Saturday, 25 March 2017

सब युद्ध असल में विचार-युद्ध हैं.

एटम बम से भी खतरनाक मालूम है क्या है? तार्किक, फैक्ट विहीन विचार, मान्यताएं. जंगें कोई हथियारों से थोड़ा होती हैं, वो तो बस औज़ार है. असल कारण उनके पीछे के विचार हैं. सब युद्ध असल में विचार-युद्ध हैं. फिर से पढ़िए, "सब युद्ध असल में विचार-युद्ध हैं." सबसे खतरनाक हिन्दू, मुस्लिम होना नहीं है. खतरनाक है किसी भी विचार-धारा को पकड़-जकड़ लेना. असल में शब्द 'विचार-धारा' का प्रयोग ही गलत है. चूँकि अगर 'धारा' हो तो दिक्कत ही नहीं है और न ही उसे पकड़ा जा सकता है. यह तो विचार का पोखर है. गन्दला पोखर. तो जब कोई हिन्दू, मुस्लिम, यह, वह, हो जाता है, तो असल में किसी न किसी गंदले पोखर में दुबक जाता है, डुबक जाता है. पोखर इसलिए लिखा चूँकि उसमें कोई धारा नहीं है, वो रुके पानी जैसा है. और रूका पानी तो गन्दला ही होता है. दुनिया में अधिकांश गंद उसी गंदले पोखर की वजह है. विचार का गन्दला पोखर. बस हो जाओ हिन्दू, हो जाओ मुस्लिम, ईसाई या फिर कम्युनिस्ट. ठप्पा कोई भी हो. अब जो मर्ज़ी समझा लो, बाकी सब समझ आएगा लेकिन उस गंदले पोखर के खिलाफ कुछ भी समझ नहीं आएगा. हर नए विचार को कांट-छांट के उस पोखर में फिट करते रहेंगे. जो फिट हो गया, वो सही हो गया, जो न हुआ, वो गलत. सही-ग़लत इसलिए नहीं कि वो तार्किक है या नहीं, उसमें फैक्ट हैं या नहीं ... न..न. वो सही-ग़लत इसलिए कि उस गंदले पोखर में फिट हो रहा है या नहीं. मिसाल के लिए, हिन्दू को समझाया जा रहा है कि हनुमान और राम भगवान हैं. आप ले आओ, वाल्मीकि रामायण के उद्धरण कि अशोक वाटिका में बैठी सीता मां को पहचान के लिए हनुमान राम के लिंग और अंड-कोशों तक की पहचान बताते हैं. क्यूँ? हनुमान को कैसे पता? क्यूँ न इस विषय पर सोचा जाए? राम खुद अपने वंश की महानता का बखान बार-2 करते हैं लेकिन उन्ही के पूर्वज ने गुरु की बेटी से बलात्कार किया था. रघुकुल रीत सदा चली आई. लिखा है रामायण में भाई. अपनी तरफ से कुछ नहीं लिखा जा रहा. तो कैसे मानें कि जो भी राम के बारे में घोट के पिलाया जा रहा है, वो सही है? लेकिन यहाँ तो पड़ी है सबको कि कसम राम की खाते हैं, मंदिर वहीं बनायेंगे. लाख समझाते रहो मुस्लिम को कि कुरान में दसियों आयतें हैं कि जो कहती हैं कि जो न माने कि मोहम्मद पैगम्बर है, उसे मारो. अज़ीब दादागिरी है. यह धर्म है या माफिया. लेकिन उसे नहीं समझ आएगा. वो घुमा-फिरा कर सब सही करने का, फिट करने का प्रयास करेगा. यह होता है गन्दला पोखर में दुबकना, डुबकना. यह खतरनाक है दुनिया के लिए. एटम बम से भी ज़्यादा. चूँकि एटम बम भी चलता है तो वो ऐसे ही पोखरों में डुबके लोगों की वजह से होता है. इलाज एक ही है. तीसरा विश्व-युद्ध. विचार-युद्ध. गली-गली. नुक्कड़-नुक्कड़. सब बाहर निकालो. पुराण, कुरान सब. ग्रन्थ, बाइबिल सब. सब पर सवाल उठाया जाएगा. सब पर बहस होगी. और कोई किताब आसमानी, कोई ग्रन्थ गुरु, कोई गीता भगवत (भगवान का गीत) पहले से ही तय नहीं होगा. कोई राम पहले से ही मर्यादा पुरुषोत्तम, कोई कृष्ण ईश्वर, कोई मोहम्मद पैगम्बर, कोई जीसस 'सन ऑफ़ गॉड' पहले से ही नहीं माने जायेंगे. जो विचार-युद्ध तय करेगा, वो ही माना जायेगा. बात खत्म.

Friday, 10 March 2017

सम्भोग

सम्भोग शब्द का अर्थ है जिसे स्त्री पुरुष समान रूप से भोगे. लेकिन कुदरती तौर पर स्त्री पुरुष से कहीं ज़्यादा काबिल है इस मामले में. उसका सम्भोग कहीं गहरा है, इतना गहरा कि वो हर धचके के साथ कहीं गहरा आनंद लेती है, पुरुष ऊपर-ऊपर तैरता है, वो गहरे डुबकियाँ मार रही होती है, जभी तो हर कदम में बरबस उसकी सिसकियाँ निकलती हैं. और फिर ओर्गास्म. वो तो इतना गहरा कि पुरुष शायद आधा भी आनंदित न होता हो. कोई सेक्सो-मीटर हो तो वो मेरी बात को साबित कर देगा. और उससे भी बड़ी बात पुरुष एक ओर्गास्म में खल्लास, यह जो शब्द है स्खलित होना, उसका अर्थ ही है, खल्लास होना. खाली होना, चुक जाना. लेकिन वो सब पुरुष के लिए है, वो आगे जारी नहीं रख सकता. लेकिन स्त्री के साथ ऐसा बिलकुल नहीं है. वो एक के बाद एक ओर्गास्म तक जा सकती है. जाए न जाए, उसकी मर्ज़ी, उसकी शारीरिक और मानसिक क्षमता और एच्छिकता, लेकिन जा सकती है. तो मित्रवर, निष्कर्ष यह है कि सम्भोग शब्द बहुत ही भ्रामक है. सेक्स में सम्भोग, सम-भोग, समान भोग बिलकुल भी नहीं होता. स्त्री की कई गुणा सेक्स शक्ति के आगे पुरुष बहुत बौना है. मैं अक्सर सोचता कि कुदरत ने ऐसा भेदभाव क्यूँ किया? पुरुष को काहे नहीं स्त्री के मुकाबले बनाया? लेकिन फिर याद आया कि बच्चे को जन्म देने की पीड़ा भी तो वो ही सहती है, शायद उसी की क्षतिपूर्ती की कुदरत ने. पुरुष सेक्स में स्त्री से कमतर सामाजिक कारणों से भी है. वो सामाजिक बोझ को ढोता हुआ, स्त्री से बहुत पहले ही चुक चुका होता है. वो स्त्री के मुकाबले कहीं ज़्यादा बीमार रहता है, कहीं ज़्यादा नशों में लिप्त रहता है, जल्दी मर जाता है. एकाधिक ओर्गास्म छोड़िये, पुरुष अक्सर स्त्री को एक ओर्गास्म भी नहीं दे पाता. वो जैसे-तैसे बस अपना काम निपटाता है और हो जाती है सम्भोग की इतिश्री. अब आप इसे सम्भोग....समान भोग कैसे कहेंगे? किसी की क्षमता हो तीन रोटी खाने की और उसे आप आधी रोटी खिला दें तो कैसे उसका पेट भरे? यह है स्त्री की त्रासदी. और सामाजिक घेराबंदी कर दी गयी उसके गिर्द. वो चूं भी न करे. कई समाजों में तो उसकी भग-नासा तक काट दी जाती है बचपन में ही ताकि उसे कम से कम सेक्स का आनन्द अनुभव हो. सही सभ्यता तब होगी जब स्त्री अपनी सेक्स की क्षमताओं को पूर्णतया अनुभव करेगी. और करवाना हर पुरुष की ज़िम्मेदारी है. पुरुष को सीखना होगा बहुत कुछ. और सामाजिक ताना-बाना भी बदलना होगा. स्त्री उम्र में बड़ी हो, पुरुष छोटा हो तो ही बेहतर. अलावा इसके दोनों को बाकायदा ट्रेनिंग की ज़रुरत है. जैसे क्लच, ब्रेक दबाने और स्टीयरिंग घुमाना सीखने से कोई ड्राइविंग नहीं सीखता, उसके लिए रोड के कायदे भी समझ में आना ज़रूरी है, रोड सेंस होना भी ज़रूरी है, उसी तरह से लिंग और योनि तक ही सेक्स सीमित नहीं है, उसके लिए स्त्री पुरुष के तन और मन का ताल-मेल होना ज़रूरी है, जो सीखने की बात है, जो मात्र शब्दों में ही सीखा-सीखाया नहीं जा सकता, जो आप सबको सेक्स करते-कराते सीखना होगा. अधिकांश पुरुष चुक चुके होते हैं...कोई सिगरट तो कोई शराब, कोई मोटापे तो कोई बुढापे तो कोई किसी और स्यापे की वजह से. लेकिन यदि फिर भी दम बचा हो तो अपनी स्त्री के साथ सम्भोग करते चले जाओ, वो ओर्गास्म तक पहुंचेगी ही और यदि वहां तक तुम खुद न चुके तो अब गाड़ी आगे बढाते जाओ और बिना समय अंतराल दिए गतिमान रहो. स्त्री यदि ओर्गास्म तक पहुँच भी जाए तो उसे बहुत समय-गैप मत दो, सम्भोग को गतिशील रखो. स्त्री निश्चय ही आगामी ओर्गास्म को बढ़ती जायेगी. और ऐसे ही चलते जाओ. वीर तुम बढे चलो, धीर तुम बढे चलो. जब तक दोनों में से कोई एक बिलकुल निढ़ाल न हो जाए. बेसिक फंडे दे दिए हैं. कुछ पूछना हो तो स्वागत...नमन.

