Friday, 14 May 2021

कोरोना सच में कुछ है क्या?

एक बार राजा ने ढिंढोरा पीट दिया कि ताले खोलने वाले माहिर लोग आ जाएँ. प्रतियोगिता होगी और इनाम भी मिलेगा.  तक़रीबन कोई सौ लोग आ गए. सबको कमरों में बंद कर दिया गया और बोल दिया गया कि बाहर बड़ा ही जटिल ताला लगा है जो खोल के बाहर आ जायेगा वो जीत जाएगा. रात भर माहिर लोग सोचते रहे. लेकिन एक थोडा अनाडी किस्म का बन्दा भी था वहां जो ताले खोलना तो कुछ ख़ास नहीं जानता था लेकिन इनाम के लालच में आ गया था. ज़्यादा सोच थी ही नहीं उसके पास. उसने सोचा देखूं तो सही ताला लगा भी है कि नहीं।  वो उठा और दरवाज़ा जरा सा धकिया दिया और उसका ऐसे करते ही दरवाज़ा खुल गया. और वो कमरे से बाहर. इनाम जीत गया वो. 

जब मैं स्कूल में था तो हमें सिखाया गया था कि इम्तिहान में घबराना नहीं है. हर सवाल को तीन बार पढना है. सवाल ठीक से समझना है. हल की तरफ बाद में जाना है. हमें समझाया गया कि कई बार तो  सवाल के अंदर ही जवाब छुपा हो सकता है. वो सीख मुझे आज भी याद है. 

और यही सीख, यही समझ मैं आपको देना चाहता हूँ . घबराएं मत. 

आप देखते हैं जेम्स बांड की फिल्में? जेम्स बांड फंसा होता है हर तरफ से और लगता है कि अब मरा कब मरा लेकिन वो घबराता बिलकुल नहीं है बल्कि रास्ता खोजता है और खोज भी लेता है और जाल से निकल बाहर हो जाता है. 

पग्गल मत बनें, किसी ने कह दिया कि कव्वा कान  ले गया और आप भग लिए कव्वे के पीछे। पहले देख तो लीजिये कि कान अपनी जगह मौजूद है भी कि नहीं। शोर मच गया कि कोरोना है कोरोना है पहले देख तो लीजिये कोरोना है भी कि नहीं। तर्क भिड़ाएं. आंकड़ों को analyze कीजिये.  

लकिन आप कहेंगे यमराज हुंकार  रहे हैं, “यम हैं हम....” काले भैंसे पे सवार हैं  और गली-गली घूम रहे है. पकड़ ले जायेंगे साथ. ऐसे में क्या बुद्धि लगायें? सब तरफ तो मौत बरस रही है. इसमें क्या तर्क भिड़ाना? लोग मर रहे है. आंकड़े क्या देखने? लोग ऑक्सीजन ऑक्सीजन चिल्ला रहे हैं. श्मशानों में लाशों के ढेर लगे हैं. 

लेकिन फिर भी मैं आपसे कहूँगा कि थोड़ी सी हिम्मत करो, तर्क भिड़ाओ, आंकड़ों का विश्लेष्ण करो. 

01मई 2021 की नवभारत-टाइम्स के मुख-पृष्ठ पर खबर थी सोली सोराब जी, शूटर दादी हरियाणा की चन्दो देवी और रिपोर्टर रोहित सरदाना कोरोना से मर गए. जैसे ही खबर पढ़ेंगे आपके रोंगटे खड़े हो जायेंगे, हाथ-पैर फूल जायेंगे. कोरोना आया ही आया आपको दबोचने. लेकिन थोडा ध्यान से दुबारा खबर पढ़े तो पता लगेगा कि, चन्दो देवी 89  साल की थी और ब्रेन हेमरेज से मरी, रोहित सरदाना हार्ट अटैक से मरे. और सोली सोराब जी 91 साल के थे, जब मरे. 

थोड़ा तर्क लगायें. दो शख़्स नब्बे-नब्बे साल की उम्र के मर जाते हैं लेकिन इनको कोरोना ने मारा. एक शख्स हार्ट अटैक से मर जाता है लेकिन इसे भी कोरोना ने मार दिया. एक शख्स ब्रेन हेमरेज से मरी लेकिन ये भी कोरोना से मरी. सब को कोरोना ने मारा. आंकड़ों का खेल है. Data Manipulation है कि नहीं ये.

जो भी जायेगा अस्पताल इलाज करवाने सर्द दर्द का, पीठ दर्द का,  दाँत दर्द का; सबका कोरोना टेस्ट होगा और फिर कोई भी किसी भी बीमारी से कोई मर गया तो उसे कोरोना से मरा घोषित किया जायेगा. 

मिसाल के लिए समझिये कि पहले 25  लोग हार्ट अटैक से मरते, 25  ब्रेन हेमरेज से, 25  कैंसर से, 25  किडनी फेल होने से. लोग अब भी 100 ही मर रहे हैं. लेकिन अब ये सब  कोरोना से मर रहे हैं. हार्ट अटैक वाले, कैंसर वाले, किडनी फेल वाले, लीवर फेल वाले सब कोरोना से मर रहे हैं. मौत का आँकड़ा शिफ्ट किया गया है. सब तरह की मौतों को कोरोना की लिस्ट डाल दिया गया है. 

जो कोई भी कोरोना से मरे बताये जा रहे हैं, वो ज्यादातर कोई और बीमारियों से पीड़ित थे, सीरियस बीमारियों से पीड़ित. या फिर वृद्ध थे. वैसे भी उन्होंने मरना ही था औसतन. इसमें नया कुछ भी नहीं है. 

मृत्यु कोई नई चीज़ है क्या? गुरबाणी कहती है,"जो आया सो चलसी, सब कोई आई वारी ए." 

we are all dead, it is the matter of time only. 

एक बार बुद्ध के पास एक औरत आई. रोती बिलखती हुयी. बुद्ध बैठे थे अपने शिष्यों के साथ. वो आई और उसने बुद्ध के चरणों में अपने मृत बेटे का शव रख दिया और कहा कि यह असमय मृत्यु को प्राप्त हुआ है, इसका अभी कोई समय नहीं था जाने का. यह तो बच्चा था, इसने अभी जीवन देखना था. मैं इसकी माँ जिंदा हूँ, इसका बाप जिन्दा है लेकिन यह मर गया. यह अनहोनी हुई है. आप तो सिद्ध-बुद्ध हैं.आप इसे जिन्दा कर दीजिये. बुद्ध ने कहा ठीक है, "मैं जिन्दा कर दूंगा. बस छोटा सा काम करना होगा आपको माते. आप किसी ऐसे घर से एक मुट्ठी मिटटी ला दें जहाँ मृत्यु न हुई हो."  

वो औरत तो बावली सी हो ही चुकी थी. भागी गाँव की ओर. पूरा गाँव घूम गयी. लेकिन एक मुट्ठी मिटटी न ला पाई. सांझ वापिस आई बुद्ध के पास, आँखों में आंसू. लेकिन अब वो बात समझ चुकी थी. मृत्यु अवश्यम्भावी है. बुद्ध को नमन किया और बेटे का शव वापिस ले गयी. 

ग़ालिब का शेर  है, "मौत का एक दिन मुअय्यन है, नींद क्यूँ रात भर नहीं आती" 

मौत का एक दिन तय है. मौत सबको आनी है. परेशानी किस बात की? लेकिन  परेशानी  है बहुत. अब सब मौत कोरोना से आ रही हैं जैसे कोरोना न होता तो सब अमर हो जाते. जैसे पहले कभी लोग मरते ही न थे. जैसे मौत का आंकड़ा एक दम से कोई बहुत ज़्यादा बढ़ गया. आप worldometers.info  पर जाएँ,  देखें। सिर्फ वहां जनसंख्या का आंकड़ा देखें, वो हर पल बढ़ रहा है. महा-मारी होती तो जनसंख्या बढ़ क्यों रही होती? 

है क्या कि मौतें चाहे किसी भी कारण से हो रही हैं, उन पर कोरोना का ठप्पा मार के कोरोना का आंकड़ा बड़ा कर के दिखाया जा रहा है. और कोरोना वाले शवों का अंतिम संस्कार कुछ खास श्मशानों में करना तय कर दिया गया है. सो वहां भीड़ बढ़नी ही है. उस बढ़ी हुई भीड़ को दिखाया जा रहा है. 

अब अगर आगे मौत का आंकड़ा थोडा बहुत बढ़ेगा भी तो वो कोरोना के नाम पर फैलाई गयी अफरा-तफरी की वजह से होगा. बद-इन्तेज़ामी और बेरोजगारी और मानसिक तनाव और डर की वजह से होगा. वो इलाज न मिलने की वजह से होगा चूँकि डॉक्टर लोग बाकी किसी रोग वालों को पूरी तवज्जो ही नहीं दे पा रहे. वो आंकड़ा इसलिए बढ़ेगा चूँकि लोगों को ठीक से साँस नहीं लेने दी जा रही.  घर में भी मास्क लगाने को बोला जा  रहा है,  कार में अकेले व्यक्ति को भी मास्क लगाने को बोला, डबल मास्क लगाने को बोला जा रहा है. लोगों को जब कुदरती  साँस लेने ही न दी जाएगी, उनके नाक-मुंह घोंट दिए जाएंगे,  डरा दिया जायेगा तो उनको नकली सांस देनी ही पड़ेगी. किसी को ऑक्सीजन मिलेगी, किसी को नहीं मिलेगी।  मौत का आंकड़ा  अब थोड़ा बढ़ भी सकता है, लेकिन वजह कोरोना बिलकुल  भी नहीं होगा.  

कोरोना के Experts की क्या स्टडी है? कितनी गहरी स्टडी है? देखते जाइयेगा. लगेगा जैसे लाल बुझक्क्ड़ इनसे ज़्यादा जानते हैं।  

अभी तक कह रहे थे कि कोरोना एक दूसरे को छूने से, चीज़ों को छूने से फैलता है अब कह रहे हैं कि नहीं नहीं कोरोना सरफेस छूने से नहीं फैलता. लोग हाथ धो-धो बावले गए, sanitizer  मल-मल पग्गल हो गए, अब कह रहे कि सरफेस छूने से नहीं फैलता कोरोना. 

पहले कह रहे थे कि घर में रहो कोरोना से बचे रहोगे। अब कह रहे हैं कि कोरोना हवा से फैलता है और घर में रहने से ज़्यादा फैलता है. यदि घर में रहने से ज़्यादा फैलता है तो फिर लॉक-डाउन से घटेगा या बढ़ेगा? 

एक खबर थी पीछे कि कोरोना २५००० साल से है. ठीक है. होगा. लेकिन इसका मतलब यह है २५००० साल से कोरोना के होने की बावजूद धरती पर जीवन पनपा है. फिर आज ऐसी क्या नई चीज़ हो गयी? जब २५००० साल से हम कोरोना के साथ जीए हैं, हमारी आबादी २५००० साल से कोरोना के होने के बावजूद बढ़ी है और आज भी बढ़ रही है तो फिर आज भी जी लेंगे न हम कोरोना मैडम के साथ. आज क्यों हाय-तौबा मचाई जा रही है?

