Tuesday, 25 August 2015

कानूनी दांव पेच—भाग 3

बड़े जजों के नाम के आगे जस्टिस लिखा जाता है. जैसे जस्टिस ढींगरा, जस्टिस काटजू . बकवास.

उपहार काण्ड में सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कितना न्याय हुआ है, आप सबके सामने है. कितने ही लोग मारे गए और मालिकों को मात्र जुर्माना. वो भी ऐसा कि उनके कान पर जूं न रेंगे. अबे, यदि वो दोषी हैं तो जेल भेजो  और नहीं हैं तो छोड़ दो, यह पैसे लेने का क्या ड्रामा है? लेकिन दोषी तो वो हैं, तभी तो ज़ुर्माना किया है. हाँ, अमीर हैं सो उनकी सजा को जुर्माने तक  ही सीमित किया गया है. बच्चा  भी समझता है सिवा सुप्रीम कोर्ट के. 

अमीर हो तो पैसे लेकर छोड़ दो और गरीब हो तो लटका दो.....यह इन्साफ है या रिश्वतखोरी?

पीछे सुना है कि भारतीय जज समाज की सामूहिक चेतना (Collective Consciousness of the society) की संतुष्टि के हिसाब से फैसले देने लगे हैं. लानत है. फैसले कानून के हिसाब से, तथ्यों और तर्कों के हिसाब से दिए जाने चाहिए या समाज क्या सोचता समझता है उसके हिसाब से? 

समाज ने तो सुकरात को ज़हर पिलवा दिया, जीसस को सूली पर टंगवा दिया, जॉन ऑफ़ आर्क को जिंदा जलवा दिया, सब फैसले उस समय की अदालतों ने दिए थे. अदालतों को समाज ने प्रयोग किया, दुष्प्रयोग किया. तो आज भी क्या वैसा ही होना चाहिए? हमारे समय अदालतों को समझना होगा कि कल उन पर भी वोही लानतें भेजी जायेंगे जैसे आज मैं सुकरात, जीसस या जॉन ऑफ़ आर्क के समय की अदालतों पर भेज रहा हूँ.

हमारी अदालतों के फैसलों पर भविष्य कैसे फैसले सुनाएगा, मुझे तो आज ही पता है. पूत के पैर पालने में ही दिख जाते हैं और अदालतों के रंग फैसलों को टालने में ही दिख जाते हैं  

सही कहा जाता है कि जज सिर्फ फैसले करता है, न्याय नहीं.

ज़ाहिर के परे

सेठ जी फोन पर व्यस्त थे........उनके केबिन में कुछ ग्राहक दाख़िल हुए लेकिन सेठ जी की बात फोन पर ज़ारी रही......लाखों के सौदे की बात थी....फिर करोड़ों तक जा पहुँची.........फोन पर ही करोड़ों की डील निबटा दी उन्होंने......ग्राहक अपनी बारी आने के इंतज़ार में उतावले भी हो रहे थे....लेकिन अंदर ही अंदर प्रभावित भी हो रहे थे........ इतने में ही एक साधारण सा दिखने वाला आदमी दाख़िल हुआ.........वो कुछ देर खड़ा रहा....फिर सेठ जी को टोका, लेकिन सेठ जी ने उसे डांट दिया, बोले, "देख नहीं रहे भाई , अभी बिजी हूँ"......वो आदमी थोड़ी देर खड़ा रहा, फिर से उसने सेठ जी को टोका, सेठ जी ने फिर से उसे डपट दिया............सेठ जी फिर व्यस्त हो गए......अब उस आदमी से रहा न गया, वो चिल्ला कर बोला , “सेठ जी, MTNL से आया हूँ, लाइनमैन हूँ, अगर आपकी बात खत्म हो गई हो तो जिस फोन  से  आप  बात कर रहे  हैं, उसका  कनेक्शन जोड़ दूं?”

आप हंस लीजिये, लेकिन यह एक बहुत ही सीरियस मामला है.

पुलिस वाले यदि किसी पैसे झड़ने वाली आसामी को पकड़ लेते हैं तो उसके सामने किसी गरीब को ख्वाह-म-खाह कूटते-पीटते रहते हैं......वो कहते हैं न,  बेटी को कहना और बहू को सुनाना ....कुछ कुछ वैसा ही.

अक्सर लोग अपनी धाक दिखाने को 'फ्री होल्ड गालियाँ' देते हैं, मैं इन्हें 'थर्ड पार्टी गालियाँ' भी कहता हूँ. बातचीत में बिना मतलब  "माँ....की..... बहन की" करते   रहेंगे .........ख्वाह-म-खाह .....सिर्फ अपनी दीदा दलेरी दिखाने को

वकील लोग चाहे केस का मुंह सर न समझ रहे हों, लेकिन प्रभावित करते हैं कभी न पढ़े जाने वाली अलमारियों में सजाई गई किताबों से....... अपने इर्द गिर्द पांच सात नौसीखिए वकीलों से......फ़ोन, कंप्यूटर, चलते प्रिंटर से ........इम्प्रैशन टूल.

आपको यह सब क्यों बता रहा हूँ? बस एक ही बात समझाना......Looking beyond the obvious.....जो ज़ाहिर है, उसके पार देखने की कोशिश करें...ज़रूरी नहीं उसके परे कुछ हो ही...नहीं भी हो...लेकिन शायद हो भी

अंग्रेज़ी में कहते हैं, "Reading between the lines". लाइनों  के बीच पढ़ना, शब्दों के छुपे मंतव्य समझना. 

नमन....कॉपी राईट

भूमि अधिग्रहण

अभी अभी आज़ादी दिवस मना के हटा है मुल्क.....आपको पता हो न हो शायद कि आजादी के साथ अंग्रेज़ों के जमाने के बनाये कानून भी दुबारा देखने की ज़रूरत थी, लेकिन नहीं देखे, नहीं बदले ...इतने उल्लू के पट्ठे थे हमारे नेता.....बेवकूफ , जाहिल, काहिल, बे-ईमान.....सब के सब.....सबूत देता हूँ....सन 1897 का कानून था जमीन अधिग्रहण का......अँगरेज़ को जब जरूरत हो, जितनी ज़रुरत हो वो किसान से उसकी ज़मीन छीन लेता था...कोई मुआवज़ा नहीं, कोई ज़मीन के बदले ज़मीन नहीं, कोई बदले में रोज़गार व्यवस्था नहीं...भाड़ में जाओ तुम.

आप हैरान हो जायेंगे कि मुल्क सन सैतालिस में आज़ाद हुआ माना जाता है लेकिन यह कानून अभी सन दो हज़ार तेरह में बदला गया.

पहले इस बदलाव से पहले की कुछ झलकियाँ आपको पेश करता हूँ. हमारी सरकारों ने इस भूमि  अधिग्रहण कानून का खूब दुरुप्रयोग किया. सरकारी छत्रछाया में खूब पैसा बनाया गया ज़मीन छीन छीन कर किसान से. उसे या तो कुछ दिया ही नहीं गया या दिया भी गया तो ऊँट के मुंह में जीरा. भूमि अधिग्रहण कानून से बस  किसान की ज़िंदगी पर ग्रहण ही लगाया गया.

कहते हैं भाखड़ा डैम के विस्थापितों को आज तक नहीं बसाया गया. कहते हैं दिल्ली में एअरपोर्ट बना तो किसान को नब्बे पैसे गज ज़मीन का भाव दिया गया. कहते हैं यमुना एक्सप्रेस वे, जो बना उसमें भी किसान को बड़े सस्ते में निबटा दिया गया और कहते हैं कि नॉएडा, ग्रेटर नॉएडा में तो ज़मीन ली गई उद्योग के नाम पर और बिल्डरों को बेच दी गई. सरकार ने काईयाँ प्रॉपर्टी डीलर का काम शुरू कर दिया. कहते हैं, लाखों एकड़ ज़मीन किसान से तो छीन ली गई लेकिन उस पर कोई काम शुरू ही नहीं किया सरकार ने, बरसों. दशकों. कहते हैं, सुप्रीम कोर्ट ने ग्रेटर नॉएडा का सरकारी ज़मीन अधिग्रहण रद्द कर दिया.कहते हैं कि पटवारी और कलेक्टरों ने खूब लूटा है मिल कर किसानों को. किसान अनपढ़. कानूनगो रिश्वतखोर. किसान की वो गत बनाई की तौबा तौबा.

आज स्थिति यह है कि सरकार को विकास के नाम पर  ज़मीन चाहिए. उधर किसान सब समझ चुका है, वो जानता है कि सरकार ने उसके साथ आज तक धक्का किया है. अब किसान आसानी  से तो ज़मीन देने को राज़ी नहीं है. मोदी सरकार को तथा कथित विकास की जल्दी है. उसे जल्दी है रेल की, सड़क की, फैक्ट्री की. बिना ज़मीन के यह सब हो नहीं सकता.

मेरे कुछ सुझाव हैं. यदि उन पर ख्याल किया जाए तो.

पहली तो बात यह कि किसान में विश्वास पैदा किया जाए. सबसे पहले तो जो भी ज़मीन अधिग्रहित हुई लेकिन प्रयोग नहीं हुई या फिर पहले   प्रयोग हुई भी  लेकिन   अब  प्रयोग नहीं हो रही या निकट  भविष्य  में प्रयोग  नहीं होनी  है  तो उसे बिना शर्त किसान को वापिस किया जाए. यह वापिसी कुछ जिस किसान से ली गई उसे और कुछ भूमिहीन किसान को दी जा सकती है.

दूसरी  बात यह कि  जो ज़मीन बंज़र है, वहां पर उद्योग लगाने का प्रयास होना चाहिए.

तीसरी बात कि जिन भी किसानों को पिछले मुआवज़े नहीं मिले  या मिले तो न मिलने जैसे, उन सब को यदि कहीं ज़मीन दे सकते हैं तो ज़मीन दी जाए और नहीं तो मुआवजा दिया जाए, आज के हिसाब से.

जब पिछला हिसाब किताब कुछ चुकता कर लेंगे, कुछ संतुलन बना लेंगे तो आगे की सोचनी चाहिए. और जब आगे की सोचते हैं तो यह भी सोचने की ज़रुरत है कि विकास का मतलब है क्या आखिर? यह कि जनसंख्या बढाते चले जाओ और फिर कहो कि अब इस के लिए घर चाहिए, रोज़गार चाहिए, रेल चाहिए, सड़क चाहिए, उद्योग चाहिए.

नालायक लोग. अबे पहले यह देखो कि कितने से ज़्यादा लोग नहीं होने चाहिए पृथ्वी के एक टुकड़े पर. पूछो अपने साइंसदानों से, पूछो अपने विद्वानों से, नहीं तो पूछो खुद कुदरत से. तुम जितना उद्योग खड़ा करते हो, कुदरत के साथ खिलवाड़ होता है, कुदरत तुम्हें कुदरती जीवन जीने की इच्छा से भरे है. तभी तो तुम्हारे ड्राइंग रूम में जो तसवीरें हैं,  वो सब कुदरत के नजारों की हैं....नदी, जंगल, पहाड़, झरने....कभी धुआं निकालती फैक्ट्री क्यों नहीं लगाते अपने कमरों में? लगाओ अपने  शयनकक्ष में, शायद नींद न आये. 

लेकिन तुम्हें उद्योग चाहिए. 
इडियट. नहीं चाहिए. बहुत कम चाहिए.

तुम्हें ज़रुरत है, आबादी कम करने के उद्योग चलाने की. बाकी सब समस्या अपने आप कम हो जायेंगी........न ज़्यादा उद्योग चाहिए होंगे, न सड़क, न ज़्यादा घर, न ही कुछ और?
लेकिन यह सब कौन समझाए?

विकास चाहिए, बहनों और भाईयो, हमारी  सरकार  आयेगी   तो  रोज़गार पैदा होगा,  विकास पैदा होगा....तुम बस बच्चे पैदा करो बाकी सब साहेब पर छोड़ दो, अपने आप पैदा होगा.

लानत! कुछ पैदा नहीं होगा यही   हाल  रहा  तो, सिवा झुनझुने के देखते रहिये मेरे साथ. 

नमन......कॉपीराईट लेखन....चुराएं न.....साझा कर  सकते हैं

Thursday, 20 August 2015

कानूनी दांव पेच--- भाग -2

इस भाग में मैं आपको अपने-आपके  जीवन के इर्द गिर्द घटने वाले, घटने वाले कानूनी मसलों और मिसलों और मसालों की बात करूंगा.

1) शायद याद हो आपको, एक दौर था दिल्ली में जगह जगह लाटरी के स्टाल हुआ करते थे. लोग सब धंधे छोड़ छाड़ लाटरी में लिप्त थे. जिनके पास दुकानें थीं उन्होंने, अपने चलते चलाते धंधे बंद कर अपनी जगह लाटरी के काउंटर वालों को किराए पर देनी शुरू कर दी थीं. लोग सारा सारा दिन लाटरी खेलते थे. जमघट लगा रहता था. कईयों के घर बर्बाद हो गए. फिर कुछ लोगों ने आत्महत्या तक कर ली. सरकार के कान पर जूं सरक गई. लाटरी बंद हो गई दिल्ली में. लेकिन हरियाणा में चलती रही. लोग बॉर्डर पार कर लाटरी खेलने जाने लगे लेकिन वो सब  चला  नहीं ज़्यादा देर. उसके बाद वो बुखार  उतर गया. यह एक तल्ख़ मिसाल है कि हमारी सरकारें किस कदर बेवकूफ होती हें.

आप सोच सकते हैं कि मैं यह गुज़रा दौर क्यों याद कर करवा रहा हूँ. वजह है. वजह यह है कि लाटरी आज भी जिंदा है. जैसे रावण के सर काटो तो फिर जुड़ जाते कहे जाते हैं. जैसे रक्तबीज. सर काटो तो और पैदा हो जाते हैं.आज लाटरी ने शक्ल बदल ली है. मुखौटा लगा लिया है निवेश स्कीम का.   कोई एक व्यक्ति कमिटी चलाता है. पैसे उसके पास हर माह इकट्ठे होते हैं. फिर वो सब सदस्यों की पर्चियां/ टोकन डालता है और जिसका टोकन निकल आये उसे एक मुश्त धन राशि दी जाती है, या मोटर साइकिल या फिर फ्रिज या कुछ और. इसके स्वरूप थोड़े  भिन्न हो सकते हैं, लेकिन मामला जारी है. पश्चिम विहार दिल्ली के टॉप मोस्ट इलाकों में से तो नहीं है लेकिन फिर भी अच्छे इलाकों में गिना जाता है. हैरान हो गया मैं पिछले हफ्ते यहाँ के अग्रसेन भवन में खुले आम यह जूआ चलते देख कर. कोई दो तीन हज़ार लोग. खुले आम टोकन निकाले जा रहे थे. 

दो कानून भंग होते हैं एक तो लाटरी निषेध का दूसरा पब्लिक फण्ड लिए जाने का. 

कोई भी व्यक्ति या संस्था इस तरह से  पब्लिक से पैसा नहीं ले सकता. यह मना है. आप अपने दोस्त से, मित्र से पैसे का ले दे कर सकते हैं लेकिन पैसे के ले और दे को कमर्शियल ढंग से नहीं कर सकते. उसके लिए NBFC के टाइटल के अंतर्गत आपके पास मंजूरी होना ज़रूरी है. हालाँकि मैं इस कानून से पूरी तरह सहमत नहीं हूँ चूंकि पैसे को पब्लिक से लेने के नियम तो कड़े होने चाहिए, वो बात ठीक है, चूँकि बहुत सी असली नकली कम्पनी लोगों से पैसा इ्कट्ठा कर चम्पत हो जाती हैं.

