Saturday, 27 July 2019

भविष्य - इस्लाम के सन्दर्भ में

आक्रान्ता मुस्लिम था तो खालसा खड़ा हुआ. 

आक्रान्ता मुस्लिम है तो ट्रम्प खड़ा हुआ. 

आक्रान्ता मुस्लिम है तो आरएसएस खड़ा हुआ. 

आक्रान्ता मुस्लिम है तो मोदी खड़ा हुआ.और लोगों ने उसे तमाम मूर्खताओं के बाद फिर से चुना. 

खैर, इस्लाम  के खिलाफ पूरी  दुनिया को खड़ा होना चाहिए. समझना चाहिए. 

सवाल यह नहीं है कि आप क्या मानते हैं. हो सकता है आप किसी धर्म-विशेष के खिलाफ न हों. आप अहिंसक हों. शांति-वादी हों. आप कुछ भी हों. किसी भी मान्यता के हों. लेकिन इस्लाम इस्लाम है. 

आपको इस्लाम को अपने नजरिये से नहीं समझना है. इस्लाम को इस्लाम के नजरिये से समझना है. आप अपनी मान्यताएं इस्लाम पर मत थोपिए. यह देखिये कि इस्लाम खुद क्या मानता है. मेरे इन शब्दों से शायद उन लोगों को कुछ समझ आये जो यह कह रहे हैं कि खालसा  इस्लाम के खिलाफ नहीं है. न हो खालसा इस्लाम के खिलाफ. न हो किसी और धर्म के खिलाफ. लेकिन इस्लाम सब धर्मों के खिलाफ है. इस्लाम आक्रामक था, इसलिए खालसा का उदय हुआ. और इस्लाम ने अपनी मान्यताएं कोई बदल नहीं ली हैं. वो आज भी वही है.  

और दुनिया समझ भी रही है. खड़ी भी हो रही है.  उस में इन्टरनेट/ सोशल मीडिया सहयोगी है. 

दो फायदे हैं. आज आप बरगला नहीं सकते. सब ऑनलाइन मौजूद है. कुरान. उसका अनुवाद. व्याख्या. लेख. विडियो. बहुत कुछ. जरा श्रम कीजिये, सब समझ आ जायेगा. 

पहले इस्लाम आवाज़ ही नहीं उठाने देता था. 

आज भी ईश-निंदा का कानून है इस्लामिक मुल्कों में. आपने जरा बोला इस्लाम/ मोहम्मद के खिलाफ, तो वाज़िबुल-क़त्ल हो गए. 

वो पाकिस्तान में एक आसिया बीबी का केस बड़ा आग पकड़ा था. उसके घर के बाहर शायद कुरान के कोई पन्ने मिले थे. बेचारी हो गयी वाज़िबुल-कत्ल. 

कितने ही लोग मात्र इसलिए काट दिए गए कि उन्होंने इस्लाम के खिलाफ बोलने  की जुर्रत की. 

लेकिन अब यह बिलकुल नहीं रुक पायेगा. 
आप कितना ही रोको. लोग रक्तबीज की तरह पैदा होंगे. 
एक मारोगे, सौ पैदा होंगे. इन्टरनेट चीज़ ही ऐसी है. 

इसलिए तमाम बकवास-बाज़ी के बावज़ूद सोशल मीडिया से ही सूर्य उगेगा और इस्लाम समेत तमाम धर्मों/ मज़हब का अँधेरा दूर होगा. 

इस्लाम का सबसे ज़्यादा विरोध इसलिए ज़रूरी है चूँकि यह सबसे ज़्यादा हिंसक  है. कुरान में  गैर-इस्लामिक  के खिलाफ सीधे हिदायत हैं. हिंसक हिदायत. और दुनिया भर में इसे मानने वाले फैले हैं.

और  इसके विरोध में तमाम बेवकूफियां फैल  रहीं हैं. इस्लाम की मूर्खताओं की वजह से लोग अपनी मूर्खताओं को छोड़ने की बजाए और  कस के पकड़े  हैं. 

मोदी  इसका उदहारण हैं. मोदी का पिछला टर्म देखो. गलतियों से भरा है. लेकिन फिर भी लोग जिता दिए. फिर भी हिन्दू-हिन्दू हो रही है. 

मोदी कोई अपनी परफॉरमेंस की वजह से नहीं जीता है. बहुत बार वकील अपनी लियाकत से केस नहीं जीतते, सामने वाले की मूर्खताओं की वजह से जीतते हैं. मोदी हिन्दू की वजह से नहीं आया है. वो मुस्लिम की वजह से आया है. वोट चाहे उसे हिन्दू ने दिया है. लेकिन दिया मुसलमान के डर से है. सो असल में मोदी को पॉवर में लाने वाले असल में मुसलमान ही हैं. 

 माफिया के जवाब में गुंडे खड़े हैं. एक बार माफिया खत्म हो छोटे गुंडे अपने आप खत्म हो जायेंगे, समय- बाह्य हो जायेंगे. और इसमें सोशल मीडिया का प्रमुख रोल रहेगा ही.  

अभी तो जुम्मा-जुम्मा कुछ साल ही हुए है सोशल मीडिया आये और आग लग गयी है धर्मों के खेमों में. देखते जाओ, बस कुछ ही दिन की बात और है. अंत में जीत तर्क की होगी, वैज्ञानिकता की होगी.

नमन...तुषार कॉस्मिक

Monday, 24 June 2019

Thanos आने वाला है

समाज अक्ल का अँधा है. 

इसे हर दौर में नए भगवान चाहियें. पीछे माता के जागरण/चौकी के लिए पग्गल थे. 

फिर सब साईं बाबा के  भगत हो गए. किसी तुचिए से शंकराचार्य ने बोल दिया कि साईं तो मुस्लिम थे, हटाओ इनकी मूर्तियाँ मन्दिरों से. तो वो ज्वार थोड़ा थमा है. 

अब सारे के सारे "गुरु जी" के सत्संग करवाते फिरते हैं. दिल्ली में हर दूसरी गाड़ी पे "गुरु जी" लिखा है. 

क्यों है यह सब? 

सिम्पल. जीने के लिए कोई तो सहारा चाहिए? 

साला जीवन इत्ता ज्यादा uncertain है, इत्ता ज्यादा डिमांड कर रहा है कि टेंशन ही टेंशन है. कोई तो सम्बल चाहिए. 

कोई तो खूंटा चाहिए, जिस पे अपने तनाव का कोट टांगा जा सके. 

फिर एक सामाजिक फायदा भी है. इसी सहारे जान-पहचान बढ़ती है. 

"भैन जी, तुस्सी की कम्म करदे हो?" 

"जी असी, कैटरिंग करदे हैं,"

"ठीक है जी, फेर मेरी बेटी दी शादी ते तुसी ही करना जे कम्म."

"ओके जी, ओके. जय गुरु जी. गुरु जी कर रहे हैं. बस मेरा तो जी नाम हो रहा है जी." 

इडियट. गदहा  समाज. 

इस समाज के लोगों से ज्ञान पैदा होना है? विज्ञान पैदा होना है? 

साला इनकी सारी उम्र सिर्फ शादी करके बच्चे पैदा करने में और फिर उन बच्चों को सेट करने में  और फिर उनकी शादी करने में ही बीतती है. 

दो लोग आपस में मिलते हैं तो बात भी क्या करते हैं? 

"होर जी, किन्ने बच्चे ने?"

"जी, दो हैं"

"किन्ना पढ़े ने जी? की कम्म करदे ने?"

"जी, बड़े ने MBA कर ली है. MNC में नौकरी है, छोटा बस B-TECH खतम करने ही वाला है जी." 

"जी, वैरी गुड, ते फेर बड़े के लिए कोई कुड़ी दसिए?

"जी, बिलकुल जी, बिलकुल"

यह तो इनकी बातचीत है!

या फिर कोई अपने मकान-दूकान ही गिनवा देगा. जैसे कद्दू में तीर मार लिया  हो,  बड़ा वाला.

अबे, ग़ालिब जानते हो क्यों याद किया  जाता है? 
वो कोई अरब-पति नहीं था, वो इसलिए याद किया जाता है चूँकि वो गज़ब का शायर था. गरीबी में जीया. गरीबी में  मरा. 

वैन-गोग जानते हो किस लिए याद किया जाता है? 
चूँकि वो महान पेंटर था. उसकी बनाई कला अरबों में बिकती है. वो लिमिट खरीदने वाले की है कि वो उससे ज्यादा पैसा उसकी पेंटिंग का नहीं दे सकता. मतलब खरीदने वाला इत्ता गरीब है कि उसकी बेशकीमती कला खरीदने का बस उसी सीमा तक पैसा दे सकता है. कला तो अनमोल है. बेश-कीमती. 

तुम जिसने बल्ब आविष्कृत किया उसे कित्ते पैसे दोगे? 
अबे, तुम कभी खरीद ही नहीं सकते उसका आविष्कार. जिसने पूरे दुनिया रोशन कर दी, कैसे खरीदोगे उसकी बुद्धि? वो तुम्हारी सीमा है खरीद की, उसकी बुद्धि की कोई कीमत नहीं. वो बेशकीमती है. 

तुम्हारा समाज तो है ही परले दर्जे का मूर्ख, इसे अपने कलाकारों से, ज्ञान/विज्ञान पैदा करने वालों से चाहिए सब कुछ, कदर धेले की नहीं है. कदर तुचिया काटने वाले, लम्बी दाढी वाले बाबा लोगों की है. उन्हें सोने-चांदी में तौल देंगे.       

क्या तुम में से किसी ने सोशल मीडिया पर बढ़िया काम करने वाले को चवन्नी भी देने की सोची? यहाँ लोग एक से एक बढ़िया विडियो बनाते हैं. लेख लिखते हैं. कमेंट लिखते हैं. रोज़ नए मुंशी प्रेम चंद पैदा हो रहे हैं. भगवती चरण वर्मा. साहिर लुध्यान्वी. यह सब करने में कितना ही समय, ऊर्जा, बुद्धि लगती है. कोई परवा करता है?  

बुद्धिजीवी! 
पहले तो इनका मजाक बनेगा. 
फिर गाली भी दी जाएगी. 

बुद्धिजीवी से अपेक्षा यह की जाएगी कि वो रोज़ नया कंटेंट पेश करे. मुफ्त में. जिससे मनोरंजन भी हो, सोचने-समझने के लिए खुराक भी मिल जाये.  

बुद्धिजीवी समाज बदल कर रख दें और तुम बस बच्चे पैदा करते रहो. अबे, यही हैं तुम्हारे असल हीरो. इनको तौलो हीरों से. 

और तुम सिर्फ बायोलॉजिकल कचरा हो.  और आगे और बायोलॉजिकल कचरा पैदा करोगे. 

ज्ञान/विज्ञान पैदा करने के लिए हैं न गोरे लोग/पश्चिमी लोग. तुमने तो अगर उनके यहाँ कोई बड़ी नौकरी भी कर ली तो हो गए तीस-मार-खां.  

अबे, तुम से पहले कितने आये और कितने चले गए. इस तरह का बायोलॉजिकल कचरा पैदा करके छोड़ने वाले. कुछ न रखा इन तूचिया चक्र-व्यूह में. 

तुम्हारे बाप-दादा  खेत में हगते थे, तुम्हारे बच्चे टाइल-पत्थर लगे टॉयलेट में हगते हैं. इस दीन-दुनिया की बेहतरी में न तुम्हारे बाप-दादा कोई खास योगदान था और न तुम्हारा कोई योग-दान है? 

घंटा. बस बजाते रहो मन्दिरों में और इससे ज्यादा कुछ न है तुम्हारे बस में. 

फिर कहते हो कि थानोस विलन है. वही हीरो है. आने वाला है वो. बस एक-दो पीढ़ी और चला लो तुम यह सब तूचिया-राग.   

अब तुम पूछ सकते हो कि मेरा योगदान क्या है फिर. तो सुनो, मेरा योगदान यह नहीं है कि मैंने शादी करके दो बच्चे पैदा किये और उनको ठीक से पढ़ा रहा हूँ. न. मेरा योगदान यह है कि मैंने 700 के करीब लेख लिखे हैं, जो सब ऑनलाइन हैं, जिनमें मैंने नायाब गोला-बारूद भरा है, डायनामाइट. तुम्हारी सुसंस्कृति को नेस्तनाबूद करने के लिए, जिनमें मैंने नए समाज के लिए ब्लू-प्रिंट भी दिया है. यह है मेरी उपलब्धि. तुम अपनी उपलब्धि पैदा करो, खोजो, खोदो.

वरना थानोस तो आने ही वाला है.  

नमन......तुषार कॉस्मिक

Wednesday, 20 February 2019

!!!! सावधान !!!!