बड़े मजे की बात है, जिस समय WHO ने कोरोना को वैश्विक महा-मारी घोषित किया था, तब भारत में तो किसी को कुछ पता ही नहीं था कि कोरोना भी कुछ है. यहाँ तो कोई मारा-मारी नहीं हुई थी. भारत में दुनिया की लगभग 18% आबादी रहती है. अगर सच में ही यह महा-मारी होती तो फिर WHO  को बताना थोड़ा न पड़ता, वो तो वैसे ही पता होता.

क्या आज तक आप ने कोई बीमारी ऐसी देखी  है जिसमें आप कहो कि  आपको कुछ नहीं हुआ लेकिन डॉक्टर कहे कि  नहीं आप बीमार हो? कोरोना ऐसी ही बीमारी है. An Asymptomatic Disease. मतलब बीमार होने के कोई लक्षण नहीं लेकिन फिर भी टेस्ट ने बता दिया कि आप बीमार हो तो हो. 

और इससे उल्टा भी कहा जा रहा है अगर टेस्ट नहीं भी हुआ या हुआ है लेकिन रिजल्ट आया नहीं है  लेकिन कोरोना के लक्षण हैं तो भी आपको कोरोना पॉजिटिव मान लिया जायगा. और कोरोना के लक्षण क्या हैं? वही जो खांसी ज़ुकाम नजले के होते हैं. 

वाह! एक्सपर्ट की Expertise.  

आगे देखिये, एक्सपर्ट्स कह रहे थे कि कोरोना अच्छी इम्युनिटी वालों पर कम असर करता है. गुड. अब ये क्या नई चीज़ बता दी? अच्छी इम्युनिटी वालों पर सभी रोग कम असर करते हैं. असल में आयुर्वेद तो वायरस को मानता ही नहीं. वो तो सीधा कहता है कि यदि आप मज़बूत हो तो रोग आपका कुछ नहीं बिगाड़ पायेंगे यदि आप कमजोर हों तो कोई भी रोग आपको जकड़ लेगा. सिम्पल बात. और अच्छी इम्युनिटी कैसे होगी? घरों में बंद होकर? बेरोजगार होकर? रिश्तेदार-यार-दोस्तों से कट के? आपको याद है मुन्ना भाई MBBS फिल्म  में संजय दत्त की जादू की झप्पी. इम्युनिटी यारों से, रिश्तेदारों से, प्यारों से मिलने-जुलने से बढ़ती है भैया न कि घटती है. सब तो वो किया जा रहा है जिससे इम्युनिटी अच्छी हो तो  भी अच्छी न रहे. होना तो यह चाहिए था कि लोगों को खुले में रहने की सलाह दी जाती. खुली हवा-धूप लेने की सलाह दी जाती. प्राकृतिक खाना खाने की सलाह दी जाती. खुल के साँस लेने की सलाह दी जाती. प्राणयाम की सलाह दी जाती. अष्टांग योग में वायु को वायु मात्र नहीं माना गया. प्राण माना गया है. साँस द्वारा ली और छोड़े जाने वाली वायु को विभिन्न आयाम देने की क्रियाओं को प्राणायाम कहा है योग ने. लेकिन जब आप साँस द्वारा वायु ठीक से न अंदर लोगे और न ठीक से बाहर निकलोगे तो प्राण तो बाधित होगा कि नहीं. सिलिंडर बुक करना पड़ेगा कि नहीं. 

सब काम तो वो किये जा रहे हैं जिससे अच्छे-भले इंसान की इम्युनिटी गिर जाए. 

यह है एक्सपर्ट की ऐक्सपर्टीज़।  

एक टेस्ट RT-PCR खड़ा  कर दिया गया. टेस्ट बता रहा है कोरोना है तो है.  लेकिन टेस्ट का बताना  फर्जी भी तो हो सकता है. नहीं? चेक कीजिये, कहीं कोई विडियो है किसी के पास वायरस के अस्तित्व का? रियल टाइम में नुक्सान पहुंचाते हुए कोरोना का विडियो है क्या किसी के पास? क्या कोरोना, निपट कोरोना से मरने वाले का कोई पोस्ट मोर्टेम  का विडियो है किसी के पास? सवाल तो यह भी उठता है कि कोरोना जानवरों को नुक्सान क्यों नहीं पहुंचा रहा? वो भी तो जान-वर हैं. जब डॉक्टरी सिखाते हैं तो जान-वर को चीर-फाड़ दिल-गुर्दा-फेफड़ा दिखाते हैं कि नहीं। ज़हर  इंसान को दो, वो मर जायेगा, जानवर  को दो, वो मर जायेगा। लेकिन वायरस  मारता है सिर्फ इन्सान को ! एनाटोमी कहीं मिलती जुलती भी तो है. साँस तो वो भी ले रहे हैं. और जब वायरस हवा से ही फैलता है तो उनको नुक्सान क्यों नहीं पहुंचाता यह वायरस?  

मैंने तो अपनी गली का कोई कुत्ता इस ढेढ़ साल में मरते नहीं देखा. लेकिन अब खबर है कि शेरों में कोरोना पाया गया. एक्सपर्ट की ऐक्सपर्टीज़ है, सवाल कोई कैसे खड़ा करे? मजाल किसी की कहाँ? 

क्या कोई एक भी सबूत है टेस्ट के अलावा जिसे आम जनता को दिखाया सके  कि कोरोना  किसी भी लिविंग-बीइंग को कैसे और क्या नुक्सान करता है? क्या एक्सपर्ट्स ने साबित  किया कि कोरोना वायरस का साइज  ऐसा  है कि वो मास्क में से नहीं  गुज़र सकता?  अभी थोड़े महीने  पहले ही भारतीय सरकार  ने कहा था N -95 मास्क बेकार हैं. लेकिन कब कहा था? जब करोड़ों  N -95 बिक चुके थे. अब डबल मास्क लगाने को कहा जा रहा है.  कार में अकेले हैं फिर भी मास्क लगाने को कहा जा रहा है. कार में चलता हुआ अकेला व्यक्ति किसी के लिए क्या खतरा बनेगा? 

कोई भी वैक्सीन डेवेलप करने में १०-१५ साल लगते हैं और अब  एक-डेढ़ साल में ही वैक्सीन डेवेलप  भी हो गयी. और सबको लगेगी ही लगेगी. मतलब आप नहीं लगवाओगे तो आप पर पाबंदियां इतनी लगा दी जाएंगी की आप चाहो न चाहो वैक्सीन आपको ठुकवानी ही पड़ जाएगी.  

लेकिन आप सवाल नहीं उठा सकते.  एक्सपर्ट की ऐक्सपर्टीज़ है.

क्या दुनिया में सिर्फ एलॉपथी ही एक मात्र चिकित्सा विधि है? क्या प्राकृतिक  चिकित्सा, आयुर्वेद, योगिक-चिकित्सा, यूनानी चिकित्सा, मनो-चिकित्सा  जैसी  कोई और विधि नहीं होती इलाज की? क्या इन विधियों ने वायरस को माना है? यदि नहीं तो फिर कैसे एकदम वायरस के अस्तित्व को आधार बना कर  वैश्विक आपदा घोषित कर दी? WHO के कहने मात्र से? एलॉपथी ने कितनी ही दवा दुनिया भर को खिलाने बाद वापिस नहीं ली क्या, ये कह के कि ये दवाएं घातक हैं? तब कहाँ जाती है, अंग्रेज़ी चिकित्सा की महा-विद्या?

लेकिन एक्सपर्ट की ऐक्सपर्टीज़ है. क्या बोलें?

इम्युनिटी, बीमारी और मृत्यु का मानसिक पहलु भी तो है. प्राणी सिर्फ शरीर थोड़ा न है. मेडिकल वर्ल्ड में प्लासीबो  इफ़ेक्ट और नोसीबो इफ़ेक्ट, दोनों को प्रभावी माना जाता है. 

ऐसे प्रयोग किये गए हैं कि दवा के नाम पर मीठी गोलियां दी गयी और बीमार ठीक हो गया. इसे प्लेसिबो इफ़ेक्ट कहते हैं. 

इसका उल्टा भी होता है. नोसीबो इफ़ेक्ट. बीमारी हो न लेकिन बीमारी घोषित हो जाये और लोग सच में बीमार होने शुरू हो जाएं. रस्सी को साँप समझाया जाये और लोग सांप ही  समझने लगें. खांसी-ज़ुकाम को कोरोना बताया जाये और लोग समझ जाएं. और अस्पतालों में भर्ती होने लगें. क्या आपको पता है कुत्तों को भी हार्ट अटैक होते हैं? डर इतना खतरनाक होता है कि पंगु कर देता है. ब्रेन हेमरेज हो जाये, हार्ट अटैक हो जाये. मन का तन पर असर है यह. क्वारंटाइन में पड़ा इन्सान तो वैसे ही अधमरा सा हो जायेगा. जिस तरह का माहौल  बनाया जा रहा है इसमें सब पग्गल से हो चुके हैं. क्या आज से पहले किसी ने खांसी ज़ुकाम होने पर ऑक्सीजन चेक की थी?  क्या आज से पहले ज़ुकाम होने पर नाक बंद नहीं होती थी? क्या सूंघेगा आदमी जब नाक बह रही हो? लेकिन आज घबराया हुआ है हर आदमी और यही घबराहट वजह बनेगी महा-मारी की. इससे बचना है तो थोड़ा डुबकी मारनी ही होगी स्थिति की वास्तविकता को समझने के लिए. Important यह नहीं है कि आप पढ़े-लिखे हैं, Important यह है कि आप पढ़ते-लिखते हैं कि नहीं. स्टडी कीजिये. टिक-टोक में टाइम मत गंवाईये. आपकी, आपके बच्चों की जिंदगियों का मामला है स्टडी कीजिये. 

सुनी होगी आपने कहानी। राजा सोया हुआ था,  एकदम नींद खुल गयी, हड़बड़ा कर उठा तो देखा, एक काला साया दिखा।  “कौन?”,  राजा ने पूछा. उसने कहा, “मैं महामारी हूँ. कोई एक हज़ार लोगों को मार दूंगी.”  महामारी अपने रस्ते निकल गयी।  फिर अगली रात राजा को वही साया दिखा. राजा बहुत परेशान था सो नहीं पाया था, कोई 10000 मौत हो चुकीं थी.  वो साया वापिस लौट रहा था। राजा ने पूछा, "तुमने तो 1000 लोग मारने का बोला था,  फिर भी 10000 लोग मार दिए?"  उसने जवाब दिया, "मैंने तो 1000 ही मारे हैं, बाकी 9000 तो डर से मरे हैं." 

कोरोना महामारी नहीं है, लेकिन डर निश्चित ही महा-मारी है और वैश्विक-डर वैश्विक-महामारी है. 

अब मैं  देता हूँ आपको कुछ नाम  एक्सपर्ट्स के. David Icke.  (डेविड आइक) इन के कोई 6 घंटे के  इंटरव्यू देखे मैंने.  कोरोना का पर्दाफाश करने वालों में सबसे बड़ा नाम है इनका. इनको फेसबुक, ट्विटर, यूट्यूब सब जगह बैन किया जा चुका है. davidicke.com यह वेबसाइट है इन की. इनकी वेबसाइट पर आपको कई लेख मिल जाएंगे पढ़ने लायक. विजिट कीजिये, वरना सरकारी मैटिरियल पर ही यकीन करते रहेंगे.

