Monday, 12 February 2018

A wise man was dying. 

A TV New Reporter asked him:

"As you are dying, what do you think of life sir?"

"A Good riddance", he replied.

Sunday, 4 February 2018

जित्ता धन, समय और ऊर्जा आज तक मन्दिर, गुरूद्वारे और चर्चों में लगा है, उत्ता अगर वैज्ञानिकता पैदा करने में लगा होता तो इंसान को शायद ही नकली खुदाओं के आगे हाथ जोड़ने- मत्थे रगड़ने की ज़रूरत पड़ती.

Tuesday, 30 January 2018

A park is just like parking. Parking is used to park vehicles. A park is used to park human beings. 

Friday, 26 January 2018

"Ignorance of Law is no Excuse."
Right.
But the irony is, law is not taught in schools or colleges as a mandatory subject.
Does this mean, people learn law by birth? Wow!

Wednesday, 24 January 2018

Who are we?

Who are we?

Newer and updated versions of our parents

and

Older and outdated version of our kids.

Friday, 8 December 2017

सड़क-नामा

भारत में सड़क सड़क नहीं है...भसड़ है.
यह घर है, दुकान है. इसे घेरना बहुत ही आसान है. इसपे सबका हक़ है, बस पैदल चलने वाले को छोड़ के. उसके लिए फुटपाथ जो था, वो अब दुकानें बना कर आबंटित कर दिया गया है. उन दुकानों के आगे कारों की कतार होती है. पदयात्री सड़क के बीचो-बीच जान हथेली पर लेकर चलता जाता है. रोम का ग्लैडिएटर. कहीं पढ़ा था कि एक होता है ‘राईट टू वाक (Right to walk)’, पैदल चलने का हक़, कानूनी हक़. बताओ, पैदल चलने का भी कोई कानूनन हक़ होता है? मतलब अगर कानून आपको यह हक़ न दे तो आप पैदल भी नहीं चल सकते. खैर, एक है पैदल चलने का हक़ ‘राईट टू वाक (Right to walk)’ और दूसरा है ‘राईट टू अर्न (Right to earn)’ यानि कि कमाने का हक़. जब इन दोनों हकों में कानूनी टकराव हुआ तो कोर्ट ने ‘राईट टू अर्न’ को तरजीह देते हुए फुटपाथ पर रेहड़ी-पटड़ी लगाने वालों को टेम्पररी जगहें दे दीं. तह-बज़ारी. अब वो अस्थाई जगह, स्थाई दुकानों को भी मात करती हैं. जिनको दीं थीं, उन में से शायद आधे भी खुद इस्तेमाल नहीं करते. किराए पर दे नहीं सकते कानूनन, भला फुटपाथ भी किराए पर दिया जा सकता है कोई? लेकिन आधे लोग किराया खाते हैं उन जगहों का. एक किरायेदार को मैं भड़का रहा था, "कितना किराया देते हो?" "छह हज़ार रुपये महीना." "क्यों देते हो? मत दो." "ऐसा कैसे कर सकते हैं, गुडविल खराब होगी. कल कोई हमें दुबारा दुकान किराए पर नहीं देगा." "अरे, दुबारा दुकान किराए पर लेने की नौबत तब आयेगी न जब मालिक तुम से यह जगह छुड़वा पायेगा. जाने दो उसे कोर्ट. यह जगह उसके बाप की ज़र-खरीद नहीं है. सड़क है." वो कंफ्यूजिया गया और मैं मन ही मन मुस्किया गया.
सड़क के बीचों-बीच डिवाइडर पे भी लोग सोते हैं और वहां भी कहीं-कहीं लोगों ने घर बसा रखे हैं. अगर कोई इन सोये लोगों पे कार चढ़ा दे तो मुझे समझ ही नहीं आता कि गलती कार वाले की है या डिवाइडर-फुटपाथ पर सोने वाले की. न तो फुटपाथ सोने के लिए बना था और न ही कार चलाने के लिए. शायद दोनों की ही बराबर गलती होती है. खैर. कोर्ट में केस चलता रहता है और नतीजा ढाक के तीन पात निकलता है. हाँ, 'जॉली एल.एल. बी.' जैसी फिल्म ज़रूर बन जाती है, इस विषय पर.
सड़क पार करने के लिए जो सब-वे बनाये जाते हैं, वो ज़्यादातर प्रयोग नहीं होते चूँकि उनको भिखमंगों और नशेड़ियों ने अपना ठिकाना बना रखा है. वहां दिन में भी रात जैसा अन्धेरा होता है. खैर, बनाने थे बना दिए, पैसे खाने थे खा लिए. कौन परवा करता है कि सही बने या नहीं, प्रयोग हो रहे हैं कि नहीं और अगर नहीं हो रहे तो क्यों नहीं हो रहे? और अगर हो रहे हैं तो सही से प्रयोग हो पा रहे हैं कि नहीं?
राजू भाई के साथ पंजाबी बाग, क्लब रोड से निकल रहे थे. मैंने कहा, "भाई, अब तो रोहतक रोड़ से निकलना चाहिए, क्लब रोड पे तो अब दोनों तरफ बहुत गाड़ियाँ खड़ी होती हैं, निकलना बहुत मुश्किल हो जाता है."

वो बोले, "जब सड़क के दोनों और दूकानें खुल जायेंगी तो चलने की जगह कहाँ बचेगी? सड़क चलने के लिए है या बाज़ार बनाने के लिए."

पश्चिम विहार, दिल्ली में रहता हूँ. पास ही विष्णु गार्डन इलाका है. बहुत सी जींस बनाने की अवैध फैक्ट्री हैं वहां. सब काम मुसलमानों के हाथ में हैं. पीछे नबी के जन्म का जुलुस निकाल रहे थे. घोड़े वाले मन्दिर से पश्चिम विहार मात्र आधा किलोमीटर है, यकीन मानें मैं यह दूरी पार ही नहीं कर पाया, सडकों पर इतना जमघट. मुझे कार वापिस घुमानी पड़ी और 3-4 किलोमीटर का चक्कर काट दूसरे रूट से घर आना पड़ा. यह सब धर्म, मज़हब, दीन कुछ भी नहीं है. यह सब बकवास है जो हिन्दू, सिक्ख और अब मुस्लिम भी करने लगे हैं. यह धार्मिक आज़ादी नहीं, धार्मिक बर्बादी है. रघुबीर नगर, दिल्ली, 857 का बस स्टैंड. वहां एक मस्जिद भी है. इस के आगे दोनों तरफ कुल मिला कर शायद 200 फुट चौड़ी सड़क होगी. लेकिन जुम्मे को आपको वहां से निकलना भारी हो जाएगा चूँकि मुस्लिम एक तरफ़ का रस्ता बंद कर वहां नमाज़ पढ़ते हैं. अभी दो-तीन दिन पहले ही मैं रघुबीर नगर घोड़े वाला मन्दिर से गुज़र रहा था. भगवे झंडे, ऊपर ॐ का छापा. मोटर साइकिल से रस्ता घेर कर सरकते सैंकड़ों लोग. मैंने कार में से ही पूछा, “ये क्या कर रहे हो भाई?” “शौर्य दिवस मना रहे हैं. बाबरी मस्जिद तोड़ी थी न.” पूरा जुलुस था. गाजा-बाजा. फोटो-सेल्फी लेते लोग. नाचते-शोर मचाते लोग. नारे लगाते लोग. मूर्ख-पग्गल लोग. जैसे-तैसे निकाली कार. कांवड़ के दिनों में पूरी दिल्ली की सड़कें शिव की महिमा गाती हैं “बम बम. बोल बम. बोल भोले बम बम.” बचते-बचाते हम निकलते हैं. कहीं किसी 'भोले' को टच भी हो गए तो वो सारा भोलापन भूल जाता है और तांडव मचा देता है, तीसरा नेत्र खोल देता है. तौबा. धार्मिक लोग जगह-जगह इन भोलों के खाने-पीने का इन्तेजाम करते हैं और मेरे जैसे अधर्मी-पापी इन सब को मन ही मन कोसते रहते हैं. सिक्ख बन्धु भी कहाँ पीछे हैं? गुरु नानक का जन्म-दिवस था पीछे. तो ख़ूब बाजे-गाजे के साथ शोभा-यात्रा निकाली गई. मज़ाल है कोई और निकल पाया हो सड़क से. फिर सुबह-सवेरे प्रभात-फेरी भी तो निकालते हैं. कोई चार बजे सुबह, अमृत वेले, सड़क पर ढोलकी-छैने बजाते हैं. “मिटी धुंध जग चानन होआ.” मैंने पूछा श्रीमति जी से, “दिन हो गया क्या?” “नहीं, अभी नहीं.” “अबे, फिर ये क्यों गा रहे हैं, मिटी धुंध, जग चानन होआ?” “बस करो, सोये-सोये भी उल्टा ही सोचते हो. सो जाओ.” “सोने दें ये लोग, तब न.” गर्मी में सिक्ख बन्धु सडकों पर ठंडा-मीठा पानी पिलाते हैं. जिनको नहीं प्यास उनको भी पकड़-पकड़ पिलाते हैं. ट्रैफिक रोक-रोक पिलाते हैं. सेवा करते हैं भाई अगले. आपको न करवानी हो लेकिन उनको तो करनी है न. सेवा करेंगे, तभी तो मेवा मिलेगा. आप उनके मेवे में कैसे बाधक हो सकते हैं? क्या कहा? “मीठा ज्यादा डालते हैं और दूध का सिर्फ रंग होता है.” “न. न. अच्छे बच्चे यह सब नोटिस नहीं करते. चुप-चाप गट से पी जाते हैं. प्रसाद है भाई. तुम्हें शुगर है? कोई फर्क नहीं पड़ता. इसमें गुरु साहेब का आशीर्वाद है. पी जाओ. गुरु फ़तेह.” ट्रैफिक-लाइट कुछ लोगों के लिए स्थाई धंधा देती हैं. भिखमंगे कारों के शीशे ऐसे बजाते हैं जैसे वसूली कर रहे हों. हिजड़े ताली बजाते हुए हक़ से मांगते हैं. कितने असली कितने नकली, किसी को नहीं पता. कोई समय था भीख मांगने में भी एक गरिमा थी. “जो दे उसका भला, जो न दे उसका भी भला.” लेकिन अब तो भिखारी को दिए बिना आप भला बात भी कैसे कर सकते हो? भीख दया भाव से नहीं, जान छुडाने के लिए देनी पड़ती है. गाड़ी का शीशा साफ़ करता हुआ व्यक्ति पैसे ऐसे मांगेगा जैसे हमने उससे अग्रीमेंट किया हो कि हमारी गाड़ी ट्रैफिक लाइट पर आयेगी और वो शीशा साफ़ करने का नाटक करेगा और हम उसे पैसे निकाल कर देंगे. तौबा! छोटी बच्चियां, कोई 5 से 10 साल की, जिमनास्टिक टाइप का खेला दिखायेंगी और फिर भीख मांगेंगी. मैं सोचता हूँ, “इनके माँ-बाप अगर इनके हितैषी होते तो इनको पैदा ही नहीं करते.” गुब्बारे बेचता बच्चा. आपको नहीं लेने गुब्बारे लेकिन उसे आपसे पैसे लेने ही हैं. वो पहले गुब्बारे लेने का आग्रह करेगा, मना करने पर भीख मांगेगा. कुछ चौक पर इतने ज़्यादा मांगने वाले होते हैं कि बत्ती ग्रीन से रेड करा देते हैं. "ट्रैफिक सिग्नल", यह फिल्म ट्रैफिक सिग्नल पर भीख मांगने वालों की ज़िन्दगी दिखाती है. देखने के काबिल है. दारु से धुत लोग अक्सर सडकों पर पसरे दीखते हैं. तीस हज़ारी से वापिस आ रहा था तो सड़क के बीच एक पग्गल अधलेटा देखा. उसे कोई फर्क नहीं पड़ रहा ट्रैफिक से. अपने आप बचते रहो और उसे बचाते रहो. अगर उसे लग गई तो गलती आपकी, आपके बाप की. कुछ अँधेरे मोड़ों पर हिजड़े और लड़कियां खड़े हो ग्राहक ढूंढते हैं. ऐसा कम है, लेकिन है. दिल्ली की सड़कों को नब्बे प्रतिशत कारों ने घेरा होता है. कार चाहे लाखों रुपये की हो लेकिन अक्ल धेले की नहीं होती. कहीं भी गाड़ी खड़ी कर देंगे. मोड़ों पर नहीं खड़ी करनी चाहिए लेकिन वहीं खड़ी करेंगे. होती रहे मुड़ने वाले वाहनों को दिक्कत. सड़क इनकी है, इनके रसूख-दार बाप की है. मज़ाल है किसी की, जो इनको ‘ओये’ भी कह जाये. रसूख-दार बाप. याद आया, वो तो अपने नाबालिग बच्चों को कारें पकड़ा देते हैं. किसी को उड़ा भी देंगे तो क्या फर्क पड़ता है? बाप का पैसा और रसूख किस दिन काम आयेगा? वैसे भी नाबालिग को कहाँ कोई सजा होती है. कुछ महान लोग खटारा ही नहीं, कबाड़ा कारें भी खड़ी रखते हैं. शायद जगह घेरे रखें इसलिए, शायद उनकी लकी कार है वो कबाड़ा इसलिए, शायद वो अक्ल के अंधे हैं इसलिए. पार्किंग के लिए अब कत्ल तक होने लगे हैं. जगह होती नहीं लेकिन जो कार ले आया, वो समझता है कि जब गाड़ी उसने ले ली है तो उसे आपके घर के आगे गाड़ी खड़ी करने का हक़ है. लड़ते रहो आप अब. अब कारें दिल्ली की सड़कों पर चलती नहीं, रेंगती हैं. इंच-इंच. मैं तो चलते-चलते सोता रहता हूँ. सोते-सोते जगता रहता हूँ. किसी को गाड़ी लग जाये तो लोग गन निकाल लेते हैं, निकाल ही नहीं लेते, ठोक भी देते हैं. मैंने अपनी कार से राजस्थान, हिमाचल, उत्तरांचल, पंजाब और जम्मू-कश्मीर के ट्रिप किये हैं, 15-15 दिन के. मुझे यह बिलकुल पसंद नहीं, जैसे लोग 3-4 दिन निकाल घूमने जाते हैं. ऐसे क्या घूमना होता है? इत्ता समय तो आने-जाने में ही निकल जाता है. भगे-भगे जाओ और थके-टूटे लौट आओ. न. कम से कम पन्द्रह दिन लो और एक स्टेट घूम लो. अपना यही तरीका रहा. खैर, लम्बी ड्राइव का अपना मज़ा था. उस दौर में हाई-वे पर पंच-तारा किस्म के ढाबे अवतरित नहीं हुए थे. सुविधाओं का अभाव था. मैं अक्सर सोचता, “क्या हर दो-चार किलो-मीटर की दूरी पर पुलिस वैन, एम्बुलेंस, फायर ब्रिगेड, टॉयलेट नहीं होना चाहिए? हाई-वे रात को रोशन नहीं होने चाहियें क्या?” देखता हूँ वो अभी भी नहीं हुआ. बीच-बीच में सड़क से खींच रेप, मर्डर, लूट-पाट की खबरें आती रहतीं हैं. अलबत्ता ढाबे आज बेहतर मिल जाते हैं. लेकिन उनको ढाबा कहना सही नहीं है, वो रेस्तरां हैं. अगर आपको ढाबा ही चाहियें तो जहाँ ट्रक वाले खाते हैं, वहां रुकिए और कीजिये आर्डर दाल फ्राई, मज़ा आ जायेगा. घर से कदम बाहर धरते ही हम कहाँ होते हैं? सड़क पर. और सड़क से कदम बाहर रखते ही हम कहाँ होते हैं? अमूमन घर में. लेकिन हम अपना घर सजा-संवार लेते हैं. सड़क से हमें कोई मतलब ही नहीं. सड़कों को सुधार की आज भी बहुत ज्यादा ज़रूरत है. और सड़कों को ही नहीं सड़क पर चलने वालों को भी सुधार की बहुत-बहुत ज़रूरत है. रोड़-सेंस जीरो है. लोग सड़क को सड़क नहीं समझते, ड्राइंग रूम समझते हैं, जैसे मर्ज़ी चलते-फिरते रहते हैं. आगे वाला बिलकुल सही गाड़ी चला रहा हो, जितना ट्रैफिक की स्पीड हो, उसी स्पीड से गाड़ी चला रहा हो, फिर भी पीछे वाले को सब्र नहीं होता. उसे हॉर्न बजाना है तो बस बजाए जाना है. जन्मसिद्ध अधिकार का उचित प्रयोग! होता रहे आपका ब्लड प्रेशर ऊपर-नीचे. की फरक पैंदा ए? असल में उसे समस्या यह नहीं कि आपकी गाड़ी की स्पीड क्या है, उसे समस्या यह है कि आपकी गाड़ी उसके आगे है ही क्यों. उसका बस चले तो अपनी गाड़ी उड़ा ले या आपकी गाड़ी उड़ा दे. छोटी-मोटी रेड-लाइट पर रुकना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं महान लोग. अगर आपने गाड़ी रोक भी दी तो पीछे वाला आपको हॉर्न मार-मार परेशान करेगा कि क्यों रुके हो, मतलब रेड-लाइट जम्प क्यों नहीं करते? अगर आप ज़ेबरा-क्रासिंग पर रुके हो तो भी पीछे वाले आपको हॉर्न मार-मार अहसास करवा देंगे कि आपको गाड़ी आगे बढ़ानी चाहिए, मतलब रोको भी तो ज़ेबरा-क्रासिंग पार करके. यह तो हाल है. आमने-सामने अड़ जाती हैं कारें, कोई पीछे हटने को राज़ी नहीं, सारा ट्रैफिक जाम कर देते हैं. गाड़ियाँ नहीं इक दूजे के ईगो अड़ जाते हैं कहीं पढ़ा था की एक संकरे पुल पर दो रीछ आमने सामने आ गए. पुल इतना संकरा था कि पीछे तक नहीं जा सकते थे. आधा रस्ता आ चुके थे. नीचे गहरी नदी. लेकिन इनके ईगो नहीं अड़े. रीछ इंसानों से समझ-दार निकले. एक रीछ बैठ गया और दूसरा उसके ऊपर से निकल गया. कितनी समझ-दारी! यहाँ ज़रा सा ट्रैफिक धीमा हो जाये, लोग अपनी साइड छोड़ सामने वाली की साइड में घुस जाते हैं. श्याणे सारे ट्रैफिक की ऐसी-तैसी फेर देते हैं. इंसानों से ज़्यादा समझ-दार तो चींटियां होती हैं, कभी ट्रैफिक जैम में नहीं फंसती.


