Tuesday, 15 August 2017

कृष्ण जन्माष्टमी स्पेशल

1. गाते हो, "होली खेलत रघुबीरा अवध माँ"

"ब्रज में होली खेलत नन्दलाल"

लानत! खेलनी हैं होली तुम खेलो भाई. तुम क्या किसी रघुबीर या नंदलाल से कम हो?

अपना बच्चा चलना शुरू करेगा तो गाने लगेंगे.
"ठुमक-ठुमक चले श्याम."

अबे ओए, तुम्हारे बच्चे किसी शाम, किसी राम से कम नहीं है.

जीसस सन ऑफ़ गॉड!
वैरी गुड!! बाकी क्या सन ऑफ़ डॉग हैं?

मोहम्मद. अल्लाह के रसूल. वो भी आखिरी.
शाबाश!! अल्लाह मियां चौदह सौ साल पहले ही बुढा गए. थक गए. चुक गए. या फिर सनक गए. 

होश में आओ मित्रवर, होश में आओ. 

आप, आपके बच्चे किसी राम, श्याम, किसी जीसस, किसी भी रसूल से कम नहीं हो. 

आप, हम सब कोई इस धरती पर सेकंड क्लास, थर्ड क्लास कृतियाँ नहीं हैं उस कुदरत की, उस प्रभु की, उस स्वयंभू की. नहीं. ऐसा कुछ भी नहीं है. 

हम सब किसी अवतार, किसी रसूल, किसी परमात्मा के इकलौते पुत्र की चबी-चबाई कहानियाँ चबाने को नहीं हैं. हम कोई आसमानी किताबों की, कोई धुर की बाणी, कोई भगवत गीता की गुलामी को नहीं हैं यहाँ इस धरती पर.

इस मानसिक गुलामी से बाहर आओ.

चबे-चबाये चबेने थूक दो. कुछ नहीं रखा इन सब में. आखिर चीऊंग-गम भी कितनी देर चबाते हैं आप?

मेरा मेसेज साफ़ है,  हम सब अपनी लीला खेलने आये हैं. क्यूँ किसी और की लीला ही देखते रहें? हम किसी से कम नहीं. और यदि अपनी लीला को बेहतर बनाने के लिए किसी और की लीला से कुछ सीखना भी हो तो यह कोई तरीका नहीं कि किसी एक ही की लीला को देखे जाओ और वो भी बंद अक्ल के, सब कुछ सही गलत पहले से ही मान कर?

फ़ोन स्मार्ट हो गए, हम पता नहीं कब होंगे? हम तो बस स्मार्ट फ़ोन से भी राम-लीला के दृश्य कैद करने में लगे हैं. नहीं, भई, दिमाग खोलो, स्मार्ट बनो और स्मार्ट फ़ोन ही नहीं, स्मार्ट ज़िन्दगियाँ आविष्कृत करो.

२, कृष्ण का झूठा दावा
***यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर भवित भारत
अभ्युथानम धर्मस्य, तदात्मानम सृजामयहम***

भगवद-गीता यानि भगवान का खुद का गाया गीत. बहुत सी बकवास बात हैं इसमें. यह भी उनमें से एक है.

अक्सर ड्राइंग-रुम की, दफ्तरों की दीवारों पर ये श्लोक टंगा होता है. कृष्ण रथ हांक रहे हैं और साथ ही अर्जुन को उपदेश दे रहे हैं.

"जब-जब भी धर्म की हानि होती है, तब-तब मैं यानि कृष्ण धर्म के उत्थान के लिए खुद का सृजन करता हूँ."

पहले तो यही समझ लीजिये कि महाभारत काल में भी कृष्ण कोई धर्म की तरफ नहीं थे. कैसा धर्म? वो राज-परिवार का आन्तरिक कलह था. दोनों लोग कहीं गलत, कहीं सही थे. धर्म-अधर्म की कोई बात नहीं थी. जो युधिष्ठर जुए में राज्य, भाई, बीवी तक को हार जाए उसे कैसे धर्म-राज कहेंगे? द्रौपदी को किसने नंगा करने का प्रयास किया? उसके पति ने जो उसे जुए में हार गया या दुर्योधन ने जो उसे जुए में जीत गया? कृष्ण तब क्यूँ नहीं प्रकट हुए जब द्रौपदी दांव पर लगाई जा रही थी? कृष्ण तब क्यूँ नहीं प्रकट हुए, जब  द्रौपदी दुर्योधन का उपहास करके आग में घी डालती है? जब कर्ण को रंग-भवन में अपमान झेलना पड़ा था चूँकि वह सूत-पुत्र था, जब एकलव्य का अंगूठा माँगा गया था? 

और महाभारत. वो कोई धर्म-युद्ध था? कोई युद्ध धर्म-युद्ध नहीं होता. युद्ध सिर्फ युद्ध होता है. युद्ध का अर्थ ही होता है कि अब बात नियमों की, धर्म की  हद से बाहर हो चुकी है. आप लाख कहते रहो धर्म युद्ध, लाख करते रहो विएना समझौता, लेकिन युद्ध सब नियम, सब धर्म तोड़ देता है.

महाभारत में सबसे पहले और सबसे ज़्यादा अधर्म अगर हुआ तो वो पांडवों की तरफ से हुआ था. भीष्म को गिराया गया चालबाज़ी से. शिखंडी को बीच में खड़ा करके. अब आप क्या एक्स्पेक्ट करते हैं कि सामने वाला रिश्ते निभाये? बड़ा शोर मचाया जाता है आज तक कि अभिमन्यु को घेर कर मार दिया गया, मारते नहीं तो और क्या करते? टेढ़-मेढ़  की शुरुआत तो  पांडव पहले ही कर चुके थे. बस कौरव चाल-बाज़ियों में कृष्ण से कमज़ोर पड़ गए और मारे गए.

लेकिन क्या धर्म की स्थापना हो गई? कहते हैं कि पांडवों के वंशज भी मारे गए और कृष्ण के भी. और कृष्ण भी सस्ते में ही निपट गए अंत में.

क्या उसके बाद भारत में या दुनिया में कोई अधर्म नहीं हुआ? अगर हुआ तो फिर कृष्ण के इस कथन का क्या अर्थ?

शूद्रों पर अत्याचार हुए, बौधों पर अत्याचार हुए, चार्वाक पर अत्याचार हुए, फिर मुग़लों ने हाहाकार मचा दी, बंटवारे में लोग काटे गए, फिर कश्मीर में लोग मारे गए, पंजाब में, दिल्ली में, गुजरात में, जगह-जगह...

ज़रा भारत से बाहर देख लें....दो विश्व-युद्ध लड़े गए. हिटलर ने यहूदियों को हवा बना के उड़ा दिया, लाखों को.

जापानियों ने चीनियों की ऐसी-तैसी कर दी.

अंग्रेजों ने आधी दुनिया को गुलाम कर दिया.

इस्लाम चौदह सौ सालों से क़त्ल-ओ-गारत मचाये है. इस्लाम के मुताबिक जो मुसलमान नहीं, उसे जीने का हक़ ही नहीं.

कब नहीं हुई धर्म की हानि? कहाँ नहीं हुई धर्म की हानि? कौन से भगवान ने अवतार लिया  और धर्म की स्थापना कर दी? 

असल में अवतार की धारणा ही गलत है. कोई ऊपर से आसमान से आकर नहीं टपकता. कोई सुपर-मैन जन्म नहीं लेता. जो कोई भी पैदा होता है, हम में से ही होता है. 

इन्सान आज भी सभ्य होने के लिए संघर्ष-रत है. वो कभी सभ्य हुआ ही नहीं. आज भी स्कूल में पढ़ाते हैं यूनानी सभ्यता, रोमन सभ्यता, चीनी सभ्यता, भारतीय सभ्यता. सब झूठ बात. इनमें कोई सभ्यता सभ्य नहीं थी. इंसान तो आज भी सभ्य नहीं है. तमाम सभ्यताएं सभ्य होने का प्रयास भर हैं. 

रोम में इंसानों को इंसानों पर छोड़ दिया जाता था लड़ने-मरने को और सभ्य लोग यह सब देख ताली पीटते थे. इसे सभ्यता कहेंगे? आज भी आधी से ज़्यादा दुनिया गरीब पैदा होती है, गरीब जीती है और गरीब मरती है. इसे सभ्यता कहेंगे? एक अकेली औरत रात को छोड़ दो रास्ते पर, सुबह तक कटी-फटी मिलेगी. यह सभ्यता है?  नहीं है  इन्सान सभ्य. सिर्फ बेल-बूटों के जंगल से ईंट-पत्थर के जंगल में पहुँच गया है.

और  धर्म की हानि रोज़ होती है, हर जगह होती है. और यह किसी भगवान-नुमा व्यक्ति के खुद को सृजन करने से या किसी अवतार के उद्गम से नहीं मिटेगी. यह इन्सान की सामूहिक सोच के उत्थान से घटेगी. और इसके लिए अनेक विचारकों की ज़रूरत होगी.

और वो विचारक हम हैं, आप हैं, आपके मित्र हैं, पड़ोसी है. और हम में से कोई भगवान नहीं है, अवतार नहीं है. हम सब आम, अमरुद, केला, सेब, संतरा आदमी हैं-औरत हैं.

पीछे मैंने लिखा था, "एतद्वारा घोषित करता हूँ कि मुझ में कैसी भी खासियत नहीं है. मैं वैसा ही हूँ जैसे कोई भी अन्य व्यक्ति हो सकता है. मुझ में तमाम लालच, स्वार्थ, घटियापन, टुच्चा-पन, चोट्टा-पन और कमीनपन है जो आप कहीं भी और पा सकते हैं. मैने कितने ही ऐसे काम किये होंगे, जो नहीं करने चाहिए थे और शायद आगे भी मुझ से ऐसे कई काम हो जाएँ. लेकिन लिखता वही हूँ, जो सही समझता हूँ और निश्चित ही एक बेहतर दुनिया चाहता हूँ"

जान-बूझ कर ऐसा लिखा था. यह धारणा तोड़ने को लिखा था कि अगर कोई इस दुनिया की बेहतरी का प्रयास करता है तो वो कोई पाक-साफ़ व्यक्ति ही होना चाहिए. 

जैसी दुनिया है, उसमें  कोई पाक-साफ़ रह जाए, यह अपने आप में अजूबा होगा. तो छोड़ दीजिये यह धारणा कि कोई गुरु, कोई पैगम्बर, कोई मसीहा, कोई अवतार आता है  और वो कोई निरमा वाशिंग पाउडर से धुला होता है, जिसकी चमकार, जिसका नूर आपको चुंधिया देता है. बेवकूफानी  है यह धारणा. (लिखने लगा था 'बचकानी', लेकिन फिर सोचा कि बच्चे तो ऐसे बेवकूफ होते नहीं तो शब्द सूझा 'बेवकूफानी'.)

दुनिया की बेहतरी सोचने वाले, करने वाले लोग हममें से ही होंगे, हम ही होंगे, अपनी तमाम तथा-कथित कमियों और बुराईयों के साथ, अपनी काली करतूतों के साथ, कोयले की दलाली में  काले हुए मुंह के साथ. हम आम, अमरुद, केला, सेब, संतरा आदमी-औरतें.