Dr Andrew Kaufmaan, Dr Rashid Buttar, Dr Shiva, ये कुछ एक्सपर्ट्स हैं अमेरिका के जो कोरोना वायरस को इंकार करते हैं. 

भारत के बिस्वरूप चौधरी को ढूँढो हालाँकि ये यूट्यूब, फेसबुक आदि पर बैन हैं. फिर भी ढूँढो. इनको सुनो. चंद लोगों में से हैं जो तुम्हें कोरोना से बचा सकते हैं. दवा नहीं देंगे, दुआ भी नहीं. अक्ल देंगे. ढूँढो कोरोना से बचना है तो.

ये चंद नाम हैं, इनको ढूंढिए और इनके विचार सुनिए. आपको तर्क करने के लिए मटेरियल चाहिए होगा. चाहे वो तर्क खुद से करना हो चाहे किसी और से. ये लोग आपको मटेरियल देंगे सोचने-समझने के लिए. कोरोना को विभिन्न पहलुओं से आपको समझायेंगे।  इन लोगों को आप तक पहुँचने ही नहीं दिया जा रहा. किसी भी निष्पक्ष सरकार का फ़र्ज़ बनता है कि वो विरोधी विचारों को भी प्रवाहित होने दे, लेकिन सरकार ने ऐसा नहीं किया .

सरकार कह रही है कि अफवाहों से बचें. ठीक है. लेकिन अफवाह क्या है? कैसे साबित होगा? जब सरकार जनता को सोचने तक नहीं देगी तो क्या पता अफवाह क्या है? सच क्या है ? 

आप सवाल उठाते है कि कोरोना यदि घातक नहीं तो  फिर  सारी दुनिया में तहलका क्यों है? जवाब यह है कि इन्सान सिर्फ मानता है, वो सोचता कहाँ है?  

है क्या कि इन्सान को तर्क करना नहीं सिखाया गया. उसे विश्वास करना सिखाया गया है. सारी पेरेंटिंग, स्कूलिंग विश्वास करना सिखाती है. सारा समाज विश्वास करना सिखाता है. तर्क करना कोई नहीं  सिखाता. इसलिए आम इन्सान कुछ भी मान लेता है. 

दूसरी बात, वो तर्क करता भी है तो बड़ी जल्दी सरेंडर कर देता है. जैसा बच्चा पूछता है कि मैं कहाँ से आया. हनुमान जी दे गए थे. सवाल कितना गहरा है. आज तक कोई ठीक से जवाब न दे  पाया कि मैं कहाँ से आया लेकिन हनुमान जी दे  गए थे, बात खत्म. इतने बड़े सवाल का इतना सीधा जवाब, बात खत्म. ऐसे ही आम इन्सान बहुत आगे तक तर्क नहीं करता. बड़ी जल्दी हार जाता है. 

तीसरी  बात, आम इन्सान तर्क को तर्क की गहराई से नहीं नापता, बल्कि तर्क कहाँ से आ रहा है, वहां से आंकता है. वो यह नहीं देखता की तर्क "क्या" है,  वो यह देखता है तर्क "कौन"  दे रहा है. वो “क्या” की बजाए “कौन” से ज़्यादा प्रभावित होता है. अगर कोई डॉक्टर तर्क दे  रहा है, सरकार कोई तर्क दे  रही है तो ठीक ही होगा. आम इन्सान हिम्मत ही नहीं करता, उन तर्कों के खिलाफ सोचने का.

चौथी  बात, आम इन्सान भीड़ से बड़ी जल्दी प्रभावित हो जाता है, यदि भीड़ एक तरफ है तो उसे लगता है कि भीड़ सही ही होगी. वो भीड़ से सम्मोहित हो जाता है. Walter Lippmann के मशहूर शब्द हैं, 'Where all think alike, no one thinks very much.” जब सब एक ही जैसा सोचते हैं तो असल में कोई भी कुछ खास सोचता ही नहीं. भेडचाल में बहे जाते हैं सब. हमारे एक प्रॉपर्टी डीलर को कागज़ात देखने नहीं आते. ज़्यदातर डीलरों को कागज़ात देखने नहीं आते. तो वो बन्धु कागज़ात देखते हुए कहते, “यदि दस बार बिकी है ये प्रॉपर्टी तो कागज़ात ठीक ही होंगे, जिन दस लोगों ने पहले खरीद की है, वो कोई बेवकूफ थोड़ा न होंगे.” आप हंस सकते हैं लेकिन आप भी ऐसे ही तर्क खुद को देते हैं.   

पांचवी बात..... इंसान विचार कर सकता है लेकिन करता नहीं है. वो विश्वास करता है. विचार करने के लिए श्रम लगता है. विश्वास सीधा किया जा सकता है, कोई श्रम की ज़रूरत नहीं. विचार करने के लिए तन-मन-धन सब लगाना पड़ सकता है, विश्वास अंधे हो के किया जा सकता है. कोई किताब-रसाला पढ़ने की ज़रूरत नहीं. कोई यूट्यूब वीडियो देखने की ज़रूरत नहीं. विश्वास आसान रास्ता है, विचार बहुत श्रम मांगता है. तुम आसान रास्ता चुनते हो. मिसाल देता हूँ. तुम्हे कोरोना-कथा सुनाई गई. तुमने उसे सत्य-कथा मान लिया. तुमने कोशिश की क्या कोरोना-कथा के तथ्यों को परखने की? नहीं की. अधिकांश ने कोई कोशिश नहीं की गहरे में जाने की. 

छठवीं बात........आम बंदे को यह लगता है कि यदि कोरोना कुछ नहीं तो सरकार कैसे चुप है? सरकार क्यों कॉलर tune जबरदस्ती सुनवा रही है. असल बात यह है कि लोकतंत्र में जो सरकार चुनी जाती है, उसमें  कोई बहुत बुद्धिशाली लोग होते ही नहीं. हो ही नहीं सकते. इसलिए चूँकि उस सरकार को कोई वैज्ञानिक, कोई कलाकार, कोई इतिहासकार, कोई साहित्यकार नहीं चुनते. वो सरकार आम लोग चुनते हैं. और उस सरकार में कोई एक्सपर्ट नहीं चुने जाते. आम लोग चुने जाते हैं. जो साम-दाम-दंड-भेद जैसे भी सत्ता पर काबिज़ हो जाते हैं. सत्ता में आने के बाद भी इनका ज़्यादा समय सत्ता बचाने में ही लगा रहता है. ये कैसे किसी भी विषय की गहनता में जायेंगे? एक मंत्री राम दास अठावले तो “कोरोना गो, गो कोरोना” ऐसे गा रहे थे जैसे कोई मान्त्रिक भूत भगा रहा हो. एक मिनिस्टर अशोक गहलोत तो भूल ही गए कि उन्होंने लॉक- डाउन लगाया है कि क्या लगाया है. वैसे सरकार जी पर नेशनल/ इंटरनेशनल प्रेशर भी रहता है. एकदम स्वतंत्र निर्णय लेना मुश्किल काम है इनके लिए. कोरोना के मामले में ऐसा ही हुआ है, भारतीय सरकार ने WHO के दावों पर कोई भी स्वतंत्र स्टडी, कोई एक्सपेरिमेंट नहीं किये, बस WHO का कथन ब्रह्म-वाक्य की तरह मान लिया. 

अब चूँकि सरकार कह रही है कोरोना है, बल्कि सब सरकारें कह रही हैं, डॉक्टर कह रहे हैं. हर कोई कह रहा है कोरोना है तो कोरोना है. ऐसे में कौन तर्क भिड़ाये, क्यों तर्क भिड़ाये, क्यों आंकड़ों का विश्लेष्ण करे, कौन मेहनत करे?

फिर भी मैं आपको कह रहा हूँ कि हिम्मत करो. सोचो. 

आपको लगता है कोरोना-मास्क-लॉक-डाउन चंद दिनों का खेल है, जीवन वापिस पटरी पर आ जायेगा. नहीं आएगा. संभावना  यह है कि दुनिया को ऐसे डेड-एन्ड तक ले जाया जाएगा जहाँ से आम ज़िंदगी में कभी वापिसी नहीं हो पाएगी. सब planned  लग रहा है. प्लॉट Contagious फ़िल्म से उठाया गया लग रहा है. ऐसा लगता है जैसे इसमें Computer Programming  का एक्सपीरियंस भी जोड़ा गया है. Human Mind बड़ी आसानी से program किया जा सकता है, कंप्यूटर की तरह. Virus एक प्रोग्राम होता है औऱ Anti-virus  भी. Corona एक प्रोग्राम है और Vaccine भी. लेकिन प्लान वैक्सीन बेचने का ही नहीं है, उससे कहीं आगे का प्रतीत हो रहा है. अफरा-तफरी मचा के सब सिस्टम खत्म कर, New World Order  खड़ा करने का. 

The Johns Hopkins Center  और  Bill and Melinda Gates Foundation ने  Event 201 आयोजित की थी. यह एक एक्सरसाइज थी कि यदि वैश्विक महामारी फैलती है तो दुनिया इसे कैसे झेलेगी, कैसे रियेक्ट करेगी. 

सितम्बर 2019 में इवेंट 201 किया गया था और दिसंबर 2019 में covid -19 घोषित कर दी गयी. इत्तेफ़ाक़ इतना ज़्यादा है कि शक होना लाज़िम है कि रिहर्सल करने के बाद असल खेला शुरू कर  दिया गया. 

असल में यह जो सेकंड वेव कोरोना की बताई गयी है, पहले से ज़्यादा खतरनाक बताई गयी है, वो खतरनाक बताना ही पहले से ज़्यादा खतरा बन रहा है. पहले से ज़्यादा डर. फिर तीसरी वेव और ज़्यादा खतरा बताई जा सकती है. डर,  बद-इन्तेज़ामी, अफरा-तफरी और बेरोज़गारी जितनी बढ़ती जाएगी उतनी मृत्यु दर बढ़ने की सम्भावना है और वजह बताई जायेगी कोरोना. 

Corona  से इस दुनिया की कोई वैक्सीन, कोई डॉक्टर, कोई वैज्ञानिक, कोई सरकार तुम्हें नहीं बचा सकती. एक ही चीज़ बचा सकती है. डर से बाहर आओ. सरकारी आंकड़ों की छानबीन करो. आंकड़ों का विश्लेषण करो. देखो और सोचो, यदि कोरोना वैश्विक महा-मारी है तो विश्व की जनसँख्या बढ़ क्यों रही है जो मौतें हो रही हैं, पहले से बहुत ज़्यादा हो रही हैं क्या? उनमें से कितनी मौत के डर से, इलाज न मिलने की वजह से, बेरोज़गारी से, मानसिक तनाव से,  सामाजिकता न मिलने से, अफरा-तफरी की वजह से, पुलिस-कोर्ट में ठीक से सुनवाई न होने की वजह से हुईं? आँकड़े ढूंढों और विश्लेषण करो यदि बचना है तो.