पीछे एक दौर रहा जब बहुत सी प्लांटेशन कम्पनी कुकुरमुत्ते की तरह उग आई थीं. इन्होने लोगों को सपने दिखाए कि उड़ीसा, बिहार, झारखंड और पता नहीं कहाँ कहाँ इन्होने ज़मीन ले रखी थी, वहां सफेदे के पेड़ लगायेंगे. और फिर कुछ ही सालों बाद लोगों के पैसे कई गुणा कर के वापिस देंगे. इस तरह की बहुत सी स्कीम पश्चिमी मुल्कों में भी चलती रही हैं और वहां इनको PONZI SCHEME कहा जाता है. इसी का बाद में एक स्वरूप MLM (Multi Level Company) कम्पनियां थीं. खैर न तो प्लांटेशन कम्पनियों ने कुछ दिया लोगों को और न ही MLM कम्पनियों ने....सिवा ह्रदयघात के. तन मन और धन के नुक्सान के. 

खैर, मेरा ख्याल है कि पैसा लेने के नियम तो कड़े रखना सही बात है लेकिन पैसा देने के नियम इतने कड़े नहीं होने चाहियें. यदि कोई अपना पैसा किसी को भी ब्याज पर देना चाहता है तो उसमें सरकार काहे का पंगा डालती है. आखिर बैंक भी तो यही काम करते हैं. NBFC (Non Banking Finance Company) भी यही करती हैं. बैंक लोगों का पैसा ही तो घुमाता है. बैंक के पास सिवा ब्याज के कौन सा धंधा है? NBFC भी सिवा ब्याज के कौन सा धंधा करती है? 

2) अगला कानूनी मुद्दा जो आपकी नज़र में लाना चाहता हूँ वो है दिल्ली में चलने वाले "रेंट अग्रीमेंट" का. कानून यह कहता है कि ग्यारह महीने तक का अग्रीमेंट आप बिना रजिस्टर कराये मात्र पचास रूपये के स्टाम्प पेपर पर कर सकते हैं लेकिन यदि ग्यारह माह से ज़्यादा का अग्रीमेंट करते हैं तो फिर इसे रजिस्टर कराया जाना लाज़िमी है. इस क्लॉज़ को मालिकों ने इस तरह से लिया कि वो अपने मकान दूकान मात्र ग्यारह माह के लिए ही देने लगे. ग्यारह माह का ही बैरियर बना लिया गया. अब ग्यारह माह में किरायेदार को अपना सामान लाने ले जाने की सर दर्दी करनी होती है. उसका खर्च वहन करना होता है. अपने बच्चों के स्कूल आदि में दाखिला कराना होता है. और अपने राशन कार्ड, वोटर कार्ड आदि को बदलवाना होता है. वो यह सब काम अभी कर ही चुकता है कि ग्यारह माह पूरे हो जाते हैंऔर उस पर जगह छोड़ने का डंडा सवार हो जाता है. अब वो फिर से नई जगह तलाश करे. नए सिरे से प्रॉपर्टी डीलर को कमिशन दे, बस इस चक्रव्यूह में फंस जाता है. इस में प्रॉपर्टी डीलर को सबसे ज़्यादा फायदा है. वो इसलिए कि हर नये किरायेदार से वो कमीशन लेता है, उसकी तो चांदी है यदि रोज़ किरायेदार बदले. 

उस पर तुर्रा यह है कि जो अग्रीमेंट बनाये जाते हैं, वो पूरी तरफ से एक तरफ़ा. किरायेदार को कभी भी सड़क पर खड़ा किया जा सकता है. अग्रीमेंट में एक क्लॉज़ लिखा जाता है कि एक महीने के नोटिस पर किरायेदार कभी भी खाली कर सकता है और मकान मालिक कभी भी खाली करवा सकता है. इस क्लॉज़ पर कोई किरायेदार ध्यान नहीं देता. उसे लगता है कि उसके साथ ग्यारह माह का अग्रीमेंट किया जा रहा है और ग्यारह माह तक तो उसे कोई हिला नहीं पायेगा. लेकिन उसे पता ही नहीं होता कि अग्रीमेंट मात्र एक माह का है. उसे कभी भी एक महीने के नोटिस पर बाहर निकाला जा सकता है. यह ना-इंसाफी है. ऊपर से कोढ़ में पड़े खाज की तरह इस अग्रीमेंट के आधे पैसे भी किरायेदार से लिए जाते हैं. चूँकि उसे जगह किराए पर लेनी होती है सो वो सब बर्दाश्त करता है.

और भी बड़ी ना-इंसाफी यह कि दिल्ली में प्रॉपर्टी के रेट पिछले तीन साल में आधे रह गए हैं और किराए भी गिरे हैं लेकिन मकान-दूकान मालिक लोग हर ग्यारह माह में किराया दस प्रतिशत बढाये जाने का क्लॉज़ अग्रीमेंट में डाले रहते हैं. चूँकि किरायेदार को अपना सब ताम झाम उखाड़ना बहुत भारी पड़ता है सो वो यह सब बर्दाश्त करता है.

मैंने अपनी जगह किराए पर दी भी हैं और दूसरों की जगह किराए पर ली भी हैं. मेरा मानना है कि हमारे मुल्क में दोनों तरफ से ना-इन्साफियाँ हुई हैं और हो रही हैं. आपको पुरानी दिल्ली में हजारों लाखों घर दूकान ऐसे मिल जायेंगे जो किरायेदारों के होकर रह गए और लाखों लोग आज ऐसे मिल जायेंगे, नए किरायेदार, जो नए अग्रीमेंट का शिकार हैं. यदि वो एक अति है तो यह भी एक अति है. 

एक बैलेंस की ज़रुरत है. मेरे ख्याल से नया किरायेदार यदि किराया समय पर देता है और किराया भी वाजिब देता है तो उसे निश्चित ही तीन से पांच साल तक एक जगह पर टिके रहने का हक़ दिया जाना चाहिए और यदि उससे जगह खाली भी करानी हो तो कम से कम छह माह का समय दिया जाना चाहिए. यह ग्यारह माह की नौटंकी तुरत खत्म होनी चाहिए. और इसे खत्म करने का ही प्रयास किया भी गया है. सुप्रीम कोर्ट ने सन २०११ में कुछ नियम दिए थे कि कोई किरायेदार से पांच साल तक जगह खाली नहीं कराई जा सकती यदि वो किराया, बिजली पानी और प्रॉपर्टी टैक्स आदि सही समय पर भरता है तो. यह फैसला मेरी नज़र में बहुत हद तक सही था.इसमें दो बात मुझे नहीं जंची. पहली प्रॉपर्टी टैक्स किरायेदार क्यूँ भरे? दूसरी किराया अग्रीमेंट के तहत बढाये जा सकता है, ऐसा माना गया. अब किराए पर लेते समय किरायेदार की मजबूरी होती है, उसे सब बात मंज़ूर करनी ही होती हैं. जैसा मैंने ऊपर लिखा कि उससे तो ग्यारह माह का अग्रीमंट कह कर एक माह पर खाली करने वाली क्लॉज़ भी लिखा ली जाती है, तो उस समय उसकी मजबूरी का खूब फायदा उठाया जाता है. सो मेरा मानना है कि यदि किरायेदार किराया और बिजली पानी समय पर चुकता करता है तो उसे तीन से पांच साल तक रहने दिया जाना चाहिए और किराया तीन साल से पहले नहीं बढाया जाना चाहिए. तीन साल बाद दस प्रतिशत किराया बढाया जा सकता है.

ऊपर लिखित  जजमेंट  (Judgement ---Rent Paying Tenants cannot be evicted before 5 years--- C.A. No.__@ SLP(C)No. 6319 of 2007/ http://www.lawyersclubindia.com/forum/files/120292_185668_36_hon_ble_sc_judgment___guidelines.pdf ) को आये लगभग चार साल बीत गए हैं लेकिन आज भी इसका नामलेवा कोई नहीं है. हमारे समाज को मकान दूकान किराए पर देने में और एक टेंट किराए पर देने में फर्क को समझना चाहिए.

3) आपको पता ही हो शायद हमारे यहाँ पर प्रॉपर्टी की खरीद फरोख्त की रजिस्ट्री पर सरकार छह से आठ प्रतिशत टैक्स लेती है. यह सीधी सीधी लूट है. कोई जायदाद चाहे बीस लाख की हो, चाहे बीस करोड़ की, सरकार को उसके रजिस्ट्री पर एक जैसा ही खर्च पड़ता है फिर यह कैसी लूट? और मात्र रिकॉर्ड रखने की इतनी फीस? यह ना-इंसाफी है. आज जब सब कुछ डिजिटल किया जा सकता है तो इस तरह की स्टाम्प ड्यूटी लिया जाना सरासर डकैती है. सरकार कह सकती है कि उसका खर्च आता है यह सब सुविधा देने में, लेकिन आप देखेंगे कि सरकार फ़िज़ूल खर्च कर रही है. अभी पिछले कुछ सालों में रजिस्ट्री ऑफिस पञ्च तारा होटल जैसे बना दिए गए हैं, कॉर्पोरेट स्टाइल. इधर प्रॉपर्टी के रेट औंधे मुंह गिरे हैं अब वहां इक्का दुक्का रिजिस्टरी होती हैं.....सब फ़िज़ूल खर्च.

4) कभी बिल देखें हैं बिजली पानी के. निश्चित तारिख तक न भरो तो आसमानी जुर्माना. अब किसने हक़ दिया इनको कि इस तरह का जुर्माना वसूला जा सकता है. ठीक है कोई लेट हो गया तो उससे जुर्माना लो लेकिन किस हद तक? असल में जहाँ कम्पनी और सरकार शब्द आ जाता है, वहां अधिकांश व्यक्तियों को लगता है कि जैसे एक दीवार से सर टकराना है, सामने कोई इंसान तो है नहीं, जिससे लड़ा जाए. खैर, बता दूं कि कानून की नज़र में कम्पनी, सरकार और व्यक्ति में कोई भेद नहीं.

5) बयाने पर आप बयाने का लेन देन नहीं कर सकते, जब तक आप किसी प्रॉपर्टी के मालिक नहीं हैं, आप कैसे उसे बेचने का वायदा कर सकते हैं? क्या आप कोई सरकरी पार्क बेच सकते हैं? नहीं न. समझ लीजिये कि किसी को बयाना देने से आप मालिक नहीं बन जाते. और जब तक आप मालिक नहीं तो आप आगे बयाना ले नहीं सकते.

कोई भी अग्रीमेंट जब तक कानून संगत न हो, उसका कोई अर्थ नहीं.

कौरव पांडव जूआ खेलते हैं और एक अग्रीमेंट करते हैं कि द्रौपदी कैसे हारी या जीती जा सकती है. उस अग्रीमेंट पर भीष्म पितामह, कर्ण, कौरव, पांडव सबके दस्तखत हैं. मामला कोर्ट पहुँचता है....क्या लगता है आपको? क्या होगा? कोर्ट सबको मुर्गा बना देगा. यह कोई अग्रीमेंट करने का है. 

मैं और आप कनपटी पर भरी गन चलाने का खेल खेलना चाहते हैं. एक अग्रीमेंट बनाते हैं. आप और मैं दस्तखत कर चुके  और बहुत से लोग गवाही भी. अब आपने गोली चलाई और आप बच गए. मेरी बारी आई, मैं मुकर गया. मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा. क्या लगता है आपको? क्या होगा? कोर्ट सबको मुर्गा बना देगा और अंडा देने को विवश भी करेगा. अग्रीमेंट का मतलब यह नहीं कि कैसा भी अग्रीमेंट कर लो. 

6) मैं वकील नहीं हूँ. लेकिन कानून मात्र वकील ही समझे यह ज़रूरी नहीं. मेरी समझ गलत भी हो सकती है, सो कोई दावा नहीं है. लेकिन सही होने की सम्भावना ज़्यादा होगी ऐसा मेरा मानना है. यह कुछ मुद्दे सामने लाया हूँ. ऐसे अनेक मुद्दे हो सकते हैं. कुछ आपकी नज़र में भी हो सकते हैं, सांझे कीजियेगा, मिल कर विचार करेंगे. प्रचार करेंगे और कहीं कहीं हाथ दो चार भी करेंगे.

नमस्कार.....हमेशा की तरह कॉपी राईट......चुराएं न, साझा कर सकते हैं

Wednesday, 12 August 2015

मुझे प्रधान मंत्री बना दे रे...ओ भैया दीवाने

मुझे कोई कह रहा था कि मुझे छोटे-मोटे  चुनाव जीतने चाहिए पहले, फिर प्रधान मंत्री  पद तक की सोचनी चाहिए.

ठीक है  यार, जहाँ सुई का काम हो,  वहां तलवार नहीं चलानी चाहिए
जहाँ बन्दूक का काम हो, वहां तोप नहीं चलानी चाहिए

लेकिन इससे उल्टा भी तो सही है, आप तलवार से सुई का काम लोगे तो वो भी तो गलत होगा, आप तोप से बन्दूक का काम लोगे तो वो भी तो सही नहीं होगा

हम तोप हैं भाई जी, इंडिया की होप हैं 

वैसे मैंने सुना है भारत में चुनाव हारे हुए लोग भी मंत्री वन्त्री बन जाया करते हैं और बिना चुनाव लड़े भी  प्रधान संत्री मंत्री 

मैं तो फिर भी प्रधानमंत्री पद की  दावेदारी बाकायदा ठोक रहा हूँ 

हूँ कौन भाई मैं? मैं आप हूँ मित्र, आप.

लोक तंत्र है न भाई...लोगों का तंत्र...हम लोगों का तन्त्र 
ऐसा तन्त्र जिसमें कोई भी प्रधानमंत्री बन सकता हो 

तो फिर मैं क्यों नहीं?

इस “मैं” में आप खुद को देखिये, खोजिये, खो मत  जईये , खोजिये

डरपोक धर्म

जिस तरह से किसी को मंदिर मस्ज़िद में दिन रात यह कहने का हक़ है कि भगवान, अल्लाह, गॉड ऐसा है, वैसा है...... उसके अवतार, उसके पैगम्बर ये  हैं, वे हैं, उसी तरह से किसी को भी यह कहने का हक़ है कि वो इन सब बातों को गलत मानता है.....और उसको हक़ है यह  कहने  का  कि  उसकी नज़र में सही क्या है......

सेकुलरिज्म का और फ्रीडम ऑफ़ एक्सप्रेशन का मतलब यही है........इसमें तथाकथित मदिरवाद, मस्ज़िदवाद गुरुद्वारावाद की यदि छूट है तो इसमें इन सब को न मानने की भी छूट है......आप भगवान, अल्लाह, दीन, धर्म, मज़हब के बारे में अपना मत रख सकते हैं.

आप किसी भी चली आ रही परिपाटी को "हाँ" कर सकते हैं और मैं न कर सकता हूँ......आप उसके समर्थन में खड़े हो सकते हैं.....मैं उसके विरोध में खड़ा हो सकता हूँ.....आपके हिसाब से हिन्दू या मुस्लिम या ईसाई जीवन पद्धति सही हो सकती है, मेरे हिसाब से कोई और जीवन पद्धति .....आप मेरी विचारधारा को गलत कह सकते हाँ, मैं आपकी विचार धारा को....इसमें तकलीफ क्या है?

लेकिन तकलीफ है, तथा कथित धार्मिक को बड़ी तकलीफ है?

उसे बड़ा डर है....सदियों से जमी दुकानदारी गिर न जाए.......कहीं मंदिर मस्ज़िद ध्वस्त न हो जाएं...इसलिए तमाम तरह के तर्क घड़े जाते हैं.

किसी धर्म के खिलाफ मत बोलो? अटैक मत करो... तुम्हारा धर्म जो अटैक करता है हर रोज़ हमारी विचारधारा पर...हर रोज़ मंदिर से तुम चीखते हो, भगवान ऐसा है, वैसा है....वो जो अटैक करता है  तुम्हारा पंडित, वो? 