सुना है भारत -पाक सीमा पर तनाव बढ़ गया है, दोनों तरफ से मूंछों पर ताव दिया जा रहा है, जवान मारे जा रहे हैं, कोई मित्र कह रहे हैं कि टमाटर के बढे भाव की शिकायत मत करो, मोदी को बस पाकिस्तान की अक्ल ठिकाने लगाने दो.......टमाटर के भाव की शिकायत करने वाली कौमें क्या जवाब देंगी जंगी हमलों का.......... एक दम बकवास निरथर्क तर्क हैं, आपने डिफेन्स मिनिस्ट्री सुनी होंगी, कभी अटैक मिनिस्ट्री सुनी हैं...अब सब यदि डिफेन्स ही करते हैं तो अटैक क्या इनके भूत करते हैं? असल बात यह है कि झगड़ा आम पब्लिक का तो होता ही नही आम पब्लिक तो बेचारी अपने दाल रोटी से ही नहीं निबट पाती, जालंधर में रिक्शा चलाने वाला बेचारा क्यों मारेगा, लाहौर में ठेले वाले को कराची के दिहाड़ी मज़दूर का असल दुश्मन उसकी गरीबी है न कि पंजाब का खेत मजदूर झगड़ा किसका है फिर? झगड़ा तो इन बड़े लोगों का है भाई, बड़ी मूंछ वालों का, बड़े पेट वालों का, बड़ी तिजोरी वालों का... सिर्फ अपने वर्चस्व को बढ़ाने की हवस है......पब्लिक का ध्यान बटाने का टूल है....... जंग इनके लिए......... सावधान!! सियासती चाहता है कि वहां की जनता असल मुद्दे कभी न सुलटे, सुलट गए तो वो खुद भी सुलट जाएगा....और जंग ताकत देती है मौजूदा सियासती को, वो दुश्मन का डर दिखा पूरी ताकत हथिया लेता है.... सो यह जो पाकिस्तान को फ़ौजी जवाब दिया जा रहा है, वो तो ठीक है...लेकिन ज्यादा ज़रूरी यह है कि जंग को ही जवाब दे दिया जाए.....पाकिस्तान के आवाम को मेसेज दिया जाए कि जंग नही होनी चाहिए, वहां के आवाम-वहां के लेखक-वहां के सोचने-समझने वाले लोगों को मेसेज दिया जाए कि वहां की सरकार पर दबाव बनाएं, पब्लिक ओपिनियन बनाएं, जंग नही होनी चाहिए.......पूरी दुनिया में ओपिनियन बनाई जाए कि जंग नही होनी चाहिए....किसी भी तरह का कत्ल-ए-आम नही होना चाहिए........लगातार कोशिश करें.. लेकिन करेगा कौन?.....सरकारों से उम्मीद कम है, सो हम, हम जो बेचारी जनता हैं, हमें प्रयास करना होगा......लेकिन यहाँ तो देखता हूँ, लगभग सब शिकार हैं नकली देशभक्ती के, शिकार हैं राजनेता के......तो मित्रवर जागें, और पहचाने असली दुश्मन कौन है, उससे लड़ें न कि बेवकूफ बनें सीमा पर कोई जवान मरेगा, तो सरकारी अमला सलाम ठोकेगा उसकी लाश को, शायद उसे कोई तगमा भी दे दे मरणोंपरांत, हो सकता है उसके परिवार को कोई पेट्रोल पंप दे दे या फिर कोई और सुविधा दे दे. शहीदों को सलाम. नमन. किसी दिन कूड़ा उठाने वाली निगम की गाड़ी न आई हो तो झट से कूड़े को ढक दिया जाता है, बहुत अच्छे से, ताकि बदबू का ज़र्रा भी बाहर न आ सके. यह शहीदों का सम्मान-इनाम-इकराम सब वो ढक्कन है जो संस्कृति के नाम पर खड़ी की गई विकृति की बदबू को बाहर नहीं फैलने देता. "ऐ मेरे वतन के लोगों ज़रा आँख में भर लो पानी जो शहीद हुए हैं उनकी ज़रा याद करो क़ुरबानी." शहीद! वतन के लिए मर मिटने वाला जवान!! गौरवशाली व्यक्तित्व!!! है न? गलत. कुछ नहीं है ऐसा. जीवन किसे नहीं प्यारा? अगर जीवन जीने लायक हो तो कौन नहीं जीना चाहेगा? जो न जीना चाहे उसका दिमाग खराब होगा. और यही किया जाता है. दिमाग खराब. वतन के लिए शहीद हो जाओ. असल में तुम्हारे सब शहीद बेचारे गरीब हैं, जिनके पास कोई और चारा ही नहीं था जीवन जीने का इसके अलावा कि वो खुद को बलि का बकरा बनने के लिए पेश कर दें. एक मोटा 150 किलो का निकम्मा सा आदमी फौज में भर्ती होता है और जी जान से देश सेवा करता है। जी हाँ, शहीद होकर, वो और कुछ नहीं कर पाता लेकिन दुश्मन की एक गोली जरूर कम कर देता है. तुमने-तुम्हारी तथा-कथित महान संस्कृति ने उन गरीबों के लिए कोई और आप्शन छोड़ा ही नहीं था सिवा इसके कि वो लेफ्ट-राईट करें और जब हुक्म दिया जाए तो रोबोट की तरह कत्ल करें और कत्ल हो जायें. बस. तो अगली बार जब कोई जवान शहीद हो और उसे सम्मान दिया जाए तो कूड़े-दान के ऊपर पड़े ढक्कन को याद कीजियेगा. कितने जवान अमीरों के, बड़े राजनेताओं के बच्चे होते हैं, कितने प्रतिशत, जो फ़ौज में भर्ती होते हों, जंग में सरहद पर लड़ते हों...शहीद होते हैं? नगण्य यदि शहीद होना इतने ही गौरव की बात है तो क्यों नही आपको अम्बानी, अदानी, टाटा, बिरला आदि के बच्चे फ़ौजी बन सरहद पर जंग लड़ते, मरते दीखते? यदि शहीद होना इतने ही गौरव की बात है तो क्यों नही आपको गांधी परिवार के बच्चे, भाजपा के बड़े नेताओं के बच्चे या किसी भी और दल के बड़े नेताओं के बच्चे फ़ौजी बन सरहद पर जंग लड़ते, मरते दीखते? नहीं, इस तरह से शहीद होना कोई गौरव की बात नहीं है असल में यदि सब लोग फ़ौज में भर्ती होने से ही इनकार कर दें तो सब सरहदें अपने खत्म हो जायेंगी सारी दुनिया एक हो जायेगी लेकिन चालाक लोग, ये अमीर, ये नेता कभी ऐसा होने नहीं देंगे, ये शहीद को Glorify करते रहेंगे, उनकी लाशों को फूलों से ढांपते रहेंगे, उनकी मूर्तियाँ बनवाते रहेंगे और खुद को और अपने परिवार को और अपने बच्चों को AC कमरों में सुरक्षित रखेंगे समझ लें, असली दुश्मन कौन है, असली दुश्मन सरहद पार नहीं है, असली दुश्मन आपका अपना अमीर है, आपका अपना सियासतदान है वो कभी आपको गरीबी से उठने ही नही देगा, वरना आप अपने बच्चे कैसे जाने देंगे फ़ौज में मरने को वो कभी आपको असल मुद्दे समझ आने नही देगा, वरना आप अपने बच्चे कैसे जाने देंगे फ़ौज में मरने को लेकिन यहाँ सब असल मुद्दे गौण हो जाते हैं, बकवास मुद्दों से भरा पड़ा सारा अखबार, सारा संसार और यह भी साज़िश है, साज़िश है इन्ही लोगों की है अभी अभी एक अंग्रेज़ी फिल्म देखी थी हंगर गेम्स, उसमें टीचर अपनी शिष्या को समझाता है कि हर दम ध्यान रखो, असली दुश्मन कौन है क्योंकि असली दुश्मन बहुत से नकली दुश्मन पेश करता है और खुद पीछे छुप जाता है इनके . सावधान. मेरा भी आपसे यही कहना है कि ध्यान रखें असली दुश्मन कौन है. "इक साज़िश है, गरीब गरीब ही रहें गरीब ही रहें, तभी तो कमअक्ल रहेंगे गरीब ही रहें, तभी तो गटर साफ़ करेंगे गरीब ही रहें, तभी तो फ़ौजी बन मरेंगे गरीब ही रहें, तभी तो जेहादी बनेंगे इक साज़िश है, गरीब गरीब ही रहें और सब शामिल हैं सियासत शामिल है कारोबार शामिल है तालीम शामिल है मन्दिर शामिल है मस्जिद शामिल है इक साज़िश है, गरीब गरीब ही रहें कब कोई बच्चा गरीब पैदा होता है कब कोई कुदरती फर्क होता है इक सारी उम्र एश करे दूजा घुटने रगड़ रगड़ मरे इक सवार, दूजा सवारी इक मजदूर, दूजा व्योपारी इक साज़िश है, गरीब गरीब ही रहें" अब तुम भी जागो. विचारों. अक्ल का घोडा दौड़ाओ. कोई ठेका नहीं लिया कुछ चुनिन्दा लोगों ने शहीद होने का. तुम तो अपने बकवास सदियों पुराने विचार शहीद करने को तैयार नहीं ....ज़रा सी चोट पड़ते ही....लगते हो चिल्लाने ...लगते हो बकबकाने...गालियाँ देने. और दूसरे कोई लोग होने चाहिए जो अपने आप को शहीद करें और तुम पूजोगे बाद में अपने शहीदों को. तुम उनकी मूर्तियाँ बना के पूजा करने का नाटक करते रहोगे. नहीं, कुछ न होगा ऐसे ...ये सब नहीं चलना चाहिए........तुम्हे बलि देनी होगी अपने विचारों की.....तुम्हें शहीद करना होगा अपनी सड़ी गली मान्यताओं को. कोई फायदा न होगा व्यक्ति शहीद करने से. फायदा होगा विचार शहीद करने से...फायदा होगा समाज की, हम सब की कलेक्टिव सोच ..जो सोच कम है अंध विश्वास ज़्यादा...उस सोच पे चोट करने से...फायदा होगा इस अंट शंट सोच को छिन्न भिन्न करने से. फायदा होगा धर्म के नाम पे, राजनीती के नाम पे, कौम के नाम पे, राष्ट्र के नाम पे और नाना प्रकार के विभिन्न नामों पे जो वायरस इंसानों में, आप में , मुझ में, हम सब में पीढी दर पीढी ठूंसे गए हैं, उन वायरस के विरुद्ध जंग छेड़ने से. फायदा होगा विचार युद्ध छेड़ने से....फायदा होगा तर्क युद्ध छेड़ने से...फायदा होगा जब यह युद्ध गली गली, नुक्कड़ नुक्कड़ छेड़ा जाएगा. नमन....तुषार कॉस्मिक
कुरान अल्लाह से नाज़िल हुई...मेरे ख्याल में हर लेखक जब लिखना शुरू करता है तो लेख/कहानी नाजिल होना शुरू हो जाती है.....शुरू वो करता है, खत्म कहानी के पात्र खुद करते हैं