पवन गुरु, पानी पिता, माता धरत महत्त. गुरबाणी में कहा गया है. हवा गुरु है, पानी पिता है और धरती माता है. लेकिन अब पवन जो गुरु हैं वो हमारी दुश्मन है. उसमें ज़हर है, वायरस है. हो सकता है क्या ऐसा? लेकिन आप ज़िंदा अपनी वजह से नहीं हो. आप जिन्दा इसलिए हो क्यूंकि सामूहिक चेतना, Cosmic  Consciousness  ने  चाहा कि आप जिन्दा रहो. उसने सारे इंतज़ाम किये कि आप ज़िंदा रहो. उसने हवा, धुप, पानी सब इस ढंग से बुना कि आप जिन्दा रह सको. उसने गर्मी पैदा की तो तरबूज़ भी पैदा किये, नारियल भी पैदा किये। उसने सर्दी पैदा की तो मूंगफली भी पैदा की,  बादाम भी पैदा किये. उस सामूहिक चेतना का ताना-बाना ही है जो बाकी जानवर जिन्दा हैं. यदि उसने जीवन हवा से ही खत्म करना होता तो फिर जीवन सिर्फ इंसान का ही खत्म थोड़ा न होगा. साँस तो बाकी जानवर भी ले रहे हैं. सो कुदरत सपोर्ट ही नहीं कर सकती कि कोई वायरस इस तरह से जिंदा रहे और मात्र इंसानी जीवन को नुक्सान पहुंचाए.  चूँकि कुदरत का हवा-पानी- धुप-गर्मी-सर्दी का ताना बाना यदि जीवन को नुक्सान पहुंचाएगा तो फिर वो सारे तरह के जीवन को नुक्सान पहुंचाएगा. थोड़ा बुद्धि लगाएं, बात समझ आ जाएगी. 

किसान आंदोलन सबूत है कि कोरोना असल में कुछ नहीं है. किसान महीनों से बैठे हैं सड़क पर. कोई मास्क नहीं, कोई सोशल डिस्टेंसिंग  नहीं. कौन सी महा-मारी फ़ैल गयी वहाँ? जो मौतें हुईं, वो औसतन वैसे भी होनी थी. जब इतने लोग जमा होंगे कहीं तो कोई न कोई तो वैसे भी मर सकता है, इसमें क्या बड़ी बात? बंगाल में रैलिया होती रहीं भीड़ जमा होती रही, कुछ महा-मारी न हुई. अमित शाह और मोदी बिना मास्क के घुमते दीखते  हैं, क्यों? चूँकि उनको पता है कोरोना कुछ नहीं है. 

सवाल तो बनते हैं. उठाओ तो. नहीं उठाया तो कल फिर किसी और नाम से डराया जायेगा और दुनिया उथल पुथल कर दी जाएगी. कल कहा  जा सकता है की एलियन अटैक करने वाले हैं. शहर  छोड़ों, जंगल जाओ. कुछ भी कहा जा सकता है. सो आवाज़ उठाओ. हम अपनी ज़िन्दगी के इतने अहम फैसले क्या किसी सरकार को करने देंगे जो कि किसी भी संस्था के कहने मात्र से सब सिस्टम बदल दे. हमें आंकड़े चाहिए, आंकड़ों का विश्लेषण चाहिए, हमें कोरोना के सबूत चाहिए.

किशोर अवस्था में ओशो की एक किताब पढ़ी थी, "अस्वीकृति में उठा हाथ". आज मेरा हाथ भी कोरोना की जो थ्योरी पूरी दुनिया में चलाई जा रही है उसके खिलाफ अस्वीकृति में उठा है. इसका मेरे  पास प्रैक्टिकल सबूत भी है. जिस कॉलोनी में मैं रहता हूँ, कोई अढ़ाई-तीन हज़ार लोग होंगे यहाँ. पिछले डेढ़ साल में मात्र 5-6  लोग expire हुए हैं मेरी जानकारी में. जिनमें से एक मेरी माँ  भी थीं. वो कोई 85 -90  साल के बीच थीं. और तकरीबन आठ साल से बीमार थीं. दूसरे एक व्यक्ति भी कोई सात साल से बेड  पर थे और तकरीबन सत्तर साल के थे. बाकी लोग 60 -65  साल के थे. ये न तो कोई महामारी  हुई  और न ही कोई हाहा-कारी हुई. 

दूसरी बात, वो यह कि मेरा व्यक्तिगत तजुर्बा है कि नजले-खांसी में रहन-सहन, खान-पान बदलने से तुरत फायदा मिलता है. फ्रूट, सलाद ज़्यादा खाया जाये, अन्न बंद कर दिया जाये या कम कर दिया जाये, खुद बनाया हुआ सब्जियों का सूप और नीबूं पानी पीया जाये, स्टीम  सब्जियों खाई जायें तो फायदा मिलता है. हल्का व्यायाम और प्राणायाम भी फायदा देता है. स्टीम लेने से और गर्म पानी पीने से भी फायदा होता है. कुछ ही दिन में नजला गो, गो नजला हो जाता है. यह कोई बहुत चिंता वाली बात होती नहीं. अगर होती तो अब तक कई बार मर चुका होता मैं .  

आप समझ भी रहे है क्या कि आपके लगभग सब हक़, जिनके लिए इन्सान ने सदियों संघर्ष किया है एक झटके में खत्म किये जा रहे हैं? आज आपका कमाने का हक़, रिश्तेदारों-मित्रों को मिलने-जुलने का हक़, घूमने-फिरने का हक़, अपनी बात खुल कर कहने का हक़, इलाज पाने का हक़,.ठीक से साँस लेने का हक़.... सब हक़ खत्म किये जा रहे हैं.  शक्ल तक दिखाने का हक़ नहीं है आपको आज. आज आप एक शक्ल विहीन प्राणी हैं. आपकी कोई पहचान नहीं है. ...... ये हक़ आपको वापिस पाने होंगे। आपको बुद्धि प्रयोग करनी होगी. करनी ही होगी. 

आपने यहाँ तक मेरी बात को सुना, शुक्रिया. मेरी नजर में कोरोना Pandemic नहीं है, Plandemic है. Scamdemic है. कोरोना मृत्यु के आंकड़ों का गलत प्रेजेंटेशन है, समाज में फैलाया गया डर है, आम-जन को सब तरह के इलाज से विहीन करना है, मास्क लगवा कर कुदरती साँस लेने से दूर करना है, लॉक-डाउन लगवा के खुली हवा-खुली धूप से विहीन करना है, दाल-रोटी कमाने से महरूम करना है, डर के माहौल में मरे-मरे जीना सिखाना है कोरोना. कोरोना इन्सान को लगभग सभी बुनियादी हकों से महरूम करना है. यह मेरा नजरिया है. 

लेकिन मेरी नज़र खराब हो सकती है. नजरिया गलत हो सकता है. सौ प्रतिशत गलत. सो आपको मेरी कोई भी बात बिलकुल भी माननी नहीं है. बस विचार करनी है. नमस्कार. 

~  तुषार कॉस्मिक  ~

इसी लेख का विडियो रूप यहाँ देख सकते हैं.......

https://www.facebook.com/tushar.cosmic/posts/10218774195007405

Tuesday, 6 April 2021

बड़ी फेस-बुक फ्रेंड लिस्ट- एक सर दर्द

 लड़कपन में पैसे होते थे वही जो जेब खर्च मिलते. मिल बाँट कर खाते कई बार. लेकिन सबको लगता कि खाना कम पड़ गया. मन रखने को यार अक्सर कहते, "चाहे थोड़ा खाओ लेकिन अच्छा खाओ."

आज लगता है, कितनी सही बात थी. हम फेसबुक लिस्ट में लोग भरे जाते हैं. फ़िज़ूल. जिनका हम से कोई मतलब नहीं और जिनसे हम को कोई मतलब नहीं. बड़ी मुश्किल कोई 1000 लोग हटाये हैं, अभी अभियान जारी रहेगा. लंबी मेहनत है.
थोड़े लोग रखो लेकिन मतलब के लोग रखो.
मित्रवर, मैं बड़ी तेजी से मित्र-सूची छोटी कर रहा हूँ. हालाँकि बहुत श्रम का काम है लेकिन कर रहा हू. अभी बस 6/700 लोग ही हटा पाया हूँ. कुछ मित्रों ने तो 3-3 id से प्रवेश किया हुआ था. किसी को देखा तो सालों से पड़ा हुआ है लिस्ट में लेकिन न उसने मेरी सुध ली और न मैंने उसकी.
कोई बस नाश्ता-पानी की फ़ोटो ही पोस्ट कर जा रहा है.भुक्खड़. कोई बस पॉर्नहब चला रहा है. कोई भाजपा का एजेंट है तो कोई कांग्रेस का.
असल में हम शुरू में सब लोग भर्ती करे जाते हैं लेकिन फिर फेसबुक ने तो सब की ज़िंदगियाँ दिखानी हैं. न चाहते हुए बहुत कुछ ऐसा देखना पड़ता है जो हमारी ज़िंदगी में कोई value-addition नहीं करता.
सो अब कोई कद्दू में तीर नहीं मार रहा और न ही किसी को मित्र-सूची में लेकर अहसान कर रहा हूँ. लेकिन इनएक्टिव मित्रों को दूर करना चाहता हूँ.
असल में जो लोग मेरे लेखन-वादन में रूचि नहीं रखते, वो अधिकांशत: मेरे लिए काम के नहीं हैं. चुनिन्दा लोग ही बचेंगे और चुनिन्दा ही नए आयेंगे. नए भी जो इनएक्टिव रहेंगे, हटा दिए जायेंगे. कोई अच्छा/बुरा न माने. बस वकत-ज़रूरत और सोच-समझ की बात है. कुछ ही ख़ास किस्म के लोगों की तलाश है बाकी सबको अलविदा. फिर भी किसी को लगता हो कि वापिस आना है तो वापिस लिया जा सकता है.
वैसे मेरा प्रोफाइल खुला रहता है, बिन मित्र सूची भी कोई भी कुछ भी पढ़-सुन सकता है.
और जिनको साइलेंट ही रहना है या फिर पड़े रहना है लिस्ट में तो उनसे गुज़ारिश है कि खुद ही चले जाएँ, बड़ी मेहरबानी होगी.

लेखन वक्त-खाऊ काम है

 लेखन वक्त-खाऊ काम है. दिल-दिमाग-ऊर्जा सब लगता है. तन-मन-धन सब लगता है.

और
यहाँ चूँकि हर किस्म के लोग हमने अपनी लिस्ट में इक्कठे किये होते हैं तो बहुत लोग जवाब में गाली लिखते हैं, कोई व्यक्तिगत हमला करता है तो कोई व्यंग्य-बाण छोड़ता है. किसी को हमारी शक्ल में खामियां दिखने लगती हैं.
मेरी मित्रगण से प्रार्थना है कि भई, जो भी सोशल मीडिया लेखक हैं यदि नहीं पसंद तो आप उनको अलविदा कीजिये और यदि थोडा बहुत भी पसंद हैं तो लेखक को प्रोत्साहित कीजिये.
मेरे आठ सौ लेख हैं. मैराथन बहस भी हुई हैं उन पर. मुझ पर पैसे ले के लिखने के आरोप भी लगे हैं. लेकिन आठ सौ पैसे नहीं कमाए मैंने आज तक. हाँ, गाली, धमकी, बदतमीज़ी ज़रूर मिली है.
फिर भी क्यों लिखा?
मात्र इस उम्मीद में कि शायद मेरे लेखन से कुछ बेहतरी हो सके.