इमोशनल इंटेलिजेंस

मैं तर्क का हिमायती हूँ. इतना कि मेरा मानना है कि गली-गली नुक्कड़-नुक्कड़ तर्क युद्ध होना चाहिए. तर्क की अग्नि से गुज़रे बिना मानव मन पर सदियों-सदियों से पड़े अंध-विश्वासों की मैल गलेगी नहीं. लेकिन आज बात इमोशन की, भावनाओं की. क्या तार्किक होना इमोशनल होने के खिलाफ है? और यह 'इमोशनल इंटेलिजेंस' क्या है? आईये देखिये. आपने अक्सर खबरें सुनी होंगी, ज़रा सी बात पर कत्ल हो जाते हैं. मरने वाला तो मर जाता है लेकिन मारने वाला भी मर जाता है. उसके पीछे उसका परिवार भी मारा जाता है. “ज़रा सी बात”. दिल्ली में रोड़ रेज की खबरें लगभग रोज़ सुनते-पढ़ते होंगे आप. ऐसे में हो सकता है कि कोई इंसान किसी की बदतमीज़ी बर्दाश्त कर ले. हो सकता है कि वो बुज़दिल दिखाई दे, लेकिन उसकी यह वक्ती बुजदिली उसे ख्वाह्मखाह की मुसीबतों से बचा भी सकती है. इसे कहते हैं 'भावनात्मक बुद्धिमत्ता'. इमोशनल इंटेलिजेंस. अब अगली बात. मर्द को दर्द नहीं होता. लेकिन मर्द को सेक्स का मज़ा भी नहीं आता क्या? दर्द होता है, मर्द हो चाहे औरत. लेकिन मर्द ज़ाहिर नहीं करता. ज़ाहिर करेगा तो उसकी मर्दानगी पर शक किया जाएगा. लेकिन वो इतना पक्का हो जाता है कि सम्भोग के क्षणों में भी पत्थर बना रहता है. औरत सिसकारती रहती है, वो ऐसे बना रहता है जैसे उसे कुछ हो ही नहीं रहा हो. शब्द ज़रूर 'सम्भोग' है, समान भोग, लेकिन ऐसा है नहीं. औरत ज़्यादा एन्जॉय करती है, गहरे में एन्जॉय करती है. और ऐसा इसलिए कि औरत बच्चा पैदा करने की तकलीफ से गुज़रती है. तो कुदरत ने उसको उस कष्ट की क्षति-पूर्ति करने हेतु एक्स्ट्रा-बेनिफिट दिया है. मेरी थ्योरी है. कितनी सही है, सोच कर देखें. चलिए, औरत से कम ही सही, लेकिन आदमी भी एन्जॉय तो करता ही सेक्स. लेकिन जितना भी करता है, उतना भी ज़ाहिर नहीं करता. अपने आपको रोके रखता है. घसुन्न-वट्टा बना रहता है. उसने सीख रखा है कि इमोशन की मोशन में बहना नहीं है. खुद को रोके रखना है. मर्द को दर्द नहीं होता. बस यही है मेरा पॉइंट. यह जो आपको याद दिलाई रोड़ रेज की घटनाओं की. वो वक्ती इमोशन, नेगेटिव इमोशन का नतीजा होती हैं. इमोशन को नहीं पता कि वो नेगेटिव है या पॉजिटिव. इमोशन तो बस एक एनर्जी है, ऊर्जा, मोशन, गति. लेकिन हालात के हिसाब से वो नेगेटिव साबित होती हैं. तो ऐसी इमोशन पर, नेगेटिव इमोशन पर काबू पाना ज़रूरी है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम मुस्कुराएं भी तो नाप कर. हंसे भी तो तोल कर. मानता हूँ समाज ऐसा है कि ऐसा भी करना पड़ता है. लेकिन जहां नहीं मज़बूरी, वहां भी हम नाप-तोल कर, गिन-चुन कर भावनाओं का इज़हार कर रहे हैं, यह कहाँ की समझदारी है? कैसी इमोशनल इंटेलिजेंस? तो इमोशनल इंटेलिजेंस यह है कि जहाँ इमोशन को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना, वहां बिलकुल मत होने दें, खुद को याद दिलाते रहें कि बहस नहीं करनी है, लड़ना नहीं है, लोग तो @#$^&*% होते ही हैं आदि आदि. और यदि ध्यान समझते हों तो बेहतर है उस घटना के प्रति, उस नेगेटिव इमोशन के प्रति उदासीन हो जाएं. उदास नहीं, उदासीन. साक्षी हो जाएं, गवाह, विटनेस. लेकिन जहाँ आप बह सकते हैं, वहां शीतल वायु के साथ बह जायें, बच्चे के साथ खिलखिलाएं, अपनी महबूबा की सिसकारियों के साथ अपनी सिसकारियां मिला दें, और फिल्म देखते हुए रोना आये तो खूब रोयें. पता है कि पर्दा है, रोशनी का खेल है, वहां असल में कुछ भी घटित नहीं हो रहा लेकिन ऐसे तो जीवन भी खेल है. लीला. लेकिन खेल को खेल जानते हुए भी जी-जान से खेला जाता है कि नहीं? तो बस खेलें. लीला के रंग में रंग जाएँ. रोकें नहीं, टोके नहीं. बारिश की एक-एक बूँद को महसूस करें. गले में उतरते पानी के एक-एक घूँट का आनदं लें. खाना खाएं तो मशीन की तरह नहीं, इंसान की तरह, आखिरी कौर तक स्वाद का लेते हुए. नर्म बिस्तर, नर्म कम्बल, मखमली कम्बल की छूअन को अपने अंदर उतरने दें. ये अहसास, ये बहाव, ये भाव, ये भावनाएं जीवन को रंगीन बनाती हैं. होली इन्ही अहसासों को, इन्ही रंगीनियों को जगाने का एक ज़रिया है. रंगों के ज़रिये, छूअन के ज़रिये, नृत्य के ज़रिये, गायन के ज़रिये,पागल-पंथी के ज़रिये. तो जब मैं तर्क की बात करता हूँ तो उसका अर्थ जीवन को भावों से, भावनाओं से, अहसासों से विहीन करना नहीं है बल्कि इनमें भी समझदारी लाने से है. इमोशनल इंटेलिजेंस. नमन....तुषार कॉस्मिक

