समझें. चिठ्ठी को तार समझें. मेरे मामा के बेटे, सिक्ख हैं, बीवी ईसाई हैं, ज़रीना. मैं बिलकुल रस्मों रिवाजों से बाहर हूँ, मेरी बीवी जन्म से और कर्म से बरहमन हैं. मैं और मेरी बड़ी बेटी उनकी मान्यताओं से बिलकुल असहमत हैं लेकिन फिर भी उनको जो करना होता है, उनकी आज़ादी है, कोई दखल-अन्दाजी नहीं है. पिछली क्रिसमस पर ज़रीना भाभी को मेरी बीवी लेकर गयी थीं पंजाबी बाग चर्च. बच्चे एन्जॉय करते हैं. भाभी को अच्छा लगता है. ठीक है. साल में एक बार सब चर्च जाते हैं सालों से. यह है सह-अस्तित्व. मल्टी-कल्चरिज्म जिसमे इस्लाम by default शामिल नहीं हो सकता. गंगा जमुनी तहज़ीब! यह है गंगा जमुनी तहज़ीब. मुसलमान या तो मुसलमान हो सकता है या सेक्युलर...दोनों नहीं. ऐसा कुरान के मुताबिक है. वैसे तो जब तक लोग सिक्ख, हिन्दू, जैन, बौध का ठप्पा चिपकाए रखेंगे, वो कभी एक हो नहीं सकते. एक ही हैं, लेकिन ठप्पों की वजह से अनेक हैं. ठप्पे गिरा दें, एक ही हैं. सही मानों में तो वैसे भी एकता में अनेकता नहीं हो सकती. लेकिन काम चलाऊ एकता फिर भी स्थापित की जा सकती है. उसमें बाकी सब धर्मों को मानने वाले तो फिर भी शामिल हो सकते हैं लेकिन मुस्लिम नहीं. चूँकि मुस्लिम मान्यताओं उसे ऐसा करने से रोकती हैं. कुरानिक हुक्म. असल में किसी भी धर्म के व्यक्ति को धार्मिक मान्यताओं के खिलाफ सहमत कराना लगभग असम्भव है. पूरा जीवन दांव पर लग जाता है अगले का. छाती फट जाती है. पुरखे दांव पर लग जाते हैं. चौगिर्दा दांव पर लग जाता है. सब कैसे गलत हो सकते हैं? लेकिन इस्लाम दुनिया को बहुत पीछे धकेल रहा है सो बाकी दुनिया को इस्लाम के खतरों से वाकिफ ज़रूर कराया जाना चाहिए. फर्क यह है बाकी दुनिया में और इस्लाम में कि इस्लाम दीन है....यह सिर्फ नमाज़, रोज़े का नाम नहीं है...इसमें मज़हबी, सामाजिक, आर्थिक और सियासी सब पहलु समेटे है.....और जो इस्लाम से बाहर है इस्लाम उनके खिलाफ है....सो काहे कि गंगा जमुनी तहज़ीब? इस्लाम मुक्कद्दस किताब, आसमानी किताब कुरान से आता है, वो किताब जो जगह-जगह नॉन-मुस्लिम के खिलाफ है. हम तो सिर्फ कह रहे हैं कि मुसलमानों को दोयम दर्जे के लोगों में रहना ही नहीं चाहिए. उनको अपने पवित्र मुल्कों, पाकिस्तानों को कूच करना चाहिए. अमेरिका और भारत जैसे गंदे, गलीज़ मुल्कों से उनका क्या वास्ता? ये मुल्क को सेकुलरिज्म को मानते हैं. डेमोक्रेसी को मानते हैं और इस्लाम तो तब तक पूर्ण-रूपेण इस्लाम है ही नहीं जब तक की जीवन के हर पहलु पर उसकी स्थापना न हो जाए. मतलब जब तक सियासत इस्लामी न हो जाए, जब तक कानून इस्लामी न हो, जब तक मज़हब इस्लामी न हो, जब तक सामाजिक रिवायतें इस्लामिक न हों, इस्लाम तो सही मानों में स्थापित हुआ माना ही नहीं जा सकता. सो जो मुल्क इस्लामिक हैं ही नहीं, वहां मुसलमानों के रहने का क्या फायदा?
गंगा जमुनी, सरस्वती,सिन्धी, थेम्सी तहज़ीब है, बिलकुल है लेकिन मुसलमान उससे बाहर है. चूँकि इस्लाम सब पर हावी होने का नाम है. नमन......तुषार कॉस्मिक