पुलवामा-- कारण और निवारण

"#पुलवामा-- कारण और निवारण" मुझे यह दुर्घटना बिलकुल भी खास नहीं लग रही सिवा इसके कि अब हरेक के हाथ में फोन उबाले मार रहा है पहले लोग बामुश्किल अखबार/ मैगज़ीन पर भड़ास निकाल पाते थे एडिटर भी एडिट करता था अब क्या है?...जो मर्ज़ी बकवास पेल दो...सोशल मीडिया..ज़िंदाबाद मुझे लगता है कि बीजेपी के नेता नेपाल सिंह ने बिलकुल सही कहा है, "फौजी मरने के लिए ही होता है. और हरेक मुल्क में, हर समय में फौजी मरते ही हैं. यह उनका जॉब ही है. पहले से ही तय है.इसमें क्या इत्ता हो-हल्ला करना?यह भी युद्ध ही है, गुरिल्ला युद्ध है." हालांकि गुरिल्ला ऐसी मूर्खता-भरी वजहों से युद्ध करता होगा, इस पर गहन शंका है मुझे. वैसे ऐसा ही कुछ ॐ पुरी ने भी कहा था तो उसे माफी मांगनी पड़ी थी बाद में वो मर गया/मारा गया मेरा तो मानना ही यह है कि कोई तुक नहीं कि मारे गये फौजी की बेटी/बीवी/माँ को दिखाया जाये मुल्क को.... वो सब पहले से ही तय है कि कोई विधवा होगी/कोई अनाथ होगा/ कोई बेटा खोएगा अब जब तय है तो फिर काहे का बवाल? बवाल करना ही है तो करो न कि फौजी क्यों है/ फ़ौज क्यों है/ हथियार क्यों हैं? करो एतराज़! और जब एतराज़ करोगे तो उसकी वजह समझनी होगी... वजह है REGION और RELIGION क्षेत्र-वाद और धर्म-वाद जब तक ये दोनों हैं दुनिया मुल्कों और धर्मों में बंटी रहेगी...और जब तक दुनिया बंटी रहेगी इंसानियत लाशें ढोती रहेगी. "शहीद अमर रहे" "वीर जवान अमर रहे" यह सब बकवास सुनते रहना होगा....कोई शहीद नहीं होना चाहता.....सब जीना चाहते हैं......जीवन जीने के लिए खुद को पैदा करता है न कि इस तरह से मर जाने के लिए... न तो इसका इलाज पाकिस्तान पर हमला है, न कुछ कश्मीरियों का कत्ल.....इस सब का एक ही इलाज है दुनिया को REGION और RELIGION की बीमारी से मुक्त करना तो अगली बार जब आप अपने पंजाबी, हरियाणवी, भारतीय, पाकिस्तानी, अमेरिकी होने का गर्व महसूस करें तो चौंक जाना.....यह खतरनाक है मैंने बहुत पहले एक विडियो बनाया था...."SINGH IS NOT KING" मेरा बहुत विरोध हुआ था. मैंने बहुत समझाया कि जब गुरु कहते हैं, "मानस की जात सबै एको पहचानबो" तो फिर कौन सिंह? कौन किंग? लेकिन मेरी बात किसी के पल्ले नहीं पड़ी. खैर, इंसानियत को "क्षेत्रीयता" से छुटकारा पाना ही होगा और समझना ही होगा कि धर्म से बड़ा कोई अधर्म है ही नहीं.....चूँकि यह दुनिया को टुकड़ों में बांटता है अब जो लोग हाय-तौबा मचा रहे हैं न इन फौजियों की मौत पर.....उनमें से शायद ही कोई हो जो कारण और निवारण तक जाने की सोच-समझ और हिम्मत रखता हो..... सो सावधान हो जाईये....मौका परस्त लोगों से.....अगर सच में बदला चाहते हैं इन लाशों का तो अपनी बेवकूफियों की बली दीजिये कहिये कि आप हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख नहीं हो कहिये कि आप इस धरती के वासी हो कहिये कि आपका भारतीय होना, चीनी, नेपाली होना सिर्फ आपके तथा-कथित नेताओं की मूर्खताओं की वजह से है इससे ज्यादा कुछ भी नहीं जब तक आप खुद पर लेबल उतार फेकने को तैयार नहीं होंगे, लाशों के दर्शन करते रहेंगे... और एक बात.....जो आपको बात सीधी सी ही लगे तो बता दूं कि वो सिर्फ इस लिए कि वो होती ही सीधी है....बस चतुर-सुजान लोगों द्वारा उलझा दी गईं हैं...... और अगली बात. जब आपको यह न पता हो कि आपका असल दुश्मन कौन है तो आप कैसे जीतोगे? जब बीमारी को ही इलाज समझेंगे तो कैसे बीमारी से छुटकारा पायेंगे? साइकोलॉजी में एक चैप्टर पढ़ाया जाता है......HEREDITY & ENVIRONMENT.... मतलब एक इन्सान की शख्सियत घड़ने में उसके बाप-दादा-पडदादा......यानि पूर्वजों का कितना हाथ है और जिस एनवायरनमेंट में, चौगिरदे में वो रहता है उसका कितना हाथ है....इसकी विषय की स्टडी. और जहाँ तक मुझे याद पड़ता है......साइकोलॉजी में कहीं नहीं पाया गया कि किसी व्यक्ति कि मान्यताएं HEREDITY की वजह से आती हैं...न...कोई हिन्दू माँ-बाप का बच्चा अगर मुस्लिम घर में पलेगा तो वो मुस्लिम ही बनेगा न कि हिन्दू.....और मुस्लिम माँ-बाप का बच्चा यदि हिन्दू घर में पलेगा तो वो हिन्दू ही बनेगा न कि मुस्लिम........तो कुल मामला सिखावन का है.....एनवायरनमेंट का है. इसमें आजकल लोग DNA की बकवास भी जोड़ देते हैं.......अबे, DNA रंग-रूप, कद-बुत आदि पर लागू होता है...सोच-समझ पर नहीं. नानक साहेब के पिता हिन्दू थे...नानक को जनेऊ पहनाने ले गए...नहीं पहना जनेऊ नानक ने.......विरोध किया......उन्होंने हरिद्वार जाकर सूरज की उलटी दिशा में पानी दिया....उन्होंने जगन्नाथ जाकर हो रही आरती का विरोध किया...कहा कि यह पूरा आसमान ही थाल है, और सूरज-चाँद-तारे इसके दीपक है और पूरा नभ-मंडल ही उस परमात्मा की आरती कर रहा है. मूर्ख हैं वो लोग जो यह समझते हैं कि यह ज़रूरी है कि अगर बाप हिन्दू है तो बेटा भी हिन्दू ही होना चाहिए. तो कुल मतलब यह कि सब 'सिखावन' है, ऊपर से थोपी गई.....बच्चा कोरी स्लेट है..जो लिखा गया बाद में लिखा गया. और जो लिखा गया वो सदियों की लिखवाट है...वो शास्त्रों की लिखवाट है...बाप-दादा से चली आ रही....चूँकि आपके बाप-दादा मूर्ख थे...उन्होंने कभी सोचा ही नहीं कि सही क्या और गलत क्या है...उन्होंने बस यही सोचा कि चूँकि हमारे बाप-दादा भी ऐसे ही सोचते थे, ऐसे ही जीते थे सो यही सब सही है.....लेकिन असल में यही सब "गलत" है......यही सब आपको सिखाता है कि आप का धर्म सही है, आपका कल्चर सही है, आपका मुल्क सही है.....बाकी सब गलत.....असल में अगर आपको लड़ना है तो इस सिखावन के खिलाफ़...असल में आप जिसे इलाज समझते हैं वो ही आपकी बीमारी के वजह है...असल में आपको अपने शास्त्र से लड़ना है.....असल में आपको हर शास्त्र से लड़ना है....यह लड़ाई शास्त्र को हराने से ही जीती जाएगी...शस्त्र का तो कोई काम है ही नहीं....असल में आपका दुश्मन कोई मुस्लिम, कोई हिन्दू है ही नहीं.......असल में आपका दुश्मन कोई पाकिस्तान, कोई हिंदुस्तान है ही नहीं...असल में आपका दुश्मन कुरान है, पुराण है.... इनको हरा दो, जंग आप जीत ही जायेंगे. फिर समझ लीजिये.... यदि आपको लगता है कि ये कोई तीर तलवार की जंग थी तो आप गलत हैं यदि आपको लगता है कि ये कोई तोप बन्दूक की लड़ाई है तो आप गलत हैं यदि आपको लगता है कि ये कैसे भी अस्त्र-शस्त्र की लड़ाई है तो आप गलत हैं न...न......फिलोसोफी की लड़ाई है...आइडियोलॉजी की लड़ाई है.....किताब की लड़ाई है.....शास्त्र की लड़ाई है.. ये कुरआन और पुराण की लड़ाई है...... ये आपकी अक्ल पर सवार हैं सवार है कि किसी भी तरह आपकी अक्ल का स्टीयरिंग थाम लें सिक्खी में तो कहते है कि जो मन-मुख है वो गलत है और जो गुर-मुख है वो सही है.....आपको पता है पंजाबी लिपि को क्या कहते हैं? गुरमुखी. मतलब आपका मुख गुरु की तरफ ही होना चाहिए. असल में हर कोई यही चाहता है. इस्लाम तो इस्लाम से खारिज आदमी को वाजिबुल-कत्ल मानता है....समझे? क्या है ये सब? इस सब में आपको लगता है कि 42 सैनिक मारे जाने कोई बड़ी बात है? इतिहास उठा कर देखो. लाल है. और वजह है शास्त्र. दीखता है अस्त्र-शस्त्र. चूँकि आप बेवकूफ हो. चूँकि जब शास्त्र पर प्रहार होगा तो आपकी अपनी अक्ल पर प्रहार होगा...वो आप पर प्रहार होगा....वो आपको बरदाश्त नहीं. इसलिए आप नकली टारगेट ढूंढते हो. अगर सच में शांति चाहते हो तो कारण समझो. तभी निवारण समझ में आयेगा. कारण क़ुरान-पुराण-ग्रन्थ-ग्रन्थि है. ये सब विलीन करो. बाकी इंसान ने काफी कुछ भौतिक-रसायन विज्ञान और मनो-समाज-विज्ञान में तरक्की की है. इन सब की मदद से दुनिया काफी-कुछ शांत हो जाएगी. नमन....तुषार कॉस्मिक नोट:--यदि शेयर कर रहे हैं तो बेहतर है कि कॉपी पेस्ट करें...अन्त में मेरा नाम (तुषार कॉस्मिक) दे दीजिये बस, हो सके नीला कर दें.

स्वस्थ कैसे रहें? कुछ बकवास टिप्स

पञ्च तत्व....हवा, पानी, मिट्टी, अग्नि, आकाश...

हवा---यदि हवा शुद्ध न हो, पूर्ण न मिले तो इन्सान बीमार... इलाज है....गहरी सांस, ताकि ऑक्सीजन मिले ज्यादा और कार्बन-डाई-ऑक्साइड हो बाहर ज़्यादा... यानि किया जाये शुद्ध हवा में प्राणायाम.

पानी--पानी पीयें खूब...लेकिन सिर्फ पानी.... चाय, काफी, कोल्ड-ड्रिंक नहीं.....नीबूं पानी भी चलेगा.

मिटटी--मिटटी से मतलब....हम जो अनाज और फल-सब्जी खा रहे हैं वो मिटटी का ही रूप है..... है उसमें जल भी, हवा भी.....लेकिन ज्यादा मिटटी का ही रूप है....अब मिटटी जाये तन में लेकिन शुद्ध रूप में...सो हो सके तो कच्चा खाएं... जो भी हो सके.

अग्नि....अग्नि से मतलब रसोई की अग्नि से बचें, जहाँ तक हो सके सूरज की अग्नि का प्रयोग करें...धूप में रहें, कुछ समय ज़रूर-गर्मी हो चाहे सर्दी.....और सूरज की अग्नि से पके फल और सब्जियां खाएं-पीयें.

और आकाश.....तो आकाश को निहारें.....पतंग उड़ायें या उड़ती पतंग देखें...रात को तारे देखें...चाँद देखें.....और आकाश को निहारते हुए भीतर के आकाश में उतर जायें....मतलब ध्यान पर ध्यान करते हुए.....आकाश-मय हो जायें...स्वस्थ हो जायें.

तुषार कॉस्मिक

गुरिल्ला युद्ध

धर्मों का विरोध मत कीजिये... करेंगे तो सब आपके खिलाफ हो जायेंगे.....आप धर्मों के सदियों के किले को ढहा नहीं पायेंगे...खुद ढह जायेंगे शायद.... 

आप को ट्रोजन हॉर्स याद है।एक नकली बड़ा सा घोड़ा...जिसके अंदर सैनिक छुपा दिए गए थे ..वो किसी तरह दुश्मन के किले में घुसा दीजिये.....दुश्मन खुद पस्त हो जायेगा।आप बस वैज्ञानिकता पर जोर दीजिये, तर्क पर जोर दीजिये, दलील पर जोर दीजिये, प्रयोगिकता पर जोर दीजिये........धर्म अपने आप गायब हो जायेंगे....यह गुरिल्ला युद्ध है...अँधेरे से मत लड़ें.....बस मशाल जला दें....मशाल तर्क की, मशाल तर्क युद्ध की.......

यदि साबित हो भी जाये कि राम कोई भगवान नहीं, मोहम्मद कोई रसूल नहीं...... तो भी उतना समय बच्चों का व्यर्थ न करवाया जाये, बच्चों को रिस्क में न डाला जाये....

मतलब डिटेल में न भी पड़ें वो तो भी वैज्ञानिक सोच रख सकते हैं.। सीधे ही तार्कीक जीवन जी सकते हैं.

आबादी

आबादी बहुत बढ़ गई है.....मैं इंसानों की नहीं, कुत्तों की आबादी की बात कर रहा हूँ. वैसे तो कुत्तो की आबादी भी इसलिए बढ़ी है क्योंकि बेवकूफ इंसानों की आबादी बढ़ी है। आज शहरों में कुत्ता इन्सान का बेस्ट फ्रेंड नहीं बल्कि एक जबर्दस्त दुश्मन बन चुका है।
ये दीगर बात है कि इन्सान भी खुद का सबसे बड़ा दुश्मन बन चुका है...तो मैं कुत्तों को कूट रही थी...

किसी ज़माने में जब घर बड़े थे और गाँव छोटे तो, जगह थी इन्सान के पास और ज़रूरत भी थी। कुत्ता एक साथी की तरह , चौकीदार की तरह इन्सान की मदद करता था। लेकिन अब जब चौकीदार ही चोर हो....मतलब जब शहर बड़े और घर छोटे हो गए तो अब कुत्ते मात्र सजावट के लिए रखे जाते हैं। भला तेरा कुत्ता मेरे कुत्ते से ज्यादा कुत्ता कैसे?

एक और वजह है. खास करके हिन्दू समाज में. हिन्दू औरतों को कोई भी बाबा, पंडित, मौलवी आसानी से बहका सकता है.......घर में बरकत नहीं, पति बीमार है, बच्चा बार-बार फेल होता है तो जाओ काले कुत्ते को रोज़ दूध पिलाओ.....जाओ, पीले कुत्ते को रोज़ खिचड़ी खिलाओ.....बस ये महिलाएं गली-गली कटोरे ले के कुत्ते ढूंढती हैं....बीमार कुत्तों को दवा देती हैं.....पुण्य का काम है? नहीं. पाप कर रही हैं. इनको worms पडेंगे अगले जन्म में, वो भी जो कुत्तों को पड़ते हैं वो वाले. चूँकि इन्सान हो चाहे कुत्ते......ये सब अब अल्लाह की देन कम हैं डॉक्टर की दी दवा की देन ज्यादा हैं.....अल्लाह तो अगर पैदा करता था तो फिर बीमारी भेज के मार भी देता था...इन्सान ने अल्लाह के नेक काम में दवा बना के बाधा डाल दी.....वो अब मरने नहीं देता......न अपनी औलाद और न कुत्तों की.....वो बीमार नहीं होने देता......अल्लाह के नेक काम में बाधा......इसलिए कीड़े पड़ेंगे.....

खैर, आप मत करिये ऐसा पापकर्म .बीमारी का इलाज करना छोड़ दीजिये, कोई टीकाकरण मत कीजिये. न कुत्तों का न इनसान का.

कुत्ता काट ले इन्सान को, स्वागत कीजिये. भैरों के अवतार ने आप पर कृपा बरसाई है. शुकराना कीजिये. रैबीज़ कुछ नहीं होती... खोखला शब्द है. जय भैरों बाबा की. मौत भी आये तो कोई दिक्कत नहीं है.. और अपने बच्चों को भी वैक्सीन वगैहरा मत दीजिये...चेचक तो वैसे भी "माता" होती है.....स्वागत कीजिये.....पीलिये का धागा तो पंडित जी ही बांध देंगे......सब बढ़िया है.....

क्योंकि आपने अल्लाह, भगवान, गॉड के काम में दखल नहीं देना सो इन्कलाब/जिंदा-बाद...... आने दीजिये संतानों को निरन्तर...चाहे आप की हों चाहे कुत्तों की.....लेकिन बीमारी भी आने दीजिये न.....बीमारी से मौत भी तो आने दीजिये तभी तो बैलेंस बनेगा...... वरना worms पडेंगे आपको.....कुत्तों वाले.....

नमन..तुषार कॉस्मिक

Wednesday, 28 November 2018

मोदी का विकल्प हम हैं

मोदी का विकल्प ही नहीं यार......क्या  करें...............? मोदी को वोट देना तो नहीं चाहते लेकिन उस पप्पू को वोट दें फिर क्या.......?

जब आप ऐसा कुछ कहते हैं...सोचते हैं...तो समझ लीजिये कि आप छद्म लोकतंत्र के शिकार हैं.....आप समझते हैं कि लोकतंत्र का अर्थ सिर्फ मोदी या राहुल गाँधी ही है...या फिर चंद और नकली नेता ही हैं.....

न.....मैंने पिछले विडियो में भी कहा था फिर से कहता हूँ........लोकतंत्र का अर्थ है लोगों का तन्त्र......लोगों द्वारा बनाया हुआ ...लोगों के लिए....ठीक? तो फिर अगर यह तन्त्र लोगों द्वारा ही बनाया जाना है तो फिर यह कैसे मोदी बनाम राहुल बन गया?

तो फिर कैसे मोदी का विकल्प राहुल ही रह गया?

नहीं.....अगर मोदी नकारा साबित हुए हैं तो फिर विकल्प राहुल नहीं है...विकल्प डेढ़ सौ करोड़ भारत की जनसंख्या में से कोई भी प्रतिभाशाली व्यक्ति हो सकता है? क्या एक भी व्यक्ति  भारत माता ने पैदा नहीं किया जो मोदी से बेहतर राजनीतिक सामाजिक सोच रखता हो....प्लान रखता हो....सद-इच्छा रखता हो?

न ..यह कहना कि मोदी का कोई विकल्प नहीं..क्या डेढ़ सौ करोड़ भारतीयों का अपमान नहीं है?

