यात्रा वृतांत पढ़े होंगे, सुने होंगे आपने. आज भोजन वृतांत पढ़िए. यात्रा वृतांत जैसा ही है, बस फोकस भोजन पर है ...भोजन यात्रा ..मेरी भोजन यात्रा .....मन्तव्य मात्र पीना-खाना है और मेरे जीवन में आपको खुद के जीवन की झलकियाँ दिखाना है. चलिए फिर, चलते हैं.
कहते हैं आदमी के दिल का रास्ता पेट से हो के गुजरता है... सही है ..... वैसे दिल के दौरे का रास्ता भी पेट से ही हो के गुजरता है और दिल का रास्ता पेट की बजाए पेट के थोड़ा नीचे से शोर्ट कट है. सीक्रेट है थोड़ा, लेकिन है.
बचपने में बासी रोटी को पानी की छींट से हल्की गीली करके लाल मिर्च और नमक छिड़क कर दूसरी रोटी से रगड़ कर खाना याद है. और याद है रोटी खाना पानी में नमक और लाल मिर्च घोल के साथ ..हमारे घर में खाने-पीने की कभी कमी तो नहीं रही लेकिन वहां बठिंडा में कभी-कभी ऐसे भी खाते थे....एक बार घर से लड़ कर वहीं एक फैक्ट्री में मजदूरी की दिन भर, मजदूरों के साथ बैठ खाना खाया, अचार, हरी मिर्च और प्याज़ के साथ ...वो भी कभी भूला नहीं.
आज भोजन-भट्ट तो नहीं हूँ लेकिन थोड़ा ज़्यादा खा जाता हूँ लेकिन जो खाता हूँ अच्छा खाता हूँ...कहते हैं थोड़ा खाओ, अच्छा खाओ......मैं इस कहावत का आखिरी आधा हिस्सा ही अपना पाता हूँ.
चांदनी चौक, फतेहपुरी मस्जिद के ठीक साथ एक मिठाई की दूकान है…चैना राम हलवाई…मैं पहली बार वहाँ तब गया जब टाइम्स फ़ूड गाइड या शायद किसी और अखबार की फ़ूड गाइड में इनका नाम पढ़ा … दिल्ली के सर्वश्रेष्ठ हलवाई का खिताब दिया गया था इनको. वो भी एक बार नहीं कई बार.....एक बार गए तो फिर बहुत बार जाना हुआ वहां.....खूब मिठाई लाते रहे, खाते रहे...अभी पीछे गए तो रात ज़्यादा हो चुकी थी, वो दूकान बंद थी लेकिन उसके साथ ही एक जैन स्वीट्स नाम से दूकान है, वो खुली थी ....फतेहपुरी मस्ज़िद के गेट के एक तरफ चैना राम है तो दूसरी तरफ जैन .......मुझे सूझा कि इनसे ही कुछ मिठाई ली जाए.......शुरू की तो लेते चले गए....कोई आठ-दस तरह की मिठाई ले ली गई....बड़ी बेटी को काजू कतली पसंद है, तो छोटी वाली का मन इमरती पर आ गया...मैं ढोढा पसंद से खाता हूँ.....श्रीमती जी ने कोई मेवों से बनी मिठाई ले ली.....खैर, कार घर की तरफ चलती रही और हम सब लोग एक-एक कर अलग-अलग मिठाई खाते रहे.........और सबका अंत में फैसला यही था कि जैन वालों की मिठाई चाइना राम से बेहतर थी.
अभी पीछे जाना हुआ, जेल रोड, वहां ओम स्वीट वालों ने ये बड़ा मिठाई भंडार खोल रखा है, शो रूम टाइप.....ये ओम स्वीट कभी गुडगाँव में हुआ करता था.....जब पहली बार इनका नाम सुना था तो गाड़ी उठा स्पेशल गुडगाँव ढोढा लेने गये थे...लेकिन अब लगा कि जैन के ढोढा के आगे इनका ढोढा बकवास था.
जैन और चैना राम, दोनों देसी घी की मिठाई बनाते हैं...आपको साफ़ समझ आ जायेगा कि देसी घी मात्र छिड़का नहीं गया...खुल कर प्रयोग किया गया है और मेवे मात्र दिखाने को नहीं, खिलाने को डाले गए हैं. इनके रेट हल्दी राम और बीकानेर वालों से कहीं कम हैं और क्वालिटी कहीं बेहतर.