जो सबसे तेज़ रफ्तार गाड़ियों के लिए लेन होती है, वहां सबसे कम रफ्तार वाले वाहन चलते हैं. मस्त. हाथियों की तरह. बड़े ट्रक. ट्राले. अब आप निकलते रहो, जिधर मर्ज़ी से. यहाँ लेन से कुछ लेना-देना है ही नहीं.

आपने विडियो गेम खेला होगा आपने जिसमें एक कार या मोटर-साईकल होती है आपकी, जिसे आपको तेज़ चलती दूसरी गाड़ियों से बचाना होता है. अब हम सब वो गेम रोज़ खेलते हैं, लेकिन असली. 
पढ़ा था कहीं कि सड़कें युद्ध-स्थल तक तोपें और टैंक आदि लाने-ले जाने के लिए बनाई जातीं थीं, लेकिन आज तो हर सड़क ही अपने आप में युद्ध-स्थल बन चुकी है.लोग सड़कों पर ही लड़ते-मरते हैं. और पढ़ा था कि युद्धों में उतने लोग नहीं मरते जितने सड़क एक्सीडेंटों में मरते हैं. यह बात कितनी सही-गलत है, नहीं पता लेकिन बहुत लोग मरते हैं, ज़ख्मी होते हैं सड़कों पर, यह पक्का है. मैं तो किसी का पलस्तर चढ़ा देखते ही पूछ बैठता हूँ, "टू-व्हीलर से गिरे क्या?" और ज़्यादातर जवाब "हाँ" में मिलता है. जगजीत सिंह और चित्रा सिंह का बेटा विवेक सिंह, अजहरुद्दीन का बेटा, जसपाल भट्टी, साहेब सिंह वर्मा जैसे लोग एक्सीडेंट में ही मारे गाये तो आम आदमी की क्या औकात? लोग पीछे से ही गाड़ी से उड़ा देते हैं. मैं हमेशा नियमों के पालन का तरफ-दार हूँ, लेकिन नियमों के साथ-साथ अक्ल लगाने का भी तरफ-दार हूँ. "लीक लीक गाड़ी चले, लीक चले कपूत, ये तीनो लीक छोड़ चलें, शायर, शेर और सपूत." महान शब्द हैं ये, लेकिन लीक छोड़ने का मतलब यह नहीं कि लीक छोड़ने के लिए लीक छोड़नी है. लीक छोड़नी मात्र इसलिए कि वो छोड़ने के ही लायक है, लीक छोड़नी क्योंकि उसपे चलना खतरनाक है, घातक है. बचपन से हमें सिखाया गया कि हमेशा बाएं (लेफ्ट) हाथ चलो. सड़क पर पैदल चलते हुए मैं अक्सर सोचता कि ऐसे तो पीछे से आती हुई कोई भी गाड़ी हमें उड़ा सकती है. सामने से आती हुई गाड़ी से तो हम खुद भी बचने का प्रयास कर सकते हैं. बार-बार पीछे मुड़-मुड़ कर देखते हुए कैसे चला जा सकता है? सो मैं हमेशा पैदल चलता तो दायें(राईट) हाथ. अभी पीछे ट्रेड-फेयर गये तो वहां से ट्रैफिक पुलिस के कुछ पम्फलेट लिए. साफ़ हिदायत लिखी थी कि पैदल चलने वाले राईट चलें. वाह! मेरा दिमाग दशकों आगे चलता है. जब कोई और आपको टके सेर भी न पूछे तो आप खुद ही अपनी पीठ थप-थपा दें. और क्या? पुलिस सिर्फ पर्सनल वसूली में रूचि लेती है न कि ट्रैफिक कैसे सुधरे इस में. सड़कों पर जगह-जगह मूवी कैमरे लगा देने चाहियें, जो-जो नियम तोड़ता दिखे, उसे चालान भेज दिए जायें, जो न भरे उसे फयूल मत दें. जो न भरे उसकी गाड़ी की सेल ट्रान्सफर मत करो. फिर रोड सेंस सिखाने की वर्कशॉप भी चलायें, उस में हाजिरी के बिना दुबारा गाड़ी सड़क पर मत लाने दें. जो पैसा इक्कट्ठा हो, उसे सड़कों की बेहतरी में लगायें. मामला हल. खैर, बंद किये जाएँ सड़क पर नमाजें, जुलुस, जलसे, शोभा-यात्राएं, कांवड़-शिविर. सड़क इन कामों के लिए नहीं है. वो सिर्फ चलने के लिए है. वो दुकान-दारी के लिए नहीं है. धार्मिक(?) दुकान-दारी के लिए भी नहीं. लोगों ने अपने घर चमका लिए हैं लेकिन सडकें बाहर टूटी हैं, चूँकि सड़कें सार्वजनिक हैं. "सांझा बाप न रोये कोई." सड़क नेता के लिए, लोकल बाबुओं के लिए तो कमाई का साधन है. वहां सदैव खुदाई, भराई, बनवाई, तुड़वाई चलती रहती है. अन्त-हीन. सड़क में गड्डे हैं या गड्डे में सड़क, पता ही नहीं लगता. अभी कहीं पढ़ा था कि सड़क के गड्डे के कारण स्कूटर फिसलने से किसी की मौत हो गई तो उसके परिवार ने सरकार पर लाखों रुपये हर्ज़ाने का केस ठोक दिया. ऐसा ही होना चाहिए, लेकिन वो पैसा ज़िम्मेदार नेता और बाबुओं की जेबों से निकलना चाहिए, तब मज़ा है. कल समालखा गए थे दिल्ली चण्डीगढ़ हाई-वे से, तो Sanjay Sajnani भाई कह रहे थे, "सड़क तो पूरी तरह से बनी नहीं है, फिर सरकार ये टोल किस चीज़ का वसूल रही है?" "पता नहीं भाई, मुझे तो लगता है सरकार पहले ही ज़रूरत से ज़्यादा टैक्स ले रही है लोगों से?" "पूछना नहीं चाहिए RTI लगा के?" "बिल्कुल और फिर जवाब अगर ढंग का न हो तो PIL(जनहित याचिका) लगानी चहिये." ह्म्म्म....हम्म्म्म.....सोचते रहे हम... सरकार को कोसते रहे हम. हमारी सडकें हमारे सड़ चुके तन्त्र का लाइव टेलीकास्ट हैं. लेकिन अव्यवस्था/ कुव्यवस्था/ बेवस्था को ही व्यवस्था मान लिया गया है, स्वीकार कर लिया है. आप अगर धन कमा भी लेंगे, तो भी आपके घर के बाहर सड़क टूटी मिलेगी.....सड़को पर बेहूदगी से गाड़ियाँ चलाने वाले-पार्क करने वाले लोग मिलेंगे.....बदतमीज़ पुलिस मिलेगी.....स्नेल की चाल से रेंगता ट्रैफिक मिलेगा....आपके धन कमाने से आप सिर्फ अपने घर का इन्फ्रा-स्ट्रक्चर सही कर सकते हैं, मुल्क का नहीं.....उसके लिए आप को या तो मुल्क छोड़ देना होगा या फिर मेरे जैसे किसी सर-फिरे के साथ होना होगा. एक किताब पढी थी मैंने 'बिल गेट्स' द्वारा लिखित "दी रोड अहेड (The Road Ahead)" (आगे की सड़क). यह किताब इंसानी भविष्य किस सड़क पर दौड़ेगा, इसकी भविष्य-वाणियों से भरी है. किताब कोई दस बरस पहले पढ़ी थी. ठीक से याद कुछ नहीं, लेकिन मुझे लगता है उसमें कई भविष्य-वाणियाँ सो सत्य साबित भी हो चुकी होंगी. भविष्य सिर्फ तिलक-टीका-धारी पंडित ही नहीं बताते बिल गेट्स जैसे लोग भी बताते हैं और ज़्यादा सटीक बताते हैं. भारत की सड़कों का भविष्य आप बताएं-बनाएं. नमन..तुषार कॉस्मिक

आलोचक

हाँ, मैं सिर्फ आलोचना करता हूँ. और समझ लीजिये, आलोचना शब्द का अर्थ गहन नज़र से देखना होता है, नुक्स निकालना नहीं. लोचन यानि नज़र का प्रयोग. शरीर की ही नहीं बुद्धि की नज़र का भी प्रयोग करना.

