माना जाता है कि इन्सान इस पृथ्वी का सबसे समझदार प्राणी है.
लेकिन यह इन्सान ही है, जो सेक्स न करके हस्त-मैथुन कर रहा है. "एक...दो...तीन...चार...हा...हा...हा....हा........."
यह इन्सान ही है, जो पब्लिक शौचालय में लिख आता है, "शिवानी रंडी है.....", "भव्या गश्ती है", "मेरा लम्बा है, मोटा है, जिसे मुझ से Xदवाना हो, फ़ोन करे......98..........", आदि अनादि.
यह इन्सान ही है, जो हिंसक होता है तो दूसरे की माँ, बहन, बेटी को सड़क पे Xद देता है. "तेरी माँ को xदूं........तेरी बेटी को कुत्ते xदें ........तेरी बहन की xत मारूं".
यह इन्सान ही है, जो बलात्कार करता है और सेक्स के लिए न सिर्फ बलात्कृत लड़की का बल्कि अपना भी जीवन दांव पर लगा देता है.
यह इन्सान ही है, जो गुब्बारे तक में लिंग घुसेड़ सुष्मा, सीमा, रेखा की कल्पना कर लेता है.
यह इन्सान ही है, जो कपड़े पहने है, चूँकि उससे अपना नंग बरदाश्त ही नहीं हुआ. लेकिन फिर ढका अंग बरदाश्त नहीं होता तो वही कपड़े स्किन-टाइट कर लेता है. आज की फिल्में देखो तो हेरोइन अधनंगी है, पुरानी फ़िल्में देखो तो हेरोइन ने कपड़े पूरे पहने हैं लेकिन इत्ते टाइट कि अंग-अंग झाँक रहा है. वैजयंती माला-आशा पारेख की फिल्में याद करें.
यह इन्सान ही है, जो सेक्स नहीं करता सो दूसरों को सेक्स करते देखता है. पोर्न जितना देखा जाता है उतना तो लोग मंदिर-गुरूद्वारे के दर्शन नहीं करते होंगे.
यह इन्सान ही है, जो गीत भी गाता है तो उसमें सिवा सेक्स के कुछ नहीं होता. "तू मुझे निचोड़ दे, मैं तुझे भंभोड़ दूं. आहा...आहा."
यह इन्सान ही है, जिसने शादियों का आविष्कार किया, जिससे परिवार अस्तित्व में आया, जिससे यह धरती जो सबकी माता है, उसे टुकड़ों में बांट दिया गया, ज़मीन को जायदाद में बदल दिया गया और इन्सान इन्सान के बीच दीवारें खिंच गईं, दीवारें क्या तलवारें खिंच गईं. "ज़र, ज़ोरू और ज़मीन, झगड़े की बस वजह तीन." लेकिन तीन नहीं, वजह एक ही है....और वो है सेक्स का गलत नियोजन चूँकि सेक्स के गलत नियोजन की वजह से ही ज़र, जोरू और ज़मीन अस्तित्व में आये हैं.
"ये तेरी औरत है." "ये तेरा मरद हुआ आज से." जबकि न कोई किसी की औरत है और न ही कोई किसी का मर्द. इन्सान हैं, कोई कुर्सी-मेज़ थोड़ा न हैं, जिन पर किसी की मल्कियत होगी? वैसे और गहरे में देखा जाए तो वस्तुओं पर मलकियत भी इसीलिए है कि इंसानों पर मल्कियत है. अगर इन्सानों पर मलकियत न हो, अगर परिवार न हों तो सारी दुनिया आपकी है, आप कोई पागल हो जो मेज़-कुर्सी पर अपना हक जमाओगे. सारी दुनिया छोड़ टेबल-कुर्सी पर हक़ जमाने वाले का तो निश्चित ही इलाज होना चाहिए. नहीं? वो सब पागल-पन सिर्फ घर-परिवार-संसार की वजह से ही तो है.
जब पति-पत्नी सम्भोग करते हैं तो वहां बेड पर दो लोग नहीं होते, चार होते हैं. पति की कल्पना में कोई और ही औरत होती है और पत्नी किसी और ही पुरुष की कल्पना कर रही होती है. वैसे वहां चार से ज़्यादा लोग भी हो सकते हैं......ख्यालात में पार्टनर बदल-बदल कर भी लाए जा सकते हैं. यह है जन्म-जन्म के, सात जन्म के रिश्तों की सच्चाई.
शादी आई तो साथ में ही वेश्यालय आया. उसे आना ही था. रामायण काल में गणिका थी तो बुद्ध के समय में नगरवधू. और नगरवधू का बहुत सम्मान था. 'वैशाली की नगरवधू' आचार्य चतुर-सेन का जाना-माना उपन्यास है, पढ़ सकते हैं. 'उत्सव' फिल्म देखी हो शायद आपने. शेखर सुमन, रेखा और शशि कपूर अभिनीत. 'शूद्रक' रचित संस्कृत नाटक 'मृच्छकटिकम' पर आधारित थी यह फिल्म. वेश्या दिखाई गई हैं. खूब सम्मानित. आज भी किसी नेता, किसी समाज-सुधारक की जुर्रत नहीं कि वेश्यालय हटाने की सोच भी सके. वो सम्भव ही नहीं है. जब तक शादी रहेगी, वेश्यालय रहेगा ही. सनी लियॉनी को आखिर उस भारतीय समाज ने स्वीकार किया, जहाँ फिल्म अभिनेत्री अगर शादी कर ले तो उसे रिटायर माना जाता था.
BB ki Vines, Carryminati, All India Bakchod, ये तीन टॉप के इंडियन youtube चैनल हैं. इन सब की एक साझी खूबी है. जानते हैं क्या? सब खुल कर माँ-बहन-बेटी xदते हैं. All India Bakchod ने तो अपने नाम में ही सेक्स का झंडा गाड़ रखा है.
इन्सान ने सेक्स को बुरी तरह से उलझा दिया. बस फिर क्या था? सेक्स ने इन्सान का पूरा जीवन जलेबी कर दिया जबकि सेक्स एक सीधी-सादी शारीरिक क्रिया है, जिसे विज्ञान ने और आसान कर दिया है.
विज्ञान ने बच्चे के जन्म को सेक्स से अलग कर दिया है. अब लड़की को यह कहने की ज़रूरत नहीं, "मैं तेरे बच्चे की माँ बनने वाली हूँ." और लड़के को विलन बनते हुए यह कहने की कोई ज़रुरत नहीं, "डार्लिंग, मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ, लेकिन देखो अभी यह बच्चा हमें नहीं चाहिए तो तुम किसी अच्छे से डॉक्टर से मिल कर इसे गिरा दो. यह लो पचास हज़ार रुपये. और चाहिए होंगे तो मांग लेना."
विज्ञान ने यह सहूलियत दे दी है कि पुरुष और स्त्री एक दूसरे की स्वास्थ्य रिपोर्ट ले कर सेक्स में जाएँ.
जगह-जगह शौचालय ही नहीं सार्वजनिक सम्भोगालय भी बनने चाहियें, जहाँ कोई भी स्त्री-पुरुष अपनी मर्ज़ी से सम्भोग कर सकें .
उलझी हुई समस्याओं के समाधान इतने आसान और सीधे होते हैं कि उलझी बुद्धि को वो स्वीकार ही नहीं होते. इन्सान इस पृथ्वी का सबसे समझदार प्राणी है, उसकी बुरी तरह उलझी समस्यायों के समाधान इतने आसान कैसे हो सकते हैं? वो कैसे स्वीकार ले? वो कैसे स्वीकार कर ले कि उसकी समस्यायों के समधान हो भी सकते हैं.
आपको पता है सड़क किनारे कुत्ता-कुतिया को सम्भोग-रत देख लोग उनको पत्थर मारने लगते हैं, जानते हैं क्यों? कैसे बरदाश्त कर लें, जो खुद नहीं भोग सकते, वो कुत्ते भोगें?
मेरा प्रॉपर्टी का काम रहा है शुरू से. पुरानी बात है. एक जवान लड़का किसी लड़की को ले आया फ्लैट पे. उन दिनों नई-नई अलॉटमेंट थी. कॉलोनी लग-भग खाली थी. कुछ शरारती लोगों ने बाहर से कुंडी लगा दी और 100 नम्बर पे फोन कर दिया. पुलिस आ गई, लड़का-लड़की हैरान-परेशान. बेचारों की खूब जिल्लत हुई. दुबारा न आने की कसमें खा कर गए. बाद में जिन्होंने फ़ोन किया था, वो ताली पीट रहे थे. एक ने कहा, "साला, यहाँ ढंग की लड़की देखती तक नहीं और ये जनाब मलाई खाए जा रहे थे. मज़ा चखा दिया. हहहाहा..........."
सेक्स जो इन्सान को कुदरत की सबसे बड़ी नेमत थी, सबसे बड़ी समस्या बन के रह गया. चूँकि इन्सान इस पृथ्वी का सबसे मूढ़ प्राणी है.
नमन...तुषार कॉस्मिक
Thoughts, not bound by state or country, not bound by any religious or social conditioning. Logical. Rational. Scientific. Cosmic. Cosmic Thoughts. All Fire, not ashes. Take care, may cause smashes.
Monday, 4 December 2017
Sunday, 3 December 2017
राम-राम/रावण-रावण
घर के पास वाले पार्क में घूमता हूँ तो अक्सर बुज़ुर्ग सामने से 'राम-राम' करते हैं. मैं 'नमस्ते जी' ही कहता हूँ. एक अंकल को मज़े-मज़े में 'रावण-रावण' कह दिया. पकड़ ही लिए मुझे.
"क्यों भई? यह क्या बोला जवाब में?"
"कुछ नहीं अंकल, वो रावण भी तो महान था न?"
"नहीं तो उसे राम के बराबर का दर्ज़ा दोगे क्या?"
"अंकल उसके दस सर थे. ब्राहमण था. अन्त में लक्ष्मण उससे ज्ञान लेने भी तो जाता है, तो थोड़ा सा सम्मान, थोड़ा सा क्रेडिट रावण को भी देना चाहिए कि नहीं?"
अंकल थोड़ा सोच में पड़ गए और मैं निकल लिया पतली गली से.
मूर्खों का देश
जिस देश में धिन्चक पूजा, राधे माँ, निर्मल बाबा, स्वामी ॐ जैसे लोग सलेबिरिटी हों......
जिस देश में बिग-बॉस जैसे टीवी प्रोग्राम खूब देखे जाते हों.....
जिस देश में गंगा बहती तो हो लेकिन बुरी तरह से प्रदूषित हो..... हम उस देश के वासी हैं.
हम उस देश के वासी हैं जिसके लिए काटजू साहेब ने कहा था कि निन्यानवें प्रतिशत मूर्ख लोगों का देश हैं.
आपको अभी भी शक है काटजू साहेब की बात पर?
बेस्ट सेल्स-मैन
सुना होगा आपने कि बढ़िया सेल्स-मैन वो है जो गंजे को कंघी बेचे.
गलत सुना है.
बढ़िया सेल्समेन वो है, जो अदृशय प्रोडक्ट बेचे.
नहीं समझ आया.
जाओ जा के निर्मल बाबा का एक सेशन अटेंड कर के आओ. 'कृपा' नहीं दिखेगी लकिन कृपा की बिक्री दिखेगी.
गलत सुना है.
बढ़िया सेल्समेन वो है, जो अदृशय प्रोडक्ट बेचे.
नहीं समझ आया.
जाओ जा के निर्मल बाबा का एक सेशन अटेंड कर के आओ. 'कृपा' नहीं दिखेगी लकिन कृपा की बिक्री दिखेगी.