ये लोग कराची हलवा भी बनाते हैं...किसी जमाने में हलवाई शायद अपने हलवों की वजह से जाने जाते होंगे...तभी नाम हो गया हलवाई........उसी तरह कराची शहर का हलवा मशहूर होगा.....तो शहर के नाम से कराची हलवा मशहूर हो गया.
एक समय था, हम लोग खाने-पीने के नए-नए ठिकाने ढूंढते थे......HT Food Guide और Times Guide ले दिल्ली की गलियां छानते रहते....लोग हमें विदेश से आया समझते...कुछ मेरे लम्बे बालों की वजह से भी.
इसी दौर में अजमेरी गेट इलाके में कोई दो कुल्फी बनाने वालों के पास भी पहुंचे....वो लोग सैंकड़ों तरह की कुल्फी बनाते थे....पञ्चतारा होटलों और बड़ी शादियों में सप्लाई थी उनकी.......हम ने बहाना किया कि घर में शादी है, सो सैंपल taste कराओ ....पैसे ले के खिलाया, लेकिन खिला दिया......बहुत सी कुल्फीयां .....ऐसी जैसी जल्दी से और कहीं नहीं मिलतीं....शायद कूड़ा मल्ल नाम था उनमें से एक का.
एक जमाना था निरुला का नाम था, हम लोग ख़ास कनाट प्लेस जाते उनकी आइस क्रीम खाने.....फिर उनके रेस्तरां में खाना खाने लगे....मुझे उनकी पनीर मकखनी जो कुछ कुछ शाही पनीर जैसी थी, आज भी याद है, उसके जैसी उस तरह की पनीर की डिश और कहीं नहीं मिली...फिर निरुला खो ही गया....अभी दीखता है कहीं-कहीं लेकिन अब जाना नहीं हुआ, लम्बा समय बीत चुका.
मौर्या शेरटन में 'बुखारा' नाम से है एक रेस्तरां...वहां की 'दाल बुखारा' का बहुत नाम है और नाम बिलकुल सही है .......दम है उनकी दाल में...शायद मंदी आंच पर बीस या चौबीस घंटे रिझाते हैं दाल को....अलग ही फ्लेवर है उनकी दाल का......लेकिन एक बात जो खटकती थी वो यह कि खाना परोसने वाले और जूठे बर्तन उठाने वाले अलग-अलग नहीं थे...अब तो पता नहीं ऐसा है कि नहीं, जब हम जाते थे तब ऐसा ही था.
आज जो वेज कबाब का चलन हो गया है....छोटे बड़े ठिकाने खुल गए हैं जगह जगह .....कोई दसेक साल पहले नहीं था ऐसा......हम लोग रैडिसन जाया करते थे.....एअरपोर्ट के पास वाले....काफी ड्राइव हो जाती थी लेकिन जाते थे.......कबाब फैक्ट्री .....वो लोग एक फिक्स अमाउंट में जितना खा सको उतना देते जाते थे.......पहले खूब सारा कबाब, फिर दो तरह की दाल के साथ रोटी...फिर अंत में मीठा.......इनका खाना मुझे सर्वश्रेष्ठ लगता था....चूँकि मैं कबाब का शौक़ीन था...कई बार जाना हुआ.... लेकिन एक बार देखा कि लॉबी में उन्होंने एक बड़ा सा कालीन बिछाया था वो मैला था, पञ्चतारा के हिसाब से सही नहीं लगा ...बाद में तो इनकी कबाब फैक्ट्री पंजाबी बाग भी खुल गयी ..गए भी वहां, लेकिन वो मज़ा कभी नहीं आया जो रैडिसन होटल जा कर आता था.
कोई पन्द्रह साल हो गये मांस खाना छोड़े हुए......मैंने छोड़ा तो हमारे घर में सबने छोड़ दिया....जब खाते थे तो जामा मस्ज़िद के पास “करीम” कई बार जाना हुआ....फिर इनका ही एक और रेस्तरां निजामुद्दीन ...वहां भी जाना हुआ.......लेकिन जामा मस्ज़िद वाला ही सही लगता था..... मटन मसाला ...बेहद स्वादिष्ट.
“अथोर्टी वाला गुल्लू”. इसका बनाया मीट भी ज़बरदस्त.