है...सरासर है......याद रखिये यह जो आपको चंद धन्ना सेठों की राजनीतिक गुलामी दी जा रही है न लोकतंत्र के नाम पर..इसे खत्म कीजिये...एक से एक विकल्प मिलेंगे मोदी के...एक से एक बेहतरीन व्यक्ति....


इस मोदी और राहुल की ब्रांडिंग से परे सोच कर देखिये...सोचिये कि क्या यह लोकतंत्र है कि देश दो लोगों की नूर कुश्ती में उलझा रहे? 

समझिये कि जब आप से कहा जाता है कि मोदी का कोई विकल्प नहीं तो असल में आपसे कहा जा रहा है कि इस नकली लोकतंत्र में मोदी का कोई विकल्प नहीं है......इस धन्ना सेठों की पकड़-जकड़ वाले लोकतंत्र में मोदी का कोई विकल्प नहीं है......इस कॉर्पोरेट-मनी के गुलाम लोकतंत्र में मोदी का कोई विकल्प नहीं है....इस मीडिया-ब्रांडिंग वाले लोकतंत्र में मोदी का कोई विकल्प नहीं है.....


ठीक है...हमें इस तरह के लोकतंत्र में मोदी का कोई विकल्प चाहिए भी नहीं...हमें इस तरह का लोकतंत्र चाहिए भी नहीं...हमें इस तरह का लोकतंत्र ही नहीं चाहिए.....हमें असल लोकतंत्र चाहिए.....जिसमें एक मोची भी प्रधान-मंत्री बन सके..बस उसके पास हमारे मुल्क के लिए प्लान होना चाहिए.

नमस्कार.......धन्यवाद 

यात्रा:-- नकली लोक-तन्त्र से असली लोक-तन्त्र की ओर


“हमारा लोक-तन्त्र नकली है”


चुनावी माहौल है. भारत में चुनाव किसी बड़े उत्सव से कम नहीं है. गलियां, कूचे, चौक-चौबारे नेताओं के चौखटों से सज जायेंगे. मीटिंगें शुरू हो जायेंगी. भीड़ की कीमत बढ़ जाएगी. हर जगह उसकी मौजूदगी जो चाहिये. खाना-पीना मुफ्त, साथ में दिहाड़ी भी मिलती है. और सम्मान भी. चाहे नकली ही. लाउड स्पीकर का शोर सुनेगा जगह जगह. “जीतेगा भाई जीतेगा....” मैं सोचता हूँ जब सब जीतेंगे ही तो हारेगा फिर कौन? 

खैर, लोक-तन्त्र है. कहते हैं भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोक-तन्त्र है. लेकिन गलत कहते हैं. नहीं है. लोक-तन्त्र के नाम पर पाखंड है.
मज़ाक है लोक-तन्त्र का. चौखटा लोक-तन्त्र का है लेकिन असल में है राज-तन्त्र, धन-तन्त्र. ये जो नेता बने हैं, इनमें कितने ही ऐसे हैं जिनका किसी न किसी राज-परिवार से सम्बन्ध है. कितने ही ऐसे हैं जिनका बड़े कॉर्पोरेट से सम्बन्ध है. 

लोक-तन्त्र का अर्थ क्या है? लोगों का तन्त्र, लोगों द्वारा बनाया गया, लोगों के लिए. Democracy is the Government of the people, by the people, for the people. राईट? यानि ऐसा सिस्टम, ऐसा निज़ाम जो आम जन बनाता, अपने लिए बनाता, जो आम-जन का ही है. फिर से सुनें. लोक-तन्त्र का अर्थ क्या है? लोगों का तन्त्र, लोगों द्वारा बनाया गया, लोगों के लिए. राईट? यानि ऐसा सिस्टम, ऐसा निज़ाम जो आम जन बनाता है, अपने लिए बनाता है, जो आम-जन का ही है.

यह है परिभाषा लोक-तन्त्र की. क्या भारत का लोक-तन्त्र इस परिभाषा पर खरा उतरता है? क्या यह जो तन्त्र है, इसमें आम व्यक्ति चुनाव जीत  सकता हैं कितने ही विचार-शील हो कोई...कितनी ही गहन सोच रखता हो.....कितने ही सूत्र हों उसके पास इस समाज को सुधारने के...फिर भी बिना अंधे पैसे के वो चुनाव में कैसे कूदेगा? कूदेगा तो कैसे जीतेगा? 

लगभग असम्भव है. है कि नहीं?

तो फिर यह लोक-तन्त्र कैसे लोक-तन्त्र हुआ?

किसे बेवकूफ़ बना रहे हो लोक-तन्त्र के नाम पर? पहले अरबों-खरबों रूपया पानी की तरह बहा दोगे ताकि चुनाव जीत पाओ, फिर उससे कई गुणा लूटोगे, इसे लोक-तन्त्र कहते हैं?

बड़े आराम से हमें समझाया जाता है कि लोक-तन्त्र का अर्थ बेस्ट व्यक्ति चुनना नहीं है बल्कि सब घटिया लोगों में से सबसे कम घटिया व्यक्ति चुनना है. लानत है! सबसे कम घटिया चुनने का ही प्रावधान जो सिस्टम देता हो, वो कैसे अपनाए हुए हैं हम लोग? उसका सेलिब्रेशन कैसे कर सकते हैं हम लोग?

क्यों नहीं हम प्रयास करते कि हमारे समाज को बेहतरीन से बेहतरीन लोग मिलें? किसकी ज़िम्मेदारी है यह?

 मेरी ज़िम्मेदारी है, आपकी ज़िम्मेदारी है कि हम बेवकूफों की तरह वोट देने तक ही खुद को सीमित न रखें. राजनीति में आम आदमी का दखल क्या बस इतना ही होना चाहिए कि वो पांच साल बाद वोट दे और फिर पांच साल तक परित्यक्त सा नौटंकी-बाज़ों को झेलता रहे? 

इस भ्रम से बाहर आयें कि हम लोक तन्त्र में जी रहे हैं. न यह लोक तन्त्र है ही नहीं. तो पहली बात समझ लीजिये कि हमारा लोक-तन्त्र लोक-तन्त्र नहीं है. जी, यही कहा मैंने कि हमारा लोक-तन्त्र लोक-तन्त्र नहीं है. और जब यह लोक-तन्त्र ही नहीं है तो फिर इस तथा-कथित लोक-तन्त्र के तहत बना कोई भी प्रधान-मंत्री, मुख्य-मंत्री, संतरी हमारा नुमाईन्दा नहीं है. हमारा मंत्री-हमारा संतरी नहीं है. 


“नकली लोकतंत्र को असली लोक-तन्त्र में कैसे बदलें?”

चुनाव कैसे हो?

मैं प्रॉपर्टी के धंधे में हूँ. यदि किसी ने कोई मकान बनवाना होता है तो वो अलग-अलग बिल्डरों को बुलवाता है. फिर उसके अपने मकान में, बिल्डर ईंट, सीमेंट, टाइल, पत्थर कैसा लगवाएगा उसकी डिटेल लेता है, कितने समय में बना के देगा, वो पूछता है. 

फिर अग्रीमेंट तैयार किया जाता है जिसमें सब बारीकी से लिखा जाता है. लेट होने की स्थिति में बिल्डर जुर्माना कितना भरेगा, वो लिखा रहता है. और बिल्डर यदि काम रोक दे, काम कर ही न पाए तो उसकी छुट्टी करने का प्रावधान भी लिखा रहता है. 

एक मकान बनाना और एक राष्ट्र बनाना. मकान बनवाने में हम जितनी एहतियात बरतते हैं राष्ट्र निर्माण में उसका एक प्रतिशत भी नहीं ख्याल नहीं रखते. राष्ट्र के मामले में हम सिर्फ ब्रांडेड शक्लों को वोट देते हैं. जो वादा करती हैं और फिर सरे आम मुकर जाती हैं. साफ़ कह जाती हैं ये शक्लें “अरे वो तो चुनावी जुमला था.” यानि चुनाव के मौसम में कुछ भी बका जा सकता है. मकसद सिर्फ वोट हासिल करना था. वाह!

याद रखना तुम वोट देते नहीं, वो वोट लेते हैं. छीनते हैं. जैसे गाय दूध देती नहीं, तुम दूध छीनते हो. ठीक वैसे ही. 

तो हल सीधा है.  हमें शक्लों की, दलों की ब्रांडिंग खत्म करनी है. हमें चुनावी शोर खत्म करना है. हमें चुनावी खर्च खत्म करना है. 

हमें राष्ट्र निर्माण करना है. तो हम सिर्फ इन नेता-गण से राष्ट्र का बिल्डिंग प्लान लेंगे. 

सबसे पहले तो सब पार्टी-बाज़ी खत्म. कोई दल नहीं होगा, ये सब दल नहीं दल-दल हैं. सब निरस्त. और वोट किसी व्यक्ति को नहीं मिलेगा. प्लान को मिलेगा. हर पांच साल बाद चुनाव के एक महीने पहले भावी राजनेता अपना-अपना प्लान पेश करेंगे. जिस काम के लिए व्यक्ति चाहिए, उसी काम के लिए प्लान लिया जायेगा. स्वास्थ्य मंत्री चाहिए तो स्वास्थ्य के लिए प्लान लिया जायेगा. साफ़-सफाई के लिए मंत्री चाहिए तो उसके लिए प्लान लिया जायेगा. मान लीजिये हमें निगम पार्षद चाहिए तो उसका काम है नालियाँ, सडकें, गलियां इनका रख-रखाव. उसके लिए उसका किसी दल से जुड़ा होना क्या ज़रूरी है? वो अपना प्लान पेश करे कि क्या विकास करेगा, कैसे विकास करेगा, कितना पैसा उसे चाहिए होगा, कितने समय में क्या करेगा. साथ में तीन-चार सौ रुपये फीस भी रखी जा सकती है ताकि व्यर्थ के लोगों को थोड़ा दूर रखा जा सके.

ये प्लान सीनियर अध्यापक-गण मिल कर चेक करेंगे. 

कॉपी पेस्ट किये गए सब प्लान निरस्त होंगे. 
किसी भी प्लान पर प्लान देने वाली की कोई पहचान अंकित नहीं होगी. 
प्लान में कोई भी मन्दिर-मस्जिद की बात नहीं होगी, कोई जात-पात की बात नहीं होगी. मात्र विकास की बात होगी. 

जो-जो प्लान पास हो जाते हैं, वो सब जनता के सामने आखिरी एक हफ्ते में पेश कर दिए जायेंगे, टीवी के ज़रिये, रेडियो के ज़रिये, अख़बार के ज़रिये. कोई नेता रैली नहीं करेगा, कोई मीटिंग नहीं करेगा, कोई भाषण नहीं करेगा. आखिरी हफ्ता मुल्क छुट्टी मनायेगा. दिए गए प्लान पर विचार करेगा और वोट करेगा. और वोट सेल-फोन के ज़रिये भी किया जा सकेगा. व्यक्ति का कोई खास महत्व नहीं. प्लान का है. लोग वोट प्लान को देंगे. 

जो-जो प्लान पहले पांच नम्बरों पर चुने जायेंगे, उनको भेजने वाले व्यक्तियों के पॉलीग्राफ टेस्ट होंगे, सबके नार्को टेस्ट होंगे ताकि पता लग सके कि जो प्लान वो दे रहे हैं, उस पर टिके रहने के इच्छुक हैं भी कि नहीं. पास होने वाले व्यक्तियों से अग्रीमेंट लेंगे. एफिडेविट लेंगे. और काम पर लगा देंगे.

और यदि वो जो करने को कह रहा है, जितने समय में करने को कह रहा है नहीं कर पाता तो उस व्यक्ति को दी गई सारी सुविधायें खत्म, उसकी जनता की नुमाईन्द्गी अगले दस साल के लिए खत्म. सिम्पल.

“असल लोक-तन्त्र की कार्य-विधि”

१.असल लोक-तन्त्र में प्लान ही महत्व-पूर्ण होना चाहिए प्लान देने वाला व्यक्ति गौण होना चाहिए. मिसाल लीजिये, जब बिल्डिंग बनती है तो बिल्डर या आर्किटेक्ट वहां हर वक्त खड़े नहीं रहते, उनका बस सुपर-विज़न रहता है. ऐसा ही राष्ट्र निर्माण में होना चाहिए. प्लान एक बार चुना जाये तो जिस व्यक्ति ने दिया वो बस ऊपरी देख-भाल करे. और यदि उतना करने में भी वो सक्षम नहीं तो उसके बाद जो भी लोगों को सबसे ज्यादा वोट मिलें उनको मौका मिले बशर्ते वो उस प्लान पर काम करने को तैयार हों. 

२. क्या यह सम्भव है कि बिल्डर अपनी मर्ज़ी से बिल्डिंग का नक्शा बदल दे? लेकिन यहाँ तो होता है ऐसा. नेता वादा करता है विकास का, नौकरियां देने का, महिला सुरक्षा देने, कीमतें घटाने का और पॉवर में आकर शहरों के नाम बदलने पर जोर देता है, ऊंची-२ मूर्तियाँ निर्माण करने लगता है,  सिलिंडर की कीमत डबल कर देता है, पेट्रोल डीजल के रेट बढ़ा देता है. न. चुना गया प्लान नहीं बदला जायेगा मात्र इस वजह से कि जिसने दिया था वो मर गया, बीमार हो गया, बे-ईमान हो गया. न. अगर आपका बिल्डर मर जाये तो क्या बिल्डिंग नहीं बनेगी? क्या बिल्डिंग प्लान आप बदल देंगे. क्या आधी बनी बिल्डिंग को तोड़ के दुबारा बनायेंगे कि बिल्डर भाग गया छोड़ के. नहीं न. आप दूसरा बिल्डर पकडेंगे और आगे का काम फिर से शुरू करवा देंगे. क्या आपकी रज़ामंदी के बिना बिल्डर बिल्डिंग प्लान बदल सकता है क्या? नहीं न. तो राष्ट्र के मामले भी ऐसा ही होना चाहिए. तो इसके लिए ज़रूरी है कि जो उसने शुरू में प्लान में दिया था उससे हट के वो कुछ भी करने का हकदार न हो और यदि करे तो पहले पब्लिक से उसकी सहमति ले. तभी तो इसे लोक-तन्त्र कहेंगे. नहीं तो वो कुछ भी करता रहेगा. कुल मतलब यह है कि पब्लिक की भागीदारी मात्र वोट देने तक सीमित न रखी जाये.