नबी का जन्म-दिन
इस बार नबी का जन्म-दिन ऐसे मनाया गया जैसे कम-से-कम दिल्ली में तो मैंने पहले कभी नहीं देखा. निश्चित ही यह बाहुबल, वोटिंग-बल, संख्या-बल भी दिखाने को था. सडकें सडकें नहीं थी, जुलुस स्थल थी आज. नारे बुलंद हो रहे थे, "सरकार की आमद...मरहबा...मरहबा."
पश्चिम विहार, दिल्ली में रहता हूँ. पास ही विष्णु गार्डन इलाका है. विष्णु गार्डन में बहुत सी जींस बनाने की अवैध फैक्ट्री हैं. सब काम मुसलमानों के हाथ में हैं. आज नबी के जन्म का जुलुस निकाल रहे थे. घोड़े वाले मन्दिर से पश्चिम विहार मात्र आधा किलोमीटर है, यकीन मानें मैं यह दूरी पार ही नहीं कर पाया, सडकों पर इतना जमघट. मुझे कार वापिस घुमानी पड़ी और 4-5 किलोमीटर का चक्कर काट दूसरे रूट से घर आना पड़ा. यह सब धर्म, मज़हब, दीन कुछ भी नहीं है. यह सब बकवास है जो हिन्दू, सिक्ख और अब मुस्लिम भी करने लगे हैं. यह धार्मिक आज़ादी नहीं, धार्मिक बर्बादी है. बंद करो सड़क पर नमाजें, जुलुस, जलसे, शोभा-यात्राएं, कांवड़-शिविर. सड़क इन कामों के लिए नहीं है. वो सिर्फ चलने के लिए है. वो दूकान-दारी के लिए नहीं है. धार्मिक(?) दुकान-दारी के लिए भी नहीं.
क्या है मेरा नज़रिया?
१. मेरा नज़रिया यह है कि नबी हों, गुरु हों, अवतार हों, महात्मा हों, कोई भी हों, एक तो सरकारी छुटियाँ बंद कर देनी चाहियें इन सब के जन्म से मरण तक के किसी भी दिवस पर. अगर ऐसे छुटियाँ ही करते रहे तो पूरा साल छुट्टियों को ही देना पड़ेगा.
२. दूसरा कैसा भी पब्लिक फंक्शन करना हो, वो बंद हॉल या फिर खुले मैदानों में करें, कोई लाउड स्पीकर नहीं, कोई शोर-शराबा नहीं. आम जन-जीवन को डिस्टर्ब करने की किसी को इजाज़त नहीं मिलनी चाहिए.
३. तीसरा और सबसे ज़रूरी. अगर आपने सच में ही अपने नबी के जीवन का फायदा दीन-दुनिया तक पहुँचाना है तो उनके जीवन, उनकी कथनी, उनकी करनी पर खुली बहस आयोजित करें, आमंत्रित करें. और यह बहस मात्र आपके दीन, आपके नबी की हाँ में हाँ मिलाने को ही नहीं होनी चाहिए, इसमें 'न' कहने वालों को भी आने दीजिये.
आने दीजिये अगर कोई उनको पैगम्बर नहीं मानता तो.
आने दीजिये अगर कोई उनको आखिरी पैगम्बर नहीं मानता तो.
आने दीजिये अगर कोई खुद को पैगम्बर मानता है तो.
आने दीजिये अगर कोई अल्लाह-ताला को इनसानी अक्ल पर लगा ताला मानता है.
आने दीजिये अगर कोई क़ुरान में लिखी उन आयतों पर सवाल उठाता है जो काफिरों के खिलाफ हिंसा को आमंत्रित करती हैं.
आने दीजिये ऐसे लोगों को जो क़ुरान के हर शब्द, हर वाक्य पर सवाल उठाते हों.
फिर देखिये क्या निकल के आता है. अगर सरकार की कथनी-करनी में दम होगा तो हम भी कहेंगे, "सरकार की आमद... मरहबा.....मरहबा." और सच में ही सरकार के जीवन से सारी दुनिया बहुत कुछ सीख पायेगी.
लेकिन है इतनी हिम्मत मुसलमानों में कि दुनिया भर में ऐसे आयोजन कर सकें?
मुझे गहन शंका है. और मेरी शंका अगर सही है तो समझ लीजिये दुनिया को गहन अन्धकार में धकेलने के औज़ार हैं ऐसे आयोजन जो आज दिल्ली में किये जा रहे थे.
नमन...तुषार कॉस्मिक
अनुष्का शर्मा की NH-10--अच्छी फिल्म
अनुष्का शर्मा ने एक फिल्म में एक्टिंग ही नहीं की, बनाई भी खुद थी. NH-10. मेरे पास शब्द नहीं इस फिल्म की तारीफ के लिए. ज़रूर देखें. और हाँ, मैं सिर्फ आलोचना करता हूँ. और समझ लीजिये, आलोचना शब्द का अर्थ गहन नज़र से देखना होता है, नुक्स निकालना नहीं. लोचन यानि नज़र का प्रयोग. शरीर की ही नहीं बुद्धि की नज़र का भी प्रयोग करना. तो देखिये यह फिल्म तन और मन की नज़रों को प्रयोग करते हुए, मेरे कहने पर.
The world seems to have No Future
Oscar wilde, Osho, Khushwant Singh and people like them, I respect them, I love them. Had the world listened to their words, it would have been far better. But the world has fallen into the hands of the rogues, marching towards collective suicide. There is no future, if everything goes on as it is going on.
Tuesday, 28 November 2017
मैं और धर्म
मैं सिरे का अधार्मिक व्यक्ति हूँ. किशोर-अवस्था से. गुरूद्वारे में ग्रन्थ-साहेब-जी-दी-ग्रेट के सामने किसी के मत्था टेके पैसे उठा लिए एक बार. फिर सोचा मन्दिर में हाथ आज़माया जाए, लेकिन कुछ हासिल न हुआ सिवा चरणामृत के.
बंगला साहेब गुरूद्वारे जाना होता है, परिवार की जिद्द की वजह से, मुझे सिर्फ दो चीज़ पसंद हैं.....एक कड़ाह प्रसाद, दूजा लंगर प्रसाद.
शनिवार को वो जो बर्तन में सरसों का तेल डाल के मंगते घूमते हैं न, उनमें से एक का तेल से भरा डोलू (बर्तन) ही धरवा लिया था मैंने.
मोहल्ले में भागवत कथा हो रही है.
मैं बीवी जी को कह रहा था, "मैं भी जा सकता हूँ क्या?"
बीवी ने कहा, "नहीं. हमने मोहल्ले भर से लड़ाई नहीं करनी."
"पंडित जी से पूछ तो लेता कि शंकर जी ने कौन सी विद्या से हाथी का सर इन्सान के धड़ से जड़ दिया था? पंडित जी की गर्दन काट कर भी ऐसा ही चमत्कार किया जा सकता है क्या? ट्राई करने में क्या हर्ज़ है? फिर सारी दुनिया उनकी भी पूजा करेगी. मॉडर्न गणेश जी. नहीं?"
"नहीं....नहीं."
"हनुमान जी तो उड़ते थे, जंगल-पहाड़ लाँघ जाते थे. ज़रा पंडी जी को भी दसवें माले से नीचे फेंक के देखते हैं, इन पर भी तो भगवान की कृपा होगी, आखिर दिन-रात भागवत जो करते हैं. नहीं?"
"नहीं....नहीं....नहीं."
भगवान आधी से ज्यादा आबादी के लिए सर-दर्द बना हुआ है. कोई आस्तिक है तो कोई नास्तिक. मुझे यह शब्द सुनते ही नींद आने लगती है. मुझे लगता है कि जिनके जीवन को मृत्यु का डर ढांप लेता है, वो ज्यादा रब्ब-रब्ब करते हैं, वरना जीवन से भरपूर व्यक्ति कहाँ चिंता करता है कि जीवन से पहले क्या था, जीवन के बाद क्या होगा? कौन पड़े इस बकवास में कि दुनिया किसी रब्ब ने बनाई कि किसी बिग-बैंग ने?
मुझे तो विश्वास करने में ही विश्वास नहीं है. लोग तो हिजड़ों तक की दुआ-बद्दुआ पर विश्वास करते हैं. डरते हैं. रेड-लाइट पर भीख की कमाई करने में सबसे आगे हिजड़े होंगें. कितने असली हैं या कितने उनमें से नकली, यह अलग शोध का विषय है.
शादी के बाद हिजड़े सुबह-सवेरे मेरे घर में शोर-शराबा कर रहे थे. माता-पिता जो दे रहे थे, वो उनकी नाक के नीचे नहीं आ रहा था. मैं उठा, प्यार से समझाया, जो उन्हें समझ न आया. कौन समझता है प्यार से? तुरत 100 नम्बर पर फोन कर दिया और बाहर आ कर हिजड़ों को बता दिया कि तुम से बड़े बदमाश आ रहे हैं, तुम्हें थोड़ा दान-दक्षिणा देने. हिजड़े शायद समझ गए, तुरत तितरी हो गए.
सड़क पर ढोल बजाती औरत, उसके साथ अपने जिस्म पर हंटर चलाता आदमी. सटाक....सटाक.
पैसे मांग रहे हैं, जैसे जिस्म पर हंटर नहीं कद्दू में तीर चल रहा हो.
मैंने कहा, "ला मैं लठ बजा दूं तेरे जिस्म पर, फिर ले जाना पैसे".
भाग गए.
मैं नितांत अधार्मिक व्यक्ति हूँ. रावण जलाने के लिए धन इक्कठा करने वालों को चवन्नी नहीं दी लेकिन एक अंकल जो बड़ी मेहनत से ट्रैफिक मैनेज कर रहे थे, उनको बुला कर सौ का नोट दे दिया.
कान-फोडू लाउड-स्पीकरों की मदद से ये जो धार्मिक कीर्तन-जागरण-अज़ान करते हैं लोग, इनको तो उम्र-कैद होनी चाहिए. नहीं?
ट्रैफिक रोक कर लंगर बांटने वाले, मीठा दूध पिलाने वाले धार्मिक हैं या अधार्मिक इसका फैसला भी समाज को करना चाहिए.
सड़क पर बैठ नमाज़ पढ़ते लोग और कांवड़ियों की आव-भगत के लिए लगे शिविर देखिये. कितना धार्मिक है यह सब. लेकिन मैं ही पता नहीं क्यों इतना अधार्मिक हूँ, जिसे इनको देख झुंझलाहट होती है?
इस्लाम में मोहम्मद साहेब जी दी ग्रेट को आखिरी पैगम्बर माना गया है अल्लाह ताला का. मतलब उनके बाद अल्लाह ने पैगम्बर भेजने वाली अपनी फैक्ट्री पर ताला जड़ दिया. यह कंसेप्ट मुझे कभी भी समझ ही नहीं आया. मेरी नज़र में जो भी दुनिया की बेहतरी का कोई पैग़ाम दे वो पैगम्बर है. आखिरी का तो सवाल ही नहीं. रोज़ नए पैगम्बर आते हैं और आते रहने चाहियें.
खैर, ऐसा नहीं कि मैं शुरू से ऐसा था. अगर आप ब्रूस-ली की फिल्म देख कर निकलो तो एक बार तो मन करता है कि उसी की तरह दो-चार लोग धुन दो. ऐसे ही बचपने में भगत प्रहलाद पर फिल्म देख मैं भी लगा नारायण-नारायण करने. घर के मन्दिर के सामने बैठा रहता घंटो. बस नारायण प्रकट हुए ही हुए. लेकिन फिर किशोर-अवस्था तक पहुँचते-२ जब किताबी दुनिया ने मेरे दिमाग में प्रवेश करना शुरू किया तो खराबा हो गया और मैं अधार्मिक किस्म का हो गया.