मुझे कहते  रहेंगे कि यदि मैंने अलां धर्म में से कुछ गलत देख लिख दिया तो दूसरे धर्म के विषय में क्यों नहीं लिखा.........असल मतलब बस इतना है कि  किसी तरह से अपना धंधा बंद न हो जाए...जो मैंने लिखा उसकी ठीक गलत की तहकीकात तो करनी नहीं है? उसके विषय में कोई खोजबीन नहीं करनी है.....उसमें तथ्य कितना है वो तो देखना  नहीं है ....अपने धार्मिक ग्रन्थ पलट कर देख लें ...फिर अपनी बुद्धि पलट कर देख लें ......न न...वो सब नहीं करना है......मेरे धर्म पर अटैक कयों किया? 

अटैक तब होता है जब तुम्हारे धार्मिक ग्रन्थ में जो लिखा है उससे कोई सन्दर्भ लिए बिना ही कोई बात कही जाए......वहां लिखे शब्द भी मेरे नहीं होते....और कई बार तो व्याख्या भी मेरी नहीं होती, फिर भी तकलीफ है....फिर भी इनको लगता है कि अटैक हो गया.

मैंने लिखा कि वाल्मीकि रामायण में शबरी के जूठे बेर खाने का कोई किस्सा नहीं है.....इसमें अटैक हो गया.....किताब उठा कर देख लो....यदि मैं सही हूँ तो तुम्हें तो मुझे धन्यवाद देना चाहिए कि मैंने एक नामालूम जानकारी सामने ला कर रख दी.....एक झूठ का पर्दाफाश किया.नहीं?लेकिन यह अटैक है...यह इनके धर्म पर अटैक है...यह धर्म है या झूठों का पुलिंदा?

और अब यदि व्याख्या मैं कर दूं अपने हिसाब से तो और भी परेशानी है ......ये लोग ...ये मुल्ले मौलवी, ये पोंगे पंडित ...ये व्याख्या करते रहें दिन रात.....अपने हिसाब से समझाते रहें ...किताबों में लिखे का मतलब....मैंने समझा दिया अपने गणित से तो तकलीफ हो गई.

बहुत डर है इनको........

डरो मत भाई...स्वागत करो.......यदि कोई आपकी किताबों पर दिमाग लगाना चाहता है तो लगाने दो 

जिसे जो ठीक लगता हो, उसे मानने दो.

दूसरे के धर्म को गलत साबित करने से तुम्हारा धर्म कैसे सही हो जायेगा?

और जब तुम यह कहते हो कि दूसरे के धर्म पर कमेंट करो.....मात्र मेरे ही धर्म पर क्यूँ...जब तुम यह कहते हो कि यदि दलेरी है तो फिर दूसरे धर्म पर बात करो, इस धर्म पर करो, उस धर्म पर करो...तो तुम्हारी कायरता साफ़ दीखती है....तुम इतना डरे हो कि तुम चाहते ही नहीं कोई भी  तुम्हारे धर्म की छानबीन करे.........तुम्हारी  इच्छा मात्र इतनी है कि किसी भी तरह से तुम्हारी दूकान जमी रहे.....कहीं लोग सवाल न उठाने लगें...कहें लोग अपना दिमाग प्रयोग न करने लगें ...बस

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THREE IMPORTANT WORDS

There are 3 words in English language.

1) Proactive.
2) Active
3) Reactive

These are not merely words but life philosophies. I explain.

1) Proactive is an individual who gets every bit of his car up-to-date. He will timely get air pressure, balancing, alignment of tyres checked & corrected. He will get brake oil, engine oil, gear oil changed/ fulfilled time to time. He will get his car thoroughly serviced on-time. 

2) Active is an individual who gets his car repaired  on slight recommendation of the mechanic.

3) And  reactive is an individual who gets his car repaired after meeting with an accident due to some malfunctioning of the same. In-fact the word re-pair was meant for such an individual. His vehicle gets  'im-paired', so had to be 're-paired'.

Which one of these you are, now find out.

Namas- car....Copy-right

गुरु शिष्य सम्बन्ध — कुछ अनछूए पहलु

शिष्य  गुरु को माफ़ नहीं करते...........जीसस को जुदास ने बेचा था, उनके परम शिष्यों में से एक था......ओशो का अमेरिका स्थित कम्यून  जो नष्ट हुआ उसमें मा शीला का बड़ा हाथ था....... उनकी सबसे प्रिय शिष्या थी

अक्सर आप देखते हैं कि आप किसी को कोई काम सिखाओ ...वो आप ही के सामने अपनी दूकान सजा कर बैठ जाता है........इसलिए तो सयाने व्यापारी  अपने कर्मचारियों के लिए अलग केबिन बनाते है.....खुद से दूर रखते हैं........अपने कारोबार में जितना पर्दा रख सकते हैं, रखते हैं.

गुरु भी समझते हैं इस बात को....वो अक्सर शिष्यों को खूब घिसते हैं, बेंतेहा पिसते हैं ..........कभी कार मिस्त्री के पास काम करने वाले लड़कों को देखो...वो उस्ताद की मार भी खाते हैं और गाली भी और गधों की तरह काम भी करते हैं........उनको काम जो सीखना है और गुरु भी गुरु घंटाल है, उसे भी पता है कि जितना काम ले सकूं, ले लूं.........खुर्राट वकील के पास काम करने वाले नए नए वकीलों को देखो.....उनसे मजदूरों की तरह काम लिया जाता है,.... निपट मजदूरी.....सालों घिसा जाता है उनको

ऑस्कर वाइल्ड मुझे बहुत प्रिय हैं...... पता नहीं मेरे बाल उनसे कुछ मेल खाते हैं इसलिए या ख्याल ......वो एक जगह कहते हैं कि कोई भी बेहतरीन  काम बिना सजा पाए रहता नहीं........No good deed remains unpunished.....आप किसी को कुछ सिखाओ ....वो आपको माफ कर दे ऐसा होना बहुत मुश्किल है.....जिसे आप कुछ सिखाओ उसका ईगो...उसका अभिमान  आहत हो जाता है...आप उससे ज़्यादा कैसे जानते हैं........हो कौन आप...ठीक है वक्त आने पर आपको औकात दिखा दी जायेगी.....

पढ़ा था कहीं कि पैसे से सक्षम गुरु भी भिक्षा मांगते हैं.....असली गुरु....शिक्षा देते हैं लेकिन फिर साथ में भिक्षा भी मांगते हैं....भिक्षा इसलिए कि जिसे शिक्षा दी गयी है वो जब भिक्षा दे तो उसे लगे कि उसने भी कुछ दिया है बदले में...शिक्षा यूँ ही नहीं ली.........आप देखिये न   भिक्षा और शिक्षा  दोनों शब्द कितने करीब  हैं...सहोदर 

सच बात यह है कि आप कभी किसी ढंग की शिक्षा की कीमत चुका ही नहीं सकते....आप जो भी चुकाते हैं वो आपकी चुकाने की सीमा है, न कि उस शिक्षा की कीमत......मिसाल के लिए जिसने भी बल्ब दिया दुनिया को आप उसकी देन की कीमत कैसे चुकायेंगे...सदियों सदियों नहीं चुका सकते,,,,,,जिसने दुनिया  को आयुर्वेद  दिया उसकी कीमत  कैसे चुकायेंगे .....आप दवा की   कीमत  दे सकते  हैं, लेकिन उस के पीछे  के ज्ञान की कीमत कैसे चुकायेंगे? सही शिक्षा  बेशकीमती है. .

मैं तो गुरु शिष्य सम्बन्धों को पारम्परिक ढंग से नहीं मानता...मेरा मानना है कि हर व्यक्ति गुरु है कहीं, तो कहीं शिष्य है......बहुत लोगों से मैंने सीखा और बहुतों ने मुझ से सीखा....पहले तो लोग मानने को ही तैयार नहीं होते कि उन्होंने आपसे कुछ सीखा है....क्रेडिट देने में ही जान निकल जाती है....यहीं फेसबुक पर ही देख लीजिये......मेरा लिखा अक्सर चुराते हैं और यदि मना करूं तो मुझे ही गरियाते हैं.....क्रेडिट देकर राज़ी नहीं....जो लोग मान भी लेते हैं कि मुझ से कुछ सीखा है उनमें से कुछ के मानने में भी मानने जैसा कुछ है नहीं, वो वक्त पड़ने पर मुझ पर तीर चलाने से नहीं चूकते ......

एक लड़का  झुग्गियों में रहता था.....सालों पहले की बात बता रहा हूँ...मेरा दफ्तर था प्रॉपर्टी का......उसे काम पर लगा लिया....कुछ नहीं आता था उसे....साथ रह रह बहुत कुछ सीख गया....आज भी कहता है कि मुझ से सीखा है बहुत कुछ.....लेकिन पीछे उसके ज़रिये कुछ माल खरीदना था.....पट्ठा कमीशन मारने से नहीं चूका......कमीशन लेना गलत नहीं लेकिन उसे मैं अलग से उसके समय की कीमत दे रहा था इसलिए गलत था......महान शिष्य.

एक और मित्रनुमा शत्रु.....दोस्त की खाल में दुश्मन......बहुत कुछ मुझ से सीखा उसने.........जूतों के छोटे मोटे काम में था.......प्रॉपर्टी में आ गया ....आज तक खूब जमा हुआ है लेकिन पीठ पीछे कभी  मेरे खिलाफ  लात या बात चलाने में नहीं चूका...महान शिष्य.

जब भी कोई मुझे कहता है कि उसने मुझ से बहुत कुछ सीखा है, जीवन बदल  गया है, दशा और दिशा सुधर गयी है,  मेरा दिल दहल जाता है, पसीने छूट जाते हैं, पैर काँप जाते हैं, नज़र धुंधला जाती है, चींटी भी हाथी नज़र आती है  

मैंने ही लिखा था कहीं, “No Guru is real Guru until half the world wants him dead.”कोई गुरु महान नहीं जब तक आधी दुनिया उसकी मौत  न चाहती हो.



सिखाने की कीमत चुकानी पड़ती है बाबू मोशाय........

 गुरु शिष्य परम्परा बहुत महान मानी जाती है, मैं नहीं कहता कि जो मैंने लिखा है  वो ही एक मात्र सच है.....लेकिन वो भी एक सच है ....  यह थोड़ा वो पहलु है जो कम ही दीखता है, दिखाया जाता है,  सो बन्दा हाज़िर है, अपने फन के साथ, अपने ज़हर उगलते फन के साथ  

नमस्कार.....तुषार कोस्मिक.....कॉपी राईट

Monday, 27 July 2015

पुलिस

बहुत रौला रप्पा है दिल्ली पुलिस के बारे में इन दिनों.

रवि नाम का लड़का  काम करता था मेरे साथ कुछ साल पहले.....अभी आया दो तीन रोज़ पहले....किसी औरत ने छेड़छाड़ का केस दर्ज़ करवा दिया उस पर.....घबराया था.....मैंने केस पढ़ा एक दम बेजान.....बेतुके आरोप. जैसे किसी ने नशे में जो मन में आया लिख दिया हो...कोई सबूत नहीं.....कोई गवाह नहीं....कोई ऑडियो, विडियो रिकॉर्डिंग नहीं.....और साथ में पैसों के ले-दे  का भी ज़िक्र....आरोप कि रवि पैसे वापिस नहीं दे रहा 

रवि ने बताया, “भैया, पैसों वाली बात सच है, मैंने इनके पचास हज़ार देने थे. साल भर से ब्याज दे रहा था..अभी नौकरी छूट गयी है सो दो महीने से ब्याज नहीं दे पाया....मैंने बोला दे दूंगा....कुछ इंतेज़ाम होते ही..पर बेसब्री में मेरे घर आकर गाली गलौच कर दी....इसीलिए ये केस दर्ज़ करवा दिया है”


यह किस्सा सुनाने का एक मन्तव्य है. पुलिस के IO (Inspecting Officer) का रोल क्या होना चाहिए? यही न कि जो भी केस उसके हिस्से आये वो उसकी छानबीन करे. यहाँ मालूम क्या छानबीन होती है? पैसे कहाँ से मिल सकते हैं? पैसे कैसे लिए जा सकते हैं? थाने में IO खुद जज, वकील सब बना बैठा होता है. दोनों पार्टियाँ यदि समझौता करने पर राज़ी हो भी जाएँ  तब तक फैसला होने नहीं देगा जब तक उसकी खुद की धन पूजा न हो जाए...जान बूझ कर समय खराब करेगा......कभी कहीं चला जाएगा, कभी कहीं.....जितना मानसिक दबाव बना पायेगा, बनाएगा........और कई बार तो किसी अमीर से पैसे लेने के लिए किसी गरीब को खामखाह कूट देगा

एक किस्सा याद आया. एक बार मेरे कजन ने किसी को पीट दिया...वो भी पैसों का ही मामला था....रात को फ़ोन आय मुझे...पहुँच गया मैं.......वहां जिस कमरे में कजन था वहीं कोई गरीब से तीन चार लडके भी फर्श पर बिठाल रखे थे.....मैं जब गया तो मुझ से बात करते करते IO उन लडकों पर डंडे, जूते बरसा रहा था. कुछ ही देर में मैं समझ गया. समझ गया कि मुझ से पैसे झाड़ने को IO दबाव बना रहा है. परोक्ष में मुझे  धमकी दे रहा है कि यदि पैसे न मिले तो ऐसे ही मेरे कज़न को भी पीट दिया जाएगा.मैंने कज़न  से बात की, उसे समझाया कि IO का क्या जाएगा? रात भर यदि यहीं रहा तो कभी भी  हाथ चला सकता है. वो मान गया कि पैसे दे देने चाहिए ......खैर, पैसे दिए गये कज़न थाणे से बाहर हो गया

यह करता है IO. होना तो यह चाहिए कि जैसे रवि के केस में बिना किसी गवाह, सबूत के IO ने केस बनाया है तो केस खारिज होने पर IO पर भी कार्रवाही होनी चाहिए. हर इस तरह के केस जिसमें से IO की गलती दिखे उसकी सैलरी में से कुछ रकम कट कर विक्टिम  को मिलनी चाहिए....एक निश्चित समय तक तो मिलनी चाहिए और जो IO बहुत सारे बकवास केस कोर्ट पर थोपता हो उसे निष्कासित कर देना चाहिए. उसे IO बनाया किस लिए गया? झूठे , बेबुनियाद केस थोपने के लिए क्या? नहीं. न. मेरा सुझाव मानेंगे ओ अक्ल आ जायेगी.  

दिल्ली पुलिस की तरफ से एक छपता है “शोरा गोगा”. मुझे ठीक ठीक पता नहीं कि इसका मतलब क्या होता है. न पता होने की भी वजह यह है कि पुलिस आज भी अपने काम काज में मुगलकालीन भाषा प्रयोग करती है. वो भी बदलने  की जरूरत है. भाषा वो होनी चाहिए जो स्थानीय लोग प्रयोग करते हों. तो बात कर रहा था शोरा गोगा की. यह एक तरह का इश्तिहार होता है जो किसी गुमशुदा की तलाश के लिए या किसी अनजान लाश की शिनाख्त के लिए पुलिस छापती है. यकीन जानो इतनी बकवास ब्लैक एंड वाइट फोटो छपती है कि खुद जिसकी फोटो है वो भी न पहचान सके. 

मुझे आज तक समझ नहीं आई कि जब किसी संदिग्ध को पकड़ने का इश्तिहार छापा जाता है तो उमें स्केच के आधार पर आम फोटो कैसे नहीं बनाई जा सकती...स्केच भी दे दें, उससे ही बनी विभिन्न तरह की फोटो भी  

मुझे आज तक समझ नहीं आया कि जब पुलिस वालों की भर्ती होती है तो उनकी शारीरिक फिटनेस देखते हैं, वैसा हर साल क्यूँ नहीं किया जाता? क्या कुछ ही सालों में रिश्वत खाए, तोंद फुलाए पुलिस वालों को बर्खास्त नहीं कर देना चाहिए? क्या फिटनेस की ज़रुरत शुरू में ही होती है?