सेकुलरिज्म

नहीं, हम एक सेक्युलर स्टेट बिलकुल नहीं है........एक सेक्युलर स्टेट में नास्तिक, आस्तिक, अग्नास्तिक सबकी जगह होनी चाहिए... स्टेट को किसी भी धारणा से कोई मतलब नहीं होता. वो निरपेक्ष है. उसका धर्म संविधान और विधान है. पुराण या कुरान नहीं.....ऐसे में किसी भी तरह की प्रार्थना का कोई मतलब नहीं है स्कूलों में....लेकिन आपके सब स्कूल चाहे सरकारी हों चाहे पंच-सितारी हों, सुबह-सुबह बच्चों को गैर-सेक्युलर बनाते हैं....उनकी सोच पर आस्तिकता का ठप्पा लगाते हैं. आपके तो अधिकांश स्कूलों के नाम भी संतों, गुरुओं के नाम पर हैं. मैंने नहीं देखा कि किसी स्कूल का नाम किसी वैज्ञानिक, किसी फिलोसोफर. किसी कलाकार के नाम पर हो. आपने देखा कि किसी स्कूल का नाम आइंस्टीन स्कूल हो, नीत्शे स्कूल हो, गलेलियो स्कूल हो, या फिर वैन-गोग स्कूल हो......देखा क्या आपने? नाम होंगे सेंट फ्रोएब्ले, सेंट ज़विओर, गुरु हरी किशन स्कूल या फिर दयानंद स्कूल..... अगर प्रार्थना ही करवानी है तो दुनिया के अग्रणी वैज्ञानिकों, कलाकारों, समाज-शास्त्रियों, फिलोसोफरों को धन्य-वाद की प्रार्थना गवा दीजिये. उसमें ऑस्कर वाइल्ड भी, शेक्सपियर भी, एडिसन भी, स्टीव जॉब्स, मुंशी प्रेम चंद भी, अमृता प्रीतम भी भी हों... यह होगा सेकुलरिज्म का बीजा-रोपण. अभी हम सेकुलरिज्म को सिर्फ किताबों में रखे हैं. और यह जो हिन्दू ब्रिगेड सेकुलरिज्म का विरोध करती है, वो कुछ-कुछ सही है. असल में वो विरोध अब अमेरिका तक में होने लगा है. वो विरोध सेकुलरिज्म के नाम पर इस्लाम जो फायदा उठाता है उसका है. इस्लाम में सेकुलरिज्म की कोई धारणा नहीं है. इस्लाम तो सिवा इस्लाम के किसी और धर्म को धर्म ही नहीं मानता. इस्लाम में जिहाद है. इस्लाम में अपनी सामाजिक व्यवस्था है. इस्लाम में अपना निहित कायदा-कानून है. तो फिर ऐसे में सेकुलरिज्म का क्या मतलब रह जाता है? लेकिन यहाँ विरोध इस्लाम का होना चाहिए न कि सेकुलरिज्म का. लेकिन भारत में चूँकि अधिकांश समय सरकार कांग्रेस की रही है. यहाँ हज सब्सिडी चलाई गई, यहाँ मुस्लिम के लिए अलग पर्सनल सिविल लॉ बनाया गया. यहाँ का बुद्धिजीवी भी हिन्दू की कमी तो लिखता-बोलता रहा लेकिन इस्लाम के खिलाफ चुप्पी साधे रहा. यहाँ तक कि ओशो भी कुरान के खिलाफ बोले तो जीवन के अंतिम वर्षों में. हिन्दू को अखरता है. उसे लगता है कि यह छद्म सेकुलरिस्म है. बात सही है. किसी एक तबके के साथ गर्म और किसी दूसरे के साथ नर्म व्यवहार किया जाए, और फिर खुद को सेक्युलर भी कहा जाए तो यहाँ कहाँ का सेकुलरिज्म हुआ? लेकिन हिंदुत्व वालों को तो सेकुलरिज्म वैसे ही अखरता है जैसे मुस्लिम को. जैसे इस्लाम में सेकुलरिज्म की कोई कल्पना नहीं, ऐसे ही हिंदुत्व वालों को भी सेकुलरिज्म एक आँख नहीं भाता. उन्हें तो सब वैसे ही हिन्दू लगते हैं, चाहे सिक्ख हों, चाहे बौद्ध, चाहे जैन. ईसाईयत और इस्लाम को वो भी धर्म नहीं मानते. तो विरोध सबका का होना चाहिए- इस्लाम का भी और इस्लाम या किसी भी और तबके की नाजायज़ तरफ़दारी का भी, छद्म सेकुलरिज्म का भी. और हिंदुत्व का भी. लेकिन सेकुलरिज्म का नहीं. सेकुलरिज्म अपने आप में दुनिया की बेहतरीन धारणाओं में से है. नमन.....तुषार कॉस्मिक

Thursday, 7 December 2017

सम्भोग

सम्भोग शब्द का अर्थ है जिसे स्त्री पुरुष समान रूप से भोगे. लेकिन कुदरती तौर पर स्त्री पुरुष से कहीं ज़्यादा काबिल है इस मामले में. उसका सम्भोग कहीं गहरा है, इतना गहरा कि वो हर धचके के साथ कहीं गहरा आनंद लेती है, पुरुष ऊपर-ऊपर तैरता है, वो गहरे डुबकियाँ मार रही होती है, जभी तो हर कदम में बरबस उसकी सिसकियाँ निकलती हैं. और फिर ओर्गास्म. वो तो इतना गहरा कि पुरुष शायद आधा भी आनंदित न होता हो. कोई सेक्सो-मीटर हो तो वो मेरी बात को साबित कर देगा. और उससे भी बड़ी बात पुरुष एक ओर्गास्म में खल्लास, यह जो शब्द है स्खलित होना, उसका अर्थ ही है, खल्लास होना. खाली होना, चुक जाना. लेकिन वो सब पुरुष के लिए है, वो आगे जारी नहीं रख सकता. लेकिन स्त्री के साथ ऐसा बिलकुल नहीं है. वो एक के बाद एक ओर्गास्म तक जा सकती है. जाए न जाए, उसकी मर्ज़ी, उसकी शारीरिक और मानसिक क्षमता और एच्छिकता, लेकिन जा सकती है. तो मित्रवर, निष्कर्ष यह है कि सम्भोग शब्द बहुत ही भ्रामक है. सेक्स में सम्भोग बिलकुल भी नहीं होता. स्त्री की कई गुणा सेक्स शक्ति के आगे पुरुष बहुत बौना है. मैं अक्सर सोचता कि कुदरत ने ऐसा भेदभाव क्यूँ किया? पुरुष को काहे नहीं स्त्री के मुकाबले बनाया? लेकिन फिर याद आया कि बच्चे को जन्म देने की पीड़ा भी तो वो ही सहती है, शायद उसी की क्षतिपूर्ती की कुदरत ने. पुरुष सेक्स में स्त्री से कमतर सामाजिक कारणों से भी है. वो सामाजिक बोझ को ढोता हुआ, पहले ही चुक चुका होता है. वो स्त्री के मुकाबले कहीं ज़्यादा बीमार रहता है, कहीं ज़्यादा नशों में लिप्त रहता है. एकाधिक ओर्गास्म छोड़िये, पुरुष अक्सर स्त्री को एक ओर्गास्म भी नहीं दे पाता. वो जैसे -तैसे बस अपना काम निपटाता है. अब आप इसे सम्भोग....समान भोग कैसे कहेंगे? किसी की क्षमता हो तीन रोटी खाने की और उसे आप आधी रोटी खिला दें तो कैसे उसका पेट भरे? यह स्त्री की त्रासदी. और समाजिक घेराबंदी कर दी गयी उसके गिर्द. वो चूं भी न करे. कई समाजों में तो उसकी भग-नासा तक काट दी जाती है बचपन में ही. ताकि उसे कम से कम सेक्स का आनन्द अनुभव हो. सही सभ्यता तब होगी जब स्त्री अपनी सेक्स की क्षमताओं को पूर्णतया अनुभव करेगी. और करवाना हर पुरुष की ज़िम्मेदारी है. उसे सीखना होगा बहुत कुछ. और सामाजिक ताना-बाना भी बदलना होगा. स्त्री उम्र में बड़ी हो, पुरुष छोटा हो तो ही बेहतर. अलावा इसके दोनों को बाकायदा ट्रेनिंग की ज़रुरत है. जैसे क्लच, ब्रेक दबाने और स्टीयरिंग घुमाना सीखने से कोईड्राइविंग नहीं सीखता, उसके लिए रोड के कायदे भी समझ में आना ज़रूरी है,रोड सेंस होना भी ज़रूरी है, उसी तरह से लिंग और योनि तक ही सेक्स सीमित नहीं है, उसके लिए स्त्री पुरुष के तन और मन का ताल-मेल होना ज़रूरी है, जो सीखने की बात है, जो मात्र शब्दों में ही सीखा सीखाया नहीं जा सकता, जो आप सबको सेक्स करते कराते सीखना होगा. अधिकांश पुरुष जल्द ही चुक चुके होते हैं...कोई सिगरट, तो कोई शराब, तो कोई मोटापे तो कोई किसी और स्यापे की वजह से. लेकिन यदि फिर भी दम बचा हो तो अपनी स्त्री के साथ सम्भोग करते चले जाओ, वो ओर्गास्म तक पहुंचेगी ही और यदि वहां तक तुम खुद न चुके तो अब गाड़ी आगे बढाते जाओ और बिना समय अंतराल दिए गतिमान रहो, स्त्री यदि ओर्गास्म तक पहुँच भी जाए तो उसे बहुत समय-गैप मत दीजिये, सम्भोग को गतिशील रखें, उसका सम्भोग पुरुष के सम्भोग की तरह ओर्गास्म के साथ ही खत्म नहीं होता, बल्कि ज़ारी रहता है. स्त्री निश्चय ही आगामी ओर्गास्म को बढ़ती जायेगी. और ऐसे ही चलते जाओ. वीर तुम बढे चलो, धीर तुम बढे चलो. सर्वधर्मान परित्यज्य, मामेकम शरणम् व्रज . सब धर्मों को त्याग, एक मेरी ही शरण में आ. कृष्ण कहते हैं यह अर्जुन को. मेरा मानना है,"सर्वधर्मान परित्यज्य, सम्भोगम शरणम् व्रज." सब धर्मों को छोड़ इन्सान को नाच, गाना, बजाना और सम्भोग की शरण लेनी चाहिए. बस. बहुत हो चुकी बाकी बकवास. बिना मतलब के इशू. नाचते, गाते, सम्भोग में रत लोगों को कोई धर्म, देश, प्रदेश के नाम पर लडवा ही नहीं सकेगा. और हाँ, सम्भोग मतलब, सम्भोग न कि बच्चे पैदा करना. कोई समाज शांत नहीं जी सकता जब तक सेक्स का समाधान न कर ले.....सो बहुत ज़रूरी है कि स्त्री पुरुष की दूरी हटा दी जाए.....समाज की आँख इन सम्बन्धों की चिंता न ले.......सबको सेक्स और स्वास्थ्य की शिक्षा दी जाए....सार्वजानिक जगह उपलब्ध कराई जाएँ. देवालय से ज़्यादा ज़रुरत है समाज को सम्भोगालय की......पत्थर के लिंग और योनि पूजन से बेहतर है असली लिंग और योनि का पूजन........सम्भोगालय....पवित्र स्थल...जहाँ डॉक्टर मौजूद हों.....सब तरह की सम्भोग सामग्री...कंडोम सहित.. और भविष्य खोज ही लेगा कि स्त्री पुरुष रोग रहित हैं कि नहीं ...सम्भोग के काबिल हैं हैं कि नहीं ...और यदि हों काबिल तो सारी व्यवस्था उनको सहयोग करेगी .....मजाल है कोई पागल हो जाए. आज जब कोई पागल होता है तो ज़िम्मेदार आपकी व्यवस्था होती है, जब कोई बलात्कार करता है तो ज़िम्मेदार आपका समाजिक ढांचा होता है...लेकिन आप अपने गिरेबान में झाँकने की बजाये दूसरों को सज़ा देकर खुद को भरमा लेते हैं समझ लीजिये जिस समाज में सबको सहज रोटी न मिले, साफ़ हवा न मिले, पीने लायक पानी न मिले, सर पे छत न मिले, आसान सेक्स न मिले, बुद्धि को प्रयोग करने की ट्रेनिंग की जगह धर्मों की गुलामी मिले वो समाज पागल होगा ही और आपका समाज पागल है आपकी संस्कृति विकृति है आपकी सभ्यता असभ्य है आपके धर्म अधर्म हैं नमन....तुषार कॉस्मिक

तीन पॉइंट

1.जिसे आप संस्कृति समझते हैं, वो बस विकृति है. 2.जिसे आप धार्मिकता कहते हैं, उसे मैं मूर्खता कहता हूँ, सामूहिक मूर्खता. 3. जिसे आप सनातन समझते हैं, वो मात्र पुरातन है, जितना पुराना, उतना ही सड़ा हुआ.

CYBORG

मुझे ऐसा लगता है कि आने वाले समय में किताबें, फिल्में, ऑडियो आदि सीधा मानव मस्तिष्क में ट्रांसप्लांट किये जा पायेंगे...इससे व्यक्ति के वर्षों बचेंगे.
और डाटा को सुपर कंप्यूटर में डाला जायेगा, जिसकी लॉजिकल प्रोसेसिंग के बाद वो रिजल्ट दे देगा कि सही क्या है या यूँ कहें कि सबसे ज़्यादा सम्भावित सही क्या है....और यह डाटा भी इन्सान पलों में ही access कर पायेगा. इससे तर्क-वितर्क और भी साइंटिफिक हो जायेगा.
इस तरह से किस उम्र में कितना डाटा डाला जाये, कंप्यूटर प्रोसेसिंग के रिजल्ट भी किस तरह से ट्रांसप्लांट किये जाएँ, यह सब भविष्य तय करेगा.
इंसानी जानकारियाँ और उन जानकारियों के आधार पर की गई उसकी गणनाएं/ कंप्यूटिंग/ तार्किकता/Rationality भविष्य में आज जैसी नहीं रहेंगी, यह पक्का है. इंसान कुछ-कुछ CYBORG हो जायेगा. यानि रोबोट और इन्सान का मिक्सचर.
तकनीक ही गेम-चेंजर साबित होगी. समाज खुद से तो बदलने से रहा. और नेता तो इसे जड़ ही रखेंगे ताकि उनका हित सधता रहे.