ये जो लड़ी-वार विशाल भगवती जागरण करवाते हैं लोग, या फिर साईं बाबा की चौकी, इन्हें देख मुझे लगता है कि मुल्क का यौवन बूढ़ा हो गया है. जवानी आई ही नहीं इन पर. मतलब इनकी सोच पर. बूढ़ी सोच ने इनको ढक लिया पूरी तरह से. इन्हें कोई वैज्ञानिक खोज नहीं करनी है, इन्हें कोई सामाजिक बेहतरी के प्रोग्राम में शामिल नहीं होना है, इन्हें जागरण-चौकियां और लीलाएं करवानी हैं बस.
"यूनान, मिश्र, रोम मिट गए सब जहाँ से, कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी. सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोसिताँ हमारा."
यह कोई गर्व की बात है कि यूनान और मिश्र ने तो अपनी पुरानी सभ्यता छोड़ दी लेकिन हमारा युवक आज भी उसे ढोए जा रहा है, जो उसके पुरखे-चरखे ढोते थे. यह गर्व नहीं शर्म का विषय है. यह यौवन यौवन है ही नहीं.
मेरी रूचि सिर्फ समाज की बेहतरी में है, लेकिन मैं तो नितांत अधार्मिक व्यक्ति हूँ, नक्कार-खाने की तूती हूँ, टूटी हुई टूटी हूँ. तुतियाता रहता हूँ, टिप-टिपाता रहता हूँ. कुछ समय पहले कुछ कवित्त जैसा लिखा था, हाज़िर है.
::: धर्म :::
धर्म का हिन्दू-मुस्लिम से क्या मतलब?
धर्म है कुदरत को धन्यवाद...
धर्म है खुद की खुदाई....
धर्म है दूसरे का सुख दुःख समझना.....
धर्म है दूसरे में खुद को समझना....
धर्म है विज्ञान ...
धर्म है प्रेम.....
धर्म है नृत्य.....
धर्म है गायन .....
धर्म है नदी का बहना....
धर्म है बादल का बरसना...
धर्म है पहाड़ों के झरने....
धर्म है बच्चों का हँसना......
धर्म है बछिया का टापना.....
धर्म है प्रेम-रत युगल......
धर्म है चिड़िया का कलरव......
धर्म का मोहम्मद से, राम से क्या मतलब?
धर्म का गीता से, कुरआन से क्या मतलब?
धर्म का मुर्दा इमारतों, मुर्दा बुतों से क्या मतलब?
धर्म है अभी....
धर्म है यहीं....
धर्म है ज़िंदा होना...
धर्म है सच में जिंदा होना....
धर्म का हिन्दू-मुस्लिम से क्या मतलब?
नमन.....तुषार कॉस्मिक
घर के पास वाले पार्क में घूमता हूँ तो अक्सर बुज़ुर्ग सामने से 'राम-राम' करते हैं. मैं 'नमस्ते जी' ही कहता हूँ. एक अंकल को मज़े-मज़े में 'रावण-रावण' कह दिया. पकड़ ही लिए मुझे.
"क्यों भई? यह क्या बोला जवाब में?"
"कुछ नहीं अंकल, वो रावण भी तो महान था न?"
"नहीं तो उसे राम के बराबर का दर्ज़ा दोगे क्या?"
"अंकल उसके दस सर थे. ब्राहमण था. अन्त में लक्ष्मण उससे ज्ञान लेने भी तो जाता है, तो थोड़ा सा सम्मान, थोड़ा सा क्रेडिट रावण को भी देना चाहिए कि नहीं?"
अंकल थोड़ा सोच में पड़ गए और मैं निकल लिया पतली गली से.
मृत्यु क्रिया में बैठ पंडित जी-भाई जी का क्रन्दन सुनना मुझे बेहोश कर जाता. "जीवन क्षण-भंगुर है, अस्थाई है." मैं सोचता जब जीवन इतना क्षण-भंगुर है, अस्थाई है तो मैं इसे इनकी बक-बक सुनने में क्यों बेकार करूं? वैसे ही इतना कम है जीवन. ऐसी क्रियाएं तकरीबन एक घंटे की होतीं हैं लेकिन अब आखिरी पांच मिनटों में ही एंट्री करता हूँ.
मृत्यु क्रिया में बैठ पंडित जी-भाई जी का क्रन्दन सुनना मुझे बेहोश कर जाता. "जीवन क्षण-भंगुर है, अस्थाई है." मैं सोचता जब जीवन इतना क्षण-भंगुर है, अस्थाई है तो मैं इसे इनकी बक-बक सुनने में क्यों बेकार करूं? वैसे ही इतना कम है जीवन. ऐसी क्रियाएं तकरीबन एक घंटे की होतीं हैं लेकिन अब आखिरी पांच मिनटों में ही एंट्री करता हूँ.
Sunday, 26 November 2017
नमन शहीदों को?
सीमा पर कोई जवान मरेगा, तो सरकारी अमला सलाम ठोकेगा उसकी लाश को, शायद उसे कोई तगमा भी दे दे मरणोंपरांत, हो सकता है उसके परिवार को कोई पेट्रोल पंप दे दे या फिर कोई और सुविधा दे दे. शहीदों को सलाम. नमन.
किसी दिन कूड़ा उठाने वाली निगम की गाड़ी न आई हो तो झट से कूड़े को ढक दिया जाता है, बहुत अच्छे से, ताकि बदबू का ज़र्रा भी बाहर न आ सके.
यह शहीदों का सम्मान-इनाम-इकराम सब वो ढक्कन है जो संस्कृति के नाम पर खड़ी की गई विकृति की बदबू को बाहर नहीं फैलने देता.
"ऐ मेरे वतन के लोगों ज़रा आँख में भर लो पानी जो शहीद हुए हैं उनकी ज़रा याद करो क़ुरबानी."
शहीद! वतन के लिए मर मिटने वाला जवान!! गौरवशाली व्यक्तित्व!!!
है न?
गलत.
कुछ नहीं है ऐसा.
जीवन किसे नहीं प्यारा? अगर जीवन जीने लायक हो तो कौन नहीं जीना चाहेगा? जो न जीना चाहे उसका दिमाग खराब होगा. और यही किया जाता है. दिमाग खराब. वतन के लिए शहीद हो जाओ.
असल में तुम्हारे सब शहीद बेचारे गरीब हैं, जिनके पास कोई और चारा ही नहीं था जीवन जीने का इसके अलावा कि वो खुद को बलि का बकरा बनने के लिए पेश कर दें.
एक मोटा 150 किलो का निकम्मा सा आदमी फौज में भर्ती होता है और जी जान से देश सेवा करता है। जी हाँ, शहीद होकर, वो और कुछ नहीं कर पाता लेकिन दुश्मन की एक गोली जरूर कम कर देता है.
तुमने-तुम्हारी तथा-कथित महान संस्कृति ने उन गरीबों के लिए कोई और आप्शन छोड़ा ही नहीं था सिवा इसके कि वो लेफ्ट-राईट करें और जब हुक्म दिया जाए तो रोबोट की तरह कत्ल करें और कत्ल हो जायें. बस.
तो अगली बार जब कोई जवान शहीद हो और उसे सम्मान दिया जाए तो कूड़े-दान के ऊपर पड़े ढक्कन को याद कीजियेगा.
कितने जवान अमीरों के, बड़े राजनेताओं के बच्चे होते हैं, कितने प्रतिशत, जो फ़ौज में भर्ती होते हों, जंग में सरहद पर लड़ते हों...शहीद होते हैं?
नगण्य.
यदि शहीद होना इतने ही गौरव की बात है तो क्यों नही आपको अम्बानी, अदानी, टाटा, बिरला आदि के बच्चे फ़ौजी बन सरहद पर जंग लड़ते, मरते दीखते?
यदि शहीद होना इतने ही गौरव की बात है तो क्यों नही आपको गांधी परिवार के बच्चे, भाजपा के बड़े नेताओं के बच्चे या किसी भी और दल के बड़े नेताओं के बच्चे फ़ौजी बन सरहद पर जंग लड़ते-मरते दीखते?
नहीं, इस तरह से शहीद होना कोई गौरव की बात नहीं है.
असल में यदि सब लोग फ़ौज में भर्ती होने से ही इनकार कर दें तो सब सरहदें अपने खत्म हो जायेंगी.
सारी दुनिया एक हो जायेगी.
लेकिन चालाक लोग, ये अमीर, ये नेता कभी ऐसा होने नहीं देंगे, ये शहीद को glorify करते रहेंगे, उनकी लाशों को फूलों से ढांपते रहेंगे, उनकी मूर्तियाँ बनवाते रहेंगे और खुद को और अपने परिवार को AC कमरों में सुरक्षित रखेंगे.
समझ लें, असली दुश्मन कौन है, असली दुश्मन सरहद पार नहीं है, असली दुश्मन आपका अपना अमीर है, आपका अपना सियासतदान है.
वो कभी आपको गरीबी से उठने ही नही देगा, वरना आप अपने बच्चे कैसे जाने देंगे फ़ौज में मरने को.
वो कभी आपको असल मुद्दे समझ आने नही देगा, वरना आप अपने बच्चे कैसे जाने देंगे फ़ौज में मरने को.
लेकिन यहाँ सब असल मुद्दे गौण हो जाते हैं, बकवास मुद्दों से भरा रहता अखबार-सारा संसार. और यह भी साज़िश है, साज़िश है इन्ही लोगों की है.
अभी-अभी एक अंग्रेज़ी फिल्म देखी थी हंगर गेम्स, उसमें ट्रेनर अपनी शिष्या को समझाता है कि हर दम ध्यान रखो, असली दुश्मन कौन है क्योंकि असली दुश्मन बहुत से नकली दुश्मन पेश करता है और खुद पीछे छुप जाता है इनके .
मेरा भी आपसे यही कहना है कि ध्यान रखें असली दुश्मन कौन है.
"इक साज़िश है, गरीब गरीब ही रहें
गरीब ही रहें, तभी तो कमअक्ल रहेंगे
गरीब ही रहें, तभी तो गटर साफ़ करेंगे
गरीब ही रहें, तभी तो फ़ौजी बन मरेंगे
गरीब ही रहें, तभी तो जेहादी बनेंगे
इक साज़िश है, गरीब गरीब ही रहें
और सब शामिल हैं
सियासत शामिल है
कारोबार शामिल है
तालीम शामिल है
मन्दिर शामिल है
मस्जिद शामिल है
इक साज़िश है, गरीब गरीब ही रहें
कब कोई बच्चा गरीब पैदा होता है
कब कोई कुदरती फर्क होता है
इक सारी उम्र एश करे
दूजा घुटने रगड़ रगड़ मरे
इक सवार, दूजा सवारी
इक मजदूर, दूजा व्योपारी
इक साज़िश है, गरीब गरीब ही रहें"
अब तुम भी जागो. विचारों. अक्ल का घोडा दौड़ाओ.
कोई ठेका नहीं लिया कुछ चुनिन्दा लोगों ने शहीद होने का.
तुम तो अपने बकवास सदियों पुराने विचार शहीद करने को तैयार नहीं ....ज़रा सी चोट पड़ते ही....लगते हो चिल्लाने ...लगते हो बकबकाने...गालियाँ देने.
और दूसरे कोई लोग होने चाहिए जो अपने आप को शहीद करें और तुम पूजोगे बाद में अपने शहीदों को.
तुम उनकी मूर्तियाँ बना के पूजा करने का नाटक करते रहोगे.
नहीं, कुछ न होगा ऐसे ...ये सब नहीं चलना चाहिए........तुम्हे बलि देनी होगी अपने विचारों की.....तुम्हें शहीद करना होगा अपनी सड़ी गली मान्यताओं को.
कोई फायदा न होगा व्यक्ति शहीद करने से.
फायदा होगा विचार शहीद करने से...फायदा होगा समाज की, हम सब की कलेक्टिव सोच ..जो सोच कम है अंध विश्वास ज़्यादा...उस सोच पे चोट करने से...फायदा होगा इस अंट शंट सोच को छिन्न भिन्न करने से.
