Wednesday 11 May 2022

रोटी कपड़ा और मकान, जीवन की तीन पहली ज़रूरतें हैं~ सच में?

हम्म.......मैं असहमत हूँ. कुछ-कुछ.
"रोटी"
रोटी नहीं, फल हैं जीवन की ज़रूरत. कुदरती खाना. धो लो बस और खा लो. यह क्या है पहले गेहूं उगाओ, फिर पीसो, फिर गूंथों, फिर रोटी बनाओ, फिर घी लगाओ, फिर खाओ? इतना लम्बी प्रक्रिया! फिर ऐसे ही तो खा भी नहीं सकते. उसके लिए सब्ज़ी अलग से पकाओ. फिर साथ में अचार और पता नहीं क्या-क्या.....यह सब अप्राकृतिक है. खाना है ज़रूरत, लेकिन वो खाना रोटी ही है, इस से मैं असहमत हूँ. मेरे गणित से इन्सान न माँसाहारी है और न ही शाकाहारी. इन्सान फलाहारी है.
और इन्सान ने खेती कर कर ज़मीन चूस ली है. मैंने सुना है, पंजाब, हरियाणा जैसे प्रदेशों में धरती की उपजाऊ शक्ति काफी घट गयी है.
इसीलिए ज़हरीली खाद डाल-डाल धरती को चूसा जाता है, धरती माता का रस निकाला जाता है, ठीक वैसे ही जैसे भैंस मौसी या गाय माता का अतिरिक्त दूध निकालने के लिए इंजेक्शन ठोके जाते हैं.
बेहतर यही था कि इन्सान धरती पर जंगल रहने देता. थोड़ी ज़मीन अपने रहने के लिए साफ़ करता बाकी जगह पेड़-पौधे रहते तो ज़मीन कहीं ज़्यादा खुश-हाल होती. पेड़-पौधों पर उगे, फल-फूल से काम चलाता तो कहीं स्वस्थ भी रहता.
"कपड़ा" कपड़ों की ज़रूरत है लेकिन उतनी नहीं जितनी समझी जा रही है. मुझे लगता है कि तमाम इंसानियत कपड़ों के प्रति बहुत आसक्त है, मोहित है, पग्गल है. कपड़ा तुम्हें सर्दी से बचा सकता है. धूल-धक्कड़ से बचा सकता है, तेज धूप से भी बचा सकता है. तुम्हारे मल-मूत्र विसर्जन के अंग-प्रत्यंग, तुम्हारे जनन अंग ढक सकता है. इस सब के लिए कपड़ों का प्रयोग किया जा सकता है. लेकिन तुम क्या करते हो? तुम हर वक्त कपड़ों में लिपटे रहते हो.

मैं पार्क में भयंकर किस्म की एक्सरसाइज करता हूँ. बस लोअर स्पोर्ट्स-वियर पहन कर. मुख्य वजह सूरज की रौशनी का सेवन. कहते हैं विटामिन-डी सिर्फ सूरज की रौशनी से ही मिलती है. मुझे नहीं पता? लेकिन मुझे यह ज़रूर पता है कि सूरज है तो हम हैं. मुझे यह पता है कि हम हर सर्दियों में रजाई-गद्दे धूप में रखते हैं ताकि वो dis-infected हो जाएँ. हम अचार धूप में रखते हैं ताकि वो लम्बे समय तक चलें. मुझे यह पता है कि जितना कुदरत के नज़दीक जायेंगे, उतना सेहत-मंद रहेंगे, उतना तन-मन प्रफुल्लित रहेगा.

मैंने सुना कि गोरों के मुल्कों में चूँकि धूप एक नियामत है सो उन्होंने एक दिन रखा हफ्ते में ताकि वो धूप सेक सके अपने तन पर. उस दिन का नाम रखा गया Sunday. और इस दिन को छुट्टी का दिन रखा गया, इस दिन को पवित्र दिन कहा गया. Sunday is the Holiday.

और यहाँ भारत में लोग लड़ने आ जायेंगे यदि बनियान उतार कर धूप में बैठ गए तो. यहाँ भारत में तो सामाजिक मर्यादा भंग हो जाएगी. यहाँ भारत में रंग काला हो जायेगा यदि धूप में बैठे तो. बैठेंगे भी तो पूरे कपड़े पहन कर और सूरज की तरफ़ पीठ कर के.

यह मुल्क तो गाता ही है,"गोरी तेरा गाँव बड़ा प्यारा....."
न तो किसी को काली का गाँव प्यारा लगता और न ही काली लड़की.

"गोरी हैं कलाईयाँ, हरी-हरी चूड़ियाँ....."
यह तो गाया जा सकता है
लेकिन
क्या किसी ने गाया, "काली है कलाईयाँ, पीली-पीली चूड़ियाँ..?"

मैंने तो यह तक सुना कि Sunscreen भी बकवास सी चीज़ है. सूरज की रोशनी से तो सारा जीवन है, वो क्या नुक्सान करेगी? ज़्यादा धूप लगे, गर्मी लगे तो सहज सुलभ ही प्राणी छाया में चला जाता है, चले ही जाना चाहिए.

खैर, आशंका थी मुझे, कोई न कोई एतराज़ करेगा. और बहुत ही ज़बरदस्त एतराज़ किया गया, आर-एस-एस की शाखा लगाने वालों द्वारा. मैं खुद यह शाखा लगाता रहा हूँ. बहुत ही बेसिक किस्म का फलसफा है आर-एस-एस का. भारतीय संस्कृति ही महानतम है. आर-एस-एस इस्लाम की प्रतिछाया है कुछ अर्थों में. इस्लाम तो बहुत-बहुत हिंसक है. आर-एस-एस उस तरह से हिंसक तो कतई नहीं है लेकिन इसे कुछ भी नया स्वीकार नहीं है. नवीनता, वैज्ञानिकता के नाम पर इन के पास ऋषि-मुनि ही है. इन्हें भारतीय कूड़े की भी आलोचना पसंद नहीं है.

खैर, बाबा रामदेव हजारों लोगों के सामने अर्ध-नग्न हो कर एक्सरसाइज कर लें, टी.वी. के माध्यम से घर-घर आ जाएँ तो ठीक है, लेकिन मैं ऐसा कर लूं तो वो बर्दाश्त नहीं है. एक अर्ध-नग्न आदमी जिस्म पर चाबुक मारता हुआ, गली-गली घूम भीख मांगे, वो मंज़ूर है, लेकिन मेरा एक्सरसाइज करना मंज़ूर नहीं है. इन की लड़कियां और औरतें शिव-लिंग, गौर करें 'लिंग' की पूजा करें, वो मंज़ूर है, लेकिन मेरा एक्सरसाइज करना मंज़ूर नहीं है. ये लोग अपनी शाखाओं में "सूर्य नमस्कार" सिखाते हैं. जिस का अर्थ ही है सूर्य को नमन करते हुए योगासन करना. सूर्य को भी नहीं पता होगा कि उस के और इन्सान के बीच कपड़ों का आना ज़रूरी है. काश कुदरत नंगे-पुंगे बच्चे न पैदा कर के कपड़ों में लिपटे बच्चे पैदा करती. कम से कम निकर बनियान तो पहना के ही भेजती बच्चों को. यह बहुत ही गलत है. नंग-धड़ंग बच्चे. मर्यादा भंग होती है ऐसे समाज की.

खैर, मेरा मानना यह है कि आप जितना बिना कपड़ों के रहेंगे, उतना तन और मन से स्वस्थ रहेंगे. कुछ दशक पहले की बात है, हम लोग छत्तों पर सोते थे रात को. तारे गिनते हुए. खुली हवा में. जैसे सूर्य स्नान है, वैसे ही वायु स्नान है. शरीर को खुली हवा भी लगनी चाहिए. लेकिन उस के लिए भी नग्न होना चाहिए तन.