2. विषैली सोच भगवत गीता में

"वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा
न्यन्यानि संयाति नवानि देही"।।2.22।।

"मनुष्य जैसे पुराने कपड़ों को छोड़कर दूसरे नये कपड़े धारण कर लेता है ऐसे ही देही पुराने शरीरोंको छोड़कर दूसरे नये शरीरोंमें चला जाता है." ।।2.22।।

गीता के सबसे मशहूर श्लोकों में से है यह.

समझ लीजिये साहेबान, कद्रदान, मेहरबान यह झूठ है, सरासर. सरसराता हुआ. सर्रर्रर.....

इसका सबूत है क्या किसी के पास? कृष्ण ने कहा...ठीक? तो कहना मात्र सबूत हो गया? 

इडियट. 

अंग्रेज़ी में एक टर्म बहुत चलती है. Wishful Thinking. आप की इच्छा है कोई, पहले से, और फिर आप उस इच्छा के मुताबिक कोई भी कंसेप्ट घड़ लेते हैं. मिसाल के लिए आप खुद को हिन्दू समझते हैं और इसी वजह से मोदी के समर्थक भी हैं. तो अब आप हर तथ्य को, तर्क को मोदी के पक्ष में खड़ा देखते हैं. आपके पास चाहे अभी कुछ भी साक्ष्य न हो कि मोदी अगला लोकसभा चुनाव जीतेंगे या नहीं लेकिन आप फिर भी मोदी को ही अगला प्रधान-मंत्री देखते हैं. इसे कहते हैं Wishful Thinking.

तो मित्रवर, इंसान मरना नहीं चाहता. यह जीवन इतना बड़ा जंजाल. यह जान का जाल और फिर यकायक सब खत्म. 

ऐसा कैसे हो सकता है? 

इंसान अपना न होना कैसे स्वीकार कर ले? सारी उम्र वो खुद के होने को साबित करता है. ज़रा झगड़ा हो जाए, कहेगा, "जानते हो, मैं कौन हूँ?" कैसे मान ले कि एक समय आएगा कि वो नहीं रहेगा? वो जानता है कि मृत्यु है, उसे तो झुठला नहीं सकता. रोज़ देखता है, हर पल देखता है. न चाहते हुए भी मृत्यु का होना तो मानना ही पड़ता है. 

लेकिन अपना खात्मा मृत्यु के साथ हो जाता है, यह वो नहीं मान सकता. बस यहीं से शुरू होती है, यह Wishful Thinking. यह विष से भरी सोच. 

वो आत्मा है, जो शरीर बदलती है. वैरी गुड. तुमने देखा क्या कि आत्मा एक शरीर से दूसरे शरीर में जा रही है? तुमने मनुष्य को देखा कपड़े बदलते हुए, आत्मा को देखा क्या शरीर बदलते हुए? 

लेकिन मौत के साथ किस्सा खत्म हुआ नहीं चाहते, सो नए शरीर के साथ नया एपिसोड शुरू. जैसे टीवी के सीरियल कभी खत्म नहीं होते. सास भी कभी बहु थी. छाछ भी कभी दही थी. कभी खत्म न होने को पैदा हुई कहानियाँ. 

गलत सिखाया है कृष्ण ने. वो बस अर्जुन को लड़वाना था तो कुछ भी बकवास चलाए रखी.

असल बात यह है कि हम-तुम हैं ही नहीं. बस होने का एक भ्रम हैं. ऊपरी तौर पर हैं, गहरे में नहीं हैं. जैसे एक ग्लास रख दें खाली कमरे में. असल में खाली ग्लास भी खाली नहीं होता. हवा रहती है उसमें. यह हवा सिर्फ उसी में है क्या? नहीं. वो तो पूरे कमरे में है. जो खाली बोतल पड़ी है उसमें भी और कटोरी में भी और फूलदान में भी. है कि नहीं? हम "हैं" लेकिन "हम" नहीं हैं.

अब आपका हाथ लगा और वो ग्लास टूट गया. छन्न से. वो जो हवा उसमें थी, वो ग्लास थी क्या? उसका ग्लास से क्या लेना-देना? अब क्या आप दूसरा ग्लास रखोगे, नया ग्लास रखोगे तो यह कहोगे कि  वो ही हवा वापिस उसमें आ गई. आत्मा. नया वस्त्र. क्या बकवास है यह?

 "जल विच कुम्भ कुम्भ विच जल, विघटा कुम्भ जल जल ही समाना ये गति विरले न जानी", कबीर साहेब ने कहा है.

कमरे में ग्लास की मिसाल और जल में कुम्भ और कुम्भ में जल वाली मिसाल काफ़ी कुछ एक ही हैं. 

ग्लास की हवा को और कुम्भ के जल को वहम है कि वो कुछ अलग है, उसका कोई अपना अस्तित्व है, जबकि ऐसा है नहीं....कुम्भ फूटा और उसका जल फिर से नदी के जल में मिल गया. वो पहले भी नदी का ही जल था, लेकिन चूँकि वो कुम्भ में था तो उसे वहम हो गया था कि वो नदी से अलग है कुछ.

इसी तरह से इन्सान को वहम हो गया है कि वो परम-आत्मा से अलग कुछ है, सर्वात्मा से अलग कुछ है.....तभी वो खुद को आत्मा माने बैठा है, जिसका पुन:-पुन: जन्म होना है....तभी वो मोक्ष माने बैठा है.......जबकि मौत के साथ सब खत्म है.

इन्सान को दूसरे ढंग से समझें......शरीर हमारा हार्ड-वेयर है.....मन सॉफ्ट-वेयर है. इन दोंनो को चलाती है बायो-इलेक्ट्रिसिटी और इसके पीछे जागतिक चेतना है, वही बायो-इलेक्ट्रिसिटी से हमारे सारे सिस्टम को चलाती है. 

मौत के साथ हार्ड-वेयर खत्म, हाँ, कुछ पार्ट फिर से प्रयोग हो सकते हैं, किसी और सिस्टम में. 

सॉफ्ट-वेयर भी प्रयोग हो सकता है, लेकिन अभी नहीं, आने वाले समय में मन भी डाउनलोड कर लिया जा पायेगा.

जागतिक चेतना ने ही तन और मन को चलाने के लिए बायो-इलेक्ट्रिसिटी का प्रावधान बनाया, जब तन और मन खत्म तो बायो-इलेक्ट्रिसिटी का रोल भी खत्म. और जागतिक चेतना तो सदैव थी, है, और रहेगी.

अब इसमें किसे कहेंगे आत्मा? मुझे लगता है कि इन्सान को वहम है कि उसका मन यानि जो भी उस की सोच-समझ है, आपकी मेमोरी जो है, वो आत्मा है और वो दुबारा पैदा होती है मौत के बाद.

पहले तो यह समझ लें कि अगर परमात्मा को, सर्वात्मा को, कुदरत को आपके मन को, सोच समझ को आगे प्रयोग करना होता तो वो बच्चों को पुनर्जन्म की याद्-दाश्त के साथ पैदा करता. उसे नहीं चाहिए यह सब कचरा, सो वो जीरो से शुरू करता है, हर बच्चे के साथ. साफ़ स्लेट.

यह काफी है समझने को कि आपकी मेमोरी, आपकी सोच-समझ का कोई रोल नहीं मौत के बाद.

शरीर तो निश्चित ही आत्मा नाही मानते होंगे आप?

अब क्या बचा? जागतिक चेतना को क्या करना जल में कुम्भ का, कुम्भ तो पहले ही जल में है और फूटेगा तो जल जल में ही मिलेगा? असल में तो मिला ही हुआ है.......कुम्भ को वहम है कि नहीं मिला हुआ, ग्लास को वहम है कि उसके अंदर की हवा, कमरे में व्याप्त हवा से अलग है, रूप को वहम है कि उसकी चेतना जागतिक चेतना से अलग है.

जागतिक चेतना को आप कोई भी नाम दे सकते हैं....परमात्मा, अल्लाह, भगवान, खुदा.....मैंने नया नाम दिया, सर्वात्मा. 

हो सकता है यह पहले से हो प्रयोग में, लेकिन मैंने नहीं सुना, पढ़ा......मैंने बस घढ़ा.

भूत, प्रेत बकवास बात हैं. और न ही कर्म अगले जन्म में जाते हैं, जब अगला जन्म नहीं तो कर्म कहाँ से आगे जायेंगे? जिसे आप सनातनी धारणा कह रहे हैं, उसे ही मैं वहम कह रहा हूँ.

वो जो वेदांत कहता है...'सर्वम खलविंदम ब्रह्म'.....वो सही बात है. और जिसे मैं जागतिक चेतना कह रहा हूँ उसे आप और लोग परमात्मा तो कह सकते हैं लेकिन आत्मा नहीं....आत्मा से अर्थ माना जाता है किसी व्यक्ति विशेष की आत्मा.

लोग अगर वेदांत की बात समझ लेते तो फिर तो सब कुछ परमात्मा है ही...आत्मा का कांसेप्ट ही नहीं आता.

इस्लाम में आखिरत की धारणा है....उसमें भी कुछ तर्क नहीं है.... जो मर गया सो मर गया...अब आगे न जन्नत है, न जहन्नुम......जब सब खत्म है तो फिर किसका फैसला होना?

कुछ नहीं, ये सब स्वर्ग, नरक, मोक्ष की धारणाएं खड़ी ही इस बात पर हैं कि इन्सान कुछ है जो कायनात से हट कर, कुछ व्यक्तिगत है....सो वो व्यक्तिगत आत्मा है...और मौत के बाद उस आत्मा को मोक्ष मिला तो दुबारा जन्म नहीं होगा.....वरना उसे स्वर्ग-नरक-पुनर्जन्म के चक्र में घुमते रहना होगा.

जबकि ऐसा कुछ भी नहीं है..सब गपोड़-शंख हैं. 

उस जागतिक चेतना ने, परमात्मा ने खेल रच दिया है.....बिसात बिछा दी है, मोहरे सजा दिए हैं....लेकिन वो हर वक्त खेल में पंगे नहीं लेता रहता.....मोहरे खुद मुख्तियार हैं......अब अपने खेल के खुद ज़िम्मेदार हैं.........नियन्ता ने मोटे नियम तय कर दिए हैं.....लेकिन आगे खेल मोहरे खुद खेलते हैं.

बस यहीं फर्क है.....सब धर्मों में और मेरी सोच में...धर्म कहते हैं कि परमात्मा कभी भी इस खेल में दखल दे सकता है...मोहरे अरदास करें, दुआ करें, प्रार्थना करें बस....लेकिन मेरा मानना यह है कि मोहरा जो मर्ज़ी करता रहे......अब परमात्मा खेल में दखल नहीं देता.

लेकिन धर्म कैसे मान लें? मान लें तो कोई क्यूँ जाए मन्दिर, गुरूद्वारे, मसीद? कहानी खत्म. जब कोई सुनने वाला नहीं तो किसे सुनाएं फरयाद?