फायदा होगा धर्म के नाम पे, राजनीती के नाम पे, कौम के नाम पे, राष्ट्र के नाम पे और नाना प्रकार के विभिन्न नामों पे जो वायरस इंसानों में, आप में , मुझ में, हम सब में पीढी दर पीढी ठूंसे गए हैं, उन वायरस के विरुद्ध जंग छेड़ने से.
फायदा होगा विचार युद्ध छेड़ने से....फायदा होगा तर्क युद्ध छेड़ने से...फायदा होगा जब यह युद्ध गली गली, नुक्कड़ नुक्कड़ छेड़ा जाएगा.
बाक़ी आयें और दोस्तों को भी लायें, मैं सिर्फ बातें करने में यकीन नही करता, ज़मीनी काम करने में भी यकीन है..स्वागत है.
नमन...तुषार कॉस्मिक
यादें बचपन की
तूने खाया, मैंने खाया एक ही बात है." और अपनी पसंद की चीज़ माँ मेरे मुंह में ठूंसती जाती थी.
आज काजू लाते हैं तो मैं श्रीमति को कहता हूँ, "मुझ से छुपा के रख दो, बच्चों को पसंद हैं, वो खायेंगे."
यादें
बहुत छोटा था तो कभी-कभार पानी में नमक-मिर्च डाल कर बासी रोटी के साथ भी खिलाई ममी ने.......हमारा परिवार वैसे अच्छा खाता-पीता था लेकिन अब लगता है कि शायद कुछ लोग सब्जी अफ्फोर्ड नहीं कर पाते होंगे तो ऐसे भी खाना खाते होंगे.......वैसे रोटी के घुग्घु में नमक और लाल मिर्च डाल करारा सा बना के भी ममी देतीं थीं कभी-कभी ...शायद तब ज़िन्दगी बेहतर थी....हम आगे जाने की बजाये बहुत मानों में पीछे सरक गए हैं......लेकिन हो सकता है मेरी सोच ही बासी हो, उन बासी रोटियों की तरह......जैसे बच्चे हर त्योहार पर उल्लसित होते हैं लेकिन घिसे लोगों को लगता है, "अब दिवाली पहले जैसे नहीं रही." "अब लोग होली वैसे जोश-खरोश से नहीं मनाते."
Thursday, 23 November 2017
सरकता सरकारी अमला
एक बदतमीज़-नाकारा से सरकारी क्लर्क की तनख्वाह पचास हज़ार रूपया महीना हो सकती है. शायद ज़्यादा भी.
आपको नहीं लगता कि सरकार सरकारी नौकरों को जितनी तनख्वाहें, भत्ते, सुविधाएं दे रही है उस पर 'अँधा बांटे रेवड़ी, मुड़-मुड़ अपनों को दे' वाली कहावत चरितार्थ है?
खुली मंडी में इस तरह के लोगों को कोई दस हज़ार रुपये महीने की सैलरी न दे. असल में तो नौकरी ही न दे, ऐसे लोगों को कोई.
कहते हैं कि गोरे अँगरेज़ चले गए, काले अँगरेज़ आ गए. ये हैं वो काले अँगरेज़. इन सरकारी लोगों का क्या व्यवहार है जनता के प्रति? ये कोई जनता के नौकर हैं? जनता इन की नौकर है.
"साहेब मीटिंग में है. साहेब, सिगरेट फूंक रहे हैं. साहेब, मूतने गए हैं. तुम खड़े रहो. लाइन सीधी होनी चाहिए."
मौज ही मौज. रोज़ ही रोज़. एक बार नौकरी मिल जाए तो व्यक्ति सरकार का जंवाई बन जाता है. निकाल कोई सकता नहीं. जीरो एकाउंटेबिलिटी. कौन नहीं चाहेगा ऐसी नौकरी?
बहुत लोग तो घर ही बैठे रहते हैं, बस तनख्वाह लेने जाते हैं. पता नहीं कैसे करते हैं मैनेज? पर करते हैं.
बहुत जो पचास-साठ हज़ार रुपये माह सैलरी लेते हैं, उन्होंने आगे पांच-दस हज़ार रुपये महीना सैलरी पे बंदे रखे हैं, जो उनका काम निपटाते हैं.
वाह! कौन नहीं चाहेगा ऐसी नौकरी में आरक्षण?
दुधारू गाय.
नहीं, नहीं कामधेनु.
ऐसे लोगों को जो मोटी-मोटी भर-भर के सैलरी दी जाती है, वो जनता का पैसा है. तो क्या जनता से एक बार पूछ नहीं लेना चाहिए कि भई इनको इतनी तनख्वाह देनी भी चाहिए कि नहीं? sms से ही पुछवा लो.
वैसे यह कोई सरकारी आयोग ही तय करता है कि इन निखट्टूओं को कितना पैसा मिलना चाहिए. पे कमीशन. वो सिर्फ 'दे कमीशन' है. वो क्यूँ कहेगा कि सैलरी कम होनी चाहिए? वो खुद सरकारी नौकर है. उसकी खुद की तनख्वाह कम नहीं हो जायेगी? वो तो हर बार इनकी तनख्वाह बढ़वा देगा.
इनको ठीक करने का एक तरीका तो यह है कि जनमत लिया जाए कि इनको सैलरी कितनी मिले.
दूसरा है कि इनको CCTV तले काम कराया जाए. इनको Wearable movie Camera पहनाया जाये, जिससे इनकी हर वक्त की रिकॉर्डिंग पब्लिक को मिल सके. मतलब जब तक दफ्तर में हैं या दफ्तरी काम में हैं. कल-परसों ही सुप्रीम कोर्ट ने बोला न कि सब कोर्ट-रूम में CCTV लगाओ. वहां कुछ भी ऐसा नहीं है जो निजी हो. अच्छा बोला है, लेकिन बहुत देर से बोला है. CCTV को आये दशकों हो है, इनको अब याद आ रहा है कोर्ट-रूम में लगवाना. बहुत देर कर दी साहेब आते-आते. वैज्ञानिक तकनीक ईजाद कर चुकता है, सरकारी अमला उसे अमल में लाने में चूक जाता है, चूँकि उसके छिपे मतलब हैं. जितना सिस्टम पारदर्शी होता जाएगा, उतना ही हेरा-फेरी करना, हराम-खोरी करना उसके लिए मुश्किल जो हो जायेगा. खैर, सुप्रीम कोर्ट को फिर भी धनिया-वाद, पुदीना-वाद. देर आये दुरुस्त आये. आये तो सही.
तीसरा है कि अगर कोई सरकारी नौकर जनता से बेहूदगी करता पाया जाये, काम की टाल-मटोल करता पाया जाये, गैर-हाज़िर पाया जाये तो उसकी सैलरी कटनी शुरू हो जानी चाहिए. और फिर बर्खास्तगी में भी बहुत देर नहीं लगानी चाहिए. अगला बन्दा आपको और सस्ता मिलेगा. वैसे आज भी आधी सैलरी पर मैं अधिकांश सरकारी नौकरों को बदल सकता हूँ. इसी मुल्क से नए लोग आने को तैयार हो जायेंगे और इनसे बेहतर काम करेंगे. अगर उनसे बेहतरी से काम लिया जाये तो. खेत में खुल्ले सांड की तरह छोड़ देंगे तो वो भी राजा बन जायेंगे और जनता उनकी प्रजा, नौकर.
वक्त आ गया है. सबको समझाने का कि सरकार-सरकारी नौकर सब जनता के नौकर हैं. सबके गले में घंटी बांधने का वक्त आ गया है. सबको कैमरा के नीचे लाने का वक्त आ गया है.
नमन...तुषार कॉस्मिक
Wednesday, 22 November 2017
मोदी का विकल्प
मोदी विदा होना चाहिए लेकिन फिर क्या राहुल आना चाहिए? राहुल गाँधी (?) भारत को दिशा देगा? उसे आँखों पे पट्टी बांध के खेत में खड़ा कर दो और तीन बार गोल घुमा दो, वापिस आँख खोलने पे उसे खुद पता न लगे कि कौन सी दिशा में खड़ा है. पीछे वंश न हो और धन न हो तो पंचायत का चुनाव न जीत पाए. तो मितरो, आपका अगला प्रधान-मंत्री फिर कौन होना चाहिए. जवाब है---मैं यानि तुषार कॉस्मिक. या फिर आप खुद. हमारा मुल्क है. जनतंत्र की परिभाषा के मुताबिक हम में से कोई भी प्रधान-मंत्री, मुख्य-मंत्री, MP, MLA कुछ भी बन सकता है. तो जब कोई पूछे कि मोदी का, राहुल का विकल्प कौन है तो कहिये, "मैं हूँ".
Monday, 20 November 2017
भारतीय संस्कृति -- एक लाश
जब तक यह तथा-कथित भारतीय संस्कृति जो सिर्फ एक लाश भर है, इसे विदा नहीं करेंगे, भारत की आत्मा मुक्त न होगी. यह विदा हो ही जाती, लेकिन आरएसएस ने इस लाश को भारतीय मनस पर जबरन लाद रखा है. आरएसएस को डर है कि कहीं कोई और लाशें भारत की आत्मा पर सवार न हो जायें. कहीं इस्लाम हावी न हो जाये, कहीं ईसाइयत हावी न हो जाये. सो अपनी लाश को सजाते-संवारते रहो. स्वीकार ही मत करो कि यह लाश है. पंजाब में एक बाबा गुज़र चुके हैं, दिव्य-जाग्रति वाले आशुतोष जी महाराज, लेकिन उनके चेले-चांटे स्वीकार ही नहीं कर रहे कि वो मर चुके हैं. लाश को डीप-फ्रीज़र में रख रखा है. "मेरे करण-अर्जुन आयेंगे." बाबा जी शीत-निद्रा में हैं. उनकी आत्मा विचरण कर रही है. किसी भी वक्त वापिस शरीर में प्रवेश करेगी और वो उठ खड़े होंगे. वाह! नमन है, ऐसी भक्ति को. मिश्र में लाशों का ममी-करण क्या है? लाशों के प्रति मोह.
अब जब कोई न मानने को तैयार हो तो बहुत मुश्किल है उसे कुछ भी मनाना. मुझे याद है, कॉलेज का ज़माना था. मेरा एक दोस्त था. जसविंदर सिंह. जट फॅमिली से था. बड़ा घर था उसका. हमारे लिए एक अलग ही कमरा था, हम लोग वहीं जमते थे. घंटो बैठे रहते थे. सबको फलसफे गढ़ने का शौक था. बहस भी होती थी. वो डंडा लेकर बैठ जाता. कहता, "बोल, मेरी गल्ल मन्नेंगा कि नहीं." हम हंसते हुए कहते, "मन्न लई, बई मन्न लई."
जब तक लट्ठ लेकर कोई मनायेगा नहीं, तब तक ये संघी-मुसंघी मानने वाले हैं नहीं. और वो लट्ठ एक ही लोग पकड़ सकते हैं. वो है भारत का Intelligentsia. आज ज़रूरत है, बहुत-बहुत ज़रूरत है कि भारत का Intelligentsia इन सब लाशों के खिलाफ खड़ा हो. आग बन जाये ताकि इन सब लाशों को फूंका जा सके. सबको विदा किया जा सके.
और यह काम कोई नेता या खबर-नवीस लोगों ने नहीं करना है. नेता तो जिंदा ही इस संस्कृति की लाश की नोच-खसोट पर है. और खबर-नवीस भी कबर-नवीस है. अगर आपको लगता भी है कि वो सही बात कर रहा है तो भी वो बहुत काम की नहीं है, चूँकि वो गहरी बात नहीं है. जब तक समस्याओं को गहराई तक न समझा जाये, उनके हल जैसे हल न मिलेंगे.