Monday, 4 December 2017

सेक्स और इन्सान

माना जाता है कि इन्सान इस पृथ्वी का सबसे समझदार प्राणी है. लेकिन यह इन्सान ही है, जो सेक्स न करके हस्त-मैथुन कर रहा है. "एक...दो...तीन...चार...हा...हा...हा....हा........." यह इन्सान ही है, जो पब्लिक शौचालय में लिख आता है, "शिवानी रंडी है.....", "भव्या गश्ती है", "मेरा लम्बा है, मोटा है, जिसे मुझ से Xदवाना हो, फ़ोन करे......98..........", आदि अनादि. यह इन्सान ही है, जो हिंसक होता है तो दूसरे की माँ, बहन, बेटी को सड़क पे Xद देता है. "तेरी माँ को xदूं........तेरी बेटी को कुत्ते xदें ........तेरी बहन की xत मारूं". यह इन्सान ही है, जो बलात्कार करता है और सेक्स के लिए न सिर्फ बलात्कृत लड़की का बल्कि अपना भी जीवन दांव पर लगा देता है. यह इन्सान ही है, जो गुब्बारे तक में लिंग घुसेड़ सुष्मा, सीमा, रेखा की कल्पना कर लेता है. यह इन्सान ही है, जो कपड़े पहने है, चूँकि उससे अपना नंग बरदाश्त ही नहीं हुआ. लेकिन फिर ढका अंग बरदाश्त नहीं होता तो वही कपड़े स्किन-टाइट कर लेता है. आज की फिल्में देखो तो हेरोइन अधनंगी है, पुरानी फ़िल्में देखो तो हेरोइन ने कपड़े पूरे पहने हैं लेकिन इत्ते टाइट कि अंग-अंग झाँक रहा है. वैजयंती माला-आशा पारेख की फिल्में याद करें. यह इन्सान ही है, जो सेक्स नहीं करता सो दूसरों को सेक्स करते देखता है. पोर्न जितना देखा जाता है उतना तो लोग मंदिर-गुरूद्वारे के दर्शन नहीं करते होंगे. यह इन्सान ही है, जो गीत भी गाता है तो उसमें सिवा सेक्स के कुछ नहीं होता. "तू मुझे निचोड़ दे, मैं तुझे भंभोड़ दूं. आहा...आहा." यह इन्सान ही है, जिसने शादियों का आविष्कार किया, जिससे परिवार अस्तित्व में आया, जिससे यह धरती जो सबकी माता है, उसे टुकड़ों में बांट दिया गया, ज़मीन को जायदाद में बदल दिया गया और इन्सान इन्सान के बीच दीवारें खिंच गईं, दीवारें क्या तलवारें खिंच गईं. "ज़र, ज़ोरू और ज़मीन, झगड़े की बस वजह तीन." लेकिन तीन नहीं, वजह एक ही है....और वो है सेक्स का गलत नियोजन चूँकि सेक्स के गलत नियोजन की वजह से ही ज़र, जोरू और ज़मीन अस्तित्व में आये हैं. "ये तेरी औरत है." "ये तेरा मरद हुआ आज से." जबकि न कोई किसी की औरत है और न ही कोई किसी का मर्द. इन्सान हैं, कोई कुर्सी-मेज़ थोड़ा न हैं, जिन पर किसी की मल्कियत होगी? वैसे और गहरे में देखा जाए तो वस्तुओं पर मलकियत भी इसीलिए है कि इंसानों पर मल्कियत है. अगर इन्सानों पर मलकियत न हो, अगर परिवार न हों तो सारी दुनिया आपकी है, आप कोई पागल हो जो मेज़-कुर्सी पर अपना हक जमाओगे. सारी दुनिया छोड़ टेबल-कुर्सी पर हक़ जमाने वाले का तो निश्चित ही इलाज होना चाहिए. नहीं? वो सब पागल-पन सिर्फ घर-परिवार-संसार की वजह से ही तो है. जब पति-पत्नी सम्भोग करते हैं तो वहां बेड पर दो लोग नहीं होते, चार होते हैं. पति की कल्पना में कोई और ही औरत होती है और पत्नी किसी और ही पुरुष की कल्पना कर रही होती है. वैसे वहां चार से ज़्यादा लोग भी हो सकते हैं......ख्यालात में पार्टनर बदल-बदल कर भी लाए जा सकते हैं. यह है जन्म-जन्म के, सात जन्म के रिश्तों की सच्चाई. शादी आई तो साथ में ही वेश्यालय आया. उसे आना ही था. रामायण काल में गणिका थी तो बुद्ध के समय में नगरवधू. और नगरवधू का बहुत सम्मान था. 'वैशाली की नगरवधू' आचार्य चतुर-सेन का जाना-माना उपन्यास है, पढ़ सकते हैं. 'उत्सव' फिल्म देखी हो शायद आपने. शेखर सुमन, रेखा और शशि कपूर अभिनीत. 'शूद्रक' रचित संस्कृत नाटक 'मृच्छकटिकम' पर आधारित थी यह फिल्म. वेश्या दिखाई गई हैं. खूब सम्मानित. आज भी किसी नेता, किसी समाज-सुधारक की जुर्रत नहीं कि वेश्यालय हटाने की सोच भी सके. वो सम्भव ही नहीं है. जब तक शादी रहेगी, वेश्यालय रहेगा ही. सनी लियॉनी को आखिर उस भारतीय समाज ने स्वीकार किया, जहाँ फिल्म अभिनेत्री अगर शादी कर ले तो उसे रिटायर माना जाता था. BB ki Vines, Carryminati, All India Bakchod, ये तीन टॉप के इंडियन youtube चैनल हैं. इन सब की एक साझी खूबी है. जानते हैं क्या? सब खुल कर माँ-बहन-बेटी xदते हैं. All India Bakchod ने तो अपने नाम में ही सेक्स का झंडा गाड़ रखा है. इन्सान ने सेक्स को बुरी तरह से उलझा दिया. बस फिर क्या था? सेक्स ने इन्सान का पूरा जीवन जलेबी कर दिया जबकि सेक्स एक सीधी-सादी शारीरिक क्रिया है, जिसे विज्ञान ने और आसान कर दिया है. विज्ञान ने बच्चे के जन्म को सेक्स से अलग कर दिया है. अब लड़की को यह कहने की ज़रूरत नहीं, "मैं तेरे बच्चे की माँ बनने वाली हूँ." और लड़के को विलन बनते हुए यह कहने की कोई ज़रुरत नहीं, "डार्लिंग, मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ, लेकिन देखो अभी यह बच्चा हमें नहीं चाहिए तो तुम किसी अच्छे से डॉक्टर से मिल कर इसे गिरा दो. यह लो पचास हज़ार रुपये. और चाहिए होंगे तो मांग लेना." विज्ञान ने यह सहूलियत दे दी है कि पुरुष और स्त्री एक दूसरे की स्वास्थ्य रिपोर्ट ले कर सेक्स में जाएँ. जगह-जगह शौचालय ही नहीं सार्वजनिक सम्भोगालय भी बनने चाहियें, जहाँ कोई भी स्त्री-पुरुष अपनी मर्ज़ी से सम्भोग कर सकें . उलझी हुई समस्याओं के समाधान इतने आसान और सीधे होते हैं कि उलझी बुद्धि को वो स्वीकार ही नहीं होते. इन्सान इस पृथ्वी का सबसे समझदार प्राणी है, उसकी बुरी तरह उलझी समस्यायों के समाधान इतने आसान कैसे हो सकते हैं? वो कैसे स्वीकार ले? वो कैसे स्वीकार कर ले कि उसकी समस्यायों के समधान हो भी सकते हैं. आपको पता है सड़क किनारे कुत्ता-कुतिया को सम्भोग-रत देख लोग उनको पत्थर मारने लगते हैं, जानते हैं क्यों? कैसे बरदाश्त कर लें, जो खुद नहीं भोग सकते, वो कुत्ते भोगें? मेरा प्रॉपर्टी का काम रहा है शुरू से. पुरानी बात है. एक जवान लड़का किसी लड़की को ले आया फ्लैट पे. उन दिनों नई-नई अलॉटमेंट थी. कॉलोनी लग-भग खाली थी. कुछ शरारती लोगों ने बाहर से कुंडी लगा दी और 100 नम्बर पे फोन कर दिया. पुलिस आ गई, लड़का-लड़की हैरान-परेशान. बेचारों की खूब जिल्लत हुई. दुबारा न आने की कसमें खा कर गए. बाद में जिन्होंने फ़ोन किया था, वो ताली पीट रहे थे. एक ने कहा, "साला, यहाँ ढंग की लड़की देखती तक नहीं और ये जनाब मलाई खाए जा रहे थे. मज़ा चखा दिया. हहहाहा..........." सेक्स जो इन्सान को कुदरत की सबसे बड़ी नेमत थी, सबसे बड़ी समस्या बन के रह गया. चूँकि इन्सान इस पृथ्वी का सबसे मूढ़ प्राणी है. नमन...तुषार कॉस्मिक

Sunday, 3 December 2017

राम-राम/रावण-रावण

घर के पास वाले पार्क में घूमता हूँ तो अक्सर बुज़ुर्ग सामने से 'राम-राम' करते हैं. मैं 'नमस्ते जी' ही कहता हूँ. एक अंकल को मज़े-मज़े में 'रावण-रावण' कह दिया. पकड़ ही लिए मुझे. 

"क्यों भई? यह क्या बोला जवाब में?" 
"कुछ नहीं अंकल, वो रावण भी तो महान था न?"

"नहीं तो उसे राम के बराबर का दर्ज़ा दोगे क्या?"
"अंकल उसके दस सर थे. ब्राहमण था. अन्त में लक्ष्मण उससे ज्ञान लेने भी तो जाता है, तो थोड़ा सा सम्मान, थोड़ा सा क्रेडिट रावण को भी देना चाहिए कि नहीं?"

अंकल थोड़ा सोच में पड़ गए और मैं निकल लिया पतली गली से.

मूर्खों का देश

जिस देश में धिन्चक पूजा, राधे माँ, निर्मल बाबा, स्वामी ॐ जैसे लोग सलेबिरिटी हों...... जिस देश में बिग-बॉस जैसे टीवी प्रोग्राम खूब देखे जाते हों..... जिस देश में गंगा बहती तो हो लेकिन बुरी तरह से प्रदूषित हो..... हम उस देश के वासी हैं. हम उस देश के वासी हैं जिसके लिए काटजू साहेब ने कहा था कि निन्यानवें प्रतिशत मूर्ख लोगों का देश हैं. आपको अभी भी शक है काटजू साहेब की बात पर?

बेस्ट सेल्स-मैन

सुना  होगा आपने कि बढ़िया सेल्स-मैन वो है जो गंजे को कंघी बेचे. 
गलत सुना है. 

बढ़िया सेल्समेन वो है, जो अदृशय प्रोडक्ट बेचे.

नहीं समझ आया. 
जाओ जा के निर्मल बाबा का एक सेशन अटेंड कर के आओ. 'कृपा' नहीं दिखेगी लकिन कृपा की बिक्री दिखेगी.

नबी का जन्म-दिन

इस बार  नबी का जन्म-दिन ऐसे मनाया गया जैसे कम-से-कम दिल्ली में तो मैंने पहले कभी नहीं देखा. निश्चित ही यह बाहुबल, वोटिंग-बल, संख्या-बल भी दिखाने को था. सडकें सडकें नहीं थी, जुलुस स्थल  थी आज. नारे बुलंद हो रहे थे, "सरकार की आमद...मरहबा...मरहबा."

पश्चिम विहार, दिल्ली में रहता हूँ. पास ही विष्णु गार्डन इलाका है. विष्णु गार्डन में बहुत सी जींस बनाने की अवैध फैक्ट्री हैं. सब काम मुसलमानों के हाथ में हैं. आज नबी के जन्म का जुलुस निकाल रहे थे. घोड़े वाले मन्दिर से पश्चिम विहार मात्र आधा किलोमीटर है, यकीन मानें मैं यह दूरी पार ही नहीं कर पाया, सडकों पर इतना जमघट. मुझे कार वापिस घुमानी पड़ी और 4-5 किलोमीटर का चक्कर काट दूसरे रूट से घर आना पड़ा. यह सब धर्म, मज़हब, दीन कुछ भी नहीं है. यह सब बकवास है जो हिन्दू, सिक्ख और अब मुस्लिम भी करने लगे हैं. यह धार्मिक आज़ादी नहीं, धार्मिक बर्बादी है. बंद करो सड़क पर नमाजें, जुलुस, जलसे, शोभा-यात्राएं, कांवड़-शिविर. सड़क इन कामों के लिए नहीं है. वो सिर्फ चलने के लिए है. वो दूकान-दारी के लिए नहीं है. धार्मिक(?) दुकान-दारी के लिए भी नहीं.

क्या है मेरा नज़रिया? 

१. मेरा नज़रिया यह है कि नबी हों, गुरु हों, अवतार हों, महात्मा हों, कोई भी हों, एक तो सरकारी छुटियाँ बंद कर देनी चाहियें इन सब के जन्म से मरण तक के किसी भी दिवस पर.  अगर ऐसे छुटियाँ ही करते रहे तो पूरा साल छुट्टियों को ही देना पड़ेगा.

२. दूसरा कैसा भी पब्लिक फंक्शन करना हो, वो बंद हॉल या फिर खुले मैदानों में करें, कोई लाउड स्पीकर नहीं, कोई शोर-शराबा नहीं. आम जन-जीवन को डिस्टर्ब  करने की किसी को इजाज़त नहीं मिलनी चाहिए.  

३. तीसरा और सबसे ज़रूरी. अगर आपने सच में ही अपने नबी के जीवन का फायदा दीन-दुनिया  तक पहुँचाना है तो उनके जीवन, उनकी कथनी, उनकी करनी पर खुली बहस आयोजित करें, आमंत्रित करें. और यह बहस मात्र आपके दीन, आपके नबी की हाँ में हाँ मिलाने को ही नहीं होनी चाहिए, इसमें 'न' कहने वालों को भी आने दीजिये. 