३. अब आगे. जब हम बिल्डिंग बनवाते हैं तो क्या बिल्डर पर अँधा विश्वास करते हैं कि वो जो मर्ज़ी करता रहे? उसने  अगर टाइल अस्सी रुपये प्रति फुट की लिख के दी है अग्रीमेंट में तो क्या हम देखते नहीं कि जो टाइल लगवाई जा रही है, वो अस्सी रुपये प्रति फुट की है कि नहीं? क्या हम नहीं देखते कि अगर उसने अपने अग्रीमेंट में जैगुआर की टॉयलेट फिटिंग लिख दी है लगाने को तो वो लगा रहा है कि नहीं. देखते हैं न. न सिर्फ देखते हैं बल्कि साथ जा कर खरीदते हैं. पसंद से खरीदते हैं. लेकिन हम क्या करते हैं राष्ट्र निर्माण में? एक बार चुन लिया मंत्री-संतरी, अब वो जो मर्ज़ी डील करता रहता है. किसी को नहीं पूछता. जनता को पता ही नहीं लगने देता कौन से हवाई जहाज़ क्यों खरीदे, कितने के खरीदे? 

४. आज-कल जब बिल्डिंग बनती है तो CCTV लगाये जाते हैं...दिन रात रिकॉर्डिंग चलती है जिसे बिल्डर या मालिक कहीं भी, कभी भी देख सकता है. कैसे कोई हेराफेरी कर जायेगा? बहुत मुश्किल है. यहाँ हम ने सारा निज़ाम खुले-छुट्टे सांड की तरह छोड़ रखा है. हम नेता को, नौकर-शाह को तनख्वाहें बांटते हैं बस. नहीं. हर नेता, हर नौकर-शाह कैमरे के तले होना चाहिए. उसकी हर गति-विधि जनता के सामने हो. जो भी जनता से सम्बन्धित है वो. कोई डील वो बिना रिकॉर्डिंग के नहीं करेगा. बस. आपको लोकपाल बनाने की ज़रूरत ही न पड़ेगी. आपको नकली नेता ढूँढने की ज़रूरत ही न पड़ेगी चूँकि ऐसे सिस्टम में आयेगा ही वही जो असल में कुछ काम करना चाहता है. आज जो सिस्टम हमने बना रखा है लोक-तन्त्र के नाम पर, उसमें इतने छिद्र हैं कि हमें चोर-उचक्के ही मिलेंगे. हमें भाषण-बाज़ ही मिलेंगे. हमें हिन्दू-मुसलमान करने-कराने वाल ही मिलेंगे. आप थोड़ी देर के लिए ट्रैफिक-लाइट हटा लें, गदर हो जायेगा चौक पर. जिसका जैसे मन करेगा वैसे निकालेगा अपनी गाड़ी. सो दोष सिस्टम को दीजिये. नेताओं को मत दीजिये.वो तो  वही करेंगे जो करने का आपका सिस्टम उनको मौका दे रहा है. आप ट्राफिक लाइट ठीक कर दीजिये, ट्रैफिक दुरुस्त हो जायेगा. आप छिद्र बंद कर दीजिये, आपके नेता सीधे हो जायेंगे.

५. चलिए, अगर बिल्डिंग प्लान के मुताबिक आपका बिल्डर काम नहीं करता तो आप क्या करते हैं? क्या उसे उसकी मन-मर्ज़ी से बिल्डिंग बनाने देंगे? नहीं न. आप उस बिल्डर को ही बदल देंगे. बस बिल्डिंग प्लान लीजिये, प्लान को वोट कीजिये, अपने नेता, अपने नौकरों को CCTV तले रखें, जो प्लान के मुताबिक काम न करे उसे बदल दीजिये. आपको सही लोक-तन्त्र मिलेगा. एक कम्पलीट पैकेज. मुझे नहीं लगता कि इस तरह से सोचा गया है आज तक. हो सकता है सोचा गया हो. इससे बेहतर सोचा गया हो. आप भी सोचिये. ये कुछ सुझाव हैं. आप अपने सुझाव भी दीजिये. जब पकवान बेस्वाद हो तो नए तरीके से बनाना चाहिए. ज़रूरी नहीं मेरे बताये तरीके ही अंतिम हों, आप भी सोच सकते हैं. मिल-जुल कर नया पकवान बनाया जा सकता है. बेहतरीन. स्वादिष्ट. healthy. स्वस्थ लोक-तन्त्र. सही अर्थों में लोक-तन्त्र. 

“NOTA कोई हल नहीं है”

आज तक आपके ऊपर लोकतंत्र के नाम पर एक अज़ीब व्यवस्था थोपी गई है. NOTA से भी कुछ नहीं होगा. NOTA दबाने का अर्थ है कि आपने अपनी राय रख दी बस कि आपको कोई भी कैंडिडेट पसंद नहीं. न हो पसंद. आप दबाते रहो. जो ज्यादा वोट पायेगा, वो फिर भी चुना ही जायेगा. फिर क्या फायदा हुआ NOTA का. NOTA से कुछ फायदा न होता.

“आखिरी रास्ता यही है”

यकीन जानें, आपके सब चुनाव वर्तमान व्यवस्था में फेल होंगे. कोई सरकार आये, कोई जाये कोई फर्क न पड़ेगा. और ये जो कहा जा रहा है न कि मोदी का कोई विकल्प नहीं है, गलत है सरासर. यह अपमान है डेढ़ सौ करोड़ भारतीयों का, उनकी अक्ल का. ऐसा क्या है मोदी में कि उनसे ज्यादा कोई काबिल ही नहीं. न. ऐसा कुछ भी नहीं है. मेरे बताएं ढंग पर चलें...एक से एक व्यक्ति मिलेंगे. वैसे भी मेरे तरीके में व्यक्ति गौण है.....प्लान ही महत्वपूर्ण है. व्यक्ति रहे न....रहे...प्लान रहेगा...और प्लान पर काम वाले तो अनेक काबिल लोग मिल जायेंगे. 

तो फिर आपके पास क्या रास्ता है. आप क्या कर सकते हैं? क्या यह लेख पढ़ने मात्र को है. भूल जाने को है. नहीं. आप सुप्रीम कोर्ट को लिखें कि हमें सही लोक-तन्त्र दें. चुनाव आयोग को भेजे. आप अखबार को भेजें. सोशल मीडिया में आवाज़ उठाएं. बार-बार आवाज़ उठाएं. मेरे लेख, मेरे विडियो को सब जगह भेजें. यकीन जानिये, बदलाव आयेगा, ऐसा बदलाव जिसे हमने चाहा है लेकिन आज तक पाया नहीं है. 

अब आखिरी बात.....मैं समाज के लिए सोचता हूँ...लिखता हूँ....बोलता हूँ...तो क्या समाज भी मेरे लिए सोचेगा यदि हाँ, तो फिर डोनेट करें मुझे...ताकि मैं और समय दे सकूं सामाजिक कामों को....और अच्छा-अच्छा सोच सकूं, लिख सकूं, बोल सकूं और नए-नए समाजिक प्रयोग करने में सहायक हो सकूं.........तो डोनेट करें दिल खोल के, जितना आप कर सकते हैं.........जितना ज्यादा से ज़्यादा कर सकते हैं उतना.

नमन...तुषार कॉस्मिक

Friday, 2 November 2018

BE SELECTIVE

मुझ से बहुतेरों को शिकायत है कि मैं उनसे बहस क्यों नहीं करता? उनसे भिड़ता क्यों नहीं? उनको मुझ से भिड़ने का मौका देता क्यों नहीं? वाज़िब शिकायत लगती है. मेरा जवाब है, "भय्ये, मेरा समय मेरा है. मैं नहीं लगाना चाहता आपके साथ. मेरी मर्ज़ी." फिर सवाल उठता है कि क्या मैं सिर्फ 'हाँ'-'हाँ' करने वाले ही अपने गिर्द रखना चाहता हूँ? जवाब यह है कि मैं सिर्फ 'न'-'न'-'न', करने वालों से दूर रहना चाहता हूँ, उनको दूर रखना चाहता हूँ. और बहुत लोग ऐसे भी होते हैं जो बीच में कहीं होते हैं. जिनकी 'हाँ' या 'न' पहले से तय नहीं है, जिनका कोई फिक्स एजेंडा नहीं है. इन लोगों के लिए होता है मेरे जैसे लोगों का प्रयास. इनको मेरे शब्दों से कोई मदद मिल सकती है. जो पहले से ज्ञानी है, वो तो महान हैं ही. और जो पहले से ही किसी विचार-धारा विशेष को खाए-पीये हैं, हज़म किये बैठे हैं, वो महानुभाव हैं. वो सोशल मीडिया पर बस हगने आये हैं, उनके भी मैं किस काम का? सो ऐसे लोगों के साथ मैं समय नहीं लगाता. किसान भी बीज डालने से पहले देखता है कि ज़मीन उपजाऊ है कि नहीं. पथरीली बंजर ज़मीन पर बीज नहीं डाले जाता. हल कहाँ चलाना है? सोचता है. मेहनत कहाँ लगानी है? देखता है. बंजर ज़मीन तो फिर मेहनत करके उपजाऊ बनाई जा सकती है लेकिन इंसानी दिमाग जो बंजर हो, उस पर तो अक्ल का पौधा उगाना लगभग नामुमकिन है. मेरा काम है 'प्रॉपर्टी डीलिंग' का. हमें सिखाया जाता है, "ग्राहक भगवान का अवतार है." "Customer is always right." लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता. इसमें भी मै बहुत सेलेक्टिव हूँ. हरेक कस्टमर के साथ अपना समय लगाने को कभी भी तैयार नहीं रहता. चाहे कस्टमर कष्ट से मर ही जाए. मेरी बला से. भारत में ऐसा माना जाता है कि 'प्रॉपर्टी डीलर' लोगों को मूर्ख बनाते हैं. लेकिन मेरा तो तजुर्बा यह है कस्टमर भी कोई कम नहीं है. जहाँ जिसका दांव चल जाए बस. चूँकि यहाँ कस्टमर की 'प्रॉपर्टी डीलर' के साथ कोई लिखित कमिटमेंट तो होती नहीं, सो कस्टमर प्रॉपर्टी डीलर से सब सीखता है, उसे खूब घुमाता है, उसका तन-मन-धन खराब करवाता है और फिर उसे ड्राप कर देता है. तो मैं बहुत सेलेक्टिव हूँ. कस्टमर थोड़ा भरोसेमंद दिखे तो ही सीट से उठता हूँ. ज़्यादातर तो 'डिस्प्यूटेड प्रॉपर्टी' में डील करता हूँ, उसमें आम डीलर का कोई दखल ही नहीं होता. सो मैदान खाली. करना है मुझसे डील करो. नहीं करना तो भी करना मुझ से पड़ेगा या मुझ जैसे ही किसी से करना पड़ेगा. टिंग. टोंग. यह है अपने ढंग. ढोंग. अंग्रेज़ी की कहावत है. "Garbage in, Garbage Out." यानि कूड़ा-करकट अंदर फेंकोगे तो कूड़ा-करकट ही बाहर निकलेगा. हिंदी का शब्द है 'आहार'. इसका मतलब भोजन नहीं है. इसका मतलब है जो कुछ भी हम अपने भीतर डालते हैं, वो. वो सब आहार है. बकवास विचार, जो हम फेसबुक, you-tube, ब्लोग्स पर पढ़ते-सुनते हैं, उनसे बचें. कूड़ा अंदर न डालें. सावधान रहिये. कुल मतलब यह कि चाहे ऑनलाइन रहो, चाहे ऑफलाइन. थोड़ी अक्ल लगाओ. जीवन के दिन, घंटे, पल सीमित हैं. हरेक इडियट के साथ खराब मत करो. संदेश है मेरा, "Be Selective." तो हे पार्थ. गांडीव उठाओ और अपने ऑनलाइन और ऑफलाइन जीवन से सब बकवास लोग दूर कर दो. नमन...तुषार कॉस्मिक

Tuesday, 23 October 2018

माहवारी- स्त्री- मंदिर

मेरी समझ है कि मन्दिरों में माहवारी के दिनों औरतों को रोकना महज़ इसलिए रखा गया होगा चूँकि पहले कोई इस तरह के पैड आविष्कृत नहीं हुए थे, जन-जन तक पहुंचे नहीं थे........सो मामला मात्र साफ़ सफाई का रहा होगा. आज इस तरह की रोक की कोई ज़रूरत नही. अब सवाल यह है कि क्या आज इस तरह के मंदिरों की भी ज़रूरत है, जहाँ के पुजारी मात्र गप्पे हांकते हैं, बचकाने किस्से-कहानियाँ पेलते हैं? अब इस मुल्क की औरतों को इन मंदिरों को ही नकार देना चाहिए, जहाँ ज्ञान-विज्ञान नहीं अंध-विश्वास का पोषण होता है. महिलाओं को इन मंदिरों में घुसने की बजाए इन मंदिरों के बहिष्कार की ज़िद्द करनी चाहिए.