यहीं मेरी सोच सनातन, इस्लाम, सिक्खी, चर्च सबसे टकराती है. मेरे ख्याल से ये सब झूठ के अड्डे हैं. झूठे आश्वासन दाता. इन्सान के भीतरी डर की वजह से खड़े.

मेरी बात समझ आ जाए तो आपको मंदिर , मस्ज़िद, गुरूद्वारे विदा करने नहीं पडेंगे, वो अपने आप ही विदा हो जायेंगे.

बस यह समझ आ जाये कि कोई आत्मा-वात्मा होती ही नहीं. जैसे सब और हवा व्याप्त है, ऐसे ही सब और एक चेतना व्याप्त है, वो ही विभिन्न रूप ले रही है. रूप को वहम है कि वो सर्व-व्यापी चेतना न होकर, रूप मात्र  है. वो सर्वात्मा न होकर को आत्मा है. लहर को वहम हो रहा है कि वो समन्दर न होकर, बस लहर है. 

गीता का यह श्लोक लहर के भ्रम की सपोर्ट से ज़्यादा कुछ नहीं है. ग्लास में जो हवा को वहम है कि  वो कुछ अलग है, उस वहम को बनाये रखने का ज़रिया मात्र है.

Wishful Thinking, विषैली सोच.

"JANAMASHTMI SPECIAL"

Krishan, a Wrong Idol--- Krishan birth day is being celebrated as if he was a great idol, but as I see he should be thrown outta temples, he does not deserve any such kinda attention at all. Why I say so, kindly walk with me for awhile........

1) He did not stop Yudhishtra for putting Draupadi on stake in the game of dice but later on appeared to help Draupadi. What a god! What an ill-timed appearance!

2) And the Paandavas were not the dharmik (virtuous) ones at all. Who lost everything- everyone, including Draupadi and themselves, in the game of dice? The Paandvas. 

Did not Yudhishtra know that there is a difference between things & beings? And how could he be called a great king, a king who lost his kingdom in a game of dice. Even Draupadi was questioning again and again his act of putting her at stake in the game of dice but remained unanswered. How can anyone call Yudhishtra as "Dharma Raj" (King of Virtues)?

The Paandavas lost everything in the game of dice, had been returned everything but indulged again in the same game and lost again.

It seems that Duryodhana insulted Draupadi but was not Yudhishtra himself responsible for her insult, who could not see the difference between the things and his wife? I feel, Duryodhana was the least culprit out of all, in the insult of Draupadi.

And even after losing everything, Yudhishtra learnt nothing, in the period of exile, along with his brothers; Yudhisthira spent his last year of exile in the kingdom of king Virata. He disguised himself as a Brahmin named Kanka and taught the game of dice to the king, Virat.

It seems that he considered himself as a master of the game of the dice but Shakuni was far better and the allegations that Shakuni used some unfair methods in the game against Yudhishtra, is false. If Shakuni was using some unfair method, why Yudhisthra or anyone else did not catch him on the spot? After losing a game everyone can allege the winner for a cheating.

3) It was a quarrel between Kauravas & Panndavas, no matter directly related to him, but he made the Kurukshetra war happened. He gifted his military (Narayani Sena) to the Kauravas and remained himself from the Paandavas, thus kept the Laddus (read as the game) in both of his hands.

4) Krishna took the vow that he personally would not raise any weapon in the war. But picked up a carriage wheel to challenge Bhishma.

5) He made it an adhramyudha (Unjust war) from a dharamyudha (Just war), it was he, who suggested to put Shikhandi in front of Arjun, to kill Bhishama. He started this ugly game in this War and later on every fighter of Kauravas was killed due to his ill-methodology.

6) It was the Paandavas, who distributed Draupadi amongst themselves making her just like a whore.

7) It were the Paandavs, who let Karna get insulted due to his low-caste issue and it was Duryodhana who identified the value of Karna and gave him a proper respect.

 And even in the childhood, Bheem being the bulkiest, used to tease and hurt Kaurvas.

9) And it is so sad that in those days, there was no value of the nobility and the ability of an individual, the kingdom were run by the bloodline of the kings only, that too only by the eldest sons, such sheer stupidity. And Krishna never stood against this dis-system; he was just favoring the Paandvas considering Yudhishtra as the eldest son out of the Paandavas & the Kaurvas both. It is vivid that if the nobility and the ability had been considered, Karna was the most eligible individual for the throne, and after knowing that he was the eldest of the Paandavs, Krishna should have immediately stopped the war, because he was favoring the Paandavs only because he felt that being the eldest, Yudhishtra was the only successor of the throne. But he let the people of both sides killed.

And the greatest wrong had been done by Kunti, mother of the Paandavas, she knew that Karna was her son and the eldest Paandav but never opened up her mouth and let the injustice go on happening with Karna, the Kauravas and the Paandavas, later on she asked Karna to declare himself as her son but the worthy Karna declined her suggestion, what a mother, a shame on the Motherhood, responsible for all the injustice, all the mess, all the bloodshed.

10) If the Kauravas were so bad, why Krishna offered his unbiased help to them, why he offered Duryodhana to choose either himself or his Narayani sena, why Balram his real brother, Guru of Bheem & Duryodhana did not participate in the war, why Balram, himself an incarnation, was angry at the killing of Duryodhana, why Krishna took the vow that he personally would not raise any weapon in the war and then why he picked up a carriage wheel to challenge Bhishma, why Krishna’s dynasty perished by his descendants themselves, killing each other within next 36 years, why Krishna could do nothing to stop this, why he was killed by Jara,an ordinary hunter man, so called incarnation of Bali? 

11) Why he never declared that the leaders of the world cannot be decided just by the births, blood lines or by the game of the dice or by the wars? He showed the Viraat Roop (Cosmic Appearance) to the others, why he himself could not see that a true individual, born in any times, supports the right and opposes the wrong, a true individual is not bound to the traditional follies, a true individual is like Socrates, never like himself.

12) I am amazed to see that people are running workshops to clear Karma. Hahahahaha! Merely the understanding that Karma has nothing to do with your lives, only the understanding (right or wrong) creates acts/non-acts and those acts further create effects/ fruits/fruitlessness, this much understanding is enough.

And Krishna favors this theory, when he says “Karmanyeva adhikaraste ma faleshu kadachan” {O humans, U have right upon acts, not upon the fruits of the act} as if effects are different to the causes. The whole science is based upon theory of cause & effect and here is Krishna teaching as if effects has nothing to do with the causes, life is vast hence many times because of some other external unexpected causes, the effects may be different than the expectations but by studying these other factors, the effects can be brought according to the wishes but it is wrong to say that effects are not according to the causes.

This theory of Karma is very misleading & makes one effortless because if one is not supposed to get the wished effects/fruits why the one will act & even if one will act that will be half-hearted. India has many foolish confusing theories, this is one of them, let it be cleared.

The social system is such, you almost never get what U deserve, do U feel the sons & daughters of the well established actors, business people prosper because they deserve, no, never, they are mostly getting name & fame just because of their birth, not because of their ability, so see this theory of Karma is just a tool to keep the under-privileged under controlled.

That is why, Santoshi Mata was also devised, to keep such under-privileged people contented, satisfied in their under-explored life-less lives.

13) Some people, who used to adore Stalin, when felt that they were adoring a wrong idol, destroyed his images but we the Indians, I do not think, are so much intelligent, we will first see, whether Geeta allows us to do so or not, we will take shelter of the scriptures, not of our own intelligence.

Krishna, I do not feel, is worthy of being adored. 

Opportunism, insincerity, cunningness such are the values, rendered by him to the world.

Another name of Krishna is Hari (thief); he used to steal the makhan (butter), clothes of young girls. He was a born THIEF, he has stolen character of the Indian people also, let him bade good-bye, no need of such an idol.

तुषार कॉस्मिक.....चोरी न करें..शेयर करें........नमन

Sunday, 2 July 2017

GST

तालियाँ बजा बजा कर एक्टिंग हम इनसे बेहतर कर सकते हैं. सिर्फ भूखी नंगी जनता का पेट भरना है तो जिनके पास कुछ धन है उनसे छीनने के प्रयास हैं.

क्या GST का विरोध नहीं किया था भाजपा ने?
आज क्या हो गया? 
मात्र विरोध के लिए ही विरोध करना था क्या जब विपक्ष में थे तो?

आज ताली पीट-पीट खुश हो-हो कर GST की गीत सुनाये जा रहे हैं.

जिसके पल्ले है कुछ, छीन लो उससे चूँकि जो जनता सिर्फ बच्चे पैदा करती है उसका पेट जो भरना है.

और फिर उसी ने तो वोट देना है.

इस कुचक्र से ऐसे बकवास लोग नहीं निकाल पायेंगे.

कुछ नहीं है इनके पल्ले, सिवा बकवास के.

जिस दिन कोई कहेगा कि नहीं, इस तरह से अनाप-शनाप बच्चे पैदा नहीं करने देंगे, उस दिन न नोट-बंदी की ज़रूरत होगी और न ही इए तरह की GST की. 

