Thursday 7 April 2022

Wednesday 6 April 2022

विस्तारवादी धर्मों का मुकाबला कैसे करें?

ईसाई पहले नम्बर पर है और इस्लाम दूजे नम्बर पर. मैं हैरान  होता हूँ, इतने बचकाने धर्म फिर भी इतना पसारा. वजह क्या है?

वजह है, इन का विस्तार वाद. 
इब्रह्मिक धर्म जो भी हैं, वो विस्तारवादी हैं. 

तुम्हें कोई सिक्ख यह कहता नहीं मिलेगा कि तुम ईसाई हो तो सिक्ख बन जाओ. बनना है बनो, न बनना हो तो भी कोई दिक्कत नहीं. गुरूद्वारे जाओ,  तुम्हारी जात-औकात नहीं देखी जाएगी. तुम्हारे जूते साफ़ किये जायेंगे, तुम्हे प्रेम से लंगर खाने को दिया जायेगा. हर इन्सान के साथ एक जैसा व्यवहार.

हिन्दू तो अपने आप में कोई धर्म है ही नहीं. यह विभिन्न मान्यताओं का एक जमावड़ा है. एक दूसरे की विरोधी मान्यताओं का भी. यहाँ कुछ भी पक्का नहीं. इसे ज़बरन एक धर्म का जामा पहनाया जा रहा है. इसे क्या मतलब आप क्या मानते हो?


जैन तो बस मुफ्त इलाज करेंगे, कोई आये, इन को क्या मतलब? आप जैन बनो न बनो.

बौद्ध को तो भारत में वैसे ही कोई नहीं पूछता. जो बने, वो अम्बेडकर की वजह से. बौद्ध विहार खाली पड़े रहते हैं. कोई नहीं आता आप कि गली में कि आप बौद्ध बनो. 


यह जो हिन्दुओं द्वारा "घर वापसी" के आयोजन हो रहे हैं, वो सिर्फ मुस्लिम के विरोध में. कुछ ईसाई के विरोध में भी.

तो क्या है मेरा सुझाव?

वैसे तो मैं सभी लगे-बंधे धर्मों के खिलाफ हूँ. लेकिन मैं इब्रह्मिक धर्मों के ज़्यादा खिलाफ हूँ. ख़ास कर के इस्लाम के. सब खराब  हैं, लेकिन सब एक जैसे खराब नहीं हैं.Bad, Worse, Worst होता है या नहीं. सब धर्मों को मैं ज़हर मानता हूँ, लेकिन इस्लाम को Potassium Cyanide

इन विस्तार-वादी धर्मों का मुकाबला करने के लिए एक तो तरीका यह है कि मेरे जैसे लोग जो भी लिख रहे हैं, बोल रहे हैं, या जो भी लिख चुके, बोल चुके, उसे विस्तार दिया जाये. ताकि लोग धर्मों की गुफाओं से बाहर आ सकें और यह काम इब्रह्मिक दुनिया में सब से ज़्यादा करने की ज़रूरत है. चूँकि बाकी धर्मों को न तो विस्तार से कोई मतलब है और न ही मार-काट से.    

ये बाकी धर्म यदि हिंसक होते भी हैं तो या तो मुस्लिम का मुकाबला करने को, जैसे बर्मा में बौद्ध हुए या मुस्लिम की साज़िश के शिकार हो कर, जैसे पंजाब में सिक्ख उग्रवादी हिन्दुओं के खिलाफ हो गए थे. अपने आप में बाकी दुनिया के धर्मों में अंतर-निहीत कुरीतियाँ हैं, कमियां हैं, जैसे हिन्दुओं में जाति-प्रथा लेकिन फिर भी ये धर्म उस  तरह से हिंसक नहीं हैं जैसे इस्लाम. न किसी को अपने खेमे में लाने को कोई लालच देते हैं जैसे ईसाई.

हालाँकि सारे धर्म जो भी एक लगे-बंधे ढांचे में इन्सान को डालते हों, वो विदा होने ही चाहिए, चूँकि ये सब इंसानी सोच को बाधित करते हैं, इन्सान की बुद्धि को हर लेते हैं, हैक कर लेते हैं, उसे एक मशीन बना देते हैं. रोबोट बना देते हैं, जो एक निश्चित प्रोग्राम के तहत जीवन जीता चला जाता है.

लेकिन फिर भी चूँकि इस्लाम सब से ज़्यादा हिंसक है, सो सब से ज़्यादा काम इस्लामिक दुनिया में करने की ज़रूरत है ताकि लोग इस दुनिया से बाहर आ सकें.