Thursday, 9 March 2017

स्वास्थ्य

बड़ा विषय है. जो कुछ भी लिखने जा रहा हूँ, वो बस कुछ-कुछ ही है. बहुत पहले लिखा था कहीं कि इंसान बूढ़ा उम्र से नहीं, ग्रेविटी से होता है. आपने कभी पढ़ा-सुना हो कि जो लोग स्पेस में रहे बीस-तीस साल, जब वो वापिस आये तो उनके बच्चे उनके बराबर की उम्र के दिख रहे थे.स्पेस में रहने वाले लोगों की उम्र रुक गई थी. आगे ही नहीं बढ़ी. मुझे नहीं पता कि यह कितना सत्य है. लेकिन मेरी समझ से सत्य होना चाहिए. वजह है. वजह है ग्रेविटी. ग्रेविटेशनल पुल. आपका वज़न क्या है? मानो सत्तर किलो. इसका मतलब है कि आपके शरीर पर प्रतिपल सत्तर किलो का खिचांव पड़ रहा है नीचे को. मान लीजिये कि आपके कंधों पर बीस किलो वज़न डाल दिया गया, तो आपको क्या लगता है कि आप सिर्फ बीस किलो उठा रहे हैं? नहीं. अब आप नब्बे किलो वज़न उठा रहे हैं. सत्तर अपना मिला कर. अब धरती आप को नीचे की तरफ नब्बे किलो वज़न से खींच रही है. अब जिस चीज़ को कोई लगातार सत्तर किलो वज़न से नीचे को खींचा जा रहा हो तो उसका मांस नहीं लटकेगा क्या? उस के जोड़ों में खिंचाव नहीं आएगा क्या? उसके बाकी सिस्टम में कोई नेगेटिव फर्क नहीं आएगा क्या? बिलकुल आएगा. आपके अंडर-वियर का इलास्टिक साल-छह महीने में ढीला हो जाता है, अंडर-वियर जॉकी का ही क्यूँ न हो, जिसे दिखाने की आप में कभी-कभी छद्म इच्छा जागृत हो उठती है. तो यह इलास्टिक क्यूँ ढीला हो जाता है? चूँकि लगातार खिंचाव पड़ रहा होता है. तो जस्ट इमेजिन. जब आपके-हमारे शरीर पर लगातार अपने वज़न जितना खिंचाव पड़ेगा तो उसका क्या हाल होगा? तो वज़न कम रखें. कितना कम? मैं आपको इंचों में, किलो में नहीं बताने वाला. मेरा पैमाना सीधा है. जब आप सीधे खड़े हों तो आप अपने पैर देख सकें. मतलब बीच में पेट न आता हो. आपने बच्चे देखे हों. मैं शहर के, अमीरों के बच्चों की बात नहीं कर रहा. मैं भुखमरी के शिकार इलाकों के बच्चों की बात भी नहीं कर रहा. आम घरों के बच्चे. आपको शायद ही कोई आड़ा-टेड़ा दीखता हो. सब फिट. बस वैसा शरीर आदर्श है. किसी डॉक्टर के पैमाने पर मत जाएं. मेरी छोटी बिटिया को आज भी अंडर-वेट कहते हैं, लेकिन वो कल भी स्वस्थ थी और आज भी है. तो वज़न सही होगा तो फालतू गुरुत्व-आकर्षण नहीं पड़ेगा शरीर पर. आप देर से बूढ़े होंगे, कम बीमार होंगे. अब यह क्या बात? वज़न कम रखें. यह तो अक्सर सुनते आये हैं आप. ठीक. लेकिन जो वजह मैंने बताई, जैसे बताई, वो सब नहीं सुना होगा. अब इलाज पढ़िए. इलाज है योग-आसन. यह एकमात्र विधि है जो गुरुत्व-आकर्षण के खिलाफ काम करती है. मैंने अनेक तरह की व्यायाम किये हैं जीवन में. एक समय में लोग अपने व्यायाम छोड़ मुझे देखते थे कि यह आदमी मशीन की तरह कैसे इतनी हरकत कर लेता है. लगातार. मान लीजिये आप रस्सी कूद रहे हैं. ठीक. यह आपको व्यायाम दे रही है लेकिन आप के शरीर पर गुरुत्व बल उतना ही पड़ रहा है जितना हमेशा पड़ता है. आप रोजाना पैदल चलते हैं, दौड़ते हैं, आपका शरीर उसी स्थिति में होता है, जैसा होता है अक्सर. ज़मीन पर पैरों के बल नब्बे डिग्री पर. गुरुत्व बल वैसे ही अपना काम करता रहता है. एक मात्र योग-आसन ऐसी विधा है जो शरीर को गुरुत्व-बल के खिलाफ खड़ा करती है. जिससे हम जो गुरुत्व बल हमारे खिलाफ काम कर रहा होता है, उसे ही अपने पक्ष में कर लेते हैं. बीमारी को ही इलाज बना देते है. दुश्मन को दोस्त बना लेते हैं. अब यह क्या नई बात बताई मैंने? योग-आसन के फायदे होते हैं, यह तो आपको पहले ही पता था. राईट? लेकिन वो फायदे कैसे होते हैं, उसकी जो एक्सप्लेनेशन मैंने दी, वो शायद आपको नहीं पता था. राईट? योगासन कोई बाबा रामदेव की देन नहीं हैं. उनसे पहले धीरेन्द्र ब्रह्मचारी सिखाते थे टीवी पर. 'भारतीय योग संस्थान' बहुत पहले से पार्कों में योग सिखा रहा है, करा रहा है. बहुत लोग व्यक्तिगत स्तर पर योग कक्षाएं लीड करते आ रहे हैं. विदेशों में विक्रम योगा काफी मशहूर रहा है. योग-आसन पतंजलि के अष्टांग योग का एक हिस्सा है और यह भारत की दुनिया को बड़ी देन में से एक है. तो योग-आसन मात्र ही होने चाहिएं क्या व्यायाम में? मेरा ख्याल है कि नहीं. गुरबाणी में शायद पढ़ा था,"नचणा टप्पणा मन का चाओ.” इंसानी मन का चाव है, नाचना, टापणा. तो कुछ ऐसा ज़रूर करें कि जिसमें कूदना, फांदना, भागना, चलना-फिरना भी हो जाए. क्षमता अनुसार, हालांकि क्षमता भी बढ़ाई जा सकती है और क्षमता की सीमाएं बहुत कुछ मानसिक अवरोधों की वजह से भी बनी होती हैं. रस्सी कूदी जा सकती है. बिना रस्सी के भी कूदा जा सकता है. खड़े-खड़े हाफ स्टेप रनिंग की जा सकती है. बॉक्सिंग किट पर घूंसे-बाज़ी की जा सकती है, किक की जा सकती हैं. और भी बहुत कुछ. खैर, इन्हें हम 'फ्री-हैण्ड एक्सरसाइज' कह सकते हैं. ऐसी सब एक्सरसाइज मानसिक रेचन के लिए भी ज़रूरी हैं. भावनात्मक वाष्पीकरण. अगली महत्व-पूर्ण व्यायाम विधा है वजन उठाना. जैसा मैंने ऊपर लिखा कि योग-आसन हमारा गुरुत्व-बल के खिलाफ हथियार है. वज़न उठाना दूसरा हथियार है. गुरुत्व-बल के ही खिलाफ. प्रतिपल पड़ने वाले गुरुत्व-बल के खिलाफ ही हम अपने शरीर को और मज़बूत कर रहे हैं. दंड पेलना, बैठकें मारना, सब इसमें आता है. ये बॉडी-वेट एक्सरसाइज कहलाती हैं. हम अपने ही शरीर के वज़न को अपने शरीर के ख़ास अंगों पर डाल कर शरीर को मज़बूत करते हैं. या फिर हम डम्ब-बेल, बार-बेल, मशीनों आदि का प्रयोग करते हैं. यह भी असल में है, ग्रेविटी के खिलाफ ही हथियार. यूँ समझें कि एक साठ साल के व्यक्ति का शरीर अगर अस्सी किलो का है और अगर एक बीस साल के लड़के का शरीर भी अस्सी किलो का है तो वज़न तो दोनों का बराबर है लेकिन उनकी क्षमता बराबर नहीं होगी. क्यूँ? साठ साल के व्यक्ति के शरीर में वो ताकत नहीं है जो बीस साल के व्यक्ति के शरीर में है. अंडर-वियर का इलास्टिक ढीला हो चुका है. लेकिन अगर वही व्यक्ति वज़न उठा-उठा कर अपने शरीर को मज़बूत कर ले तो? अब शायद वो बीस साल के आम लड़के का भी मुकाबला कर ले. यह ढीले इलास्टिक को मशीन में डाल फिर से मज़बूत करने का ढंग है. बाकी गुरुत्व बल तो हर हालात में अपना काम एक जैसा ही करता है. तो व्यायाम को तीन हिस्सों में बांटता हूँ. १.योगासन. २.फ्री-हैण्ड एक्सरसाइज (नाचना-कूदना आदि) ३.वज़न उठाना मिला-जुला कर करें, लेकिन योग-आसन को सबसे ऊपर रखें. अष्टांग योग के ही दो अंग हैं. धारणा और ध्यान. स्वास्थ्य में इनका क्या महत्व है, देखिये मेरे साथ. मन ड्राईवर है शरीर का. और अगर ड्राईवर दारू पीये हो, अनाड़ी हो तो वो गाड़ी ठोक देगा. गाड़ी चाहे कितनी ही बढ़िया हो. 'रोल रोयस' ही क्यूँ न हो. तो ये दोनों विधाएं दारू पीये मन को सूफ़ी करने में काम आती हैं. धारणा है धारण कर लेना कुछ. मन में कुछ बिठा लेना. मैंने अक्सर ज़िक्र किया है 'लैंडमार्क फोरम' का. उस वर्कशॉप का एक निचोड़ यह था कि हम वो ही हो जाते हैं, जो हमारे मन में कभी जाने-अनजाने बैठ जाता है, बिठा दिया जाता है. और यह जो बैठता है, अधिकांशत: नेगेटिव होता है. इंसान की सबसे ज़्यादा पिटाई वो खुद ही करता है. ज्यादातर लोगों की 'सेल्फ इमेज' बहुत खराब होती है. कोई अपनी चौड़ी नाक से परेशान है तो कोई अपनी छोटी हाइट से. कोई गंजा हो रहा है तो कोई मोटा. बहुत कम लोग हैं, जो जैसे हैं, वैसे खुश हैं. समाज इस तरह से पेश आता है एक बच्चे से कि उसे अपना बहुत कुछ खराब लगता है, बेकार लगता है. वो लगातार खुद को कोसता रहता है. तो भैया जी, बहिन जी, खुद को जुत्तियां मारनी बंद कीजिये. आप सही हैं और बेहतर हो सकते हैं. यह जो नॉन-स्टॉप रेडियो चलाए रखते हैं अपने खिलाफ़ उसे बंद करें. बस, फुल स्टॉप. 'नेगेटिव सेल्फ-टॉक' से 'पॉजिटिव सेल्फ-टॉक' करें. लेकिन मात्र पॉजिटिव पॉजिटिव पॉजिटिव का गीत गाने से कुछ नहीं होगा यदि उसके पीछे तार्किक ग्राउंड नहीं होगी तो. आपका मन खुद ही ऐसी धारणा को नकार देगा और आप पहले से भी बदतर स्थिति में होंगे. पुराना मन कहेगा, "देखा, मैं न कहता था, यह नहीं हो सकता. आया बड़ा तीस मार खां." तो पॉजिटिव धारणा से मतलब पॉजिटिव बकवास-बाज़ी चलाए जाने से नहीं है. न. उसके पीछे मज़बूत तार्किक ग्राउंड रखने से भी है. अगर आप उम्र में छोटे हैं और दौड़ प्रतियोगिता में हिस्सा लेना चाहते हैं तो आप बुधिया सिंह की मिसाल ले सकते हैं, जिसने बचपने में ही कई रिकॉर्ड तोड़ दिए थे. और उम्र में बड़े हैं तो फौजा सिंह को अपने सामने रख सकते हैं, जो सौ साल के होकर भी मीलों दौड़ते हैं रोज़. अब अगर आप कहीं आप असफल भी होते हैं तो आपका पुराना मन आप पर हावी नहीं हो पायेगा. यह एक तरह का आत्म-सम्मोहन है. सम्मोहन में भी यदि कुछ धारणा मन में बिना तार्किक आधार के बिठा दी जायेगी तो वो कितनी ही पॉजिटिव दिखे लेकिन कुछ ही समय बाद बैक-फायर करेगी. तो आत्म-सम्मोहन हो, दूसरे द्वारा सम्मोहन हो, सेल्फ-टॉक हो, पॉजिटिव धारणाएं धारण करें लेकिन तार्किक आधार के साथ. बुनियाद मज़बूत न हो तो बिल्डिंग कितनी बड़ी खड़ी कर लें, भर-भरा कर गिर जायेगी. दूसरी विधा है 'ध्यान'. बहुत लिखा-कहा जाता है ध्यान पर आज कल. जिन्हें कुछ नहीं पता, उन्हें भी सब पता है. खैर, मेरा भी एक आर्टिकल है इसी विषय पर. शोर्ट में कहता हूँ . ध्यान पर ध्यान ही ध्यान है. हमारी ज्यादातर बीमारियाँ मन से आती हैं. ध्यान भटकता है इधर-उधर. और इसी भटकन में वो एक खिंचाव पैदा किये रहता है और वो खिंचाव शरीर को अंदर से बीमार करता है. तो यह दूसरा खिंचाव है. गुरुत्व-बल बाहर से खींचता है. मानसिक खिंचाव अंदर से खींचता है. रक्त-चाप को अनियमित कर देता है, ह्रदय-रोग दे जाता है, शर्करा बन जाता है, ब्रेन हैमरेज दे जाता है, कुछ भी कर जाता है. तो मित्रवर, ध्यान सीख लीजिये. तुरत काम आता है. आपको जब भी लगे मामला गड़बड़ होने जा रहा है. तुरत ध्यान विषय से हटा लीजिये और ध्यान को ध्यान पर ले आईये. ध्यान का तीर प्रत्यंचा से छूटे नहीं. वो हर दम तैयार है छूटने को. लेकिन आपकी नज़र अगर जमी है उस पर, तो वो नहीं छूटेगा. समन्दर में उठा भंवर शांत होता जाएगा. बस सीखने की विधा है. हर वक्त काम आती है. आपके बगल में बैठे व्यक्ति को पता तक नहीं लगेगा कि आपने कैसे खुद का इलाज कर लिया. वो शब्द है न. स्वस्थ. स्वयं में स्थित. वो यही है. ध्यान पर ध्यान. अपने आप में स्थित होना. आप, हम सिवा ध्यान के कुछ नहीं हैं. और जब आप खुद पर स्थापित हो जाते हैं तो स्वस्थ हो जाते हैं. अगला मुद्दा है "आहार". आहार मात्र भोजन नहीं है. जो भी कुछ हम शरीर में डालते हैं, वो आहार है. जो मन में डालते हैं, वो भी आहार है. तो ज़रूरी है कि हम क्या पढ़ रहे हैं, क्या देख रहे हैं, क्या सुन रहे हैं, वो सब भी स्तरीय हो. स्वास्थ्यकारी हो, कचरा डालेंगे तो कचरा ही बाहर आएगा. गार्बेज इन, गार्बेज आउट. अच्छा डालेंगे तो आउटकम भी अच्छा ही होगा. आजकल हॉलीवुड की फिल्में बनती हैं. "ज़ोम्बी" विषय पर. सीरीज़ बनती चली आ रही हैं. अब यह कचरा नहीं तो और क्या है? हॉरर फिल्मों की सीरीज़ बनती चली आती हैं. बीमार मनोरंजन. बॉक्सिंग क्या है? बीमार मनोरंजन. इंसान इंसान को मार-कूट के धराशाई कर दे, तो यह खेल हुआ? वो रोम में होता था ऐसा. लड़ाके छोड़ दिए जाते थे अखाड़े में. एक दूजे को मारते हुए. दर्शक दीर्घ में बैठे भद्रजन ताली पीटते थे. तो मन में जो डाला जाए, वो स्वास्थ्यकारी होना ज़रूरी है. और तो तन में जो डाला जाए, वो भी स्वास्थ्यकारी होना ज़रूरी है. तन के आहार में भोजन बड़ा हिस्सा है. लेकिन पहले बात धूप की. जितना ज़रूरी अच्छा खाना-पीना है, उतना ही ज़रूरी धूप का सेवन है. गर्मी हो या सर्दी, आधा घंटा, एक घंटा धूप में ज़रूर रहें. हो सके तो कपड़े उतार कर. वो गोरे मीलों दूर उड़ कर समुद्र किनारे नंगे पड़े रहते हैं धूप में और हमारे यहाँ यही चिंता रहती है कि कहीं काले न हो जाएँ. धूप लेंगे तो सर्दी, खांसी ज़ुकाम नहीं होगा. हड्डियाँ कड़-कड़ नहीं बोलेंगी. धूप कुदरत का तरीका है, हमारे तन को सेकने का, पकाए रखने का. नहीं लेंगे तो शरीर कच्चा पड़ना शुरू हो जाएगा. मैंने लिखा था कुछ समय पहले कि प्रभु कह रहे हैं इंसान से. "हम ने सर्द दिन बनाये और सर्द रातें बनाई, लेकिन तुम्हारे लिए नर्म नर्म धूपें भी खिलाई. जाओ, निकलो बाहर मकानों से, जंग लड़ो दर्दों, खांसी और ज़ुकामों से" अब भोजन की बात. आग की खोज से हमारे सभ्य होने की यात्रा की शुरूआत मानी जाती है. आग ने बहुत कुछ दिया है हमें. अभी कुछ समय पहले तक ट्रेन आग से चलाई जातीं थी. आग से पानी को गर्म करके भाप बनाई जाती थी और भाप की ताकत से ट्रेन दौड़ती थी. लेकिन आग से हमारा बहुत कुछ नुक्सान भी हुआ है. आग को हम घर ले आए. रसोई घर. हमने वो तक पका लिया जो शायद हमारे खाने के लिए था ही नहीं. बहुत पहले डिस्कवरी चैनल पर एक प्रोग्राम देखा था. कुछ बीमार लोगों को एक जगह इकट्ठा कर लिया गया और उनको कच्चा खाना दिया गया. बिना पका. लगातार. बड़ी मुश्किल से खा पा रहे थे वो लोग. लेकिन कुछ ही समय में उनके बहुत से रोग अपने आप दूर हो गए. खाना हम खाते हैं या खाना हमें खाता है? यह गहन प्रश्न है. इतनी तरह का खाना हम ईजाद कर चुके हैं कि क्या खाएं और क्या न खाएं, यह भी एक विज्ञान बन गया है. डाइट विज्ञान. कुदरत को हम बेवकूफ समझते हैं. हमें लगता है कि हम सबसे सयाने हैं और जो हम करते हैं, वो ही सही है. सूरज किस लिए है? वो अपनी गर्मी से फल-सब्जियां-नारियल पकाता है कि नहीं? उनमें बहुत कुछ ऐसा है कि नहीं जिसे इंसान सीधा खा सकता है? बस वही खाने लायक है. बाकी जो कुछ भी आप-हम खा रहे हैं. बकवास है. सीधी बात, नो बकवास. गली में सर्वे करते फिर रहे थे....आपके बच्चे सूप कौन सी कंपनी का पीते हैं? इडियट. दिल किया थप्पड़ मार कर भगा दूं. एक तो वैसे ही दरवाज़े बजा-बजा कर घर की औरतों को मज़बूर कर रहे थे कि इन महाराज के सवालों का जवाब दें. ऊपर से सवाल इतने बकवास. मैंने कहा, "सूप पीते हैं लेकिन टमाटर का. सब्ज़ियों का. किसी कम्पनी का नहीं." वो अज़ीब शक्ल बना कर देख रहे थे. मुझे लगा नहीं कि उनको मेरी बात समझ में आई. मैं तो इस हक़ में भी नहीं कि सूप भी बनाया जाए. सीधा जो सब्ज़ी खा सकते हैं, खा लेनी चाहिए. लेकिन मुझे आभास है कि एक दम से सब कुछ कुदरत की आग में पका ही आप खाएं, यह लगभग असम्भव है. हाँ, आप अपने भोजन में जितना हो सके कुदरती खाना शामिल करें, यह सम्भव है. तो ये थोड़ी सी बात, खान-पान और व्यायाम के विषय में. हालांकि और भी पहलु हैं. स्वास्थ्य के लिए जीवन स्वस्थ होना चाहिए. जीवन संतुलित होना चाहिए. जीवन में अगर असंतुलन होगा तो यह सब जो लिखा है मैंने ऊपर कुछ काम नहीं आएगा. मिसाल के लिए अगर किसी की आर्थिक स्थिति सही न हो तो यह सारी विधाएं अपनाने के बाद भी वो अस्वस्थ हो सकता है. और अगर ट्रैफिक के नियमों के साथ खिलवाड़ करेगा तो टांग तुड़वा बैठेगा, लाख करता रहे आसन. सेक्स न मिले तो पगला जाएगा. लेकिन ये सब फिर कभी. नमन...मदारी...तुषार कॉस्मिक

दो सलाहें

१.सब मित्रों से गुज़ारिश, फेसबुक का 'रिप्लाई' आप्शन न प्रयोग कर सीधे कमेंट लिखें, वो सबको नज़र आता है और किसी व्यक्ति विशेष को सम्बोधित करना हो तो उसका नाम लिख दें. २.और 'शेयर' आप्शन भी न प्रयोग करके सीधे कॉपी पेस्ट करें और ओरिजिनल लेखक का नाम टैग कर दें. ज़्यादा पढ़ा जाएगा.