गोल मार्किट में ‘गेलिना’ करके एक रेस्तरां....यहाँ का चिकेन....स्वाद तो बहुत नहीं था लेकिन औरों के मुकाबले सस्ता था
और यहीं घर के पास क्लब रोड, पंजाबी बाग़ पर 'चावला चिकन'.....कोई जवाब नहीं ...वाह!
जामा मस्ज़िद के पास ही बचपने मिएँ खाए चिकन के पकोड़े भी याद हैं.
एक बार तो तीतर बटेर मँगा कर घर बनवाए......शायद चोरी-छुपे बिकते थे...स्वाद कुछ अलग नहीं लगा..चिकन जैसा ही शायद कुछ.
मछली बहुत नहीं खाई...शायद गंध की वजह से....शायद बनानी नहीं आती थी हमें......शायद खरीदनी भी नहीं आती थी.
खूब गाढ़े लहसुन, प्याज़, अदरक के मसाले में अक्सर गुर्दे कलेजी हमारे घर में बनती थी...मटन, चिकन से ज़्यादा.
कुदरत ने स्वाद के साथ जानवर की हिंसा न रखी होती तो कभी नहीं छोड़ता मीट खाना......जो लोग मांस खाना छोड़ देते हैं, उन्ही के लिए सोयाबीन चांप का आविष्कार हुआ लगता है. वैसे ही शक्ल दी जाती है जैसे मुर्गे की टांग हो, लकड़ी की डंडी भी बीच में इसीलिए लगाई जाती है कि खाने वाले को हड्डी की कमी न महसूस हो, ऊपर से लाल रंग भी किया होता है चांप को. इडियट....खाने वाले भी खिलाने वाले भी. छोड़ दिया तो छोड़ दिया मांस खाना. इस तरह की बेवकूफियों में क्या रखा है? वैसे मेरा मानना है कि भविष्य में वैज्ञानिक हुबहू मांस जैसा स्वाद लैब में तैयार आकर लेंगे. कितना सही होगा, कितना गलत भविष्य ही बताएगा.
अब नहीं खाता मांस मछली ...लेकिन मेरी भोजन यात्रा में यह सब भी शामिल तो है ही.
कुछ लोग सडक पर रेहड़ी लगाते-लगाते करोडपति हो गए...आप भी ऐसे लोगों को जानते होंगे....यहीं रानी बाग में 'बिट्टू टिक्की वाला' ऐसे ही लोगों में से है .....अब तो और भी बहुत कुछ बनाता है, बेचता है लेकिन मेरे ख्याल से उसकी टिक्की ही जानदार है बस. लेकिन फिर भी चांदनी चौक वाले नटराज वाले से बेहतर नहीं. हम चांदनी चौक जाते हैं तो हमारा एक ठीया 'नटराज टिकी-भल्ले वाला' भी है. इसके मुकाबले हमें भारत नगर का भल्ले वाला भी पसंद नहीं.
चांदनी चौक से ही याद आया......कुछ लोग ख्वाह-मखाह भी मशहूर हो जाते हैं......फतेहपुरी में ज्ञानी फलूदा वाले के साथ ही एक नान वाला है, वो बहुत बड़े साइज़ के नान बनाता है......वो मशहूर इसीलिए है कि बड़े नान बनाता है ...अब समझने की बात यह है कि मात्र साइज़ में बड़े होने से ही कोई खाने की चीज़ बढ़िया कैसे हो गई? यकीन मानिये एक नम्बर का बकवास खाना है इसका, लेकिन फिर भी मशहूर है. यही हाल परांठे वाली गली का है. पहली बात, इन के परांठे परांठे है ही नहीं. ये डीप फ्राई की हुई पूड़ियाँ हैं. बड़ी सी. दूसरी बात, जो हैं भी, जैसी भी हैं, बकवास हैं. तीसरी बात, सब्ज़ियाँ भी कोई ख़ास स्वाद नहीं. बैठने तक की ढंग की जगह नहीं. लकड़ी के फट्टे जैसे बेंच. छोटी-छोटी सी जगहें. रेट भी वाजिब नहीं हैं. परांठों के नाम पर कलंक हैं इन के परांठे. सिर्फ चाँदनी चौक के नाम पर बिक रहे हैं. ऊंची दूकान, फीका पकवान. खैर, इन की तो दूकान भी ऊँची नहीं हैं. हां,नाम ऊंचा है, बेवजह ऊंचा है.