इस के लिए अलग टापू खरीदे जा सकते हैं, जहाँ एक्स-मुस्लिम को बसाया जा सके. चूँकि बहुत से मुस्लिम जो इस्लाम छोड़ना चाहते हैं या छोड़ चुके हैं वो इस्लामिक मुल्कों में मज़बूरी में रह रहे हैं और 
मज़बूरी में ही इस्लामिक रवायतों को मान रहे हैं चूँकि यदि वो इस्लाम छोड़ने की घोषणा करेंगे तो भी मार दिए जा सकते हैं. सो ऐसे लोगों का पॉलीग्राफ टेस्ट कर के, बॉडी लैंग्वेज टेस्ट कर के, हैण्ड राइटिंग टेस्ट कर के या जो भी और कोई टेस्ट सम्भव हों, वो सब करने बाद,  इन को अलग टापूओं पर, अलग मुल्कों में शिफ्ट  कर देना चाहिए. अमेरिका भी तो ऐसे ही बसा था. वहां अलग-अलग मुल्कों से गोरे पहुँच गए थे. इस से इस्लामिक आबादी को बड़ा झटका लगेगा जो कि इंसानियत के लिए बहुत ज़रूरी है.

इस के साथ ही पूर्वी धर्म भी अपना प्रचार बढ़ा सकते हैं. वो इस लिए चूँकि बहुत से लोग अपने आप को धर्मों के बिना बिलकुल ही अनाथ समझने लगते हैं तो उन को फिलहाल पूर्वी धर्मों में लाये जाने का प्रयास किया जान चाहिए. सो हिन्दू, सिक्ख, बौद्ध, जैन भी यदि विस्तारवाद अपनाएं तो यह अंततः शुभ ही साबित होगा.,...


नमन
तुषार कॉस्मिक

Tuesday 5 April 2022

क्या तुम ने ध्यान दिया लैला-मजनू, मिर्ज़ा-साहेबा, शीरी -फरहाद, हीर-राँझा ये सब मुस्लिम समाज से थे?

क्या तुम ने ध्यान दिया लैला-मजनू, मिर्ज़ा-साहेबा, शीरी -फरहाद, हीर-राँझा ये सब मुस्लिम समाज से थे? इन की मोहब्बत स्वीकार न हो सकी समाज को. सब दुत्कारे गए, मारे गए. भारत का जो मूल कल्चर है, इस में तो शायद ऐसा विरोध न था, यहाँ तो वसंत-उत्सव होता था, जिस में स्त्री-पुरुष एक दुसरे के प्रेम-निमन्त्रण देते थे. 'वैलेंटाइन डे' जैसा कुछ. यूँ ही थोड़ा हम लिंग-पूजन करने लगे. यूँ ही थोड़ा हम ने मन्दिरों की दीवारों पे सम्भोग दर्शा दिया. इस्लामिक समाज में स्त्री-पुरुष सम्बन्ध में शादियाँ हैं, सेक्स है और बच्चे पैदा करना है. लेकिन मोहब्बत कहाँ है? लैला-मजनू जैसी. इन को तो पत्थर मारे गए. आज भी मारे जायेंगे. मोहब्बत सिर्फ नबी से और इबादत सिर्फ अल्लाह की. बात खत्म.~ तुषार कॉस्मिक

अमीरी- गरीब

अमीरी आज जिस तरह से समझी जा रही है, मुझे लगता है वो अपने आप में एक फ्रॉड कांसेप्ट है.

पीछे एक मित्र बता रहे थे कि उन्होंने 300 गज का फ्लोर बेच के ५०० गज का फ्लोर खरीद किया है. बड़ी अच्छी बात है. लेकिन इस कथन के पीछे एक घमण्ड है, वो किस लिए? दिल्ली में रहने वाले एकल फॅमिली के लिए 300 गज का फ्लोर कम है क्या? फिर लेने को आप ५००० गज का फ्लोर लो, कोठी लो, कुछ भी लो, लेकिन इसका औचित्य क्या है? दुनिया से हजार बे-इमानियाँ करोगे, खुद को तनाव दोगे, दूसरों को तनाव दोगे, बीमारी मोल लोगे, बीमारी बांटोगे, किस लिए?

ताकि तुम अमीर दिख सको, और अमीर, अमीर से भी अमीर.
राईट?

इसे मैं पागलपन कहता हूँ. और देखता हूँ इर्द-गिर्द, तो सब इसी पागलपन के घोड़े पे सवार भागे जा रहे हैं. किधर भाग रहे हैं? क्यों भाग रहे हैं? इन को खुद नहीं पता.