वैसे तो कोई टके सेर नहीं पूछता मुझे, फिर भी खुश-फ़हमी हुई मुझे आज कि शायद किसी को मुझ से बात करने का मन हो. नम्बर दिया है.... 9876543210


कट्टर

अक्सर सुनता हूँ कहते मित्रों को," मैं फलां पंथ को मानता हूँ लेकिन कट्टर नहीं हूँ" "किसी भी धर्म को, मज़हब को, दीन को मानो लेकिन कट्टर मत होवो." बकवास! जब आप किसी ख़ास ढांचे में, खांचे में खुद को ढालते हैं तो वो कट्टर होना ही होता है. मतलब किसी दीन, मज़हब, धर्म, पंथ, सम्प्रदाय को मानना और कट्टर होना, दो नहीं एक ही बात है. कट्टर होना/ फंडामेंटल होना.......मतलब अपनी मान्यताओं से टस से मस नहीं होना...कोई लाख तर्क दे....तथ्य दे...प्रयोग से बताये...साबित कर दे......"पंचों का कहा, सर माथे लेकिन परनाला उत्थे दा उत्थे". धार्मिक, दीनी लोगों को कोई भी तर्क दे, कैसा भी तर्क दे...वो आम तौर पर टस से मस नहीं होते. इस लिए अब एक विचार यह भी पैदा हो रहा है कि किसी तरह से नए बच्चों की परवरिश दीनी, धार्मिक लोगों की पकड़ से बाहर की जाए. कट्टर मतलब दूसरों को अपनी बात जबरन मनवाने से नहीं है......न... कट्टर होना, यह नहीं है. यह मुसलमान होना है. कट्टर होना, मतलब आप जो भी मानते हैं, बस वो ही मानते हैं. जोर से. आपकी पकड़, जकड़ तर्क के दायरे से बाहर हो जाती है. वो मानना कुछ भी हो सकता है. कट्टरता का मतलब खुद को एक खूंटे से बाँध लेने से है. तो जब कोई कहता है कि मैं धार्मिक हूँ लेकिन कट्टर नहीं, तो मैं अंदर अंदर ही हँसता हूँ.

अक्सर लोग गलत को गलत और सही को सही मानने में यकीन करते हैं लेकिन दिक्कत तो यह है उनका गलत ज़रूरी नहीं गलत हो और उनका सही ज़रूरी नहीं सही हो.


बदमाश औरतें

लानत है. आज किसी स्त्री पर अत्याचार सुन भर लिया जाए....क्या औरत, क्या मर्द.....निकल पडेंगे.....मोमबत्तियां लेकर.......फेसबुक भर जायेगा स्त्री समर्थन में ......इडियट. जब औरत मर्द पर अत्याचार करती है तब कहाँ होते हैं ऐसे लोग....ख़ास करके औरतें....वो क्यों नहीं खड़ी होतीं ऐसे में आदमी के साथ? एक कोई जसलीन कौर थीं... तिलक नगर दिल्ली का केस था...एक लडके को खाहमखाह फांस रखा था केस में.......चैनल दर चैनल दिखा रहे थे पीछे. उम्दा केस... यह समझने को कि समाज में पलड़ा किसी भी एक तरफ झुक जाए तो ना-इंसाफी होनी शुरू हो जाती है. उस लड़के पर आरोप कि उसने लड़की को छेड़ा.........सबूत कुछ भी नहीं ....गवाह जसलीन के खिलाफ बोल रहे थे...फिर भी केस लड़के के खिलाफ ........उस लड़के ने लड़की को टच तक नहीं किया. कुछ कहा सुनी ज़रूर हुई. मैं आपसे पूछता हूँ कि यदि आदमी आदमी को थप्पड़ मार दें तो क्या यह सेक्सुअल आक्रमण का केस है? नहीं न. अब यदि जिसे थप्पड़ मारा हो वो औरत हो तो क्या? लेकिन सम्भावना है कि सेक्सुअल आक्रमण का केस बनाया जाए. एक बहुत प्रसिद्ध केस था. निशा शर्मा का.लड़की को नायिका बना दिया गया था. क्यूँ? चूँकि उसने दहेज़ मांगने वालों की बारात लौटा दी थी. सालों केस चला और नतीजा यह निकला कि लड़की पक्ष झूठा था. लड़के की ज़िंदगी खराब कर दी. पूरे परिवार को ज़िल्लत झेलनी पड़ी. 04/03/2017 'जागरण' (jagran.com) की खबर है. "बस में छेड़छाड़ का आरोप लगा कर तीन युवकों को पीटने वाली 'बहादुर बहनों' पर बड़ा सवाल उठ गया है। रोहतक के एसीजेएम हरीश गोयल की अदालत ने तीनों आरोपी युवकों को बरी कर दिया। अदालत को इस केस में पीड़ित पक्ष की तरफ से कोई ठोस गवाह या फिर सबूत नहीं मिला है। बचाव पक्ष के अधिवक्ता का कहना है कि अब केस कोर्ट में आगे नहीं चलेगा। हालांकि, पीड़ित पक्ष के अधिवक्ता का कहना है कि वह हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाएंगे। युवकों और युवतियों का लाई डिटेक्टिव टेस्ट भी कराया गया, जिसमें युवतियों को झूठा और युवकों को सच बताया गया। इसके अतिरिक्त अदालत में युवाओं के वकील ने कई साक्ष्य पेश किए। उधर, दोनों युवतियों की तरफ से कोई ठोस सबूत नहीं पेश किया गया। बता दें कि घटना के बाद बस के कंडक्टर और चालक को निलंबित कर दिया गया था, लेकिन आरोपों पर संदेह के बाद उन्हें भी बहाल कर दिया गया। दोनों बहनों के बहादुरी के दावे के बाद उन्हें कई संस्थाओं ने सम्मानित किया। प्रदेश सरकार ने भी दोनों को पांच लाख रुपये का नकद पुरस्कार देने और 26 जनवरी पर सम्मानित करने का फैसला किया था। लेकिन, जब सच्चाई सामने आने लगी तो सरकार ने पुरस्कार की राशि रोक ली और सम्मानित करने का फैसला भी रोक दिया। अब इस मामले में अदालत का फैसला आने के बाद सम्मान भी नहीं मिलेगा। जिन युवकों पर छेड़छाड़ का आरोप लगा उनमें से दो दीपक व कुलदीप उस समय जाट कॉलेज में पढ़ते थे। तीसरा मोहित नेकीराम कॉलेज का छात्र था और तीनों ही बीए सेकंड ईयर में थे। दीपक और कुलदीप ने सेना भर्ती का फिजिकल पास कर लिया था। कुलदीप ने मेडिकल भी क्लीयर कर लिया था। फरवरी में उसकी ज्वाइनिंग थी। लेकिन घटना के बाद सेना ने दोनों के आवेदन निरस्त कर दिए थे।" ओ भाई, औरतों को अमोघस्त्र मत पकड़ाओ....कोई दूध की धुली नहीं होती सब......अगर मुकाबिल औरत हो तो उसके औरत होने से ही तय मत कीजिये कि आदमी पर कौन सा केस लगाया जाए.....498- A और DV Act के तले कितने ही आदमी पीस कर रख दिए ही औरतों ने. महिलाओं में एक अलग ही ब्रिगेड तैयार हो गयी है......बदमाश ब्रिगेड...जो बात बेबात आदमियों को गाली देती हैं, हाथ उठा देती हैं, थप्पड़, लात घूंसे जड़ देती हैं......और अक्सर आदमी बेचारा पिटता है, सरे राह. क्या है इन औरतों की शक्ति का राज़? इन्हें लगता है कि इनका औरत होना सबसे बड़ी शक्ति है....खास करके भीड़ में..........समाज का सामूहिक परसेप्शन बन चुका है कि आदमी शिकारी है और औरत शिकार, बेचारी अबला.....सो यह बेचारी अबला बस मौका देखते ही आदमी की इज्ज़त उतार देती है. इसे लगता है कि अव्वल तो आदमी उस पर वापिसी हाथ उठाने की हिम्मत ही नहीं करेगा और करेगा भी तो वो अपने कपड़े फाड़ लेंगी.......शोर मचा देंगी........बलात्कार का आरोप लगा देंगी. इलाज़ क्या है? इलाज एक तो यह है कि समाज में यह विचार प्रसारित किया जाए कि औरत मर्द किसी को भी एक दूजे के खिलाफ अत्याचार की छूट नहीं दी जा सकती. दूजा है, ये जो बदमाश किस्म की औरतें हैं इनको जब भी सम्भव हो बाकायदा तरीके से धुना जाए. लकड़ी को लकड़ी नहीं काटती...लेकिन लोहे को लोहा काटता है. यदि मर्द को औरत की इज्ज़त से खिलवाड़ करने का हक़ नहीं है तो औरत को कैसे है? कानून बिलकुल अपना काम करता है, लेकिन आप पर कोई जिस्मानी वार करे तो आप क्या करेंगे? आत्म रक्षा आपका कानूनी हक़ है. निश्चिंत रहें किसी के भी कपड़े फटे होने से साबित नहीं होता कि उसके साथ बलात्कार हुआ है. इस तरह के आरोप केस के शुरू में ही धराशायी हो जायेंगे. कॉपी राईट

Tuesday, 7 March 2017

कायनात अल्लाह की किताब है और ज़र्रा ज़र्रा उसका पैगम्बर.


मज़मा

आईये, आईये, मेहरबान, कदरदान, पानदान, पीकदान...आईये, आईये.

ए साहेब, जनाब, मोहतरमा ध्यान किदर है......सबसे अच्छी पोस्ट इधर है.......रंग-बिरंग-बदरंग पोस्ट......आईये, आईये,

सेक्स पे पढ़ना हो या टैक्स पे........धरम  पे पढना हो या भरम  पे......मज़मा चालू है...आईये, आईये.

ए मैडम, आप भी आयें...अपने साहेब को लेते आईये...जी....हाँ जी, हज़ूर...आईये ...आपके बाल  उड़ गए हैं  या जहाँ बाल नहीं होने चाहियें वहां जुड़ गए हैं.....  चिंता न करें...हम मदद करेंगे......मैं हूँ न.......आईए, आईये.

उलझों को सुलझाते हैं और सुलझों को उलझाते हैं....नहीं..नहीं...मल्लब सुलझों को और सुलझाते हैं...ढंग से मिस-गाइड करना अपना फर्ज़ और कानून है.....आईए, आईये.

अपने साथ यारों, प्यारों, बेकरारों, बेकारों को...सबको साथ लेते आईये...मज़मा चालू है......थोड़ी देर का शो है..... कल हम कहाँ तुम कहाँ.... आईये. आईये.

मदारी...तुषार कॉस्मिक.

पहले तुम्हें सेक्स से नवाज़ा गया, जब तुम उस नेमत का सही इस्तेमाल नहीं समझे तो तुम्हें हाथ दिए और जब तुम फिर भी नहीं समझे तो तुम्हें "अपना हाथ जगन्नाथ की" हिदायत दी गई. सच में जगन्नाथ बड़ा मेहरबान है.


::: तारक फतह से सावधान :::

तारक फतह बहुत मुसलमानों की आँख की किरकिरी बने हैं. और बहुत से हिन्दुओं के चहेते. 

होना उल्टा चाहिए. 

मुसलमानों को उनका शुक्र-गुज़ार होना चाहिए कि वो मुसलमानों को सिखा रहे हैं कि किसी तरह से ठुक-पिट कर आज की दुनिया में रहने के काबिल बन जाओ. डेमोक्रेसी को मानो, सेकुलरिज्म को मानो. कत्लो-गारत से हटो.

लेकिन  बाकी दुनिया को उनसे सावधान होना चाहिए.

चूँकि  असल में वो धोखा दे रहे हैं. उनका फंडा है, "एक अल्लाह का इस्लाम है, एक मुल्ला का इस्लाम है."