इस्लाम का मुकाबला करने के लिए इस्लाम की कॉपी मत बनिए

इस्लाम का विरोध सही है, वो एक brutal force है, लेकिन इसका मतलब क्या यह है कि आप मोहम्मद के खिलाफ राम को खड़ा कर दें. कुछ नहीं है राम में ऐसा जो पूजनीय हो. फिर किस्से कहानी है बस. कौन बन्दर उड़ता है? कौन भालू बोलता है? बचकानी कहानी है. और किसी ने नहीं दीये जलाये , जब राम लौटे, वो तो भरत का राजकीय आदेश था कि ऐसा किया जाये. पढ़ लीजिये वाल्मीकि रामायण. तर्क प्रयोग करें थोडा. बस एक ज्वर पैदा हो गया राम राम का. वो इसलिए कि इस्लाम बावला है तो हमें भी बावला होना है, इस्लाम से भी बड़ा. यह समाज सही दिशा में जा रहा था जो इस तरह के किस्से कहानी को हलके में लेता था, तभी तो बड़े आराम से PK जैसी फिल्म बन पाई यहाँ, तभी लोग राम के खिलाफ, कृष्ण के खिलाफ लिखते, बोलते आये हैं. यह इस समाज की गरिमा थी. यह इस समाज की अच्छाई थी  लेकिन अब ऐसा करना गुनाह हो गया है. नई पीढ़ी के नाम भी लोग राम लाल, शाम लाल नहीं रखते.  गुणात्मक नाम रखने लगे थे. जैसे तेजस,  जलज, अपूर्व. समाज का उत्थान था यह. वो पुराणी धारणाओं को विदा कर रहा था. लेकिन अब यह जो ज्वार पैदा हुआ है, यह इस समाज को downfall की तरफ धकेल रहा है. नई पीढ़ी को को खुलापण दीजिये. वैचारिक खुलापन. यह क्या पोंगापंथी, पुरातन-पंथी की तरफ धकेल रहे हैं? इस्लाम पकड़ के बैठा है १४५० साल पुराणी कोई किताब तो हम उससे भी पुराणी किताब पकड़ के बैठेंगे. इस्लाम अपने किस्सों को सच मानता है, हम अपने किस्सों को सच मानेंगे. इस्लाम के पास काबा है , हम राम मंदिर बनायेंगे. इस्लाम के पास अल्लाह है, हमारे पास राम है. हमने इसल्म का मुकाबला करना है तो हम इस्लाम जैसे ही बनेंगे. यह सब और कुछ नहीं है. थोडा दिमाग लगायें तो बात समझ में आएगी.


मैं माफिया हूँ. फलसफे का माफिया.

 मुझ से किसी ने कहा,"इत्ता सच मत बोलो कि हमाये लत्ते ही उतर जाएं."

मैंने कहा, "वहम हुआ तुझे. मैं कोई बाबा हूँ? संत हूँ?
मैं माफिया हूँ. फलसफे का माफिया.
मैंने कभी हमेशा सच बोलना नहीं सिखाया. मैंने कभी हमेशा शांति से जीना नहीं सिखाया. जीवन इत्ता टेढ़ा है कि हमेशा सच बोला ही नहीं जा सकता. हमेशा शांतिपूर्ण रहा ही नहीं जा सकता. जितना ज़रूरी सच है, उतना ही ज़रूरी झूठ है. जितना ज़रूरी शांत होना है, उतना ही ज़रूरी जंग-जू होना है. यदि तुम्हें तलवार चलाने की हिम्मत न हुई तो लोग तुम्हारी वैसे ही गर्दन उतार लेंगे. यदि तुम हमेशा सच बोलते रहे तो वैसे ही तुम्हारी @#$ मार लेंगे.....तुषार कॉस्मिक

भगत सिंह

 भगत सिंह का फाँसी दिवस है. यार लोग लिख रहे हैं, याद कर रहे हैं उनको. स्टेटस डाल रहे. प्रोफाइल pic लगा रहे. सब भगत सिंह बन रहे.

नकली हैं 99.99% ये लोग. इनको भगत सिंह चाहिये लेकिन दूसरे के घर में. फाँसी छोड़ो, थप्पड़ खाने की हिम्मत नहीं इन में.
सही के लिए लड़ने-भिड़ने वालों को आज भी जूते ही पड़ते हैं, याद रखना.

धर्म अकेला होता है. भीड़ में सिर्फ अधर्म होता है

 जीसस जब अकेले थे उनको सूली पे टाँग दिया गया. जब उनके पीछे धर्म बन गया तो इस धर्म ने जॉन ऑफ आर्क नाम की नवयौवना को जिंदा जला दिया.

उसे ही नहीं, सैंकड़ों-हज़ारों और महिलाओं को भी डायन घोषित किया और जिंदा जला दिया.
आज चर्च जोन ऑफ आर्क को जलाने के लिए माफी मांग चुका है. इत्ता ही नहीं, चर्च जोन ऑफ आर्क को सन्त (Saint) घोषित कर चुका है.
धर्म अकेला होता है. भीड़ में सिर्फ अधर्म होता है. जब तक जीसस अकेले थे, जोन ऑफ आर्क अकेली थी धर्म था, आग थी. पीछे तो बस अधर्म था, राख थी.
आईने के सामने खड़े हो जाओ.
देखो, तुम भी किसी न किसी भीड़ के हिस्से हो. तुम भी अधर्म हो, तुम भी राख हो...देखो, देखो, देखो...
तुषार कॉस्मिक

"सत्ती मैया का चौरा"

 "सत्ती मैया का चौरा"

जैसे ही उसके मृत पति की लाश अर्थी पर रखी जाती, उसे खूब नशा पिलाया जाता.फिर एक भीड़ ढोल-नगाड़ों के शोर के साथ उसे घसीटते हुए श्मशान ले जाती. वहाँ पति की जलती चिता में उसे फेंक दिया जाता. वो बाहर आने का प्रयास करती तो उसे वापिस धकेल दिया जाता. चीखती तो भीड़ और ज़्यादा चीखती, नगाड़े और ज़ोर से बजाए जाते. फिर वो हार जाती, जल जाती, मर जाती.
भीड़ चिल्लाती,"सती मैया की जय." फिर वहाँ पे एक मंदिर बन जाता.सत्ती मैया का चौरा. लोग वहां धूप-दीप करने लगते.
आज भी आपको ऐसे सत्ती मैया के चौरे मिल जाएंगे.
होली दहन था आज, सोचा कुछ याद दिला दूं.
जय हिंदुत्व. जय मोदी.
मोदी. मोदी. मोदी...
तुषार कॉस्मिक

“काशी करवट"

 “काशी करवट"

दरअसल काशी करवट एक कुएं का नाम है जो आज भी काशी विश्वनाथ परिसर में है मगर बंद कर दिया गया है।
बनारस में आकर बहुत से मुर्ख यात्री, काफी पैसे देकर काशी करवट लिया करते थे, यानि आरे से काटकर या तलवार पर कूदकर मुक्ति के लिए अपनी जान दे देते थे।
बाद में कुछ अपराधी मनोवृति के पंडों ने भोले-भाले यात्रियों को मारकर उनकी लाश कुएं में फेंकना शुरू कर दिया।
अलेक्जेंडर हेमिल्टन (1744)लिखता है कि काशी में पण्डे भारी रकम लेकर बेवकूफ लोगों को पकड़कर उन्हें बुर्ज पर चढ़ा कर नीचे, तलवार और खंजर लगे कुएं में ये कहकर कूदा देते थे कि यहाँ मरने वाला सीधे स्वर्ग जाता है।
जय हिंदुत्व....हर हर मोदी....घररर...घररर...मोदी...मोदी....मोदी...मोदी....
तुषार कॉस्मिक

जगन्नाथ रथ के पहिये और स्वर्ग

 "जगन्नाथ रथ के पहिये और स्वर्ग"

मैंने तो यह भी पढ़ा था, कहाँ पढा था याद नहीं, पढा यह था कि जगन्नाथ यात्रा में जो बड़ा सा रथ निकलता था, जिसे लोग हाथों से खींचते थे, उस रथ के पहियों के नीचे आ कर जान गंवाने वालों के बारे में यह मान्यता थी कि वो सीधे स्वर्ग जाएंगे. तो अनेक लोग दूर-दूर से आते और इन पहियों के नीचे लेट-लेट अपने प्राण त्याग देते. फिर यह सब अंग्रेजों ने बन्द करवाया था. अगर ऐसा था तो हिंदुत्व वाकई महान है.....तुषार कॉस्मिक

इस्लाम -- एक कबीले का 'कोड ऑफ कंडक्ट'

इस्लाम एक कबीले के 'कोड ऑफ कंडक्ट' की तरह काम करता है. 

दूजे धर्म के लोगों से कमा लेंगे लेकिन उसे कमाने नहीं देंगे, जहां तक सम्भव हो मुस्लिम मुस्लिम को ही बिज़नेस देगा. 

गोश्त बेच किसी को भी देंगे लेकिन खरीदेंगे सिर्फ मुस्लिम से, वही हलाल है, बाकी सब हराम है. 

दूजे धर्मों की बेटी को मुस्लिम बना के ब्याह कर ले जाएंगे लेकिन अपनी बेटी दूसरे धर्मों में देंगे नहीं, मार-काट मच जाएगी. 

कोई भी और धर्म का व्यक्ति मुस्लिम बन जाये इनको बड़ी खुशी होगी, और मुस्लिम इस्लाम छोड़ दे तो हिंसा हो जाएगी. 

हज़ार गैर-मुस्लिम घरों में एक मुस्लिम घर रह लेगा लेकिन सौ मुस्लिम घरों के बीच पचास गैर-मुस्लिम घरों का रहना भी मुश्किल है. 

आबादी बढ़ाएंगे ताकि वोट की ताकत हासिल कर सकें ताकि सत्ता हासिल कर सकें. 

वोट देंगे तो सबसे पहले देखेंगे कि नेता मुस्लिम-परस्त है कि नहीं. 

अपने पूजा-स्थलों में गैर-मुस्लिम को घुसने नहीं देंगे लेकिन इनके  मंदिरों में, गरबे में एंट्री चाहिए.

समझो और मुकाबला करो..तुषार कॉस्मिक

हिंदुत्व/ हिन्दू धर्म/सनातन धर्म जैसा कुछ भी नहीं है

सबसे पहले सनातन पर बात करता हूँ :---

जिन को हिन्दू कहा गया, वो खुद को आज-कल सनातनी कहना ज़्यादा पसंद करते हैं. शायद इसलिए चूँकि हिन्दू शब्द आक्रमणकारियों द्वारा दिया गया था जो सिन्धु दरिया के आस-पास रहने वालों को हिन्दू कहने लगे चूँकि वो 'सिन्धु' ठीक से बोल नहीं पाते थे.

या शायद इसलिए चूँकि हिन्दू को परिभाषित करना लगभग असम्भव है. 