Monday, 22 October 2018

Biological Waste (जैविक कचरा)

Biological Waste (जैविक कचरा). शायद ही पढ़ा हो आपने कहीं ये शब्द. जब पढ़े नहीं तो मतलब भी शायद ही समझें. 'ब्लू व्हेल चैलेंज'....यह ज़रूर पढ़ा होगा आपने. इस खेल को खेलने वाले बहुत से लोगों ने आत्म-हत्या कर ली. पकड़े जाने पर जब इस खेल को बनाने वाले से पूछा गया कि क्यों बनाई यह खेल? एक खेल जिसे खेलते खेलते लोग जान से हाथ धो बैठें, क्यों बनाई? जवाब सुन के आप हैरान हो जायेंगे. जवाब था, "जो इस खेल को खेलते हुए मर जाते हैं, वो मरने के ही लायक होते हैं. उनका जीवन निरर्थक है. वो Biological Waste (जैविक कचरा) हैं. और मैं कचरा साफ़ करने वाला हूँ." ह्म्म्म..........क्या लगा आपको? यह ज़रूर कोई फ़िल्मी विलेन है. नहीं. मेरी नज़र में यह व्यक्ति बहुत ही कीमती है. और वो जो कह रहा है, वो बड़ा माने रखता है. अब ये जो लोग मारे गए, अमृतसर में रावण जलता देखते हुए. कौन हैं ये लोग? Biological Waste (जैविक कचरा). इनके जीने-मरने से क्या फर्क पड़ता है? इनका क्या योग दान है इस धरती को? इस कायनात को? बीस-पचास साल इस धरती का उपभोग करते. खाते-पीते-हगते-मूतते और अपने पीछे अपने जैसों की ही फ़ौज छोड़ जाते. इंसानियत को, जंगलात को, हवा को, पानी को, पशुओं को, पक्षियों को, कायनात को क्या फायदा था इनके होने से? कौन सा साहित्य रच जाते? कौन सा गीत-संगीत दे जाते इस दुनिया को?कौन सा ज्ञान -विज्ञान प्रदान कर जाते? मूर्ख लोग. जिनकी अक्ल मात्र बचकानी चीज़ों में अटकी है, जिनको होश नहीं कि वो खड़े कहाँ हैं? खड़े क्यों हैं? ऐसी भीड़ का क्या फायदा? सो ज्यादा चिल्ल-पों न मचाएं. "होई वही जो राम रच राखा." "भगवान-जगन नाथ के बिना तो पत्ता भी नहीं हिलता. जीवन मरण सब उस के हाथ है." "जिसकी जितनी लिखी होती है, वो उतने ही साँस लेता है, न एक पल ज्यादा न कम. बाकी आप सब खुद समझ-दार हैं. मुझे तो वो ट्रेन और 'ब्लू व्हेल चैलेंज बनाने वाले एक ही जैसे दीखते हैं. Biological Waste (जैविक कचरा) साफ़ करने वाले. नमन...तुषार कॉस्मिक

उत्सव-धर्मिता

आपको पता है हम उत्सव क्यों मनाते हैं......? चूँकि हमने जीवन में उत्सवधर्मिता खो दी. चूँकि हमने दुनिया नरक कर दी कभी बच्चे देखें हैं.......उत्सवधर्मिता समझनी है तो बच्चों को देखो.... हर पल नये...हर पल उछलते कूदते.....हर पल उत्सव मनाते क्या लगता है आपको बच्चे होली दिवाली ही खुश होते हैं.......? वो बिलकुल खुश होते हैं....इन दिनों में.......लेकिन क्या बाक़ी दिन बच्चे खुश नही होते? कल ही देख लेना ....यदि बच्चों को छूट देंगे तो आज जितने ही खेलते कूदते नज़र आयेंगे यह है उत्सवधर्मिता जिसे इंसान खो चुका है और उसकी भरपाई करने के लिए उसने इजाद किये उत्सव ...होली...दीवाली...... खुद को भुलावा देने के लिए ये चंद उत्सव इजाद किये हैं........खुद को धोखा देने के लिए...कि नहीं जीवन में बहुत ख़ुशी है ..बहुत पुलक है......बहुत उत्सव है. नहीं, बाहर आयें ..इस भरम से बाहर आयें...समझें कि दुनिया लगभग नरक हो चुकी है......हमने ..इंसानों ने दुनिया की ऐसी तैसी कर रखी है कुछ नया सोचना होगा...कुछ नया करना होगा ताकि हम इन नकली उत्सवों को छोड़ उत्सवधर्मिता की और बढ़ सकें वैसे तो जीवन ही उत्सवमय होना चाहिए, उत्सवधर्मी होना चाहिए, लेकिन विशेष उत्सव जो भी मनाये जाएँ, वो मात्र इसलिए नहीं कि हमारे पूर्वज मनाते थे या हम मनाते आ रहे हैं....मनाते आ रहे हैं...... मिस्टर वाटसन एक रेस्तरां में इसलिए खाना खाते आ रहे हैं पिछले तीस साल से चूँकि उनके पिता उसी रेस्तरां में खाना खाते थे चूँकि उनके पिता के पिता उसी रेस्तरां में खाना खाते थे. क्या कहेंगे आप? बहुत बुद्धि का काम कर रहे हैं मिस्टर वाटसन? लोग कांग्रेस को इसलिए वोट देते रहे चूँकि वो कांग्रेस को ही वोट देते आ रहे थे? ऐसे तर्कों को आप कितना तार्किक कहेंगे? है न मूर्खता! लेकिन आप भी तो वही करते हैं. उत्सव इसलिए मनाते हैं चूँकि बस आप मनाते आ रहे हैं...आपके बाप मनाते आ रहे हैं. न.न. उत्सव मनाएं लेकिन थोड़ा जागिये. थोड़ा विचार कीजिये. पुराने किस्से-कहानियों को संस्कृति के नाम पर मत ढोते चलिए. उत्सव मनाने हैं तो नई वजह खोज लीजिये. क्या दीवाली पर एडिसन या निकोला टेस्ला को याद नहीं किया जा सकता जिन्होंने इस दुनिया को रोशन करने में योगदान दिया? कल ही मैं पढ़ रहा था कि गूगल ने लच्छू महाराज को याद किया. वाह! क्या तबला बजाते थे! मैं उनको देख-सुन कर दंग! ऐसे लोगों की याद में उत्सव मना सकते हैं. गणित में रूचि हने वाले रामानुजन की जयंती का उत्सव मना सकते हैं. गायन में रूचि रखने वाले नुसरत फतेह अली की याद में गा सकते हैं. नृत्य में रूचि रखने वाले मित्र 'वैजयन्ती माला' की जन्म-जयंती मना सकती हैं. हम अपने कलाकारों, वैज्ञानिकों की याद में रोज़ उत्सव मना सकते हैं. हम हर पल उत्सव मना सकते हैं. हम बिना वजह के उत्सव मना सकते हैं. बस उत्सव के नाम पर मूर्खताएं न करते जाएँ और ये मूर्खताएं मात्र इसलिए न करते जायें कि आप करते आये हैं, आपके बाप करते आये हैं. नमन...तुषार कॉस्मिक

Monday, 15 October 2018

~~ इन्सान--एक बदतरीन जानवर~~

"बड़ा अजीब लगता है जब मैं लोगों को यह सब कुछ धर्म के नाम पर ये सब करते देखती हूँ। ये तीज त्योहार हैं दीवाली, नवरात्रि,दशहरा, फ़ास्टिंग इत्यादि।बहुत अच्छा है ये सब करना, हम सभी करते हैं। इन सब बातों से बचपन की यादें जुड़ी होती हैं।बस ये भाव और स्मृतियाँ हैं।धीरे धीरे यही भाव और स्मृतियाँ सामाजिक कुरीतियाँ भी बन जाती हैं। एक तो पैसे की बर्बादी होती है उसपे वातावरण ख़राब,ट्रैफ़िक की अव्यवस्था,उधार ले के भी त्योहार मनाओ।कभी सोचा कि यदि हम भारत में ना पैदा हो के चीन में पैदा हुए होते तो सांप का आचार खा के चायनीज़ नए साल के समारोह में ड्रैगन के आगे नाच रहे होते। माइंड के खेल, ये ऐसा कंडिशन करता है कि हम एक चेतना की जगह कोई भारतीय,कोई बुद्धिस्ट,कोई बिहारी कोई पंजाबी हो जाता है। कभी ग़ौर फ़रमाया कि यदि आप इस माहौल में ना जन्मे होते तो क्या ये सब फ़िज़ूल काम करते।हम बस एक समझ हैं, एक चेतना हैं एक वो माँस की मशीन हैं जो सब कुछ सेन्स करती है समझती है। कोल्हू का बैल, धोबी का कुत्ता हमने नासमझी से स्वयं को बनाया है और अब उसी में ख़ूब ख़ुश हो के बन्दर की तरह नाच रहे हैं कभी मगरमच्छ की तरह आँसू बहा रहे हैं। बुरा लग रहा है मुझे अपने आप को इन मासूम जानवरों के साथ कम्पेर करना।क्यूँकि ये बेचारे तो अपने स्वरूप में जीते हैं।कभी देखा कुत्ता बारात ले कर जा रहा है किसी बकरी पे बैठ के और उसके दोस्त शराब पी कर बन्दूकें चला रहे हैं। कभी देखा किसी बैल की शादी में गाय के पिता को कन्यादान करके आँसू बहाते हुए? कभी देखा बिल्ली को देवर और ससुर जिससे वो परदा करती हो? कभी किसी बंदरिया को अपनी शादी में मेहन्दी लगाते देखा। हम मनुष्य सबसे क्यूट जानवर बिलकुल भी नहीं हैं।मैं अक्सर अपनेआप को इन जानवरों की चेतना और आँखों से देखती हूँ।मुझे स्वयं में कुछ भी उनसे बेहतर नज़र नहीं आता।" By Veena Sharma Ji the Gr........8 --::: अबे तुम इंसान हो या उल्लू के पट्ठे, आओ मंथन करो :::-- उल्लू के प्रति बहुत नाइंसाफी की है मनुष्यता ने.......उसे मूर्खता का प्रतीक धर लिया...... उल्लू यदि अपने ग्रन्थ लिखेगा तो उसमें इंसान को मूर्ख शिरोमणि मानेगा......जो ज्यादा सही भी है.........अरे, उल्लू को दिन में नही दिखता, क्या हो गया फिर? उसे रात में तो दिखता है. इंसान को तो आँखें होते हुए, अक्ल होते हुए न दिन में, न रात में कुछ दिखता है या फिर कुछ का कुछ दिखता है. इसलिए ये जो phrase है न UKP यानि "उल्लू का पट्ठा" जो तुम लोग, मूर्ख इंसानों के लिए प्रयोग करते हो, इसे तो छोड़ ही दो, कुछ और शब्द ढूंढो. और गधा-वधा कहना भी छोड़ दो, गधे कितने शरीफ हैं, किसी की गर्दनें काटते हैं क्या ISIS की तरह? या फिर एटम बम फैंकते हैं क्या अमरीका की तरह? कुछ और सोचो, हाँ किसी भी जानवर को अपनी नामावली में शामिल मत करना...कुत्ता-वुत्ता भी मत कहना, बेचारा कुत्ता तो बेहद प्यारा जीव है......वफादार. इंसान तो अपने सगे बाप का भी सगा नही. तो फिर घूम फिर के एक ही शब्द प्रयोग कर लो अपने लिए..."इन्सान"...तुम्हारे लिए इससे बड़ी कोई गाली नही हो सकती...चूँकि इंसानियत तो तुम में है नहीं....और है भी तो वो अधूरी है चूँकि उसमें कुत्तियत, बिल्लियत , गधियत, उल्लुयत शामिल नही हैं...सो जब भी एक दूजे को गाली देनी हो, "इंसान" ही कह लिया करो....ओये इन्सान!!!! तुम्हारे लिए खुद को इंसान कहलाना ही सबसे बड़ी गाली हो सकती है. अब मेरी यह सर्च-रिसर्च 'डॉक्टर राम रहीम सिंह इंसान' को मत बताना, वरना बेचारे कीकू शारदा की तरह मुझे भी लपेट लेगा...हाहहहाहा!!!!! खैर, इन्सान भी जानवर है बिलकुल ...जिसमें जान है, वो जानवर है.......लेकिन एक फर्क है....बाकी जानवर 'पशु' हैं यानि पाश में हैं....बंधे हैं...बंधे हैं प्रकृति से......उनके पास बहुत कम फ्रीडम है......उनके पास चॉइस बहुत कम है........इन्सान के पास बुद्धि ज़्यादा है सो उसके पास चुनाव की क्षमता भी ज़्यादा है...इतनी ज़्यादा कि वो कुदरत के खिलाफ भी जा सकता है......सुनी होगी कहानी आपने भी कि कालिदास या फिर तुलसी दास से जुड़ी है.....जब वो लेखक नहीं था तो इत्ता मूर्ख था कि एक पेड़ पर चढ़ उसी शाख को काट रहा था जिस पर बैठा था वो भी उधर से जिधर से कटने के बाद वो खुद भी धड़ाम से नीचे गिर जाता......कहते हैं कि उसे तो अक्ल आ गई लेकिन इन्सान को वो अक्ल नहीं आई....वो इत्ता ही मूर्ख है कि जिस कुदरत के बिना वो जी नहीं सकता उसे ही नष्ट करने लगा है.....सो यह है चुनाव की क्षमता जो इन्सान को पशुता से बाहर ले जाती है.....लेकिन दिक्कत यह है कि इस चुनाव में वो पशुता से भी नीचे गिर सकता है, गिरता जा रहा है....... इन्सान भी जानवर है बिलकुल -- लेकिन एक बदतरीन जानवर है. इलाज है. इलाज है अपनी लगी बंधी मान्यताओं के खिलाफ पढ़ना, लिखना, सोचना शुरू करो. अपनी मान्यताओं पर शंका करनी शुरू करो. अपने नेता, अपने धर्म-गुरु, अपने शिक्षकों के कथनों पर शंका करो, सवाल करो. दिए गए सब जवाबों पर सवाल करो. अपने सवालों पर भी सवाल करो. यही इलाज है. तुषार कॉस्मिक....नमन