Friday, 3 March 2017

ट्रम्प का मुस्लिम मुल्कों पर वीज़ा बैन

और हम तो उसी (यकता ख़ुदा) के फ़रमाबरदार हैं और जो शख़्स इस्लाम के सिवा किसी और दीन की ख़्वाहिश करे तो उसका वह दीन हरगिज़ कुबूल ही न किया जाएगा और वह आखि़रत में सख़्त घाटे में रहेगा ( कुरआन 3.85)

If anyone desires a religion other than Islam (submission to Allah), never will it be accepted of him; and in the Hereafter He will be in the ranks of those who have lost (All spiritual good). (Quran 3.19)

ओ नबी, जो भी नहीं मानते, या असल में नहीं मानते लेकिन मानने का झूठा नाटक करते हैं, उनके खिलाफ भंयकर युद्ध कर. जहन्नुम ही उनका घर है. (कुरआन-66.9)

O Prophet! strive hard against the unbelievers and the hypocrites, and be hard against them; and their abode is hell; and evil is the resort. (Quran 66.9)

(मैं) उस ख़ुदा के नाम से शुरू करता हूँ जो बड़ा मेहरबान रहम वाला है।
अलिफ़ लाम मीम अल्लाह ही वह (ख़ुदा) है जिसके सिवा कोई क़ाबिले परस्तिश नहीं है. वही जि़न्दा (और) सारे जहान का सॅभालने वाला है ((3.1 & 3.2) 

Alif, Lam, Meem. Allah - there is no deity except Him, the Ever-Living, the Sustainer of existence. (3.1 & 3.2) 

(ऐ रसूल) उसी ने तुम पर बरहक़ किताब नाजि़ल की जो (आसमानी किताबें पहले से) उसके सामने मौजूद हैं उनकी तसदीक़ करती है और उसी ने उससे पहले लोगों की हिदायत के वास्ते तौरेत व इन्जील नाजि़ल की (3.3) 

He has sent down upon you, [O Muhammad], the Book in truth, confirming what was before it. And He revealed the Torah and the Gospel. (3.3)

और हक़ व बातिल में तमीज़ देने वाली किताब (कु़रान) नाज़िल की बेशक जिन लोगों ने ख़ुदा की आयतों को न माना उनके लिए सख़्त अज़ाब है और ख़ुदा हर चीज़ पर ग़ालिब बदला लेने वाला है (3.4) 

Before, as guidance for the people. And He revealed the Qur'an. Indeed, those who disbelieve in the verses of Allah will have a severe punishment, and Allah is exalted in Might, the Owner of Retribution. (3.4)

ये कुछ आयतें  काफी है यह समझने को कि इस्लाम की सेक्युलर दुनिया में कोई जगह नहीं है. सो जब अमेरिका में मुस्लिम को डिपोर्ट करने की आवाज़ उठती है या भारत में मुस्लिमों को पाकिस्तान भेजने की आवाज़ उठती है, तो मैं  शत-प्रतिशत सहमत होता हूँ. मुझे तो तब भी यकीन था कि दुनिया बदलने वाली है, जब ट्रम्प को चुटकला समझा जा रहा था. 

इस्लाम 'मज़हब' नहीं है सिर्फ. पूजा पद्धति नहीं है मात्र. इस्लाम 'दीन' है, जिसके अपने  सामाजिक, आर्थिक और सियासी नियम, कायदे-कानून हैं. पूरी की पूरी सामाजिक व्यवस्था. राईट? 

तो कौन मना कर रहा है, मुसलमानों को अपने  दीन के हिसाब से जीने के लिए?

तमाम मुल्कों से मुसलमानों को निकल जाना चाहिए, जहाँ-जहाँ भी लोग सेक्युलर हिसाब से जीना चाहते हों.

बेहतर है मुसलमान अरबी मुल्कों में बसें, पाकिस्तान में बसें, बांग्ला-देश में बसें. जहाँ भी मुसलमान बहुसंख्या में हों, वहां रहें. 

जहाँ मुसलमान होगा, बटवारा होगा ही. 
सन सैंतालीस का बटवारा, आपको बताया गया होगा कि जिन्ना ने करवाया, गांधी ने करवाया, अंग्रेजों ने करवाया. नहीं. जहाँ इस्लाम होगा, वो मुल्क बटेगा ही. जहाँ उनकी जनसंख्या जोर मारेगी, वो मुल्क बटेगा ही. दुनिया बटेगी ही. 