या शायद इसलिए चूँकि सनातन शब्द ज़्यादा significant लगता है. 

सनातन मतलब चिरंतन. Eternal. 

पहले तथाकथित हिन्दू-वादियों जोर था कि हमारा धर्म पुरातन है. 

सबसे पुरातन. अब वो कहते हैं कि हमारा धर्म सनातन है. 

चिरन्तन. झगड़ा ही खतम. हम सदैव से हैं. और सदैव रहेंगे.

इनके अनुसार पंडित जी के अगड़म-शगड़म मन्त्र सुनने-समझने वाले लोग तब भी थे जब इन्सान ने भाषा इजाद भी न की थी. 

हनुमान वानर थे लेकिन वो बोलते थे तब भी जब इन्सान खुद बोल नहीं पता था यह मानने वाले सदैव रहेंगे. 

हनुमान वानर थे लेकिन उड़ते थे चाहे इन्सान आज भी बिन हवाई जहाज, हेलिकोप्टर नहीं उड़ पाता , यह मानने वाले भी हमेशा थे, हमेशा रहेंगे.

हनुमान पहाड़ उठा लाये थे और कृष्ण ने उंगली पर पहाड़ तब उठा लिया, यह मानने वाले तब भी थे जब क्रेन इजाद नहीं हुई थी और इन्सान बीस-तीस ईंट सर पे ठीक से नहीं उठा पाता था और ऐसा मानने वाले हमेशा रहेंगे. 

हाथी का सर बच्चे के सर पर फिट कर दिया गया और वो गणेश बन गए, चाहे आज भी हमारे सर्जन ऐसा नहीं कर सकते लेकिन ऐसा हुआ था यह मानने वाले पहले भी थे, आज भी हैं. और हमेशा रहेंगे. 

इंसान गौ को माँ तब भी मानता था जबकि वो जंगलों में भाग-दौड़ करके जानवर मार के कच्चा ही खाता था. 

चाहे तथाकथित हिन्दूओं में अनेक दारु पीते थे, पीते हैं, और अधिकांश गौ-मूत्र न पहले पीते थे और न अब पीते हैं. लेकिन गौ-मूत्र को अमृत-तुल्य मानने वाले सदैव थे और सदैव रहेंगे.

हाथी चूहे की सवारी कर सकता है, यह मानने वाले पहले भी थे, अभी भी हैं और हमेशा रहेंगे. 

गुड. गुड. इटरनल. सदैव. चिरन्तन. सनातन. 

असल बात यह है कि न तो हिन्दू धर्म, न हिंदुत्व और न ही सनातन नाम से कुछ है जिसे परिभाषित किया जा सके. डिफाइन किया जा सके. आप डेफिनिशन का मतलब समझें, जहाँ कुछ definite हो, कुछ निश्चित हो, वही तो डिफाइन किया जा सकता है. जिसे हिंदुत्व कहा जा रहा है, वहां कुछ भी निश्चित नहीं है. कैसे डिफाइन करेंगे?

तथा-कथित हिन्दुओं या कहें कि सनातनियों में मूर्ति-पूजक भी हैं, मूर्ती-पूजा के विरोधी भी हैं. आर्य-समाजी मूर्ती-पूजा का विरोध करते हैं. 

निरंकारी भी हैं, ॐ-कारी भी हैं. जपुजी साहेब नानक साहेब की वाणी है. उसमें शुरू में ही लिखा है, "एक ओमकार सतनाम".

आस्तिक भी हैं और नास्तिक भी हैं. बुद्ध नास्तिक कहे जाते हैं . आज बौद्ध धर्म को भी हिन्दू की छतरी के नीचे लाया गया है जबकि वाल्मीकि रामायण के अयोध्याकांड, सर्ग -109, श्लोक: 34  में तो बुद्ध को चोर कहा गया है. 

तथाकथित हिन्दू जब भी मरता है तो अंतिम क्रिया में बताया जाता है कि आत्मा यात्रा करती है, उसका पुनर्जन्म होता है आदि आदि. जबकि बुद्ध ने तो आत्मा को ही इंकार कर दिया, ऐसा मैंने पढ़ा है. मैं खुद आत्मा में कोई यकीन नहीं रखता. यहाँ सब कॉस्मिक एनर्जी का खेला है. लीला. आत्मा जैसा कुछ भी नहीं. एक रोशन बल्ब टूट जाये तो बिजली तारों में फिर भी बहती रहती है, कांच का बर्तन टूट जाये तो उसके अंदर की हवा फिर भी कमरे में मौजूद रहती है, लहर बिखर जाये तो समन्दर में फिर भी मौजूद रहती है. न बल्ब की अपनी कोई अलग बिजली है और न बर्तन की अपनी कोई अलग हवा है और न ही लहर का अपना कोई अलग पानी है. अपनत्व बस भ्रम है. आत्मा सिर्फ भ्रम है.   

भारत में तो जनेऊ पहनने वाले भी हैं और जनेऊ का विरोध करने वाले भी हैं. नानक साहेब ने जनेऊ का विरोध किया था. सिक्ख जनेऊ नहीं पहनते. 

कोई एक देवी नहीं, कोई एक देवता नहीं. दस-बीस किलोमीटर पर देवी-देवता बदल जाते हैं. दिल्ली में झंडे वाली माता का मन्दिर है, पंजाब में किसी ने सुना भी न होगा.

बठिंडा में एक गुरुद्वारा है, "हाजी रतन गुरुद्वारा". असल में इस गुरूद्वारे के ठीक साथ एक दरगाह सटी है. जिसे हाजी रतन की दरगाह कहा जाता है. जो लोग गुरूद्वारे जाते हैं, वो अक्सर इस दरगाह पर भी मत्था टेकते हैं. अब इस्लाम में दरगाह का कोई कांसेप्ट नहीं है. इस्लाम में दरगाहों पर मत्थे टेकना मना है. असल में तो सिवा अल्लाह के किसी की भी इबादत शिरकत है, गुस्ताखी है. लेकिन तथा-कथित हिन्दू को, सनातनी को इससे क्या? उसने अपने हिसाब से चीज़ों को गढ़ना है. वो दरगाह पर भी मत्था टेकता है, वो गुरूद्वारे का नाम भी दरगाह से जोड़ देता है. उसे क्या? 

असल में उसे इबादत से मतलब है, खुदा झूठा है, सच्चा है, उसे ज़्यादा चिंता नहीं है. वो निर्मल बाबा के आगे भी झुकता है, जो समोसे लाल चटनी की बजाये हरी चटनी के साथ खाने का नुस्खा बता के कृपा बरसाता है, वो आसाराम और राम-रहीम के आगे भी झुकता है जो बलात्कार में फंसते हैं. वो दिव्य-ज्योति संस्थान वाले आशुतोष महाराज के शरीर को फ्रीजर में डालने पर भी राजी हो जाता है, इस उम्मीद में कि उनकी आत्मा वापिस आयेगी उसी शरीर में. असल में जिसे हिन्दू या सनातनी कहा जा रहा है उसकी मान्यताएं बड़ी ही ढुल-मुल हैं, वो कुछ भी मानने को तैयार बैठा है. कुत्ते-कुतिया तक के मन्दिर हैं. फिल्म एक्टर के मन्दिर हैं. मोटर साइकिल तक का मंदिर है. मेरा एक लेख है "मन्दिर कैसे-कैसे". पढियेगा. हैरान हो जायेंगे. गोवरधन परिक्रमा करते हैं तो बीच में एक मंदिर है, "चूतड-टेका मंदिर". मतलब वहां चूतड़ टिका के आराम कीजिये. हनुमान जी ने किया था, जब वो परिक्रमा कर रहे थे. 

मतलब कुछ भी मानने को तैयार बैठा है तथा-कथित सनातनी. 

कुछ समय पहले तक साईं बाबा के पीछे लगे थे. क्या छोटे-क्या बड़े? सब साईं के भगत. सब साईं संध्या कराने में लगे थे. मंदिरों में साईं की मूर्तियाँ लगवा दीं गईं. फिर किसी शन्कराचार्य ने कह दिया कि साईं तो मुस्लिम थे, काफी कुछ मूर्तियाँ हटा दी गईं. अब साईं का ज्वर कुछ शांत है. 

अब दिल्ली और इर्द-गिर्द सब "गुरु जी" के पीछे लगे हैं. हर तीसरी गाडी के आगे-पीछे लिखा होगा, "जय गुरु जी". ये महाशय कौन थे, क्या कहते थे, इनका समाज को क्या योगदान था, कुछ ठीक से पता नहीं. लेकिन अब घर-घर इनके सत्संग होते हैं. गुरु जी की blessing चाहियें सबको. दिल्छी छतर-पुर की तरफ आलिशान मंदिर है इनका. बड़ा मंदिर. मैं गया हूँ वहां. इनकी समाधि भी देखी है मैंने. मुझे वो सब देखा-देखा लगा. क्यों? क्योंकि मैं पूना ओशो-आश्रम भी गया हूँ. काफी कुछ ओशो की नकल लगा. ओशो की समाधि है जैसे, वैसे इन महाशय की भी समाधि है. ओशो जैसे गाउन-नुमा वस्त्र पहनते थे, वैसे ये जनाब भी पहने हैं. ओशो ने अंतिम दिनों में अपनी कुर्सी को ही अपनी उपस्थिति बताया, सो उनकी खाली कुर्सी ही विद्यमान रहती थी शिष्यों के सम्मुख, वैसे ही इनके शिष्य भी इनकी खाली कुर्सी रखते हाँ इनके सत्संग में. ओशो में आग थी. वो आग हरेक को हजम होने से रही सो जैसे और अनेक लोगों ने ओशो को कॉपी किया, वैसे ही इन्होने भी सुविधा अनुसार ओशो को कॉपी किया लगता है. ये तो चल बसे लेकिन इनके पीछे चलने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है. 

फिर जिनको हिन्दू या सनातनी की छतरी के नीचे लाने की कोशिश की जा रही है, वो सब भी खुद को हिन्दू या सनातनी मानते हैं कि नहीं? इस में भी बहुत तना-तनी है. 

सिक्ख खुद को सिक्ख मानते हैं. हिन्दू नहीं. भाई कान्ह सिंह नाभा की किताब है, "हम हिन्दू नहीं". नानक साहेब ने जनेऊ नहीं पहना, हरिद्वार में सूरज को जल न चढ़ा के उलटी दिशा में जल चढ्या, जगन-नाथ में हो रही आरती का विरोध किया. खालिस्तानियों का एक तर्क यह भी है कि उन्हें जबरन हिन्दू माना जा रहा है. हिन्दू बनाया जा रहा है. 


लिंगायत लिंग-पूजक हैं लेकिन खुद को हिन्दू धर्म से अलग करना चाहते हैं. नहीं मानते वो खुद को हिन्दू. उनके शव दफनाये जाते हैं.


कुम्भ के मेले में शाही स्नान को लेकर साधुयों के अखाड़ों में खूनी जंग होती रही है.


हिन्दू धर्म के वैष्णव संप्रदाय में गौतम बुद्ध को दसवाँ अवतार माना गया है हालाँकि बौद्ध धर्म इस मत को स्वीकार नहीं करता। 

जैन भी खुद को हिन्दू नहीं मानते हैं लेकिन उनको भी जबरन हिन्दू कहा जा रहा है. जैन खुद को जैन लिखते हैं और कुछ नहीं. 