दिल्ली में शीला दीक्षित ने बहुत से पुल बना दिए सडकों पर. उससे क्या हुआ? ट्रैफिक का बहाव पहले से बेहतर हो गया क्या? कुछ नहीं हुआ. और गाड़ियाँ आ गईं. आज भी दिल्ली की सड़क पर बीस किलोमीटर कार चलाने के बाद ऐसा लगता है जैसे किसी से हाथा-पाई कर के आ रहे हों. केजरीवाल ने ओड-इवन चलाया. क्या हुआ? सड़कों पर भीड़ कम दिखी, लेकिन मेट्रो में बढ़ गई. ये कोई हल हैं? गहरे में जाये बिना, कुछ हल न होगा और गहरे में आप तभी जा सकते हो, जब संस्कृति नामक लाश को विदा करने की हिम्मत हो.
जब तक पुराने को विदा न करेंगे, नया कैसे पैदा करेंगे? कार में एक होता है 'रियर-व्यू मिरर'. पीछे देखना ज़रूरी है लेकिन सिर्फ आगे बढ़ने के लिए. बस. इतिहास का इतना ही मतलब है. इतिहास का बस प्रयोग करना है, इतिहास से बस सीखना है. इतिहास को पकड़-जकड़-धकड़ के नहीं बैठना है.
वैसे भी इतिहास में कितना इतिहास है, यह कभी पता नही लगता, सो इतिहास के प्रति ज़्यादा सीरियस न ही हुआ जाये तो ही बेहतर है. फिर हर पल नया इतिहास बन रहा है. कहाँ तक पुरातनता को लादे रखेंगे? History should be used and there-after must be thrown away. Use & Throw.
तो मित्रगण, इतिहास की ज़ंजीरों से जकड़े पाँव मैडल नहीं ला सकते. जो पुरखों और चरखों को अपनी और अपने बच्चों की छातियों पर लादे बैठे हैं, वो भविष्य के कल-कारखानों की कल्पना भी कैसे करेंगे?
आँखें पीछे नहीं दीं कुदरत ने, आगे ही दीं हैं. हाँ, इन्हीं आँखों से कभी-कभार पीछे भी मुड़ के देखा जा सकता है लेकिन उल्टा कोई नहीं चलता, पीछे को कोई नहीं चलता. सुना होगा आपने कि भूतों के पैर पीछे को होते हैं. बहुत गहरी बात है. भूत का अर्थ ही है, जो बीत गया, जिसका वर्तमान या भविष्य से कोई सम्बन्ध ही न हो, तो निश्चित ही उसके पैर पीछे को ही होंगे. उसे आगे थोड़ा न चलना है. वो तो है ही भूत. वो तो अग्रगामी हो ही नहीं सकता.
आपको देखना है कि कहीं आपके पैर पीछे को तो नहीं, कहीं आप भूत तो नहीं.
इतिहास और अंडर-वियर बदलते रहना चाहिए और जल्दी-जल्दी बदलते रहना चाहिए वरना बीमार करना शुरू कर देंगे.
जिस इतिहास की एक्सपायरी डेट न हो, वो घातक है.
कितना ही शानदार खाना बना हो, चाहे फ्रिज में ही क्यों न रखा हो, लेकिन एक समय बाद बेकार हो जायेगा.
कार में एक हेड-लाइट है और एक टेल-लाइट. अब आप टेल-लाइट से हेड-लाइट का काम लेंगे, तो एक्सीडेंट ही करेंगे.
बाबरी मस्ज़िद ही नहीं, राम मन्दिर को भी गिराए जाने की ज़रूरत है. कुरआन ही नहीं, पुराण भी विदा करने हैं. सब कचरा है. लाशें हैं. संस्कृति के नाम पर विकृति.
जीरो से सब शुरू करने से मतलब नहीं है, आग और पहिये को पुन: आविष्कृत करने से मतलब नहीं है लेकिन बचाना सिर्फ वो चाहिए, जो विज्ञान-सम्मत हो, जो कला-सम्मत हो. जो वैज्ञानिक हो, जो कलात्मक हो. जो ध्यान-सम्मत हो. जो शांति-सम्मत हो.
कबीरा खड़ा बाज़ार में, लिए लुकाठी हाथ,
जो घर फूंके आपणा, चले हमारे साथ.
लेकिन आज कबीर को हाथ में लट्ठ नहीं मशाल लेनी है, जो इस संस्कृति नाम की लाश को फूंक सके. यह लाश सड़ रही है, बदबू मार रही है. समाज को बीमार कर रही है.
ज़रा कल्पना करें कि किसी टापू पर कुछ बच्चे छूट गए हों और फिर वो वहीं पल-बढ़ चुके हों, ऐसा टापू जहाँ खाने-पीने रहने की सब सुविधा हो, जहाँ सब आज का विज्ञान भी मौजूद हो. बस किसी धर्म, किसी संस्कृति, किन्हीं पुरखों-चरखों का बोझ नहीं हो. ऐसे बच्चे क्या वापिस हमारी दुनिया में आना चाहेंगे? उन्हें हमारी दुनिया में लाना क्या वाज़िब भी होगा?
क्या हमारी ही दुनिया उस टापू जैसी नहीं बन जानी चाहिए? अगर आपका जवाब "हाँ" है तो आपको एक्शन लेने की ज़रूरत है, वो भी तुरत.
नमन..तुषार कॉस्मिक
Sunday, 19 November 2017
पद्मावती फिल्म का विरोध
मैं तो नहीं, लेकिन मेरे इर्द-गिर्द घर-परिवार-समाज हिन्दू है और सब कह रहे हैं कि यह पद्मावती फिल्म का विरोध करने वाले बावले हैं. हमारी बला से. वो कथा है या इतिहास यह भी नहीं पता...और अगर इतिहास है भी, तो उसमें कितना इतिहास है, यह भी नहीं पता.....और इतिहास से भंसाली की कहानी कितनी अलग है, यह भी नहीं पता....कव्वा कान ले गया वाली मसल है यह.....असल मुद्दों से... असल समस्या गरीबी, भुखमरी, बेकारी, बेकार न्याय-व्यवस्था, सरक-सरक कर चलती हर सरकारी बे-वस्था से ध्यान हटा कर बकवास मुद्दों में उलझाने की साज़िश. कौन जाने सात सौ साल पहले क्या हुआ था? यहाँ कल का पता नहीं लगता, जितना मुंह, उतनी बातें होती हैं. अगर कत्ल हो जाये तो कोर्ट को बीस साल लग जायेंगे फैसला देने में कि कातिल कौन था और फिर अगले बीस साल बाद हो सकता है कि कोई साबित कर दे कि कोर्ट का फैसला गलत था. None killed Jessica. None killed Arushi. और ये चले हैं सदियों पहले के मुद्दों पर लड़ाई करने. इतिहास-मिथिहास के लिए वर्तमान खराब करने वाले पागल होते हैं. भूतकाल की लड़ाई भूत लड़ते हैं. मुर्दा लोग. जिंदा लाशें. भूतकाल की लड़ाई वो ही लड़ते हैं, जिनका वर्तमान बकवास होता है और भविष्य ना-उम्मीद. इडियट....
भाई कन्हैया
देखिये, मैं इस्लाम के खिलाफ हूँ..लेकिन ऐसे तो फिर मैं हिंदुत्व के भी खिलाफ हूँ और दुनिया के हर दीन-धर्म-मज़हब के खिलाफ हूँ जो माँ के दूध के साथ पिला दिया जाता है तो इसका मतलब क्या यह है कि मैं दुनिया के हर शख्स के खिलाफ हूँ चूँकि अधिकांश तो किसी न किसी दीन-धर्म को मानने वाले ही हैं.
नहीं.
मैं एक मुसलमान के हित लिए भी उतना ही भिड़ जाऊँगा, जितना कि किसी हिन्दू के लिए. असल में मैं हिन्दू-मुस्लिम देखूँगा ही नहीं.
आपको भाई कन्हैया याद दिलाता हूँ. गुरु गोबिंद सिंह को शिकायत की कुछ लोगों ने कि भाई कन्हैया युद्ध में घायल सिपाहियों को पानी पिलाता है तो दुश्मन के घायल सिपाहियों को भी पिलाता है.
सही शिकायत थी. एक तरफ़ सिक्ख योद्धा जी-जान से लड़ रहे थी, दूजी तरफ भाई कन्हैया दुश्मनों को पानी पिला रहा था.
गुरु साहेब ने क्या कहा? गुरु साहेब ने कहा कि भाई कन्हैया सही कर रहा है. मुझे ठीक-ठीक शब्द पता नहीं है. लेकिन मतलब शायद यही था कि सब में एक ही नूर है. हम सब एक ही हैं.
मारना गुरु साहेब के लिए कोई शौक नहीं था. मज़बूरी थी, अन्यथा तो वो दुश्मन में भी वही "नूर" देख रहे थे और वही नूर भाई कन्हैया भी देख रहा था.
यह एक बहुत ही विरोधाभासी स्थिति थी. बहुत ही विरोधाभासी विचार-धारा थी. लेकिन ज़रा सा गहरे में जायेंगे तो साफ़-साफ दिखने लगेगा.
बहुत बार हम कोई फिल्म देखते हैं तो उसका कोई एक सीन बहुत प्रभावित कर जाता है. जैसे 2012 नामक हॉलीवुड फिल्म के आखिरी में एक बाप को पता होता है कि वो या तो खुद बचेगा या उसके बच्चे. तो वो अपने दोनों बच्चों को बचाता है और खुद मारा जाता है.
सुष्मिता सेन की एक फिल्म के अन्त में वो अपने गोद लिए बेटे के लिए अपना दिल दे जाती है आत्म-हत्या करके.
ऐसे ही मुझे यह भाई कन्हैया वाला एपिसोड बार-बार याद आता है. बार-बार कुछ समझता है, कुछ सिखाता है. यह एपिसोड मुझे गुरु गोबिंद सिंह की संत-सिपाही वाली थ्योरी का प्रैक्टिकल लगता है.
वाह! गोबिंद सिंह जी. वाह! भाई कन्हैया जी. नमन.
तुषार कॉस्मिक
नहीं.
मैं एक मुसलमान के हित लिए भी उतना ही भिड़ जाऊँगा, जितना कि किसी हिन्दू के लिए. असल में मैं हिन्दू-मुस्लिम देखूँगा ही नहीं.
आपको भाई कन्हैया याद दिलाता हूँ. गुरु गोबिंद सिंह को शिकायत की कुछ लोगों ने कि भाई कन्हैया युद्ध में घायल सिपाहियों को पानी पिलाता है तो दुश्मन के घायल सिपाहियों को भी पिलाता है.
सही शिकायत थी. एक तरफ़ सिक्ख योद्धा जी-जान से लड़ रहे थी, दूजी तरफ भाई कन्हैया दुश्मनों को पानी पिला रहा था.
गुरु साहेब ने क्या कहा? गुरु साहेब ने कहा कि भाई कन्हैया सही कर रहा है. मुझे ठीक-ठीक शब्द पता नहीं है. लेकिन मतलब शायद यही था कि सब में एक ही नूर है. हम सब एक ही हैं.
मारना गुरु साहेब के लिए कोई शौक नहीं था. मज़बूरी थी, अन्यथा तो वो दुश्मन में भी वही "नूर" देख रहे थे और वही नूर भाई कन्हैया भी देख रहा था.
यह एक बहुत ही विरोधाभासी स्थिति थी. बहुत ही विरोधाभासी विचार-धारा थी. लेकिन ज़रा सा गहरे में जायेंगे तो साफ़-साफ दिखने लगेगा.