जिन के पास निजी स्थान की सुविधा हो उन को तो कतई निर्वस्त्र हो कर धूप ग्रहण करनी चाहिए. बिना अंडर वियर के. उन को बाकयदा एक Sun Room (सूर्य कक्ष) बनाना चाहिए. जिस का फ्रंट सूर्य की तरफ खुला हो और जिस पर छत न हो. हैरान मत होईये, जब "खाना कक्ष", "पाखाना कक्ष" हो सकता है तो सूर्य कक्ष भी हो सकता है.
आप को ध्यान है, महाभारत की कथा? दुर्योधन जा रहा था माँ के सामने निर्वस्त्र चूँकि माँ गांधारी ने ता-उम्र जो आँख पर पट्टी बंधी थी, वो खोलने जा रही थी और उन की आँख के तेज से दुर्योधन का जिस्म वज्र जैसा मज़बूत होने जा रहा था. लेकिन रास्ते में कृष्ण बहका देते हैं, "अरे, माँ के सामने ऐसे जाओगे? बच्चे थोड़ा न हो? कम से कम यौन अंग ही ढक लो." और दुर्योधन यौन अंग ढक लेता है. और युद्ध में यौन अंग पर जब भीम वार करता है तो दुर्योधन मारा जाता है. Beaches पर भी जो लोग धूप लेने जाते 100% नंगे तो वो भी नहीं होते. जननांग तो वो भी ढके रहते हैं. हमारे यौन अंग तो ता-उम्र धूप देख ही नहीं पाते. तो यह जो Sun Room का कांसेप्ट दिया न मैंने, इस से यौन अंग भी धूप पा लेंगे और वज्र तो न भी हों लेकिन स्वस्थ ज़रूर हो जायेंगे. आप देखते हो, जंघा और यौन अंग के बीच की चमड़ी पसीना मरते रहने की वजह से गल-गली सी हो जाती है. यदि Sun Room का प्रयोग करेंगे तो इस तरह की कोई भी दिक्कत नहीं होगी. प्रॉपर्टी डीलर हूँ. Sun-facing प्रॉपर्टी की डिमांड सब से ज़्यादा रहती है. आप जानते हैं, घरों में, दुकानों में, गोदामों में धूप,अगरबत्ती, हवन करने का क्या कारण है? आप शब्द देख रहे हैं? "धूप अगरबत्ती". सूर्य की धूप की कमी को इस तरह से "धूप अगरबत्ती" पूरा करने का प्रयास किया जा रहा है. नहीं? खैर, मेरा नजरिया यह है कि ये Closed Premises के अंदर की बासी,अशुद्ध हवा को शुद्ध करने का प्रयास होता है. तो फिर इस धूप से क्या बचना?
उल्लू के ठप्पे हैं लोग जो 'सूर्य-नमस्कार' भी करते हैं तो छाया में. तुम्हें पता ही नहीं, तुम्हारे पुरखों ने जो सूर्य-भगवान को पानी देने का नियम बनाया था न, वो इसलिए कि सूर्य की किरणें उस बहाने से तुम्हारे बदन पे गिरें. और तुम हो कि डरते रहते हो कि कहीं त्वचा काली न पड़ जाए. कुछ बुरा न होगा रंग गहरा जायेगा तो. बल्कि ज़ुकाम-खांसी से बचोगे. हड्ड-गोडे सिंक जायेगें तो पक्के रहेंगे. ठीक वैसे ही जैसे एक कच्चा घड़ा आँच पर सिंक जाता है तो पक्का हो जाता है. बाकी डाक्टरी भाषा मुझे नहीं आती. विटामिन-प्रोटीन की भाषा में डॉक्टर ही समझा सकता है. मैं तो अनगढ़-अनपढ़ भाषा में ही समझा सकता हूँ. हम जो ज़िंदगी जीते हैं वो ऐसे जैसे सूरज की हमारे साथ कोई दुश्मनी हो. एक कमरे से दूसरे कमरे में. घर से दफ्तर-दूकान और वहां से फिर घर. रास्ते में भी कार. और सब जगह AC. एक करेला ऊपर से नीम चढ़ा. कोढ़ और फिर उसमें खाज. कल्पना करो. इन्सान कैसे रहता होगा शुरू में? जंगलों में कूदता-फांदता. कभी धूप में, कभी छाया में. कभी गर्मी में, कभी ठंड में. इन्सान कुदरत का हिस्सा है. इन्सान कुदरत है. कुदरत से अलग हो के बीमारी न होगी तो और क्या होगा? उर्दू में कहते हैं कि तबियत 'नासाज़' हो गई. यानि कि कुदरत के साज़ के साथ अब लय-ताल नहीं बैठ रही. 'नासाज़'. अँगरेज़ फिर समझदार हैं जो धूप लेने सैंकड़ों किलोमीटर की दूरियां तय करते हैं. एक हम हैं धूप शरीर पर पड़ न जाये इसका तमाम इन्तेजाम करते हैं. "धूप में निकला न करो रूप की रानी.....गोरा रंग काला न पड़ जाये." महा-नालायक अमिताभ गाते दीखते हैं फिल्म में. खैर, स्वयंभू ने मुझे बताया है:- "हम ने सर्द दिन बनाये और सर्द रातें बनाई लेकिन तुम्हारे लिए नर्म नर्म धूपें भी खिलाई जाओ, निकलो बाहर मकानों से जंग लड़ो दर्दों से, खांसी से और ज़ुकामों से."
"जादू" याद है. अरे भई, ऋतिक रोशन की फ़िल्म कोई मिल गया वाला जादू. वो 'धूप-धूप' की डिमांड करता है. शायद उसे धूप से एनर्जी मिलती है. आपको भी मिल सकती है और आप में भी जादू जैसी शक्तियाँ आ सकती हैं. धूप का सेवन करें. मैं पैदाईश हूँ वीडियो गेम के पहले की.
हम पतंग उड़ाते थे, गलियों में कंचे खेलते थे, कभी ताश भी, कभी गुल्ली डंडा. धूप, गर्मी, हवा में. और कभी बारिश में भी.
आज बच्चे वीडिओ गेम खेलते देखता हूँ तो मन खिन्न हो जाता है. आँखें और हाड-गोड्डों के जोड़ ही नहीं बुद्धि भी खराब कर लेंगे.
कल आप को रोबोट मिल जायेंगे सेक्स तक करने के लिए. लेकिन याद रखना नकली खेल, नकली सेक्स, नकली प्रेम नकली ही रहेगा.
विडियो गेम से यदि ड्राइविंग सीखने में मदद मिलती हो तो ठीक है लेकिन इसे असल ड्राइविंग समझने की भूल करेंगे तो मारे जायेंगे.
खुली हवा में, धूप रहिये, खेलिए, नकली को असली की जगह मत लेने दीजिये.
"मकान" इन्सान को मकान चाहिए, चाहिए भी या नहीं, इस पर मेरे अपने कुछ तर्क हैं.

प्रॉपर्टी के कांसेप्ट को दुनिया का निकृष्टतम कांसेप्ट मानता हूँ. धरती माता ने किसी के नाम रजिस्ट्री आज तक की नहीं है. इन्सान आते-जाते रहते हैं. धरती वहीं रहती है. यदि इन्सान निजी सम्पति का कांसेप्ट छोड़ दे तो सारी धरती सब इंसानों के लिए available रहेगी. यह धरती सब की है और सब इस धरती के हैं. सिवा इन्सान के कोई भी प्राणी इस धरती पर रहने के लिए किराया नहीं देता. इन्सान को छोड़ किसी भी प्राणी के घर वैध-अवैध नहीं होते.

मकान हमें गर्मी-सर्दी से बचाते हैं. मल-मूत्र विसर्जन की निजता देते हैं. सम्भोग करने की निजता देते हैं. सो मकानों की ज़रूरत तो है लेकिन वो मकान निजी सम्पतियाँ हों, यहाँ मैं सहमत नहीं हूँ. आप देखते हैं, अनेक मकान खाली पड़े रहते हैं, और उधर लाखों लोग सड़क पर होते हैं. आधे से ज्यादा अपराध और मुकदमे तो प्रॉपर्टी से ही जुड़े होते हैं.

और निजी प्रॉपर्टी के कांसेप्ट की वजह से ही इन्सान अधिकांशत: घरों के अंदर ही अंदर घुसा रहता है. यह घर-घुस्सापन अपने आप में ही बीमारयों की जड़ है. जब मेरे जैसे लोग निजी सम्पति के कांसेप्ट के खिलाफ लिखते-बोलते हैं तो हमें वामपंथी बोला जाता है, कम्युनिस्ट (कौम-नष्ट) लिखा जाता है. हमें कहा जाता है कि पहले अपनी सम्पत्तियों की बली हम दें. ठप्पा मात्र इस लिए लगाया जाता है ताकि हमारी विश्वसनीयता ही खत्म की जा सके. दूसरी बात, जब तक आप किसी को वर्तमान व्यवस्था से बेहतर व्यवस्था में डालने का विश्वास नहीं दिला पायेंगे कौन अपनी वर्तमान व्यवस्था छोड़ेगा? हम आप को एक कांसेप्ट दे रहे हैं. उस कांसेप्ट पर काम कीजिये. उस पर प्रयोग कीजिये. जब प्रयोग सफल होने लगेंगे तो निश्चित ही बड़े स्तर पर उन प्रयोगों को उतार दीजिये.

तो निकलो बाहर मकानों से, जंग लड़ो .....किस से? अब आगे यह आप खुद तय कर लीजिये.

तुषार कॉस्मिक

आपकी धार्मिक और सांस्कृतिक भावनाएँ आहत होना इस बात का सबूत नहीं है कि आप सही हैं।

क्योंकि लोगों की धार्मिक भावनाएँ तो तब भी आहत हुई थी, जब गैलीलियो ने कहा था कि पृथ्वी गोल है, जब राजाराम मोहन राय ने सती प्रथा का विरोध किया था, जब ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने विधवाओं के पुनर्विवाह का समर्थन किया था और जब सावित्रीबाई फुले एक भारतीय विदुषी ने लड़कियों और दलितों के लिये पहले -पहल स्कूल की स्थापना की थी।

-By Jyoti Pethakar Ji from Facebook

गहरे में देखें तो श्रीलंका संकट पूरी दुनिया के लिए शुभ है

श्रीलंका में यह जो मंत्री पीटे जा रहे हैं न, बिलकुल सही किया जा रहा है. नकली महामारी से आम-जन का जीना हराम कर दिया. सब मिले हुए हैं मंत्री से लेकर संतरी. ये क्या अंधे थे जिन्होंने बिना कोई सबूत, बिना कोई सोच-समझ पूरे मुल्क को lockdown में झोंक दिया? Lockdown का नतीजा ही है आर्थिक संकट. वो संकट जो इन नेता लोगों की मूर्खताओं की वजह से पूरी दुनिया के आम-जन को झेलना पड़ रहा है. इन के साथ ऐसा ही होना चाहिए. दुनिया भर में.

गहरे में देखें तो श्रीलंका संकट पूरी दुनिया के लिए शुभ है. यह नकली महामारी की विदाई का कारण बनेगा. Tushar Cosmic

इन दो सवालों से सारी सामाजिक व्यवस्था भरभरा कर गिर जायेगी

मात्र 2 सवाल और एक तिहाई दुनिया की व्यवस्था गिर जाएगी.
क्या हैं वो सवाल?

समझिये, अधिकांश दुनिया मानती है कि कोई शक्ति है जिसने दुनिया बनाई है, जो दुनिया को चला रही है. और ध्यान, प्रार्थना, आरती, अरदास, नमाज़ से इस शक्ति से मदद ली जा सकती है.

इन से पूछिए, यदि दुनिया को बनाने वाला कोई है तो फिर उस बनानें वाले को बनाने वाला कौन है, फिर उस बनाने वाले को बनाने को बनाने वाला कौन है.....?

और

यदि ईश्वर/गॉड अपने आप अस्तित्व में आ सकता है तो यह दुनिया, यह कायनात क्यों नहीं? यह है पहला सवाल.

दूसरा सवाल यह है, तुम्हारे पास क्या सबूत है कि तुम्हारे कीर्तन, तुम्हारी प्रार्थना, नमाज़, आरती, विनती, उस परम शक्ति तक पहुँचती है और वो परम शक्ति उस के मुताबिक कोई रिस्पांस देती ही है?

तुम देखोगे, तुम्हारे इन दो सवालों का इन के पास कोई जवाब नहीं  होगा.

तुम देखोगे, इन दो सवालों से सारी सामाजिक व्यवस्था भरभरा कर गिर जायेगी. और यह गिर ही जानी चाहिए. ~ तुषार कॉस्मिक

Monday 9 May 2022

लड़का हिन्दू और लड़की मुस्लिम. प्रेम. शादी. यह बरदाश्त ही नहीं है, इस्लाम में

नागराजू का क़त्ल कर दिया गया सुल्ताना के भाई द्वारा. दिन दिहाड़े. हैदराबाद की सड़क पर.