जबरन भारत के उस समाज को जिसे हिन्दू कहा जा रहा है, एक डोरी में पिरोने की कोशिश की गयी है. 

एक थ्योरी यह है कि हिन्दूस्तान में रहने वाला हर शख्स हिन्दू है. सवाल यह है कि इस मुल्क का नाम भारत भी है. पंडित बुला लो, वो मन्त्रों में इसे जम्बू-द्वीप कहेगा. हालांकि द्वीप की परिभाषा में भारत आता भी नहीं. कोई इसे आर्यवर्त कहता है. और फिर जब हिन्दू शब्द का प्रयोग आज होता है तो वो किस सन्दर्भ में होता है यह भी तो देखने की बात है. आज 'हिन्दू' शब्द अधिकांशत: 'भारतीय' के लिए प्रयोग नहीं होता. हिन्दू शब्द राम-कृष्ण-दुर्गा-काली-ब्रह्म-विष्णु-महेश आदि को मानने वाले को कहा जाता है. भारत में तो मुस्लिम, क्रिश्चयन, पारसी और न जाने कौन-कौन से धर्मों को मानने वाले लोग रहते हैं, सब तो नहीं कहते खुद को हिन्दू. 

और वो मित्रगण जो गन उठाये वैलेंटाइन डे पर आलिंगन-बद्ध जोड़ों का शिकार करने निकलते हैं ताकि भारतीय संस्कृति को दूषित होने से बचाया जा सके, जब उनसे खजुराहो के मन्दिरों की संस्कृति पर सवाल दागा जाता है, जब लिंग-पूजन के अर्थ समझने का प्रयास किया जाता है तो अर्थ का अनर्थ करते दीखते हैं. 

गौ को माता कहा जाता है लेकिन उसके बेटे-बेटी के हिस्से का दूध छीन लिया जाता है. यह सनातन है या हिंदुत्व, मुझे नहीं पता. 

विवेकानंद खुद बताते हैं कि प्राचीन भारत में गौ-मांस खाया जाता था.

“इसी भारत में कभी  ऐसा भी   समय  था जब कोई ब्राहमण बिना गौ-मांस खाए ब्राहमण नहीं रह पाता  था। वेद पढ़ कर देखो कि किस तरह जब कोई सन्यासी या राजा या बड़ा आदमी मकान में आता था तब सबसे पुष्ट बैल मारा जाता था---- स्वामी विवेकानंद (विवेकानंद साहित्य Vol 5 Pg 70)”

धरती को माता कहा जाता है लेकिन उसे काटा जाता है, बेचा-खरीदा जाता है, उसे किराए पर दिया जाता है. यह सनातन है? हिंदुत्व है? क्या है? मुझे नहीं पता. 

सदा सच बोलना चाहिए, लेकिन यदि किसी क्रांतिकारी को कैद कर अँगरेज़ उसके साथियों का पता पूछते तो क्या उसे सच-सच बता देना चाहिए?

असल में सनातन या हिंदुत्व जैसा कुछ भी नहीं है. सब वैल्यू वक्त-ज़रूरत के हिसाब से मोड़ी-तरोड़ी जाती हैं. स्थिति के मुताबिक बदली जा सकती हैं. 

असल बात यह है कि भारत में रंग-बिरंगी मान्यताएं पनपी हैं, रंग-बिरंगे मत-मतान्तर पनपे हैं. और मैंने अपने जीवन-काल में भी यह खूब देखा है. 

आज राम को ऐसे पेश किया जा रहा है जैसे भारत सारा-का-सारा बस राम-मयी हो. लेकिन ऐसा नहीं है. वाल्मीकि रामायण पढ़िए. जब राम पिता के आदेश पर वनवास के लिए निकलते हैं तो रस्ते में उन्हें जबाली मिलता है, जो राम के इस तरह पिता के आदेश को मानने का तार्किक खंडन करता है. बड़े ही यथार्थवादी और मजबूत तर्क पेश करता है. लेकिन राम उसे अपना बाहु-बल दिखा भगा देते हैं.

रावण को मारने के बाद जब सीता राम के पास लाई जाती है तो राम कहते हैं कि उन्होंने रावण को सीता के लिए नहीं मारा बल्कि अपने सम्मान की खातिर मारा है और सीता को कहीं भी जाने को कहते हैं. वो तो उसे भरत, शत्रुघ्न, सुग्रीव आदि के पास जाने को भी कहते हैं. 

इस पर सीता के उदगार पढने लायक हैं. वो राम का रामत्व झाड़ कर रख देती हैं. एक स्वाभिमानी नारी के उदगार हैं वो. 

राम के सीता की अग्नि-परीक्षा लेना का और फिर सीता को वनवास भेजने का हमेशा ही विरोध होता रहा है. 

आपको दिल्ली के रानी झाँसी रोड पर स्थित 'दिल्ली प्रेस' की कई किताब-कई लेख मिल जायेंगे इस विषय पर. 

ललई सिंह यादव हैं कोई, उनकी लिखी 'सच्ची रामायण की चाबी' भी चर्चित है. 

इसके अलावा रंग-नय्कम्मा की 'रामायण-एक विषवृक्ष' भी उल्लेखनीय है. 

मैंने खुद राम और रामायण से जुडी आम मान्यताओं के खिलाफ कई लेख लिखे हैं. 

इतनी भिन्नता के बावजूद इन सब मान्यताओं को एक लड़ी में पिरोने का प्रयास क्यों किया जा रहा है? आइये देखते हैं. 

दुनिया में मुख्यतः दो तरह के धर्म माने जाते हैं. एक अब्राहमिक और दूसरे नॉन-अब्राहमिक. यहूदी, ईसाई और मुस्लिम अब्राहमिक धर्म हैं और बाकी सब नॉन-अब्राहमिक.


आज भारत की नॉन-अब्राहमिक कम्युनिटी को हिंदुत्व के नाम पर, हिन्दू धर्म के नाम पर और सनातन के नाम पर एक-जुट करने का प्रयास किया जा रहा है. और यह काम पिछले नब्बे साल से किया जा रहा है. कर रहा है आरएसएस. लेकिन पिछले सात-आठ सालों से ही आरएसएस को कामयाबी हासिल हुई. एक बड़ा कारण है इन्टरनेट. अब इन्टरनेट की वजह से इस्लाम की हिंसक और ईसायत की चालबाज़ी से भरी धर्म परिवर्तन नीतियां सामने आने लगीं. अल्लाह-हो-अकबर के नारे के साथ जगह-जगह किये जाने वाले बम विस्फोट पूरी दुनिया हिला देते हैं अब. नतीजा सामने है. तमाम तरह की असफलताओं के बावजूद मोदी सरकार कायम है. 


आरएसएस का बड़ा आग्रह है कि नॉन-अब्राहमक जन पुरातनता से जुड़े रहें. पूर्वजों से जुड़े रहें. पूर्वजों की मान्यताओं से जुड़े रहें. इन सब मान्यताओं को सनातन कहे जाने के पीछे यह भी वजह है. सनातन मतलब , भैया ये सब मान्यताएं सिर्फ तुम्हारे बाप-दद्दों के ही काम की नहीं थीं बल्कि तुम्हारे काम की भी हैं, तुम्हारी आने वाली पीढ़ियों के भी काम की है. लेकिन यह सब बकवास है. पूर्वजों से बस सीखना होता है न कि उनकी मान्यताओं से जुड़े रहना होता है. काम का हो तो सीखो, वरना विदा करो. बात खत्म. इसमें उनसे हमेशा जुड़े रहने का क्या कारण? उनकी मान्यताओं से बंधे रहने का क्या औचित्य? हमारी जडें भूत-काल में नहं भविष्य में होनी चाहियें. हमें पूर्वजों से बंधना नहीं है, बल्कि भावी पीढ़ियों जुड़ना है. वर्तमान में जीना है लेकिन भविष्य-उन्मुख हो कर. भूतकाल से सीखना है. 

लेकिन मोदी भक्त तो दिन-रात लगे हैं. अगर मुस्लिम के पास अल्लाह है तो इनके पास राम हैं. अल्लाह-हू-अकबर के जवाब में जय -श्री-राम हैं. काबे के जवाब में अयोध्या का राम-मन्दिर तैयार किया जा रहा है. नमाज़ के मुकाबले में आरएसएस की सुबह-शाम की शाखाएं नॉन-स्टॉप चल ही रही हैं. 


ज़्यादा प्रयास अब्राहमिक धर्मों के खिलाफ है. लेकिन इनकी खिलाफत करते-करते भारतीय मनीषा को इनके जैसा बनाया जा रहा है. 

भारतीय ख़ास परवाह नहीं करता था कि कौन उसकी मान्यताओं का मजाक उड़ा रहा है. कौन उनकी कम्युनिटी पर चुटकले बना रहा है. लेकिन अब ऐसा नहीं है. अब पूरा प्र्यास किया जा रहा है कि भारत के नॉन-अब्र्हमकों को मुसलमानों जैसा कट्टर बना दिया जाये. 


यहाँ ओशो जैसे मुक्त-विचारक हुए, PK जैसी फिल्में बनी, सरिता-मुक्ता जैसी पत्रिकाओं में अनेक खुले लेख लिखे गए. यह सब आज के माहौल में पनपना पहले के मुकाबले में काफी मुश्किल है. आज तो संघी आंधी से चली हुई है, इस आंधी में फंसे लोग ठीक से न कोई चीज़ सुनना चाहते है, न समझना.

आज पूरा प्रयास किया जा रहा है कि तथा-कथित हिंदुत्व को इस्लाम जैसा बना दिया जाये. जरा किसी ने चूं-चां की तो उसका चूं-चूं का मुरब्बा बना दिया जाये, उसकी चटनी पीस दी जाये.

मेरा निष्कर्ष यह है कि हिन्दू धर्म जैसा कुछ है ही नही. और न ही सनानत जैसा कुछ है. और यह हिंदुत्व भी कुछ  नही है। इसे होना ही है  तो सिंधुत्व होना चाहिए. लेकिन फिर तो सिंधी ही सिंधुत्व के वाहक होने चाहिए। असली वाहक। लेकिन तथा-कथित हिंदुत्व में तो गंगा-यमुना से लेकर दक्षिण के द्रविड़ कल्चर तक है। इसमें कुछ भी लगा बंधा नही है। न कोई एक किताब। न कोई एक तरह की मान्यता। यह ऐसी खिचड़ी है जिसमें आप स्वादानुसार मसाले और मसले घटा बढ़ा सकते हैं। भारत में तो  विभिन्न मान्यताएं पनपी हैं, और हैं. और यही भारत की गरिमा बढ़ाता है. यह भारत का अवगुण नहीं है, यह गुण है. और भारत को ऐसा ही रहने देना चाहिए. और यही  भारत के लिए, दुनिया के लिए शुभ है.

इस्लाम और ईसायत का मुकाबला करना ज़रूरी है लेकिन इसके लिए इनके जैसा ही बनने की कोई ज़रूरत नहीं है. इसके लिए तथा-कथित हिन्दू समाज को तार्किक तथा वैज्ञानिक बुद्धि का बनाये जाने की ज़रूरत है न कि इनके जैसा ही अंध-विश्वासी, इनके जैसा हिंसक, इनके जैसा पोंगा-पंथी. 