बहुत बार हम कोई फिल्म देखते हैं तो उसका कोई एक सीन बहुत प्रभावित कर जाता है. जैसे 2012 नामक हॉलीवुड फिल्म के आखिरी में एक बाप को पता होता है कि वो या तो खुद बचेगा या उसके बच्चे. तो वो अपने दोनों बच्चों को बचाता है और खुद मारा जाता है.
सुष्मिता सेन की एक फिल्म के अन्त में वो अपने गोद लिए बेटे के लिए अपना दिल दे जाती है आत्म-हत्या करके.
ऐसे ही मुझे यह भाई कन्हैया वाला एपिसोड बार-बार याद आता है. बार-बार कुछ समझता है, कुछ सिखाता है. यह एपिसोड मुझे गुरु गोबिंद सिंह की संत-सिपाही वाली थ्योरी का प्रैक्टिकल लगता है.
वाह! गोबिंद सिंह जी. वाह! भाई कन्हैया जी. नमन.
तुषार कॉस्मिक
Saturday, 11 November 2017
कहते हैं कि शिक्षार्थी तो सीखता ही है, सिखाते हुए शिक्षक भी सीखता है. यह मैंने सोशल मीडिया पर लिखते हुए बहुत महसूस किया. मैंने अपने विचार, अपनी ओपिनियन, अपने जीवन की घटनाएं लिखी हैं. बहुत कुछ ज़ेहन में था तो सही, लेकिन वो उतना क्लियर नहीं था जितना लिखते-लिखते हो गया और फिर आप मित्रों के कमेंट ने उस सोच को और निखार दिया. धन्यवाद सोशल मीडिया का और आप सब मित्रों का जो पढ़ते हैं और अपने विचार भी लिखते हैं.
बड़ा ही प्यारा जानवर था, मालिक भी उसे बहुत प्यार करता था, उसे भी मालिक पर पूरा विश्वास था. मालिक कभी उसे चोट नहीं पहुँचने देता था. खूब खिलाता-पिलाता था.
फिर कुलदेवता का उत्सव दिवस आया. मालिक ने उसे बलि चढ़ा दिया और उसका मांस मालिक के परिवार ने चाव से खाया.
असल में जानवर 'जनता' है, कुलदेवता का उत्सव दिवस 'वोटिंग दिवस' है और मालिक 'नेता' है.
Wednesday, 8 November 2017
दिल्ली वालों को समझ ही नहीं आया कि उन्हें केजरीवाल को चुनने की सजा दी जा रही है. मूर्खों ने फिर से MCD में भाजपा को चुन लिया. पहले ही कूड़ेदान थी दिल्ली अब कूड़ाघर बना गई और ऊपर से गैस चैम्बर भी....वैसे भी संघ हिटलर में यकीन रखता है. न समझोगे तो मिट जाओगे ए हिंदुस्तान वालो, तुम्हारी बरबादियों के चर्चे हैं हवाओं में. धुयें से भरी हवाओं में.
Sunday, 22 October 2017
Friday, 20 October 2017
शब्द
"अरे भाई, एक सेल्फी खींचना मेरी."
"समय चार बजे, तिथी बीस, नवम्बर दो हज़ार सत्रह को हमारे यहाँ मुख्य अतिथि होंगे श्रीमान महादेव प्रसाद."
"हमारे इलाके की MCD चेयरमैन चुनी गईं श्रीमति बिमला देवी."
"प्रतिभा पाटिल हमारी राष्ट्रपति थीं."
सेल्फी सेल्फ यानि खुद की खुद ही लेना है. लेना मतलब फोटो. मैं कोई हस्त-मैथुन की बात नहीं कर रहा. तो कोई और कैसे ले सकता है? कोई और लेगा तो फिर यह सेल्फी कैसे होगी? है कि नहीं? "एक सेल्फी खींचना मेरी." इडियट!
तिथी छोड़ो, समय तक निश्चित है, फिर भी 'अतिथि'!
स्त्री हैं फिर भी "चेयरमैन"! और स्त्री हैं फिर भी पति! 'चेयर-वुमन' कहने में शर्म आती है तो शब्द प्रयोग होता है चेयर-पर्सन. लेकिन 'राष्ट्र-पत्नी' तो अभी कोई शब्द घड़ा ही नहीं गया. क्या करें? हाय-हाय ये मज़बूरी. राष्ट्र का पति कोई हो जाये, यह तो बरदाश्त है, लेकिन पत्नी! यह तो शोचनीय, शौचनीय है.
कैसे शब्दों का उल्ट-पुलट प्रयोग करते हैं हम, ये कुछ मिसाल हैं.
बहुत पहले एक नाटक देखा था बॉबी भाई के साथ. पता नहीं उनको याद होगा या नहीं. "मिर्ज़ा ग़ालिब इन दिल्ली." एक सीन था उसमें, ग़ालिब आते हैं दिल्ली और उनको तांगा पकड़ना है कहीं पहुंचने को. तो वो स्टैंड पर खड़े हैं और टाँगे वाला आवाज़ लगा रहा है, "दो रुपये सवारी, दो रुपये सवारी." अब ग़ालिब तो ग़ालिब. वो अड़ गए, "भैया हम 'सवार' हैं, 'सवारी' तो आपका तांगा है." उसे समझ नहीं आया. वो फिर शुरू, "दो रुपये सवारी, दो रुपये सवारी...." तो ऐसे ही बकझक चलती है.
दो शब्द हैं भैया....पंजाब में इसका अर्थ 'ब्रदर' नहीं है. इसका अर्थ है पूरबिया/ लेबर/ बिहारी/ .
और ब्रदर के लिए जानते हैं क्या शब्द है पंजाब में? "वीर". जिसका असली मतलब है बहादुर.
"वेस्ट बंगाल" भारत का पूर्वी राज्य है. है पूरब में लेकिन नाम है 'पश्चिम बंगाल'. कभी रहा होगा बंगाल का हिस्सा तो ठीक ही था नाम, पश्चिमी बंगाल. लेकिन आज तो भारत का हिस्सा है, फिर भी नाम पुराने चलते रहते हैं. आप रखते रहो नाम बदल के राजीव गांधी चौक, लेकिन आज भी लोग "कनाट प्लेस" बोलते हैं. मैंने किसी को महात्मा गाँधी मार्ग या हेडगवार मार्ग बोलते नहीं देखा, लोग आज भी रिंग रोड़ और आउटर रिंग रोड़ ही बोलते हैं. पंजाब पंज आब यानि पांच नदियों वाला प्रदेश था. अब उसके पल्ले बस दो नदियाँ रह गई हैं, वो अब दुआबा है लेकिन हम तो आज भी पंजाब ही बोलते हैं. पुराना पकड़ लेता है तो बस जकड़ लेता है, छोड़ता ही नहीं.
'सौराष्ट्र' आज गुजरात का हिस्सा है, इसके नाम से लगता है कि किसी समय यह अपने आप में एक राष्ट्र माना जाता होगा, 'सुराष्ट्र', अच्छा राष्ट्र. असल में ऐसे और भी छोटे-छोटे राष्ट्र हुआ करते होंगे, तो उन्हीं में से कुछ का जोड़ बना होगा 'महाराष्ट्र', जो आज भारत राष्ट्र का एक प्रदेश है. राष्ट्र में महाराष्ट्र. छोटे डिब्बे में बड़ा डिब्बा! और फिर गुजरात शायद गूजरों का ही राष्ट्र रहा हो, नहीं? शब्द बहुत कहानी कह देते हैं.
अंग्रेज़ी का शब्द है 'राशन'. इसका अर्थ क्या समझते हैं हम? दाल, चावल, चीनी, गेहूं. यही न? लेकिन नहीं है इस शब्द का यह मतलब. राशन शब्द का अर्थ है 'कुछ ऐसा' जिसे सीमित कर दिया गया हो. राशन कार्ड से जो सामान मिलता है वो सीमित मात्रा में ही मिलता है. लेकिन अगर हम कहीं भी और से दाल, चावल, चीनी, गेहूं लेंगे तो वहां तो कोई राशनिंग नहीं है. लेकिन हम अधिकांशत: वहां भी "राशन" ही लेते हैं.
'स्वस्थ' शब्द को हम हेल्दी व्यक्ति के लिए प्रयोग करते हैं, लेकिन अर्थ है इसका, स्वयं में स्थित, स्व-स्थ. ध्यान का अर्थ है ध्यान पर ध्यान. लेकिन ध्यान पर दुनिया-जहाँ की बकवास है. और स्वास्थ्य के तो पता नहीं क्या अर्थ-अनर्थ हैं?
शब्दों पर ध्यान दीजिये, बहुत कहानी शब्द ही खोल देते हैं. 'दीदी' शादी के बाद 'जीजी' हो जाती हैं चूँकि अब सम्बन्ध जीजा के ज़रिये है. जीजा प्रमुख हो गए. 'जीजा जी' के आगे भी 'जी' है और पीछे भी 'जी' है, मतलब आपको सिर्फ उनके लिए 'जी' ही 'जी' करनी है.
अंग्रेज़ी का ही शब्द है 'हसबैंड'. कहते हैं 'हसबैंडरी' से आया है, जिसका अर्थ है खेती-बाड़ी. तो कुल जमा मतलब यह कि कहीं-न-कहीं पति का कंसेप्ट खेती-बाड़ी से जुड़ा है. खेती आई तो पीछे-पीछे पति भी आ गया.
'हरामज़ादा' शब्द हरम में पैदा हुए बच्चों के लिए प्रयोग हुआ लगता है. मतलब वो बच्चे, जिनकी माताएं बादशाह की रानियाँ नहीं थीं, बस सम्भोग के लिए प्रयोग की जाने वाली लेबर थीं. तो उनसे पैदा हुए बच्चों को दोयम दर्ज़े का माना जाता रहा होगा. हरामज़ादे. अंत:पुर-वासिनियों के बच्चे. दासी पुत्र-पुत्री टाइप. शब्दों पर ध्यान दीजिये, बहुत कहानी शब्द ही खोल देते हैं.
मैं भी कुछ-कुछ शब्दों के अर्थ और अर्थों के शब्द बदल देता हूँ.
'ब्रह्मचारी' वो जो खूब सेक्स करे चूँकि सारे ब्रह्मांड में सेक्स का ही पसारा है.
असुर वो जो सुरा (शराब) न पीये और सुर(देवता) वो जो सुरा पान करें.
राक्षस वो जो रक्षा करें.
आस्तिकता का अर्थ है अस्तित्व को समझने का प्रयास. इस प्रकार सारे वैज्ञानिक आस्तिक हैं. और सारे पुजारी, मौलवी, पादरी नास्तिक हैं क्योंकि अस्तित्व को जानने समझने के रास्ते में सबसे जादा रोड़े, चट्टान, पहाड़ यही अटकाते हैं.
कहते ही हैं, शब्द का वार तलवार के वार से भी भयंकर होता है. शब्द ब्रह्म है. मैं तो कहता हूँ शब्द ब्रह्मास्त्र है. बहुत सोच कर चलायें. आप तो बेहोशी में जीते हैं. न आपको अपने तन का होश, न मन का. थोड़ा होश में आयें. आपके बेहोशी में कहे गए शब्द, किसी का जीवन बिगाड़ देते हैं.
मैं पहले भी ज़िक्र कर चुका हूँ, बहुत पहले लैंड-मार्क फोरम अटेंड किया था मैंने. साउथ दिल्ली स्थित "हरे रामा, हरे कृष्णा मन्दिर" में. एक सरदार जी थे वक्ता. तीन दिन लगातार. सोने तक का समय मुश्किल मिलता था. उस सारी एक्सरसाइज का जो नतीजा उन्होंने निकाला अंत में, वो यह कि इन्सान एक मशीन है जो दूसरों के कहे शब्दों को कभी-न कभी पकड़ के खुद को डिफाइन कर लेता है और उस डेफिनिशन के आधार पर ही उसके जीवन का ब्लू प्रिंट बन जाता है. वो शब्द, दूसरों के कहे शब्द उसके मन पर इंप्रिंट हो जाते हैं और ब्लू प्रिंट बना जाते हैं.