एक बार किसी ने बताया कि 'गुच्छियाँ' करके कोई सब्जी होती है,. फतेहपुरी से मिली, बहुत ढूँढने के बाद. बहुत मंहगी......सब्ज़ी के हिसाब से बहुत ज़्यादा महंगी....शायद दो बार या तीन बार मंगवाई........स्वाद अच्छा बनता था, फिर दिमाग से उतर गयी....आज लिखने बैठा तो याद आ गईं.
कनाट प्लेस में शिवाजी स्टेडियम बस अड्डे पर एक कढी चावल वाला है....अक्सर वहां भी पहुंचना हो जाता है....कोई ख़ास नहीं है खाना...लेकिन कढी चावल और कहीं आसानी से मिलते नहीं..... भीड़ लगी रहती है वहां.
"आप क्या चूक रहे हैं आपको तब तक पता नहीं लगता जब तक आपने उसका स्वाद न लिया हो"
मैंने तकरीबन बीस साल की उम्र तक कोई साउथ इंडियन खाना नहीं खाया था...वहां पंजाब में उन दिनों यह होता ही नहीं था, बठिंडा में तो नहीं था.....यहाँ दिल्ली आया तो खाया.
मुझे इनका अनियन उत्तपम जो स्वाद लगा तो बस लग गया........कनौट प्लेस में मद्रास होटल हमारा ख़ास ठिकाना हुआ करता था, सादा सा होटल, नंगे पैर घूमते बैरे. आपको सांबर माँगना नहीं पड़ता था... खत्म होने से पहले ही कटोरे भर जाते थे, गरमा गर्म....वो माहौल, वो सांबर, वो बैरे..वो सब कुछ आज भी आँखों के आगे सजीव है.......मद्रास होटल अब बंद हो चुका है......वैसा दक्षिण भारतीय खाना फिर नहीं मिला.....फ़िर 'श्रवण भवन' जाते थे, कनाट प्लेस भी और करोल बाग भी, लेकिन कुछ ख़ास नहीं जंचा...... अब 'सागर रत्न' रेस्तरां मेरे घर के बिलकुल साथ है...मुझे नहीं जमता.
खैर, आज भी डबल-ट्रिपल प्याज़ डलवा कर तैयार करवाता हूँ.....उत्तपम क्या बस, प्याज़ से भरपूर परांठा ही बनवा लेता हूँ.....और खूब मज़े से आधा घंटा लगा खाता हूँ......अंत तक सांबर चलता रहता है साथ में......और अक्सर सोचता हूँ कि काश पहले खाया होता, अब शायद हों वहां बठिंडा में डोसा कार्नर, मैंने तो अभी भी नहीं देखे.
यहाँ उत्तर भारत में हम लोग दक्षिण के खाने के नाम पर मात्र डोसा वडा ही समझते हैं लेकिन मुंबई में वहां थाली में छोटी छोटी बहुत सी कटोरियों में अलग-अलग डिश देते हैं, उसी में मीठा भी, वो भी एक तजुर्बा लेने लायक है.
छोले भठूरे मुझे न पहाड़गंज वाले सीता राम के पसंद आये, न शादीपुर डिपो वाले 'आओ जी पेस्ट्री' के और न ही देव नगर में ओम के .......वो तो एक बार श्रीमती जी ने घर बनाए थे...बहुत पहले, वैसे कहीं नहीं खाए ..लेकिन श्रम काफी हो जाता है, न हमें घर बनवाना याद आया, न उन्होंने याद दिलाया.
गफ्फार मार्किट जब भी जाना होता है, वहां MCD मार्किट के बाहर एक मटर कुलचे वाला खड़ा होता है..मजाल है हमारी कि बिना खाए वहां से निकल लें......मटर पर खूब सारा नीबूं निचोड़ा जाता है और साथ में अचार ताज़ा हरी मिर्च और आम का .....वाह!