Monday, 26 June 2017

क़ानूनी दांव पेंच-3

कानून का मसला ऐसा है कि हम भारतीय जो अनपढ़ हैं, वो तो अनपढ़ हैं हीं, जो पढ़े-लिखे हैं, वो भी अनपढ़ हैं. सो वकील पर विश्वास, अंध-विश्वास किया जाता है. और इसी का नाजायज़ फायदा उठाते हैं वकील. यह सिर्फ किताबी आदर्श है कि वकील केस जीतने में ही दिलचस्पी लेगा, इसलिए ताकि उसे प्रतिष्ठा मिले और वो और ज़्यादा काम पा सके. असलियत ऐसी बिलकुल नहीं है. लोग केस देते हैं, वकील का ऑफिस देख कर. लम्बी कतारों में रखी किताबें देख कर. और नौसीखिए असिस्टेंट वकीलों की भीड़ देख कर, जो मुफ्त या लगभग मुफ्त मिलते हैं. और घिसे वकील इस बात को भली-भांति समझते हैं. क्या लगता है आपको कि आपके वकील को आपको केस जितवाने में रूचि है? आप केस जीत गए, तो बड़ा फायदा आपका होगा, उसके लिए तो किस्सा खतम. एक वकील का लड़का विदेश से वकालत पढ़ के भारत लौटा था. बाप कहीं बाहर गया था. पीछे से बेटे ने केस हैंडल किये. बाप जैसे ही आया, बेटा ख़ुशी से चहकता हुआ बोला, "पिता जी जिन माता जी का केस आप पिछले दस बरस से हल नहीं कर पाए, वो मैंने मात्र दो डेट में खत्म करवा दिया." पिता ने मत्था पीट लिया. बोला, “जो तूने किया, वो मैं भी कर सकता था. उसी से फीस ले ले कर ही तुझे विदेश भेजा था. इडियट.” वकील कभी गारंटी लेता है, किसी केस को जितवाने की? कभी नहीं. और अगर आप हार भी गए, तो आपको पता कैसे लगेगा कि गलती आपके वकील थी कि नहीं? कोई लापरवाही आपके वकील की थी कि नहीं? कोई बेईमानी आपके वकील की थी कि नहीं? कैसे पता लगेगा आपको? आपकी खुद की तो कोई स्टडी है नहीं, अपने केस की. आप अपनी हार को बुरी किस्मत मान बैठोगे बस. असल में मामला बुरी किस्मत का नहीं, बुरी शिक्षा का है. आपको कानूनी शिक्षा का क.ख. ग. भी नहीं पढ़ाया गया और न आपने खुद पढने की कोशिश की. आपको लगा कि केस लड़ने का मतलब वकील को फीस देना भर है. आपको लगा कि आपको क्या ज़रूरत है, रातें काली करने की. वकील को पैसे दे दिए काफी है. वो करेगा, आपकी जगह रतजगा. वो फोड़ेगा किताबों में आँखें. वो करेगा यह सब, लेकिन अपना स्वार्थ भी देखेगा. वो खुद आपको कोम्प्रोमाईजिंग स्थिति में ला खड़ा करेगा. क्यूँ? ताकि आप कोम्प्रोमाईज़ करो और उसे कमीशन मिल सके. सोच के देखिये, उसे आपको केस जितवाने में, आपका केस निपटाने में फायदा है या केस लटकवाने में फायदा है. उसे आपको इन्साफ दिलवाने में फायदा है या आपका समझौता कराने में फायदा है. केस जीतेंगे आप तो बस फीस देंगे और शुक्रिया करेंगे. केस लटकेगा अगर और समझौता करेंगे आप तो वकील को फीस भी देंगे, समझौते की कमीशन भी देंगे और शुक्रिया भी करेंगे. बठिंडा में था मैं पीछे, जानकार वकील के पास बैठा था. अपने क्लाइंट का केस पिछले आठ बरस से जीत नहीं पाए थे वकील साहेब. बहुत उत्तेजित थे उस दिन लेकिन. क्यूँ? चूँकि आज समझौते तक ले जा चुके थे मामला. आज मोटा मुनाफा मिलना था. वो अनपढ़ क्लाइंट. मिला अकेले में तो रो रहा था वकील की जान को. आठ साल से केस लड़ रहे हैं. वकील का घर भर रहे हैं. अब समझौता हो रहा है, जितना हक़ था उससे आधा मिल रहा है, उसमें भी एक बड़ा हिस्सा वकील को जा रहा है. समझ सब रहा था, लेकिन कर कुछ भी नहीं पाया. फिर वही वकील कह रहा था कि वो कभी अपने प्रोफेशन से समझौता नहीं करता. वैरी गुड. जो तुम अपने केस में लापरवाही करते हो, जो जल्द-बाज़ी करते हो, जो आगा दौड़-पीछा चौड़ करते हो, जो अपनी चद्दर से बाहर पैर पसारने की कोशिश करे हो, वो क्या है? तुम्हें चिंता सिर्फ इस बात की है कि कैसे तुम्हारे पास ज़्यादा से ज़्यादा केस आयें और तुम अपनी काम-चलताऊ आधी-अधूरी नॉलेज से उन्हें जैसे-तैसे अटकाए रखो. किसी भी केस के लिए जो गहन स्टडी की ज़रूरत होती है, वो कब करते हो? बेईमानी नहीं यह सब तो और क्या है? तो मित्रगण जैसे विज्ञापन में दिखाई लडकी नहीं मिल जायेगी अगर पान मसाला खरीदोगे तो वैसे ही वकील के चेले-चांटे, उसका दफ्तर, उसकी रखी किताबें काम नहीं आयेंगी, काम आयेगी आपकी खुद की स्टडी. विश्वास करें लेकिन अंध-विश्वास नहीं. हर कदम खुद अपने केस को देखें. और ध्यान रहे ये जो वकील व्यस्त नज़र आयें आपको बहुत ज़्यादा, तो उनसे दूर ही रहना. यह मत सोचना कि ये लोग व्यस्त हैं तो निश्चित ही अपने काम के माहिर होंगे और इनकी महारत आपके भी काम आयेगी. नहीं आयेगी. ये असली व्यस्त हो सकते हैं, नकली व्यस्त हो सकते हैं, ये माहिर हो सकते हैं, नहीं भी हो सकते हैं. बाज़ार में नकली सिक्के भी चल निकलते हैं कई बार. जब Dhinchak पूजा चल सकती है तो कोई भी चल सकता है. तो बन्दा/ बंदी वो पकड़ो भाई लोग, जिस के पास आपके लिए समय हो. महारत देख लो जितनी देख सकते हो लेकिन पहले समय देखो कि समय उसके पास है कि नहीं आपके लिए. अगर नहीं है तो ऐसे व्यक्ति की महारत भी आपके तो काम आने वाली है नहीं. जिसके पास आपकी बात सुनने का समय नहीं, वो आपका काम क्या खाक करेगा. जो एक ही समय में दस काम करता है, वो कोई भी काम सही से नहीं करता है. याद रखें वकील आपका एम्प्लोयी है, जब मर्ज़ी उसे विदा कर सकते हैं आप. समझौते के लिए नहीं, जीतने के लिए लड़ें, अगर आपका हक़ है तो. जब आप केस लड़ते हैं तो अपने विरोधी के खिलाफ ही नहीं, अपने खुद के वकील और जज के खिलाफ भी लड़ते हैं. छिद्र छोडेंगे तो कोई भी फायदा उठाएगा. कमज़ोर जानवर पर गिद्ध सबसे पहले झपटते हैं. याद रखियेगा. नमन...तुषार कॉस्मिक.