आने दीजिये अगर कोई उनको पैगम्बर नहीं मानता तो. 

आने दीजिये अगर कोई उनको आखिरी पैगम्बर नहीं मानता तो. 

आने दीजिये अगर कोई खुद को पैगम्बर मानता है तो. 

आने दीजिये अगर कोई अल्लाह-ताला को इनसानी अक्ल पर लगा ताला मानता है. 

आने दीजिये अगर कोई  क़ुरान में लिखी उन आयतों पर सवाल उठाता है जो काफिरों के खिलाफ हिंसा को आमंत्रित करती हैं. 

आने दीजिये ऐसे लोगों को जो क़ुरान के हर शब्द, हर वाक्य पर सवाल उठाते हों. 

फिर देखिये क्या निकल के आता है. अगर सरकार की कथनी-करनी में दम होगा तो हम भी कहेंगे, "सरकार की आमद... मरहबा.....मरहबा." और सच में ही सरकार के जीवन से सारी दुनिया बहुत कुछ सीख पायेगी. 

लेकिन है इतनी हिम्मत मुसलमानों में कि दुनिया भर में ऐसे आयोजन कर सकें?

मुझे गहन शंका है. और मेरी शंका अगर सही है तो समझ लीजिये दुनिया को गहन अन्धकार में धकेलने के औज़ार हैं ऐसे आयोजन जो आज दिल्ली में किये जा रहे थे. 

नमन...तुषार कॉस्मिक

अनुष्का शर्मा की NH-10--अच्छी फिल्म

अनुष्का शर्मा ने एक फिल्म में एक्टिंग ही नहीं की, बनाई भी खुद थी. NH-10. मेरे पास शब्द नहीं इस फिल्म की तारीफ के लिए. ज़रूर देखें. और हाँ, मैं सिर्फ आलोचना करता हूँ. और समझ लीजिये, आलोचना शब्द का अर्थ गहन नज़र से देखना होता है, नुक्स निकालना नहीं. लोचन यानि नज़र का प्रयोग. शरीर की ही नहीं बुद्धि की नज़र का भी प्रयोग करना. तो देखिये यह फिल्म तन और मन की नज़रों को प्रयोग करते हुए, मेरे कहने पर.

The world seems to have No Future

Oscar wilde, Osho, Khushwant Singh and people like them, I respect them, I love them. Had the world listened to their words, it would have been far better. But the world has fallen into the hands of the rogues, marching towards collective suicide. There is no future, if everything goes on as it is going on.

मैं और श्रीमति जी.....ट्रेड फेयर दिल्ली में ...कुछ ही दिन पहले


Tuesday, 28 November 2017

मैं और धर्म

मैं सिरे का अधार्मिक व्यक्ति हूँ. किशोर-अवस्था से. गुरूद्वारे में ग्रन्थ-साहेब-जी-दी-ग्रेट के सामने किसी के मत्था टेके पैसे उठा लिए एक बार. फिर सोचा मन्दिर में हाथ आज़माया जाए, लेकिन कुछ हासिल न हुआ सिवा चरणामृत के. बंगला साहेब गुरूद्वारे जाना होता है, परिवार की जिद्द की वजह से, मुझे सिर्फ दो चीज़ पसंद हैं.....एक कड़ाह प्रसाद, दूजा लंगर प्रसाद. शनिवार को वो जो बर्तन में सरसों का तेल डाल के मंगते घूमते हैं न, उनमें से एक का तेल से भरा डोलू (बर्तन) ही धरवा लिया था मैंने. मोहल्ले में भागवत कथा हो रही है. मैं बीवी जी को कह रहा था, "मैं भी जा सकता हूँ क्या?" बीवी ने कहा, "नहीं. हमने मोहल्ले भर से लड़ाई नहीं करनी." "पंडित जी से पूछ तो लेता कि शंकर जी ने कौन सी विद्या से हाथी का सर इन्सान के धड़ से जड़ दिया था? पंडित जी की गर्दन काट कर भी ऐसा ही चमत्कार किया जा सकता है क्या? ट्राई करने में क्या हर्ज़ है? फिर सारी दुनिया उनकी भी पूजा करेगी. मॉडर्न गणेश जी. नहीं?" "नहीं....नहीं." "हनुमान जी तो उड़ते थे, जंगल-पहाड़ लाँघ जाते थे. ज़रा पंडी जी को भी दसवें माले से नीचे फेंक के देखते हैं, इन पर भी तो भगवान की कृपा होगी, आखिर दिन-रात भागवत जो करते हैं. नहीं?" "नहीं....नहीं....नहीं." भगवान आधी से ज्यादा आबादी के लिए सर-दर्द बना हुआ है. कोई आस्तिक है तो कोई नास्तिक. मुझे यह शब्द सुनते ही नींद आने लगती है. मुझे लगता है कि जिनके जीवन को मृत्यु का डर ढांप लेता है, वो ज्यादा रब्ब-रब्ब करते हैं, वरना जीवन से भरपूर व्यक्ति कहाँ चिंता करता है कि जीवन से पहले क्या था, जीवन के बाद क्या होगा? कौन पड़े इस बकवास में कि दुनिया किसी रब्ब ने बनाई कि किसी बिग-बैंग ने? मुझे तो विश्वास करने में ही विश्वास नहीं है. लोग तो हिजड़ों तक की दुआ-बद्दुआ पर विश्वास करते हैं. डरते हैं. रेड-लाइट पर भीख की कमाई करने में सबसे आगे हिजड़े होंगें. कितने असली हैं या कितने उनमें से नकली, यह अलग शोध का विषय है. शादी के बाद हिजड़े सुबह-सवेरे मेरे घर में शोर-शराबा कर रहे थे. माता-पिता जो दे रहे थे, वो उनकी नाक के नीचे नहीं आ रहा था. मैं उठा, प्यार से समझाया, जो उन्हें समझ न आया. कौन समझता है प्यार से? तुरत 100 नम्बर पर फोन कर दिया और बाहर आ कर हिजड़ों को बता दिया कि तुम से बड़े बदमाश आ रहे हैं, तुम्हें थोड़ा दान-दक्षिणा देने. हिजड़े शायद समझ गए, तुरत तितरी हो गए. सड़क पर ढोल बजाती औरत, उसके साथ अपने जिस्म पर हंटर चलाता आदमी. सटाक....सटाक. पैसे मांग रहे हैं, जैसे जिस्म पर हंटर नहीं कद्दू में तीर चल रहा हो. मैंने कहा, "ला मैं लठ बजा दूं तेरे जिस्म पर, फिर ले जाना पैसे". भाग गए. मैं नितांत अधार्मिक व्यक्ति हूँ. रावण जलाने के लिए धन इक्कठा करने वालों को चवन्नी नहीं दी लेकिन एक अंकल जो बड़ी मेहनत से ट्रैफिक मैनेज कर रहे थे, उनको बुला कर सौ का नोट दे दिया.
घर के पास वाले पार्क में घूमता हूँ तो अक्सर बुज़ुर्ग सामने से 'राम-राम' करते हैं. मैं 'नमस्ते जी' ही कहता हूँ. एक अंकल को मज़े-मज़े में 'रावण-रावण' कह दिया. पकड़ ही लिए मुझे. 

"क्यों भई? यह क्या बोला जवाब में?" 
"कुछ नहीं अंकल, वो रावण भी तो महान था न?"

"नहीं तो उसे राम के बराबर का दर्ज़ा दोगे क्या?"
"अंकल उसके दस सर थे. ब्राहमण था. अन्त में लक्ष्मण उससे ज्ञान लेने भी तो जाता है, तो थोड़ा सा सम्मान, थोड़ा सा क्रेडिट रावण को भी देना चाहिए कि नहीं?"

अंकल थोड़ा सोच में पड़ गए और मैं निकल लिया पतली गली से.
मृत्यु क्रिया में बैठ पंडित जी-भाई जी का क्रन्दन सुनना मुझे बेहोश कर जाता. "जीवन क्षण-भंगुर है, अस्थाई है." मैं सोचता जब जीवन इतना क्षण-भंगुर है, अस्थाई है तो मैं इसे इनकी बक-बक सुनने में क्यों बेकार करूं? वैसे ही इतना कम है जीवन. ऐसी क्रियाएं तकरीबन एक घंटे की होतीं हैं लेकिन अब आखिरी पांच मिनटों में ही एंट्री करता हूँ.
कान-फोडू लाउड-स्पीकरों की मदद से ये जो धार्मिक कीर्तन-जागरण-अज़ान करते हैं लोग, इनको तो उम्र-कैद होनी चाहिए. नहीं? ट्रैफिक रोक कर लंगर बांटने वाले, मीठा दूध पिलाने वाले धार्मिक हैं या अधार्मिक इसका फैसला भी समाज को करना चाहिए. सड़क पर बैठ नमाज़ पढ़ते लोग और कांवड़ियों की आव-भगत के लिए लगे शिविर देखिये. कितना धार्मिक है यह सब. लेकिन मैं ही पता नहीं क्यों इतना अधार्मिक हूँ, जिसे इनको देख झुंझलाहट होती है? इस्लाम में मोहम्मद साहेब जी दी ग्रेट को आखिरी पैगम्बर माना गया है अल्लाह ताला का. मतलब उनके बाद अल्लाह ने पैगम्बर भेजने वाली अपनी फैक्ट्री पर ताला जड़ दिया. यह कंसेप्ट मुझे कभी भी समझ ही नहीं आया. मेरी नज़र में जो भी दुनिया की बेहतरी का कोई पैग़ाम दे वो पैगम्बर है. आखिरी का तो सवाल ही नहीं. रोज़ नए पैगम्बर आते हैं और आते रहने चाहियें. खैर, ऐसा नहीं कि मैं शुरू से ऐसा था. अगर आप ब्रूस-ली की फिल्म देख कर निकलो तो एक बार तो मन करता है कि उसी की तरह दो-चार लोग धुन दो. ऐसे ही बचपने में भगत प्रहलाद पर फिल्म देख मैं भी लगा नारायण-नारायण करने. घर के मन्दिर के सामने बैठा रहता घंटो. बस नारायण प्रकट हुए ही हुए. लेकिन फिर किशोर-अवस्था तक पहुँचते-२ जब किताबी दुनिया ने मेरे दिमाग में प्रवेश करना शुरू किया तो खराबा हो गया और मैं अधार्मिक किस्म का हो गया. ये जो लड़ी-वार विशाल भगवती जागरण करवाते हैं लोग, या फिर साईं बाबा की चौकी, इन्हें देख मुझे लगता है कि मुल्क का यौवन बूढ़ा हो गया है. जवानी आई ही नहीं इन पर. मतलब इनकी सोच पर. बूढ़ी सोच ने इनको ढक लिया पूरी तरह से. इन्हें कोई वैज्ञानिक खोज नहीं करनी है, इन्हें कोई सामाजिक बेहतरी के प्रोग्राम में शामिल नहीं होना है, इन्हें जागरण-चौकियां और लीलाएं करवानी हैं बस. "यूनान, मिश्र, रोम मिट गए सब जहाँ से, कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी. सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोसिताँ हमारा." यह कोई गर्व की बात है कि यूनान और मिश्र ने तो अपनी पुरानी सभ्यता छोड़ दी लेकिन हमारा युवक आज भी उसे ढोए जा रहा है, जो उसके पुरखे-चरखे ढोते थे. यह गर्व नहीं शर्म का विषय है. यह यौवन यौवन है ही नहीं. मेरी रूचि सिर्फ समाज की बेहतरी में है, लेकिन मैं तो नितांत अधार्मिक व्यक्ति हूँ, नक्कार-खाने की तूती हूँ, टूटी हुई टूटी हूँ. तुतियाता रहता हूँ, टिप-टिपाता रहता हूँ. कुछ समय पहले कुछ कवित्त जैसा लिखा था, हाज़िर है. ::: धर्म ::: धर्म का हिन्दू-मुस्लिम से क्या मतलब? धर्म है कुदरत को धन्यवाद... धर्म है खुद की खुदाई.... धर्म है दूसरे का सुख दुःख समझना..... धर्म है दूसरे में खुद को समझना.... धर्म है विज्ञान ... धर्म है प्रेम..... धर्म है नृत्य..... धर्म है गायन ..... धर्म है नदी का बहना.... धर्म है बादल का बरसना... धर्म है पहाड़ों के झरने.... धर्म है बच्चों का हँसना...... धर्म है बछिया का टापना..... धर्म है प्रेम-रत युगल...... धर्म है चिड़िया का कलरव...... धर्म का मोहम्मद से, राम से क्या मतलब? धर्म का गीता से, कुरआन से क्या मतलब? धर्म का मुर्दा इमारतों, मुर्दा बुतों से क्या मतलब? धर्म है अभी.... धर्म है यहीं.... धर्म है ज़िंदा होना... धर्म है सच में जिंदा होना.... धर्म का हिन्दू-मुस्लिम से क्या मतलब? नमन.....तुषार कॉस्मिक

Sunday, 26 November 2017

नमन शहीदों को?