Friday, 24 July 2015

मेरी भोजन यात्रा

यात्रा वृतांत पढ़े होंगे, सुने होंगे आपने. आज भोजन वृतांत पढ़िए. यात्रा वृतांत जैसा ही है, बस फोकस भोजन पर है ...भोजन यात्रा ..मेरी भोजन यात्रा .....मन्तव्य मात्र पीना-खाना है और मेरे जीवन में आपको खुद के जीवन की झलकियाँ दिखाना है. चलिए फिर, चलते हैं. कहते हैं आदमी के दिल का रास्ता पेट से हो के गुजरता है... सही है ..... वैसे दिल के दौरे का रास्ता भी पेट से ही हो के गुजरता है और दिल का रास्ता पेट की बजाए पेट के थोड़ा नीचे से शोर्ट कट है. सीक्रेट है थोड़ा, लेकिन है. बचपने में बासी रोटी को पानी की छींट से हल्की गीली करके लाल मिर्च और नमक छिड़क कर दूसरी रोटी से रगड़ कर खाना याद है. और याद है रोटी खाना पानी में नमक और लाल मिर्च घोल के साथ ..हमारे घर में खाने-पीने की कभी कमी तो नहीं रही लेकिन वहां बठिंडा में कभी-कभी ऐसे भी खाते थे....एक बार घर से लड़ कर वहीं एक फैक्ट्री में मजदूरी की दिन भर, मजदूरों के साथ बैठ खाना खाया, अचार, हरी मिर्च और प्याज़ के साथ ...वो भी कभी भूला नहीं. आज भोजन-भट्ट तो नहीं हूँ लेकिन थोड़ा ज़्यादा खा जाता हूँ लेकिन जो खाता हूँ अच्छा खाता हूँ...कहते हैं थोड़ा खाओ, अच्छा खाओ......मैं इस कहावत का आखिरी आधा हिस्सा ही अपना पाता हूँ. चांदनी चौक, फतेहपुरी मस्जिद के ठीक साथ एक मिठाई की दूकान है…चैना राम हलवाई…मैं पहली बार वहाँ तब गया जब टाइम्स फ़ूड गाइड या शायद किसी और अखबार की फ़ूड गाइड में इनका नाम पढ़ा … दिल्ली के सर्वश्रेष्ठ हलवाई का खिताब दिया गया था इनको. वो भी एक बार नहीं कई बार.....एक बार गए तो फिर बहुत बार जाना हुआ वहां.....खूब मिठाई लाते रहे, खाते रहे...अभी पीछे गए तो रात ज़्यादा हो चुकी थी, वो दूकान बंद थी लेकिन उसके साथ ही एक जैन स्वीट्स नाम से दूकान है, वो खुली थी ....फतेहपुरी मस्ज़िद के गेट के एक तरफ चैना राम है तो दूसरी तरफ जैन .......मुझे सूझा कि इनसे ही कुछ मिठाई ली जाए.......शुरू की तो लेते चले गए....कोई आठ-दस तरह की मिठाई ले ली गई....बड़ी बेटी को काजू कतली पसंद है, तो छोटी वाली का मन इमरती पर आ गया...मैं ढोढा पसंद से खाता हूँ.....श्रीमती जी ने कोई मेवों से बनी मिठाई ले ली.....खैर, कार घर की तरफ चलती रही और हम सब लोग एक-एक कर अलग-अलग मिठाई खाते रहे.........और सबका अंत में फैसला यही था कि जैन वालों की मिठाई चाइना राम से बेहतर थी. अभी पीछे जाना हुआ, जेल रोड, वहां ओम स्वीट वालों ने ये बड़ा मिठाई भंडार खोल रखा है, शो रूम टाइप.....ये ओम स्वीट कभी गुडगाँव में हुआ करता था.....जब पहली बार इनका नाम सुना था तो गाड़ी उठा स्पेशल गुडगाँव ढोढा लेने गये थे...लेकिन अब लगा कि जैन के ढोढा के आगे इनका ढोढा बकवास था. जैन और चैना राम, दोनों देसी घी की मिठाई बनाते हैं...आपको साफ़ समझ आ जायेगा कि देसी घी मात्र छिड़का नहीं गया...खुल कर प्रयोग किया गया है और मेवे मात्र दिखाने को नहीं, खिलाने को डाले गए हैं. इनके रेट हल्दी राम और बीकानेर वालों से कहीं कम हैं और क्वालिटी कहीं बेहतर. ये लोग कराची हलवा भी बनाते हैं...किसी जमाने में हलवाई शायद अपने हलवों की वजह से जाने जाते होंगे...तभी नाम हो गया हलवाई........उसी तरह कराची शहर का हलवा मशहूर होगा.....तो शहर के नाम से कराची हलवा मशहूर हो गया. एक समय था, हम लोग खाने-पीने के नए-नए ठिकाने ढूंढते थे......HT Food Guide और Times Guide ले दिल्ली की गलियां छानते रहते....लोग हमें विदेश से आया समझते...कुछ मेरे लम्बे बालों की वजह से भी. इसी दौर में अजमेरी गेट इलाके में कोई दो कुल्फी बनाने वालों के पास भी पहुंचे....वो लोग सैंकड़ों तरह की कुल्फी बनाते थे....पञ्चतारा होटलों और बड़ी शादियों में सप्लाई थी उनकी.......हम ने बहाना किया कि घर में शादी है, सो सैंपल taste कराओ ....पैसे ले के खिलाया, लेकिन खिला दिया......बहुत सी कुल्फीयां .....ऐसी जैसी जल्दी से और कहीं नहीं मिलतीं....शायद कूड़ा मल्ल नाम था उनमें से एक का. एक जमाना था निरुला का नाम था, हम लोग ख़ास कनाट प्लेस जाते उनकी आइस क्रीम खाने.....फिर उनके रेस्तरां में खाना खाने लगे....मुझे उनकी पनीर मकखनी जो कुछ कुछ शाही पनीर जैसी थी, आज भी याद है, उसके जैसी उस तरह की पनीर की डिश और कहीं नहीं मिली...फिर निरुला खो ही गया....अभी दीखता है कहीं-कहीं लेकिन अब जाना नहीं हुआ, लम्बा समय बीत चुका. मौर्या शेरटन में 'बुखारा' नाम से है एक रेस्तरां...वहां की 'दाल बुखारा' का बहुत नाम है और नाम बिलकुल सही है .......दम है उनकी दाल में...शायद मंदी आंच पर बीस या चौबीस घंटे रिझाते हैं दाल को....अलग ही फ्लेवर है उनकी दाल का......लेकिन एक बात जो खटकती थी वो यह कि खाना परोसने वाले और जूठे बर्तन उठाने वाले अलग-अलग नहीं थे...अब तो पता नहीं ऐसा है कि नहीं, जब हम जाते थे तब ऐसा ही था. आज जो वेज कबाब का चलन हो गया है....छोटे बड़े ठिकाने खुल गए हैं जगह जगह .....कोई दसेक साल पहले नहीं था ऐसा......हम लोग रैडिसन जाया करते थे.....एअरपोर्ट के पास वाले....काफी ड्राइव हो जाती थी लेकिन जाते थे.......कबाब फैक्ट्री .....वो लोग एक फिक्स अमाउंट में जितना खा सको उतना देते जाते थे.......पहले खूब सारा कबाब, फिर दो तरह की दाल के साथ रोटी...फिर अंत में मीठा.......इनका खाना मुझे सर्वश्रेष्ठ लगता था....चूँकि मैं कबाब का शौक़ीन था...कई बार जाना हुआ.... लेकिन एक बार देखा कि लॉबी में उन्होंने एक बड़ा सा कालीन बिछाया था वो मैला था, पञ्चतारा के हिसाब से सही नहीं लगा ...बाद में तो इनकी कबाब फैक्ट्री पंजाबी बाग भी खुल गयी ..गए भी वहां, लेकिन वो मज़ा कभी नहीं आया जो रैडिसन होटल जा कर आता था. कोई पन्द्रह साल हो गये मांस खाना छोड़े हुए......मैंने छोड़ा तो हमारे घर में सबने छोड़ दिया....जब खाते थे तो जामा मस्ज़िद के पास “करीम” कई बार जाना हुआ....फिर इनका ही एक और रेस्तरां निजामुद्दीन ...वहां भी जाना हुआ.......लेकिन जामा मस्ज़िद वाला ही सही लगता था..... मटन मसाला ...बेहद स्वादिष्ट. “अथोर्टी वाला गुल्लू”. इसका बनाया मीट भी ज़बरदस्त. गोल मार्किट में ‘गेलिना’ करके एक रेस्तरां....यहाँ का चिकेन....स्वाद तो बहुत नहीं था लेकिन औरों के मुकाबले सस्ता था और यहीं घर के पास क्लब रोड, पंजाबी बाग़ पर 'चावला चिकन'.....कोई जवाब नहीं ...वाह! जामा मस्ज़िद के पास ही बचपने मिएँ खाए चिकन के पकोड़े भी याद हैं. एक बार तो तीतर बटेर मँगा कर घर बनवाए......शायद चोरी-छुपे बिकते थे...स्वाद कुछ अलग नहीं लगा..चिकन जैसा ही शायद कुछ. मछली बहुत नहीं खाई...शायद गंध की वजह से....शायद बनानी नहीं आती थी हमें......शायद खरीदनी भी नहीं आती थी. खूब गाढ़े लहसुन, प्याज़, अदरक के मसाले में अक्सर गुर्दे कलेजी हमारे घर में बनती थी...मटन, चिकन से ज़्यादा. कुदरत ने स्वाद के साथ जानवर की हिंसा न रखी होती तो कभी नहीं छोड़ता मीट खाना......जो लोग मांस खाना छोड़ देते हैं, उन्ही के लिए सोयाबीन चांप का आविष्कार हुआ लगता है. वैसे ही शक्ल दी जाती है जैसे मुर्गे की टांग हो, लकड़ी की डंडी भी बीच में इसीलिए लगाई जाती है कि खाने वाले को हड्डी की कमी न महसूस हो, ऊपर से लाल रंग भी किया होता है चांप को. इडियट....खाने वाले भी खिलाने वाले भी. छोड़ दिया तो छोड़ दिया मांस खाना. इस तरह की बेवकूफियों में क्या रखा है? वैसे मेरा मानना है कि भविष्य में वैज्ञानिक हुबहू मांस जैसा स्वाद लैब में तैयार आकर लेंगे. कितना सही होगा, कितना गलत भविष्य ही बताएगा. अब नहीं खाता मांस मछली ...लेकिन मेरी भोजन यात्रा में यह सब भी शामिल तो है ही. कुछ लोग सडक पर रेहड़ी लगाते-लगाते करोडपति हो गए...आप भी ऐसे लोगों को जानते होंगे....यहीं रानी बाग में 'बिट्टू टिक्की वाला' ऐसे ही लोगों में से है .....अब तो और भी बहुत कुछ बनाता है, बेचता है लेकिन मेरे ख्याल से उसकी टिक्की ही जानदार है बस. लेकिन फिर भी चांदनी चौक वाले नटराज वाले से बेहतर नहीं. हम चांदनी चौक जाते हैं तो हमारा एक ठीया 'नटराज टिकी-भल्ले वाला' भी है. इसके मुकाबले हमें भारत नगर का भल्ले वाला भी पसंद नहीं. चांदनी चौक से ही याद आया......कुछ लोग ख्वाह-मखाह भी मशहूर हो जाते हैं......फतेहपुरी में ज्ञानी फलूदा वाले के साथ ही एक नान वाला है, वो बहुत बड़े साइज़ के नान बनाता है......वो मशहूर इसीलिए है कि बड़े नान बनाता है ...अब समझने की बात यह है कि मात्र साइज़ में बड़े होने से ही कोई खाने की चीज़ बढ़िया कैसे हो गई? यकीन मानिये एक नम्बर का बकवास खाना है इसका, लेकिन फिर भी मशहूर है. यही हाल परांठे वाली गली का है. पहली बात, इन के परांठे परांठे है ही नहीं. ये डीप फ्राई की हुई पूड़ियाँ हैं. बड़ी सी. दूसरी बात, जो हैं भी, जैसी भी हैं, बकवास हैं. तीसरी बात, सब्ज़ियाँ भी कोई ख़ास स्वाद नहीं. बैठने तक की ढंग की जगह नहीं. लकड़ी के फट्टे जैसे बेंच. छोटी-छोटी सी जगहें. रेट भी वाजिब नहीं हैं. परांठों के नाम पर कलंक हैं इन के परांठे. सिर्फ चाँदनी चौक के नाम पर बिक रहे हैं. ऊंची दूकान, फीका पकवान. खैर, इन की तो दूकान भी ऊँची नहीं हैं. हां,नाम ऊंचा है, बेवजह ऊंचा है.