लड़का हिन्दू और लड़की मुस्लिम. प्रेम. शादी. यह बरदाश्त ही नहीं है, इस्लाम में. चूँकि अब बच्चे हिन्दू हो जायेंगे. मुस्लिम समाज की संख्या कमतर हो जाएगी. इस्लाम तो पलता-पनपता ही संख्या बल पर है.

हां, यदि उल्टा होता तो स्वागत है. लड़की ब्याह लायें हिन्दू की तो स्वागत है. चूँकि अब बच्चे मुस्लिम होंगें. संख्या बल बढ़ेगा. अल्लाह-हू-अकबर !

~ तुषार कॉस्मिक

Saturday 7 May 2022

आज बच्चे वीडिओ गेम खेलते देखता हूँ तो मन खिन्न हो जाता है

मैं पैदाईश हूँ वीडियो गेम के पहले की. हम पतंग उड़ाते थे, गलियों में कंचे खेलते थे, कभी ताश भी, कभी गुल्ली डंडा. धूप, गर्मी, हवा में. और कभी बारिश में भी. आज बच्चे वीडिओ गेम खेलते देखता हूँ तो मन खिन्न हो जाता है. आँखें और हाड-गोड्डों के जोड़ ही नहीं बुद्धि भी खराब कर लेंगे. कल आप को रोबोट मिल जायेंगे सेक्स तक करने के लिए. लेकिन याद रखना नकली खेल, नकली सेक्स, नकली प्रेम नकली ही रहेगा. विडियो गेम से यदि ड्राइविंग सीखने में मदद मिलती हो तो ठीक है लेकिन इसे असल ड्राइविंग समझने की भूल करेंगे तो मारे जायेंगे. नकली को असली की जगह मत लेने दीजिये.~तुषार कॉस्मिक

Sunday 1 May 2022

सोशल मीडिया और उल्लू के ठप्पे लोग

सोशल मीडिया ने सब को अपनी बात-बकवास कहने का मंच दिया है.

कोई सुबह शाम गुड मोर्निंग, गुड इवनिंग कर रहे हैं.

कोई होली दीवाली, ईद-बकरीद की बधाई दे रहे हैं.

कोई उधार की सूक्तियां आगे पेलने को ही महान ज्ञान समझ रहे हैं.

कोई सिर्फ अपना धार्मिक या राजनीतिक एजेंडा ही पेले जा रहे हैं.

कोई अपनी भोंडी आवाज़ के साथ बेसुरे गायन को karaoke पर गाये जा रहे हैं.

कोई गाने पर हेरोइन जैसी सिर्फ़ भाव-भंगिमा दिखा के एक्टर बनने का शौक पूरा किये जा रही हैं.

ये सब सस्ते तरीके हैं. इन से आप को कोई नाम-दाम मिलने से रहा. और गलती से दो-चार दिन के लिए आप मशहूर हो भी गए तो वापिस गुमनाम होने में भी देर नहीं लगेगी."सेल्फी मैंने ले ली आज " वाली ढीन्ठक पूजा कितने लोगों को याद है आज?

कुल जमा मतलब यह कि कचरा लोग सोशल मीडिया पर कचरा ही फैला रहे हैं.

अबे, कुछ क्रिएटिविटी लाओ, कुछ बुद्धि लगाओ, कोई कला पैदा करो पहले. फिर आना सोशल मीडिया पर. वरना सीखो. सोशल मीडिया बहुत कुछ सिखाता भी है. सीखो पहले.

याद रहे, तुम्हारा कूड़ा दूसरों को साफ़ करने में भी मेहनत लगती है. होली दीवाली के अगले दिन जैसे गलियों में गन्दगी बढ़ जाती है, ऐसे ही फोन और कंप्यूटर पर भी कूड़ा बढ़ जाता है, जिसे डिलीट करना अपने आप में समय खाऊ काम होता है.
कूड़ा मत बढ़ाओ.

तुषार कॉस्मिक

Wednesday 27 April 2022

प्रशांत किशोर जैसे लोग प्रतीक हैं कि भारतीय राजनीति जनता और उसकी वास्तविक समस्याओं से पलायन कर एक छद्म माहौल की रचना से वोटों की फसल काटने की अभ्यस्त होती जा रही है ~ By Hemant Kumar Jha Good Article on the Modern Politics

By Hemant Kumar Jha a Very Good Article on the Modern Politics ~~~

प्रशांत किशोर जैसे लोग इस तथ्य के प्रतीक हैं कि भारतीय राजनीति किस तरह जनता और उसकी वास्तविक समस्याओं से पलायन कर एक छद्म माहौल की रचना के सहारे वोटों की फसल काटने की अभ्यस्त होती जा रही है।
यह अकेले कोई भारत की ही बात नहीं है। चुनाव अब एक राजनीतिक प्रक्रिया से अधिक प्रबंधन का खेल बन गया है और यह खेल अमेरिका से लेकर यूरोप के देशों तक में खूब खेला जाने लगा है।
ऐसा प्रबंधन, जिसमें मतदाताओं को अपने पाले में लाने के लिये भ्रम की कुहेलिका रची जाती है, छद्म नायकों का निर्माण किया जाता है और उनमें जीवन-जगत के उद्धारक की छवि देखने के लिये जनता को प्रेरित किया जाता है।
दुनिया में कितनी सारी कंपनियां हैं जो राजनीतिक दलों को चुनाव लड़वाने का ठेका लेती हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव हो या ब्राजील, तुर्की से लेकर सुदूर फिलीपींस के राष्ट्रपति का चुनाव हो, इन कंपनियों ने नेताओं का ठेका लेकर जनता को भ्रमित करने में अपनी जिस कुशलता का परिचय दिया है उसने राजनीति को प्रवृत्तिगत स्तरों पर बदल कर रख दिया है।
जैसे, बाजार में कोई नया प्रोडक्ट लांच होता है तो उसकी स्वीकार्यता बढाने के लिये पेशेवर प्रबंधकों की टीम तरह-तरह के स्लोगन लाती है। ये स्लोगन धीरे-धीरे लोगों के अचेतन में प्रवेश करने लगते हैं और उन्हें लगने लगता है कि यह नहीं लिया तो जीवन क्या जिया।
भारत में नरेंद्र मोदी राजनीति की इस जनविरोधी प्रवृत्ति की पहली उल्लेखनीय पैदावार हैं जिनकी छवि के निर्माण के लिये न जाने कितने अरब रुपये खर्च किये गए और स्थापित किया गया कि मोदी अगर नहीं लाए गए तो देश अब गर्त्त में गया ही समझो।
प्रशांत किशोर इस मोदी लाओ अभियान के प्रमुख रणनीतिकारों में थे। तब उन्होंने मोदी की उस छवि के निर्माण में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था जो राष्ट्रवाद, विकासवाद और हिंदूवाद के घालमेल के सहारे गढ़ी गई थी।
सूचना क्रांति के विस्तार ने प्रशांत किशोर जैसों की राह आसान की क्योंकि जनता से सीधे संवाद के नए और प्रभावी माध्यमों ने प्रोपेगेंडा रचना आसान बना दिया था।
अच्छे दिन, दो करोड़ नौकरियाँ सालाना, चाय पर चर्चा, महंगाई पर लगाम, मोदी की थ्रीडी इमेज के साथ चुनावी सभाएं आदि का छद्म रचने में प्रशांत किशोर की बड़ी भूमिका मानी जाती है।
वही किशोर अगले ही साल "बिहार में बहार है, नीतीशे कुमार है" का स्लोगन लेकर बिहार विधानसभा चुनाव में मोदी की पार्टी के विरोध में चुनावी व्यूह रचना करते नजर आए।
दरअसल, ठेकेदारों या प्रबंधन कार्मिकों की अपनी कोई विचारधारा नहीं होती। हो भी नहीं सकती और न ही इसकी जरूरत है। वे जिसका काम कर रहे होते हैं उसके उद्देश्यों के लिए सक्रिय होते हैं।
कभी प्रशांत किशोर मोदी की चुनावी रणनीति बनाने के क्रम में राष्ट्रवाद का संगीत बजा रहे थे, बाद के दिनों में ममता बनर्जी के लिये काम करने के दौरान बांग्ला उपराष्ट्रवाद की धुनें बजाते बंगाली भावनाओं को भड़काने के तमाम जतन कर रहे थे। कोई आश्चर्य नहीं कि तमिलनाडु में स्टालिन के लिये काम करने के दौरान वे उन्हें हिंदी के विरोध, सवर्ण मानस से परिचालित भाजपा के हिंदूवाद के विरोध के फायदे समझाएं। जब जैसी रुत, तब तैसी धुन।
बार-बार चर्चा की लहरें उठती हैं और फिर चर्चाओं के समंदर में गुम हो जाती हैं कि प्रशांत किशोर देश की सबसे पुरानी पार्टी की जर्जर संरचना को नया जीवन, नया जोश देने का ठेका ले रहे हैं। मुश्किल यह खड़ी हो जा रही है कि अब वे ठेकेदारी से आगे बढ़ कर अपनी ऐसी राजनीतिक भूमिका भी तलाशने लगे हैं जो किसी भी दल के खुर्राट राजनीतिज्ञ उन्हें आसानी से नहीं देंगे।
प्रशांत किशोर, उनकी आई-पैक कंपनी या इस तरह की दुनिया की अन्य किसी भी कंपनी की बढ़ती राजनीतिक भूमिका राजनीति में विचारों की भूमिका के सिमटते जाने का प्रतीक है।
जहां छद्म धारणाओं के निर्माण के सहारे मतदाताओं की राजनीतिक चेतना पर कब्जे की कोशिशें होंगी वहां जनता के जीवन से जुड़े वास्तविक मुद्दे नेपथ्य में जाएंगे ही।
टीवी और इंटरनेट ने दुनिया में बहुत तरह के सकारात्मक बदलाव लाए हैं। कह सकते हैं कि एक नई दुनिया ही रच दी गई है, लेकिन राजनीति पर इसके नकारात्मक प्रभाव ही अधिक नजर आए। अब प्रोपेगेंडा करना बहुत आसान हो गया और उसे जन मानस में इंजेक्ट करना और भी आसान।
जिस तरह कम्प्यूटर के माध्यम से किसी बौने को बृहदाकार दिखाना आसान हो गया उसी तरह किसी कल्पनाशून्य राजनीतिज्ञ को स्वप्नदर्शी बताना भी उतना ही आसान हो गया।
चुनाव प्रबंधन करने वाली कम्पनियों की सफलताओं ने राजनीति को जनता से विमुख किया है और नेताओं के मन में यह बैठा दिया है कि वे चाहे जितना भी जनविरोधी कार्य करें, उन्हें जनोन्मुख साबित करने के लिये कोई कंपनी चौबीस घन्टे, सातों दिन काम करती रहेगी।
डोनाल्ड ट्रम्प का राष्ट्रपति बनना, ब्राजील के बोल्सेनारो का शिखर तक पहुंचना, तुर्की में एर्दोआन का राष्ट्रनायक की छवि ओढ़ना, फिलीपींस में रोड्रिगो दुतेरते का जरूरत से अधिक बहादुर नजर आना...ये तमाम उदाहरण इन छवि निर्माण कंपनियों की बढ़ती राजनीतिक भूमिका को साबित करते हैं। ट्रम्प अगले चुनाव में हारते-हारते भी कांटे की टक्कर दे गए और आज तक कह रहे हैं कि दरअसल जीते वही हैं।
अपने मोदी जी की ऐसी महिमा तो अपरम्पार है। वे एक से एक जनविरोधी कदम उठाते हैं और प्रचार माध्यम सिद्ध करने में लग जाते हैं कि जनता की भलाई इसी में है, कि यही है मास्टर स्ट्रोक, जो अगले कुछ ही वर्षों में भारत को न जाने कितने ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बना देगा
तभी तो, दुनिया के सबसे अधिक कुपोषितों से भरे देश में 80 करोड़ निर्धन लोगों के मुफ्त अनाज पर निर्भर रहने के बावजूद देशवासियों को रोज सपने दिखाए जाते हैं कि भारत अब अगली महाशक्ति बनने ही वाला है।
उससे भी दिलचस्प यह कि शिक्षा को कारपोरेट के हवाले करने के प्रावधानों से भरी नई शिक्षा नीति के पाखंडी पैरोकार यह बताते नहीं थक रहे कि भारत अब 'फिर से' विश्वगुरु के आसन पर विराजमान होने ही वाला है।
प्रशांत किशोर जैसे राजनीतिक प्रबंधक इस बात को सुनिश्चित करते हैं कि जनता को उसका सच पता नहीं चले बल्कि जनता उसी को सच माने जो उनकी कंपनी के क्लाइंट नेता समझाना चाहें।
अमेरिका, यूरोप, तुर्की आदि तो धनी और साधन संपन्न हैं भारत के मुकाबले। वहां की जनता अगर राजनीतिक शोशेबाजी में ठगी की शिकार होती भी है तो उसके पास बहुत कुछ बचा रह जाता है। लेकिन भारत में ऐसे प्रबंधकों ने जिस तरह की राजनीतिक संस्कृति विकसित की है उसमें जनता ठगी की शिकार हो कर बहुत कुछ खो देती है। देश ने बड़े पैमाने पर सार्वजनिक संपत्तियों को निजी हाथों में जाते देखा, गलत नीतियों के दुष्प्रभाव से करोड़ों लोगों को बेरोजगार होते देखा, गरीबों की जद से शिक्षा को और दूर, और दूर जाते देखा, मध्यवर्गियों को निम्न मध्यवर्गीय जमात में गिरते देखा, निम्नमध्यवर्गियों को गरीबों की कतार में शामिल हो मुफ्त राशन की लाइन में लगते देखा...न जाने क्या-क्या देख लिया, लेकिन, अधिसंख्य नजरें इन सच्चाइयों को नजरअंदाज कर उन छद्म स्वप्नों के संसार मे भटक रही हैं जहां अगले 15 वर्षों में अखंड भारत का स्वप्न साकार होना है, उसी के समानांतर हिन्दू राष्ट्र की रचना होनी है और...यह सब होते होते उस महान स्वप्न तक पहुंचना है, जिसे 'राम राज्य' कहते हैं, जहां होगा 'सबका साथ, सबका विकास'।

