मुस्लिम से कोई संवाद न करें इस्लाम पर. आलोचना बरदाश्त ही नहीं इस्लाम में फिर क्यों सवाल उठाने मुस्लिम के आगे?
इस्लाम, कुरान, मोहम्मद आलोचना से परे हैं एक मुस्लिम के लिए.
कुरान इन के लिए इलाही किताब है, आसमानी फरमान, डायरेक्ट अल्लाह से उतरा हुआ.
मोहम्मद अल्लाह के आखिरी मैसेंजर हैं, इन के बाद कोई और दूजा मैसेंजर अब आ ही नहीं सकता. अल्लाह ने मैसेंजर भेजने बंद कर दिए इन के बाद.
और अल्लाह का मेसेज क्या है? वो है कुरान, जिस के इतर आप बोलना दूर, सोच तक नहीं सकते.
गुड. लेकिन इसी वजह से मैं मुस्लिम से बहस करने को मना करता हूँ. कोई फायदा ही नहीं. जो भी विचार, जो भी व्यक्ति आलोचना से परे हो, वो मेरी नजर में इंसानियत के लिए खतरनाक है, नुक्सानदायक है. बहस होगी तो असहमति भी होगी, आलोचना भी होगी, निंदा भी होगी. स्वीकार है इस्लाम को, मुस्लिम को यह सब?
तो फिर ठीक है भैया, हमें भी तुम से बहस करना स्वीकार नहीं.
हम सिर्फ गैर-मुस्लिम को आगाह कर सकते हैं.
दुनिया के हर गैर-मुस्लिम को इस्लाम के प्रति आगाह कीजिये. शिद्दत से कीजिये. बिना गाली-गलौच के कीजिये. तर्क से कीजिये. फैक्ट से कीजिये.
मुस्लिम सिर्फ दुनिया भर में हिंसा ही नहीं करते फिरते. बम-बनूक ही प्रयोग नहीं करते सिर्फ. वो और भी तरीकों से दूसरे समाजों को हानि पहुंचाते हैं. वो व्यापार गैर-मुस्लिम से ले तो लेंगे लेकिन देंगे नहीं. देंगे तो मजबूरी में.
हलाल मांस एक खास ढंग से काटा जाता है. आप को क्या लगता है कि गैर-मुस्लिम अगर वैसे ही कटेगा तो मुसलमान उस से खरीद लेगा? नहीं खरीदेगा. वो मुसलमान से ही खरीदेगा. वो हलवाई, नाई, कसाई सब मुस्लिम ही ढूँढेगा.
मेरे एक जानकार हैं मुस्लिम. प्रॉपर्टी डीलर. दफ्तर का नाम रखा है "हिन्द प्रॉपर्टीज़". लेकिन असल बात यह है कि मुस्लिम का हिन्द से कोई लेना-देना ही नहीं है. वो तो आयुर्वेद की जगह यूनानी दवाखाना ढूँढता है. वो मंदिर, गुरूद्वारे मुफ्त का इलाज लेने चला जाएगा लेकिन कोई भी फ़ायदा किसी गैर मुस्लिम को मुफ्त दे कर राज़ी नहीं. मुस्लिम की पहली कोशिश यही है कि फायदा हो तो मुस्लिम को हो.
मुस्लिम दूसरे समाज की लड़की से शादी कर लेगा और उसे मुसलमान बना लेगा लेकिन अपने समाज की लड़की दूसरे समाज में नहीं देगा. उस के समाज से कोई बाहर चला जाए, गैर-मुस्लिम बन जाये, यह उसे बरदाश्त ही नहीं.
तमाम अंतर-विरोधों के बावजूद बाकी समाज आपस में फिर भी रोटी-बेटी का रिश्ता रखते हैं. प्यार-व्यापार भी कर लेते हैं. सम्भावनाएँ हैं. लेकिन मुस्लिम समाज अलग ही है. इस में अंतर-निहीत है कि यदा-कदा-सर्वदा दुनिया को मुस्लिम करना है. जानते हुए भी कि जहाँ इस्लाम है वहां मुसलमान ही मुसलमान को मारते रहते हैं. वहां कोई विज्ञान पैदा नहीं हुआ. इस्लामी मुल्कों में रहना मुसलमान की पहली पसन्द नहीं है. उस की पहली पसंद गोरों के मुल्कों में रहना है. भारत में रहना है. काफिरों के मुल्कों में रहना है. बावजूद इस के उसे होड़ है कि बस किसी तरह सब मुसलमान बन जाएँ.
तुम ने मुसलमान बन के क्या कद्दू में तीर मार लिया? यह नहीं देखते. सिवा तादाद बढाने के और क्या किया? दुनिया को सिवा मार-काट के क्या दिया? यह नहीं देखते. बस सब को मुसलमान करना है.
प्रॉपर्टी डीलर हूँ. यकीन जानिये, अधिकांश लोग मुसलमान को किराए पर मकान देना भी सही नहीं समझते. जिस गली में चार घर मुसलमान के बस जाएँ तो पड़ोसियों में दहशत फैलनी शुरू हो जाती है. लोग घर बदलने की सोचने लगते हैं. यह है मुसलमान की इमेज!
अक्सर लोग कहते हैं, "हजार गैर-मुस्लिम में एक मुस्लिम बड़े आराम से रह लेगा लेकिन ३०-४० परसेंट भी मुस्लिम आबादी हो गयी तो गैर-मुस्लिम का रहना मुश्किल हो जाएगा." यह है मुसलमान की इमेज!