Thursday, 11 October 2018

धूप-स्वास्थ्य-ज्ञान

ज़ुकाम को मात्र ज़ुकाम न समझें......यह नाक बंद कर सकता है, कान बंद कर सकता है, साँस बंद कर सकता है. पहले वजह समझ लें. थर्मोस्टेट. थर्मोस्टेट सिस्टम खराब होने की वजह से होता है ज़ुकाम. थर्मोस्टेट समझ लीजिये कि क्या होता है. 'थर्मोस्टेट' मतलब हमारा शरीर हमारे वातावरण के बढ़ते-घटते तापमान के प्रति अनुकूलता बनाए रखे. लेकिन जब शरीर की यह क्षमता गड़बड़ाने लगे तो आपको ज़ुकाम हो सकता है और गर्मी में भी ठंडक का अहसास दिला सकता है ज़ुकाम. और सर्दी जितनी न हो उससे कहीं ज्यादा सर्दी महसूस करा सकता है ज़ुकाम. खैर, अंग्रेज़ी की कहावत है, "अगर दवा न लो तो ज़ुकाम सात दिन में चला जाता है और दवा लो तो एक हफ्ते में विदा हो जाता है." दवा हैं बाज़ार में लेकिन कहते हैं कि ज़ुकाम पर लगभग बेअसर रहती हैं. तो ज़ुकाम का इलाज़ क्या है? इलाज बीमारी की वजहों में ही छुपा होता है. इलाज है, खुली हवा और खुली धूप. रोज़ाना पन्द्रह से तीस मिनट नंगे बदन सुबह की धूप ली जाये. मैं पार्क जब भी जाता हूँ तो धूप वाला टुकड़ा अपने लिए तलाश लेता हूँ. और बदन पर मात्र निकर. 'जॉकी' का भाई. ब्रांडेड. और व्यायाम और आसन शुरू. उल्लू के ठप्पे हैं लोग जो 'सूर्य-नमस्कार' भी करते हैं तो छाया में. अबे ओये, तुम्हें पता ही नहीं तुम्हारे पुरखों ने जो सूर्य-भगवान को पानी देने का नियम बनाया था न, वो इसलिए कि सूर्य की किरणें उस बहाने से तुम्हारे बदन पे गिरें. और तुम हो कि डरते रहते हो कि कहीं त्वचा काली न पड़ जाए. कुछ बुरा न होगा रंग गहरा जायेगा तो. बल्कि ज़ुकाम-खांसी से बचोगे. हड्ड-गोडे सिंक जायेगें तो पक्के रहेंगे. ठीक वैसे ही जैसे एक कच्चा घड़ा आँच पर सिंक जाता है तो पक्का हो जाता है. बाकी डाक्टरी भाषा मुझे नहीं आती. विटामिन-प्रोटीन की भाषा में डॉक्टर ही समझा सकता है. मैं तो अनगढ़-अनपढ़ भाषा में ही समझा सकता हूँ. हम जो ज़िंदगी जीते हैं वो ऐसे जैसे सूरज की हमारे साथ कोई दुश्मनी हो. एक कमरे से दूसरे कमरे में. घर से दफ्तर-दूकान और वहां से फिर घर. रास्ते में भी कार. और सब जगह AC. एक करेला ऊपर से नीम चढ़ा. कोढ़ और फिर उसमें खाज. अबे ओये, कल्पना करो. इन्सान कैसे रहता होगा शुरू में? जंगलों में कूदता-फांदता. कभी धूप में, कभी छाया में. कभी गर्मी में, कभी ठंड में. इन्सान कुदरत का हिस्सा है. इन्सान कुदरत है. कुदरत से अलग हो के बीमारी न होगी तो और क्या होगा? उर्दू में कहते हैं कि तबियत 'नासाज़' हो गई. यानि कि कुदरत के साज़ के साथ अब लय-ताल नहीं बैठ रही. 'नासाज़'. अँगरेज़ फिर समझदार हैं जो धूप लेने सैंकड़ों किलोमीटर की दूरियां तय करते हैं. एक हम हैं धूप शरीर पर पड़ न जाये इसका तमाम इन्तेजाम करते हैं. "धूप में निकला न करो रूप की रानी.....गोरा रंग काला न पड़ जाये." महा-नालायक अमिताभ गाते दीखते हैं फिल्म में. खैर, नज़ला तो नहीं है मुझे लेकिन एक आयत नाज़िल हुई है:- "हम ने सर्द दिन बनाये और सर्द रातें बनाई लेकिन तुम्हारे लिए नर्म नर्म धूपें भी खिलाई जाओ, निकलो बाहर मकानों से जंग लड़ो दर्दों से, खांसी से और ज़ुकामों से." जादू याद है. अरे भई, ऋतिक रोशन की फ़िल्म कोई मिल गया वाला जादू. वो 'धूप-धूप' की डिमांड करता है. शायद उसे धूप से एनर्जी मिलती है. आपको भी मिल सकती है और आप में भी जादू जैसी शक्तियाँ आ सकती हैं. धूप का सेवन करें. क्या कहा! आपको यह सब तो पहले से ही मालूम था. गलत. आपको नहीं मालूम था. आपको मालूम था लेकिन फिर भी नहीं मालूम था. नहीं. नहीं. मजाक नहीं कर रहा. जीवन की एक गहन समझ दे रहा हूँ आपको. हमें बहुत सी चीज़ों के बारे में लगता है कि हमें मालूम है. लगता क्या? मालूम हो भी सकता है. बावज़ूद इसके हो सकता है कि हमें उन चीज़ों के बारे में कुछ भी न मालूम हो. कैसे? मिसाल के लिए एक पांचवीं कक्षा के अँगरेज़ बच्चे को अंग्रेज़ी भाषा पढनी आती हो सकती है लेकिन ज़रूरी थोड़े न है कि उसे शेक्सपियर के लेखन का सही मतलब समझ आ जाये. उसे शब्द सब समझ में आते हो सकते हैं, वाक्यों के अर्थ भी समझ आते हो सकते हैं लेकिन शेक्सपियर ने जो लिखा, उस सब का सही-सही मतलब उस बच्चे को समझ आये, यह तो ज़रूरी नहीं. वजह है. वजह यह है कि जितना बड़ा जीवन-दर्शन शेक्सपियर देना चाह रहा है अपने शब्दों में, उतना जीवन ही बच्चे ने नहीं देखा. हो सकता है आपने भी वो सब न देखा हो जो मैं दिखाना चाह रहा हूँ. घमंड नहीं कर रहा, लेकिन क्या आपने आज तक धूप को इलाज की तरह देखा? अगर नहीं तो मैं सही हूँ. नमन...तुषार कॉस्मिक

Saturday, 6 October 2018

रॉबिनहुड है हल

शायद आप के बच्चे होंगे या फिर आप किसी के बच्चे होवोगे.......पेड़ पे तो उगे नहीं होंगें. राईट? क्या ऐसा हो सकता है कि माँ-बाप अपने बुद्धिशाली-बलशाली बच्चे को ही सब बढ़िया खान-पान दें और जो थोड़े कमजोर हों, ढीले हों उनको बहुत ही घटिया खान-पान दें? हो सकता है क्या ऐसा? नहीं. हम्म...तो अब समझिये कि आप और मैं इस पृथ्वी की सन्तान हैं. पृथ्वी की नहीं बल्कि इस कायनात की औलाद हैं. हो सकता है हम में से कुछ तेज़ हों, कुछ ढीले-ढाले हों. तो क्या ऐसा होना सही है कि सब माल-मत्ता तेज़-तर्रार को ही मिल जाए? क्या यह सही है कि तेज़ तर्रार रहे कोठियों में और बाकी रहें कोठडियों में? सही है क्या कि तेज़ लोग कारों में घूमें और ढीले लोग उनकी कारें साफ़ करते रहें, पंक्चर बनाते रहें, पेट्रोल भरते रहें? दुरुस्त है क्या कि तेज़ लोग मीट खा-खा मुटियाते रहें और ढीले लोग उनकी रसोइयों में खाना बनाते रहें, बर्तन मांजते रहें? क्या कायनात, जो हमारी माँ है, हमारा बाप है, क्या वो ऐसा चाहेगी, वो ऐसा चाहेगा? अब आप अपने इर्द-गिर्द देखिये.....शायद कायनात ऐसा ही चाहती है. यहाँ हर कमजोर जानवर को ताकतवर जानवर खा जाता है. यही जंगल का कानून है. छोटी मछली को बड़ी मछली का जाती है. यही समन्दर का कायदा है. लेकिन इन्सान तक आते-आते कुदरत ने, कायनात ने, उसे फ्रीडम दी, आज़ादी दी. अब वो कहीं खुद-मुख्तियार है. वो सोच सकता है. वो चुन सकता है. वो चुन सकता है कि ऐसा समाज बनाये जिसमें कमज़ोर भी ढंग से जी पाए. और इन्सान ने ऐसा समाज बनाने का प्रयास भी किया है. असफल प्रयास. आईये देखिये. माँ-बाप तो अपने बच्चों की बेहतरी के लिए जीवन दे देते हैं, जान तक दे देते हैं. लेकिन यह दरियादिली सिर्फ अपने बच्चों तक ही क्यों? कुछ तो गड़बड़ है? गड़बड़ यही है कि इन्सान ने इंसानियत को सिर्फ अपने परिवार तक के लिए सीमित कर लिया है. वो लाख 'वसुधैव-कुटुम्बकम' के, 'विश्व-बंधुत्व' के गीत गाता रहे लेकिन उसकी सोच परिवार से आगे मुश्किल ही बढती है. नतीजा यह है कि पूरा इंसानी निज़ाम परिवार को बचाने में लगा है. परिवार की सम्पत्ति बचाने में लगा है. परिवार से बाहर आज भी जंगल का कानून है, परिवार के बाहर आज भी कमज़ोर आदमी को मारा जाता है. आप कहेंगे कि नहीं, हम सभ्य हैं. हमारे पास संविधान है, विधान है, पुलिस है, फ़ौज है, जज है, कोर्ट है. नहीं. सब बकवास है. यह सब निजाम इस बेहूदा सिस्टम को बचाए रखने के लिए है. जिसमें अमीर अमीर बना रहे और गरीब गरीब बना रहे. जिसमें कुदरत का जंगली कायदा चलता रहे. कुदरत का समंदरी कानून चलता रहे. फिर गलत क्या है? गलत यह है कि कुदरत ने इन्सान को अक्ल दी. अक्ल दी कि वो जंगली सिस्टम से कुछ बेहतर बनाए, समंदरी कायदे-कानून से ऊपर उठे. इन्सान ने बनाया लेकिन वो जो बनाया वो सिर्फ परिवार तक सीमित कर दिया. जो जज्बा, वो त्याग, वो खुद से आगे उठने का ज्वार, वो सब परिवार के लिए, बच्चों के लिए ही रह गया. और कुल मिला कर यह जंगल से भी बदतर हो गया. हम कंक्रीट का जंगल बन गए. हम समन्दर से गन्दला नाला बन गए. हमारी सभ्यता असल में तो यह सभ्यता है ही नहीं. हमारी सभ्यता असभ्य है. 'सभ्यता'. सिर्फ खुद को तसल्ली देने को शब्द घड़े हैं इन्सान ने. इस लिज़लिज़े से सिस्टम को सभ्यता कहना सभ्यता शब्द की खिल्ली उड़ाना है. हमारे पास कोई संस्कृति नहीं है. हम प्रकृति से नीचे गिर गए हैं. हम उलझ गए हैं. हम विकृत हो गए हैं. प्रकृति मतलब जंगल का कानून. मतलब कमज़ोर ताकतवर की खुराक है प्रकृतिरूपेण. संस्कृति मतलब सम+कृति. संतुलित कृति. संस्कृति का अर्थ ही यह है कि यह जो असंतुलन है,प्राकृतिक असंतुलन है इसे खत्म किया जाए एवं कमजोर और ताकतवर को समानता दी जाये. कम से कम जहाँ तक सम्भव हो, वहां तक तो प्रयास हो. आप अक्सर पढ़ते होंगे कि मुल्क की अधिकांश सम्पति चंद लोगों के पास ही सिमटी है. मुल्क क्या दुनिया की ही अधिकांश सम्पत्ति चंद लोगों के पास है. तो फिर बाकी दुनिया के पास क्या है? बाकी दुनिया के पास संघर्ष है. गरीबी है. भुखमरी है. बाकी दुनिया संघर्ष में पैदा होती है, संघर्ष में जीती है, संघर्ष में मर जाती है. इसे संस्कृति कैसे कहें? इसे विकृति न कहें क्या? हल क्या है? हल सिम्पल है. रॉबिनहुड. जी हाँ, रॉबिनहुड है हल. वो अमीरों से लूटता था और गरीबों में बाँट देता था. जब कोई मन्दिर या गुरुद्वारे में चोरी होती है तो मुझे लगता है चोरों ने अतीव धार्मिक कार्य किया है. लूट हमेशा ग़लत हो, ऐसा ज़रूरी नहीं. लेकिन इसमें कुछ सावधानी की ज़रूरत है. अगर हर कमाने वाले का धन न कमाने वाले को दे दिया जायेगा तो ऐसे तो कोई अपनी उर्जा धन कमाने में लगाएगा ही नहीं. फिर हल क्या है? हल यह है कि एक तो जो इस धरती पर आ गया उसे बुनियादी ज़रूरतें लगभग मुफ्त मिलनी चाहिए लेकिन यह तभी हो सकता है जब पृथ्वी पर आने वाले लोगों की गिनती अंधी न हो. वो उतनी ही हो, जितनी यह धरती ख़ुशी-ख़ुशी झेल सकती है. इन्सान की क्वांटिटी घटानी होगी और क्वालिटी बढ़ानी होगी. उसके लिए जनसंख्या सुनियोजित होनी चाहिए. और शिक्षा पर ज़बरदस्त काम. यह जो शिक्षा अभी दी जा रही है, यह नब्बे प्रतिशत कचरा है. इसकी कतर-बयोंत ज़रूरी है. पूँजी कमाने दी जाये, लेकिन पूँजी का अनलिमिटेड जमाव खत्म होना चाहिए. एक निश्चित सीमा के बाद निजी पूँजी का हक़ खत्म. उस सीमा के बाद कमाया गया हर पैसा पब्लिक डोमेन में ट्रान्सफर. जैसे आज कॉपी-राईट के मामले में होता है. आप कुछ लिखते हैं, आपका उस पर कानूनी हक़ है लेकिन यह सदैव के लिए नहीं है. एक समय-सीमा के बाद आपका लेखन पब्लिक को मुफ्त मिलेगा, सर्व-जन का हक़ उस पर होगा. ज़मीन पर एक व्यक्ति का एक सीमा से ज़्यादा कब्जा धरती माता के प्रति और इंसानियत के प्रति अन्याय है. मैं पश्चिम विहार में रहता हूँ. मेरे पास ही एक इलाका है पंजाबी बाग. पंजाबी बाग में हज़ार गज़ तक के घर हैं. कल्पना कीजिये, दिल्ली के बीचों-बीच हज़ार गज़ के घर. इन घरों में गिनती के लोग रहते हैं. पश्चिम विहार और पंजाबी बाग के बीच एक इलाका है. मादी पुर. यहाँ एक-एक कमरे में दसियों लोग रहते हैं. यह अन्याय है. कहीं किसी के पास दस कमरे का घर हो कहीं एक कमरे में दस लोग सो रहे हों. यह अन्याय है. असीमित ज़मीन-ज़ायदाद को सीमित करना ज़रूरी है. ऐसा पहले भी किया गया है. ज़मींदारी निराकरण एक्ट ऐसा ही था. उस के बल पर ज़मींदारों से ज़मीन छीन खेतिहारों में बाँट दी गयी थी. यह बिलकुल किया जा सकता है. पहले राजा-महाराजा की अनगिनत रानियाँ थीं, आज संभव नहीं. चोरी-छुपे जो मर्ज़ी करते रहो लेकिन कानूनन एक से ज्यादा बीवी नहीं रख सकते.कानून से असीमित हक़ सीमित किये जा सकते हैं. बस यह है मेरी सोच. मॉडर्न रॉबिनहुडी सोच. इसे आप वामपंथ कह सकते हैं. वैसे मुझे आज तक समझ नहीं आया कि वामपंथ और दक्षिणपंथ है क्या? राईट इज़ राईट एंड लेफ्ट इज़ रॉंग. ऐसा है क्या? मुझे ऐसा ही लगता है. वैसे मैंने कहीं पढ़ा कि इन्सान के दिमाग का बायाँ हिस्सा तर्कशील है और दायाँ हिस्सा भावनाशील. सो इसी ग्राउंड पर वामपंथी उनको कहा गया जो ज्यादा तर्क-वितर्क करते हैं और दक्षिण-पंथी उनको कहा गया जो भावनाशील होते हैं. वैसे मुझे यह भेद-विभेद आज तक पल्ले नहीं पड़ा चूँकि मैं तर्क में बहुत ज़्यादा यकीन करता हूँ. मैंने तर्कशीलता के पक्ष में लेख लिखे हैं. लेकिन मैं इत्ता ज्यादा भावुक हूँ कि घर के सब बच्चे मेरा मजाक उड़ाते हैं. कब कोई फिल्म देखते हुए मेरे आंसूं टप-टप गिरने लगें, कोई पता नहीं. कब कुछ पढ़ते हुए मेरी आंखें दबदबा जाएँ, कुछ ठिकाना नहीं. क्या कहूं खुद को? वामपंथी? दक्षिण-पंथी? क्या? आप मुझे कम्युनिस्ट कह सकते हैं. ठप्पा ही तो लगाना है. जान छुड़ाने के लिए ठप्पा लगाना ज़रूरी है. लेकिन कुछ भी कहते रहें. आप मुझ से पीछा नहीं छुडा सकते. आज जो अनाप-शनाप टैक्स लगाए जाते हैं. वो क्या है? वो टैक्स से एकत्रित धन ज़रूरत-मंदों में बांटने का विकृत प्रयास है. वो रॉबिनहुड बनने का सरकारी प्रयास है. नाकाम प्रयास है. सवाल यह है कि यदि हम असीमित धन-असीमित ज़मीन एकत्रित ही नहीं करने देंगे तो क्यों कोई उद्यम करेगा? सही सवाल है. जवाब बड़ा आसान है. क्या आज जिस अंधी दौड़ में लोग शामिल हैं, ज़मीन-जायदाद एकत्रित करने को, वो इसलिए शामिल हैं कि उन्होंने वो सम्पदा प्रयोग करनी है? नहीं. लोग एक हद के बाद तो सम्पदा प्रयोग ही नहीं कर पाते. हाँ, वो सिर्फ अपने अहम के फैलाव के लिए धन जोड़ते रहते हैं. यदि समाज उनकी प्रेरणा ही बदल दे तो? हम धन-सम्पदा कमा कर समाज के लिए छोड़ने वाले को बड़ा नाम दे सकते हैं. जैसे अभी भी देते हैं अगर कोई अस्पताल बनवा देता है तो, स्कूल बनवा देता है तो, लाइब्रेरी बनवा देता है तो. ऐसा किया जा सकता है. कोई धन क्यों कमाए, उसके उत्प्रेरक बदले जा सकते हैं. वैसे अभी भी हम सारी कमाई तो किसी को भी प्रयोग करने ही नहीं देते. हम टैक्स के रूप में छीन लेते हैं. हमने एक सीमा के बाद कॉपीराईट खत्म किया हुआ है.हमने ज़मींदारी प्रथा खत्म की है, ज़मीन बाँट दी जोतने वालों को. बुनियादी किस्म की ज़रूरतें तो बहुत थोड़े प्रयास से या कहूं कि लगभग मुफ्त में ही सबको मिल जानी चाहियें लेकिन उसके बाद अगर किसी को और बेहतर जीवन चाहिए तो वो प्रयास कर सकता है लेकिन उसके प्रयास से जो भी धन उत्पन्न होगा एक सीमा के बाद वो उस धन को अपने या अपनी अगली पीढ़ियों के लिए प्रयोग नहीं कर पायेगा, ऐसे प्रावधान बनाये जा सकते हैं. रॉबिनहुड बनना ही होगा चूँकि “रॉबिनहुड है हल”. लेकिन काफी कुछ मेरे ढंग से. नमन...तुषार कॉस्मिक