मैं आरएसएस के विरोध में हूँ. मेरे सैकड़ों लेखों में से एक है, "मैंने संघ क्यूँ छोड़ा".  लेकिन एक पॉइंट पर सहमत हूँ उससे. मुस्लिम विरोध. वीर सावरकर ने जो सदी पहले समझा, वो गांधी को समझ नहीं आया. वो "ईश्वर अल्लाह तेरो नाम" गाते रहे. "हिन्दू, मुस्लिम सिख ईसाई, आपस में सब भाई-भाई'' गाते रहे.  जबकि अल्लाह खुद कह रहा है कुरआन में कि वो सिर्फ इस्लाम के मानने वालों के साथ है. रवीश कुमार, बरखा दत्त, राजदीप सरदेसाई जैसे उथले लोग आज भी नहीं जानते कि इस्लाम चीज़ क्या है और न ही अरविन्द केजरीवाल इस्लाम के खतरों के प्रति सजग दीखते हैं. 

इस्लाम में और बाकी धर्मों में बुनियादी  फर्क यह है कि बाकी धर्मों में शरिया जैसे किसी सामाजिक, आर्थिक कायदे-कानून की व्यवस्था नहीं है. बाकी धर्मों को मानने वाले बड़ी आसानी से किसी भी मुल्क की पार्लियामेंट में बने कायदे-कानूनों को मान लेते हैं. दूसरे मुल्कों में पहुँच वहाँ के कायदे-कानूनों में बदलाव की मांग नहीं करने लगते. या वहां पहुँच अपनी अलग ही दुनिया नहीं बना लेते.

भारत का एक नाम 'हिन्दुस्तान' है ज़रूर लेकिन हिन्दू भारत की पार्लियामेंट में बने कानून मानते हैं न कि किसी गीता माता से निकले कानून.

सिक्खों में खालिस्तान की डिमांड उठी ज़रूर लेकिन अंदर-खाते न तो सब सिक्ख तब सहमत थे और न ही आज सहमत हैं. सिक्ख बड़े आराम से छह इंच छोटी कृपाण रख लेता है, अड़ नहीं जाता कि एक मीटर लम्बी कृपाण ही रखेगा.

जैन अहिंसा को मानते हैं. पक्षी घायल हो जाए तो इलाज करते हैं लेकिन जगह-जगह मुर्गे कटते हैं तो झंडा-डंडा लेकर नहीं निकल पड़ते. 

मुसलमान आज भारत में मल्टी-कल्चरिज्म की बात करता है. 'गंगा जमुनी तहज़ीब' की बात करता है. लेकिन धोखा दे रहा है. दूसरों को या खुद को. या धोखा खा रहा है. उसे कुरान देखनी चाहिए. कुरान के मुताबिक इस्लाम में  किसी मल्टी-कल्चरिज्म की, सह-अस्तित्व की सम्भावना ही नहीं है.  

अगर मुसलमान ठीक-ठीक कुरआन समझ ले तो उसे ट्रम्प और आरएसएस का धन्य-वाद करना चाहिए जो सेकुलरिज्म को मानने वाले  गंदे-गलीज़ मुल्कों  से उसे बाहर करना चाहते हैं ताकि वो पाकिस्तान जैसे पाक-साफ़ मुल्कों में जा बसें.

और ट्रम्प ऐसे ही नहीं आ गए. ट्रम्प की भूमिका तो 9/11 के हमले से ही बन गई थी.  9/11 के बाद अमेरिका पर बार-बार जो हमले किये गए वो सब वजह हैं ट्रम्प के आने की. अयान हिरसी, वफ़ा सुलतान, ब्रिजिट  गेब्रियल, रोबर्ट स्पेंसर जैसे कितने ही लेखक-लेखिकाओं ने पश्चिमी मुल्कों को बार-बार, लगातार इस्लाम के खतरों से आगाह किया है. किताबें लिखी हैं, लेक्चर दिए हैं, वेबसाइट चलाईं हैं. सामाजिक प्रोग्राम चलाए हैं. 

मुझे तो हैरानी है कि ट्रम्प को आते-आते इतनी देर कैसे लग गई! और ट्रम्प को चुटकला समझा गया, घटिया चुटकला और आज उनके जीतने के बाद भी ऐसा ही समझा जा रहा है. 

मुसलमान ऐसे दिखा रहे हैं जैसे इस्लामिक आतंकवाद मुसलमान की वजह से नहीं है, मुसलमान के साथ जो ज़्यादती होती है, उसकी वजह है. 