बस बड़ा घर लेना है, बड़ी कार लेनी है, दुनिया घूमनी है. चाहे घूमना होता क्या है, उस की ABCD न पता हो, चाहे Switzerland जा के भी कमरे में बंद हो के दारू ही पीनी है. चाहे सामने कितना ही सुंदर पहाड़ हो लेकिन मन पैसे का और बड़ा पहाड़ खड़ा करने में उलझा रहे, लेकिन घूमना है.

भाई जी, बहन जी, एक सीमा के बाद तो पैसे का प्रयोग आप कर ही नहीं सकते. क्या सोने की रोटी खाओगे? क्या करोगे? मैंने तो देखा है, जो लोग गाँव या कस्बों से बड़े शहरों में बसे हैं, वो तरसते हैं अपने पुराने दिनों को. दिल्ली एक इर्द-गिर्द ऐसे पिकनिक स्पॉट हैं, जो बिलकुल वही गाँव का खाना, वही 50 साल पुराना जीवन परोसते हैं, और लोग चाव से वहां जाते हैं.

बच्चों के लिए छोड़ना है अथाह धन? अमीरों के बच्चे देखे हैं. पिलपिले. ज़रूरत से ज़्यादा गोलू-मोलू. धरती के बोझ. उन्हें सब दे दोगे थाली में सजा के तो ये जीवन को एन्जॉय करने जितना स्ट्रगल भी झेल नहीं पायेंगे. मैंने पत्नी सहित पन्द्रह दिन के ट्रिप में कोई 300 किलोमीटर पहाड़ की ट्रैकिंग की. अब अमीरजादे तो एक दिन में ३० चालीस किलोमीटर पहाड़ पर चलने से रहे. अब ये तो इस आनंद से वंचित रह जायेंगे. मैं रोज़ एक से दो घंटे पग्गलों वाला व्यायाम करता हूँ. इस का अपना आनंद है. अमीरज़ादे इस आनंद को ले पायेंगे?

एक अमीर आदमी से कोई पूछता है, " बच्चे को स्कूल कौन छोड़ता है?"
जवाब, "नौकर रखा है."

"दूकान का हिसाब कौन लिखता है?"

जवाब, "नौकर रखा है."

"कुत्ते को कौन घुमाता है?"

जवाब,"नौकर रखा है."

"कार कौन चलाता है?"

जवाब ,"नौकर रखा है."

" बीवी से सेक्स कौन करता है?"

जवाब, "नौकर....."

दिल्ली में देखता हूँ, हर तीसरा-चौथा आदमी मोटा है, कोई तो बेहद मोटा है. ये ज़्यादा खाने की वजह से, ज़्यादा स्वादिष्ट खाने की वजह से, रंग-बिरंग-बदरंग खाने की वजह से मोटे हैं, बीमारू हैं. धरती के बोझ. और फिर इन्होने हर काम के लिए नौकर रखा है.........

देखिये, जब आप साइकिल पर हों और पहाड़ से नीचे को चल रहे हों. तो साइकिल अपने आप भागती रहेगी. जितना ढलान ज़्यादा होगी, उतना तेज गति से साइकिल चलती जाएगी. आप को पेडल मारने की ज़रूरत ही नहीं है.

आप अभाव से समृद्धि की और यात्रा करते हैं. बड़े ही जतन से. सब तरफ हेरा-फेरियां हैं. सब लूटने को बैठे हैं. धोखा देने को बैठे हैं. जरा चूके और आप का धन, आप का धन्धा, आप की बेहतरीन नौकरी छिन जाएगी. जैसे-तैसे रातें काली कर केआप धन जमा करते हैं. लेकिन यह धन जमा करते-करते आप जीवन का एक बड़ा हिस्सा कुर्बान भी कर चुकते हैं. अब आप को कमाने की लत लग चुकी है. आब आप बस एक insecurity की वजह से कमाए ही चले जा रहे हैं. बस यही गड़बड़ है.

पैसा कमायें, लेकिन एक सीमा के बाद कमाए जाने के औचित्य को परखें, खुद परखें और फैसला करें कि अब और कितनी देर साइकिल पर पेडल मारे जाना है. इर्द-गिर्द मत देखें, लोग तो हजार तरह के पागलपन में उलझे रहते हैं. आप अपना फैसला खुद करें.


~तुषार कॉस्मिक

Sportsmanship

मुझे लगता था कि बस खेल खेलो. मस्ती में. काहे किसी से मुकाबला करना? मुकाबले में पड़ना ही क्यों?

यदि मुकाबले में पड़ गए तो खेल की मस्ती जाती रहेगी. मुकाबला जीतने के तनाव से भर देगा.