Monday, 10 September 2018

YOUR TEACHERS ARE CHEATERS

Your Teachers are Cheaters. Hence fuck off this fucked up education. We learn in many ways. How did we learn our mother tongue? Of-course through our mother and father's words, their tongue. How do we learn a foreign language? Now there are two ways, first same as we learn our first language and the second , bookish way, learning, tenses, verbs, nouns and grammar. How did you learn typing? The classic way, the way of typing schools? Which finger on which letter, defined way? Or typing haphazardly, any finger, whichever suited you on any letter and by and by, typing fine, not perfectly still very fine and very fast too. How do a singer learn? Reshma, Sai Zahoor and many other world class singers, either never learnt or learnt very little in a bookish way. So to where I wanna drive you? Simple, learn, learning is good, but don't rely upon bookish style only. Once I had some monetary exchanges with someone. The man was not much literate. I was explaining principal amount, then the days he kept my money with him, then the interest rate etc.... in my way, bookish way. All Greek to him. My father was also sitting there. He addressed me somewhat rebukingly, his words," 2+2=4, 1+3=4,5-1=4, explain the other in the way in which he can understand, not the way you understand." Here is the point. One should learn and one should teach. But how? As the learner wants to get taught. As the learner can learn. As the learner's inherent qualities, capabilities get enhanced. If Reshma had been taught music in style of Lata Mangeshkar, what would have happened? A disaster. She had a different voice, different pattern, a rawness. Gotcha? Do you think people who are pass outs of Hotel management course become good Hoteliers? Come on. They even do not become good hotel employees many a times. MBA pass outs, master of business administration, what they do? They just become employees of some under graduate business tycoon. I was just reading that Jack Ma, the richest man of China, the owner of Alibaba.com, a company which is bigger than the combination of eBay.com and Amazon.com, he was rejected from college both at home and abroad more than a dozen times before finally securing a spot at a local university in his hometown of Hangzhou, where he studied English. So what is the point of this whole writing? Am I against learning? Never. I understand, it is the learning which defines a human being, how can I be against learning? Never. I am against putting learning into some defined pattern. Even if someone learns through this kinda pattern, one becomes THE ONE, when learns outta that pattern. And what present education system does? It is preparing kids to become just employees. It is preparing kids to succeed as employees and fail as adventurers, as entrepreneurs. Fail as enthusiasts.Fail as freethinkers. It is preparing our kids to fail in LIFE. This education is for the benefit of everyone except the learner. Everyone. The schools, the politicians, the religions. All, except the kid. I have written above that the teacher should teach as the learner can understand, as the learner's capabilities may flourish.Education is for the learner, not for the teacher, not for the vested interests of anyone else. This word education comes from "educe", which means "to bring out". That means education is the process to bring out the inherent capabilities of a learner, to water the seed, to provide the appropriate land, to do everything to help the seed to be a grand tree, to flower, to flourish. And what our education does? It just go on outpouring its established garbage upon the learner and suffocate the slightest chance of flowering the natural capabilities. This system, this pattern tries every bit to circumscribe students' inherent capabilities. Actually it has nothing to do with anyone's individuality. "Everyone should understand Pythagoras theorem. Everyone should understand higher algebra. Everyone should understand when was Akbar born and when died, exact year. Hell!" "The kid wanna understand Zebra and teacher wanna teach algebra. The kid wanna understand emotion and the teacher waanna teach motion, Newtons's laws of motion. The kid wanna understand his life and the teacher wanna him understand Akbar's life. Hell !!" Is this education or some system to distort human intelligence? What I understand, this is a conspiracy of the politicians, the religious people (they too are politicians only with a different name tag) and the big capitalists. Why they don't wanna raise free thinking, free thinkers? Simple. A free thinker will never accept slavery of some fat ass just because his/her father left million or billion dollars in his/her name. A free thinker may challenge this whole system of inheritance. A free thinker may challenge this stupid system called democracy, which is just another name of imperialism. A free thinker is very dangerous. Every child is a free thinker. So systematic system, to destroy the natural intelligence of the kids. Education is thy name. This education system is an insult to the intelligence. This education is a conspiracy against the humanity. A crime against the humanity. Gotcha? Beware! Learn, but first learn to learn. Learn but be aware. Hope you do. Comment plz. Tushar Cosmic

CONFUSION

Confusion is a very high state of mind. Only intelligent people get confused. Have you seen a buffalo confused ever? More idiotic a being, more steadfast the one is. Clarity comes outta confusion. A wise one is clear over many things and confused over many more things.

Sunday, 9 September 2018

नावेल-फिल्म-टी वी नाटक-----कुछ नोंक-झोंक

"संजीव सहगल चमत्कारों में आस्था रखने वाला व्यक्ति था जो समझता था कि खास आशीर्वाद प्राप्त, खास नगों वाली, ख़ास अंगूठियाँ, ख़ास दिनों में ख़ास ऊँगलियों में, खास तरीके से पहनने से उसकी तमाम दुश्वारियां दूर हो सकती थीं." कुछ नोट किया आपने इन शब्दों में. यह ख़ास तरीका है लेखक का लिखने का जो उन्हें आम से ख़ास बनाता है. सुरेन्द्र मोहन पाठक. उनके शब्द हैं ये. नावेल है 'नकाब'. "यारां नाल बहारां, मेले मित्तरां दे." फेमस शब्द हैं उनके पात्र रमाकांत के. और कितनी गहरी बात है यह. पढ़ा होगा आपने भी कहीं, "दिल खोल लेते यारों के साथ तो अब खुलवाना न पड़ता औज़ारों के साथ." यही फलसफा है जो रमाकांत के मुंह से पाठक साहेब सिखा रहे हैं. मैंने तो देखा है मेरे बहुत करीबी रिश्तेदार को. वो कभी हंसा नहीं अपने भाई-बहन-रिश्तेदार के साथ बैठ. पैसा बहुत जोड़ लिया उसने. लेकिन तकरीबन पैंतालिस की उम्र में ही उसके दिल की सर्जरी हो गई थी. खैर, खुश रहे, आबाद रहे. मुझे कभी भी पाठक साहेब के कथानक जमे नहीं, लेकिन उनका अंदाज़े-बयाँ, उनके पात्रों के मुंह से निकले dialogue. वाह! वाह!! उनके पात्रों की बात-चीत, नोंक-झोंक-छौंक, तर्क-वितर्क-कुतर्क. वल्लाह! (वैसे अल्लाह नामक कुछ है नहीं). बहुत कुछ सिखाता है यह सब पढ़ने वालों को. उनके नोवेलों में बहुत एपिसोड हैं, जो हमारी रोज़-मर्रा की जिंदगियों की सोच-समझ को बेहतर बनाने के कूवत रखते हैं. समाज की गहराइयों को सहज ही नाप डालते हैं पाठक साहेब के पात्र, संवाद, घटनाएं, उप-घटनाएं. कुल जमा मतलब यह कि पाठक साहेब जासूसी-थ्रिलर-मिस्ट्री लिखते हैं और उनका लेखन मुझे पसंद है, बहुत पसंद है लेकिन जासूसी-थ्रिलर-मिस्ट्री छोड़ के. वैसे मैं बहुत फिल्म भी इसलिए पसंद करता हूँ कि मुझे कोई करैक्टर पसंद आ गया या फिर वो फिल्म जिस परिवेश को दिखा रही है, वो परिवेश मुझे बहुत भा गया. मिसाल के लिए "किल-बिल" फिल्म. इस फिल्म में मुझे कुछ भी ख़ास नहीं लगा सिवा हेरोइन 'उमा थर्मन' की उपस्थति के. इसकी कहानी में कुछ भी खास नहीं. सीधी-सादी बदला लेने की कहानी है. हेरोइन के साथ बहुर बुरा किया जाता है, जिसका वो बदला लेती है. एक्शन है, तलवार-बाज़ी है, मार्शल आर्ट है, लेकिन सब सेकंड ग्रेड. बस उमा थर्मन का स्क्रीन पर होना ही जम गया मुझे. एक टेलीविज़न सीरीज थी. Fargo.वो कहानी जिस परिवेश में दिखाई गई, मुझे उस वजह से खूब जमी. सब तरफ बर्फ. बीच में कस्बा. थ्रिलर. लेकिन थ्रिलर से ज्यादा मुझे जहाँ घटनाएं घटित हो रही थीं, वो परिवेश, वो चौगिर्दा थ्रिलिंग लग रहा था. हर फ्रेम ऐसा कि लगे बस जैसे वहीं, उस कस्बे में पहुँच गए. मतलब कोई कहानी जंगल में घट रही है या पहाड़ पर या मेट्रो सिटी में या फैक्ट्री में, कहाँ? उसमें कोई पुरातन काल दिखाया जा रहा है या कोई भविष्य की परिकल्पना है, मतलब वो सेटिंग, जहाँ कहानी घटित हो रही है, वो "सेटिंग". वो भी पसंद-नापंसद की वजह है मेरे लिए. हमारे यहाँ की कुछ फिल्में कभी भी स्विट्ज़रलैंड पहुँच नाचने-गाने लगती हैं, यह उसी "सेटिंग" की बेतुकी समझ है. यह बकवास है. अनर्गल है. यह कहानी की ऐसे-तैसी फेरना है. मैं इसके तो सख्त खिलाफ हूँ. कहानी किसी भी नावेल, फिल्म या टेलीविज़न सीरीज़ की जान है. यह बात सही है. लेकिन मुझे लगता है कि बहुत और फैक्टर भी हैं, जो किसी भी कहानी को लोगों की पसंद या नापसंद बनाते हैं. ऐसा ज़रूरी नहीं जो फैक्टर मुझे जंचते हो, वो ही आपको भी जंचते हों, सभी को जंचते हों, लेकिन कुछ तो मुझ में और आप में सांझा हो सकता है. सो उन सांझे फैक्टर पर भी लेखक, फिल्मकार को ध्यान देना चाहिए. और यह ध्यान दिया भी जाता है, लेकिन शायद उतना नहीं जितना दिया जाना चाहिए. नमन.....तुषार कॉस्मिक