Saturday 23 April 2022

अजब-गजब बाबा


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"राधा स्वामी-पव्वा सवेरे और अद्धा शामी." खैर, यह तो मजाक में कहा जाता है लेकिन इस डेरे ने दिल्ली में छतरपुर में सैंकड़ों एकड़ ज़मीन हथिया रखी थी, जिसे कोर्ट आर्डर से खाली करवाया गया. क्या कोई प्रॉपर्टी डीलर मुकाबला करेगा इन का?

इसी लेख का वीडियो है, देख लीजिये

आसा राम जी और उन के सपूत पर  बलात्कार के आरोप लगे, साबित भी हुए, दोनों अंदर हैं. आसा राम तो अब शायद कभी बाहर आ भी न पाएं लेकिन भक्त-जन आज भी उन के हँसते हुए चेहरे के कैलेंडर घर में लगाये हैं और श्रधा से सर झुकाए हैं. गुरु चाहे गोबर हो जाये, चेला तो शक्कर बना ही रहेगा. 

बाबा राम देव. यह जनाब जब मोदी सरकार नहीं बनी थी तो कह रहे थे कि एक बार मोदी जी आ जाएँ तो पेट्रोल शायद पानी जितना सस्ता हो गया. और अब धमका रहे हैं, "हाँ, कहा था ऐसा. अब नहीं हुआ सस्ता पेट्रोल तो क्या पूछ पाड़ेगा?" इन का समाज विज्ञान इतना गहन है कि बड़े नोट बंद करने से ही भ्रष्टाचार खत्म कर देगा. वाह!

पंजाब में एक बाबा थे आशुतोष जी महाराज. यह सिधार गए हैं. कहाँ? नरक या स्वर्ग पता नहीं . लेकिन इन के शिष्य तो यह भी स्वीकार करने को तैयार नहीं कि मर चुके. शिष्यों ने इन की बॉडी डीप फ्रीज़र में रख रखी है. बाबा की आत्मा भ्रमण कर रही है, वापिस लौटेगी. "मेरे करण-अर्जुन आयेंगे........."

एक थे बाबा राम रहीम सिंह जी इंसान. खिलाड़ी, गायक, एक्टर, डायरेक्टर, फिल्म निर्माता.भक्तों  के पिता जी थे. हालांकि पिता जी पर भक्तों की बेटियों के बलात्कार का आरोप था. साबित भी हुआ और पिता जी जेल भी चले गए लेकिन भक्तों के लिए आज भी ये पिता जी हैं......  

एक थे हरियाणा के संत राम पाल. ये कबीर वाणी  की व्याख्या करते करते खुद ही दिव्य हो गए. शायद पढ़ा था कहीं कि जिस द्रव्य से ये नहाते थे लोग उसे पीते थे. खैर जेल यात्रा इन को भी मिली.आसानी से तो पकड़ में भी नहीं आये थे. फोर्सेज के साथ बहुत धक्का-मुक्का ही थी. 

एक और स्वामी थे नित्यानंद. इन पर भी क्रिमिनल  आरोप लगे. लेकिन ये होशियार-चंद निकले. ये आसाराम और राम पाल जैसों का हश्र देख चुके थे सो मुल्क छोड़ भाग गए. सुना है कोई ISLAND खरीद कर एक नया मुल्क ही बना लिया है इन ने. कैलासा. वैरी गुड.

अभी-अभी के खबर है कि दिल्ली रोहिणी में कोई "अध्यात्मिक विश्वविद्यालय" था. इस में सैंकड़ों औरतों को जानवरों के स्तर पर रखा गया था. अंदर सूरज की रौशनी एक किरण तक नहीं पहुँचती थी. 
अध्यात्मिक विश्वविद्यालय! 

ये आप को चंद बड़ी सूचनाएं दीं हैं, बाकी छोटी-मोटी खबरें रोज़ आती ही रहती हैं,  बाबा बलात्कारी निकला, बाबा चोर निकला, बाबा फ्रॉड निकला...आदि आदि.......

असल में इन बाबा लोगों में कोई कमाल नहीं है. कमाल तो जनता की मूर्खता है. इस का कोई अंत नहीं है. 
हरि नाम अनंता हरि कथा अनन्ता....

एक थे निर्मल बाबा. "थे" कहना ठीक नहीं है, वो अभी भी "हैं". ये तो सब अटकी हुई "कृपा" गोलगप्पों की चटनी और गुलाब जामुन खाने से ही बरसा देते थे.

अभी इस सूची में ३ और लोग जोड़ने रह गए हैं.

आप ने विडियो देखे होंगे, जिस में एक ईसाई Priest जरा सा सर पे छूता है किसी शख्श के और वो शख्स एक दम कूदता-फांदता है, उस में अजीब शक्ति का प्रसार हो जाता है. अब यह सब नौटंकी है. घटिया. उथली. किसी भी तरह से दुसरे धर्मों के लोगों को अपने खेमे में खींच लाने का टुच्चा प्रयास. 

दूसरा, इस लिस्ट में ज़ाकिर नायक को जोड़ना है. इसे मैं ज़ाकिर ना-लायक कहता हूँ. यह बन्दा मुल्ला दाढ़ी में, कोट पेंट पहन कर सब धर्म ग्रन्थों का रिफरेन्स गति से फेंकता था. हजारों की संख्या में लोग मौजूद. मन्तव्य वही. किसी भी तरह से बाकी धर्मों के लोगों को इस्लाम में खींच लाना. इस बंदे के पास एक ही हथियार था, वो था धर्म ग्रन्थों का उल्लेखन, रिफरेन्स देना. सुनने वाले चमत्कृत. कहाँ क्या लिखा है, इसे याद रख लेने में क्या? असल बात है, आप इस दुनिया को नया क्या देते हो, क्या ज्ञान-विज्ञान छोड़ के जाते हो पीछे. आप के जीवन में, कथन में क्या कलात्मकता है, क्या वैज्ञानिकता है. और जब ज़ाकिर नायक जैसों की हर बात कुरान से शुरू और कुरान पे ही खत्म होती है इन से ज्ञान, विज्ञान, कला की क्या अपेक्षा करें.     