गुरद्वारे जाना होता है कई बार, बंगला साहेब.....पत्नी या किसी रिश्तेदार की डिमांड पर...मेरी रूचि मात्र कड़ाह प्रसाद में होती है ....कड़ाह प्रसाद का जवाब नहीं....वो आज कल बहुत कम कम देने लगे हैं, लेकिन फिर भी मैं दो तीन बार ले लेता हूँ.....लंगर खाते हैं लेकिन मुझे कुछ सही नहीं लगता.....जो खाना वहां परोसा जाता है, वैसा खाना घरों में आजकल शायद ही कोई खाता हो. सूखा आटा लगी मोटी रोटियां, सादी सादी दाल, सब्ज़ी. और जब तक दाल/सब्ज़ी मिलती है, रोटी ठंडी हो जाते है और रोटी मिलती है तो दाल/ सब्ज़ी ठंडी हो जाती है. ऊपर से उनका एक सिस्टम है कि जब तक हाल में बैठे आखिरी व्यक्ति को सर्व नहीं हो जायेगा, पहला व्यक्ति नहीं खायेगा.....सब खाना ठंडा हो जाता है इस तरह से.....बहुत बदलाव की ज़रुरत है वहां ....कोई पञ्च-तारा खाने की अपेक्षा नहीं कर रहा लेकिन आम घरों में जैसा खाना होता है कम से कम वैसा स्तर तो रखना ही चाहिए. और थाली तक आते और फिर थाली से मुंह तक आते आते खाना ठंडा न हो जाए, इसका भी ख्याल रखना चाहिए.
पञ्च-तारा याद करता हूँ तो हयात होटल में बफे सिस्टम में खाया याद आ रहा है लेकिन शायद क्वालिटी याद करने लायक नहीं है कुछ.
'गोला सिज्लेर' याद आ गया, भूल गया था....सबसे पहले ओडियन सिनेमा के साथ वाले में जाना होता था.......फिर डिफेन्स कॉलोनी.....फिर राजौरी गार्डन वाले ...वो प्लेट में डिश आती है धुंआ छोड़ती हुई.....सिज्ज्लेर........शूं शूं करती हुई...स्वादिष्ट है खाना.
कनाट प्लेस में ही परिक्रमा रेस्तरां हुआ करता था.....पता नहीं अब है कि नहीं.......ऊपर गोल घूमता था, दिल्ली दिखती थी वहां से.......बहुत टाइट जगह थी.......खाना ठीक-ठाक था.
बहुत से रेस्तरां अपनी तरह का थीम लिए होते हों.....बदलाव के लिए अच्छा लगता है...जैसे कनाट प्लेस में ही एक रेस्तरां है, जो काऊबॉय थीम पर आधारित है, मेक्सिकन खाना मिलता है. खाना और थीम दोनों बढ़िया हैं. वहीं क्लारिजेज़ होटल में एक रेस्तरां है जिसमें उन्होंने आधा ट्रक ही दीवार पर बना रखा है, खाना देसी, उत्तर भारतीय, पंजाबी. मुंबई गये तो वहां पहली बार देखा रेस्तरां में वेटर नंगे पाँव घूम रहे थे...कई रेस्तरां में गज़ल गायकों को बिठाने का भी चलन है, ख़ास करके पञ्च-तारा में. अलग अलग थीम होते हैं अक्सर.
चीनी खाने का बहुत शौक़ीन नहीं हूँ. आपको खाना ही हो तो कनाट प्लेस स्थित BERCO’S जा सकते हैं.....हम गए हैं दो तीन बार....इन्हीं का एक रेस्तरां पश्चिमी दिल्ली जनक पुरी डिस्ट्रिक्ट सेंटर भी है......जनकपुरी वाला ज़्यादा खुला-खुला था ...अब का मालूम नहीं, क्या हाल है.
हाँ, भूल ही गया था, एक पाकिस्तानी कम्पनी है “शान”. अचार बनाती है. इनके बनाये अचार, तौबा! इनका पता लगा था हमें ट्रेड फेयर से......इनका हैदराबादी अचार...वैसा अचार शायद ही कोई दूसरा हो दुनिया में. और एक लहसुन का अचार. वो हम लहसुन की वजह से भी खाते हैं.......कोई मुकाबला नहीं दूर दूर तक........ये अमृतसरी अचार और पानीपत अचार वाले नौसीखिए हैं इनके सामने... इनका एक ठिकाना था ‘प्रेम आयल’ करके फतेहपुरी में, फिर तो हमने वहां से भी लिए इनके अचार कई बार.