सीमा पर कोई जवान मरेगा, तो सरकारी अमला सलाम ठोकेगा उसकी लाश को, शायद उसे कोई तगमा भी दे दे मरणोंपरांत, हो सकता है उसके परिवार को कोई पेट्रोल पंप दे दे या फिर कोई और सुविधा दे दे. शहीदों को सलाम. नमन. किसी दिन कूड़ा उठाने वाली निगम की गाड़ी न आई हो तो झट से कूड़े को ढक दिया जाता है, बहुत अच्छे से, ताकि बदबू का ज़र्रा भी बाहर न आ सके. यह शहीदों का सम्मान-इनाम-इकराम सब वो ढक्कन है जो संस्कृति के नाम पर खड़ी की गई विकृति की बदबू को बाहर नहीं फैलने देता. "ऐ मेरे वतन के लोगों ज़रा आँख में भर लो पानी जो शहीद हुए हैं उनकी ज़रा याद करो क़ुरबानी." शहीद! वतन के लिए मर मिटने वाला जवान!! गौरवशाली व्यक्तित्व!!! है न? गलत. कुछ नहीं है ऐसा. जीवन किसे नहीं प्यारा? अगर जीवन जीने लायक हो तो कौन नहीं जीना चाहेगा? जो न जीना चाहे उसका दिमाग खराब होगा. और यही किया जाता है. दिमाग खराब. वतन के लिए शहीद हो जाओ. असल में तुम्हारे सब शहीद बेचारे गरीब हैं, जिनके पास कोई और चारा ही नहीं था जीवन जीने का इसके अलावा कि वो खुद को बलि का बकरा बनने के लिए पेश कर दें. एक मोटा 150 किलो का निकम्मा सा आदमी फौज में भर्ती होता है और जी जान से देश सेवा करता है। जी हाँ, शहीद होकर, वो और कुछ नहीं कर पाता लेकिन दुश्मन की एक गोली जरूर कम कर देता है. तुमने-तुम्हारी तथा-कथित महान संस्कृति ने उन गरीबों के लिए कोई और आप्शन छोड़ा ही नहीं था सिवा इसके कि वो लेफ्ट-राईट करें और जब हुक्म दिया जाए तो रोबोट की तरह कत्ल करें और कत्ल हो जायें. बस. तो अगली बार जब कोई जवान शहीद हो और उसे सम्मान दिया जाए तो कूड़े-दान के ऊपर पड़े ढक्कन को याद कीजियेगा. कितने जवान अमीरों के, बड़े राजनेताओं के बच्चे होते हैं, कितने प्रतिशत, जो फ़ौज में भर्ती होते हों, जंग में सरहद पर लड़ते हों...शहीद होते हैं? नगण्य. यदि शहीद होना इतने ही गौरव की बात है तो क्यों नही आपको अम्बानी, अदानी, टाटा, बिरला आदि के बच्चे फ़ौजी बन सरहद पर जंग लड़ते, मरते दीखते? यदि शहीद होना इतने ही गौरव की बात है तो क्यों नही आपको गांधी परिवार के बच्चे, भाजपा के बड़े नेताओं के बच्चे या किसी भी और दल के बड़े नेताओं के बच्चे फ़ौजी बन सरहद पर जंग लड़ते-मरते दीखते? नहीं, इस तरह से शहीद होना कोई गौरव की बात नहीं है. असल में यदि सब लोग फ़ौज में भर्ती होने से ही इनकार कर दें तो सब सरहदें अपने खत्म हो जायेंगी. सारी दुनिया एक हो जायेगी. लेकिन चालाक लोग, ये अमीर, ये नेता कभी ऐसा होने नहीं देंगे, ये शहीद को glorify करते रहेंगे, उनकी लाशों को फूलों से ढांपते रहेंगे, उनकी मूर्तियाँ बनवाते रहेंगे और खुद को और अपने परिवार को AC कमरों में सुरक्षित रखेंगे. समझ लें, असली दुश्मन कौन है, असली दुश्मन सरहद पार नहीं है, असली दुश्मन आपका अपना अमीर है, आपका अपना सियासतदान है. वो कभी आपको गरीबी से उठने ही नही देगा, वरना आप अपने बच्चे कैसे जाने देंगे फ़ौज में मरने को. वो कभी आपको असल मुद्दे समझ आने नही देगा, वरना आप अपने बच्चे कैसे जाने देंगे फ़ौज में मरने को. लेकिन यहाँ सब असल मुद्दे गौण हो जाते हैं, बकवास मुद्दों से भरा रहता अखबार-सारा संसार. और यह भी साज़िश है, साज़िश है इन्ही लोगों की है. अभी-अभी एक अंग्रेज़ी फिल्म देखी थी हंगर गेम्स, उसमें ट्रेनर अपनी शिष्या को समझाता है कि हर दम ध्यान रखो, असली दुश्मन कौन है क्योंकि असली दुश्मन बहुत से नकली दुश्मन पेश करता है और खुद पीछे छुप जाता है इनके . मेरा भी आपसे यही कहना है कि ध्यान रखें असली दुश्मन कौन है. "इक साज़िश है, गरीब गरीब ही रहें गरीब ही रहें, तभी तो कमअक्ल रहेंगे गरीब ही रहें, तभी तो गटर साफ़ करेंगे गरीब ही रहें, तभी तो फ़ौजी बन मरेंगे गरीब ही रहें, तभी तो जेहादी बनेंगे इक साज़िश है, गरीब गरीब ही रहें और सब शामिल हैं सियासत शामिल है कारोबार शामिल है तालीम शामिल है मन्दिर शामिल है मस्जिद शामिल है इक साज़िश है, गरीब गरीब ही रहें कब कोई बच्चा गरीब पैदा होता है कब कोई कुदरती फर्क होता है इक सारी उम्र एश करे दूजा घुटने रगड़ रगड़ मरे इक सवार, दूजा सवारी इक मजदूर, दूजा व्योपारी इक साज़िश है, गरीब गरीब ही रहें" अब तुम भी जागो. विचारों. अक्ल का घोडा दौड़ाओ. कोई ठेका नहीं लिया कुछ चुनिन्दा लोगों ने शहीद होने का. तुम तो अपने बकवास सदियों पुराने विचार शहीद करने को तैयार नहीं ....ज़रा सी चोट पड़ते ही....लगते हो चिल्लाने ...लगते हो बकबकाने...गालियाँ देने. और दूसरे कोई लोग होने चाहिए जो अपने आप को शहीद करें और तुम पूजोगे बाद में अपने शहीदों को. तुम उनकी मूर्तियाँ बना के पूजा करने का नाटक करते रहोगे. नहीं, कुछ न होगा ऐसे ...ये सब नहीं चलना चाहिए........तुम्हे बलि देनी होगी अपने विचारों की.....तुम्हें शहीद करना होगा अपनी सड़ी गली मान्यताओं को. कोई फायदा न होगा व्यक्ति शहीद करने से. फायदा होगा विचार शहीद करने से...फायदा होगा समाज की, हम सब की कलेक्टिव सोच ..जो सोच कम है अंध विश्वास ज़्यादा...उस सोच पे चोट करने से...फायदा होगा इस अंट शंट सोच को छिन्न भिन्न करने से. फायदा होगा धर्म के नाम पे, राजनीती के नाम पे, कौम के नाम पे, राष्ट्र के नाम पे और नाना प्रकार के विभिन्न नामों पे जो वायरस इंसानों में, आप में , मुझ में, हम सब में पीढी दर पीढी ठूंसे गए हैं, उन वायरस के विरुद्ध जंग छेड़ने से. फायदा होगा विचार युद्ध छेड़ने से....फायदा होगा तर्क युद्ध छेड़ने से...फायदा होगा जब यह युद्ध गली गली, नुक्कड़ नुक्कड़ छेड़ा जाएगा. बाक़ी आयें और दोस्तों को भी लायें, मैं सिर्फ बातें करने में यकीन नही करता, ज़मीनी काम करने में भी यकीन है..स्वागत है. नमन...तुषार कॉस्मिक

यादें बचपन की

तूने खाया, मैंने खाया एक ही बात है." और अपनी पसंद की चीज़ माँ मेरे मुंह में ठूंसती जाती थी.
आज काजू लाते हैं तो मैं श्रीमति को कहता हूँ, "मुझ से छुपा के रख दो, बच्चों को पसंद हैं, वो खायेंगे."

यादें

बहुत छोटा था तो कभी-कभार पानी में नमक-मिर्च डाल कर बासी रोटी के साथ भी खिलाई ममी ने.......हमारा परिवार वैसे अच्छा खाता-पीता था लेकिन अब लगता है कि शायद कुछ लोग सब्जी अफ्फोर्ड नहीं कर पाते होंगे तो ऐसे भी खाना खाते होंगे.......वैसे रोटी के घुग्घु में नमक और लाल मिर्च डाल करारा सा बना के भी ममी देतीं थीं कभी-कभी ...शायद तब ज़िन्दगी बेहतर थी....हम आगे जाने की बजाये बहुत मानों में पीछे सरक गए हैं......लेकिन हो सकता है मेरी सोच ही बासी हो, उन बासी रोटियों की तरह......जैसे बच्चे हर त्योहार पर उल्लसित होते हैं लेकिन घिसे लोगों को लगता है, "अब दिवाली पहले जैसे नहीं रही." "अब लोग होली वैसे जोश-खरोश से नहीं मनाते."

Thursday, 23 November 2017

सरकता सरकारी अमला

एक बदतमीज़-नाकारा से सरकारी क्लर्क की तनख्वाह पचास हज़ार रूपया महीना हो सकती है. शायद ज़्यादा भी. 

आपको नहीं लगता कि सरकार सरकारी नौकरों को जितनी तनख्वाहें, भत्ते, सुविधाएं दे रही है उस पर  'अँधा बांटे रेवड़ी, मुड़-मुड़ अपनों को दे' वाली कहावत चरितार्थ है? 

खुली मंडी में इस तरह के लोगों को कोई दस हज़ार रुपये महीने की सैलरी न दे. असल में तो नौकरी ही न दे, ऐसे लोगों को कोई.   

कहते हैं  कि गोरे अँगरेज़  चले गए, काले अँगरेज़ आ गए. ये हैं वो काले अँगरेज़. इन सरकारी लोगों का क्या व्यवहार है जनता के प्रति? ये कोई जनता के नौकर हैं? जनता इन की नौकर है. 

"साहेब मीटिंग में है. साहेब, सिगरेट फूंक रहे हैं. साहेब, मूतने गए हैं. तुम खड़े रहो. लाइन सीधी होनी चाहिए." 

मौज ही मौज. रोज़ ही रोज़. एक बार नौकरी मिल जाए तो व्यक्ति सरकार का जंवाई बन जाता है. निकाल कोई सकता नहीं. जीरो एकाउंटेबिलिटी. कौन नहीं चाहेगा ऐसी नौकरी?

बहुत लोग तो घर ही बैठे रहते हैं, बस तनख्वाह लेने जाते हैं. पता नहीं कैसे करते हैं मैनेज? पर करते हैं.

बहुत जो पचास-साठ हज़ार रुपये माह सैलरी लेते हैं, उन्होंने आगे पांच-दस हज़ार रुपये महीना सैलरी पे बंदे रखे हैं, जो उनका काम निपटाते हैं. 

वाह! कौन नहीं चाहेगा ऐसी नौकरी में आरक्षण? 
दुधारू गाय. 
नहीं, नहीं कामधेनु.

ऐसे लोगों को जो मोटी-मोटी भर-भर के  सैलरी दी जाती है, वो जनता का पैसा है. तो क्या जनता से एक बार पूछ नहीं लेना चाहिए कि भई इनको इतनी तनख्वाह देनी भी चाहिए कि नहीं? sms से ही पुछवा लो. 

वैसे यह  कोई सरकारी आयोग ही तय करता है कि इन निखट्टूओं को कितना पैसा मिलना चाहिए. पे कमीशन. वो सिर्फ 'दे कमीशन' है. वो क्यूँ कहेगा कि सैलरी कम होनी चाहिए? वो खुद सरकारी नौकर है. उसकी खुद की तनख्वाह कम नहीं हो जायेगी? वो तो हर बार इनकी तनख्वाह बढ़वा देगा.

इनको ठीक करने का एक तरीका तो यह है कि जनमत लिया जाए कि इनको सैलरी कितनी मिले. 

दूसरा है कि इनको CCTV तले काम कराया जाए. इनको Wearable movie Camera पहनाया जाये, जिससे इनकी हर वक्त की रिकॉर्डिंग पब्लिक को मिल सके. मतलब जब तक दफ्तर में हैं या दफ्तरी काम में हैं.  कल-परसों ही सुप्रीम कोर्ट ने बोला न कि सब कोर्ट-रूम  में CCTV लगाओ. वहां कुछ भी ऐसा नहीं है जो निजी हो. अच्छा बोला है, लेकिन बहुत देर से बोला है. CCTV को आये दशकों हो है, इनको अब याद आ रहा है कोर्ट-रूम में लगवाना. बहुत देर कर दी साहेब आते-आते. वैज्ञानिक तकनीक ईजाद कर चुकता है, सरकारी अमला उसे अमल में लाने में चूक जाता है, चूँकि उसके छिपे मतलब हैं. जितना सिस्टम पारदर्शी होता जाएगा, उतना ही हेरा-फेरी करना, हराम-खोरी करना उसके लिए मुश्किल जो हो जायेगा. खैर, सुप्रीम कोर्ट को फिर भी धनिया-वाद, पुदीना-वाद. देर आये दुरुस्त आये. आये तो सही.  

तीसरा है कि  अगर कोई  सरकारी नौकर जनता से बेहूदगी करता पाया जाये, काम की टाल-मटोल करता पाया जाये, गैर-हाज़िर पाया जाये तो उसकी सैलरी कटनी शुरू हो जानी चाहिए. और फिर बर्खास्तगी में भी बहुत देर नहीं लगानी चाहिए. अगला बन्दा आपको और सस्ता मिलेगा. वैसे आज भी आधी सैलरी पर मैं अधिकांश सरकारी नौकरों को बदल सकता हूँ. इसी मुल्क से नए लोग आने को  तैयार हो जायेंगे और इनसे बेहतर काम करेंगे. अगर उनसे बेहतरी से काम लिया जाये तो. खेत में खुल्ले सांड की तरह छोड़ देंगे तो वो भी राजा बन जायेंगे और जनता उनकी प्रजा, नौकर.

वक्त आ गया है. सबको समझाने का कि सरकार-सरकारी नौकर सब जनता के नौकर हैं. सबके गले में घंटी बांधने का वक्त आ गया है. सबको कैमरा के नीचे लाने का वक्त आ गया है.