Sunday, 25 June 2017

हमारी लखनऊ यात्रा

एक ऑफर था विवादित सम्पत्ति का, सो जाना हो गया. जाना अकेले ही था. टिकेट भी अकेले की बुक कर चुका था, लेकिन फिर लगा कि छुट्टियाँ हैं ही बच्चों की, तो साथ ले चलता हूँ. श्रीमति जी विरोध कर रही थीं कि गर्मी है, मात्र दो दिन का स्टे है वहां, इतने के लिए बच्चों को क्या ले जाना. मैंने जिद्द की. कहा कि चलो एक से भले दो. जिस डील के लिए जाना है, वहां उनकी भी राय शामिल हो जाती, फिर सपरिवार गए बंदे को निश्चित ही ज़्यादा क्रेडिबिलिटी मिलती है. खैर, अब उनकी टिकेट भी बुक कर दीं. जाने से मात्र तीन दिन पहले सब तय हुआ तो कोई ढंग की बुकिंग नहीं मिली. सब तरफ लम्बी वेटिंग लिस्ट थी. बुकिंग मिली गोमती एक्सप्रेस की. कैब लेकर नई दिल्ली स्टेशन तक पहुंचे. श्रीमति जी को कहा था कि कम से कम एक घंटा पहले पहुँच जाएं, इस हिसाब से घर से निकला जाए. वहां वेट कर लेंगे, लेकिन ट्रेन मिस नहीं होनी चाहिए. बावज़ूद इसके, मात्र पन्द्रह मिनट बचे थे और हम पहाड़-गंज तक ही पहुँच पाए थे. मैं लड़ने लगा. श्रीमति घबरा गईं, लेकिन जैसे-तैसे हम नई दिल्ली स्टेशन तक पहुँच ही गए टाइम से पहले. फटाफट उतरे कैब से. सामान खुद उठाया सबने और भागे. प्लेटफार्म नम्बर कुली से पता किया और भागते-भागते ट्रेन तक पहुँच ही गए. हमारी सीट पर पहले ही एक अंकल-आंटी विराजमान थे. उठने को राज़ी न हों और मैं कैसे छोड़ दूं सीट? लम्बा सफर, साथ में बच्चे. गरज पड़ा. सीट छोड़नी पड़ी उनको. खैर, किन्ही और दरिया-दिल लोगों ने उनको एडजस्ट किया. ऐसे दरिया-दिल खुद ज्यादातर बिना रिजर्वेशन वाले होते हैं.शायद बिना टिकट वाले भी. ट्रेन राईट टाइम थी. बैठते ही चल पड़ी. अब यह जो सफर था, बहुत ही सफरिंग साबित हुआ. बदबू थी, गर्मी थी. रिजर्वेशन को धत्ता बताती भीड़ थी. भारतीय रेल की बेहतरीन मिसाल थी. ट्रेन सिर्फ ट्रेन नहीं होती, एक बाज़ार भी होती है, जहाँ हर थोड़ी देर बाद चने, मूंगफली, नकली बोतलबंद पानी, पानी जैसी चाय, दुआ-प्रार्थना बेचने वाले गुजरते हैं. रेला-मेला लगा रहता है. एक आता है, दूसरा जाता है.वाह! जीवन का सत्य. एक आता है, दूसरा जाता है. आना-जाना लगा रहता है इन्सान का. "आदमी मुसाफिर है, आता है, जाता है, आते जाते रस्ते में, यादें छोड़ जाता है." गूगल कीजिये, यह गाना आपको मिल जाएगा. प्रभु, सुरेश प्रभु जी की कृपा से हम पहुँच ही गए लखनऊ. फॅमिली को छोड़ा स्टेशन पर और खुद निकला होटल ढूँढने. मुझे पहले से ही काफी तजुर्बा है इस सबका. कभी फॅमिली को साथ लिए-लिए नहीं डोलना चाहिए होटल लेना हो तो. यह कुछ मेहनत का काम साबित हो सकता है. बाहर निकलते ही एक रिक्शा वाले से रस्ता पूछा होटलों का. उसने कहा कि वो छोड़ देगा. मैंने कहा कि मैं सिर्फ रास्ता पूछ रहा हूँ. उसने कहा कि मात्र दस रुपये लेगा और छोड़ देगा. मैंने कहा कि ठीक है, लेकिन मैं कहीं भी उसे साथ नहीं लेकर जाऊंगा होटल में, होटल के बाहर भी नहीं रुकने दूंगा, पचास कदम दूर छोडूंगा और फिर देखने जाऊंगा खुद. उसने मुंह बना लिया. अब लगा रस्ता बताने सड़ कर. मैंने कहा कि मैं तो पहले ही रास्ता ही पूछ रहा था. कुछ कदम चला, एक और रिक्शा वाले से रास्ता पूछा तो उसने भी पहुँचाने की सेवा हाज़िर की, मात्र दस रुपये में. मैं बैठ गया. पहले होटल पहुंचा तो मैंने कहा रिक्शा वाले को कि दूर रहना. अंदर गया. मामला नहीं जमा. वापिस आ कर देखा तो रिक्शा वाला गेट पर खड़ा था. मैंने उसे कहा कि मना किया था कि साथ नहीं आना. खैर अगले होटल को ले गया वो. अब मैंने सख्ती से कहा कि मेरे साथ नहीं आना, हाँ, दस रुपये से ज़्यादा दूंगा अगर मैंने लिया कोई कमरा तो. वो मुंह सा बनाता रहा. मैं गया और लौट आया. लेकिन अब रिक्शा वाला समझ चुका था कि दाल नहीं गलने वाली, कमीशन नहीं मिलने वाली. गुस्से में बोला कि मेरे पैसे दे दो. मैंने दस रुपये दे दिए. वो उड़ता बना और मैं चलता बना. मेरे बला से. भाड़ में जा. चार-पांच होटल देखने के बाद ‘होटल मिडास’ फाइनल हो गया. सब्ज मंडी, चार बाग़. AC कमरा. तीन दिन के लिए. वैसे ही कमरे के पीछे दोगुने पैसे मांग रहे थे. फॅमिली ले आया. थके थे. करीब रात बारह बज चुके थे. फिर भी हाथ-मुंह धो घूमने निकले. नीचे बाज़ार लगभग बंद थी. इक्का-दुक्का दूकान खुली. थोड़ा खा-पी के वापिस. जिनके साथ प्रॉपर्टी डील की मीटिंग थी उनको अगली सुबह नौ बजे का समय दे दिया था. वो साढ़े नौ बजे तक आये. हम सब तैयार हो पहले ही रिसेप्शन पर मौजूद थे. तकरीबन आधा घंटा लगे रहे कि ओला-उबेर की कोई कैब आ जाए. बुक तो हो गई, लेकिन पहुँची कोई भी नहीं. आखिर मेरे अकेले का ही उनके साथ जाना तय हुआ उनके साथ. उनके पास एक कार तो थी ही, जिसमें एक सीट उन्होंने मेरे लिए पहले ही रख़ छोड़ी थी. वो लोग पहले मुझे प्रॉपर्टी दिखाने ले गए. दोतरफा चलते मेन रोड़ की ज़मीन, कोई तीन हज़ार गज से ज़्यादा. लोकेशन और साइज़ के मुताबिक मुझे मामला जम गया. वहीं पास में कोर्ट था. कोर्ट-रूम पुरानी किताबों में से निकला लग रहा था. AC छोड़ो, कूलर तक नहीं था वहां. कोई तीस फीट ऊँची छत से ये लम्बे पाइप के सहारे लटके बाबा आदम के जमाने के पंखे अपनी कानूनी ड्यूटी निभा रहे थे जैसे-तैसे. कोर्ट ‘रूम’ क्या था, किसी खेल का मैदान था. खूब बड़ा. एक तरफ लकड़ी का बड़ा सा कटघरा बना था, जिसमें कई कैदी ज़मीन पर बैठे थे. छत से ईंटे झांक रहीं थी. जज साहेब के लिए बने चबूतरे का पलस्तर जाने कब का झड़ चुका था. रोशनी के लिए जज साहेब के सर एक तरफ नई पीढ़ी का LED बल्ब लटका था, तो दूसरी तरफ पुरातन पीढ़ी का पीला लट्टू. नए-पुराने का समन्वय बना रखा था. पूरा माहौल मायूस था. मुझे लगा कि जैसे दिल्ली में दस बजे कोर्ट शुरू होते हैं, वैसा ही वहां भी होगा, लेकिन बारह बजे तक भी जज साहेब सीट पर नहीं थे. शायद एक दौर चल चुका हो. पता नहीं लेकिन. फिर कुछ ही समय में वकील लोग उनके टेबल के सामने जमा होने लगे. “साहेब आ रहे हैं”, कर्मचारी चिल्लाया. सब खड़े हुए. फिर साहेब के बैठते ही बैठ गए. “जज की न सही, कानून की इज्ज़त कर लो भाई” डायलॉग याद आ गया ‘जॉली एल-एल-बी’ फिल्म का. अगर उठक-बैठक लगाने से इज्ज़त होती है, तो यहाँ इज्ज़त थी. मेरे वाली पार्टी का नम्बर आया, लेकिन फिर लंच बाद पर चला गया. वो लोग मुझे कोर्ट रूम से बाहर ले आये. किसी पूड़ी-छोले वाले की दुकान पे. अभी बैठे भी नहीं थे कि धम्म से चार पूड़ी, छोले, अचार और प्याज़ पटक दिया गया. गर्मी में गर्म-गर्म खाना. खाना तो नहीं था, लेकिन सोचने का मौका भी नहीं मिला, खाना पड़ा. क्वालिटी में कोई कमी नहीं थी. मैं हैरान रह गया कि वो मात्र बीस रुपये में ये सब कैसे दे रहे थे! लेकिन खूब बिक रहा था तो सूट करता होगा इस भाव बेचना. वापिस कोर्ट रूम पहुंचे. साहेब फिर से आये. फिर से उठक-बैठक हुई. यह उठक-बैठक की रवायात गुरूद्वारे में भी होती है. मंगल ग्रह पर पानी खोजने की साथ ही इज्ज़त दिखाने का कोई और आसान तरीका भी खोजना चाहिए. खैर, मेरी पार्टी को पन्द्रह दिन बाद की डेट दी गई. वो लोग मुझे वापिस होटल छोड़ गए. आगे “आपसी अग्रीमेंट” की जुबानी सहमति मैंने दे दी. कोई तीन बजने को थे. बीवी-बच्चे चाहते थे कि अभी घूमने निकला जाए. मैं चाहता था कि जिस काम के लिए ख़ास कर के आये थे, उसकी जो भी इनफार्मेशन दिमाग में थी, अभी उस पर ही विचार किया जाए. अभी उस मेमरी में कुछ और मेमोरी मिक्स न की जाए. थोड़ा आराम किया जाए. सोने का असफल प्रयास किया. कोई दो घंटे बाद निकलना चाहा लेकिन अब छोटी बेटी जिद्द पकड़ गई कि दूध पीना है. बीवी कहें कि दूध पीते ही ये सो जायेगी. कहाँ उठा-उठा घूमेंगे? लेकिन वो न मानी. दूध मंगाया, इस शर्त पर कि सोयेगी नहीं. हम निकल पड़े. 'टुंडा कबाबी' चौक. 'प्रकाश कुल्फी'. “कुल्फी कुल्फी होती है, आइस-क्रीम नहीं”, लिखा था. सही बात है. सबको पता है. लेकिन उनके इस कथन के पीछे मन्तव्य यह बताना नहीं था कि कुल्फी कुल्फी होती है, आइस-क्रीम नहीं होती. मन्तव्य था कि कुल्फी का वजूद आइस-क्रीम से अलग तो है ही, उससे कम भी नहीं है. मैं सहमत हूँ उनके कथन से. और उनकी कुल्फी मजेदार भी थीं. मात्र पचास रुपये में ठीक-ठाक क्वांटिटी. एक प्लेट में थोड़ा नमकीन फ्लेवर आ गया, शिकायत देते ही बदल दी गई. यही बढ़िया दूकान-दारी की निशानी है. ऐसी दूकान-दारी पाने की अपेक्षा हर कोई करता है, लेकिन देने की कोई-कोई सोचता है. थ्री इडियट्स का डायलॉग है, " स्तन सबके पास होता है, देता कोई नहीं?" बस वैसा ही कुछ. कुहू ने वायदा निभाया, जहाँ तक उससे हो सका. अब बाहर निकलते ही वो सो गई. उसे गोदी उठाये टुंडा कबाबी तक गए. बिलकुल जामा मस्ज़िद, दिल्ली के करीम होटल का माहौल. हम मांस नहीं खाते, बस देखने गए थे. बाहर निकल शाकाहारी खाने की जगह पूछी किसी से, तो उसने दुर्गमा होटल बताया, वहां पहुंचे लेकिन जमा नहीं देखने से ही, वापिस अपने होटल आ गए. खाना मंगाया. सिरे का बकवास. दाल-मक्खनी का नास किया हुआ था. छोलों में नमक कम. दिन में बच्चों ने चाइनीज़ वहीं से खाया था, उनको ठीक लगा तो उम्मीद थी कि अभी भी खाना ठीक ही होगा. बेशक उम्मीद पर ज़माना कायम है लेकिन हर उम्मीद खरी कहाँ उतरती है? अगली सुबह तैयार हो कर कोई दस बजे रिसेप्शन पर पहुंचे. लखनऊ दर्शन के लिए अपने होटल के ज़रिये गाड़ी मंगाई. ११०० रुपये तय हुए. बकवास गाड़ी. AC चल तो रहा था, लेकिन न चलने जैसा. इमामबाड़ा ले गया वो, लेकिन वहां नमाज़ चल रही थी तो बताया गया कि शाम को अंदर जाने देंगे. कैसा ड्राईवर था, जिसे यह नहीं पता था कि कब कहाँ नहीं जाना चाहिए! खैर, जनेश्वर