फिर से पढ़ें, चश्मा लगा कर पढें, अगर नज़र सही है तो माइक्रोस्कोप के नीचे रख पढ़ें. अंडरलाइन नहीं दिख रहा, बोल्ड नहीं दिख रहा लेकिन  अंडरलाइन और बोल्ड मान कर पढें. 

तारक फतह का बेसिक फंडा है," "एक अल्लाह का इस्लाम है, एक मुल्ला का इस्लाम है."

ज़ाहिर है, वो अल्लाह के इस्लाम के साथ खड़े हैं.

उनके मुताबिक अल्लाह के इस्लाम में न बुरका है और न ही दुसरे किसी  मज़हब की खिलाफ़त.

बकवास!

कोई दो इस्लाम नहीं हैं. इस्लाम सिर्फ एक है. जो कुरान से आता है. 

कुरान पढ़ लीजिए, सब साफ़ हो जाएगा.

वहां से सब आता है. 

इस्लाम में न सेकुलरिज्म आ सकता है, न डेमोक्रेसी. और न ही सह-अस्तित्व, जिसे ओवैसी मल्टी-कल्चरिज्म कहता है और अक्सर मुस्लिम "गंगा जमुनी तहज़ीब" कहते हैं. 

न...न. इस्लाम में यह सब कुछ नहीं है.

लेकिन तारक फतह लगे हैं धोखा देने कि नहीं, अल्लाह का इस्लाम बड़ा पाक-साफ़ है. शांति सिखाता है. प्यार सिखाता है. भाई-चारा सिखाता है. यह तो मुल्ला का इस्लाम है जो सब दंगा मचाये है. 

सावधान! 
तारक फतह कितने ही सही लगते हों, ऐसे लोग दुनिया के लिए खतर-नाक हैं. ये डेंटेड-पेंटेड  मुसलमान पेश करना चाहते हैं. इस्लाम की असल हकीकत छुपाना चाहते हैं. आज हकीकत हमारी नज़रों से ओझल कर देंगे. कल क्या होगा? 

ज़रा सा पॉवर में आते ही मुसलमान सब को तिड़ी का नाच नचा देगा. उखाड़ लेना तब उसका जो उखाड़ सको? इतिहास गवाह है. नहीं. एक ही इलाज है. 

"तारक फतह साहेब, अगर कहना है  तो साफ कहिये कि इस्लाम की आधुनिक दुनिया में कोई जगह नहीं है. न. जाएँ मुसलमान अपने मुल्कों में वापिस. बाय-बाय. टा...टा."

नमन.....तुषार कॉस्मिक

Monday, 6 March 2017

सर्वे

गली में सर्वे करते फिर रहे थे....आपके बच्चे सूप कौन सी कंपनी का पीते हैं? इडियट. दिल किया थप्पड़ मार कर भगा दूं. एक तो वैसे ही दरवाज़े बजा-बजा कर घर की औरतों को मज़बूर कर रहे थे कि इन महाराज के सवालों का जवाब दें. ऊपर से सवाल इतने बकवास. चलते-चलते मैंने कहा, "सूप पीते हैं हम लेकिन टमाटर का. सब्ज़ियों का. किसी कम्पनी का नहीं." वो अज़ीब शक्ल बना कर देख रहे थे. मुझे लगा नहीं कि उनको मेरी बात समझ में आई.

गंगा जमुनी तहज़ीब! बुल शिट!!

टीवी हमारे घर में है नहीं. कब विदा हो गया पता ही नहीं लगा. चुपके-चुपके उसकी जगह डेस्कटॉप, लैपटॉप्स और टैबलेट ने ले ली.
बुद्धू-बक्से की विदाई. इन्टरनेट हमें हमारी मर्ज़ी के मुताबिक, हमारे समय के मुताबिक प्रोग्राम देखने की आज़ादी देता है. तो तारक फतह का टीवी प्रोग्राम "फतह का फतवा" देख रहा था. टीवी पर नहीं, youtube पर. प्रोग्राम नंबर 9. एक मौलाना साहेब गर्म बहस में तमतमा गए. और फतह साहेब के खिलाफ लगे अनाप-शनाप कहने. उनके तरकश में से निकले तर्कों के बड़े तीरों में से एक था कि फतह साहेब की बेटी ने एक हिन्दू से विवाह किया है. और इस्लाम में इसकी इजाज़त ही नहीं है. इस्लाम के मुताबिक, एक मुस्लिम औरत की शादी गैर-मुस्लिम से गर होती है तो यह "जिना" है. "जिना" व्यभिचार/ छिनाल-पने को कहा जाता है. ऐसा कहते हुए इन मौलाना ने वहाँ मौज़ूद एक और मुस्लिम महिला पर भी यही आरोप लगाया कि उनकी शादी भी किसी हिन्दू से हो रखी है और वो भी "जिना" कर रही हैं. खैर, मौलाना साहेब को ऑनलाइन प्रोग्राम से निकाल बाहर किया गया. लेकिन मुझे लगता है कि मौलाना साहेब सही फरमा रहे थे. वो इस्लाम बता रहे थे और सही बता रहे थे चूँकि इस्लाम किसी और धर्म को मानने वाले को दुश्मन की नज़र से देखता है तो मुस्लिम का गैर-मुस्लिम से ब्याह कैसे वाजिब मान सकता है? यह तो गुनाह माना ही जाएगा. यह जिना माना ही जाएगा. गंगा जमुनी तहज़ीब! बुल शिट!! थोड़े में ज़्यादा समझें. चिठ्ठी को तार समझें. मेरे मामा के बेटे, सिक्ख हैं, बीवी ईसाई हैं, ज़रीना. मैं बिलकुल रस्मों रिवाजों से बाहर हूँ, मेरी बीवी जन्म से और कर्म से बरहमन हैं. मैं और मेरी बड़ी बेटी उनकी मान्यताओं से बिलकुल असहमत हैं लेकिन फिर भी उनको जो करना होता है, उनकी आज़ादी है, कोई दखल-अन्दाजी नहीं है. पिछली क्रिसमस पर ज़रीना भाभी को मेरी बीवी लेकर गयी थीं पंजाबी बाग चर्च. बच्चे एन्जॉय करते हैं. भाभी को अच्छा लगता है. ठीक है. साल में एक बार सब चर्च जाते हैं सालों से. यह है सह-अस्तित्व. मल्टी-कल्चरिज्म जिसमे इस्लाम by default शामिल नहीं हो सकता. गंगा जमुनी तहज़ीब! यह है गंगा जमुनी तहज़ीब. मुसलमान या तो मुसलमान हो सकता है या सेक्युलर...दोनों नहीं. ऐसा कुरान के मुताबिक है. वैसे तो जब तक लोग सिक्ख, हिन्दू, जैन, बौध का ठप्पा चिपकाए रखेंगे, वो कभी एक हो नहीं सकते. एक ही हैं, लेकिन ठप्पों की वजह से अनेक हैं. ठप्पे गिरा दें, एक ही हैं. सही मानों में तो वैसे भी एकता में अनेकता नहीं हो सकती. लेकिन काम चलाऊ एकता फिर भी स्थापित की जा सकती है. उसमें बाकी सब धर्मों को मानने वाले तो फिर भी शामिल हो सकते हैं लेकिन मुस्लिम नहीं. चूँकि मुस्लिम मान्यताओं उसे ऐसा करने से रोकती हैं. कुरानिक हुक्म. असल में किसी भी धर्म के व्यक्ति को धार्मिक मान्यताओं के खिलाफ सहमत कराना लगभग असम्भव है. पूरा जीवन दांव पर लग जाता है अगले का. छाती फट जाती है. पुरखे दांव पर लग जाते हैं. चौगिर्दा दांव पर लग जाता है. सब कैसे गलत हो सकते हैं? लेकिन इस्लाम दुनिया को बहुत पीछे धकेल रहा है सो बाकी दुनिया को इस्लाम के खतरों से वाकिफ ज़रूर कराया जाना चाहिए. फर्क यह है बाकी दुनिया में और इस्लाम में कि इस्लाम दीन है....यह सिर्फ नमाज़, रोज़े का नाम नहीं है...इसमें मज़हबी, सामाजिक, आर्थिक और सियासी सब पहलु समेटे है.....और जो इस्लाम से बाहर है इस्लाम उनके खिलाफ है....सो काहे कि गंगा जमुनी तहज़ीब? इस्लाम मुक्कद्दस किताब, आसमानी किताब कुरान से आता है, वो किताब जो जगह-जगह नॉन-मुस्लिम के खिलाफ है. हम तो सिर्फ कह रहे हैं कि मुसलमानों को दोयम दर्जे के लोगों में रहना ही नहीं चाहिए. उनको अपने पवित्र मुल्कों, पाकिस्तानों को कूच करना चाहिए. अमेरिका और भारत जैसे गंदे, गलीज़ मुल्कों से उनका क्या वास्ता? ये मुल्क को सेकुलरिज्म को मानते हैं. डेमोक्रेसी को मानते हैं और इस्लाम तो तब तक पूर्ण-रूपेण इस्लाम है ही नहीं जब तक की जीवन के हर पहलु पर उसकी स्थापना न हो जाए. मतलब जब तक सियासत इस्लामी न हो जाए, जब तक कानून इस्लामी न हो, जब तक मज़हब इस्लामी न हो, जब तक सामाजिक रिवायतें इस्लामिक न हों, इस्लाम तो सही मानों में स्थापित हुआ माना ही नहीं जा सकता. सो जो मुल्क इस्लामिक हैं ही नहीं, वहां मुसलमानों के रहने का क्या फायदा?
गंगा जमुनी, सरस्वती,सिन्धी, थेम्सी तहज़ीब है, बिलकुल है लेकिन मुसलमान उससे बाहर है. चूँकि इस्लाम सब पर हावी होने का नाम है. नमन......तुषार कॉस्मिक

Friday, 3 March 2017

ट्रम्प का मुस्लिम मुल्कों पर वीज़ा बैन

और हम तो उसी (यकता ख़ुदा) के फ़रमाबरदार हैं और जो शख़्स इस्लाम के सिवा किसी और दीन की ख़्वाहिश करे तो उसका वह दीन हरगिज़ कुबूल ही न किया जाएगा और वह आखि़रत में सख़्त घाटे में रहेगा ( कुरआन 3.85)

If anyone desires a religion other than Islam (submission to Allah), never will it be accepted of him; and in the Hereafter He will be in the ranks of those who have lost (All spiritual good). (Quran 3.19)

ओ नबी, जो भी नहीं मानते, या असल में नहीं मानते लेकिन मानने का झूठा नाटक करते हैं, उनके खिलाफ भंयकर युद्ध कर. जहन्नुम ही उनका घर है. (कुरआन-66.9)

O Prophet! strive hard against the unbelievers and the hypocrites, and be hard against them; and their abode is hell; and evil is the resort. (Quran 66.9)

(मैं) उस ख़ुदा के नाम से शुरू करता हूँ जो बड़ा मेहरबान रहम वाला है।
अलिफ़ लाम मीम अल्लाह ही वह (ख़ुदा) है जिसके सिवा कोई क़ाबिले परस्तिश नहीं है. वही जि़न्दा (और) सारे जहान का सॅभालने वाला है ((3.1 & 3.2) 

Alif, Lam, Meem. Allah - there is no deity except Him, the Ever-Living, the Sustainer of existence. (3.1 & 3.2) 

(ऐ रसूल) उसी ने तुम पर बरहक़ किताब नाजि़ल की जो (आसमानी किताबें पहले से) उसके सामने मौजूद हैं उनकी तसदीक़ करती है और उसी ने उससे पहले लोगों की हिदायत के वास्ते तौरेत व इन्जील नाजि़ल की (3.3) 

He has sent down upon you, [O Muhammad], the Book in truth, confirming what was before it. And He revealed the Torah and the Gospel. (3.3)

और हक़ व बातिल में तमीज़ देने वाली किताब (कु़रान) नाज़िल की बेशक जिन लोगों ने ख़ुदा की आयतों को न माना उनके लिए सख़्त अज़ाब है और ख़ुदा हर चीज़ पर ग़ालिब बदला लेने वाला है (3.4) 

Before, as guidance for the people. And He revealed the Qur'an. Indeed, those who disbelieve in the verses of Allah will have a severe punishment, and Allah is exalted in Might, the Owner of Retribution. (3.4)

ये कुछ आयतें  काफी है यह समझने को कि इस्लाम की सेक्युलर दुनिया में कोई जगह नहीं है. सो जब अमेरिका में मुस्लिम को डिपोर्ट करने की आवाज़ उठती है या भारत में मुस्लिमों को पाकिस्तान भेजने की आवाज़ उठती है, तो मैं  शत-प्रतिशत सहमत होता हूँ. मुझे तो तब भी यकीन था कि दुनिया बदलने वाली है, जब ट्रम्प को चुटकला समझा जा रहा था. 