अंत में भिंडरावाला. इस व्यक्ति पर मैंने अलग से लेख लिखा है, जिस पर फेसबुक पर बहुत घमासान हुआ भी है. इसे आज भी बहुत से सिख अपना हीरो मानते हैं. इस की तस्वीर अपनी कारों पर चिपकाते हैं. इस की छपी तस्वीर वाली टी-शर्ट पहनते हैं. जिन दिनों पंजाब में आतंकवाद चल रहा था, मैं बठिंडा में ही था. पढ़ रहा था. अस्सी के बाद से ही हिन्दुओं के कत्ल शुरू हो गए थे. बसों से उतर कर, कतार में खड़े कर के गोलियों से भून दिया जाता था. ऐसा रोज़ ही होता था. 10/20/30 हिन्दू रोज़ मारे जाते थे. और यह महान काम करते थे सिक्ख आतंकवादी. जिन को खाड़कू कहा जाता था. भिंडरावाला इन सब का हीरो बन चुका था. संत भिंडरावाला. यदि वो संत था तो संत की परिभाषा फिर से गढ़नी होगी.  

Albert Einstein once said, “Two things are infinite: the universe and human stupidity.” 

मुझ से अक्सर दोस्त लोग कहते हैं, "इत्ता अच्छा बोल लेते हो, लिख लेते हो, सोच लेते हो, क्या फायदा? बाबा बन जाओ." लेकिन मैं मूर्ख हूँ. मुझे दुनिया को मूर्ख नहीं बनाना बल्कि मूर्ख बनने से बचाना है जो कि ज़्यादा मुश्किल काम है. लेकिन मैंने मुश्किल काम ही चुना है. 

नमन.
तुषार कॉस्मिक  

Friday 22 April 2022

तुम पत्थर को शैतान समझ मारो, वो ठीक, और जो पत्थर को शिवलिंग, हनुमान, पिंडी देवी समझ पूजे वो गलत?

मुस्लिम जब हज करते हैं तो शैतान को पत्थर मारते हैं. 

असल में यह  शैतान भी एक पत्थर ही है. जब पत्थर भगवान नहीं हो सकता तो शैतान कैसे हो सकता है? और यदि पत्थर शैतान हो सकता है तो भगवान क्यों नहीं? 

तुम पत्थर को शैतान समझ मारो, वो ठीक, और जो पत्थर को शिवलिंग, हनुमान, पिंडी देवी समझ पूजे वो गलत? 

कमाल!

तुषार कॉस्मिक

सबसे मुश्किल भरा होता है खुद को नादान से चौकस बनाना.

सबसे मुश्किल भरा होता है खुद को नादान से चौकस बनाना. आप होते नहीं और ना ऐसा करने की ज़रूरत ही समझते हैं लेकिन अचानक आपको लगता है कि अब तक आप जैसे बेफिक्र चले जा रहे थे वो गलत था. फिर आप रोज़ खुद को थोड़ा-थोड़ा बदलते हैं. चोटों और नाकामयाबी से बचने के लिए ऐसा करना ज़रूरी हो जाता है मगर कुछ साल बाद आप खुद को आइने के सामने पाते हैं. शक्ल पहचान पाना मुश्किल हो जाता है. आइने में दिख रहा चेहरा उस इंसान जैसा लगता है जिससे आप कुछ वक्त पहले इसलिए नफरत करते थे क्योंकि वो बहुत चालाक था - copied

क्या तुम ने कभी किसी वैज्ञानिक की तस्वीर लगाई अपनी id पे?

क्या तुम ने कभी किसी वैज्ञानिक की तस्वीर लगाई अपनी id पे? बाबा बूबी लगाए फिरते हो. विज्ञान तुम्हें रोशनी देता है और ये गुरु घण्टाल तुम्हें घण्टे की तरह बजाते हैं. लेकिन फिर भी तुम.... Idiots!

~ तुषार कॉस्मिक

पत्थर मारना इब्रह्मिक धर्मों की संस्कृति है.

पत्थर मार-मार के जान से मार देने का इब्रह्मिक धर्मों में पुरानी रवायत है. एक वेश्या को लोग पत्थर मार के मार देना चाह रहे थे तो, जीसस ने उस बचाया, यह कह कर कि पत्थर वही मारे, जिसने खुद कोई गुनाह न किया हो. मजनूँ को लोग पत्थर मार रहे थे चूँकि वो लैला को अल्लाह से ज़्यादा मोहब्बत करता था, जिस की इजाज़त इस्लाम में है ही नहीं. फिर लैला गाती है, "कोई पत्थर से न मारे मेरे दीवाने को.....". मंसूर (सूफी संत) को मुसलमानों ने पत्थर मार-मार मार दिया. आप को YouTube पर फिल्म मिल जाएगी Stoning of Soraya. इस फिल्म में एक मुस्लिम स्त्री पर परगमन का झूठा इल्जाम लगा कर उसे पत्थर मार मार के मार दिया जाता है. मुस्लिम जब हज करते हैं तो शैतान को पत्थर मारते हैं. असल में यह शैतान भी एक पत्थर ही है. पत्थर कोई कश्मीर में ही नहीं मारे जाते फ़ौज पर, अभी-अभी स्वीडन की पुलिस पर भी मुसलामानों ने पत्थर फेंके हैं. जहाँगीर-पुरी दिल्ली में भी यही हुआ है. पत्थर मारना इब्रह्मिक धर्मों की संस्कृति है. ~तुषार कॉस्मिक

Wednesday 20 April 2022

मेरी बिज़नेस यात्रा

यह कोई रोड़-पति  से करोड़पति की कहानी नहीं है.

यह मेरी कहानी है. यह मेरी उद्यमशीलता की कहानी है. यह मेरी सफलताओं और असफलताओं की कहानी है. यह मेरी समझदारियों और नासमझियों की कहानी है. यह मेरे नफे और मेरे नुक्सान की कहानी है. 

यह एक आम इन्सान की कहानी है. यह आप की कहानी है. इस कहानी में कई सबक हैं, मेरे लिए और आप के लिए भी. 

तो चलिए मेरे साथ.....

मैं कोई बारहवीं कक्षा में रहा होऊंगा, जब यह लगा कि जीवन में पैसा चाहिए और जीवन फैलाना हो तो बहुत-बहुत पैसा चाहिए. 

माँ-बाप शुरू से चाहते थे कि मैं डॉक्टर बनूँ या DC (Deputy Commissioner). डॉक्टर, उन्होंने देखे थे कि खूब पैसा कमाते हैं, कार, कोठी सब खड़ा कर लेते हैं. और DC, उन्होंने सुना थी कि पूरे शहर का मालिक होता है. 

लेकिन चूँकि मुझे किशोर अवस्था से ही साहित्य, मनोविज्ञान, धर्म-राजनीति, ध्यान, सम्मोहन जैसे विषयों में रूचि थी तो कॉलेज की पढ़ाई को मैंने समय व्यतीत करने के एक साधन मात्र की तरह प्रयोग किया. 

उन दिनों पढने-लिखने वाले बच्चे या तो मेडिकल में जाते थे या नॉन-मेडिकल में. मेडिकल वाले डॉक्टर बनते थे और नॉन-मेडिकल वाले इंजिनियर. मुझे न डॉक्टर बनना था और न ही इंजिनियर. सो मैंने जान-बूझ कर आर्ट्स लिया. आर्ट्स निपट फिसड्डी छात्र लेते थे. यह फ़िज़ूल की स्ट्रीम मानी जाती थी चूँकि इस की डिग्री से किसी को कैसा भी काम मिलता नहीं था. और मैने आर्ट्स इस लिए लिया चूँकि मुझे पता था कि इस के इम्तिहान मैं बहुत कम समय खर्च करे पास कर जाऊंगा और मुझे मेरी पसंदीदा किताबें पढ़ने का मौका मिलता रहेगा. 

खैर, इसी दौर में पैसे की अहमियत भी समझ आने लगी.

तो साहेबान, कद्रदान, मेहरबान..अब मुझे यह भी समझ आया कि असल पैसा तो बिज़नस में है. नौकरी में तो ज़िंदगी बंध सी भी जाएगी और इस में कोई ख़ास पैसा भी नहीं है. सो तभी सोच लिया कि नौकरी कैसी भी हो, नहीं करनी है. 

अब बिज़नस करें तो कैसे करें? पिता जी की कपड़े की दुकान थी, लेकिन वो खुद भी उस दूकान को कोई बहुत aggressive ढंग से नहीं चलाते थे. घर दूकान अपनी थी. असल में हमारा  घर कोर्नर का था, उसी के एक कोने में पिता जी की दूकान थी. उन्होंने कुछ ब्याज का धंधा किया हुआ था, कुछ किराए की आमदनी थी. खर्च उन दिनों कोई ज़्यादा होते नहीं थे. और मेरे अलावा परिवार में कोई और बच्चा था नहीं तो हमारा घर ठीक से चलता था. लेकिन मुझे यह सब नाकाफी लगता था. 

सो मैं तभी बवाल करने लगा, "मुझे पैसे दो, मैं व्यापार करूंगा." तजुर्बा कुछ था नहीं, "व्यापार करूंगा."

एक दिन रूठ कर घर से भाग गया और बठिंडा में ही किसी फैक्ट्री में लेबर का काम किया सारा दिन. दिहाड़ी ले कर, शाम को बदहवास सा घर लौट आया. 

चंडीगढ़ में हमारे कोई रिश्तेदार थे, वो फैक्ट्री से गोली-टॉफ़ी और बिस्कुट आदि उठाते थे और फिर दुकानदार उन से होलसेल में ले जाते थे. उन की दूकान पर बहुत भीड़ रहती थे. मैं एक-आध दिन वहां रहा. ऐसे कोई धंधा समझ आता है? फिर लौट आया. 

वहीं एक पास के एक शहर में हमारे कोई और रिश्तेदार प्रिंटिंग का काम करते थे तो वहां चला गया लेकिन वहां मैं काम सीखने नहीं, नकली नोट छापना सीखने की मंशा से गया था. ब्लाक कैसे बनता है, यह मुझे समझ आ गया लेकिन ऐसे कहाँ नोट छपने थे? सो वह प्रोजेक्ट भी अधूरा रह गया.  

अब तक मुझे यह भी समझ आने लगा कि बठिंडा में व्यापार के मौके बहुत ही कम हैं. बेहतर है बड़े शहर में कूच किया जाये. दिल्ली में हमारे रिश्तेदार रहते ही थे. उन्हीं दिनों पंजाब में उग्रवाद भी ज़ोरों पर था. सो यह तय हुआ कि मैं दिल्ली जाऊँगा. 