मिश्र पार्क पहुंचे. कुछ भी खास नहीं. जैसे आपके घर के पास वाले किसी साफ़-सुथरे पार्क को बहुत बड़ा कर दिया गया हो. बीवी अपना हैण्ड-बैग एक बेंच पर भूल गईं. लेकिन भीड़ तो थी ही नहीं. सो वापिस मिल गया. अंदर कुछ था ही नहीं देखने जैसा, जैसे घुसे थे, वैसे ही लौट आये. अब पहुंचे समता पार्क. यहाँ सिर्फ ग्रेनाइट थोपा गया था. यहाँ भी देखने जैसा कुछ नहीं था. ऊपर से सूरज देव अपनी फुल कृपा बरसा रहे थे. वापिस निकले. टैक्सी ड्राईवर कह रहा था कि पहला पार्क अखिलेश यादव ने बनवाया था, दूसरा मायावती ने बनवा दिया. इतने पैसों में कोई फैक्ट्री लगवा देते तो लोगों को रोज़गार ही मिल जाता. मैंने कहा कि अब तीसरा पार्क योगी जी बनवा देंगे. उसने कहा कि अब जगह ही नहीं बची. मैंने कहा कि जगह का क्या है, वो तो दाएं-बाएं पैदा कर ली जायेगी. उसने कहा कि हो सकता है, कुछ भी हो सकता है. बड़े लोग हैं. अब वो Residency ले गया. यह जगह सन 1857 की आज़ादी की लड़ाई से सम्बन्धित है. बस खंडहर हैं. दीवारें और उन पर गोलियों के निशाँ. अंदर एक म्यूजियम था, लेकिन शुक्रवार था तो बंद था. लौटे तो ‘शहीद स्मारक स्थल’ पहुंचे. गोमती नदी के किनारे बना है. गोमती को अब नदी कहना गलत है, यह एक नाला है, जैसे यमुना. रेंगती हुई, नाला-नुमा नदियाँ. इन्सान के चरणों में जीवन की भीख मांगती हुई नदियाँ. बेचारी नदियाँ. वो नदियाँ जिनके किनारे इन्सान ने घर बसाए, जिन्होंने इन्सान को जीवन दिया. अब उन्हीं नदियों का जीवन इन्सान ने छीन लिया है. शहीद स्मारक स्थल मुझे शहीदों का सम्मान कम और अपमान ज़्यादा लगता है, जनेश्वर मिश्र पार्क और मायावती के समता पार्क के मुकाबले में देखता हूँ तो. इसके ठीक दस-पन्द्रह फीट पीछे गोमती नदी से निकले कूड़े का ढेर था. वापिस आये तो श्रीमति ने ड्राईवर को कहा कि गोमती किनारे कोई हनुमान मंदिर है, वहां ले चलो. वो ले तो गया, लेकिन फिर कहने लगा कि अभी मंदिर बंद होगा. सो बस मंदिर की शक्ल दिखा दी चलती गाड़ी में से. कैसा ड्राईवर था और कैसे ट्रिप मेनेजर थे! कौन सी जगह कब खुलेगी, उसके मुताबिक ट्रिप तक नहीं घड़ सके! अब उसने कहा कि साठ किलोमीटर ही चलना था, और वो अब पूरे होने वाले थे, सो वापिस छोड़ सकता था बस. मैंने कहा कि कैसे पता कि साठ किलोमीटर हो गए. उसने मीटर दिखा दिया. मैंने कहा कि जब चले थे, तब तो नहीं दिखाया मीटर, ऐसे क्या पता लगता है. कोई जवाब नहीं था. वापिस चलने लगा वो. रास्ते में एक चिकन वर्क की कपड़े की दूकान पर खुद ही रोक दिया. लगा कोशिश करने कि हम घुस भर जाएँ दूकान में. मैंने कहा कि हमने नहीं लेना कुछ और नहीं देखना कुछ. हार के उसे माननी पड़ी मेरी बात. अपनी कमीशन के चक्कर में था बस. इडियट. ग्यारह सौ रुपये के मुताबिक सर्विस नदारद थी. मैंने कहा कि हज़रत गंज छोड़ दो. वहां उतरे हम तो पैसे मांगने लगा जबकि होटल वाले ने पहले ही कहा था कि पैसे होटल वापिस पहुँच देने हैं. जिद्द करता रहा, लेकिन फिर मान गया. हज़रत-गंज कुछ-कुछ दिल्ली के कनाट-प्लेस जैसा है. घूमते-घामते हम ‘मोती महल रेस्तरां’ पहुँच गए. खाना बढ़िया, हमारी उम्मीद से बेहतर. दाम भी सही. बाहर निकले तो दो रिक्शा तय हुए इमामबाड़ों के लिए साठ रुपयों में, लेकिन फिर वो भी जिद्द करने लगे चिकन वर्क की दुकानों पर ले जाने की. मैंने मना किया लेकिन माने ही नहीं वो. हमने दोनों रिक्शा छोड़ दिए. मैं मन ही मन उनको कोसने लगा. पता नहीं क्या समझते हैं? जैसे हमारे सर पर सींग हैं. बड़ी मुश्किल एक ऑटो मिला. दो सौ रूपये में तय हुआ कि इमामबाड़ा और साथ लगते Monument दिखा देगा. मैंने कहा कि अढाई सौ दूंगा, ठीक से दिखा दे बस. मान गया. बड़े इमामबाड़ा में एंट्री हुई. आर्किटेक्चर, बिल्डिंग बढ़िया दिख रही थी. लेकिन जूते तक रखवाने के पैसे लिए जा रहे थे. मैं गुरूद्वारे याद करने लगा. वहां गरीब-अमीर सब जूतों की सेवा देते हैं, जूते साफ़ करते हैं, निशुल्क. ‘गाइड’ मुझे गाइड के साथ ‘मिस-गाइड’ भी लगा. कहानियाँ कहे जा रहा था लेकिन अपनी धारणाएं भी बता रहा था, जिन पर मैं असहमति दिखा सकता था, लेकिन उस वक्त गाइड वो था, सो बहस नहीं की. भूल-भूलैया मुझे पहली बार में ही कुछ तो याद हो गया. ख़ास नहीं लगा. हां, अंदर हाल में इको सिस्टम खूब बढ़िया बनाया गया था. लाउड स्पीकर से पहले की ईजाद. छोटा इमामबाड़ा. आर्किटेक्चर. बिल्डिंग. और पैसा ऐंठते लोग. जूते रखने के पैसे, अंदर दिखाने, समझाने के पैसे. रूमी दरवाज़ा. यह मुझे खूबसूरत लगा. ये बड़ा. दिल्ली में भी गेट बने हैं , लेकिन ऐसा एक भी नहीं. घंटा-घर. यह भी सुन्दर है लेकिन क्रिकेट खेला जा रहा था उसकी दीवार के सहारे. हेरिटेज बिल्डिंग तक की औकात नहीं मिली थी उसे. शाम के छह बजे थे और घडियाल साढ़े दस दिखा रहा था. अब ऑटो वाले भैया जी, हमें चिकन वर्क की दूकान ले गए. शाम हो चुकी थी. कोई दिलचस्पी नहीं थी. लेकिन चले गए. हमारी बला से. बड़ी दूकान. कई वर्कर. सब पलक-पावड़े बिछाए. उलटे-सीधे रेट. बकवास. फिर भी मेरे लिए एक कुरता ले लिया. बार्गेन करके. वापिस पहुँच गए अपने ठिकाने. अगली सुबह वापिसी थी. पैकिंग करते-कराते एक बज गया. सुबह चार बजे उठ गए. सामान उठाया, बिल दिया और स्टेशन पहुंचे. पूछ-ताछ वाले सब मौजूद थे केबिन में लेकिन कोई सीधे मुंह बात नहीं कर रहा था. Literally मुंह उलटी दिशा में कर के बैठे थे. स्टेशन पर गन्दगी थी. कूड़े से भरी रेहड़ी ऐसे ही छोड़ रखी थी. रेल लाइन पर टट्टियाँ बिखरी पडीं थी. ट्रेन छह बजे के करीब चल पड़ी. सीट रिज़र्व थीं. लेकिन थोड़ा चलते ही भीड़ से बुरा हाल हो गया. ज़्यादातर बिना रिजर्वेशन वाले. लोग सामान रखने की जाली तक पे सोये हुए. टॉयलेट सीट घेर बैठे हुए. रास्ते सब भर गए. टॉयलेट तो जा ही नहीं सकते इतनी भीड़. हमारे पास बस यही सुविधा थी कि हमारी सीट रिज़र्व थीं, जिन्हें घेर हम बैठे थे. लेकिन बावजूद इसके लड़ना पड़ रहा था. लोग ऊपर गिरे जा रहे थे. पहुँच गए दिल्ली. शुक्रिया भारतीय रेल. ऑटो वाले को पूछा तो एक ने मना कर दिया. एक ने दोगुना पैसे मांगे. मुझे इनसे यही उम्मीद थी. फिर कहते हैं कि कैब ने इनका काम खा लिया. खा ही लेना चाहिए, बचा-खुचा भी, ये हैं ही इसी लायक. कैब मंगाई और घर वापिस. कुछ नतीजे निकाले मैंने अपनी यात्रा के. हाज़िर हैं. 1. मात्र सीट रिज़र्व कराना काफी नहीं है. अगर डिब्बा AC नहीं है तो बुकिंग वाला डिब्बा भी थर्ड क्लास की तरह ही प्रयोग होता है. और ऐसा जान-बूझ कर किया गया है. सरकार को पता सब है कि लेकिन इसकी मंशा है कि भारत की बेतहाशा जनता को जैसे-तैसे सफर करने दिया जाए. अँगरेज़ लिखते थे कि भारतीय और कुते उनके डिब्बों में न चढ़ें. गुस्सा आता है भारतीय को कि उसे कुत्तों के समकक्ष रख दिया. अब क्या किया जा रहा है? खुल के कुत्ता नहीं लिखा लकिन भेड़-बकरियों की तरह तो ठूंसा जा रहा है. बिना रिजर्वेशन वाला कहीं भी चढ़ रहा है, कोई रोकने वाला नहीं. ट्रेन में लड़ाई हो जाए, कोई पुलिस वाला नहीं. सफाई नहीं हो रही, टॉयलेट गंधा रहे हैं, कोई देखने वाला नहीं. टिकट ली-नहीं ली, कोई चेक करने वाला नहीं. यह सब क्या है? सरकार अव्यवस्था खुद चाहती है. वोट जो लेना है गरीब जनता से, तो चलने दो गाड़ी बस. 2. जो भी होटल लें, पहले से पूछें कि बत्ती जायेगी तो क्या इंतेज़ाम है. AC चलेगा या बंद होगा. हमारे होटल में जनरेटर तो था लेकिन AC नहीं चलता था उससे. बहुत दिक्कत तो नहीं हुई, लेकिन हो सकती थी, होटल बदलना पड़ सकता था. 3. कहीं पढ़ा था कि उत्तर प्रदेश ने सबसे ज़्यादा प्रधान-मंत्री दिए भारत को, लेकिन इनमें से कोई भी अपने प्रदेश को विकास नहीं दे पाया. यह मैंने साक्षात् देखा. दिल्ली में बत्ती न के बराबर जाती है, वहां बार-बार जा रही थी. दिल्ली को गंदा मानता हूँ. दिल्ली से साफ़ मुझे बठिंडा लगता है. लेकिन लखनऊ दिल्ली से ज़्यादा गंदा लगा. 'अक्षर-धाम दिल्ली' में शाम को वाटर प्ले होता है. एक पूल के सब और लोग बिठाल दिए जाते हैं. फिर म्यूजिक के साथ अलग-अलग फव्वारे नाचते हैं. रंगीन लाइटों, साउंड और पानी का खेला. लखनऊ घंटा-घर के ठीक साथ ऐसा ही एक स्थल बनाया गया है. सुन्दर बना है, लेकिन धूल खा रहा है, जाने कब चालू करेंगे? जनता के पैसे का सत्य-नास. 4. घर से चलते हुए मैंने अपने लिए साइड बैग लिया था. सबको कहा कि साइड बैग उठा लें. बड़ी बिटिया ने ले लिया. श्रीमति को मेरी सलाह खास न लगी. वहां जब जनेश्वर पार्क में बैग खो दिया, तो मैंने याद दिलाया कि साइड बैग लेने को कहा था मैंने. इसलिए कहा था कि वो शरीर का हिस्सा बन जाता है. आपका एक हाथ बंधा नहीं रहता उसे सम्भालने को. यह टशन नहीं, ज़रुरत है. मुझे स्त्रियों का ऊंची हील पहनना, मुंह पर बहुत रंग-रोगन लगाना और हैण्ड-बैग उठाना समझ नहीं आता. मेरे मशवरे पर आप भी गौर कर सकते हैं. 5. जब जाना था तो बड़ी बेटी को उसके किसी मित्र ने बताया कि लखनऊ की तहज़ीब बहुत बढ़िया है. वापिस आये तो बिटिया का नतीजा था कि 'लीजियेगा, दीजियेगा, कीजियेगा' से ही गर तहज़ीब तय होती है तो निश्चित ही वहां की तहज़ीब बेहतर है लेकिन तहज़ीब मात्र भाषा में ही नहीं, व्यवहार में-कंडक्ट में भी होनी चाहिए. भाषा मात्र की तहज़ीब तो खतरनाक है, धोखा दे सकती है, इसका बहुत फायदा नहीं है. मैंने कहा कि इन्सान सब जगह एक सा होता है. वो अपनी ज़रूरतों और स्वार्थों के हिसाब से जीता है. लखनवी या किसी भी और तहज़ीब से ज़्यादा अपेक्षा करना ही गलत है. इतना ही काफ़ी है कि लखनवी लोग शब्दों के हरियाणवी लट्ठ नहीं मारते. क्या ख्याल है आपका? नमन....तुषार कॉस्मिक