इस्लाम 'मज़हब' नहीं है सिर्फ. पूजा पद्धति नहीं है मात्र. इस्लाम 'दीन' है, जिसके अपने  सामाजिक, आर्थिक और सियासी नियम, कायदे-कानून हैं. पूरी की पूरी सामाजिक व्यवस्था. राईट? 

तो कौन मना कर रहा है, मुसलमानों को अपने  दीन के हिसाब से जीने के लिए?

तमाम मुल्कों से मुसलमानों को निकल जाना चाहिए, जहाँ-जहाँ भी लोग सेक्युलर हिसाब से जीना चाहते हों.

बेहतर है मुसलमान अरबी मुल्कों में बसें, पाकिस्तान में बसें, बांग्ला-देश में बसें. जहाँ भी मुसलमान बहुसंख्या में हों, वहां रहें. 

जहाँ मुसलमान होगा, बटवारा होगा ही. 
सन सैंतालीस का बटवारा, आपको बताया गया होगा कि जिन्ना ने करवाया, गांधी ने करवाया, अंग्रेजों ने करवाया. नहीं. जहाँ इस्लाम होगा, वो मुल्क बटेगा ही. जहाँ उनकी जनसंख्या जोर मारेगी, वो मुल्क बटेगा ही. दुनिया बटेगी ही. 

मैं आरएसएस के विरोध में हूँ. मेरे सैकड़ों लेखों में से एक है, "मैंने संघ क्यूँ छोड़ा".  लेकिन एक पॉइंट पर सहमत हूँ उससे. मुस्लिम विरोध. वीर सावरकर ने जो सदी पहले समझा, वो गांधी को समझ नहीं आया. वो "ईश्वर अल्लाह तेरो नाम" गाते रहे. "हिन्दू, मुस्लिम सिख ईसाई, आपस में सब भाई-भाई'' गाते रहे.  जबकि अल्लाह खुद कह रहा है कुरआन में कि वो सिर्फ इस्लाम के मानने वालों के साथ है. रवीश कुमार, बरखा दत्त, राजदीप सरदेसाई जैसे उथले लोग आज भी नहीं जानते कि इस्लाम चीज़ क्या है और न ही अरविन्द केजरीवाल इस्लाम के खतरों के प्रति सजग दीखते हैं. 

इस्लाम में और बाकी धर्मों में बुनियादी  फर्क यह है कि बाकी धर्मों में शरिया जैसे किसी सामाजिक, आर्थिक कायदे-कानून की व्यवस्था नहीं है. बाकी धर्मों को मानने वाले बड़ी आसानी से किसी भी मुल्क की पार्लियामेंट में बने कायदे-कानूनों को मान लेते हैं. दूसरे मुल्कों में पहुँच वहाँ के कायदे-कानूनों में बदलाव की मांग नहीं करने लगते. या वहां पहुँच अपनी अलग ही दुनिया नहीं बना लेते.

भारत का एक नाम 'हिन्दुस्तान' है ज़रूर लेकिन हिन्दू भारत की पार्लियामेंट में बने कानून मानते हैं न कि किसी गीता माता से निकले कानून.

सिक्खों में खालिस्तान की डिमांड उठी ज़रूर लेकिन अंदर-खाते न तो सब सिक्ख तब सहमत थे और न ही आज सहमत हैं. सिक्ख बड़े आराम से छह इंच छोटी कृपाण रख लेता है, अड़ नहीं जाता कि एक मीटर लम्बी कृपाण ही रखेगा.

जैन अहिंसा को मानते हैं. पक्षी घायल हो जाए तो इलाज करते हैं लेकिन जगह-जगह मुर्गे कटते हैं तो झंडा-डंडा लेकर नहीं निकल पड़ते. 

मुसलमान आज भारत में मल्टी-कल्चरिज्म की बात करता है. 'गंगा जमुनी तहज़ीब' की बात करता है. लेकिन धोखा दे रहा है. दूसरों को या खुद को. या धोखा खा रहा है. उसे कुरान देखनी चाहिए. कुरान के मुताबिक इस्लाम में  किसी मल्टी-कल्चरिज्म की, सह-अस्तित्व की सम्भावना ही नहीं है.  

अगर मुसलमान ठीक-ठीक कुरआन समझ ले तो उसे ट्रम्प और आरएसएस का धन्य-वाद करना चाहिए जो सेकुलरिज्म को मानने वाले  गंदे-गलीज़ मुल्कों  से उसे बाहर करना चाहते हैं ताकि वो पाकिस्तान जैसे पाक-साफ़ मुल्कों में जा बसें.

और ट्रम्प ऐसे ही नहीं आ गए. ट्रम्प की भूमिका तो 9/11 के हमले से ही बन गई थी.  9/11 के बाद अमेरिका पर बार-बार जो हमले किये गए वो सब वजह हैं ट्रम्प के आने की. अयान हिरसी, वफ़ा सुलतान, ब्रिजिट  गेब्रियल, रोबर्ट स्पेंसर जैसे कितने ही लेखक-लेखिकाओं ने पश्चिमी मुल्कों को बार-बार, लगातार इस्लाम के खतरों से आगाह किया है. किताबें लिखी हैं, लेक्चर दिए हैं, वेबसाइट चलाईं हैं. सामाजिक प्रोग्राम चलाए हैं. 

मुझे तो हैरानी है कि ट्रम्प को आते-आते इतनी देर कैसे लग गई! और ट्रम्प को चुटकला समझा गया, घटिया चुटकला और आज उनके जीतने के बाद भी ऐसा ही समझा जा रहा है. 

मुसलमान ऐसे दिखा रहे हैं जैसे इस्लामिक आतंकवाद मुसलमान की वजह से नहीं है, मुसलमान के साथ जो ज़्यादती होती है, उसकी वजह है. 

'खुदा  के वास्ते' नाम की पाकिस्तानी फिल्म देखें, काफी मशहूर है.  भारत की Newyork फिल्म देखें. बेचारे इनोसेंट मुसलमान अमेरिका द्वारा परेशान किये जा रहे हैं. शाहरुख़ खान को तो अमेरिका एअरपोर्ट पर नंगे हो कर तलाशी देनी पड़ी. उन्होंने 'My name is Khan' बना दी.  जिसका बेसिक फंडा यह बताना था कि हर मुसलमान आतंक-वादी नहीं होता.  फिल्म के अंत में वो अमेरिकी प्रेसिडेंट को मिल कर यह कहने में कामयाब हो ही जाते हैं "My name is Khan and I am not a terrorist."

ठीक है कि हर मुसलमान आतंक-वादी नहीं होता लेकिन हर मुसलमान आतंक-वादी होने की सम्भावना से भरपूर है. और वो  सम्भावना कुरान से आती है. 

मैं 'कॉस्मिक' लिखता हूँ अपना सरनेम. मानता हूँ कि कायनात एक है. दुनिया एक होनी चाहिए. धरती पर अलग-अलग मुल्क  नहीं होने चाहियें. मुल्क हैं तो फौजें हैं. फौजें हैं तो युद्ध हैं. युद्ध हैं तो गुरमेहर के पिता जैसे अनेक पिता मरेंगे. मरते रहेंगे.

गुरमेहर कौर जब कहती हैं कि उनके पिता को युद्ध ने मारा, पाकिस्तान ने नहीं, वो अधूरी बात है. उनके पिता इसलिए मरे क्यूंकि धरती पाकिस्तान, हिन्दुस्तान, अफगानिस्तान, बलोचिस्तान और पता नहीं कौन से स्तान, स्थान में बंटी है. अभी खालिस्तान बनते-बनते रह गया. 

गुरमेहर कौर ने अपने पिता की मौत के कारण को समझने का प्रयास किया. उन्हें कारण युद्ध लगा. लेकिन युद्ध के कारणों को भी समझतीं तो बेहतर होता. 

जब हम कारण सही समझें, तभी सही निवारण भी समझ पाते हैं.

कारण मुल्क हैं. और मुल्कों  के अस्तित्व के पीछे भी बड़ा कारण पन्थ हैं, मज़हब हैं, धर्म हैं, दीन हैं.

जब तक ये सब  किसी एक प्लेटफार्म पर नहीं आते, कॉमन-प्रोग्राम स्थापित नहीं कर लेते या इंसान ही इतना समझदार नहीं हो जाता कि इन सबसे नमस्ते कर ले, तब तक मुल्क भी रहेंगे और मुल्क रहेंगे तो फौजें रहेंगी. कहते सब हैं कि ये फौजें "डिफेन्स फोर्सेज" हैं लेकिन फिर "अटैक" कौन कर जाता है, युद्ध कैसे हो जाते हैं आज तक समझ नहीं आया. तो मैं बता रहा था कि  फौजें हैं तो युद्ध हैं. युद्ध हैं तो गुरमेहर के पिता जैसे अनेक पिता मरते रहेंगे.

और जब  मुल्क रहने ही हैं अभी, तो फिर हमें यह भी सोचना होगा कि क्यूँ न इस तरह से रहें कि वहां के वासी जितना हो सके शांति से रह पाएं?    

उसके लिए मुसलमानों का मुस्लिम मुल्कों में केंद्री-करण एक रास्ता है.  

नमन....तुषार कॉस्मिक

गुरमेहर कौर

गुरमेहर कौर ने अपने पिता की मौत के कारण को समझने का प्रयास किया. उन्हें कारण युद्ध लगा. लेकिन युद्ध के कारणों को भी समझतीं तो बेहतर होता. 

गुरमेहर कौर जब कहती हैं कि उनके पिता को युद्ध ने मारा, पाकिस्तान ने नहीं, वो अधूरी बात है. उनके पिता इसलिए मरे क्यूंकि धरती पाकिस्तान, हिन्दुस्तान, अफगानिस्तान, बलोचिस्तान और पता नहीं कौन से स्तान, स्थान में बंटी है. अभी खालिस्तान बनते-बनते रह गया. 


मैं 'कॉस्मिक' लिखता हूँ अपना सरनेम. मानता हूँ कि कायनात एक है. दुनिया एक होनी चाहिए. धरती पर अलग-अलग मुल्क  नहीं होने चाहियें. मुल्क हैं तो फौजें हैं. फौजें हैं तो युद्ध हैं. युद्ध हैं तो गुरमेहर के पिता जैसे अनेक पिता, भ्राता मरेंगे. मरते रहेंगे.
जब हम कारण सही समझें, तभी सही निवारण भी समझ पाते हैं.

Saturday, 25 February 2017

एक आप-बीती

इंडिया पोस्ट की एक सर्विस है 'ई-पोस्ट'. मुझे पता है आपको शायद ही पता हो. आप ई-मेल करो इंडिया पोस्ट को और वो प्रिंट-आउट निकाल आगे भेज देंगे. 

खैर, पश्चिम विहार, दिल्ली, पोस्ट ऑफिस वालों को पता ही नहीं था कि यह किस चिड़िया-तोते  का नाम है. सो गोल डाक-खाना जाना पड़ा. 

पौने चार बजे पहुंचा. छोटी बिटिया और श्रीमति जी के साथ. उनको बंगला साहेब गुरुद्वारा जाना था. चलते-चलते बता दूं कि मेरा  मंदिर, मस्ज़िद, गुरद्वारे का विरोध अपनी जगह है लेकिन ज़बरदस्ती किसी के साथ नहीं है. 

गोल डाक-खाना के जिस केबिन से ई-पोस्ट होना था, वहां कोई भावना मैडम थीं. कोई पचीस साल के लगभग उम्र. अब भावना जी इतनी भावुक थीं कि उन्होंने मुझे साफ़ मना कर दिया. उन्होंने कहा कि ई-पोस्ट जो बन्दा करता है, वो आया नहीं है, सो मुझे संसद मार्ग वाले पोस्ट-ऑफिस जाना चाहिए लेकिन समय निकल ही चुका था सो मेरा वहां जाने का कोई फायदा नहीं था. फिर भी वो अपने केबिन से बाहर तक मुझे संसद मार्ग वाले डाक-खाने का राह दिखाने आईं. बाहर खड़े हो मैं खुद को कोसने लगा कि कुछ देर पहले आता तो शायद काम बन जाता.