लेकिन मुझे लगता है कि यह सोच जीवन का मुकाबला करने से ही दूर ले जा सकती है.सो मुकाबला करना सीखना चाहिए. हार से क्या डरना? हार-जीत तो होती ही रहनी है. यदि कोई हम से जीत भी जाता है तो उस का बस इतना ही मतलब है कि उस समय, उस ख़ास विधा में वो व्यक्ति हम से बेहतर है. लेकिन कुदरत के लिए हम सब उस की बेहतरीन कृतियाँ हैं. नायाब. सो  हार से हारना थोडा न है. हार भी अपने आप में जीत है. मुकाबला करते रहना चाहिए. ~ तुषार कॉस्मिक

मेरी हल्की-फुलकी सी उद्घोषणा है

मैंने सुना, अम्बेडकर ने कहा था, "मैं हिन्दू घर में पैदा हुआ लेकिन हिन्दू मरूंगा नहीं." खैर, मैंने तो सब धर्मों से किशोर अवस्था में ही विदा ले ली थी. पंजाबी के महान कवि शिव बटालवी ने गाया था, "अस्सी जोबन रुत्त मरणा".और वो जवानी में मरे. मेरी हल्की-फुलकी सी उद्घोषणा है, "मेरी उम्र चाहे कितनी ही बढ़े, लेकिन मैं बुड्ढा हो के मरूँगा नहीं."~ तुषार कॉस्मिक

तुम आज़ाद हो?

तुम को लगता है, तुम आज़ाद हो. खुश-फहमी है.


यदि तुम मुस्लिम मुल्क हो तो तो तुम, अल्लाह, कुरान और मोहम्मद के खिलाफ बोल नहीं सकते, ईश-निंदा का कानून है, मार दिए जाओगे. तुम इस्लाम छोड़ तक नहीं सकते, मार दिए जा सकते हो. यदि लड़की हो तो, गैर-मुस्लिम से शादी तक की आज़ादी नहीं है. तुम आज़ाद हो?

तुम भारत जैसे मुल्क में अदालत के खिलाफ़ नहीं बोल सकते. अदालत चाहे कितने ही बकवास फैसले देती रहे. चाहे खुद के किये फैसले बदलती रहे. लेकिन तुम अदालत के खिलाफ बोले तो सजा हो सकती है, Contempt of Court का मामला बन जायेगा. और तुम आजाद हो?

तुम कोरोना, जो कि नकली बीमारी है, विश्व-व्यापी फ्रॉड है, इस के खिलाफ बोलोगे, लिखोगे तो तुम्हारे सोशल मीडिया अकाउंट बंद किये जा सकते हैं, तुम्हें अरेस्ट किया जा सकता है, तुम आज़ाद हो?

Thursday 31 March 2022

नास्तिक

तुम्हारी अधिकाँश व्यवस्थायें भगवान/अल्लाह/गॉड के इर्द-गिर्द बुनी गई हैं.

जन्म-मरण, शादी-ब्याह, खुशी-ग़म सब स्थितियों में तथाकथित धर्म घुसा है.

किन्तु नास्तिक पूरी व्यवस्था को नकार देता है. सो नास्तिक बर्दाश्त नहीं होता.

वाल्मीकि रामायण में नास्तिक को चोर कहा गया है. इस्लाम में तो नास्तिक के लिए मृत्युदंड है.

लेकिन इंटरनेट के आने के बाद चीज़ें छुपानी मुश्किल हो गई हैँ. सोशल मीडिया पर अनवरत बहस चलती है अब. नास्तिक, संशयवादी, अज्ञेयवादी बढ़ रहे हैं. यह शुभ है.संशय से विचार पैदा होता है. विचार शुभ है. ~ तुषार कॉस्मिक

ग़रीब कौन?

रोज़ाना पहाड़ी पगडंडियाँ नापने वाली औरत
या
गाँव की पतली सड़कों पे साईकल से चलने वाला आदमी,

बड़े शहर के Gym में treadmill पे चलने वाले आदमी
और
Stationary Bike पर पैडल मारने वाली औरत से गरीब कैसे है,
यह मुझे अभी तक समझ नहीं आया.