नमन...तुषार कॉस्मिक

Wednesday, 22 November 2017

मोदी का विकल्प

मोदी विदा होना चाहिए लेकिन फिर क्या राहुल आना चाहिए? राहुल गाँधी (?) भारत को दिशा देगा? उसे आँखों पे पट्टी बांध के खेत में खड़ा कर दो और तीन बार गोल घुमा दो, वापिस आँख खोलने पे उसे खुद पता न लगे कि कौन सी दिशा में खड़ा है. पीछे वंश न हो और धन न हो तो पंचायत का चुनाव न जीत पाए. तो मितरो, आपका अगला प्रधान-मंत्री फिर कौन होना चाहिए. जवाब है---मैं यानि तुषार कॉस्मिक. या फिर आप खुद. हमारा मुल्क है. जनतंत्र की परिभाषा के मुताबिक हम में से कोई भी प्रधान-मंत्री, मुख्य-मंत्री, MP, MLA कुछ भी बन सकता है. तो जब कोई पूछे कि मोदी का, राहुल का विकल्प कौन है तो कहिये, "मैं हूँ".

Monday, 20 November 2017

भारतीय संस्कृति -- एक लाश

जब तक यह तथा-कथित भारतीय संस्कृति जो सिर्फ एक लाश भर है, इसे विदा नहीं करेंगे, भारत की आत्मा मुक्त न होगी. यह विदा हो ही जाती, लेकिन आरएसएस ने इस लाश को भारतीय मनस पर जबरन लाद रखा है. आरएसएस को डर है कि कहीं कोई और लाशें भारत की आत्मा पर सवार न हो जायें. कहीं इस्लाम हावी न हो जाये, कहीं ईसाइयत हावी न हो जाये. सो अपनी लाश को सजाते-संवारते रहो. स्वीकार ही मत करो कि यह लाश है. पंजाब में एक बाबा गुज़र चुके हैं, दिव्य-जाग्रति वाले आशुतोष जी महाराज, लेकिन उनके चेले-चांटे स्वीकार ही नहीं कर रहे कि वो मर चुके हैं. लाश को डीप-फ्रीज़र में रख रखा है. "मेरे करण-अर्जुन आयेंगे." बाबा जी शीत-निद्रा में हैं. उनकी आत्मा विचरण कर रही है. किसी भी वक्त वापिस शरीर में प्रवेश करेगी और वो उठ खड़े होंगे. वाह! नमन है, ऐसी भक्ति को. मिश्र में लाशों का ममी-करण क्या है? लाशों के प्रति मोह. अब जब कोई न मानने को तैयार हो तो बहुत मुश्किल है उसे कुछ भी मनाना. मुझे याद है, कॉलेज का ज़माना था. मेरा एक दोस्त था. जसविंदर सिंह. जट फॅमिली से था. बड़ा घर था उसका. हमारे लिए एक अलग ही कमरा था, हम लोग वहीं जमते थे. घंटो बैठे रहते थे. सबको फलसफे गढ़ने का शौक था. बहस भी होती थी. वो डंडा लेकर बैठ जाता. कहता, "बोल, मेरी गल्ल मन्नेंगा कि नहीं." हम हंसते हुए कहते, "मन्न लई, बई मन्न लई." जब तक लट्ठ लेकर कोई मनायेगा नहीं, तब तक ये संघी-मुसंघी मानने वाले हैं नहीं. और वो लट्ठ एक ही लोग पकड़ सकते हैं. वो है भारत का Intelligentsia. आज ज़रूरत है, बहुत-बहुत ज़रूरत है कि भारत का Intelligentsia इन सब लाशों के खिलाफ खड़ा हो. आग बन जाये ताकि इन सब लाशों को फूंका जा सके. सबको विदा किया जा सके. और यह काम कोई नेता या खबर-नवीस लोगों ने नहीं करना है. नेता तो जिंदा ही इस संस्कृति की लाश की नोच-खसोट पर है. और खबर-नवीस भी कबर-नवीस है. अगर आपको लगता भी है कि वो सही बात कर रहा है तो भी वो बहुत काम की नहीं है, चूँकि वो गहरी बात नहीं है. जब तक समस्याओं को गहराई तक न समझा जाये, उनके हल जैसे हल न मिलेंगे. दिल्ली में शीला दीक्षित ने बहुत से पुल बना दिए सडकों पर. उससे क्या हुआ? ट्रैफिक का बहाव पहले से बेहतर हो गया क्या? कुछ नहीं हुआ. और गाड़ियाँ आ गईं. आज भी दिल्ली की सड़क पर बीस किलोमीटर कार चलाने के बाद ऐसा लगता है जैसे किसी से हाथा-पाई कर के आ रहे हों. केजरीवाल ने ओड-इवन चलाया. क्या हुआ? सड़कों पर भीड़ कम दिखी, लेकिन मेट्रो में बढ़ गई. ये कोई हल हैं? गहरे में जाये बिना, कुछ हल न होगा और गहरे में आप तभी जा सकते हो, जब संस्कृति नामक लाश को विदा करने की हिम्मत हो. जब तक पुराने को विदा न करेंगे, नया कैसे पैदा करेंगे? कार में एक होता है 'रियर-व्यू मिरर'. पीछे देखना ज़रूरी है लेकिन सिर्फ आगे बढ़ने के लिए. बस. इतिहास का इतना ही मतलब है. इतिहास का बस प्रयोग करना है, इतिहास से बस सीखना है. इतिहास को पकड़-जकड़-धकड़ के नहीं बैठना है. वैसे भी इतिहास में कितना इतिहास है, यह कभी पता नही लगता, सो इतिहास के प्रति ज़्यादा सीरियस न ही हुआ जाये तो ही बेहतर है. फिर हर पल नया इतिहास बन रहा है. कहाँ तक पुरातनता को लादे रखेंगे? History should be used and there-after must be thrown away. Use & Throw. तो मित्रगण, इतिहास की ज़ंजीरों से जकड़े पाँव मैडल नहीं ला सकते. जो पुरखों और चरखों को अपनी और अपने बच्चों की छातियों पर लादे बैठे हैं, वो भविष्य के कल-कारखानों की कल्पना भी कैसे करेंगे? आँखें पीछे नहीं दीं कुदरत ने, आगे ही दीं हैं. हाँ, इन्हीं आँखों से कभी-कभार पीछे भी मुड़ के देखा जा सकता है लेकिन उल्टा कोई नहीं चलता, पीछे को कोई नहीं चलता. सुना होगा आपने कि भूतों के पैर पीछे को होते हैं. बहुत गहरी बात है. भूत का अर्थ ही है, जो बीत गया, जिसका वर्तमान या भविष्य से कोई सम्बन्ध ही न हो, तो निश्चित ही उसके पैर पीछे को ही होंगे. उसे आगे थोड़ा न चलना है. वो तो है ही भूत. वो तो अग्रगामी हो ही नहीं सकता. आपको देखना है कि कहीं आपके पैर पीछे को तो नहीं, कहीं आप भूत तो नहीं. इतिहास और अंडर-वियर बदलते रहना चाहिए और जल्दी-जल्दी बदलते रहना चाहिए वरना बीमार करना शुरू कर देंगे. जिस इतिहास की एक्सपायरी डेट न हो, वो घातक है. कितना ही शानदार खाना बना हो, चाहे फ्रिज में ही क्यों न रखा हो, लेकिन एक समय बाद बेकार हो जायेगा. कार में एक हेड-लाइट है और एक टेल-लाइट. अब आप टेल-लाइट से हेड-लाइट का काम लेंगे, तो एक्सीडेंट ही करेंगे. बाबरी मस्ज़िद ही नहीं, राम मन्दिर को भी गिराए जाने की ज़रूरत है. कुरआन ही नहीं, पुराण भी विदा करने हैं. सब कचरा है. लाशें हैं. संस्कृति के नाम पर विकृति. जीरो से सब शुरू करने से मतलब नहीं है, आग और पहिये को पुन: आविष्कृत करने से मतलब नहीं है लेकिन बचाना सिर्फ वो चाहिए, जो विज्ञान-सम्मत हो, जो कला-सम्मत हो. जो वैज्ञानिक हो, जो कलात्मक हो. जो ध्यान-सम्मत हो. जो शांति-सम्मत हो. कबीरा खड़ा बाज़ार में, लिए लुकाठी हाथ, जो घर फूंके आपणा, चले हमारे साथ. लेकिन आज कबीर को हाथ में लट्ठ नहीं मशाल लेनी है, जो इस संस्कृति नाम की लाश को फूंक सके. यह लाश सड़ रही है, बदबू मार रही है. समाज को बीमार कर रही है. ज़रा कल्पना करें कि किसी टापू पर कुछ बच्चे छूट गए हों और फिर वो वहीं पल-बढ़ चुके हों, ऐसा टापू जहाँ खाने-पीने रहने की सब सुविधा हो, जहाँ सब आज का विज्ञान भी मौजूद हो. बस किसी धर्म, किसी संस्कृति, किन्हीं पुरखों-चरखों का बोझ नहीं हो. ऐसे बच्चे क्या वापिस हमारी दुनिया में आना चाहेंगे? उन्हें हमारी दुनिया में लाना क्या वाज़िब भी होगा? क्या हमारी ही दुनिया उस टापू जैसी नहीं बन जानी चाहिए? अगर आपका जवाब "हाँ" है तो आपको एक्शन लेने की ज़रूरत है, वो भी तुरत. नमन..तुषार कॉस्मिक

Sunday, 19 November 2017

पद्मावती फिल्म का विरोध

मैं तो नहीं, लेकिन मेरे इर्द-गिर्द घर-परिवार-समाज हिन्दू है और सब कह रहे हैं कि यह पद्मावती फिल्म का विरोध करने वाले बावले हैं. हमारी बला से. वो कथा है या इतिहास यह भी नहीं पता...और अगर इतिहास है भी, तो उसमें कितना इतिहास है, यह भी नहीं पता.....और इतिहास से भंसाली की कहानी कितनी अलग है, यह भी नहीं पता....कव्वा कान ले गया वाली मसल है यह.....असल मुद्दों से... असल समस्या गरीबी, भुखमरी, बेकारी, बेकार न्याय-व्यवस्था, सरक-सरक कर चलती हर सरकारी बे-वस्था से ध्यान हटा कर बकवास मुद्दों में उलझाने की साज़िश. कौन जाने सात सौ साल पहले क्या हुआ था? यहाँ कल का पता नहीं लगता, जितना मुंह, उतनी बातें होती हैं. अगर कत्ल हो जाये तो कोर्ट को बीस साल लग जायेंगे फैसला देने में कि कातिल कौन था और फिर अगले बीस साल बाद हो सकता है कि कोई साबित कर दे कि कोर्ट का फैसला गलत था. None killed Jessica. None killed Arushi. और ये चले हैं सदियों पहले के मुद्दों पर लड़ाई करने. इतिहास-मिथिहास के लिए वर्तमान खराब करने वाले पागल होते हैं. भूतकाल की लड़ाई भूत लड़ते हैं. मुर्दा लोग. जिंदा लाशें. भूतकाल की लड़ाई वो ही लड़ते हैं, जिनका वर्तमान बकवास होता है और भविष्य ना-उम्मीद. इडियट....

भाई कन्हैया

देखिये, मैं इस्लाम के खिलाफ हूँ..लेकिन ऐसे तो फिर मैं हिंदुत्व के भी खिलाफ हूँ और दुनिया के हर दीन-धर्म-मज़हब के खिलाफ हूँ जो माँ के दूध के साथ पिला दिया जाता है तो इसका मतलब क्या यह है कि मैं दुनिया के हर शख्स के खिलाफ हूँ चूँकि अधिकांश तो किसी न किसी दीन-धर्म को मानने वाले ही हैं.

नहीं.

मैं एक मुसलमान  के हित लिए भी उतना ही भिड़ जाऊँगा, जितना कि किसी हिन्दू के लिए. असल में मैं हिन्दू-मुस्लिम देखूँगा ही नहीं.

आपको भाई कन्हैया याद दिलाता हूँ. गुरु गोबिंद सिंह को शिकायत की कुछ लोगों ने कि भाई कन्हैया युद्ध में घायल सिपाहियों को पानी पिलाता है तो दुश्मन के घायल सिपाहियों को भी पिलाता है.

सही शिकायत थी. एक तरफ़ सिक्ख योद्धा जी-जान से लड़ रहे थी, दूजी तरफ भाई कन्हैया दुश्मनों को पानी पिला रहा था.

गुरु साहेब ने क्या कहा? गुरु साहेब ने कहा कि भाई कन्हैया सही कर रहा है. मुझे ठीक-ठीक शब्द पता नहीं है. लेकिन मतलब शायद यही था कि सब में एक ही नूर है. हम सब एक ही हैं.

मारना गुरु साहेब के लिए कोई शौक नहीं था. मज़बूरी थी, अन्यथा तो वो दुश्मन में भी वही "नूर" देख रहे थे और वही नूर भाई कन्हैया भी देख रहा था.

यह एक बहुत ही विरोधाभासी स्थिति थी. बहुत ही विरोधाभासी विचार-धारा थी. लेकिन ज़रा सा गहरे में जायेंगे तो साफ़-साफ दिखने लगेगा.

बहुत बार हम कोई फिल्म देखते हैं तो उसका कोई एक सीन बहुत प्रभावित कर जाता है. जैसे 2012 नामक हॉलीवुड फिल्म के आखिरी में एक बाप को पता होता है कि वो या तो खुद बचेगा या उसके बच्चे. तो वो अपने दोनों बच्चों को बचाता है और खुद मारा जाता है.

सुष्मिता सेन की एक फिल्म के अन्त में वो अपने गोद लिए बेटे के लिए अपना दिल दे जाती है आत्म-हत्या करके.

ऐसे ही मुझे यह भाई कन्हैया वाला एपिसोड बार-बार याद आता है. बार-बार कुछ समझता है, कुछ सिखाता है. यह एपिसोड मुझे गुरु गोबिंद सिंह की संत-सिपाही वाली थ्योरी का प्रैक्टिकल लगता है.

वाह! गोबिंद सिंह जी. वाह! भाई कन्हैया जी. नमन.