ट्रेड फेयर से याद आया....यहाँ का खाना महंगा और बकवास होता है. जगह बहुत बड़ी है, पैदल घूम-घूम हालत पतली हो जाती है, भूख तो लग ही जाती है, और वो भी ज़बरदस्त .....पहले पंजाब पवेलियन की छत्त पर मक्की की रोटी और साग मिलता था, बहुत बढ़िया तो नहीं थी क्वालिटी लेकिन फिर भी खाने लायक थी और पूरे प्रगति मैदान में मिल रहे बाकी खानों के मुकाबले अच्छी थी. अब पिछली बार देखा तो वहां वो मिलना भी बंद हो चुका था. मुझे और कुछ याद करने लायक बस बिहार का लिट्टी चोखा और अनरसा लगता है...अनरसा एक तरह की मिठाई है जो चावल के आटे, तिल, खोये और गुड/चीनी से बनाई जाती है ..... वहां वो लोग हमारे सामने बना रहे होते हैं ...ताज़ा...ट्रेड फेयर में मैं कभी मिस नहीं करता अनरसा और बाद में बहुत मिस करता हूँ अनरसा ...और हाँ, कश्मीर पवेलियन में पीया काहवा भी याद आया, यह एक गर्म ड्रिंक है, जिसमें पीस कर काजू बादाम डाले जाते हैं, स्वाद भी और सेहत भी..इस काहवा से ही प्रेरित हो कर मैंने अपने लिए हॉट ड्रिंक बनाई है....बहुत सारे देसी मसाले......दालचीनी, लौंग, इलायची छोटी बड़ी दोनों, सौंफ, सौंठ, पिसे काजू, बादाम तथा और भी बहुत कुछ.
एक बार उत्तराँचल का टूर किया था....पन्द्रह दिन...सपरिवार....अपनी कार से घूमते रहे.....यादगार....अलग से किसी आर्टिकल में लिखूंगा....अभी बस इतना ही कि पूरी यात्रा में एक ही दाल मिलती रही रेस्तराओं पर...शायद उसे तुअर की दाल कहते हैं.....पसंद भी आई...लेकिन यहाँ दिल्ली में फिर कभी ख्याल में ही न रही.
पानीपत जाना होता है अक्सर. मुरथल वाले ढाबे.....मशहूर हैं...एक साथ सटे हैं ....ये अब ढाबे कम और रेस्तरां ज़्यादा हैं....... एयर कंडिशन्ड ....साफ़ सुथरे......खाना ठीक है......सब पे तो नहीं खाया, लेकिन जिन पर खाया बढ़िया लगा.... 'अमरीक सुखदेव', अपने नाम के हिसाब से वैल्यू दे देता है आपको. जब उस रास्ते पर हो तो ज़रूर खाएं.
दिल्ली से पानीपत को जाओ तो वहीं थोड़ा सा ही आगे 'बर्फी वाला' है .....ये वहीं बर्फी बना रहे होते हैं, आपकी आँखों के सामने....हल्के ब्राउन रंग की है इनकी बर्फी...जैसे दूध को बहुत ज़्यादा काढ़ा गया हो.......काबिले तारीफ़ है ... ये लोग लस्सी भी बेचते हैं....लस्सी क्या है, निरी दही होती है, बहुत गाढ़ी.....मज़ा आ जाता है.
आम शादियों या शादियों जैसे प्रोग्रामों में खाने का कतई मज़ा नहीं आता...खड़े हो खाओ.....एक ही प्लेट में सब....दाल पनीर से गले मिलने लगती है तो छोले मिक्स वेज पर डोरे डालने लगते हैं. कई शादियाँ अटेंड की......ये बड़ी........कुछ फ़ार्म हाउस में भी........या बड़े लॉन में ......बहुत अच्छा लगता है खुला खुला....अभी कुछ साल पहले अलवर में एक शादी अटेंड की.....शहर के बाहर कोई पहाड़ी पर था लॉन......रात को बहुत अच्छा माहौल बना वहां...ठंडा ठंडा.......ज़ेहन से उतरा ही नहीं........खाने के साथ-साथ बाकी इंतेज़ाम कैसा है, वो भी बहुत माने रखता है.
Veena Sharma से मिला एक बार उनके घर पर, हो गए शायद पांच-छः साल के करीब, उनके खिलाये पकोड़े याद हैं, वजह है मिलने की खुशी का पकोड़ों में मिला होना.
अब इस सारी यात्रा में मैने पिज़्ज़ा हट, डोमिनो’ज़ पिज़्ज़ा, मैक-डोनाल्ड के बर्गर का ज़िक्र क्यों नहीं किया? सिंपल. मेरा जाना हुआ है, खाना भी हुआ है लेकिन मैं इनको खाने लायक ही नहीं मानता.