एक बार किसी ने बताया कि 'गुच्छियाँ' करके कोई सब्जी होती है,. फतेहपुरी से मिली, बहुत ढूँढने के बाद. बहुत मंहगी......सब्ज़ी के हिसाब से बहुत ज़्यादा महंगी....शायद दो बार या तीन बार मंगवाई........स्वाद अच्छा बनता था, फिर दिमाग से उतर गयी....आज लिखने बैठा तो याद आ गईं. कनाट प्लेस में शिवाजी स्टेडियम बस अड्डे पर एक कढी चावल वाला है....अक्सर वहां भी पहुंचना हो जाता है....कोई ख़ास नहीं है खाना...लेकिन कढी चावल और कहीं आसानी से मिलते नहीं..... भीड़ लगी रहती है वहां. "आप क्या चूक रहे हैं आपको तब तक पता नहीं लगता जब तक आपने उसका स्वाद न लिया हो" मैंने तकरीबन बीस साल की उम्र तक कोई साउथ इंडियन खाना नहीं खाया था...वहां पंजाब में उन दिनों यह होता ही नहीं था, बठिंडा में तो नहीं था.....यहाँ दिल्ली आया तो खाया. मुझे इनका अनियन उत्तपम जो स्वाद लगा तो बस लग गया........कनौट प्लेस में मद्रास होटल हमारा ख़ास ठिकाना हुआ करता था, सादा सा होटल, नंगे पैर घूमते बैरे. आपको सांबर माँगना नहीं पड़ता था... खत्म होने से पहले ही कटोरे भर जाते थे, गरमा गर्म....वो माहौल, वो सांबर, वो बैरे..वो सब कुछ आज भी आँखों के आगे सजीव है.......मद्रास होटल अब बंद हो चुका है......वैसा दक्षिण भारतीय खाना फिर नहीं मिला.....फ़िर 'श्रवण भवन' जाते थे, कनाट प्लेस भी और करोल बाग भी, लेकिन कुछ ख़ास नहीं जंचा...... अब 'सागर रत्न' रेस्तरां मेरे घर के बिलकुल साथ है...मुझे नहीं जमता. खैर, आज भी डबल-ट्रिपल प्याज़ डलवा कर तैयार करवाता हूँ.....उत्तपम क्या बस, प्याज़ से भरपूर परांठा ही बनवा लेता हूँ.....और खूब मज़े से आधा घंटा लगा खाता हूँ......अंत तक सांबर चलता रहता है साथ में......और अक्सर सोचता हूँ कि काश पहले खाया होता, अब शायद हों वहां बठिंडा में डोसा कार्नर, मैंने तो अभी भी नहीं देखे. यहाँ उत्तर भारत में हम लोग दक्षिण के खाने के नाम पर मात्र डोसा वडा ही समझते हैं लेकिन मुंबई में वहां थाली में छोटी छोटी बहुत सी कटोरियों में अलग-अलग डिश देते हैं, उसी में मीठा भी, वो भी एक तजुर्बा लेने लायक है. छोले भठूरे मुझे न पहाड़गंज वाले सीता राम के पसंद आये, न शादीपुर डिपो वाले 'आओ जी पेस्ट्री' के और न ही देव नगर में ओम के .......वो तो एक बार श्रीमती जी ने घर बनाए थे...बहुत पहले, वैसे कहीं नहीं खाए ..लेकिन श्रम काफी हो जाता है, न हमें घर बनवाना याद आया, न उन्होंने याद दिलाया. गफ्फार मार्किट जब भी जाना होता है, वहां MCD मार्किट के बाहर एक मटर कुलचे वाला खड़ा होता है..मजाल है हमारी कि बिना खाए वहां से निकल लें......मटर पर खूब सारा नीबूं निचोड़ा जाता है और साथ में अचार ताज़ा हरी मिर्च और आम का .....वाह! गुरद्वारे जाना होता है कई बार, बंगला साहेब.....पत्नी या किसी रिश्तेदार की डिमांड पर...मेरी रूचि मात्र कड़ाह प्रसाद में होती है ....कड़ाह प्रसाद का जवाब नहीं....वो आज कल बहुत कम कम देने लगे हैं, लेकिन फिर भी मैं दो तीन बार ले लेता हूँ.....लंगर खाते हैं लेकिन मुझे कुछ सही नहीं लगता.....जो खाना वहां परोसा जाता है, वैसा खाना घरों में आजकल शायद ही कोई खाता हो. सूखा आटा लगी मोटी रोटियां, सादी सादी दाल, सब्ज़ी. और जब तक दाल/सब्ज़ी मिलती है, रोटी ठंडी हो जाते है और रोटी मिलती है तो दाल/ सब्ज़ी ठंडी हो जाती है. ऊपर से उनका एक सिस्टम है कि जब तक हाल में बैठे आखिरी व्यक्ति को सर्व नहीं हो जायेगा, पहला व्यक्ति नहीं खायेगा.....सब खाना ठंडा हो जाता है इस तरह से.....बहुत बदलाव की ज़रुरत है वहां ....कोई पञ्च-तारा खाने की अपेक्षा नहीं कर रहा लेकिन आम घरों में जैसा खाना होता है कम से कम वैसा स्तर तो रखना ही चाहिए. और थाली तक आते और फिर थाली से मुंह तक आते आते खाना ठंडा न हो जाए, इसका भी ख्याल रखना चाहिए. पञ्च-तारा याद करता हूँ तो हयात होटल में बफे सिस्टम में खाया याद आ रहा है लेकिन शायद क्वालिटी याद करने लायक नहीं है कुछ. 'गोला सिज्लेर' याद आ गया, भूल गया था....सबसे पहले ओडियन सिनेमा के साथ वाले में जाना होता था.......फिर डिफेन्स कॉलोनी.....फिर राजौरी गार्डन वाले ...वो प्लेट में डिश आती है धुंआ छोड़ती हुई.....सिज्ज्लेर........शूं शूं करती हुई...स्वादिष्ट है खाना. कनाट प्लेस में ही परिक्रमा रेस्तरां हुआ करता था.....पता नहीं अब है कि नहीं.......ऊपर गोल घूमता था, दिल्ली दिखती थी वहां से.......बहुत टाइट जगह थी.......खाना ठीक-ठाक था. बहुत से रेस्तरां अपनी तरह का थीम लिए होते हों.....बदलाव के लिए अच्छा लगता है...जैसे कनाट प्लेस में ही एक रेस्तरां है, जो काऊबॉय थीम पर आधारित है, मेक्सिकन खाना मिलता है. खाना और थीम दोनों बढ़िया हैं. वहीं क्लारिजेज़ होटल में एक रेस्तरां है जिसमें उन्होंने आधा ट्रक ही दीवार पर बना रखा है, खाना देसी, उत्तर भारतीय, पंजाबी. मुंबई गये तो वहां पहली बार देखा रेस्तरां में वेटर नंगे पाँव घूम रहे थे...कई रेस्तरां में गज़ल गायकों को बिठाने का भी चलन है, ख़ास करके पञ्च-तारा में. अलग अलग थीम होते हैं अक्सर. चीनी खाने का बहुत शौक़ीन नहीं हूँ. आपको खाना ही हो तो कनाट प्लेस स्थित BERCO’S जा सकते हैं.....हम गए हैं दो तीन बार....इन्हीं का एक रेस्तरां पश्चिमी दिल्ली जनक पुरी डिस्ट्रिक्ट सेंटर भी है......जनकपुरी वाला ज़्यादा खुला-खुला था ...अब का मालूम नहीं, क्या हाल है. हाँ, भूल ही गया था, एक पाकिस्तानी कम्पनी है “शान”. अचार बनाती है. इनके बनाये अचार, तौबा! इनका पता लगा था हमें ट्रेड फेयर से......इनका हैदराबादी अचार...वैसा अचार शायद ही कोई दूसरा हो दुनिया में. और एक लहसुन का अचार. वो हम लहसुन की वजह से भी खाते हैं.......कोई मुकाबला नहीं दूर दूर तक........ये अमृतसरी अचार और पानीपत अचार वाले नौसीखिए हैं इनके सामने... इनका एक ठिकाना था ‘प्रेम आयल’ करके फतेहपुरी में, फिर तो हमने वहां से भी लिए इनके अचार कई बार. ट्रेड फेयर से याद आया....यहाँ का खाना महंगा और बकवास होता है. जगह बहुत बड़ी है, पैदल घूम-घूम हालत पतली हो जाती है, भूख तो लग ही जाती है, और वो भी ज़बरदस्त .....पहले पंजाब पवेलियन की छत्त पर मक्की की रोटी और साग मिलता था, बहुत बढ़िया तो नहीं थी क्वालिटी लेकिन फिर भी खाने लायक थी और पूरे प्रगति मैदान में मिल रहे बाकी खानों के मुकाबले अच्छी थी. अब पिछली बार देखा तो वहां वो मिलना भी बंद हो चुका था. मुझे और कुछ याद करने लायक बस बिहार का लिट्टी चोखा और अनरसा लगता है...अनरसा एक तरह की मिठाई है जो चावल के आटे, तिल, खोये और गुड/चीनी से बनाई जाती है ..... वहां वो लोग हमारे सामने बना रहे होते हैं ...ताज़ा...ट्रेड फेयर में मैं कभी मिस नहीं करता अनरसा और बाद में बहुत मिस करता हूँ अनरसा ...और हाँ, कश्मीर पवेलियन में पीया काहवा भी याद आया, यह एक गर्म ड्रिंक है, जिसमें पीस कर काजू बादाम डाले जाते हैं, स्वाद भी और सेहत भी..इस काहवा से ही प्रेरित हो कर मैंने अपने लिए हॉट ड्रिंक बनाई है....बहुत सारे देसी मसाले......दालचीनी, लौंग, इलायची छोटी बड़ी दोनों, सौंफ, सौंठ, पिसे काजू, बादाम तथा और भी बहुत कुछ. एक बार उत्तराँचल का टूर किया था....पन्द्रह दिन...सपरिवार....अपनी कार से घूमते रहे.....यादगार....अलग से किसी आर्टिकल में लिखूंगा....अभी बस इतना ही कि पूरी यात्रा में एक ही दाल मिलती रही रेस्तराओं पर...शायद उसे तुअर की दाल कहते हैं.....पसंद भी आई...लेकिन यहाँ दिल्ली में फिर कभी ख्याल में ही न रही. पानीपत जाना होता है अक्सर. मुरथल वाले ढाबे.....मशहूर हैं...एक साथ सटे हैं ....ये अब ढाबे कम और रेस्तरां ज़्यादा हैं....... एयर कंडिशन्ड ....साफ़ सुथरे......खाना ठीक है......सब पे तो नहीं खाया, लेकिन जिन पर खाया बढ़िया लगा.... 'अमरीक सुखदेव', अपने नाम के हिसाब से वैल्यू दे देता है आपको. जब उस रास्ते पर हो तो ज़रूर खाएं. दिल्ली से पानीपत को जाओ तो वहीं थोड़ा सा ही आगे 'बर्फी वाला' है .....ये वहीं बर्फी बना रहे होते हैं, आपकी आँखों के सामने....हल्के ब्राउन रंग की है इनकी बर्फी...जैसे दूध को बहुत ज़्यादा काढ़ा गया हो.......काबिले तारीफ़ है ... ये लोग लस्सी भी बेचते हैं....लस्सी क्या है, निरी दही होती है, बहुत गाढ़ी.....मज़ा आ जाता है. आम शादियों या शादियों जैसे प्रोग्रामों में खाने का कतई मज़ा नहीं आता...खड़े हो खाओ.....एक ही प्लेट में सब....दाल पनीर से गले मिलने लगती है तो छोले मिक्स वेज पर डोरे डालने लगते हैं. कई शादियाँ अटेंड की......ये बड़ी........कुछ फ़ार्म हाउस में भी........या बड़े लॉन में ......बहुत अच्छा लगता है खुला खुला....अभी कुछ साल पहले अलवर में एक शादी अटेंड की.....शहर के बाहर कोई पहाड़ी पर था लॉन......रात को बहुत अच्छा माहौल बना वहां...ठंडा ठंडा.......ज़ेहन से उतरा ही नहीं........खाने के साथ-साथ बाकी इंतेज़ाम कैसा है, वो भी बहुत माने रखता है. Veena Sharma से मिला एक बार उनके घर पर, हो गए शायद पांच-छः साल के करीब, उनके खिलाये पकोड़े याद हैं, वजह है मिलने की खुशी का पकोड़ों में मिला होना. अब इस सारी यात्रा में मैने पिज़्ज़ा हट, डोमिनो’ज़ पिज़्ज़ा, मैक-डोनाल्ड के बर्गर का ज़िक्र क्यों नहीं किया? सिंपल. मेरा जाना हुआ है, खाना भी हुआ है लेकिन मैं इनको खाने लायक ही नहीं मानता. मेरा दावा है कि बास्किन रोब्बिंस की आइस क्रीम हो, चाहे डंकिनज़ के डोनट हों, चाहे मैक-डोनाल्ड का बर्गर, या फिर डोमिनोज़ का पिज़्ज़ा, इन सब को अधिकांश कुत्ते तक खाने से इनकार कर देंगे...वजह है.....वजह है कि इनका दिमाग ब्रांडिंग के नाम पर की जाने वाली ब्रेन-वाशिंग से अभी अछूता है. बस ऐसे ही खाते-खिलाते बहुत कुछ सीखा खाने के बारे में. एक कहावत है, मैं अंडा नहीं दे सकता लेकिन आमलेट के बारे में मुर्गी से ज़्यादा जानता हूँ ...मैं न तो आमलेट बना सकता हूँ और न ही चाय लेकिन खाने की विद्या यदि साठ प्रतिशत श्रीमती जी मायके से लायीं थी तो बाकी मेरे साथ रह कर सीखी होंगी......वैसे वक्त के साथ सीखने वाला यूँ ही सीखता जाता है......खाना अच्छा बनाती हैं, बहुत ही अच्छा ........नहीं कभी अच्छा लगता तो बोल देता हूँ और अच्छा बना होता है तो वो तो ज़रूर बोलता हूँ....आज भी करेले बने थे भरपूर तारीफ की...साथ में अगली बार करेलों की सब्ज़ी के साथ मूंगी की दाल बनाना भी याद दिलाया......हम ऐसा अक्सर करते हैं...करेलों के साथ धोई मूंगी की दाल. मेरे पिता जी गुज़रे तो सात साल तक उनकी बरसी मनाई हमने......हर साल भोज......भोज क्या महा-भोज, माँ का हुक्म था, बजाया. जिन्होंने खाने का काम शुरू करना होता है उनको अक्सर कहते सुना है मैंने कि कारीगर ख़ास होना चाहिए, बढ़िया होना चाहिए. मेरा मानना है कि आप एक आम रसोईये से भी बेहतरीन खाना बनवा सकते हो बशर्ते आपको पता हो कि बनवाना कैसे है......मैंने अपने रसोइये को पहली बार जब बुलवाया तो उससे सारे समान की लिस्ट ले ली.....प्याज़, टमाटर, लहसुन, अदरक आदि उसने जितने लिखवाये थे वो लगभग डबल कर दिए.....हर दाल सब्ज़ी और खीर आदि के लिए खूब काजू, बादाम आदि मंगवा लिए.....वो कहे, "बाबू जी दाल में कहाँ कोई बादाम डलते हैं?", मैं कहूं."तू डाल, जब दाल मना करेगी तो नहीं डालेंगे?" लोग आज भी वो खाना याद करते हैं. आप मुझे बुलवा सकते हैं यदि कभी खाना बनवाना हो. मेवे मंगवा लीजिये और अपनी आँखों के सामने खाने में डलवा दीजिये, दाल में, मिक्स वेज में, पनीर में, खीर में, लगभग हर डिश में कहीं पढ़ा था कि एक बार एक इलाके में सूखा पड़ गया लोग खाने को मोह्ताज़ हो गये...बादशाह ने अपनी रसोई से खाना बनवाना शुरू किया. अब चूँकि बहुत लोगों का खाना बनाना होता था तो रसोइओं ने एक ही कडाही में चावल और सब्जियां डालनी शुरू कर दी....लोगों को जो स्वाद लगा तो आज तक लगा हुआ है ...बिरयानी आविष्कृत हो गई. घर पर आप नए-नए तजुर्बे कर सकते हैं, हर डिश ऐसे ही इन्वेंट हुए होगी... हो सकता है आपके बहुत तजुर्बे फेल हों और आपका बनाया खाना आपका कुत्ता भी खाने से इनकार कर दे लेकिन ‘हम होंगे कामयाब’ नारा बुलंद रखिये, याद रखिये..... जब हो जाएँ कामयाब तो मुझे याद रखिये...ज़्यादा कुछ नहीं बस वो कामयाब डिश खिला दीजिये. स्वादिष्ट नमन....कॉपी राईट....आर्टिकल खाएं न.....शेयर करें.

Tuesday, 21 July 2015

कानूनी दाँव पेंच

एक समय था मुझे कानून की ABCD नहीं पता थी.......सुना था कि कचहरी और अस्पताल से भगवान दुश्मन को भी दूर रखे.......लोगों की उम्रें निकल जाती हैं........जवानी से बुढापे और बुढापे से लाश में तब्दील हो जाते हैं और जज सिर्फ तारीखें दे रहे होते हैं

लेकिन मेरा जीवन.....मुझे कचहरी के चक्कर में पड़ना था सो पड़ गया .........शुरू में वकील से बात भी नहीं कर पाता था ठीक से.....वकील की बात को समझने की कोशिश करता लेकिन समझ नहीं पाता...जैसे डॉक्टर की लिखत को आप समझना चाहें भी तो नहीं समझ पाते वैसे ही वकील की बात का कोई मुंह सर निकालना चाहते हुए भी नहीं निकाल पाता

एक वकील से असंतुष्ट हुआ, अधर में ही उसे छोड़ दूसरा पकड़ा......वो भी समझ नहीं आया ..तीसरा पकड़ा......कुछ पता नहीं था....तारीख का मतलब बस जैसे तैसे कचहरी में हाज़िरी देना ही समझता था

तकरीबन तीन साल चला केस.....यह मेरी ज़िन्दगी का पहला केस था...और जायज़ केस था.....किसी से पैसे लेने थे....चेक का केस था और फिर भी मैं हार गया......

जब घर वापिस आया तो औंधा मुंह लेट गया, घंटों पड़ा रहा....गहन ग्लानि
खुद को पढ़ा लिखा समझदार समझता था लेकिन एक कम पढ़े लिखे आदमी से अपने जायज़ पैसे नहीं ले पाया

फिर उस आदमी ने मुझ पर वापिस केस डाला.....लाखों रुपैये वसूली का........कि मैंने उस पर नाजायज़ केस किया था.....उसे नुक्सान हुआ.

अब मैं और ज़्यादा अवसाद में पहुँच गया.....कोशिश की समझौते की...उल्टा मैं उसे पैसे देने को राज़ी हो गया लेकिन वो माने ही नहीं........पहाड़ी पर चढ़ गया.....मैं तुषार से माफी मंगवाऊंगा......लिखित में ...मोहल्ले के सामने.