Saturday, 24 June 2017

किताब -- वरदान या अभिशाप

किताबें ज्ञान का दीपक हैं.....ह्म्म्म....

इतिहास उठा कर देखो,,,,,किताबों के ज़रिये  ही सबसे ज़्यादा बड़ा गर्क किया गया है दुनिया का........किताबें, जो बहुत ही पवित्र मानीं गयीं. आसमानी, नूरानी. इलाही.

इन किताबों के  पीछे कत्ल करता रहा इंसान, तबाही बरसाता रहा इंसान. उसके पास पवित्र मंसूबे रहे हर दम....कोई सवाल भी उठाये तो कैसे? उसने दुनिया का हर जुल्म इन किताबों की पीछे रह कर किया.......किताब का क्या कसूर? अब तुम चाकू से किसी का पेट चाक कर दो या फिर नारियल काट, पेट भर दो..........तुम्हारी मर्ज़ी.

किताब की ईजाद इंसान को चार कदम आगे ले गई तो शायद आठ कदम  कहीं पीछे ले गई......डार्विन ने कहा ज़रूर कि इंसान बन्दर का सुधरा रूप है लेकिन जैसे ही किताब आई,  इंसान बंदरों के मुकाबले  सदियों पीछे गिर गया, गिरता गया.

हर ईजाद खतरनाक हो सकती है और फायदेमंद भी.......कहते हैं बन्दर के हाथ में उस्तरा दो तो ख़ुद को ही लहुलुहान कर लेगा.....उस्तरे से ज़्यादा नुक्सान पूँछ झड़े बन्दर के हाथ में किताब के आने से हुआ है.

इंसान चंद किताबों का, ख़ास मानी गई किताबों का गुलाम हो गया और अपनी अगली पीढ़ियों को इन किताबों की गुलामी देता गया है.

अब आप इन महान किताबों के खिलाफ सोच नहीं सकते, बोल नहीं सकते.....इन किताबों के हिसाब से ही आपको जीना होगा. आपको इनकी गुलामी स्वीकार करनी ही होगी...वरना आपको कत्ल कर दिया जाएगा....या फिर घुट-घुट के मरते-मरते जीते रहना  होगा.

ये किताबें ग्रन्थ बन गईं.  इंसान के जीवन  की ग्रन्थियां बन गईं.  ग्रन्थियों जिनमें उलझ कर रह गया इंसान

जब तक इंसान किताबों को पवित्र मानना नहीं छोड़ेगा, तब तक इन्हीं ग्रन्थियों में उलझा रहेगा. जब  तक यह नहीं समझेगा कि  किताब कोई भी हो, यदि उस पर सही-गलत सोचने का हक़ ही नहीं दिया जाता तो वो  बेकार है......यदि उसके ज़रिये इंसान की सोच-विचार करने की आजादी पर ही अंकुश लगाया जाता है तो वो किताब बेकार है. 

इंसान की अक्ल को गुलाम बनाने का हक़ किसी को नहीं, भगवान  को भी नहीं.

किसी भी किताब को मात्र एक सलाह मानना चाहिए, मश्वरा. सजेशन. सर पर उठाने की ज़रुरत नहीं है, पूजा करने की ज़रुरत नहीं है..... किताबें मात्र किताबें हैं.....उनमें बहुत कुछ सही हो सकता है, बहुत कुछ गलत भी हो सकता है, आज शेक्सपियर को हम कितना ही पढ़ते हों....पागल थोड़ा हो जाते है उनके लिए, मार काट थोड़ा ही मचाते हैं...और शेक्सपियर, कालिदास, प्रेम चंद सबकी प्रशंसा करते हैं तो आलोचना भी करते हैं खुल कर.....है कि नहीं?

यही रुख चाहिए सब किताबों के प्रति......एक खुला नजरिया.....चाहे गीता हो, चाहे शास्त्र, चाहे कुरआन, चाहे पुराण, चाहे कोई सा ही ग्रन्थ हो.

लेकिन ग्रन्थ इंसान के सर चढ़ गए हैं...ग्रन्थ इंसान का मत्था खराब करे बैठे हैं.

इनको मात्र किताब ही रहने दें.....ग्रन्थ तक का ओहदा ठीक नहीं.

'ग्रन्थ' शब्द का शाब्दिक अर्थ तो मात्र इतना है कि पन्नों को धागे की गाँठ से बांधा गया है...धागे की ग्रन्थियां.

लेकिन आज यह शब्द एक अलग तरह का वज़न लिए है...ऐसी किताबें जिनके आगे इंसान सिर्फ़ नत-मस्तक ही हो सकता है...जिनको सिर्फ "हाँ" ही कर सकता है....तुच्छ इंसान की औकात ही नहीं कि वो इन ग्रन्थों में अगर कुछ ठीक न लगे तो "न" भी बोल भी सके...ये ग्रन्थ कभी गलत नहीं होते...इंसान ही गलत होते हैं, जो इनको गलत कहें, इनमें कुछ गलत देखें, वो इंसान ही गलत होते हैं.

सो ज़रुरत है कि इन ग्रन्थों को किताबों में बदल दिया जाए....इनमें कुछ ठीक दिखे तो ज़रूर सीखा जाए और अगर गलत दिखे तो उसे खुल कर गलत भी कहा जाए...इनको मन्दिरों, गुरुद्वारों और मस्जिदों से बाहर किया जाए..इनके सामने अंधे हो सर झुकाना, पैसे चढ़ाना बंद किया जाए.

अक्सर लोग एक तरह की नामों की गुलामी में ही जी रहे होते हैं...बड़े नामों की गुलामी...चाहे वो नाम किसी किताब का हो या किसी व्यक्ति का......

मेरे जैसे हकीर आदमी की हिमाकत ही कैसे हो गयी?

किसी महान किताब / शख्सियत पर कोई ऐसी टिप्पणी करने की, ऐसी टिप्पणी जो जमी जमाई जन-अवधारणा को ललकारती हो...

मानसिक गुलामी.

मुझसे अक्सर कहा जाता है, मैं कौन हूँ जो फलां विश्व प्रसिद्ध व्यक्ति के बारे में या उसके किसी कथन या किताब के बारे में टिप्पणी करूं, मेरी औकात क्या है, मुझे क्या हक़ है

मैं बताना चाहता हूँ कि ऐसा करने का सर्टिफिकेट मुझे जनम से ही कुदरत ने दे दिया था, सारी कायनात मेरी है और मैं इस कायनात का...

और मेरा हक़ है, कुदरती हक़, दुनिया के हर विषय के पर, हर व्यक्ति पर बोलने का, लिखने का

और यह हक़ आपको भी है, सिर्फ इस भारी भरकम नामों की गुलामी से बाहर आने की ज़रुरत है

और एक बात और जोड़ना चाहता हूँ, कोई भी व्यक्ति- कोई भी किताब  कितना ही बड़ा नाम हो उसका....कहीं भी गलत हो सकता/सकती है.

नमन..तुषार कॉस्मिक

Monday, 19 June 2017

मैं सभी तथा-कथित धर्मों को ज़हर मानता हूँ, और इस्लाम को पोटैशियम साइनाइड. लेकिन अगर मेरे सामने किसी बेगुनाह को मारा जा रहा हो तो वो मुसलमान ही क्यों न हो, अगर बचा सकता होवूँगा तो जी-जान से कोशिश करूंगा बचाने की. और यह लिखते हुए खुद को कोई महान साबित नहीं करना चाह रहा. वो तो मैं पहले ही लिख चुका कई बार कि अपुन हैं घटिया ही. जैसा अपना समाज है, वैसे ही अपुन हैं. और अगर यह कोई थोड़ी सी अच्छाई है भी तो वो भी इसलिए कि अपने समाज में कुछ अच्छाई भी है. बस. मेरा मुझ में किछ नाहीं, जो किछ है, सभ तेरा.

अप्प दीपो भव

मैंने लिखा कि मैं सभी तथा-कथित धर्मों को ज़हर मानता हूँ तो एक मित्र का सवाल था कि क्या बौद्ध धर्म को भी?

मैंने कहा, "हाँ".

एक ने पूछा, "क्या सिक्ख धर्म को भी?"

मैंने कहा, "हाँ".

वजह पहली तो यह है कि व्यक्ति को अपनी ही रोशनी से जीना चाहिए. कहा भी है बुद्ध ने, "अप्प दीपो भव." लेकिन बौद्ध फिर भी  बुद्ध को पकड़ लेता है. जब अपना दीपक खुद ही बनना है तो फिर बुद्ध को भी छोड़ दीजिये, फिर बौद्ध भी मत बनिये. और भिक्षु बनना और बनाना कोई जीवन का ढंग नहीं है. फिर स्त्रियों को दीक्षा न देना भी समझ से परे है. फिर अहिंसा भी कोई जीवन दर्शन नहीं है. हिंसा अवश्यम्भावी है. उससे बच ही नहीं सकते. जहाँ हिंसा की ज़रूरत हो, वहां हिंसक होना ही चाहिए. अहिंसा आत्म-घाती है.

क्यूँ बनना मुसलमान? हो गए मोहम्मद. अगर कुछ सीखने का है तो सीख लीजिये. 

काहे कृष्ण-कृष्ण भजे जा रहे हैं, वो हो चुके, आ चुके, जा चुके. अब कुदरत ने, कायनात ने आपको घड़ा है. अब आपका अवसर है. 

अब राम-राम कहना बंद कीजिये. राम ने जो धनुष तोड़ना था तोड़ चुके, जो तीर छोड़ने थे छोड़ चुके. जिसे-जिसे मारना था मार चुके. वो अपना रोल अदा कर चुके. अब आपको अपना रोल अदा करना है. अगर कुछ सीखने का है राम से तो सीख लो. लेकिन अब आपको अपनी लीला खेलनी है. छोड़ो यह सब राम-लीला. अगर कुदरत  को राम की लीला से ही सब्र हो जाता तो आपको नहीं भेजती इस धरती पर.   

ये जो किसी ग्रन्थ को गुरु मानना, कहाँ की समझ है? कोई भी किताब सिखा सकती है. क्या शेक्सपियर से, ऑस्कर वाइल्ड से, खुशवंत सिंह से, प्रेम चंद से. मैक्सिम गोर्की से, दोस्तोवस्की से  कुछ नहीं सीखा जा सकता? हम सब सीखते हैं इनसे. इनकी आलोचनाएं भी लिखते हैं, पढ़ते हैं. लेकिन गुरु ग्रन्थ की कितनी आलोचनाएं पढ़ीं आपने. दंगा हो जायेगा. मार-काट हो जाएगी. इसे धर्म कहूं मैं?

"सभ सिक्खन को हुक्म है, गुरु मान्यो ग्रन्थ." हुक्म सिर्फ गुलाम बनाते हैं और यहाँ रोज़ गुरुद्वारों से हुक्मनामे ज़ारी होते हैं.

जीसस हमें बचायेंगे. हमारे पापों से. इडियट. पहली बात तो पाप-पुण्य कुछ होता नहीं. और क्या बचायेंगे जीसस जो खुद को सूली लगने से नहीं बचा सके?

भैया जी, बहिनी, सुनो सबकी करो मन की. सीखो सबसे, जीयो अपनी अक्ल से. मत बनो किसी भी लकीर के फकीर. मत बनो हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई. 

अप्प दीपो भव.