मेरा दावा है कि बास्किन रोब्बिंस की आइस क्रीम हो, चाहे डंकिनज़ के डोनट हों, चाहे मैक-डोनाल्ड का बर्गर, या फिर डोमिनोज़ का पिज़्ज़ा, इन सब को अधिकांश कुत्ते तक खाने से इनकार कर देंगे...वजह है.....वजह है कि इनका दिमाग ब्रांडिंग के नाम पर की जाने वाली ब्रेन-वाशिंग से अभी अछूता है.
बस ऐसे ही खाते-खिलाते बहुत कुछ सीखा खाने के बारे में.
एक कहावत है, मैं अंडा नहीं दे सकता लेकिन आमलेट के बारे में मुर्गी से ज़्यादा जानता हूँ ...मैं न तो आमलेट बना सकता हूँ और न ही चाय लेकिन खाने की विद्या यदि साठ प्रतिशत श्रीमती जी मायके से लायीं थी तो बाकी मेरे साथ रह कर सीखी होंगी......वैसे वक्त के साथ सीखने वाला यूँ ही सीखता जाता है......खाना अच्छा बनाती हैं, बहुत ही अच्छा ........नहीं कभी अच्छा लगता तो बोल देता हूँ और अच्छा बना होता है तो वो तो ज़रूर बोलता हूँ....आज भी करेले बने थे भरपूर तारीफ की...साथ में अगली बार करेलों की सब्ज़ी के साथ मूंगी की दाल बनाना भी याद दिलाया......हम ऐसा अक्सर करते हैं...करेलों के साथ धोई मूंगी की दाल.
मेरे पिता जी गुज़रे तो सात साल तक उनकी बरसी मनाई हमने......हर साल भोज......भोज क्या महा-भोज, माँ का हुक्म था, बजाया. जिन्होंने खाने का काम शुरू करना होता है उनको अक्सर कहते सुना है मैंने कि कारीगर ख़ास होना चाहिए, बढ़िया होना चाहिए. मेरा मानना है कि आप एक आम रसोईये से भी बेहतरीन खाना बनवा सकते हो बशर्ते आपको पता हो कि बनवाना कैसे है......मैंने अपने रसोइये को पहली बार जब बुलवाया तो उससे सारे समान की लिस्ट ले ली.....प्याज़, टमाटर, लहसुन, अदरक आदि उसने जितने लिखवाये थे वो लगभग डबल कर दिए.....हर दाल सब्ज़ी और खीर आदि के लिए खूब काजू, बादाम आदि मंगवा लिए.....वो कहे, "बाबू जी दाल में कहाँ कोई बादाम डलते हैं?", मैं कहूं."तू डाल, जब दाल मना करेगी तो नहीं डालेंगे?" लोग आज भी वो खाना याद करते हैं. आप मुझे बुलवा सकते हैं यदि कभी खाना बनवाना हो. मेवे मंगवा लीजिये और अपनी आँखों के सामने खाने में डलवा दीजिये, दाल में, मिक्स वेज में, पनीर में, खीर में, लगभग हर डिश में
कहीं पढ़ा था कि एक बार एक इलाके में सूखा पड़ गया लोग खाने को मोह्ताज़ हो गये...बादशाह ने अपनी रसोई से खाना बनवाना शुरू किया. अब चूँकि बहुत लोगों का खाना बनाना होता था तो रसोइओं ने एक ही कडाही में चावल और सब्जियां डालनी शुरू कर दी....लोगों को जो स्वाद लगा तो आज तक लगा हुआ है ...बिरयानी आविष्कृत हो गई.
घर पर आप नए-नए तजुर्बे कर सकते हैं, हर डिश ऐसे ही इन्वेंट हुए होगी... हो सकता है आपके बहुत तजुर्बे फेल हों और आपका बनाया खाना आपका कुत्ता भी खाने से इनकार कर दे लेकिन ‘हम होंगे कामयाब’ नारा बुलंद रखिये, याद रखिये..... जब हो जाएँ कामयाब तो मुझे याद रखिये...ज़्यादा कुछ नहीं बस वो कामयाब डिश खिला दीजिये.
स्वादिष्ट नमन....कॉपी राईट....आर्टिकल खाएं न.....शेयर करें.