खैर, मुझे समझ आ गया कि बेटा, तुझे अब लड़ना ही होगा......अब लड़ना ही है तो फिर कोई अच्छा वकील करना होगा...खैर, मैंने एक महंगा वकील किया

अभी तक मुझे कुछ कानून समझ नहीं आया था....इसी बीच हमारे एक मकान पर किसी किरायेदार ने कब्जा कर लिया......अब उसे खाली कराने के लिए मुझे फिर से, बहुत से वकीलों से मिलना होता था.......जो भी वो बताते मैं इन्टरनेट पर चेक करता.....कई वकीलों ने पहली मीटिंग के पैसे लिए, कईयों ने नहीं लिए.......अपने चल रहे वकील से भी अपने केस की बात की लेकिन जमा नहीं कि उसे यह केस भी दिया जाए.........

फिर एक वकील जोड़ी, (एक स्त्री और एक पुरुष), इन को हायर किया ...... तब तक काफी कुछ अपने केस के बारे में समझ चुका था.....मेरे वकील भी समझते थे कि मैं कुछ कुछ चीज़ें समझता हूँ....एक मैत्री बन गयी.....अक्सर वकील ऐसे पेश आते हैं अपने मुवक्किल से जैसे मुवक्किल उनका नौकर हो जबकि होता उल्टा है.....मुवक्किल जब चाहे अपने वकील को हटा सकता है

अब मैंने अपने दोनों केस इस जोड़ी को सौंप दिए......इन को मैंने एक मुश्त रकम तय की हर केस की....जिसे मुझे बीच बीच में देना था.....उसके अलावा मैंने खुद से उनको जीतने पर एक मुश्त रकम देने का वादा किया.....और इसके भी अलावा मैंने हर मीटिंग के पैसे अलग तय किये....वो इसलिए कि मेरी मीटिंग उनके साथ लम्बी होने वाली थी...मैं उनसे इतना कुछ सीखना और सिखाना चाहता था, इतना सर खाना चाहता था  जो आम मुवक्किल नहीं करता

खैर, हर तारीख के बीच बीच हम मीटिंग करते ..लम्बी ....घंटों....... वो जो ड्राफ्टिंग करते वो मुझे ई-मेल करते....मैं अपनी तरफ से उस ड्राफ्टिंग को कई दिन तक बेहतर करता रहता.....फिर वो लोग उसे फाइनल करते.....हम हर बात को तर्क और कानून के हिसाब से फिट बिठाते........सब रज़ामंदी से........नतीजा यह हुआ कि मैं सब केस जीत गया

उनके साथ जो तय था वो सब पैसे दिए...जो जीतने पर इनाम जैसे पैसे देने थे वो भी दिए और उनसे जो सम्बन्ध बना तो आज तक कायम है

उसके बाद कुछ और केस भी फाइट किये... सब जीतता चला गया

पली, रिप्लाई, रेप्लिकेशन, रेबटल, एविडेंस, आर्गुमेंट, आर टी आई ....सब मेरे ज़ेहन में बस गये

उसके बाद एक बार बिजली कम्पनी ने बिना मतलब मेरे ऑफिस छापा मार एक नोटिस भेज दिया मुझे.....मुझ से जवाब माँगा...उस जवाब में ही मैंने उनको इतना झाड़ दिया कि कुछ ही दिन बाद उनका लैटर आ गया कि मुझ पर कोई चार्ज नाही बनता

एक बार MCD का पंगा पड़ा तो उन्होंने मुझे कारण बताओ नोटिस भेजा....जवाब में मैंने उनसे ढेर सारे सवाल पूछ लिए...मामला खत्म

फिर तो कई मित्रगणों को बचाया मैंने खामख्वाह कि कानूनी उलझनों से

अब तो काम ही करता हूँ कानूनी पेचीदगियों में फंसी प्रॉपर्टी का

बहुत  लोग अपनी प्रॉपर्टी मिटटी करे बैठे हैं....विदेश रहते हैं......या फिर अपढ़ हैं....या उनके पास पैसे ही  नहीं कि वो अपनी लगभग खत्म प्रॉपर्टी को जिंदा कर पाएं......मैं देखता हूँ कि जिंदा होने लायक है तो एक अग्रीमेंट के तहत अपने खर्चे से उसे जिंदा करता हूँ और फिर अग्रीमेंट के तहत हिस्सा बाँट लेता हूँ

आपको यह सब अपनी कहानी इसलिए सुनाई कि मेरी कहानी में आपको बहुत जगह अपनी, अपने रिश्तेदार की, अपने दोस्त की कहानी नज़र आयेगी

जिन चीज़ों की शिक्षा मिलनी चाहिए, वो न मिल के बकवास विषयों पर सालों खराब करवाए जाते हैं. कानून ऐसा ही एक क्षेत्र है, जो पढाया जाना चाहिए लेकिन नहीं पढ़ाया जाता..नतीजा यह है कि हम कानून के मामले में लगभग जीरो होते हैं.....उसका नतीजा यह होता है कि हम खामख्वाह के केस में फंस जाते है...वकीलों और कचहरी से जुड़े लोगों का घर भरते जाते हैं.....

पुलिस का IO..उसका काम होता है कि वो केस की तफ्तीश करे, लेकिन वो तफ्तीश यह करता है कि जेब किसकी भारी है और उसे पैसे कहाँ से मिलने वाले हैं......मैंने कल ही एक केस देखा जो बिना किसी सबूत के कचहरी में दाख़िल था.......मतलब कोई गवाह नहीं, कोई और किसी तरह का सबूत नहीं....मात्र बयान से केस थोप दिया गया.........ऐसे तो कोई भी किसी पर भी केस लगा देगा ....खैर मेरे हिसाब से तो जिस केस में IO की भूमिका गलत साबित होती हो उसे भी तुरत सज़ा मिलनी चाहिए....

मेरे हिसाब से जब तक जज किसी को मुजरिम साबित न कर दे उसे सजा मिलनी ही नहीं चाहिए. लेकिन पुलिस लॉकअप अपने आप में एक नर्क होता है. भले ही बन्दा निर्दोष छूटे लेकिन लॉकअप में रहा हो तो समाज में कद कुछ तो कम हो ही जाता है

वकील लोग चूँकि तारीख तारीख दर पैसे ले रहे होते हैं सो जो केस साल में खत्म हो सकता है उसे वो दस साल चलाते हैं......वो क्यूँ चाहेंगे कि सोने का अंडा देने वाली मुर्गी जल्द हाथ से निकल जाए...आपका मामला चलता रहे और आप उसे पैसे देते रहें इसी में तो उनकी भलाई है....फिर आपको तो पता भी नहीं कि क्या होना चाहिए और क्या नहीं....सो वो अपनी मनमर्जी करते रहते हैं

मेरे तजुर्बे से सीखें.....जीत हार आपकी होनी है, आपके वकील की नहीं...नफा नुक्सान आपका होना है.... केस आपका है.....अपने केस के विद्यार्थी बनिए.......सारा काम वकील पर छोड़ कर खुद बेक सीट पर मत बैठे रहिये...खुद आगे वकील के साथ वाली सीट पर बैठिये.....वो क्या कर रहा है,  क्यूँ कर रहा है ......पूरी कार्यविधि समझिये....और जो वकील न समझने दे, उसे एक पल गवाए बिना दफा कर दीजिये.....इन्टरनेट से हर मुद्दा चेक करते रहिये.......मैं तो देखता हूँ लोगों के पास अपने केस की फाइल तक नहीं होती...सब वकील के पास....क्या ख़ाक पढेंगे अपना केस

कहते हैं कि भारतीय व्यवस्था वकीलों के लिए चारागाह है.........सही कहते हैं ..... शिक्षा वैसे ही कम है.......और जो है भी वो आधी अधूरी है.....ऐसे में आप लूटे नहीं जायेंगे तो और क्या होगा आपके साथ?

वकील को कभी तारीख दर तारीख पैसे मत दीजिये...एक मुश्त पैसे तय कीजिये और जीतने पर अलग से पैसे देने का वादा कीजिये, लिखित भी दे सकते हैं

अपने केस की सारी की सारी सर्टिफाइड कापियां अपने पास रखें.....कोर्ट से जल जाएँ, जला दी जाएं, गुम जाएं, गुमा दी जाएं तो भी आपके वाली कापियां काम आ सकती हैं

अपने केस से जुड़े केसों के फैसले पढ़िए, आपको समझ आ जायेगा कि फैसले किन आधारों पर किये जाते हैं, उससे आपको अपने केस का भविष्य देखने में भी आसानी रहेगी

एक और बात, कोर्ट में सारी की कार्रवाई लिखित में करें...यानि आप कोर्ट पर भरोसा मत करें कि आप जो भी कोई जुबानी बात कह रहे हैं वो वैसे रिकॉर्ड में ही रहेगी.....हमारे कोर्ट में विडियो या ऑडियो  नहीं होती जो जज को कई तरह की सुविधा देती है....सो आप कोई भी सबमिशन देना चाहते हैं लिखित में दें....आर्गुमेंट भी लिखित में दें.

लिखना अपने आप में बहुत समय खाने वाला काम है सो वकील लोग कोताही बरत सकते हैं लेकिन मेरा तजुर्बा है कि यदि आपने आर्गुमेंट आदि लिखित में दिया होगा तो कोई माई का लाल रिकॉर्ड से उसे हटा नहीं पायेगा और फैसले में उसे नज़रंदाज़ नहीं कर पायेगा

जब आप का केस कोर्ट में हो तो आप मात्र अपने Opponent से ही केस नहीं लड़ रहे होते आप अपने वकील और जज से भी केस लड़ रहे होते हैं.

आपको देखना है कि आप केस ऐसे फाइट करें कि कोई चूं तक न कर पाए....छिद्र छोडेंगे तो कोई भी नाजायज़ फायदा उठा लेगा.

हमें न्याय व्यवस्था पर यकीन होना चाहिए.....कहते ज़रूर हैं लेकिन यदि हर फैसला सही होता तो फिर फैसले पलटी ही नहीं होते अगली अदालतों में.....और बहुत बार तो एक ही जैसे केस में एक कोर्ट कुछ फैसला दे रहा होता है, दूसरा कुछ और...........अभी पीछे ही मार्कंदय काटजू किसी जज के भ्रष्ट होने पर खूब लिख रहे थे...... हमें न्याय व्यवस्था पर यकीन होना चाहिए, लेकिन आँख बंद कर हमें न अपने वकील पर भरोसा करना चाहिए न ही जज पर

केस ऐसे फाइट करना चाहिए...इतने फैक्ट्स दें, इतनी दलील दें, इतने सबूत दें........इतनी Citation दें कि जज मजबूर हो जाए आपके हक में फैसला देने को......Citation एक तरह की मिसाल हैं, कानूनी मिसाल....आपके केस से मिलते जुलते पहले से हो रखे फैसले.....Citation ढूँढना अपने आप में मेहनत का काम होता है.......Manupatra.com है एक वेबसाइट  जिसके पास सब तरह के फैसले होते हैं, वो फीस देकर उनसे लिए जा सकते हैं....लेकिन कम ही वकील ऐसा करते हैं..लेकिन आपको ज़रूर करना चाहिए...वैसे आप गूगल करके भी काफी फैसले खोज सकते हैं...indiankanooon.org से भी बहुत फैसले आपको मिल सकते हैं

एक साईट है Lawyersclubindia​.com यहाँ से आप वकील बंधुओं से मुफ्त सलाह ले सकते हैं

Yahooo Answers पर Vijay M Lawyer नाम से एक वकील हैं, इन्होने बहुत सवाल जवाब लिखे हैं वहां पर.....मेरी समझ के मुताबिक इनकी कानूनी समझ बहुत गहरी है....इनके लेख  बहुत काम के साबित हो सकते हैं

मैंने भी कुछ और लेख, टीका टिप्पणी की  हैं.......वो गूगल से  अलग अलग बिखरी तो मिल सकती हैं लेकिन एक जगह इकट्ठी नहीं हैं अभी.....इकट्ठा करके  एक आर्टिकल में पिरो लूँगा तो उसका लिंक यहाँ दूंगा...वो भी काम आ सकता है.....एक आम आदमी का कानून और कानून के रखवालों के प्रति नजरिया


खैर, सब तो नहीं लिख पाया हूँ....आप चाहें तो मुझ से अपने किसी केस की राय ले सकते हैं

सादर नमन.......कॉपी राईट.......चुराएं न.....समझ लीजिये मुझे कॉपी राईट लॉ  भी पता है