~तुषार कॉस्मिक

Wednesday 30 March 2022

सिख-मुस्लिम-हिन्दू :-- समानताएं-विषमताएं-- By Zoya Mansoori of Facebook

शाहीन बाग के लंगर से लेकर गुड़गांव के गुरुद्वारों में हो रही नमाज तक सिख मु.स्लिम गठजोड़ की खबरें सोशल मीडिया से लेकर मेंन स्ट्रीम मीडिया तक खूब बिखरी हुई हैं। मु.स्लिमों से सिखों की बढ़ती नजदीकी और हिंदुओं से उनकी लगातार बढ़ती घृणा किसी से छिपी नहीं है।

हिंदू अभी भी यह मानते हैं कि सिख सनातन हिंदू धर्म का ही एक पंथ, एक हिस्सा है जबकि कट्टरपंथी सिख यह दावा करते हैं कि वह हिंदू धर्म से अलग एक स्वतंत्र धर्म है। हिंदू मु.स्लिम सिख ईसाई आपस में सब भाई भाई, यह नारा वीर सावरकर ने आजादी से पहले दिया था।

इस नारे में सिख पंथ को हिंदू मुस्लिम और ईसाई धर्मों की तरह एक अलग धर्म के रूप में उल्लिखित किया गया है। अगर सिख पंथ हिंदू धर्म का ही एक हिस्सा था तो क्या सावरकर को यह नहीं पता होगा? अगर पता था तो सही नारा होना चाहिए था, हिंदू मुस्लिम यहूदी ईसाई आपस में सब भाई भाई।

हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख यह सभी सनातन परंपरा के ही हिस्से हैं लेकिन वीर सावरकर ने अपने नारे में सनातन बौद्ध या सनातन जैन धर्म के बजाय सिख धर्म को जगह दिया। क्या वीर सावरकर सेकुलर थे?

मेरे ख्याल से तो नहीं, तो फिर उन्होंने सिख धर्म के हिंदू सनातन धर्म से अलगाव को महसूस कर लिया था, वह भी आजादी से पहले जब खालिस्तान नाम की चिड़िया का अता पता भी नहीं था। 

सिखों का सनातन परंपरा से अलगाव तब शुरू होता है जब इनमें अंतिम का कांसेप्ट आ जाता है। दसवें और अंतिम गुरु...! सनातन में कहीं भी अंतिम का कांसेप्ट नहीं है। सनातन हिंदू, सनातन जैन और सनातन बौद्ध तीनों ही अनंत के कांसेप्ट में विश्वास करते हैं। अंतिम का कांसेप्ट इस्लामिक कॉन्सेप्ट है, अंतिम पैगंबर,  अंतिम किताब।

विभाजन थोड़ा और बढ़ जाता है, जब सिखों के बीच किताब महत्वपूर्ण हो जाती है। किताब इसलिए महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि 'गुरु ग्रंथ साहब' को ही अंतिम गुरु मान लिया जाता है। सनातन परंपरा श्रुति परंपरा रही है, सुनना, याद करना और अगली पीढ़ी तक पहुंचाना। लिखने की परंपरा बहुत देर से शुरू हुई, वह भी पत्तों और ताम्र पर। 

वेद खो गए, साढ़े तीन चार हज़ार साल पहले फिर से कंपोज करने पड़े। ढाई- तीन हजार साल पहले तक रामायण-महाभारत की कहानियां लोक परंपरा में ही सीमित थी। मूल रामायण महाभारत कहाँ है, किसी को नहीं पता। दो हज़ार साल पहले भगवद गीता को पूछने वाला कोई नहीं था। कटु लग सकता है, अविश्वसनीय लग सकता है, पर ऐतिहासिक रूप से सत्य है।

िताब महत्वपूर्ण है इस्लाम में, किताब महत्वपूर्ण है सिखों में। किताबों का महत्व सिखों को इस्लाम के करीब और सनातन परम्परा से दूर ले जाता है। 

फिर आता है कॉन्सेप्ट बेअदबी का। बेअदबी की सजा है हिंसा! हाथ काट दो, पैर काट दो, जान से मार दो। संस्कृत का पूरा शब्दकोष छान मारिए, कहीं भी आपको बेअदबी या ईशनिंदा का समानार्थी शब्द ही नहीं मिलेगा। ईशनिंदा जैसा कोई कांसेप्ट सनातन में है ही नहीं। 

ईशनिंदा, तौहीन-ए-रिसालत ये सब इस्लामिक कांसेप्ट है और 'बेअदबी' सिखों का कॉन्सेप्ट। दोनों की सजा मौत।

यह चीज भी सिखों को इस्लाम के करीब और सनातन से दूर ले जाती है। और भी कुछ असमानताएं है, पर ये मुख्य वजहें हैं जिन्हें शायद वीर सावरकर ने अपनी दूरदृष्टि या अध्ययन से देख लिया था, बाकी सारी वजहें राजनैतिक और क्षणिक है।

सवाल यह है किस सिख-मु.स्लिम गठजोड़ क्या लंबे समय तक चल सकता है? जवाब है नहीं। इतनी समानताओं के बावजूद कुछ विरोधाभास भी है। सिखों में कीर्तन-संगीत उनके धर्म का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है जबकि इस्लाम में संगीत पूरी तरह हराम है। हलाल और झटका मीट भी दोनों के बीच असमानता पैदा करता है। 