बात सही है. मैं आठवीं तक एक औसत स्टूडेंट था. आठ क्लास कैसे पास हो गईं, मुझे पता ही नहीं. फिर एक बार एक टीचर ने मेरी पढाई-लिखाई की कुछ प्रशंसा कर दी और बस मैं उनके शब्दों को सही साबित करने लगा. उसके बाद मैंने हर एग्जाम टॉप किया.
दिक्कत यह है कि लोग शब्दों की ताकत नहीं समझते. शब्दों का सही प्रयोग नहीं समझते. मिसाल के लिए लोग अक्सर किसी की ख़ूबसूरती की प्रशंसा करते हैं, वहां तक ठीक लेकिन किसी की शक्ल नरम हो तो भी कमेंट करने से नहीं चूकते, बिना यह समझे कि उनके शब्द सामने वाले को कितनी चोट पहुँचायेंगे. खास करके तब जब न तो सामने वाले की कोई गलती है और न ही अपने नाक-नक्शे में वो कोई खास सुधार कर सकता है. लेकिन आपने अपने कमेंट से अगले के सेल्फ-कॉन्फिडेंस की वाट लगा दी. कई बार तो सारे जीवन का रुख ऐसा एक ही कमेंट मोड़ देता है. मैंने कहीं पढ़ा था कि चाहे हम लड़ाई-झगड़े में लाख एक दूजे को धमकाने के लिए चिल्लाते रहें कि मैं ये हूँ, मैं वो हूँ लेकिन भीतर से हमारी सेल्फ-इमेज बहुत बकवास होती है, छिन्न-भिन्न होती है.
शब्द ब्रह्मास्त्र है. सोच कर प्रयोग करें.
शब्दों पर ध्यान दीजिये, बहुत पोल तो शब्द ही खोल देते हैं. आप "जीजा जी" बोलते हैं या "बहन का खसम", चाहे अर्थ एक ही हो, लेकिन आपके शब्दों का चुनाव आपके बारे बहुत भेद खोल देता है.
कॉपी राईट.....नमन...तुषार कॉस्मिक
Monday, 16 October 2017
राजनीति का कूड़ा सफाई का ढंग
मिसाल:----आपको पता है डाक्टर, चार्टर्ड अकाउंटेंट, वकील को प्रचार करना मना है चूँकि ऐसा माना जाता है कि ये लोग सिर्फ अपनी काबलियत के दम पर ही काम पाएं न कि प्रचार करके. चूँकि इनके हाथ में लोगों के जीवन के बेहद नाज़ुक फैसले होते हैं. सो कोई घटिया डाक्टर, चार्टर्ड अकाउंटेंट, वकील पैसे के दम पर प्रचार कर के किसी का बेड़ा-गर्क न कर दे.
पॉइंट:--- क्या हर राजनेता का चुनाव भी बिना प्रचार के नहीं होना चाहिए. बस अपना प्लान पेश करें, कैसे क्रियान्वित करेंगे यह पेश करें. और चुन लिए जायें. असल में चुनाव प्लान का ही होना चाहिए. व्यक्ति चुना जाए, लेकिन व्यक्ति गौण हो, प्लान प्रत्यक्ष हो, प्लान प्रमुख हो. एक ही झटके में राजनीति का कूड़ा साफ़.
सनातन
सनातन सिर्फ यह है कि कुछ भी सनातन नहीं है. Change is the only Constant.
सनातन, तथा-कथित सनातन अगर वाकई सनातन है तो open डिबेट मन्दिरों में आयोजित करे, चाहे वो राम के खिलाफ हो, चाहे पक्ष में...चाहे कृष्ण को खंडित करे, चाहे मंडित....चाहे कोई पंडित हो चाहे खंडित ....सनातन को क्या परवा?.....बदलने दो अगर कुछ बदलाव आता है तो...Change is the only Constant.
सनातन, तथा-कथित सनातन अगर वाकई सनातन है तो open डिबेट मन्दिरों में आयोजित करे, चाहे वो राम के खिलाफ हो, चाहे पक्ष में...चाहे कृष्ण को खंडित करे, चाहे मंडित....चाहे कोई पंडित हो चाहे खंडित ....सनातन को क्या परवा?.....बदलने दो अगर कुछ बदलाव आता है तो...Change is the only Constant.
मीठे-2 फॉरवर्डड मेसेज
बिटिया पूछ रही थी, "आजकल व्हाट्स-एप्प और फेसबुक पर इतनी मीठी-मीठी परोपकार और पारस्परिक भाईचारे की बातें लोग भेजते हैं एक-दूसरे को लेकिन इस सब से असल ज़िन्दगी में तो कोई फर्क आया लगता नहीं. लोग खूब चालाकी, होशियारी, धोखा-धड़ी करते हैं. ऐसा क्यों है?"
"बिटिया, लोगों के फैसले उनकी ज़रूरतें तय करती हैं न कि इस तरह के फॉरवर्ड किये गए मीठे मेसेज. करना उन्होंने वही है जिससे उनकी ज़रूरत पूरी होती हो. और ज़रूरतें बिना चालबाज़ी किये पूरी हो जायें, वैसा समाज अभी तो बनने नहीं जा रहा, चूँकि वैसे समाज के लिए बदलाव की प्रक्रिया को समझने तक की भी औकात नहीं इन फसबुकियों और व्हाट्स-एप्पियों की."
"तो फिर आप क्यों लिखते हो सोशल मीडिया पर?"
"वैसे ही. शायद कोई चमत्कार हो जाए."
पटाखे
पटाखे बंद होना स्वागत-योग्य है. पटाखों का हिन्दू धर्म से-दीवाली से कोई लेना-देना है ही नहीं. और हो भी तब भी कोई भी बकवास चाहे वो किसी भी धर्म से सम्बन्धित हो, बेहिचक बंद कर दी जानी चाहिए.
मुझे याद है, जब बड़ी बिटिया पैदा हुई तो उसकी पहली दीवाली पर मैं उसे गोदी लेके बैठा था. यूरेका फोर्ब्स का एयर प्यूरी-फायर नया-नया लिया था. बब्बू के कानों को ढक रखा था अपने हाथों से और एयर प्यूरी-फायर चला रखा था. बब्बू अब इतनी समझदार हो चुकी है कि पटाखों को सिरे से बकवास मानती है.
अब छोटी वाली को खांसी रहती है. बाजारी खाना भी ज़िम्मेदार है, कितना ही मना करो बच्चे गंद-मंद खा ही लेते हैं. लेकिन एक वजह दिल्ली की खराब हवा भी समझता हूँ.
मुझे ख़ुशी है कि पटाखे नहीं मिल रहे. और उम्मीद करता हूँ कि न मिलें और दीवाली बिना धुयें-धक्कड़ के बीते.
कोर्ट को धन्य-वाद. जज साहेब को मेरे बच्चों की तरफ से बेहद प्यारभरा नमन. वरना इस मुल्क में राजनेताओं के हाथों तो कुछ भी अच्छा होने से रहा. कैसे हो सकता है? जो आते ही पागल भीड़ का फायदा उठा कर हैं, वो उस भीड़ के पागल-पन के खिलाफ कोई भी फैसला कैसे कर सकते हैं? सो मौजदा हालात में सरकार किसी की भी हो, बेहतरी कोर्ट-चुनाव कमीशन जैसी स्वतंत्र संस्थाओं के हाथों ही हो सकती है. शेषन को लोग आज तक याद करते हैं. वो आज भी शेष हैं. विशेष हैं......नमन.
जय शाह बनाम 'द वायर' केस
अस्सी करोड़ रुपये के आरोप के खिलाफ सौ करोड़ रुपये का मान-हानि का मुकद्दमा! आप तो अपनी औकात अस्सी करोड़ रुपये भी नहीं मानते तो फिर सौ करोड़ रुपये का मुकद्दमा कैसे? चलो अस्सी करोड़ रुपये मान भी लें तो भी सौ करोड़ का मुकद्दमा कैसे कर दिए भइये? 20 करोड़ का घोटाला तो यहीं कर दिए हो. पक्का हारोगे, बुरी तरह से. मुकद्दमा करना कोई तीर मारना नहीं होता और तुमने तो वैसे ही तुक्का मारा है.... वो क्या नाम है तुम्हारा अमित शाह के बेटे जी.
Friday, 13 October 2017
सरकार और कोर्ट
"जब इस देश में सारे फैसले कोर्ट को ही करने है-
जैसे के रोहिंग्या मुसलमान हिंदुस्तान में रहेंगे या नहीं रहेंगे,
कश्मीर में सेना पैलेट गन चलाएगी या कौनसा गन चलाएगी,
दिवाली पर पटाखे चलाएंगे या नहीं चलाएंगे,
मूर्ति विसर्जन होगा कि नहीं होगा,
दही हांडी की ऊंचाई कितनी होगी,
राम मंदिर बनेगा या नहीं बनेगा
तो फिर यह वोट डाल कर सरकार बनाने की क्या जरूरत है कोर्ट से ही पूछ लिया करो -
कि प्रधानमंत्री भी कौन बनाना है...?" Ambrish Shrivastava जी ने लिखा है.
मैंने जवाब दिया है, "सरकार की शक्ति और कम होनी चाहिए......कोर्ट, सीबीआई, इलेक्शन कमीशन जैसी ही स्वतंत्र संस्थाएं होनी चाहिए...जनतंत्र का यही अर्थ है....वरना यह पूरी तरह से डिक्टेटरशिप हो जाएगी....और प्रधान-मंत्री कौन तो नहीं लेकिन कैसे बने इस पर निश्चित ही कोर्ट को संज्ञान लेना चाहिए....यह जिस तरह से 'पैसा फेंक तमाशा देख' चलता है चुनाव में, यह तो लोकतंत्र नहीं लोक के खिलाफ षड्यंत्र है..."
मोदी के मुकाबला का सही ढंग
अगर आप चाहते हैं कि भाजपा को अगले चुनाव में पिछली बार जैसी जीत न मिल पाए तो एक तरीका है.....आपको मोदी भक्तों (चाहे असली-चाहे नकली) द्वारा फैलाए गए तर्कों-कुतर्कों के खिलाफ बेहद शालीनता से, तर्कों से, आंकड़ों से, सबूतों से भरी पोस्ट सोशल मीडिया पर फैलानी चाहिए. संघ-भक्तों से कैसे भी विवाद में मत पड़िए, कुछ फायदा नहीं, मात्र समय और ऊर्जा खराब होगी. बस इनकी पोस्टों को इन्हीं के खिलाफ प्रयोग कीजिये.
लेकिन आपको यह सब करने का हक़ तभी है जब आप किसी भी और धर्म के ठेकेदार न हों. यदि आप मुस्लिम हैं, सिक्ख हैं, ईसाई हैं या फिर कोई भी और धर्मो को कस के पकड़े हैं तो फिर रहने दीजिये क्यों कि यह सलाह सिर्फ उनके लिए है, जिनका धर्म-कर्म क्रिटिकल थिंकिंग, तार्किक वैचारिकता फैलाना है न कि कोई ख़ास धर्म-ध्वजा फहराना.
यह सलाह उनके लिए है जो संघ-भक्ति ही नहीं सब तरह की भक्ति-पैरोकारी के खिलाफ बोलने-लिखने की हिम्मत रखते हों.
यह सलाह उनके लिए है जो लिख सके कि इस्लाम, सिक्खी, ईसाईयत और अन्य सब तरह के तथा-कथित धर्म इंसानी दिमाग की सोचने-समझने की शक्ति हर लेते हैं चूँकि हर धर्म इंसानी सोच को किसी किताब या किसी इंसान का गुलाम बनाता है. हर धर्म छद्म गुलामी है.