Saturday, 18 July 2015

प्रॉपर्टी बाज़ार----एक षड्यंत्र आम इन्सान के खिलाफ़

अस्सी के दशक के खतम होते होते हम लोग पंजाब से दिल्ली आ गए थे.......उन दिनों यहाँ प्रोपर्टी का धंधा उछाल पर था.......जैसे हम पंजाब से आये हे और भी बहुत लोग आये थे...........फिर कुछ ही समय बाद कुछ लोग कश्मीर छोड़ दिल्ली आ गए.....वो भी एक फैक्टर रहा प्रॉपर्टी में उछाल का....सो यहाँ प्रॉपर्टी के रेट दिन दूने रात चौगुने होने लगे वैसे असल कारण यह नहीं था इस बढ़ोतरी का....असल कारण यह था कि प्रॉपर्टी दिल्ली का, भारत का स्विस बैंक था......सब अनाप शनाप पैसा प्रॉपर्टी में लगता था .....जिनको प्रॉपर्टी की कोई ज़रूरत नहीं थी वो लोग ब्लैक मार्केटिंग कर रहे थे........ आप घी, चावल, चीनी स्टोर नहीं कर सकते, यह गैर कानूनी है, ब्लैक मार्केटिंग है लेकिन प्रॉपर्टी स्टोर कर सकते हैं, यह इन्वेस्टमेंट कहलाता है....बस इन्वेस्टमेंट के नाम पर काला बाज़ारी होने लगी काला बाज़ारी ज्यों चली तो दो हज़ार ग्यारह के मध्य तक चली. उतार चड़ाव रहा और लेकिन कुल मिला जो उतार भी रहा वो फिर से चड़ाव में बदल गया. दो हज़ार ग्यारह में महीनों में प्रॉपर्टी डबल हो गयी, ढाई गुणा हो गयी. दिल्ली का एक आम एल ई जी फ्लैट जो चालीस लाख का था जनवरी में जून तक वो अस्सी लाख का हो गया, जो एम ई जी सत्तर लाख का था वो एक करोड़ पार कर गया...लोगों के ब्याने वापिस होने लगे...झगड़े पड़ने लगे.....जिन लोगों ने बिल्डरों को हिस्सेदारी में अपने मकान बनाने को दिए उनको लगने लगा बिल्डरों ने उन्हें लूट लिया है.....कंस्ट्रक्शन कोलैबोरेशन के सौदे लगभग होने में ही नहीं आते थे.....मालिक लोग बहुत ज़्यादा उम्मीद करने लगे बस वहीं 'दी एंड' हो गया. लेकिन आज भी प्रॉपर्टी डीलर बंधु खुद को तथा नौसीखिए लोगों को तस्स्लियाँ देते फिरते हैं, नहीं यह तो मंदा है...मंदा तेज़ी आती रहती है सयाने लोग अपना पैसा सब पहले ही निकाल चुके हैं या निकालते जा रहे हैं....बेवकूफ अभी भी फंसे हैं यह सारा वाकया सुनाने का एक मकसद है रोटी कपडा मकान ज़रूरी चीज़ें मानी जाती हैं इन्सान के लिए...बेसिक ज़रूरतें मकान कैसे आम आदमी से छीना गया, कैसे षड्यंत्र किया गया उसकी मिसाल है यह कहानी न सिर्फ दिल्ली बल्कि पूरे भारत का प्रोएप्र्टी बाज़ार काला बाजारियों के लिए खेल का मैदान बन गया था...एक ही प्रॉपर्टी एक ही दिन में एक से ज़्यादा बार बिक जाती थी बयाने बयाने में ही प्रॉपर्टी डीलर इस मुल्क के सबसे ज़्यादा व्यस्त और धन कमाने वाले प्राणी बन चुके थे लेकिन इस सारे खेल में धीरे मकान आम आदमी की पहुँच से बाहर हो गया....रेट इतने हो चुके थे कि एक आम इंसान कमा के, खा के, पचा के, बचा के एक जीवन में तो एक आम घर ले ही नहीं सकता था...लोगों की आमदनियां हज़ारों रुपये में थी और मकान दूकान लाखों में ही नहीं करोड़ों में पहुँच चुके थे ...गहन असंतुलन लोग गर्व से बातें करते, मैंने दो साल पहले मात्र इतने लाख का यह मकान लिया था आज दो गुणा हो गया है, जैसे पता नहीं कितनी अक्ल और मेहनत का नतीजा हो उनका यह लाभ अब बेक गियर लगा है, प्रॉपर्टी की कीमत तीन साल में आधी गिर चुकी है, और जो आधा कर के भी कीमत आंकी जाती है उस पर भी आसानी से कोई ग्राहक नहीं मिल रहा है लेकिन अभी भी आम आदमी की पहुँच से बहुत दूर है, अभी आगे और गिरेगी, जो कि बहुत अच्छी बात है, मेरी पूरी कामना है कि प्रॉपर्टी जो करोड़ों में पहुँच गयी थी फिर से लाखों में आ जाए और इतने लाख में आ जाए कि आम आदमी कमा खा कर ज़्यादा से ज़्यादा पांच छः साथ साल में जो बचाता है उससे एक आम घर खरीद सके.....यदि ऐसा नहीं होता तो साफ़ है कि कहीं षड्यंत्र है वैसे तो मनुष्य को आबादी इतनी सीमित कर लेनी चाहिए कि रोटी कपडा और मकान उसे जन्म के साथ ही मिलना चाहिए.... जैसे एक सरकारी रिटायर्ड व्यक्ति को पेंशन मिलती है...ऐसे ही इस पृथ्वी पर आदम के बच्चे को लाना ही तब चाहिए जब हम उसकी ता उम्र की बेसिक ज़रूरतें पूरी कर सकें ताकि वो जीवन जी सके....अभी हम में से अधिकांश जीवन जीते नहीं हैं...हमारा जीवन कमाने में खो जाता है, मूल आवश्यकताओं की पूर्ति में ही खप जाता है ...इसे मरे मरे मराये, आढे अधूरे जीवन को जीवन कहना जीवन का अपमान है लेकिन जब तक यह धारणा ज़मीन पर नहीं उतरती, ख्वाब हकीकत नहीं बनता तब तक कम से कम इतना तो हो जैसा मैंने ऊपर सुझाव दिया है.....ऐसा तो न हो कि व्यक्ति एक घर का ख्वाब आँखों में लिए जीता रहे और उस ख्वाब को आँखों में लिए ही मर जाए लेकिन जैसे ज़्यादा धन वाले आम इंसान के खाने पीने को दूषित कर रहे हैं, उसके रहन सहन को दूषित कर रहे हैं वैसे ही आम इन्सान से घर भी दूर कर रहे हैं प्रॉपर्टी की कीमतों की सीमा होनी चाहिए, एक सरकारी नियन्त्रण...घर बेसिक नीड है, मूलभूत आवश्यकताएं. इस पर व्यापारिक खुली छूट देना कालाबाज़ारी है. और पहले घर के रहते दूसरा घर खरीदना बहुत मुश्किल कर देना चाहिए, घर रहने के मतलब को होने चाहिए न कि निवेश के लिए. कहीं एक कमरे में बीस लोग रह रहे हैं और कहीं बीस कमरे एक आदमी के पास हैं मैं गरीबों का अंध समर्थक कभी नहीं हूँ, .......लेकिन एक तरह के संतुलन का समर्थक हूँ निश्चित ही ज़्यादा बुद्धिशाली, ज़्यादा श्रमशाली को उसका फल भी मिलना चाहिए, यदि हम उसका फल उसे नहीं लेने देंगे तो यह निश्चित ही मानव जाति की तरक्की में बाधा डालेंगे..लेकिन तरक्की का मतलब यह नहीं कि समाज का एक तबका अपने धन के दम पर दूसरों का खाना पीना, जीना मुहाल कर दे. तरक्की की छूट दूसरों की कीमत पर नहीं दी जा सकती इस कीमत परर नहीं दी जा सकती कि आम आदमी की रोटी जहरीली कर दी जाए, फैशन के नाम पर उसका पहनावा बेतुका कर दिया जाए और घर एक ऐसा सपना कर दिया जाए जो एक जन्म शायद ही पूरा होता हो कीमतों में गिरावट से कुछ उम्मीद बनी है लेकिन अभी आम आदमी के लिए दिल्ली बहुत दूर है...अभी तो लोग ठीक से समझ ही नहीं पाए हैं कि इस मामले में उनके साथ हुआ क्या है....और जब आप सवाल ही न समझें त जवाब क्या खोजेंगे ....एक प्रयास है यह मेरा...इस विषय में सवाल और जवाब खोजने का पढने के लिए आप सबका बहुत धन्यवादी, और जो पसंद करते हैं, अपनी राय रखते हैं उनको तो कर बद्ध प्रणाम कॉपी राईट मैटर...चुराएं न...बेहतर है कि शेयर करें कीजिये तुषार कॉस्मिक

Friday, 17 July 2015

संस्कृति और राष्ट्रवाद

मैं अक्सर देखता हूँ कई लोग कहते हैं कि मुस्लिम बाहर से आये हम पर हमलवार थे...क्या किसी ने यह पूछा कि अशोक ने कलिंग के युद्ध में खून बहाया तो क्या वो कलिंग के लिए बाहर से आया हमलावर नहीं था?

वाल्मीकि रामायण में साफ़ लिखा है कि राम अपने ऐसे पड़ोसी राजाओं पर हमला करता है जिनका कभी कोई झगड़ा ही नहीं था उससे ....वो क्या था.....वो हमलावर नहीं था क्या?

सच बात तो यह है कि यहाँ का हर राजा का अपना देश था......और हर पड़ोसी राज्य उसके लिए  विदेश था...बाहरी था

यहाँ आज तक दिल्ली में बिहारी मज़दूर कहता है कि वो अपने मुलुक वापिस जा रहा हूँ और आप कहते हैं कि देश एक था....मुहावरे आपको इतिहास बताते हैं

और एक बात कही जाती है कि चाहे आपस में संघर्ष था लेकिन सांस्कृतिक तौर पर हम एक थे......राम रावण एक ही देवता के पुजारी थे.......महाभारत तो खैर हुआ ही एक ही परिवार में था...सो एक  ही तरह की आस्थाएं थी.....सो भारत चाहे राजनीतिक तौर पर एक देश न रहा हो लेकिन सांस्कृतिक तौर पर तो रहा है 

आरएसएस का राष्ट्र्वाद तो टिका ही इस बात पर है कि भारत एक ऐसे भू भाग का नाम है जिसमें पाकिस्तान, अफगानिस्तान, नेपाल, बर्मा, बांग्लादेश, श्रीलंका आदि शामिल हैं.......संघ में तो ऐसा एक नक्शा भी दिखाया जाता है....अब मज़े की बात यह है कि भारत में कभी अंग्रेज़ों के समय के  अलावा यह सब इलाके एक झंडे तले रहे नहीं.....अशोक के समय एक बड़ा राज्य रहा लेकिन अशोक  बौद्ध हो गया...और बौद्ध कभी हिन्दू की जो मुख्य धारा थी उसमें शामिल नहीं थे.....उनका विरोध रहा है....रामायण में बुद्ध को चोर कहा गया है.....आरएसएस का राष्ट्रवाद इस बात पर भी टिका है कि यहाँ कि संस्कृति को हिंदुत्व कहा जाए.....अजीब ज़बरदस्ती है.......जो लोग खुद को हिन्दू नहीं मानते......वो भी खुद को हिन्दू ही कहें.....और तो और जो देश आज भारत के नक़्शे में नहीं हैं हम उनको भी भारत का हिस्सा मानें.....राजनीतिक न सही सांस्कृतिक तौर पर तो मानें....अगले चाहे न मानें लेकिन हम तो मानें.......वहाँ यहाँ चाहे कितनी ही विरोधी मान्यताओं के लोग रहे हों, रह रहे हों लेकिन सबको एक संस्कृति से जुड़ा मानें....और वो संस्कृति हिंदुत्व है......और वो संस्कृति दुनिया की महानतम संस्कृति है...अब यह अजीब जबरदस्ती है ...जिसे शब्द जाल से उलझाया गया है ...थोड़ा सुलझाने का प्रयास करता हूँ 

किसी एक भू खंड में लोगों की सोच समझ में असमानता होते हुए यदि एक संस्कृति माननी है तो फिर पूरी पृथ्वी को एक संस्कृति मानना चाहिए.....होता रहे आपस में संघर्ष...संघर्ष तो कलिंग के युद्ध में भी हुआ, और महाभारत में भी और राम रावण युद्ध में भी.....यदि ये सब एक ही संस्कृति के लोग है तो फिर पूरी दुनिया क्यों एक संस्कृति नहीं है? सोच के देखिये

और फिर यहाँ भारत में भी  लोग रहे हैं जो एक दूसरे के विरोधी विचारधारा वाले थे और हैं...तो फिर मात्र इसलिए कि कोई इस पृथ्वी के किसी और भू भाग से है और किसी और तरह की मान्यताओं से जुड़ा है अलग कैसे हुआ? .....वो भी हमारी ही संस्कृति का हिस्सा कैसे न हुआ?

हम अपनी सांस्कृतिक  सोच को सार्वभौमिक क्यूँ नहीं रख सकते?

काहे किसी एक भू भाग तक सीमित करें?

और संस्कृति क्या मात्र इतनी ही है कि कोई लोग किस तरह की धार्मिक मान्यताओं से जुड़े हैं?

संस्कृति शब्द को देखें.......तीन शब्द है....प्रकति.....विकृति और संस्कृति.....जब आप प्रकृति से नीचे गिर जाएँ तो विकृति है ऊपर उठ जाएँ तो संस्कृति है....

अब हमारे यहाँ जिस तरह का जीवन रहा है वो कुछ मामलों में संस्कृत था तो कुछ में विकृत......यहाँ कि चातुरवर्ण व्यवस्था ......वो विकृति थी.....यहाँ की पाक कला, नृत्य कला, गायन कला संस्कृति थी

और संस्कृति कोई तालाब का खड़ा पानी थोड़ा होता है....वो तो बहाव है.....कलकल करती नदी 

और संस्कृति कोई किसी भू भाग तक सीमित थोड़ा होती है....वो असीम होती है 

संस्कृति मतलब समय के हिसाब से सर्वोतम रहनसहन......और वो सर्वोतम कहीं से भी आता हो सकता है पूर्व, पश्चिम, उत्तर दक्षिण कहीं से भी .....कल दूसरे ग्रहों से भी .....यह है संस्कृति, जो संस्था संस्कृति को किसी भू भाग तक सीमित समझे वो खुद विकृत है.

वैसे जिस समाज के अधिकांश लोग गरीब हों, जीवन की साधारण ज़रूरतों से ऊपर न उठ पाएं वो समाज संस्कृत नहीं विकृत है..इस लिहाज़ से अभी दुनिया में कहीं कोई संस्कृति है ही नहीं

हम सिर्फ पुरानी परम्पराओं के जोड़ को....संस्कृतियाँ समझ रहे हैं.

मानव इतिहास उठा कर देखो......मार काट से भरा है....खून से भरा है...यह कोई संस्कृतियों का इतिहास है.?...या विकृतियों  का इतिहास है?

दुनिया के अधिकांश लोग गरीबी में पैदा हुए है और गरीबी में मरे हैं...यह कोई संस्कृतियाँ हैं?
और आज भी दुनिया के  अधिकांश लोग गरीब पैदा होते है , गरीब मरते हैं......यह कोई संस्कृति है?

चंद लोग चांदी काटें, बाकी बस दिन काटें, यदि यह संस्कृति है तो फिर विकृति क्या होती है?

प्रकृति  तो कोई बच्चा गरीब पैदा नहीं करती, फिर आप की महान संस्कृति ठप्पा लगाती है कि कौन अमीर कौन गरीब. इसे संस्कृति कहते हैं? फिर विकृति क्या होती है?
लानत है!

संस्कृति अभी तक इस धरती पर ठीक से पैदा हुई ही नहीं है, हो सकती है, लेकिन हुई नहीं है

और क्या मात्र धार्मिक मान्यताओं से ही कोई संस्कृति निर्धारित होती है? 
ये धार्मिक मान्यताएं सिवा अंध विश्वास के हैं क्या?

इसे संस्कृति तो कदापि नहीं कहा जा सकता, हाँ विकृति जरूर कह सकते हैं

जीवन कुछ मामलों में समृद्ध ज़रूर हुआ है, संस्कृत ज़रूर हुआ है लेकिन अधिकांश मामलों में विकृत है 

उम्मीद है हम सब इस भ्रम से बाहर आ पाएं कि हमारे पूर्वजों की कोई संस्कृति थी या हम किसी संस्कृति में जी रहे हैं

नमन.....कॉपीराईट मैटर...शेयर कीजिये स्वागत  है
तुषार कॉस्मिक

Tuesday, 14 July 2015

नौकरियां, कुछ पहलु

1) बैंकों में कार्य करने वालों को क्या ज़रुरत है कि वो कॉमर्स समझते हों?.......वो मात्र लेबर हैं......मतलब एक आदमी को कैश बॉक्स में बिठाया गया है....इसे सारा दिन नोट गिन कर देने और लेने हैं....और वो काम भी मशीन से ही करना है........कितनी अक्ल चाहिए इस काम के लिए?

शायद एक दिन की ट्रेनिंग से कोई भी आम व्यक्ति इस काम को अंजाम दे देगा.......चलो एक दिन न सही एक हफ्ता....चलो एक हफ्ता नहीं एक महीना.

कुछ साल पहले की बात है मैंने एक चेक दिया कोई आठ हज़ार आठ सौ का किसी को...बैंक ने अस्सी हज़ार आठ सौ मेरे खाते से कम कर दिए.....मैंने पकड़ लिया...केशियर रोने लगा.......कहे कि मैंने तो अस्सी हज़ार आठ सौ  ही दिए हैं........जिसको चेक दिया था उसे बुलाया गया, वो कहे मैंने आठ हज़ार आठ सौ  ही लिए हैं.......खैर, केशियर को भुगतने पड़े वो पैसे

अभी एक बैंक  में  मैंने  फ़ोन  नंबर   बदलने   की अर्ज़ी  दी.......पट्ठों   ने  हफ्तों लगा दिए  उसी काम में.....खैर,  मैंने    किसी   दूसरे  बैंक   से अपना काम  निकाल लिया.....कोई ऑनलाइन  पेमेंट करनी   थी......कर दी......और साथ  में  उस बैंक   में  से खाता  भी बंद कर दिया

क्लर्क टाइप की नौकरी करने वाले लोगों का काम देखिये गौर से...इन लोगों ने एक ही तरह का काम करना होता रोज़....बार बार...कितनी अक्ल की ज़रुरत है ऐसे कामों के लिए? साधारण सी पढ़ाई लिखाई और कुछ दिनों की ट्रेनिंग के बाद कोई भी व्यक्ति इस तरह के काम कर लेगा

आप किसी सरकारी नौकर से बात कर देखिये, शायद ही कोई प्रतिभा, कोई बुद्धि उसमें आपको दिखाई दे...प्रतिभा मात्र इस बात की कि कैसे ज़्यादा से ज़्यादा फायदे सिस्टम से लिए जाएँ..कैसे ज़्यादा छुट्टियाँ निचोड़ी जाएँ....कैसे भत्ते बढवाए जाएँ.........कैसे मज़ा मारा जाए ...मौज मारी जाए

एक जिंदा मिसाल देता हूँ, अपने अपने घर के वोटर कार्ड याद करें, शायद ही कोई ऐसे दिए गए हों जो बिना किसी गलती के थे.......कहीं तो मेल को फीमेल बना दिया गया था, कहीं फीमेल   को मेल ........मेरे पिता उत्तम चंद को उत्तम सिंह कर दिया गया था.....आज तक वोटर कार्ड दफ्तरों में लोग गलतियाँ सुधरवाते फिरते हैं....कभी सोचा अपने कि ऐसा क्यों हुआ...चूँकि सरकारी कर्मचारी बहुत ज़्यादा प्रतिभावान हैं न....मेल को फीमेल करने का चमत्कार कोई ऐसे ही थोड़ा न हो जाता है

पुलिस में भर्ती के वक्त शारीरिक टेस्ट भी होता है, दौड़ लगवाई जाती है, लम्बी कूद, ऊंची कूद आदि भी कराई जाती है....फिर कुछ ही सालों बाद आपको पुलिसिये तोंद बढाए दीखते हैं.....जैसे व्यवसायिक वाहन हर साल फिटनेस टेस्ट होता है ऐसा ही इनका क्यों नहीं होता, आज तक मुझे समझ नहीं आया....