जहां हिंदू बहुसंख्यक होगा, वहां सिख हमेशा रहेंगे लेकिन जहां इस्लाम बहुसंख्यक होगा, वहां से सिखों को भाग कर फिर से हिंदुओं की शरण में आना पड़ेगा। बांग्लादेश, अफगानिस्तान और पाकिस्तान इसके सबसे ताजा और ज्वलन्त उदाहरण हैं।

Written by
 Zoya Mansoori of Facebook

Sunday 27 March 2022

सरकारी नौकर समाज के मालिक बने बैठे हैं. काले अंग्रेज़.

यदि कोई राजनेता तुम्हें रोज़गार देने के नाम पर सरकारी नौकरी देने का वादा करे तो उसे कभी वोट मत दो. चूँकि सरकारी नौकरी तो होनी ही बहुत कम चाहिए.

सरकारी नौकर समाज के मालिक बने बैठे हैं.
काले अंग्रेज़.

मोटी तनख्वाह, अनगिनत छुट्टियाँ, भत्ते, ज़ीरो ज़िम्मेदारी, पक्की नौकरी, पेंशन. इन्हें तो GPL मार दफ़ा करना चाहिये. ये समाज की तरक्की मे Roadblock हैं. जो नेता सरकारी नौकर खत्म करने का, कम करने का वादा करे, इन की तनख्वाह, भत्ते, छुटियाँ घटाने का वादा करे, इन की नौकरियां कच्ची करने का वादा करे, काम के प्रति इन्हें ज़िम्मेदार बनाने का वादा करे, उसे वोट दो.

~ तुषार कॉस्मिक

पीछे किसी ने कहा कि मैं Mental हूँ.

पीछे किसी ने कहा कि मैं Mental हूँ. कहा तो derogatory ढँग से है लेकिन कथन सही है.

है क्या कि अधिकांशतः इंसान सिर्फ़ Physical है. शरीर मात्र. खाना-पीना-सोना-बच्चे जनना और मर जाना. सब शरीर के तल के काम. मन का यंत्र प्रयोग करना उस ने जाना ही नहीं. वो उसे यंत्रणा लगता हूँ. मन जंग खाये जाता है.

फिर कोई आये और उस की जमी-जमाई मान्यताओं को हिला दे, झकझोर दे तो वो उसे मेन्टल (पगगल) लगता है. लेकिन अनजाने में शब्द सही प्रयोग हुआ जा रहा है. Mental. मेन्टल. जो mind का प्रयोग करे, वो तो Mental होगा ही. जो सिर्फ फिजिकल रह गए, उन को चिंतित होने की ज़रूरत है, उन्हें Mind प्रयोग करने की ज़रूरत है, उन्हें Mental होने की ज़रूरत है.~ तुषार कॉस्मिक

क्या आप ने अक्सर सुना कि फलाँ ग्रेजुएट है लेकिन फिर भी रेहड़ी लगा रहा है?

क्या आप ने अक्सर सुना कि फलाँ ग्रेजुएट है लेकिन फिर भी रेहड़ी लगा रहा है?
या
सोशल मीडिया पर अक्सर पोस्ट देखी कि बाप मोची है लेकिन बेटी अफसर बन गयी?

लोग वाह-वाह करने जुटते हैं.

चलिए, आप को कुछ अलग बताता हूँ. क्या आप को पता है कि रविदास मोची थे और उन  की शिष्या थी मीरा बाई? मीरा बाई, जो कि रानी थी. क्या आप को पता है कबीर जुलाहा थे. अपने हाथ से कपड़ा बुनने वाले.  क्या आपको पता है नानक किसान थे? Mercedes पर चलने वाले ज़मींदार नहीं. खुद हल चलाने वाले किसान. समझे?

ये जो समाज में काम के प्रति छोटे-बड़े का भेद-भाव आ गया है न, गलत है.

समाज को एक मोची की, एक गटर साफ़ करने वाले की, एक कूड़ा इकट्ठा करने वाले की, पंचर लगाने वाले की, बाल काटने वाले की भी उतनी ही ज़रूरत है जितनी किसी अफसर की. फिर यह छोटा-बड़ा क्या? फिर यह कमाई का इत्ता बड़ा फर्क क्या?
ठीक करो इसे. ~तुषार कॉस्मिक

Thursday 24 March 2022

सरकार बनाने के लिए तमाम ताम-झाम होता है. क्या ज़रूरत है इन सब आडम्बरों की?