लेकिन मुझे सरकारी लोगों पर कभी भरोसा नहीं होता. कुछ-कुछ ध्यान था मुझे कि वहां काम और देर तक होता है, शायद छह बजे तक. मैंने इन्क्वारी काउंटर पर पूछा कि काम कब तक होता है? उसने गोल-मोल जवाब दिया. मैंने देखा चार बजने के बाद भी बाबू लोग सीटों पर बैठे थे.

हम्म... तो मैंने काउंटर पर बैठे एक बाबू से पूछ ही लिया कि ई-पोस्ट कैसे होगी, कौन करेगा? उसने कहा कि भावना मैडम करेंगीं. मैंने कहा कि वो तो मना कर चुकीं, कह रही हैं कि उनके पास तो पास-वर्ड ही नहीं और जिसके पास है, वो छुट्टी पर है. उसने कहा कि किसी और को भेजता हूँ.

खैर, कोई आधे घंटे की जद्दो-जेहद के बाद कोई नए रंग-रूट टाइप के लड़के ने काम कर ही दिया. और हाँ, पास-वर्ड भावना मैडम से ही लिया गया और वो भी मेरे सामने. लेकिन अब रसीद के रूप में प्रिंट-आउट थमा दिया गया मुझे. मैंने कहा कि इस पर स्टाम्प लगा कर दो तो बड़ी मुश्किल एक गोल सी स्टाम्प मार दी गई  जिस पर लिखा पढने की कोशिश की तो कहावत याद आ गई,”लिखे मूसा, पढ़े खुदा."

मैंने कहा,"साफ़ स्टाम्प लगाएं." मुझे 'मेरी' नामक डिप्टी-पोस्ट-मास्टर के सामने पेश किया गया. पचास-पचपन साल की महिला. उनके रख-रखाव से कतई नहीं लगा कि वो डिप्टी-पोस्ट-मास्टरनी हैं. सामने खड़ा था मैं, साथ ही कुर्सी खाली पड़ी थी और  वो अपने साथी से बात करने में मशगूल रहीं. मुझे नहीं कहा कि बैठ जाऊं. मैं खड़ा इंतज़ार करता रहा. फ्री होकर मेरी बात सुनी 'मेरी' जी ने और स्टाम्प लगाने से साफ़ मना कर दिया. मैंने कहा,"ठीक है, मैं विडियो बनाता हूँ, आप ऑन-रिकॉर्ड कहें कि स्टाम्प नहीं लगातीं."  भड़क गई कि मैं धमका रहा हूँ, मैंने कहा, "स्टाम्प लगाने को कहना धमकाना कैसे हो गया?" पोस्ट मास्टर के पास धम्म-धम्म करती ले गईं. लेकिन वो समझदार निकले. मैडम को स्टाम्प लगानी पड़ी.

यह किस्सा आपको शायद कुछ सिखा पाए.

1.यह मान्यता झूठ है कि औरत कोई आदमी से नर्म दिल होती है. भावना मैडम को पता था कि मेरे साथ बीवी हैं, छोटी बच्ची है, वो काम कर सकती थीं, करवा सकतीं थीं, लेकिन मुझे टरका दिया. मेरे लिए अगला दिन खराब करने का सामान कर दिया. 

'मेरी' मैडम को सिर्फ स्टाम्प लगानी थीं, नहीं लगा कर दी, ड्रामा कर दिया. दोनों औरतें. 

और जो काम करवा कर दिया, वो क्लर्क 'आदमी' था और जिसने करके दिया था, वो एक 'लड़का' था. नया रंग-रूट. और स्टाम्प लगवा कर दी जिसने, वो  पोस्ट-मास्टर भी 'आदमी' था. 

2. सरकारी लोग सब तो नहीं लेकिन अक्सर गैर-ज़िम्मेदार मिलते हैं, जवाब-देयी से बचते हैं. सिर्फ मोटी तनख्वाह लेते हैं. न तो काम करना आता है और न ही करना चाहते हैं. उनके बाप का क्या जाता है? काम आपको करवाना होगा उनसे. अड़ के. लड़ के. 

3. अगर आपके पास सुई हो चुभोने को तो सरकारी आदमी जितना जल्दी फैलता है, उतना ही जल्दी सिकुड़ता भी है.

4. 'ई-पोस्ट' टेलीग्राम का ही एक अगला रूप है, जिसमें आप अपने भेजे कंटेंट को भी साबित कर सकते हैं. प्रयोग करें, ख़ास करके लीगल वर्क में. लेकिन मुझे उम्मीद नहीं कि किसी वकील को पता हो इसका. 

5. हर सरकारी, गैर-सरकारी दफ्तर से स्टाम्प लगवाएं और साइन भी करवाएं. ये नहीं करना चाहते चूँकि जवाब-देयी से बचना चाहते हैं. बिन साइन-स्टाम्प के आप क्या साबित करेंगे? मैं तो हैरान हूँ बहुत पहले बैंक स्टेटमेंट के नीचे पढ़ता था कि यह कंप्यूटर जनरेटेड स्टेटमेंट है, सो स्टाम्प-साइन की कोई ज़रूरत नहीं है! वल्लाह! इनको चाहिए कि बिना साइन के चेक भी कैश करना शुरू कर दें, बस बाकी सब भर दिया जाए, काफी है. नहीं?

नोट- इस पोस्ट में दिए नाम और स्थान सब असली हैं, कर ले जिसने जो करना हो.

नमन...तुषार कॉस्मिक

Friday, 24 February 2017

लीडर कौन?

बहुत पहले मैने 'लैंडमार्क फोरम' अटेंड किया था. सिक्ख थे, कोई चालीस एक साल के जो वर्कशॉप दे रहे थे. एक जगह उन्होंने लीडर की परिभाषा देने को कहा. अलग-अलग लोगों ने अलग-अलग परिभाषा दी. उन्होंने जो परिभाषा फाइनल की वो थी, "लीडर वो है जो बहुत से लीडर पैदा करे."

तब मैं सोच रहा था कि लीडर चाहे और लीडर पैदा करेगा लेकिन फिर भी कोई लोग तो फोलोवर ही रहेंगे. क्या बढ़िया हो कि कोई लीडर और कोई फोलोवर ही न रहे! या यूँ कहें कि हर कोई अपना ही लीडर हो, क्यूँ किसी और को कोई फॉलो करे?

आज मेरा मानना है कि यह सोचना तो सही है लेकिन जिस तरह की दुनिया है, उस स्थिति तक दुनिया को ले जाने में जहाँ हर कोई खुद को लीड कर सके, ढेर सारे लीडरों की ज़रूरत होगी.

तो मेरा नतीजा यह है कि लीडर वो है, जो बहुत से लीडर पैदा करे. ऐसे लीडर जो इस तरह की दुनिया बनाने में मददगार हों जहाँ सब अपनी अक्ल से खुद को लीड कर सकें.

नोट:--- पोस्ट का पोलटिकल लीडरों से कोई मतलब नहीं चूँकि ये लोग मेरी लीडर की परिभाषा में नहीं आते.

Tuesday, 21 February 2017

ओशो--न भूतो, न भविष्यति

ओशो महान हैं. बेशक. 

लेकिन 'न भूतो, न भविष्यति'? ऐसा मैंने कईयों को कहते सुना है. लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं है.

ओशो के साथ बहुत कुछ अच्छा घटित होते-होते रह गया.
और ज़िम्मेदार खुद ओशो हैं.

गोविंदा का एक गाना है, "मैं चाहे ये करूं, मैं चाहे वो करूं मेरी मर्ज़ी." ऐसे ही हैं ओशो के कथन. पढ़ते जाएं ओशो को, सब घाल-मेल कर गए हैं.

पहले कहा कि कुरआन महान है, बाद में बोले कचरा है और साथ में यह भी बोले कि जान-बूझ कर कुरआन पर नहीं बोले चूँकि मरना नहीं चाहते थे. यह है उनका ढंग.

आरक्षण पर बहुत पॉजिटिव थे. शूद्र जिनको कहा गया उनके साथ ना-इंसाफी हुई, ठीक है, लेकिन उसका हल आरक्षण है? आज भारत का युवा जो अनुसूचित जाति का नहीं है, वो विदेशों में बस रहा है, एक वजह आरक्षण है. आरक्षण न पहले हल था, न आज हल है. यह भारत को  तोड़ देगा. आरक्षण सिर्फ हरामखोरी है. अभी हरियाणा के जाट रेप तक कर गए हैं आरक्षण लेने के लिए. अब कह रहे हैं कि दिल्ली को दूध नहीं देंगे. सब बकवास. और ओशो आरक्षण के पक्ष में खड़े हैं.

मुझे आज तक समझ नहीं आया कि ओशो कम्यून में कौन सा एड्स टेस्ट होता था जबकि एड्स का इंस्टेंट टेस्ट तो कोई था ही नहीं. 

वहां अमेरिका में कम्यून की दुर्गति के लिए भी ओशो ज़िम्मेदार थे, सारा भांडा फोड़ दिया मां आनंद शीला पर. वो अगर क्राइम कर रही थी, जिसे ओशो ने खुद बार-बार स्वीकारा, तो ओशो वहां शीत-निद्रा में क्यूँ सोये हुए थे, अपने पांच हजार लोगों का जीवन खतरे में डाले?

और जो ओशो कभी समझौता नहीं करने की बात करते थे, लाखों डॉलर की पेनल्टी देकर, समझौता करके वहां से बाहर आए थे.

और ओशो कहते रहे कि ध्यान करने वाले लोगों का कोई बुद्ध-चक्र (Budha Cycle) दुनिया को घेर लेगा तो दुनिया में असीम बदलाव आ जायेंगे, दुनिया बदल जायेगी. कुछ न हुआ ऐसा, और न होगा. दुनिया बदतर हो चुकी है. और गर दुनिया बदलेगी तो वो इस तरह से तो बदलने से रही. ध्यान एक आयाम है, दूसरा आयाम है तर्क. जब तक दुनिया तर्क की तपस्या में से नहीं गुजरेगी, नहीं बदलेगी.

बहुत पहले मैने 'लैंडमार्क फोरम' अटेंड किया था. सिक्ख थे, कोई चालीस एक साल के जो वर्कशॉप दे रहे थे. एक जगह उन्होंने लीडर की परिभाषा देने को कहा. अलग-अलग लोगों ने अलग-अलग परिभाषा दी. उन्होंने जो परिभाषा फाइनल की वो थी, "लीडर वो है जो बहुत से लीडर पैदा करे."

तब मैं सोच रहा था कि लीडर चाहे और लीडर पैदा करेगा लेकिन फिर भी कोई लोग तो फोलोवर ही रहेंगे. क्या बढ़िया हो कि कोई लीडर और कोई फोलोवर ही न रहे! या यूँ कहें कि हर कोई अपना ही लीडर हो, क्यूँ किसी और को कोई फॉलो करे?

आज मेरा मानना है कि यह सोचना तो सही है लेकिन जिस तरह की दुनिया है, उस स्थिति तक दुनिया को ले जाने में जहाँ हर कोई खुद को लीड कर सके, ढेर सारे लीडरों की ज़रूरत होगी.

तो मेरा नतीजा यह है कि लीडर वो है, जो बहुत से लीडर पैदा करे. ऐसे लीडर जो इस तरह की दुनिया बनाने में मददगार हों जहाँ सब अपनी अक्ल से खुद को लीड कर सकें.

पोलटिकल लीडरों से कोई मतलब नहीं चूँकि ये लोग मेरी लीडर की परिभाषा में नहीं आते.

लेकिन लीडर की इस परिभाषा पर  ओशो को खरा नहीं उतरता देखा मैं.

मैंने लिखा कि ओशो के साथ दुनिया में क्रांति घटित होते-होते रह गई. आज दुनिया ओशो के समय से बदतर है. और ओशो के पैरोकारों में एक ने भी कोई तीर  नहीं मारा, कद्दू में भी नहीं. विनोद खन्ना उनके बाद राजनीति में आए और फिल्मों में भी. दोनों जगह कुछ नहीं कर पाए. उनसे तो बेहतर केजरीवाल जैसे लोग हैं, सही-गलत अपनी जगह लेकिन राजनीति में हलचल तो मचाये हैं. विनोद खन्ना के पास इन सब से बड़ी पहचान थी, पैठ थी लेकिन सब फुस्स.

एक हैं स्वामी अगेह भारती. वो बस यही लिखते रहते हैं कि वो कब-कब ओशो के साथ थे. किताबें लिख दीं उन्होंने बस यही सब बताने हेतु. जिसे बहुत रुचि हो कहानियाँ पढ़ने में, पढ़ सकता है उनको. लेकिन क्या हल है इससे?