गली में झाडू लगाने वाले लोगों को आज कल सुना है चालीस पचास हज़ार तनख्वाह मिलती है लेकिन ये लोग तो कभी शक्ल भी नहीं दिखाते...इन्होने आगे बंदे रखे हैं जिनको ये पांच दस हज़ार प्रति माह देते हैं

एक तरफ महा बेरोजगारी है.......दूसरी तरफ इंसान ने रोज़गार को दुलत्ती मारी है.

सुबह दुकानदार भगवान को पूजता है कि हे भगवान ग्राहक दे.....ग्राहक को ही भगवान का दर्जा भी देता है और उसी ग्राहक की छाल-खाल उतारने में कोई कसर भी नहीं छोड़ता

जो बेरोजगार है वो मन्नते मांगते हैं कहीं ढंग की नौकरी लग जाए...और नौकरी लग जाए तो तमाम प्रयास करते हैं कि काम से कैसे बचा जाए..

इंसानी फितरत है....इन्सान को नौकरी नहीं चाहिए, उसे तनख्वाह चाहिए, तनख्वाह फिक्स हो गई, नौकरी पक्की हो गई, अब वो क्यों काम करेगा? अब वो काम से बचेगा......अब उसे मात्र शरीर उपस्थित करना है...दिमाग वो लगाएगा ऊपर की कमाई कैसे की जाए, नौकरी से मिलने वाली सुविधायें कैसे नोची खसोटी जाएँ, हरामखोरी कैसे की जाए, रिश्वतखोरी कैसे की जाए

इस क्षेत्र में बहुत कुछ तब्दील करने की ज़रुरत है......जो काम कराया जाना है, मात्र उसकी करने की कार्यक्षमता यदि हो किसी में तो उसे वो काम दे दिया जाना चाहिए...इस के लिए सालों बर्बाद कर किये गए कोर्स का कोई मतलब नहीं है

एक लोकल बैंक में काम करने वाले क्लर्क को मैक्रो और माइक्रो इकोनोमिक्स की बारीकियां पता हों न हों, उससे जो काम लिया जाना है उसमें कोई फर्क नहीं पड़ने वाला

और नौकरी देने के बाद कहीं ऐसा न हो जैसे मैंने मिसाल दी सफाई कर्मचारियों की......या पुलिस वालों की.......नौकरी देने के बाद भी देखना ज़रूरी है कि उनमें वो कार्य क्षमता बची  भी है भी जो उनकी भर्ती के वक्त थी.......या वो काम कर भी रहे हैं या नहीं

हमारे जैसे मुल्क में जहाँ आज सीधे सीधे कामों के लिए पचास हज़ार, सत्तर हज़ार तनख्वाह बांटी जा रही है......वहीं   बिना कोई कोर्से में से निकले व्यक्तियों को काम   की ज़रुरत के मुताबिक ट्रेनिंग दे कर.....बीस पचीस हज़ार की तनख्वाह पर भर्ती किया जा सकता है...काम बेहतर होगा और बेरोजगारी घटेगी

कहीं पढ़ा था कि दफ्तरों में आँख के चित्र लगाने मात्र से कर्मचारियों की कर्मशीलता बेहतर हो जाती है.....कितना सही है कह नहीं सकता...लेकिन हाँ, इलेक्ट्रॉनिक आँख यानि CCTV लगाने से निश्चित ही कर्मचारियों क्षमता बधाई जा सकती है..अन्यथा लोग लाइन में लगे रहते हैं और सीट पर बैठी बहिन जी कंप्यूटर पर ताश खेल रही होती हैं

2)  "सरकारी नौकर"

यह निज़ाम पब्लिक के पैसे से चलता है, जिसका बड़ा हिस्सा सरकारी नौकरों को जाता है…सरकारी नौकर जितनी सैलरी पाते हैं, जितनी सुविधाएं पाते हैं, जितनी छुट्टिया पाते है … क्या वो उसके हकदार हैं?.... मेरे ख्याल से तो नहीं … …

सरकारी नौकर रिश्वतखोर हैं, हरामखोर हैं, कामचोर हैं ....

ये जो हर ऐरा गैरा नत्थू खैरा सरकारी नौकरी पाने को मरा जाता है, वो इसलिए नहीं कि उसे कोई पब्लिक की सेवा करने का कीड़ा काट गया है, वो मात्र इसलिए कि उसे पता है कि सरकारी नौकरी कोई नौकरी नहीं होती बल्कि सरकार का जवाई बनना होता है, जिसकी पब्लिक ने सारी उम्र नौकरी करनी होती है ....

सरकारी नौकर कभी भी पब्लिक का नौकर नहीं होता, बल्कि पब्लिक उसकी नौकर होती है....

सरकारी नौकर को पता होता है, वो काम करे न करे, तनख्वाह उसे मिलनी ही है और बहुत जगह तो सरकारी नौकर को शक्ल तक दिखाने की ज़रुरत नहीं होती, तनख्वाह उसे फिर भी मिलती रहती है

सरकारी नौकर को पता होता है, उसके खिलाफ अव्वल तो पब्लिक में से कोई शिकायत कर ही नहीं पायेगा और करेगा भी तो उसका कुछ बिगड़ना नही है

सीट मिलते ही सरकारी नौकर के तेवर बदल जाते हैं, आवाज़ में रौब आ जाता है ……आम आदमी उसे कीडा मकौड़ा नज़र आने लगता है .…

अपनी सीट का बेताज बादशाह होता है सरकारी नौकर…

सरकार नौकरी असल में सरकारी मल्कियत होती है, सरकारी बादशाहत होती है.... इसे नौकरी कहा भर जाता है, लेकिन इसमें नौकरी वाली कोई बात होती नहीं … .. इसलिए अक्सर लोग कहते हैं की नौकरी सरकारी मिलेगी तो ही करेंगे

लगभग सबके सब सरकारी उपक्रम कंगाली के करीब पहुँच चुके हैं .... वजह है ये सरकारी नौकर, जिन्हें काम न करने की हर तकनीक मालूम है.…

सरकारी अमला सर्विस के मामले में पीछे है...क्योंकि सरकारी है...सरक सरक कर चलता है....सरकारी अमला बकवास है.....रिश्वतखोर है, हराम खोर है...

बिलकुल व्यवस्था की कहानी है बस......यदि कर्मचारी पक्का होगा.....साल में आधे दिन छुटी पायेगा और सैलरी मोटी पायेगा तो यही सब होगा, जो हर सरकारी उपक्रम में होता है, बेडा गर्क

लानत है, जब मैं पढता हूँ कि सरकारी नौकरों की तनख्वाह,, भत्ते, छुट्टियां बढ़ाई जाने वाली हैं, मुझे मुल्क के बेरोज़गार नौजवानों की फ़ौज नज़र आती हैं .... जो इनसे आधी तनख्वाह, आधी छुट्टियों, आधी सुविधाओं में इनसे दोगुना काम खुशी खुशी करने को तैयार हो जाएगी. .....लेकिन मुल्क को टैक्स का पैसा बर्बाद करना है, सो कर रहा है....लानत है

3) IAS/IPS का ज़िक्र था कहीं तो हमऊ ने थोड़ा जोगदान दई दिया........
"एक ख़ास तरह की मूर्खता दरकार होती है इस तरह के इम्तिहान पास करन के वास्ते.......मतबल एक अच्छा टेप रेकार्डर जैसी.........कभू सुने हो भैया कि इस तरह के आफिसर लोगों ने कुछ साहित वाहित रचा हो......कौनो बढ़िया.......कोई ईजाद विजाद किये हों....कच्छु नाहीं...बस रट्टू तोते हैं कतई ....चलो जी, चलन दो ..अभी तो चलन है."
कहो भई, ठीक लिखे थे हमऊ कि नाहीं ?

4) अगर किसी के साथ भी समाज में अन्याय होता है तो इसका मतलब यह कदापि नहीं कि सरकारी नौकरियां बांटी जाएँ.....वो पूरे समाज के ताने बाने को अव्यवस्थित करना है.....अन्याय की भरपाई सम्मान से की जा सकती है....आपसी सौहार्द से की जा सकती है......मुफ्त शिक्षा से की जा सकती है.....मुफ्त स्वस्थ्य सहायता से की जा सकती है......आर्थिक सहायता से की जा सकती है....लेकिन आरक्षण किसी भी हालात  में नहीं दिया जाना  चाहिए.....

आज ही पढ़ रहा था कि कोई हरियाणा की महिला शूटर को सरकार ने नौकरी देने का वायदा पूरा नहीं किया तो वो शिकायत कर रही थीं...अब यह क्या मजाक है....कोई अगर अच्छी शूटर है तो वो कैसे किसी सरकारी नौकरी की हकदार हो गयी....उसे और बहुत तरह से प्रोत्साहन देना चाहिए..लेकिन सरकारी नौकरी देना...क्या बकवास है.....एक शूटिंग मैडल जीतना कैसे उनको उस नौकरी के लिए सर्वश्रेष्ठ कैंडिडेट बनाता है..? एक नौकरी के अलग तरह की शैक्षणिक योग्यता चाहिए होती है.....अलग तरह की कार्यकुशलता चाहिए होती है......और एक अच्छा खिलाड़ी होना...यह अलग तरह की योग्यता है...क्या मेल है दोनों में?

लेकिन कौन समझाये, यहाँ तो सरकारी नौकरी को बस रेवड़ी बांटने जैसा काम मान लिया गया है, बस जिसे मर्ज़ी दे दो......

कोई दंगा पीड़ित है , सरकारी नौकरी दे दो
कोई किसी खेल में मैडल जीत गया, नौकरी दे दो
कोई शुद्र कहा गया सरकारी नौकरी दे दो

जैसे दंगा पीड़ित होना, दलित होना, खेल में मैडल जीतना किसी सरकारी नौकरी विशेष के लिए उचित eligibility हो

यह सब तुरत बंद होना चाहिए, हाँ बड़े पूंजीपति की व्यक्तिगत पूंजी का पीढी दर पीढी ट्रान्सफर  खत्म होना चाहिए......

समाजवाद और पूंजीवाद का सम्मिश्रण

कॉपी  राईट मैटर......शेयर  कीजिये, वो भी खूब सा....सादर नमन........

Friday, 10 July 2015

हमारी अशिक्षा प्रणाली

मैं इसे शिक्षा प्रणाली मानता ही नहीं.......मैं इसे साज़िश मानता हूँ......हमारे बच्चों को मंद बुद्धि रखने की....उनकी प्राकृतिक सोच समझ को कुंद करने की साज़िश.

वैसे तो इसमें  आमूल-चूल बदलाव होना चाहिए लेकिन अभी  बस दो पहलू छू रहा हूँ

दसवीं कक्षा पास की मैंने ....स्कूल में टॉप किया.......और शायद अंग्रेज़ी में स्टेट में भी, लेकिन इसका पक्का ख्याल नहीं है.......फिर चयन करना था कि मेडिकल लिया जाए या नॉन मेडिकल या कॉमर्स....मैंने नॉन-मेडिकल लिया..........अब यहाँ तक आते आते मेरी रूचि इस तरह की पढ़ाई में बिलकुल न रही....खैर, मैंने फर्स्ट डिविज़न से पास किया लेकिन कोई तीर न मारा......अब आगे मैं यह सब बिलकुल नहीं पढ़ना चाहता था.

लड़के लड़कियों के पीछे थे और मैं लाइब्रेरीज़ में किताबों के पीछे.....मेरी महबूबा क़िताबें बन चुकी थीं.

जान बूझ कर आर्ट्स लिया.......बहुत समझाया लोगों ने आर्ट्स में तो वो लोग जाते हैं जिनके बस का कुछ और पढ़ना ही नहीं होता.....आर्ट्स के विद्यार्थी का कोई भविष्य ही नहीं .....चूँकि न तो आर्ट्स को कोई विद्या समझा जाता है और न ही उसके विद्यार्थी को विद्या का अर्थी.....आर्ट्स  तो विद्या की बस अर्थी है.....राम नाम सत्य.

खैर, मैंने वो ही किया जो करना चाहा.....आर्ट्स ले ली......प्रथम वर्ष कॉलेज से ही किया.....मात्र दो महीने  की पढाई और फर्स्ट डिविज़न पास....अब मुझे लगा कि इसके लिए कॉलेज भी क्यों जाया जाए?सो कॉरेस्पोंडेंस कोर्स ले लिया......फिर  हर दो माह की पढ़ाई और बेडा पार

ये जो कहानी सुनाई मैंने आपको, उसका मंतव्य है कुछ.......पहली बात तो यह कि आर्ट्स मतलब बकवास.....कैसा समाज बनाया हमने जिसमें कला की कोई वैल्यू नहीं? मिल्टन, कीट्स की कविता की कोई वैल्यू नहीं? सुकरात, अरस्तु आदि की फिलोसोफी की कोई वैल्यू नहीं....कैसा समाज बनाया हमने? राजनीति वैज्ञानिक की कोई वैल्यू नहीं? जो आपके राजनेता हैं वो न तो वैज्ञानिक हैं और न ही नेता सो इन की तो मैं बात ही नहीं कर रहा.

क्या  जो इंजिनियर इमारतें, पुल, सडकें बनाये उसकी वैल्यू है, जो डॉक्टर लाखों रुपये ले इलाज़ करे उसी की वैल्यू है, जो चार्टर्ड अकाउंटेंट लाखों रुपैये ले इस बात के कि आपको टैक्स कैसे भरना है और कैसे नहीं भरना है ..उसी की वैल्यू है?

जो समाज शास्त्री  बताये कि समाज को इस तरह से गठित किया जाए कि बीमारी कम हो, टैक्स की उलझने ही कम हों वो समाज शास्त्री की कोई वैल्यू नहीं? जो राजनीति का वैज्ञानिक हमें बताये कि कैसे राजनीति बेहतर हो सकती है, समाज बेहतर हो सकता है  उस की कोई वैल्यू  नहीं?  जो बीमारी की जड़ ही खतम करने का प्रयास करे उसकी कोई वैल्यू नहीं.......जो साहित्य समाज को आइना दिखाए उसकी कोई वैल्यू नहीं?......लानत है!

जो समाज कला की वैल्यू समझेगा, फलसफे की वैल्यू समझेगा, समाज शास्त्री, राजनीति वैज्ञानिक  की वैल्यू समझेगा उस समाज कुछ सभ्य माना जा सकता है

दूसरी बात, जो पढाई मैं चार  माह में पूरी कर सकता था उसके लिए मेरे तीन वर्ष लेना यह कहाँ कि समझदारी? हो सकता है कोई स्टूडेंट तीन से भी ज़्यादा वर्ष मांगता हो, ठीक है दे दीजिये....लेकिन कोई यदि कम समय मांगता है और इम्तिहान लिए जाने की गुज़ारिश करता है और उसकी फीस भी अदा करने को राज़ी है तो आप कौन है जबरदस्ती करने वाले कि नहीं तीन साल ही लगाओ?

पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त, लेकिन आज बस इतनी ही 

सादर नमन....कॉपी राईट मैटर