चुनाव पीछे सरकार बनाने के लिए तमाम ताम-झाम होता है. बड़े आयोजन. करोड़ों रुपैये का फूंक जाना होता है. कितना ही समय और ऊर्जा व्यर्थ बह जाती है.

क्या ज़रूरत है इन सब आडम्बरों की?

आप देखते हैं, अक्सर विरोध किया जाता है कि ब्याह-शादियों पर अनाप-शनाप खर्च किया जाता है. गैर-ज़रूरी है. शादी सादी भी हो सकती है. और फेल होनी होगी तो मेगा-मैरिज भी हो सकती है.

तो सीखो. ये जो झोल-झाल करते हो न सरकारी, इस सब से जनता को असल में कोई मतलब है नहीं. जनता का नुक्सान है इस से. चूँकि पैसा जनता का बह जाता है पानी में. किसी नेता की जेब से तो कुछ जाता है नहीं.

सो यह सब शपथ ग्रहण आदि से जनता को क्या मतलब. रवायत है बस यह. बेमतलब. जिस ने हेर-फेर करना होता है, वो कसम खा के भी करता है. बेहतर है इन से एफिडेविट लो. और बेहतर है, इन का पॉलीग्राफ टेस्ट भी करवाओ ताकि थोडा अंदाजा हो सके कि ये जो कह रहे हैं, वही इन के मन में है भी कि नहीं. .

और इस सारी प्रक्रिया का विडियो बना Youtube पे डाल दो. खत्म बात. जिस ने देखना होगा देख लेगा. इतना ड्रामा काहे रचते हो? इडियट.

Friday 18 March 2022

तुम्हारे लीडर तुम्हारे पिछलग्गू हैं

तुम्हारे लीडर तुम्हारे पिछलग्गू हैं, वो तुम्हें नया रास्ता दिखाने का, तुम्हें सुधारने का रिस्क ले ही कैसे सकते हैं? तुम ने सड़ी-गली मान्यतायें चमड़ी की तरह चिपका रखी हैं. जंज़ीरों को जेवरात समझ रखा है. कौन पंगा ले? और जो पंगा लेगा, उसे तुम वोट दोगे? नहीं, तुम उसे सूली चढ़ाओगे, ज़हर दोगे, काट दोगे. सुकरात, जीसस, मंसूर जैसे लोगों के साथ क्या किया तुम ने? इन को कौन जिताएगा चुनाव? इन्हें वोट नहीं मौत दोगे तुम. लेकिन यकीन जानो, यही असल नेता हैं. बाकी सब बकवास. जो तुम्हें, तुम्हारी सोच को झकझोरता नहीं, वो तुम्हारा नेता हो ही नहीं सकता. ~ तुषार कॉस्मिक

"कश्मीर फाइल्स"- वजह क्या है इस की

जब से "कश्मीर फाइल्स" रिलीज़ हुई है, सोशल मीडिया पटा है, इस से जुड़े विडियो और लेखन से.

कश्मीरियों के तो आंसू नहीं रुक रहे इस फिल्म को देखने के बाद.

बहस छिड़ी हुई है. कश्मीर किस का? हिन्दु का या मुस्लिम का या दोनों का. बहस है, कश्मीर भारत का है या नहीं है.

संक्षेप में बता रहा हूँ, धरती माँ ने आज तक किसी के नाम रजिस्ट्री नहीं की कि वो किस की है. वो सब की है.

दूसरी बात, बहस है कि हिन्दुओं का पलायन हुआ क्यों? कौन ज़िम्मेदार था?

तो असल ज़िम्मेदार कोई इन्सान है ही नहीं. एक किताब है ज़िम्मेदार. "कुरान".

यह किताब जहाँ रहेगी, वहां मार-काट रहेगी ही. इस को मानने वाले न सिर्फ न मानने वालों को मारते-काटते हैं बल्कि आपस में भी मार-काट करते हैं. मुस्लिम से नहीं, इस्लाम से लड़ो, किताब से लड़ो.~ तुषार कॉस्मिक

Sunday 13 March 2022

उधार चाहिए. दो शर्तों पर. पहली शर्त, रकम पे कोई ब्याज नहीं मिलेगा. दूसरी शर्त, रकम भी नहीं मिलेगी

कल कहीं पढ़ा, "उधार चाहिए. दो शर्तों पर. पहली शर्त, रकम पे कोई ब्याज नहीं मिलेगा. दूसरी शर्त, रकम भी नहीं मिलेगी."

वाह! वल्लाह!! गजब ईमानदारी है. ऐसे ईमानदार को तो रकम मिलनी ही चाहिए. वैसे भी ब्याज है ही झगड़े की जड़. सुना है, इस्लाम में तो ब्याज हराम है.