हमें आरएसएस की आंधी नहीं, तर्क की आंधी चलाने की ज़रूरत है. हमें राम मन्दिर की ज़रूरत नहीं है, ऐसे मन्दिरों की ज़रूरत है, जहाँ ध्यान, योग और तर्क-वितर्क हो सके. ऐसी जगहों की ज़रूरत है जहाँ रामायण, गुरु ग्रन्थ, महाभारत, पुराण के पक्ष-विपक्ष में बोलने वाले लोगों का स्वागत हो सके. 

और जो समाज, मसलन मुस्लिम समाज, कुरान पर, अल्लाह पर, मोहम्मद साहेब पर खुली बहस पर एतराज़ करें तो इनका खुल के सोशल बायकाट करें. 

कोई व्यक्ति, कोई किताब, कोई मान्यता तर्क-वितर्क, विचार-विमर्श से परे नहीं होनी चाहिए. 

दिनों में एक नयी संस्कृति पनपते देखेंगे आप. अभी जो है वो मात्र विकृति है.

आप देख हैरान हो जायेंगे कि यह समाज कैसे तरक्की करता है. ज्ञान-विज्ञान का विस्फोट होगा. 

सवाल यह नही है कि आप मुसलमान हो कि बेईमान हो, बौद्ध हो कि बुद्धू हो, हिन्दू हो कि भोंदू हो. न. सवाल यह है कि आप सवाल नहीं उठाते. सवाल उठाना आपको सिखाया नहीं गया. बल्कि सवाल न उठाना सिखाया गया. आपकी सवाल उठाने की क्षमता ही छिन्न-भिन्न कर दी गयी. आपको बस मिट्टी का एक लोंदा बना दिया गया, जिसे समाज अपने हिसाब से रेल-पेल सके. खत्म.

सो सवाल हो तो ज़रूर पूछियेगा. 

इसी लेख का यदि वीडियो देखना हो तो आप यहाँ देख सकते हैं तथा साथ में विभिन्न कमेंट भी पढ़ सकते हैं.

https://www.facebook.com/tushar.cosmic/posts/10218327590922582


नमन...तुषार कॉस्मिक

Monday, 18 January 2021

बेटियाँ तो सांझी होती हैं

रेशमा की शादी थी. सारा मोहल्ला जैसे जोश में था.

"ओये...तू टेंट सम्भाल."
"ओये तू हलवाई को सामान लाकर दे."
"ओये तूने बामण को बुलाना है."
"तूने ये...."
"तूने वो.."

बेटियाँ तो सांझी होती हैं. रेशमा सिर्फ कुलवंत की बेटी नहीं थी, सारे मोहल्ले की बेटी थी. सबसे ज़्यादा काम रुलदू चाचा ने सम्भाल रखा था. वो तो जैसे पागल ही हो रखा था. कभी इधर भाग रहा था, कभी उधर. कहीं कोई कमी न रह जाए. चाहे बारात अगली गली से ही आनी थी लेकिन फिर भी टेंशन थी कि कहीं कोई बाराती नाराज़ न चला जाये.

बारात विदा हुयी तो सारे मोहल्ले की आँखें गीली थीं.

समय उड़ता गया. रेशमा की बेटी जवान हो गयी. उसकी शादी तय हुई. लेकिन अब ज़माना बदल गया था. अब कोई चिंता नहीं थी, पहले की तरह. सब काम बैंक्वेट वाले सम्भाल लेते हैं. न हलवाई की चिंता, न टेंट की. बस प्लेट के हिसाब से पैसे देने होते हैं. शहर का अच्छा बैंक्वेट बुक किया रेशमा ने. कोई 1500 रुपये प्रति प्लेट का खर्चा तय हुआ.

रेशमा ने सिर्फ करीबी रिश्तेदार और बिज़नस पार्टनर बुलाये. गली-मोहल्ले के सब लोग लिस्ट से हटा दिए गए. रुलदू चाचा अब वैसे भी बूढ़े हो चुके थे सो उनका या उनके जैसों का नाम तो निमन्त्रण-लिस्ट में होने का कोई मतलब ही नहीं था. ऐसे लोग तो शगुन के नाम पर हद मार के 500 रुपये भी देने वाले नहीं थे.

बिटिया की शादी निपट गयी धूम-धाम से. सब ने बड़ी प्रशंसा की. बड़ी शादी थी. शानदार.

वक्त उड़ना था, उड़ता गया. फिर इक दिन रेशमा की बेटी रेशमा के घर आई थी, साथ में छोटी बिटिया थी उसकी. रेशमा की नातिन. सब हंस खेल रहे थे. अचानक रसोई से काम वाली के चीखने की आवाज़ आई. आग लगी थी. देखते-देखते पूरे घर में आग फैलने लगी. सब चीखने-चिल्लाने लगे.

वहीं से रुलदू चाचा गुज़र रहे थे. शोर सुना तो भागे आये. अपनी जान पर खेल गए लेकिन रेशमा और उसकी नातिन और उसकी बेटी को बाहर निकाल लाये.

लेकिन अफ़सोस उनकी अपनी हालत खराब हो गयी. अंतिम वक्त आ गया था उनका. रेशमा उनके पास बैठी थी. हाथ में रुलदू चाचा का हाथ. रो रही थी. रुलदू चाचा ने अंतिम साँस लेते हुए कहा, "मत रो बिटिया, तू हमारे मोहल्ले की बेटी है और फिर बेटियों तो सबकी सांझी होती हैं." और रुलदू चाचा के जीवन का पर्दा गिर गया .

नमन....तुषार कॉस्मिक

Sunday, 10 January 2021

चीकू

 चीकू. वो शुरू से ही सुंदर सा था, सफेद और बीच-बीच में काले धब्बे. कद छोटा। छोटा सा जवान कुत्ता,  उसे कोई मोहल्ले  में छोड़ गया था या शायद वो खुद ही कहीं से आन  टपका था.

 जिस घर के सामने वो बैठता था, वो उसे खूब प्यार-दुलार, खाना-दाना  देता था लेकिन फिर घर वालों को कोई और कुत्ता भा गया, जो चीकू से कहीं लम्बा -चौड़ा था.  अब चीकू और उस नए कुत्ते की लड़ाई होने लगी. चीकू रोज़ाना पिट जाता. हार कर उसे वो जगह छोड़नी पडी. 

उसे  सुरेश के घर के आगे पनाह मिल गयी. सुरेश को कुत्ते कोई ख़ास पसंद-नापसंद नहीं थे. लेकिन उसके बच्चों को चीकू पसंद आ गया. चीकू को वो बच्चे पसंद आ गए. वो आपस में खेलते. चीकू मस्त. लेकिन कुत्ता तो कुत्ता. वो रात में गली में खूब भौंकता. बिना मतलब भौंकता. सुरेश कहता, "इसे भूत दीखते हैं क्या?" छोटे सटे हुए घर. सुरेश की नींद हराम होने लगी. 

एक रात उसने चीकू को भगा दिया. एक दो दिन चीकू गायब रहा. फिर इक दिन वो बुरी तरह से घायल मिला. उसके गले पर गहरा ज़ख्म था. सुरेश ने ख़ास ध्यान न दिया. कुछ दिन बाद किसी ने बताया चीकू को कीड़े पड़  गए हैं. सुरेश ने देखा. उसके गले पर जो ज़ख़्म था, वो और बड़ा हो गया था और उसमें अनगिनत सफेद कीड़े थे. अब  चीकू मरने जैसा था. 

सुरेश का दिल पसीजा, वो  दो बेटियों के साथ कार में बारिश में चीकू को अस्पताल ले गया. कई दिन की तीमार-दारी  के बाद चीकू सही हो गया. 

अब कुछ ही दिन बाद म्यूनिसिपलिटी वाले चीकू को उठा ले गए और उसका ईलू -पीलू कर वापिस छोड़ गए. चीकू कई दिन घायल सा पड़ा रहा. हैरान-परेशान. फिर धीरे-धीरे ठीक हो गया. 

लेकिन फिर उसका किसी बड़े कुत्ते से झगड़ा हुआ जिसने उसके अंड -कोष उधाड़ दिए. मरने जैसा हो गया फिर से चीकू. सुरेश ने बेटियों के साथ मिल फिर से चीकू को ज़िंदा किया. अब चीकू ठीक है, लेकिन रात को बहुत भौंकता है. उसे देख गली के बाकी कुत्ते भी बहुत भौंकते हैं. 

अब सुरेश ने प्रण  किया है अबकी बार चीकू को नहीं बचाना. "कुत्ता है कोई इंसान थोड़ा न है. क्या हम जूं  नहीं मारते? क्या हम चिकन नहीं खाते? क्या हम कॉकरोच नहीं मारते? मरने दो, चीकू को भी, कुत्ता ही  है", वो खुद को समझाने लगा. 

चीकू फिर से घिर गया कहीं बड़े कुत्तों में. सुरेश को पता लगा. वो पहुँच गया. लहू-लुहान चीकू को उठा चल पड़ा अस्प्ताल की तरफ. चीकू उसकी गोद  में था, सुरेश सोचता जा रहा था, "अब  यह आखिरी बार है चीकू, अब आगे तुझे नहीं बचाऊंगा.... " 

मैं हवा का ही तो बना हूँ

 अभी बाहर गली में घूम रहा था. 

दिसंबर अपने यौवन पर है. 

आधी रात . 

मुंह पर ठंडी हवा के थपेड़े पड़  रहे थे. 

बर्फीली हवा मुझे अच्छी  लग रही थी. 

अंदर जाती साँस गीली-गीली  थी. 

मुझे अपना होना सुखद लग रहा था.

 क्यों? 

शायद मैं खुद से मिल रहा था. 

मैं हवा का ही तो बना हूँ, 

और मिटटी का, 

और पानी का, 

और ज़मीन का,

 और आसमान का. 

और

 हवा में ही मिल जाऊँगा, 

और मिटटी में घुल जाऊंगा, 

और पानी में,

 और ज़मीन में, 

और आसमान में.

घटती इज़्ज़त

 वो परिवार के साथ खाना  खा रहा था. 

उसने बच्चों से मुखातिब होते हुए हलके-फुल्के मूड में कह  दिया, "मैं अगर तुम्हारी ममी की थाली से दो कौर रोटी मांग लूँगा तो ममी कहेंगी कि देखों मुझे तुम्हारा बाप खाना नहीं देता. "

"सो तो है ही" पत्नी  ने कहते हुए दो कौर रोटी उसकी थाली में फेंक दी. 

बड़ी बेटी ने नोट करते हुए कहा, "देखना, ममी पापा को रोटी किस ढंग से दे रही हैं!"

"पता है बेटा, जैसे कुत्ते को देती हैं बाहर गली में वैसे ही." उसने कहा.  

ममी बोली, "न, न, कुत्ते को तो मैं प्यार से रोटी देती हूँ."

सब हंसने लगे, वो भी हंसने लगा. बात आई गयी हो गयी, सब सो गए, लेकिन सोते हुए उसकी आंख कुछ गीली थी.