तुषार कॉस्मिक

Saturday, 11 November 2017

कहते हैं कि शिक्षार्थी तो सीखता ही है, सिखाते हुए शिक्षक भी सीखता है. यह मैंने सोशल मीडिया पर लिखते हुए बहुत महसूस किया. मैंने अपने विचार, अपनी ओपिनियन, अपने जीवन की घटनाएं लिखी हैं. बहुत कुछ ज़ेहन में था तो सही, लेकिन वो उतना क्लियर नहीं था जितना लिखते-लिखते हो गया और फिर आप मित्रों के कमेंट ने उस सोच को और निखार दिया. धन्यवाद सोशल मीडिया का और आप सब मित्रों का जो पढ़ते हैं और अपने विचार भी लिखते हैं.
बड़ा ही प्यारा जानवर था, मालिक भी उसे बहुत प्यार करता था, उसे भी मालिक पर पूरा विश्वास था. मालिक कभी उसे चोट नहीं पहुँचने देता था. खूब खिलाता-पिलाता था.
फिर कुलदेवता का उत्सव दिवस आया. मालिक ने उसे बलि चढ़ा दिया और उसका मांस मालिक के परिवार ने चाव से खाया.
असल में जानवर 'जनता' है, कुलदेवता का उत्सव दिवस 'वोटिंग दिवस' है और मालिक 'नेता' है.

Wednesday, 8 November 2017

दिल्ली वालों को समझ ही नहीं आया कि उन्हें केजरीवाल को चुनने की सजा दी जा रही है. मूर्खों ने फिर से MCD में भाजपा को चुन लिया. पहले ही कूड़ेदान थी दिल्ली अब कूड़ाघर बना गई और ऊपर से गैस चैम्बर भी....वैसे भी संघ हिटलर में यकीन रखता है. न समझोगे तो मिट जाओगे ए हिंदुस्तान वालो, तुम्हारी बरबादियों के चर्चे हैं हवाओं में. धुयें से भरी हवाओं में.
जब आप धिन्चक पूजा, राधे माँ, स्वामी ॐ का कोई एपिसोड देखते हैं तो एक किताब आत्म-हत्या कर लेती है और जब भी आप बिग-बॉस का एक एपिसोड देखते हैं तो एक लाइब्रेरी आत्म-हत्या कर लेती है.
नाना पाटेकर अग्निसाक्षी फिल्म में जैकी श्राफ को, "आप बड़े हैं, बहुत बड़े हैं साहेब. लेकिन आपके बड़े होने से हम छोटे नहीं हो जाते."
"आप बहुत बड़े वकील हैं सर , बहुत सीनियर आप की चालीस साल की प्रैक्टिस है...लेकिन आपके सीनियर से हम जूनियर नहीं हो जाते...हम हम हैं." एक नया वकील

Friday, 20 October 2017

शब्द

"अरे भाई, एक सेल्फी खींचना मेरी."

"समय चार बजे, तिथी बीस, नवम्बर दो हज़ार सत्रह को हमारे यहाँ मुख्य अतिथि होंगे श्रीमान महादेव प्रसाद." 

 "हमारे इलाके की MCD चेयरमैन चुनी गईं श्रीमति बिमला देवी."

 "प्रतिभा पाटिल हमारी राष्ट्रपति थीं."

 सेल्फी सेल्फ यानि खुद की खुद ही लेना है. लेना मतलब फोटो. मैं कोई हस्त-मैथुन की बात नहीं कर रहा. तो कोई और कैसे ले सकता है? कोई और लेगा तो फिर यह सेल्फी कैसे होगी? है कि नहीं? "एक सेल्फी खींचना मेरी." इडियट!

 तिथी छोड़ो, समय तक निश्चित है, फिर भी 'अतिथि'!

 स्त्री हैं फिर भी "चेयरमैन"! और स्त्री हैं फिर भी पति! 'चेयर-वुमन' कहने में शर्म आती है तो शब्द प्रयोग होता है चेयर-पर्सन. लेकिन 'राष्ट्र-पत्नी' तो अभी कोई शब्द घड़ा ही नहीं गया. क्या करें? हाय-हाय ये मज़बूरी. राष्ट्र का पति कोई हो जाये, यह तो बरदाश्त है, लेकिन पत्नी! यह तो शोचनीय, शौचनीय है.  

कैसे शब्दों का उल्ट-पुलट प्रयोग करते हैं हम, ये कुछ मिसाल हैं. 

 बहुत पहले एक नाटक देखा था बॉबी भाई के साथ. पता नहीं उनको याद होगा या नहीं. "मिर्ज़ा ग़ालिब इन दिल्ली." एक सीन था उसमें, ग़ालिब आते हैं दिल्ली और उनको तांगा पकड़ना है कहीं पहुंचने को. तो वो स्टैंड पर खड़े हैं और टाँगे वाला आवाज़ लगा रहा है, "दो रुपये सवारी, दो रुपये सवारी." अब ग़ालिब तो ग़ालिब. वो अड़ गए, "भैया हम 'सवार' हैं, 'सवारी' तो आपका तांगा है." उसे समझ नहीं आया. वो फिर शुरू, "दो रुपये सवारी, दो रुपये सवारी...." तो ऐसे ही बकझक चलती है.  

दो  शब्द हैं भैया....पंजाब में इसका अर्थ 'ब्रदर' नहीं है. इसका अर्थ है पूरबिया/ लेबर/ बिहारी/ .

और ब्रदर के लिए जानते हैं क्या शब्द है पंजाब में? "वीर". जिसका असली मतलब है बहादुर.

"वेस्ट बंगाल" भारत का पूर्वी राज्य है. है पूरब में लेकिन नाम है 'पश्चिम बंगाल'. कभी रहा होगा बंगाल का हिस्सा तो ठीक ही था नाम, पश्चिमी बंगाल. लेकिन आज तो भारत का हिस्सा है, फिर भी नाम पुराने चलते रहते हैं. आप रखते रहो नाम बदल के राजीव गांधी चौक, लेकिन आज भी लोग "कनाट प्लेस" बोलते हैं. मैंने किसी को महात्मा गाँधी मार्ग या हेडगवार मार्ग बोलते नहीं देखा, लोग आज भी रिंग रोड़ और आउटर रिंग रोड़ ही बोलते हैं. पंजाब  पंज आब यानि पांच नदियों वाला प्रदेश था.  अब उसके पल्ले बस दो नदियाँ रह गई हैं, वो अब दुआबा है लेकिन हम तो आज भी पंजाब ही बोलते हैं. पुराना पकड़ लेता है तो बस जकड़ लेता है, छोड़ता ही नहीं.

'सौराष्ट्र' आज गुजरात का हिस्सा है, इसके नाम से लगता है कि किसी समय यह अपने आप में एक राष्ट्र माना जाता होगा, 'सुराष्ट्र', अच्छा राष्ट्र. असल में ऐसे और भी छोटे-छोटे राष्ट्र हुआ करते होंगे, तो उन्हीं में से कुछ का जोड़ बना होगा 'महाराष्ट्र', जो आज भारत राष्ट्र का एक प्रदेश है. राष्ट्र में महाराष्ट्र. छोटे डिब्बे में बड़ा डिब्बा! और फिर गुजरात शायद गूजरों का ही राष्ट्र रहा हो, नहीं? शब्द बहुत कहानी कह देते हैं.

अंग्रेज़ी का शब्द है 'राशन'. इसका अर्थ क्या समझते हैं हम? दाल, चावल, चीनी, गेहूं. यही न? लेकिन नहीं है इस शब्द का यह मतलब. राशन शब्द का अर्थ है 'कुछ ऐसा' जिसे सीमित कर दिया गया हो. राशन कार्ड से जो सामान मिलता है वो सीमित मात्रा में ही मिलता है. लेकिन अगर हम कहीं भी और से दाल, चावल, चीनी, गेहूं लेंगे तो वहां तो कोई राशनिंग नहीं है. लेकिन हम अधिकांशत: वहां भी "राशन" ही लेते हैं. 

'स्वस्थ' शब्द को हम हेल्दी व्यक्ति के लिए प्रयोग करते हैं, लेकिन अर्थ है इसका, स्वयं में स्थित, स्व-स्थ. ध्यान का अर्थ है ध्यान पर ध्यान. लेकिन ध्यान पर दुनिया-जहाँ की बकवास है. और स्वास्थ्य के तो पता नहीं क्या अर्थ-अनर्थ हैं?

शब्दों पर ध्यान दीजिये, बहुत कहानी शब्द ही खोल देते हैं. 'दीदी' शादी के बाद 'जीजी' हो जाती हैं चूँकि अब सम्बन्ध जीजा के ज़रिये है. जीजा प्रमुख हो गए. 'जीजा जी' के आगे भी 'जी' है और पीछे भी 'जी' है, मतलब आपको सिर्फ उनके लिए 'जी' ही 'जी' करनी है. 

अंग्रेज़ी का ही शब्द है 'हसबैंड'. कहते हैं 'हसबैंडरी' से आया है, जिसका अर्थ है खेती-बाड़ी. तो कुल जमा मतलब यह कि कहीं-न-कहीं पति का कंसेप्ट खेती-बाड़ी से जुड़ा है. खेती आई तो पीछे-पीछे पति भी आ गया. 

'हरामज़ादा' शब्द हरम में पैदा हुए बच्चों के लिए प्रयोग हुआ लगता है. मतलब वो बच्चे, जिनकी माताएं बादशाह की रानियाँ नहीं थीं, बस सम्भोग के लिए प्रयोग की जाने वाली लेबर थीं. तो उनसे पैदा हुए बच्चों को दोयम दर्ज़े का माना जाता रहा होगा. हरामज़ादे. अंत:पुर-वासिनियों के बच्चे. दासी पुत्र-पुत्री टाइप. शब्दों पर ध्यान दीजिये, बहुत कहानी शब्द ही खोल देते हैं.

मैं भी कुछ-कुछ शब्दों के अर्थ और अर्थों के शब्द बदल देता हूँ.
'ब्रह्मचारी' वो जो खूब सेक्स करे चूँकि सारे ब्रह्मांड में सेक्स का ही पसारा है.

असुर वो जो सुरा (शराब) न पीये और सुर(देवता) वो जो सुरा पान करें.
राक्षस वो जो रक्षा करें.

आस्तिकता का अर्थ है अस्तित्व को समझने का प्रयास. इस प्रकार सारे वैज्ञानिक आस्तिक हैं. और सारे पुजारी, मौलवी, पादरी नास्तिक हैं क्योंकि अस्तित्व को जानने समझने के रास्ते में सबसे जादा रोड़े, चट्टान, पहाड़ यही अटकाते हैं.

कहते ही हैं, शब्द का वार तलवार के वार से भी भयंकर होता है. शब्द ब्रह्म है. मैं तो कहता हूँ शब्द ब्रह्मास्त्र है. बहुत सोच कर चलायें. आप तो बेहोशी में जीते हैं. न आपको अपने तन का होश, न मन का. थोड़ा होश में आयें. आपके बेहोशी में कहे गए शब्द, किसी का जीवन बिगाड़ देते हैं. 


मैं पहले भी ज़िक्र कर चुका हूँ, बहुत पहले लैंड-मार्क फोरम अटेंड किया था मैंने. साउथ दिल्ली स्थित "हरे रामा, हरे कृष्णा मन्दिर" में. एक सरदार जी थे वक्ता. तीन दिन लगातार. सोने तक का समय मुश्किल मिलता था. उस सारी एक्सरसाइज का जो नतीजा उन्होंने निकाला अंत में, वो यह कि इन्सान एक मशीन है जो दूसरों के कहे शब्दों को कभी-न कभी पकड़ के खुद को डिफाइन कर लेता है और उस डेफिनिशन के आधार पर ही उसके जीवन का ब्लू प्रिंट बन जाता है.  वो शब्द, दूसरों के कहे शब्द उसके मन पर इंप्रिंट हो जाते हैं और ब्लू प्रिंट बना जाते हैं. 

बात सही है. मैं आठवीं तक एक औसत स्टूडेंट था. आठ क्लास कैसे पास हो गईं, मुझे पता ही नहीं. फिर एक बार एक टीचर ने मेरी पढाई-लिखाई की  कुछ प्रशंसा कर दी और बस मैं उनके शब्दों को सही साबित करने लगा. उसके बाद मैंने हर एग्जाम टॉप किया. 

दिक्कत यह है कि लोग शब्दों की ताकत नहीं समझते. शब्दों का सही प्रयोग नहीं समझते. मिसाल के लिए लोग अक्सर किसी की ख़ूबसूरती की प्रशंसा करते हैं, वहां तक ठीक लेकिन किसी की शक्ल नरम हो तो भी कमेंट करने से नहीं चूकते, बिना यह समझे कि उनके शब्द सामने वाले को कितनी चोट पहुँचायेंगे. खास करके तब जब न तो सामने वाले की कोई गलती है और न ही अपने नाक-नक्शे में वो कोई खास सुधार कर सकता है. लेकिन आपने अपने कमेंट से अगले के सेल्फ-कॉन्फिडेंस की वाट लगा दी. कई बार तो सारे जीवन का रुख ऐसा एक ही कमेंट मोड़ देता है. मैंने कहीं पढ़ा था कि चाहे हम लड़ाई-झगड़े में लाख एक दूजे को धमकाने के लिए चिल्लाते रहें कि मैं ये हूँ, मैं वो हूँ लेकिन भीतर से हमारी सेल्फ-इमेज बहुत बकवास होती है, छिन्न-भिन्न होती है. 

शब्द ब्रह्मास्त्र है. सोच कर प्रयोग करें.

शब्दों पर ध्यान दीजिये, बहुत पोल तो शब्द ही खोल देते हैं. आप "जीजा जी" बोलते हैं या "बहन का खसम", चाहे अर्थ एक ही हो, लेकिन आपके शब्दों का चुनाव आपके बारे बहुत भेद खोल देता है. 

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