और  ग़ालिब ने भी लिखा था, "क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हां, रंग लावेगी हमारी फ़ाक़ा-मस्ती एक दिन."

चार्वाक ने भी कहा है, "
यावज्जीवेत सुखं जीवेत, ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत." अर्थात उधार ले कर भी घी पी लेना चाहिए. 

मैं उधार लेने वाले साहेब जिन का ज़िक्र किया मैंने ऊपर, ग़ालिब और चार्वाक से बिलकुल सहमत हूँ. ~ तुषार कॉस्मिक

Saturday 12 March 2022

Corona Fraud-- Real Reason- GREAT RESET

क्या किसी ने आज तक भगवान देखा? वैसे ही जैसे हम रोज़ पेड़, पौधे, स्कूटर, कार देखते हैं?
नहीं, तर्क-वितर्क नहीं चाहिए.
तर्क से न समझायें कि परमात्मा है.
कोई तो सुप्रीम शक्ति है. कोई तो चला रहा है दुनिया....न ..न. वैसे नहीं.
कुत्ते-बिल्ली को जैसे देखते हैं वैसे.
Can we see God as we see Dog?
The answer is NO.
मेरे अनुसार उत्तर नकारात्मक है.
लेकिन बहुत लोग मानते हैं भगवान को.
बहुत लोग भूत-प्रेत मानते हैं.
मुस्लिम जिन्न मानते हैं.
बहुत लोग तो एलियन के साथ सेक्स भी कर चुके.
क्या करें इन्सान को कैसी भी अनुभूति हो सकती है. उस की अनुभूतियाँ बहुत विश्वसनीय नहीं हैं.
उसे पता ही नहीं लगता कि जो वो सोच रहा है, जो वो अनुभव कर रहा है, वो उसे सोचवाया जा रहा है, अनुभव करवाया जा रहा है.
इन्सान तार्किक प्राणी है लेकिन वो बहुत आसानी से प्रोग्राम भी हो जाता है, किया जा सकता है.
मेरी नजर में कोरोना के लिए इन्सान को प्रोग्राम किया गया है. तमाम मीडिया प्रयोग कर के हौव्वा खड़ा किया गया.
आज भी किया जा रहा है. हौव्वा. इस से इन्सान का पेशाब निकल सकता है, दिल फेल हो सकता है, दिमाग की नस फट सकती है, अधरंग हो सकता है.....कुछ भी हो सकता है.
एक भी मौत कोरोना से हुई इस का एक भी सबूत पूरी दुनिया में नहीं है. लाश की चीर-फाड़ हुई नहीं. कैसे पता?
बिना लक्ष्ण के भी कोरोना घोषित कर दिया. कैसे पता?
लक्ष्ण जो बताये, वो नजले वाले को होते ही हैं. कैसे पता?
मौत का आंकड़ा कुल मिला के बढ़ा नही, कैसे पता?
जो मौत कोरोना से हुई बताई गईं, वो किसी और बीमारी से नहीं हुई, कैसे पता?
जो मौत कोरोना से हुई बताई गईं, वो डॉक्टरों की लापरवाही से नहीं हुई, कैसे पता?
जो मौत कोरोना से हुईं कही गईं, वो मर्डर नहीं थे, किसे पता?
जो मौत कोरोना से हुईं कही गईं, वो मेडिकल सिस्टम Collapse होने की वजह से नहीं हुईं, किसे पता?
जो मौत कोरोना से हुईं कही गईं , वो पूरा मेडिकल, सामाजिक, न्यायिक, सिस्टम Collapse होने से नहीं हुईं, किसे पता?
लेकिन Lockdown, वैक्सीन, मास्क के प्रयोग के नुक्सान सब को पता हैं.
इस पूरे ड्रामे के पीछे बिल गेट्स, Fauci जैसे कई लोग हैं, यह ज़ाहिर हैं इन की स्टेटमेंट से और कृत्यों से.
मन्तव्य मात्र वैक्सीन बेचना नहीं है. मन्तव्य गहरे हैं. आबादी कण्ट्रोल, इन्सान की आज़ादी कण्ट्रोल, इन्सान की आर्थिक आज़ादी कण्ट्रोल..........
मन्तव्य तमाम व्यवस्था परिवर्तन है.
GREAT RESET
~Tushar Cosmic ~

Friday 11 March 2022

Kashmir Files

Watch 

"Kashmir Files"

and 

watch 

in 

Cinema 

Halls.


And if you can afford, send tickets to your near and dear.

And promote this film online and offline as much as you can.

~ Tushar Cosmic