विभिन्न आंकड़ों /आकलन के अनुसार भारत में मुस्लिम आबादी 15% के करीब होगी, हालाँकि मुझे शँका है इस आकलन पर. यह आबादी इस से कहीं ज़्यादा होगी, लेकिन फिर भी मुस्लिम Minority है. यह है मुस्लिम की इमेज!
आप को भारतीय समाज में से कुछ लोग अब बड़ी-बड़ी कम्पनी के सीईओ बने दीखते हैं, कुछ ओलिंपिक मैडल लिए दीखते हैं. कुछ इक्का-दुक्का वैज्ञानिक भी दीखते हैं लेकिन इन में मुस्लिम कहाँ हैं? मुस्लिम खुद को अफज़ल समझते हैं, अव्वल समझते हैं. कितने गोल्ड मैडल लेते हो भाई ओलंपिक्स में? तुम्हारा तो खाना-पीना अब अल्लाह ने तय किया है. डायरेक्ट अल्लाह ने. फिर भी काफिरों से हार जाते हो.
लेकिन यह 'सोचने' का आह्वान मैंने मुस्लिम को नहीं किया. उस ने इस्लाम, कुरान, मोहम्मद के बाहर नहीं सोचना. मोहम्मद उन के रोल मॉडल हैं. मुस्लिम अपने रोल मॉडल के खिलाफ खुद कैसे सोच सकता है, वो तो दूसरे को भी सोचने नहीं देता. सो मेरा आह्वान गैर-मुस्लिम को है. गैर-मुस्लिम इस्लाम को पहले तो खुद समझे. आज सब कुछ ऑनलाइन है. इस्लाम को, कुरान को, हदीस को समझने के लिए तमाम ऑडियो-विडियो-किताब मौजूद हैं. देखें, पढ़ें, सुनें. और फिर तर्क से, फैक्ट से, किताबी रिफरेन्स से अपने इर्द-गिर्द लोगों को ऑफलाइन/ऑनलाइन सब ढंग से समझायें.
लेकिन हाँ, एक बात ध्यान रखें कि जब मैं इस्लाम के खतरे से आप को आगाह करता हूँ तो इसका यह मतलब कतई नहीं कि आप अपने समाजों, अपने सम्प्रदायों, अपने धर्मों की सड़ी-गली मान्यताओं को ढकते रहो. नहीं. इस्लाम का विरोध अपने समाज की गन्दगी ढकने के लिए प्रयोग न करें जैसा कि आज भाजपा कर रही है.
भाजपा के पॉवर में आने का एक बड़ा कारण है ही यही कि हिन्दू समाज इस्लाम के खतरे से बचना चाहता है. इसीलिए वो भाजपा के हजार खून माफ़ करे जा रहा है. विकास के नाम पर महँगाई पकड़ाई जा रही है वो बर्दाश्त करे जा रहा है. गंदगी पहले जितनी ही है या शायद पहले से भी ज़्यादा फिर भी "स्वच्छ भारत अभियान" को बर्दाश्त करे जा रहा है. अंदर-खाते महसूस कर रहा है कि को.रो.ना नकली है. लॉक-डाउन, मास्क, टीका गैर-ज़रूरी है, फिर भी बर्दाश्त किये जा रहा है.
आरएसएस में हिन्दू समाज को ऐसा बताया जाता है जैसे बस इस से बढ़िया कुछ इस धरती पर घटित हुआ ही नहीं.
जात-पात आज भी है इस हिन्दू समाज में. नाली-गटर आज भी कोई बामण नहीं करता.
बन्दर हवा में उड़ता है. पहाड़ उठाता है. मैल से बच्चा बन सकता है. इंसानी बच्चे की गर्दन काट कर उस पर हाथी की गर्दन फिट हो सकती है. गणेश बन सकते हैं. गणेश जी.
इस्लाम हिंसक है. ठीक बात है. लेकिन बाकी समाजों में भी मूर्खताएं और अंध-विश्वास भरे पड़े हैं. गन्दगी भरी है. इस्लाम को अपने समाज के लिए ढक्कन की तरह प्रयोग न करें, ढाल की तरह प्रयोग न करें. जिस तलवार से इस्लाम को काटना है, वही तलवार अपने समाज की मूर्खाताओं को काटने के लिए भी चलायें.
इस्लाम का विरोध करें लेकिन अपने समाज की गन्दगी का भी विरोध करें. सामाजिक और राजनितिक दोनों फ्रंट पर. भाजपा विकल्प नहीं है, यह अच्छे से समझ लें. ये लोग मात्र पोंगा-पंथी हैं. यह सच है कि आरएसएस की शाखा में कोई हिंसा नहीं सिखाई जाती, अनुशासन सिखाया जाता है, परस्पर रेस्पेक्ट सिखाई जाती है, लेकिन कोई वैज्ञानिक सोच नहीं सिखाई जाती यह भी सच है. कोई नवीनता नहीं सिखाई जाती. सिखाई जाती है पोंगापंथी और पुरातनपंथी. मैं रहा हूँ आरएसएस में वर्षों तक..
खैर, थोडा लिखा, ज़्यादा समझें.
छाहे जैसा भी जवाब हो लेकिन दें ज़रूर.
छोटों को नमस्ते, बड़ों को मार.