पूना वाले शिष्य और दिल्ली के शिष्य आपस में कॉपी-राईट मुद्दे पर ही उलझते रहे हैं वर्षों तक. इसलिए कि ओशो के वृहत साहित्य का कोई इकलौता वारिस है या नहीं.

यहाँ फेसबुक पर अपने नामों के पीछे ओशो का दुमछल्ला लगाए अनेक मिल जायेंगे. अपनी छोड़ ओशो की फोटो लगाए घूम रहे हैं. जो ओशो कहते रहे कि ओरिजिनल बनो, कॉपी मत बनो, उनके शिष्य. 

लेकिन उसमें भी ओशो का ही दोष है, वही तो लोगों को सन्यास देते थे, नाम बदलते थे, चोगा देते थे, शुरू में अपनी फोटो की माला देते थे. जानते हुए कि लोग बड़ी जल्दी गुलाम बन जाते हैं. 

आज उनके शिष्य आगे सन्यास देते हैं. सब व्यर्थ. सब राख़. एक में भी आग नहीं.
वैसे ही लोग आगे कहते फिरते हैं, "ओशो न भूतो, न भविष्यति."

पीछे मैं लगातार ओशो के विचारों उनके कर्मों का विरोध कर रहा था, तो  फेसबुक पर मौजूद उनके चेले-चांटों में और किसी भी और धर्म को मानने वाले धर्मान्धों में रत्ती भर फर्क नहीं पाया. कोई हंस रहा था बेमतलब, कोई रो रहा था. कोई कह रहा था कि मुझे हक़ ही क्या था ओशो पर टिप्पणी करने का. एक से एक बकवास कमेंट. वैसे ही लोग आगे कहते फिरते हैं, "ओशो न भूतो, न भविष्यति."

"न भूतो, न भविष्यति" किसी के लिए भी कहना सही नहीं है....जैसे मुस्लिम कहते हैं कि मोहम्मद आखिरी पैगम्बर हो गए, सिक्ख कहते हैं कि गुरु दस हो गए तो बस. आगे कुरआन और आगे गुरु ग्रन्थ, बस. लेकिन यह सब सोच अनर्गल है...आगे न दुनिया रूकती है और न ही नए लोगों का आना, ऐसे लोग जो बेशकीमती होते हैं. और भूतकाल में भी हर कीमती व्यक्ति ने अपना भरपूर योगदान दिया है. नानक साहेब अपने समय पैदल चल-चल कर दुनिया भर में संदेश फैलाते रहे. आज कोई विमान से उड़-उड़ कर यही काम करता हो सकता है. कीमती लोग. गोबिंद सिंह साहेब तक आते आते हथियार उठा लिए गए. कुर्बानियां दीं गईं. कीमती लोग. 'न भूतो, न भविष्यति' वाली कोई बात नहीं. सब एक से एक कीमती. बेशकीमती.

साहिर लुधियानवी ने लिखा है.

"मै पल दो पल का शायर हूँ, पल दो पल मेरी कहानी है 
पल दो पल मेरी हस्ती है पल दो पल मेरी जवानी है

मुझसे पहले कितने शायर आये और आकर चले गये
कुछ आहें भरकर लौट गये, कुछ नगमें गाकर चले गये
वो भी इक पल का किस्सा थे, मै भी इक पल का किस्सा हूँ
कल तुमसे जुदा हो जाऊंगा, जो आज तुम्हारा हिस्सा हूँ

कल और आयेंगे नगमों की खिलती कलियाँ चुनने वाले
मुझसे बेहतर कहने वाले, तुमसे बेहतर सुनने वाले"

यह है जीवन की हकीकत....न कि "न भूतो, न भविष्यति".
किसी के लिए भी नहीं.

भविष्य अगर हमसे बेहतर नहीं होगा, तो उसे भविष्य कहलाने का हक नहीं होगा. उसे भविष्य कह कर भविष्य के साथ ना-इंसाफी न कीजिये.

नमन ..तुषार कॉस्मिक

Monday, 20 February 2017

जहन्नुम रसीद करो जन्नत और जहन्नुम को

कभी गरुड़ पुराण पढना, जो हिन्दू लोग किसी के मरने पर अपने घरों में पढवाते हैं. बचकाना. महा बचकाना कथन. सबूत किसी बात का नहीं.

इस्लाम में भी “आखिरत” की धारणा है. मरने के बाद इन्सान को उसके इस जीवन में कर्मों के हिसाब से इनाम या सज़ा.
सब बकवास है, किसी बात का कोई सबूत नहीं.
बस लम्बी-लम्बी छोड़ी गई हैं.
जन्नत, जहन्नुम दोनों को जहन्नुम रसीद करो.
ख्वाबों की दुनिया से बाहर आओ.
जो है यहीं है. यह जो तुम हिन्दू, मुसलमान, इसाई आदि नामक गुलामियाँ अपने गले में लटकाए घूमते हो, यही जहन्नुम है.
और वो जो बच्चा जनरेटर की आवाज़ पर नाच रहा है, वो ही जन्नत है.

आज याद आया एक किस्सा कि कोई सूफी औरत बाज़ार में दौड़ रही थी , एक हाथ में आग और दूसरे में पानी लिए.
पूछने पर बोली कि जन्नत को जला दूंगी और जहन्नुम को डुबा दूंगी.
उसका कुल मतलब यह है कि जन्नत के लोभ और जहन्नुम के डर पर खड़ा मज़हब बकवास है.
और आपके सब मज़हब ऐसे ही हैं. जन्नत और जहन्नुम पर खड़े मज़हबों ने इस दुनिया को जहन्नुम कर दिया है.

आप जन्नत को, जहन्नुम को जहन्नुम रसीद करें, दुनिया, यही दुनिया जन्नत है.
"लाइफ में ऊपर जाने के लिए कभी कभी नीचे जाना पड़ता है.”

बकवास!

हाँ, जम्प करने के लिए थोड़ा पीछे हटना पड़ सकता है.

बस!

I am MENTAL

Of-course I am physical also but I am more mental. People use less mind and more physique. Here, with me it is the opposite. I do not believe in lifting a finger without being mental, without being mindful. 

So it is okay to call me MENTAL.

Saturday, 18 February 2017

संता-बंता चुटकलों पर कोर्ट केस

मैं अक्सर लिखता हूँ, कहता हूँ कि लोग अपनी पोल खुद खोल देते हैं. और बहुत बार तो पोल छुपाने के चक्कर में पोल खोल देते हैं. चोर की दाढ़ी में तिनका. 

संता-बंता चुटकलों पर सिक्खों की किसी जमात ने कोर्ट में केस ठोक रखा था. अब किसी ने नहीं कहा कि वो 'संता-बंता' सिक्ख हैं. सिक्ख छोड़ो, इन चुटकलों में संता-बंता के नामों के साथ 'सिंह' तक नहीं जोड़ा जाता. 

वैसे 'सिंह' तो कोई भी अपने नाम के साथ लगा रहा है. स्त्रियाँ भी. मेरी एडवोकेट बिहार से हैं. उनका नाम है 'रीना सिंह'. हिन्दू हैं. सिक्खी से कोई नाता नहीं है. 

पता नहीं संता-बंता चुटकलों को अपने खिलाफ कैसे मान लिया सिक्ख बंधुओं ने?

अब चुटकलों से धार्मिक भावनाएं आहात होने लगी हैं.

तौबा!

अधकचरे अरविन्द केजरीवाल

मुझे अरविन्द केजरीवाल  उथली सोच के लगते हैं.

दिल्ली कार चलाने लायक नहीं रही. दोपहिया चलाओ तो फ्रैक्चर कभी भी हो सकता है. पैदल चलने वालों का हक़ पहले ही खत्म है. सो आजकल मेट्रो से चलता हूँ, जब-जब सम्भव हो. मेट्रो में फोटो खींच नहीं सकते, सो मेरे शब्दों पर भरोसा करें.  अंदर छोटे-छोटे पोस्टर लगे थे. सिक्खों के किसी गुरुपर्व की बधाइयां, अरविन्द केजरीवाल की तरफ से. 

जनतंत्र का क..ख..ग नहीं पता इन नेताओं को. अरे यार, स्टेट सेक्युलर होनी चाहिए अगर आपके मुल्क में सेकुलरिज्म है तो. मतलब स्टेट धर्मों से अलग रहेगी हमेशा. वो एक मशीन की तरह काम करेगी. संविधान और विधान के कायदे से बंधी मशीन. उसे न ईद से मतलब होना चाहिए, न गुर-पर्व से और न दशहरे से. वो न आस्तिक है और न नास्तिक. 

अब  जो स्टेट्समैन हर तीज-त्योहार की बधाई देते फिरते हैं, वो क्या ख़ाक समझते हैं सेकुलरिज्म क्या है. वो स्टेट्समैन बनने के लिए क्वालीफाई ही नहीं करते. 

गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी के चुनाव हैं. दिल्ली पटी है पोस्टरों से.  सिक्ख बन्धु बढ़- चढ़ हिस्सा ले रहे हैं. ऐसे चुनावों में अपने पंथ, धर्म. महज़ब को यदि कोई बढ़ावा दिखे तो कोई एतराज़ नहीं मुझे. लेकिन दिक्कत तब है जब नेतागण हर चुनाव को धार्मिकता, मज़हबी रंग देने लगते हैं. 

कल यदि मुल्क में नास्तिक ज़्यादा हो गए, अग्नोस्टिक ज़्यादा हो गए तो फिर क्या नास्तिकता की, अग्नोस्टिकता की भी बधाइयां देंगे? 

स्टेट और स्टेट्समैन सब धर्मों से, आस्तिकता-नास्तिकता-अग्नोस्टिकता से अलग रहते हैं सेकुलरिज्म में.    

सेकुलरिज्म का मतलब सब धर्मों का सम्मान करना नहीं है. इसका मतलब सब धर्मों के प्रति उदासीन रहना है. न सिर्फ धर्मों के प्रति बल्कि आस्तिकता के प्रति, नास्तिकता, अज्ञेयवाद के प्रति भी उदासीनता. सेकुलिरिज्म ऐसी सब धारणाओं का न तो सम्मान करता है और न ही असम्मान. 

कोई भी व्यक्ति व्यक्तिगत स्तर पर कैसी भी धार्मिक मान्यता को बढ़ावा दे सकता है, नकार सकता है. लेकिन जब वो किसी सेकुलरिज्म में स्टेट्समैन बनता है तो एक स्टेट्समैन के नाते यदि वो यह सब करता है, तो गलत है, सेकुलरिज्म के खिलाफ है.

हा! रे भारत! तेरे भाग्य में तुषार कॉस्मिक पता नहीं है कि नहीं. तब तक अरविन्द जैसों से काम चला. मोदी जी और ओवेसी बन्धुओं का ज़िक्र इसलिए नहीं किया कि जब अरविन्द ही क्वालीफाई नहीं करते तो ये महाशय कैसे करेंगे?

मैं बे-ईमान हूँ

बहुत शब्द अपने असल मानों से हट जाते हैं तथा उनके कुछ और ही मतलब प्रचलित हो जाते हैं.

राशन शब्द का अर्थ रसोई सामग्री से लिया जाता है. लेकिन इसका असल मतलब है सीमित होना. किसी दौर में एक सीमित मात्रा में दाल, चावल, चीनी ही ले पाते थे लोग. सरकारी सिस्टम से. सरकारी दूकान को राशन ऑफिस कहते हैं. राशन कार्ड तो सुना ही है आपने. सीमित ही मिलता है सामान आज भी वहां से. तो लोगों ने दाल, चावल, चीनी को ही राशन समझ लिया. आज हम किसी भी स्टोर से यह सब लेते हैं तो कहते हैं कि राशन ले रहे हैं. जैसे किसी दौर में लोग दांत साफ़ करने को 'कोलगेट करना' ही बोल जाते थे. जैसे बचपने जब आता 'पेशाब' था तो हम कहते थे, "मैडम, 'बाथरूम' आया है." बेचारा 'बाथ-रूम'.

ईमान-दार और बे-ईमान शब्दों का अर्थ 'Honest' और 'Dishonest'  ले लिया गया लेकिन इन शब्दों का असल मतलब सिर्फ 'मुस्लिम' और 'गैर-मुस्लिम' होना है. Believers & Non-believers. चूँकि इस्लाम  के  मुताबिक ईमान एक ही है और वो है 'इस्लाम'. जो इस्लाम से बाहर है वो बे-ईमान है और जो इस्लाम के अंदर है वो ईमान-दार है.

सो मैं तो बे-ईमान हूँ, आप क्या हैं बताएं?