'खुदा  के वास्ते' नाम की पाकिस्तानी फिल्म देखें, काफी मशहूर है.  भारत की Newyork फिल्म देखें. बेचारे इनोसेंट मुसलमान अमेरिका द्वारा परेशान किये जा रहे हैं. शाहरुख़ खान को तो अमेरिका एअरपोर्ट पर नंगे हो कर तलाशी देनी पड़ी. उन्होंने 'My name is Khan' बना दी.  जिसका बेसिक फंडा यह बताना था कि हर मुसलमान आतंक-वादी नहीं होता.  फिल्म के अंत में वो अमेरिकी प्रेसिडेंट को मिल कर यह कहने में कामयाब हो ही जाते हैं "My name is Khan and I am not a terrorist."

ठीक है कि हर मुसलमान आतंक-वादी नहीं होता लेकिन हर मुसलमान आतंक-वादी होने की सम्भावना से भरपूर है. और वो  सम्भावना कुरान से आती है. 

मैं 'कॉस्मिक' लिखता हूँ अपना सरनेम. मानता हूँ कि कायनात एक है. दुनिया एक होनी चाहिए. धरती पर अलग-अलग मुल्क  नहीं होने चाहियें. मुल्क हैं तो फौजें हैं. फौजें हैं तो युद्ध हैं. युद्ध हैं तो गुरमेहर के पिता जैसे अनेक पिता मरेंगे. मरते रहेंगे.

गुरमेहर कौर जब कहती हैं कि उनके पिता को युद्ध ने मारा, पाकिस्तान ने नहीं, वो अधूरी बात है. उनके पिता इसलिए मरे क्यूंकि धरती पाकिस्तान, हिन्दुस्तान, अफगानिस्तान, बलोचिस्तान और पता नहीं कौन से स्तान, स्थान में बंटी है. अभी खालिस्तान बनते-बनते रह गया. 

गुरमेहर कौर ने अपने पिता की मौत के कारण को समझने का प्रयास किया. उन्हें कारण युद्ध लगा. लेकिन युद्ध के कारणों को भी समझतीं तो बेहतर होता. 

जब हम कारण सही समझें, तभी सही निवारण भी समझ पाते हैं.

कारण मुल्क हैं. और मुल्कों  के अस्तित्व के पीछे भी बड़ा कारण पन्थ हैं, मज़हब हैं, धर्म हैं, दीन हैं.

जब तक ये सब  किसी एक प्लेटफार्म पर नहीं आते, कॉमन-प्रोग्राम स्थापित नहीं कर लेते या इंसान ही इतना समझदार नहीं हो जाता कि इन सबसे नमस्ते कर ले, तब तक मुल्क भी रहेंगे और मुल्क रहेंगे तो फौजें रहेंगी. कहते सब हैं कि ये फौजें "डिफेन्स फोर्सेज" हैं लेकिन फिर "अटैक" कौन कर जाता है, युद्ध कैसे हो जाते हैं आज तक समझ नहीं आया. तो मैं बता रहा था कि  फौजें हैं तो युद्ध हैं. युद्ध हैं तो गुरमेहर के पिता जैसे अनेक पिता मरते रहेंगे.

और जब  मुल्क रहने ही हैं अभी, तो फिर हमें यह भी सोचना होगा कि क्यूँ न इस तरह से रहें कि वहां के वासी जितना हो सके शांति से रह पाएं?    

उसके लिए मुसलमानों का मुस्लिम मुल्कों में केंद्री-करण एक रास्ता है.  

नमन....तुषार कॉस्मिक

गुरमेहर कौर

गुरमेहर कौर ने अपने पिता की मौत के कारण को समझने का प्रयास किया. उन्हें कारण युद्ध लगा. लेकिन युद्ध के कारणों को भी समझतीं तो बेहतर होता. 

गुरमेहर कौर जब कहती हैं कि उनके पिता को युद्ध ने मारा, पाकिस्तान ने नहीं, वो अधूरी बात है. उनके पिता इसलिए मरे क्यूंकि धरती पाकिस्तान, हिन्दुस्तान, अफगानिस्तान, बलोचिस्तान और पता नहीं कौन से स्तान, स्थान में बंटी है. अभी खालिस्तान बनते-बनते रह गया. 


मैं 'कॉस्मिक' लिखता हूँ अपना सरनेम. मानता हूँ कि कायनात एक है. दुनिया एक होनी चाहिए. धरती पर अलग-अलग मुल्क  नहीं होने चाहियें. मुल्क हैं तो फौजें हैं. फौजें हैं तो युद्ध हैं. युद्ध हैं तो गुरमेहर के पिता जैसे अनेक पिता, भ्राता मरेंगे. मरते रहेंगे.
जब हम कारण सही समझें, तभी सही निवारण भी समझ पाते हैं.