यहाँ जानकी पुरी (जनकपुरी के पास) में एक कोई चार सौ गज का प्लाट लिया हुआ था पिता जी ने. यह तब कच्ची कॉलोनी थी. मोती नगर में मेरे कजिन (सुभाष जी) के पास एक दूकान थी. जहाँ कोई लड़का बैठता था, लेडीज सूट वगैहरा बेचता था.  उस लड़के का exit होना था. और मेरी entry होनी थी.

कोई एक साल मैं उस दूकान को चलाने का प्रयास करता रहा. नतीजा ढाक के तीन पात. उस जमाने में कोई सत्तर हजार रुपये का नुकसान हुआ. एक साल की बर्बादी के बाद मैंने वो दूकान छोड़ दी. 

उसी दौर में मुझे लगा कि विदेश से सस्ता सामान ला कर दिल्ली में बेचना फायदे का धंधा साबित हो सकता था. मैंने पाकिस्तान जाने का प्रयास किया. एम्बेसी गया. एक दलाल टाइप का व्यक्ति टकराया. उस ने कुछ पैसे मांगे वीसा, टिकेट दिलावाने के. लेकिन वो मुझे रिस्की लगा. सो वो इरादा छोड़ दिया. 

फिर किसी ने बताया कि नेपाल जा सकते हो. वहां रोक-टोक नहीं है. सो मैंने बिना किसी को पूछे-बताये नेपाल जाना तय कर लिया और चला भी गया. बस से. सनौली बॉर्डर के बाद नेपाल शुरु होता था. कोई ख़ास चेकिंग नहीं हुई. काठमांडू पहुँच गया.

कमरा किराए पर लिया. घूमना शुरू किया. हैरान हुआ, वहाँ सिक्ख बधुओं की कुछ दूकान दिखीं मुझे!  नेपाली मुझे बहुत ही स्वस्थ शरीर वाले दिखे, ख़ास कर के औरतें और लड़कियाँ बहुत ही हृष्ट-पुष्ट.

व्यापार तो कुछ समझ आया नहीं मुझे, हाँ, घूमना-फिरना ज़रूर हो गया. वहीं एक "विशाल बाज़ार" था, जैसे आज मॉल होते हैं वैसा. वहाँ पहली बार मैंने Escalator देखा. कुछ कीड़े-मकौड़े जैसे जन्तु (मरे हुए) बिकते देखे. लकड़ी के मंदिर देखे. पशुपति नाथ मंदिर भी जाना हुआ. हिमालय को शायद वहाँ 'सागरमाथा' बोलते हैं चूँकि  कुछ दुकानों पर यह लिखा मैंने देखा था. काठमांडू की सडकों पर भीड़ बहुत कम थी उन दिनों. सडकें पहाड़ी, ऊंची-नीची. विदेशी साइकिल किराए पर ले घूमते थे. तब मेरी उमर थी कोई बीस साल. आज सालों हो गए,  मुझे नहीं पता अब काठमांडू कैसा है, लेकिन मेरी नज़र में यह एक बेहतरीन जगह है. मौका लगे तो मैं दुबारा ज़रूर जाऊँगा. आप को भी वहाँ ज़रूर जाना चाहिए. 

खैर,  कोई तीन या चार दिन बाद मैं वापिस आ गया था.

अब यह दूकान मैंने छोड़ दी. मैं फिर से माँ-बाप को दुखी करने लगा. "बिज़नस करूंगा." जनक पुरी वाला प्लाट मेरी जिद्द की वजह से मजबूर हो कर उन को बेचना पड़ा. फिर हम लोग रघुबीर नगर आ गए. यह JJ Colony  है, यहाँ एक मकान खरीदा, हालाँकि बहुत अच्छी लोकेशन पर खरीदा लेकिन मुझे कहाँ टिकना था. मैं माँ-बाप से रूठ कर ऑटो-रिक्शा किराए पर ले कर चलाने लगा. कोई तीन चार महीने चलाया होगा. न खुद कुछ कमाया और न ही जिस का ऑटो था उस ने मेरे ज़रिये कुछ कमाया होगा. एक ही जिद्द थी, "मैं बिज़नस करूंगा." 

मेरी जिद्द की वजह से यह मकान भी बिक गया. फिर वहीं पास ही DDA flats की नई allotment में कोई चार फ्लैट ले लिए गए. अब मैं वहाँ शिफ्ट हो गया, एक फ्लैट में, अकेला. चूँकि माँ-बाप तो अभी भी बठिंडा ही रहते थे, दिल्ली में  मैं अकेला ही रहता था.

यहीं मैं प्रॉपर्टी डीलरों के सम्पर्क में आ गया. ये लोग दोपहर में ताश खेलते थे और गप्पे हांकते थे. इन के पास बैठ-बैठ मुझे समझ आने लगा कि यह धंधा मैं भी कर सकता हूँ. बस. जिस फ्लैट में मैं रहता था उसे ऑफिस बना दिया.

पहले महीने ही कोई ३-४ सौदे कर दिए मैंने. कोई २२ साल की उम्र में प्रॉपर्टी का धंधा शुरू. यह शुरू हुआ तो बस शुरू हो ही गया. मैंने कोई डेढ़ दो साल में सैकड़ों डील कीं. 

फिर राकेश अजमानी मुझे पश्चिम विहार ले आया. यहाँ  वही नक्शे के DDA फ्लैट थे, जो मैं पहले से बेच-खरीद रहा था. राकेश और बहुत से लोग DDA ऑफिस आते-जाते रहते थे. ये लोग DDA के क्लर्कों से सेटिंग बिठा कर काम करवा लेते थे. जैसे ही DDA की कोई allotment निकलती, क्लर्कों से allottee लोगों की लिस्ट ले लेते थे और फिर गली-गली उन को ढूंढते-मिलते और उन से एडवांस में ही फ्लैट खरीद लेते और फिर थोड़ा सा मार्जिन ले कर आगे सरका देते. यही मैं करने लगा लेकिन सिर्फ अपने ब्लाक के लिए जहाँ मेरा ऑफिस था. कुछ अच्छे पैसे मैंने इस ढंग से भी कमाए.

खैर, इस ब्लाक में धीरे-धीरे मेरे पैर जमने लगे. यहाँ भी ढेरों-ढेर सौदे मैंने किये. 

फिर शादी हो गयी.

तो जनाब, फिर कोई दो एक साल बाद मुझे सूझा कि मोटा पैसा ऐसे तो नहीं कमाया जा सकता. इस के लिए तो कोई बड़ा काम करना होगा. तो मैं अपने कोई रिश्तेदारों के चक्कर काटने लगा जो कई तरह का धन्धा करते थे.

मेरे पास उन दिनों मारुती 800 कार थी. मुझे लुधिआना भेजा जाने लगा. मैं अपना कैश पैसा कार में भर के ले जाता और वहाँ से फॉरेन करेंसी ले कर आने लगा. यह कोई 700 किलोमीटर की ड्राइविंग हो जाती थी. बहुत ही थकाऊ और बहुत ही रिस्की. रिस्की इस लिए चूँकि रोड काफी कुछ सिंगल था. रोज़ दसियों एक्सीडेंट सड़क पर नजर आते. एक बार तो ट्रेन से भी गया. लेकिन कोई 4-5 दिन बाद ही समझ आ गया कि यह धंधा बेकार था. 

उन दिनों दिल्ली में जगह-जगह लाटरी खेली जाती थी. मोटा खेलने वाले कुछ लोग टिकेट न खरीद कर खाईवालों (सट्टेबाज़ों) को नम्बर लिखवाते थे. मुझे बताया गया कि खाईवाल मोटा पैसा कमाते हैं. मैंने खाईवाली शुरू कर दी. मोटा कमाना तो क्या था, मोटा नुक्सान हुआ. वो इसलिए कि जब लोग हार जाते तो उन से पैसा वसूल करना लगभग असम्भव हो जाता और जीतने वाले को पैसे चुकाने ही होते थे. 

फिर किसी ने कहा कि दारु की सप्लाई में कमाई है. उस के लिए भी हरियाणा में एक दो लोगों को मिलने गए. शायद एक दारु की फैक्ट्री पर भी गए थे. हरियाणा और दिल्ली में शराब पर उन दिनों टैक्स में कोई फर्क था इसलिए लोग हरियाणा से दारु ला कर दिल्ली में बेचते थे. मैंने यह काम एक दो दिन किया भी अपनी मारुती 800 कार से. लेकिन फिर सूझा कि यह बकवास है. 

इस सब के चलते मैंने पैसे का और समय का काफी नुक्सान किया. कानों को हाथ लगा लिया कि यह सब कभी ज़िंदगी में नहीं करूंगा. और फिर कभी किया भी नहीं. शराब न मैं पहले पीता था, न अब पीता हूँ, बस धंधा करना था, सो २-४ दिन किया. जुआ भी न पहले खेला, न बाद में, खाईवाली की,धंधा समझ के.

अब मेरे पास एक दूकान थी कॉलोनी की एंट्री पर. वहाँ मैंने प्रॉपर्टी  के धंधे के अलावा एक STD/ PCO खोल लिया. एक वेल्डर बिठा लिया, सामने खाली ज़मीन पड़ी थी, वहाँ बिल्डिंग मटेरियल डाल लिया. इस खिचड़ी से बिजी रहने लगा और धंधा पानी भी कुछ ठीक चलने लगा.

वेल्डर जल्दी ही निपट गया. 

STD/ PCO कोई दो साल चलाया होगा, वो भी निपट गया.

बिल्डिंग मटेरियल का धंधा काफी बढ़िया से चला. मैंने आस-पास तीन ठीये और हथिया लिए. ठीये क्या होते हैं साहेब बस सड़क पे ईंट-रोड़ी डालना होता है और पुलिस और MCD वालों को कुछ पैसे देने होते थे, हो गयी दूकान चालू.

यहीं पास में ही पश्चिम पुरी में क्लब रोड पर छोटे flats में से एक फ्लैट मैने खरीद लिया चूँकि उस के सामने फुटपाथ पर बिल्डिंग मटेरियल डाला जा सकता था. वहाँ मैंने श्रीमती जी को बिठाल दिया, जिन्होंने बड़ी मेहनत से उस दूकान को चलाया. यह धंधा ठीक था लेकिन चूँकि मटेरियल सड़क पर होता था तो लोग शिकायत करते रहते थे और अफसर लोग परेशान करते रहते थे.