और अगर आप यह सब नहीं कर सकते तो अकेले संघ के खिलाफ़ डुग-डुगी अगर पीटेंगे तो आप में और संघ-भक्तों में कोई फर्क थोड़ा है. बस ट्रेड-मार्क अलग है. जैसे ज़हर की अलग-अलग शीशियाँ सजा के रखी हों दूकान में. अलग-अलग ब्रांड की. कोई तुरत असर करती हो, कोई दो दिन में कोई दो साल में और किसी का असर इतना धीमा हो कि ज़हर पकड़ में ही न आये. बस इतना ही फर्क है.
कहाँ खड़े हैं आप? देख लीजिये.
नमन...तुषार कॉस्मिक
नई राजनीति
मिसाल:----आपको पता है डाक्टर, चार्टर्ड अकाउंटेंट, वकील को प्रचार करना मना है चूँकि ऐसा माना जाता है कि ये लोग सिर्फ अपनी काबलियत के दम पर ही काम पाएं न कि प्रचार करके. चूँकि इनके हाथ में लोगों के जीवन के बेहद नाज़ुक फैसले होते हैं. सो कोई घटिया डाक्टर, चार्टर्ड अकाउंटेंट, वकील पैसे के दम पर प्रचार कर के किसी का बेड़ा-गर्क न कर दे.
पॉइंट:--- क्या हर राजनेता का चुनाव भी बिना प्रचार के नहीं होना चाहिए. बस अपना प्लान पेश करें, कैसे क्रियान्वित करेंगे यह पेश करें. और चुन लिए जायें. असल में चुनाव प्लान का ही होना चाहिए. व्यक्ति चुना जाए, लेकिन व्यक्ति गौण हो, प्लान प्रत्यक्ष हो, प्लान प्रमुख हो. एक ही झटके में राजनीति का कूड़ा साफ़.
भारत माता ध्वस्त होनी चाहिए
संघी सोच है. भारत माता की जय!
असल में भारत माता ध्वस्त होनी चाहिए और चीन माता भी और जापान माता भी और अमेरिका माता भी. और इस तरह की बाकी सब माता. जब तक ये सब माता विदा न होंगी, 'वसुधैव कुटुम्बकम'-'विश्व बंधुत्व' ये शब्द बस शब्द ही रहेंगे.
ये माता बीमारियाँ हैं. आपको शायद ध्यान हो, हमारे यहाँ तो चेचक की बीमारी को भी माता समझा जाता था. इस भारत माता को बीमारी पता नहीं कब समझेंगे?
दीवारें. हमारे घर की दीवारें ही तो हैं, जो मुझ में और आप में एक गैप बनाये रखती हैं. वरना फर्क क्या है, मुझ में और आप में? ये घर, मोहल्ला, प्रदेश, देश सब दीवारें हैं. सब दीवारें ध्वस्त होनी चाहियें. धरती माता की जय हो जाएगी. कल हमारा यह कुटुम्ब और ग्रहों-नक्षत्रों तक फ़ैल सकता है. उनकी भी जय.
लेकिन हम तो यही सोच छोड़ के राज़ी नहीं कि कोई हिन्दू-भूमि है और कोई पाकिस्तान है. जैसे धरती माता ने रजिस्ट्री कर के दे रखी हो अलग-अलग. संघ की शाखा में रोज़ प्रार्थना गाई जाती है, जिसमें एक लाइन हैं, "त्वया हिन्दुभूमे सुखं वर्धितोऽहम्." हे हिन्दू-भूमि तूने मेरे सुख में वृद्धि की है. और उन्होंने तो अपने मुल्क का नाम ही रख दिया पाकिस्तान, जैसे बाकी सब नापाक-स्तान हों.
शिट मैन, कुछ तो अक्ल लगाओ. या दिमाग में गोबर मतलब शिट ही भरी है?
गोबर गोबर ही होता है, चाहे गाय का हो. उपयोग हो सकते हैं गोबर के भी. उपले बनते हैं, रसोई में ईंधन की तरह प्रयोग होते हैं. लेकिन दिमाग में भरा होने का कोई उपयोग हो, यह मैंने आज तक पढ़ा-सुना नहीं है.
की मैं कोई झूट बोल्या?
की मैं कोई कुफर तोल्या?
ऊं..आहूँ ....आहूँ ....आहूँ !
ऊं..आहूँ ....आहूँ ....आहूँ !
नमन.....तुषार कॉस्मिक
Thursday, 12 October 2017
अमिताभ बच्चन जन्म-दिवस स्पेशल
लानत है, उस मुल्क कि सभ्यता संस्कृति पे, जहाँ सदी के महानायक के रूप में ऐसे व्यक्ति को प्रतिबिम्बित किया जाता रहा है ----
1) जिन्होंने ने फिल्मों में काम करने के अलावा लगभग कुछ नहीं किया...अरे यदि मानदंड फिल्मों में काम ही रखना था तो बेहतर था गुरुदत्त को या आम़िर खान जैसे व्यक्ति को महानायक मान लेते.....कम से कम इन लोगों ने समाज को अपनी फिल्मों के ज़रिये बहुत कुछ सार्थक देने का प्रयास तो किया ....अमिताभ की ज्यदातर फिल्मों में दिखाया क्या गया...एक एंग्री यंग मैन .....जो समाज की बुराईयों से लड़ता है शरीर के जोर पे.....सब बकवास ....शरीर नहीं विचार के जोर से समाज की बुराई खतम की जा सकती है..और जिन कलाकारों ने यह सब दिखाने का प्रयास किया, वो चले गए नेपथ्य में...उनकी फिल्मों को आर्ट फिल्में, बोर फिल्में कह के ठुकरा दिया गया.....समाज को कचरा चाहिए था..अमिताभ की फिल्मों ने कचरा परोस दिया.....काहे की महानता? कला में क्या बलराज साहनी, ॐ पूरी, नसीरुद्दीन शाह किसी से कम रहे हैं....अगर सिनेमा के महानायक की ही बात कर लें तो भी अमिताभ मात्र कचरा सिनेमा के ही महानायक हैं. कुछ फिल्में अच्छी की हैं, लेकिन अधिकांश कचरा.
2) जिन्होंने पैसों की खातिर अंट-शंट advertisements की, इनसे तो बेहतर गोपी चंद पुलेला हैं, जिन्होंने पेप्सी की advertisement का बड़ा ऑफर ठुकरा दिया और इसलिए ठुकरा दिया क्योंकि उन्हें पता है कि पेप्सी सेहत के लिए हानिकारक है
कुछ ही समय पहले अमिताभ ने एक advertisement किया है ....पारले जी बिस्कुट का .......इस में वो एक अमीर व्यक्ति दिखाये गए हैं जो अपने नौकर पे इसलिए खफा होते हैं कि वो "सोचता" है ...श्रीमानजी फरमाते हैं , "अच्छा, तो अब आप सोचने भी लगे हैं"...जैसे सोचने का ठेका सिर्फ मालिक को है....जैसे नौकर ने सोच लिया तो गुनाह कर दिया
http://www.youtube.com/watch?v=x9VmK0L5vrk
Life taught me that Khushiyan (Happiness) can be brought in life through understanding of Life, but Amitabh Bachan is teaching me that Khushiyan are can be brought by eating MAGGI (2 Minute Me Khushiyan).
http://www.youtube.com/watch?v=ww8o0aCNDR0
3) जिनमें राजनीति की न सोच थी, न समझ... बस कूद गए बिना सोचे समझे....लेकिन फ़िर भागे मैदान छोड़ के तो दोबारा नहीं पलटे...अरे, मुल्क का समय, पैसा, उम्मीदें सब बर्बाद होती हैं ऐसे गैर ज़िम्मेदार नेताओं की वजह से ..... यदि वास्तव में ही जज़्बा होता देश सेवा का, तो सीखते और टिके रहते मैदान में.
4) जो अमर सिंह जैसे नेता को साथ चिपकाये रहे......वो अमर सिंह... जिनका शायद ही देश की दिशा-दशा सुधारने में कोई योगदान किसी को पता हो.
5) लानत है..... इस देश को सदी महानायक के लिए आंबेडकर, सी वी रमण, जगदीश बसु, मुंशी प्रेम चंद, भगत सिंह, आज़ाद, सुरजो सेन, अशफाकुल्लाह खान, राम प्रसाद बिस्मिल जैसे लोग न दिखे...
ऐसे लोग न दिखे जो समाज के दिए में तेल कि जगह अपना लहू जलाते रहे, दिखे तो पाद मारने के भी पैसे लेने वाले एक्टर, लानत है.
जन-जीवन के लिए जो असली नायक हैं, महानायक हैं...वो चले गए हाशिये पे और ऐसे व्यक्तियों ने जगह घेर ली जिनका योगदान नगण्य है या फिर ऋणात्मक है.
6) हमारा समाज यदि उन्हें मात्र सिनेमा का ही महानायक मानता तो वो आपको मैगी, कोला जैसी अंट-शंट advertisement में न दीखते... व्यापारी वर्ग कोई मूर्ख नहीं है जो उनको करोड़ों रुपये देगा चंद सेकंड की परदे पे मौजूदगी के....व्यापारी को पता है कि भारतीय समाज सिनेमा के नायक को भगवान् की तरह पूजता है, मंदिर तक बनाता है, और यहीं मेरा विरोध है .....आप लाख कहते रहो कि वो तो मात्र सिनेमा के नायक हैं, महानायक हैं......लेकिन सब जानते हैं कि फिल्म-कलाकार भारतीय जनमानस के देवता हैं.
7 ) लाख गीत गाते रहो अपनी महान सभ्यता संस्कृति के, महानायक के चुनाव से सब ज़ाहिर होता है कितनी महान सभ्यता है, कितनी महान है संस्कृति.
8 ) जिस दिन इस देश के मापदंड बदलेंगे उस दिन कोई उम्मीद बनेगी, वरना जैसी देश की कलेक्टिव सोच है, वैसे ही नायक मिलेंगें, वैसे ही महानायक, वैसी ही सरकार बनेगी, वैसे ही बे-असरदार सरदार मिलेंगें, और खिलाड़ी ओलंपिक्स में पिटते रहेंगें और रुपया बाज़ार में धूल फांकता रहेगा.
9) यार मेरे थम तो
ले थोडा दम तो
पहचान असली हीरो कौन है
वो जो कुछ कुछ मौन है
जो न नेता है
न अभिनेता है
जो क्रिकेट नहीं खेलता
पर रोज़ दंड पलता
वो जो पहाड़ धकेलता
उत्तराखंड को झेलता
वर्दी वाला देवता
छोटी पगार लेवता
बचा रहा है तुम को
बचा रहा है हम को
यार मेरे थम तो
ले थोडा दम तो
पहचान असली हीरो कौन है
वो जो कुछ कुछ मौन है
जो दिन रात लगाता है
भेद कुदरती सुलझाता है
सियासत पर भार बना
मज़हब का शिकार बना
कचहरी में उलझाया गया
जिंदा जलाया गया
जिसने बिजली दी कार दी
नवजीवन की फ़ुहार दी
सुविधायों की बौछार दी
जीवन को नयी धार दी
यार मेरे थम तो
ले थोडा दम तो
पहचान असली हीरो कौन है
वो जो कुछ कुछ मौन है
जो पत्थर घढ़ता है
जो शब्द गढ़ता है
कथा कहानी कहता है
खोया खोया रहता है
मीठा तो कभी ख़ार है
वो ही कलाकार है
जो मूर्तिकार है
जो चित्रकार है
यार मेरे थम तो
ले थोडा दम तो
पहचान असली हीरो कौन है
वो जो कुछ कुछ मौन है
नमन.......तुषार कॉस्मिक
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