एक दिन मैं कहीं गया हुआ था तो पीछे से पुलिस वाले आये और पिता जी बैठे थे पश्चिम विहार वाली दूकान पर. तो उन से पुलिस वाले  कुछ बदतमीज़ी कर गए. मैंने ठान लिया कि यह काम करना ही नहीं. छोड़ दिया. इसी बीच एक बार बिल्डिंग मटेरियल सप्लाई करने के लिए ट्रक भी खरीदा था लेकिन वह तो मैं बिलकुल भी नहीं चला पाया. उसे पार्क में खड़ा रखना पड़ा काफी समय. बाद में कुछ घाटे में बेच जान छुडवाई.

बिल्डिंग मटेरियल सप्लाई का काम अच्छा है, आप भी कर सकते हैं, लेकिन मटेरियल डालने के लिए या तो अपनी जगह हो या जगह ऐसी हो जहाँ मटेरियल डालने से जनता को दिक्कत न हो.  

इसी दौर में एक फ्लैट बनवाने का ठेका भी ले लिया, बनवा भी दिया लेकिन यह काम मुझे बहुत ही ज़्यादा involvement वाला लगा, सो दुबारा इस में हाथ नहीं आजमाया. 

फिर से प्रॉपर्टी के धंधे पर ध्यान केन्द्रित करने लगा और यह धंधा फिर से फलने-फूलने लगा.

इस बीच मुझे सूझा कि main road पर दूकान खरीदनी चाहिए. एक बढ़िया दूकान खरीद भी ली लेकिन इस में कुछ un-authorized था. ऑफिस बनाया, जिस सुबह शुरू करना था, उसी सुबह हमारे पहुँचने से पहले ही MCD वाले तोड़-फोड़ कर  गए. कायदे-कानून की ज़्यादा समझ थी नहीं तब, मन बहुत खराब हुआ. ठान लिया कि यह दूकान करनी ही नहीं. ऐसे ही छोड़ दी कुछ समय और फिर आधे रेट में बेच भी दी. 

लेकिन चूँकि मेरे ब्लॉक में मेरी पकड़ बहुत ही अच्छी थी सो उन्हीं पैसों से धड़ा-धड़ ले-दे किया और वो घाटा कोई 6 महीने में ही पूरा कर लिया. 

अब प्रॉपर्टी का धंधा करते-करते अच्छी खासी पूँजी जमा हो गयी थी. उन्ही दिनों flats की फाइल गिरवी रख के ब्याज पर पैसे देने का काम भी कुछ-कुछ करने लगा था मैं. मुझे यह धंधा बहुत ही बढ़िया लगने लगा. कुछ करना ही नहीं था, पैसा दो और बस ब्याज लो, लेते रहो. 

मैंने धीरे-धीरे अपना प्रॉपर्टी का धंधा समेट दिया और ब्याज का धन्धा फैला दिया. इस से इतनी कमाई आ जाती थी कि कुछ भी और करने की ज़रूरत ही न रही

मैंने प्रॉपर्टी के धंधे से जुड़े लोगों से मिलना-जुलना तक छोड़ दिया. अब मेरे पास काफ़ी समय भी था. सो साहित्य पढने का मेरा शौक जो इस आपा-धापी में छूट गया था, वो वापिस उभर आया. मैंने इस दौर में सैकड़ों-सैंकड़ों किताब पढ़ दीं. 

कोई दस साल निकल गए ऐसे. 

लेकिन फिर ख्याल आया कि और पैसा कमाना चाहिए. फिर एक वर्कशॉप अटेंड की "Money Workshop". उन दिनों इस की फीस थी 5000 रुपये. कोई साउथ इंडियन थे, उन की थी यह वर्कशॉप. दो  दिन की वर्कशॉप थी. इस में जो कुछ बताया गया, वो अधिकांशतः मुझे पहले से पता था. खैर, यहीं से मुझे आईडिया आया कि क्यों न मैं खुद एक वर्कशॉप चलाऊँ. मुझे इस में बहुत ज़्यादा पैसा नजर आने लगा. 

इस के लिए मैंने कई और वर्कशॉप अटेंड कीं. एक कोई Mr. Sajnani थे मुंबई से, वो सम्मोहन पर वर्कशॉप लेते थे. Landmark Forum भी उन्हीं दिनों अटेंड किया. Dr. N.K. Sharma,  जिन्होंने "Milk- A Silent Killer" किताब लिखी है, इन की भी एक वर्कशॉप मैंने उन्हीं दिनों अटेंड की थी. 

ये लोग कोई 2 से 5 हज़ार तक लेते थे. कोई होटल का कमरा बुक करते थे. वहाँ कुर्सियां लगीं होती थी. दो या तीन दिन तक ट्रेनिंग देते थे. चाय-पानी-लंच उसी खर्चे के बीच शामिल होता था. मुझे लगता है कि ये लोग जितना पैसा लेते थे, उस से कहीं ज़्यादा सिखाते थे. मैंने बहुत कुछ इन वर्कशॉप से भी सीखा.  

मैं अपनी वर्कशॉप साथ-साथ तैयार कर रहा था. इस के लिए मैं ढेर किताबें भी पढ़ रहा था.और 4-6 दोस्त इकट्ठा कर के उन को लेक्चर देता था और वर्कशॉप की रिहर्सल करता था. 

फिर एक बार मैंने अख़बारों में advertisement दे दी, अपनी वर्कशॉप की. दिल्ली में दो जगह बुक की अपनी वर्कशॉप के ट्रेलर देने के लिए. दिए भी. हिंदी भवन में  वर्कशॉप भी दी. लेकिन यह बुरी तरह से फ्लॉप रही. फ्लॉप इस लिए कि यह बुरी तरह से घाटे में रही. हालांकि कंटेंट के हिसाब से यह एक बहुत ही बढ़िया वर्कशॉप थी. लेकिन जैसे हर दूकान को चलाने के लिए समय की ज़रूरत होती है ऐसे ही इसे चलाने के लिए भी समय की ज़रूरत थी और उस के लिए खर्चे की ज़रूरत थी, जो करना मुझे काफी रिस्की लगा, सो इस धंधे को भी हमेशा के लिए नमस्ते कर दिया. 

इसी बीच MLM कम्पनी वालों के सम्पर्क में आ गए. लेकिन मुझे तुरत समझ आ गया कि यह सब फ्रॉड है. इस में पैसे और रिश्ते दिनों खराब होंगे. फिर कुछ समय इस बिज़नस मॉडल को समझने में लगाया ताकि हम खुद किसी ऐसे तरीके से कर सकें जिस में कमाई भी हो जाये और फ्रॉड भी न हो, लेकिन समझ नहीं आया. सो आईडिया ड्राप कर दिया. 

इसी दौर में मैंने NAREDCO ( National Real Estate development Council) का ट्रेनिंग कोर्स भी किया.

यह 15 दिन की बेहतरीन ट्रेनिंग होती थी प्रॉपर्टी डीलर्स के लिए. 

इस ट्रेनिंग में प्रॉपर्टी डीलर्स को कायदा-कानून, इन्टरनेट का प्रयोग, 

वास्तु आदि  प्रॉपर्टी से जुड़े कई पहलुओं की जानकारी दी जाती है.   

इस के बाद हमारे एक फॅमिली मित्र/ रिश्तेदार ने सुझाया कि बैंकों से लोन आसानी से मिल सकता है. उन्होंने लिए भी हुए हैं. वो हमारी मदद कर देंगे, अगर लेना हो तो. मुझे सूझा कि क्यों न यह पैसा ले कर अपने ब्याज के धंधे में लगा दिया जाये? कमाई बढ़ जाएगी. 

मेरे दफ्तर को गारमेंट और टेक्सटाइल सप्लाई के ऑफिस की शक्ल दी गयी और उन मित्र की सहायता से बहुत से क्रेडिट कार्ड बनवा लिए गए और पर्सनल लोन भी ले लिए गए. 

यह मेरे जीवन की भयंकर गलती रही. यह पैसा मैं कभी भी अपने व्यापार में नहीं लगा पाया. यह सारा पैसा वापिस बैंकों की EMI भरने में चला गया. न सिर्फ यह पैसा, बल्कि मेरे पल्ले का पैसा भी बैंकों के ब्याज में ही चला गया. पूँजी लगभग जीरो हो गयी. खराब दिन चालू हो गए. 

ऑफिस बेच दिया. फिर किराए पर ऑफिस लिया. ब्याज का डेली कलेक्शन का धंधा मैं शुरू कर ही चुका था. नए ऑफिस में इस धंधे को हम ने खूब फैलाया. तीन चार लड़के कलेक्शन पर रखे. त्रि नगर से उत्त्तम नगर तक धंधा फैला दिया. इस धंधे में हम बीस-तीस हजार से किसी को ज़्यादा रकम उधार नहीं देते थे. फिर रोज़ दो तीन सौ रुपये वापिस लेते थे. यह बड़ा ही अगड़म-शगड़म धंधा है. रकम मरने भी लगी. कोई दो-तीन केस कोर्ट में भी गए. इस धंधे में नुक्सान तो कोई नहीं हुआ लेकिन कोई बहुत फायदा भी नहीं हुआ. सो बंद कर दिया. ब्याज का हर धंधा, चाहे आप कितना ही कम ब्याज लो, रिस्की है यदि आप ने दी गयी रकम की वसूली के लिए उधार लेने वाले की कोई चीज़ अपने नीचे नहीं रखी. 

इसी ऑफिस में हम ने प्रॉपर्टी का धंधा फिर से चालू कर दिया था. 99 acres, magicbricks, sulekha  के package ले लिए थे. एक लड़का सिर्फ कालिंग के लिए रखा था. एक लड़का फील्ड वर्क के लिए. इस के अलावा एक पार्टनर भी थे, जिन को यदि डील होती तो एक निश्चित शेयर देना था.

इस बिज़नस मॉडल पर पूरा एक साल काम करने के बाद नतीजा सिफर था. हालाँकि मैंने अपने सम्पर्कों से कुछ बिज़नस निकाल लिया था.

मैंने वो सारे लोग बर्खास्त कर दिए. डेली कलेक्शन का धंधा भी बंद कर दिया. 

चूँकि दफ्तर किराए का था तो मालिक के कहने पर खाली करना पड़ा. दूसरा लिया. यहाँ फिर से कोई एक साल प्रॉपर्टी के काम में अकेले झक्क मारने के बाद नतीजा जीरो ही रहा. 

अब फिर से कोई और काम करने की सूझने लगी. पूंजी लगभग खत्म थी. 

मेरी माँ के नाम पर एक फ्लैट था, वो किरायेदार ने कब्जा कर रखा था. इस बीच उसे कोर्ट आर्डर से खाली करवाने में हम सफल हो गए.

इसी फ्लैट के एक फ्लोर पर हम ने कढी चावल, छोले चावल, राजमा चावल का काम शुरू किया. इर्द-गिर्द पर्चे बंटवा दिए. थोड़ा काम सरकने भी लगा. लेकिन खर्चा कहीं ज़्यादा पड़ रहा था और मेहनत भी बहुत ज़्यादा लग रही थी.  डिलीवरी तक के लिए लड़के रखे थे, उन  का खर्चा पड़ता था. यह Swiggy/ Zomato से पहले जमाने की बात थी. अन्तत: यह काम भी छोड़ना पड़ा.

फिर फ्लैट को बेच दिया. कुछ पूंजी खड़ी हो गयी. 

अब मुझे Surplus Garments का धंधा सूझा. मैंने प्रॉपर्टी के दफ्तर को गारमेंट के शोरूम में तब्दील कर दिया. मुझे लगा सस्ता बेचेंगे, धड़ा-धड़ बिकेगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं. फिर इससे काम के लिए एक 200 गज का हॉल किराए पर लिया, वहाँ काम शिफ्ट किया. कोई 6 महीने काम रखा वहाँ. बहुत मेहनत की लेकिन किराया, लड़कों की सैलरी और बिजली का बिल देने के बाद हमें कुछ भी बचता नहीं था. सो समेटने का मन बना लिया. वो जगह छोड़ दी. 

एक गोदाम लिया किराए पर. यहाँ से ऑनलाइन-ऑफलाइन पूरे इंडिया में माल भेज-भेज स्टॉक खत्म किया जैसे-तैसे. 

लेकिन इस सारे कार्य-कलाप में पूँजी का काफी नुक्सान हुआ चूँकि घर खर्च तो चल ही रहा था. 

अब फिर से सूझा कि ब्याज का काम करूं. थोडा बहुत किया भी लेकिन इस बार चूँकि पूँजी कम थी सो यह धंधा फलीभूत नही हुआ बल्कि एक जगह 5 लाख रुपये फंस गए, जो आज भी फंसे हुए और इस से फायदा लेने के चक्कर में और कितना ही खर्च अलग से हो चुका है.

इस बीच एक फ्लैट खरीदा था माँ के पैसों से. वो बीमार ही थीं. मेंटली अपसेट. उन के लिए अलग जगह चाहिए थी. यह फ्लैट घर के पास था. सो पहले किराए पर लिया. लेकिन फिर मालिक खाली कराने की जिद्द करने लगा तो जैसे-तैसे खरीद लिया. 

इस के बाहर वाले हिस्से को ही बाद में दफ्तर बना दिया. यहाँ प्रॉपर्टी का धंधा करने लगा. पीछे कोर्ट-कचहरी का अनुभव था और NAREDCO ट्रेनिंग भी थी, सो  झगड़े-झंझट की प्रॉपर्टी में हाथ आजमाने लगा. 

इस तरह के सौदे ज़्यादातर फ्रॉड होते हैं. या फिर लड़ने वाली पार्टियाँ खुद ही समाधान निकाल लेती हैं. या मामले कोर्ट में होते हैं, जो कि बाज़ार के लिए बेकार होते हैं. सो काम के सौदे बहुत कम निकलते हैं. न के बराबर. फिर भी कभी-कभार तुक्का लग जाता है.

और चूँकि मैंने बरसों अपने ब्लाक में काम किया ही नहीं तो दुबारा काम जमाना बहुत ही मुश्किल था लेकिन फिर भी धीरे-धीरे कुछ पैर जमे हैं और दाल-दलीया बन जाता है.   

मैंने रोटी, कपड़ा, मकान सब बेचा है. ब्याज पर खूब-खूब पैसे लिए भी हैं और दिए भी हैं. नुक्सान भी बहुत लिए हैं और फायदे भी बहुत. इज्ज़त भी कमाई है और बदनामी भी. अपनी इस व्यापारिक यात्रा से मैंने जो सीखा, वो मैं सिखाना चाहता हूँ:---

देखिये जहाँ तक हो सके, ब्याज पर न पैसे लें और न दें. उधार हो, ब्याज हो, यह आप को पूरी तरह से डुबो सकता है. किराए पर भी जगह ले कर काम करना काफी रिस्की है. हाँ, आप का धंधा जमा हो, आप को पता हो कि आप एक निश्चित रकम कमा ही लेंगे तो रकम ब्याज पर भी ले सकते हैं और जगह किराए पर भी ले सकते हैं.

और नए धंधे तलाश करने चाहियें लेकिन बार-बार धंधे तबदील न करें. और हो सके तो अपने जमे-जमाए धंधे को कभी न छोड़ें. किसी भी काम को जमाने में काफी समय लगता है. धंधा बदलने से वो समय में जो Goodwill बनी होती है, जो जान-पहचान बनी होती है, वो सब पानी में चली जाती है. इसे "सोशल कैपिटल" कहते हैं, और यह पूँजी जितनी ही महत्वपूर्ण होती है. जैसे आप की पूँजी आप को कमाई देती है, ऐसे ही सोशल कैपिटल आप को कमा के देती है. मेरे बार-बार धंधे छोड़ने-पकड़ने से मुझे दोनों तरह की पूँजी का नुक्सान हुआ है, जिसे पिछले 5 सालों में मैंने बहुत जतन से सम्भाला है.     

अपने जमे-जमाए काम की वैल्यू समझें. इसे हलके में न लें. आप आज जो कमाते हैं, वो आप के वर्षों स्थापित होने की वजह से कमाते हैं, चाहे आप रेहड़ी ही क्यों न लगा रहे हों. 

बिज़नस खोलते ही कमाई देने लगे, ऐसा ज़रूरी नहीं है. सो आप के पास बिज़नस और परिवार चलाने के लिए एक से तीन साल टिके रहने का माद्दा होना चाहिए. 

प्रॉपर्टी के धंधे में ऐसा माना जाता है कि डीलर हरामखोर होते हैं, चोर होते हैं....

लेकिन मैं देखता हूँ अधिकांशतः पार्टियाँ डीलरों को खूब मूर्ख बनाती हैं. उसे महीनों रगड़ने के बाद, उस से मार्किट की सारी जानकारी लेने के बाद, सारी ट्रेनिंग लेने के बाद बिना किसी वजह से ड्राप कर देती हैं और उस बेचारे का तन-मन-धन खर्च करवाने के बाद भी चवन्नी कमाने का मौका नहीं देतीं या फिर यदि उस के ज़रिये कोई डील कर भी ली तो उस को कमीशन देने में उन की जान निकल जाती है. कोशिश की जाती है या तो  उसे कमीशन दी ही न जाए या दी जाए तो कम से कम दी जाए. ऐसे में जितना ग्राहक पकड़ना ज़रूरी है, उतना ही छोड़ना भी ज़रूरी है. जितनी ईमानदारी ज़रूरी है, उतनी ही होशियारी भी ज़रूरी है, अपनी कमाई पर ध्यान केन्द्रित रखना भी ज़रूरी है. 

कई तो धंधे ही पिट जाते है जैसे इन्टरनेट आने से वीडियो कैसेट, VCR, TV किराए पर देने का धंधा खत्म हो गया. नई तकनीक ने पुराने धंधे को विदा कर दिया लेकिन कई बार दूसरे के धंधे को देख हम समझने लगते हैं कि इस में कमाई ज़्यादा है लेकिन अमूमन ऐसा होता नहीं, कोई भी धंधा लग कर किया जाए तो कमाई होने ही लगती है.  

नमन.

~ तुषार कॉस्मिक

सरकारी नौकरियाँ जितनी घटाई जा सकें, घटानी चाहियें

आम आदमी पार्टी बड़े गर्व से घोषित करती फिर रही है कि उस ने इत्ती..... नौकरियाँ पैदा कर दी हैं. इतने ....कच्चे नौकरों को पक्का कर दिया है.......

गर्व की बात है यह?

शर्म की बात है.
सरकारी नौकर जनता का नौकर नहीं, नौकर-शाह होता है, शाह....सरकार का जमाता.....रोज़गार देना सरकार का काम नहीं है भाईजान......सरकार का काम है कायदा -कानून बनाना और बनाये रखना, निजाम चलाना.

रोज़गार समाज ने खुद पैदा करना होता है. हाँ, सरकार यह ज़रूर देख सकती है कि किसी के साथ ना-इंसाफी न हो जाये, कुछ समाज के खिलाफ न हो जाये.
बस.

सरकारी नौकरियाँ जितनी घटाई जा सकें, घटानी चाहियें, काम ठेके पे देने चाहिए. काम करो, पैसे लो, छुट्टी. कोई पक्की नौकरी नहीं, कोई पक्की सैलरी नहीं, कोई भत्ते नहीं, कोई पेंशन नहीं. सब बोझ हैं समाज पर. ~ तुषार कॉस्मिक

कमाई से सिर्फ कमाई साबित होती है, न कि किसी फिल्म का बढ़िया-घटिया होना

वैसे तो बॉलीवुड अपने आप में एक चुतियापा है, जहाँ कभी-कभार ही कोई ढंग की फिल्म निकलती है लेकिन आज कल एक अलग ही चुटिया राग गाया जा रहा है, "यह फिल्म सौ करोड़ के क्लब में शामिल हो गयी, यह फिल्म दो सौ करोड़ रुपये की कमाई कर चुकी, यह अब दो सौ करोड़ के क्लब में शामिल हो गयी." 

क्या है ये बे?

फिल्म को इस तरह से नापा जाता है क्या?

बहुत सी महान फिल्में अपने समय में पिट गईं, बहुत सी महान क़िताब लोगों ने पढ़ी ही नहीं, फिर बाद में सदियों बाद समझ आया कि उस किताब में, उस फिल्म में क्या महान था. कमाई से सिर्फ कमाई साबित होती है, न कि किसी फिल्म का बढ़िया-घटिया होना. आई समझ में? ~ तुषार कॉस्मिक