नमन...तुषार कॉस्मिक

मेरी तरफ से कुछ जीवन सूत्र

१. उम्र और अनुभव माने रखता है, लेकिन हमेशा नहीं. एक कम उम्र शख्श भी सही हो सकता है. और एक कम अनुभवी व्यक्ति भी गहन सोच सकता है, कह सकता है. एक बेवकूफ को बेवकूफात्मक अनुभव ही तो होंगे, वो चाहे कितने ही ज़्यादा हों. २. व्यक्ति को न तो बहुत संतोष होना चाहिए और न ही बहुत असंतोष. बहुत संतोषी व्यक्ति कभी आगे नहीं बढ़ पाता जीवन में और बहुत असंतोषी व्यक्ति खुद को पागल कर लेता है, बीमार कर लेता है. एक संतुलन चाहिए संतोष और असंतोष में. यही जीवन का ढंग है. सन्तोषी माता फिल्म मात्र बेवकूफ बनाये रखने के लिए बनाई गई थी. ३. आलोचना का अर्थ निंदा नहीं होता. आलोचना का अर्थ है स्वतंत्र नज़रिया. आलोचना शब्द लोचन से आता है, जिसका अर्थ है आँख और नज़रिया शब्द भी नज़र से आता है जिसका अर्थ है आँख. जब आँख आज़ाद हो तो वो जो देखती है उसे कहते हैं आलोचना. आलोचना निंदा नहीं है. और जहाँ आलोचना नहीं है, वहां सिवा गुलामी के कुछ नहीं है. और जब नज़र बंध गई तो फिर वो नज़रिया आज़ाद कैसे हुआ? खुला नज़रिया ऊँगली उठाना नहीं होता...खुला नज़रिया मतलब जहाँ ऊँगली उठानी हो वहां ऊँगली उठाई जाए और जहाँ सहमती दिखानी हो वहां सहमति दिखाई जाए.

सभ सिक्खन को हुक्म है, गुरु मान्यो ग्रन्थ

ये जो किसी ग्रन्थ को गुरु मानना, कहाँ की समझ है? कोई भी किताब सिखा सकती है. क्या शेक्सपियर से, ऑस्कर वाइल्ड से, खुशवंत सिंह से, प्रेम चंद से. मैक्सिम गोर्की से, दोस्तोवस्की से कुछ नहीं सीखा जा सकता? हम सब सीखते हैं इनसे. इनकी आलोचनाएं भी लिखते हैं, पढ़ते हैं. लेकिन गुरु ग्रन्थ की कितनी आलोचनाएं पढ़ीं आपने. दंगा हो जायेगा. मार-काट हो जाएगी. इसे धर्म कहूं मैं? "सभ सिक्खन को हुक्म है, गुरु मान्यो ग्रन्थ." हुक्म सिर्फ गुलाम बनाते हैं और यहाँ रोज़ गुरुद्वारों से हुक्मनामे ज़ारी होते हैं. जब पहले से ही किसी ग्रन्थ को गुरु मानना है तो काहे की स्वतन्त्रता? काहे की सोचने की आज़ादी? स्वतंत्र होने अर्थ है अब किसी और तन्त्र से नहीं अपने ही तन्त्र से बंधेंगे. लेकिन यहाँ तो बंधना है किसी ग्रन्थ से तो फिर कैसी स्वतन्त्रता? अब हुक्म हुक्म में फर्क होता है. मैं विद्रोही हूँ लेकिन क्या ट्रैफिक के नियम भी तोड़ने को कहता हूँ. नहीं? नियम नियम में फर्क है. ट्रैफिक के नियम कोई इलाही बाणी नहीं माने जाते. वो कभी भी बदले जा सकते हैं. असल में मैं तो कहता हूँ कि पैदल चलने वालों को हमेशा दायें चलना चाहिए ताकि सामने से आता ट्रैफिक दिख सके. जब आप किसी ग्रन्थ को पहले से ही गुरु मान लेंगे तो आप उसमें लिखे हर शब्द को सिर्फ सही ही मानेंगे. आप कैसे आलोचना करेंगे? कैसे आलोचना समझेंगे? आलोचना के लिए तो हर पूर्व-स्थापित मान्यता रद्द होनी चाहिए. आलोचना का अर्थ निंदा नहीं होता. आलोचना का अर्थ है स्वतंत्र नज़रिया. आलोचना शब्द लोचन से आता है, जिसका अर्थ है आँख और नज़रिया शब्द भी नज़र से आता है जिसका अर्थ है आँख. जब आँख आज़ाद हो तो वो जो देखती है उसे कहते हैं आलोचना. आलोचना निंदा नहीं है. और जहाँ आलोचना नहीं है, वहां सिवा गुलामी के कुछ नहीं है. खुला नज़रिया ऊँगली उठाना नहीं होता...खुला नज़रिया मतलब जहाँ ऊँगली उठानी हो वहां ऊँगली उठाई जाए और जहाँ सहमति दिखानी हो वहां सहमति दिखाई जाए. सीखना ही सिक्खी है लेकिन लेकिन जब आप सिर्फ शीश नवायेंगे,कैसे सीखेंगे किसी ग्रन्थ से? या तो आप सही मानों में सिक्ख हो सकते हैं, ऐसे सिक्ख जो सही गलत पहले से ही नहीं माने बैठा, जो खुले दिमाग का है, जो किसी ग्रन्थ को गुरु या लघु नहीं माने बैठा है, या फिर आप वो सिक्ख हो सकते हैं जो हुक्म का गुलाम है और पहले से ही ग्रन्थ को गुरु माने बैठा है. कौन से सिक्ख हैं आप? नमन...तुषार कॉस्मिक

Sunday, 18 June 2017

जब तक आप नाकामयाबियों के छित्तर पे छित्तर खाने को तैयार न हों, कामयाब होना मुश्किल समझिये.

क्रिकेट में हार शुभ है

एक होता है गर्व. गर्व होता है अपनी उपलब्धियों की ठीक-ठीक मह्त्ता समझना, यह जायज़ बात है.   

और एक होता है घमंड.  मतलब हो झन्ड फिर भी रखे हो  घमण्ड. हो गोबर फिर भी रखे हो गौरव. यह नाजायज़ बात है.

यह फर्क क्यूँ स्पष्ट किया, आगे देखिये. 

भारत कहीं खड़ा नहीं होता वर्ल्ड  लेवल पर खेलों में. इक्का-दुक्का उपलब्धियां. इत्ता विस्तार लिया हुआ मुल्क. इत्ती बड़ी जनसंख्या. लेकिन उपलब्धि लगभग शून्य .

ओलंपिक्स की मैडल तालिका देखो तो शर्म आ जाए. और वो शर्म आती भी है. भारतीयों को पता है कि वो फिस्सडी हैं. झन्ड हैं. गोबर हैं.लानती हैं.

कैसे सामना करें खुद का? कैसे नज़र मिलाएं खुद से? खुद से नैना मिलाऊँ कैसे? हर खेल में पिट-पिटा के घर जाऊं कैसे? तो चलो क्रिकेट पकड़ते हैं. इसके रिकॉर्ड बनाते हैं. वर्ल्ड रिकॉर्ड. इसके चैंपियन बनते हैं. वर्ल्ड चैंपियन. 

वर्ल्ड ने आज तक क्रिकेट खेला नहीं सीरियसली.  चंद मुल्क खेले जा रहे हैं बस. ओलंपिक्स में आज तक शामिल नहीं क्रिकेट.लेकिन हम वर्ल्ड चैंपियन. हमारे खिलाड़ी वर्ल्ड प्लेयर. 

यही हाल कबड्डी का है. कबड्डी का भी वर्ल्ड टूर्नामेंट होता है. खेलते कितने मुल्क हैं अभी इसे? या खेलते भी हैं तो कितनी रूचि से खेलते हैं? खेलने को तो यहाँ भारत में भी बहुत खेल खेले जाते हैं जो कहाँ खेले जाते हैं, पता ही नहीं लगता. आपने अपने इर्द-गिर्द के कितने लोग  पोलो या स्क्वाश या गोल्फ खेलते देखे सुने हैं?

तो भाई लोग, वर्ल्ड लेवल का खेल वहीं होता है जिस में ढंग से दुनिया रूचि लेती हो, खेलती हो. 

"मास्टर जी, मास्टर जी मैं दौड़ में तीसरे नम्बर पर आया?"
मास्टर हैरान, फिस्सडी छोरा, कैसे आ गया तीजे नम्बर पे!
"कित्ते थे रे तुम, जो दौड़े थे?"
"मास्टर जी, तीन."

समझ लीजिये, न तो क्रिकेट और न ही कबड्डी कोई वर्ल्ड लेवल का खेल है.  न ही  इन खेलो के खिलाड़ी कोई वर्ल्ड चैंपियन हैं, और न ही इन खेलों के रिकॉर्ड कोई वर्ल्ड  रिकॉर्ड हैं.

आप खेलों में झन्ड हैं. आप को क्रिकेट  का सिर्फ घमंड है. सो इसमें आपकी हार शुभ है. आपका घमंड तोडती है. आपको अपना असल चेहरा दिखाती है. इस हार के हार को गले में डाल लीजिये और समझ लीजिये कि आप खेलों में  ही नहीं, जीवन के बाकी पहलुओं में भी वैश्विक स्तर पर मुकाबले में कहीं खड़े नहीं होते. खेल सारी कहानी बयान कर देते हैं. आपका पर्दा-फाश कर देते हैं. आपको दिगम्बर कर देते हैं. नागा बाबा. 

अपनी नग्नता स्वीकार करें. अपनी नाकामयाबी  स्वीकार करें. अपना रोग स्वीकार करें. जब तक रोगी खुद को रोगी नहीं मानेगा, इलाज कैसे करवाएगा? जो रोगी खुद को निरोग ही मानता रहेगा, वो तो मारा जाएगा.

और यही हो रहा है. कहते रहो खुद को महान. विश्व गुरु. चैंपियन. लेकिन तुम झन्ड हो और झन्ड रहोगे, अगर ऐसे ही घमंड पाले रहोगे तो.

क्रिकेट में हार तुम्हारा घमंड तोड़ती है. क्रिकेट में हार तुम्हारे लिए अतीव शुभ है. उत्सव मनाओ.  नाचो, गाओ कि तुम हारे हो.

तुषार कॉस्मिक.....नमन

Saturday, 17 June 2017

तोप से गुलेल का काम न लेना चाहिए. हम तोप हैं, दुनिया की होप हैं ए ज़िंदगी. बाकी मर्ज़ी.
जिस दिन 'छोले भठूरे' और 'पकौड़े समोसे' बेचने को आप Entrepreneurship समझने लगेंगे, समझ लीजियेगा कि बिज़नस समझ आने लगा.

Friday, 16 June 2017

वकील मित्रों के चैम्बर में था....खाकी लिफाफे लीगल नोटिस भेजने को तैयार किये जा रहे थे......डाक टिकेट लगाये जा रहे थे... उचक कर देखा मैंने. टिकेट पर एक चेहरा था, नाम लिखा था 'श्रीलाल शुक्ल'.
मैं उत्साहित हो कर बोला, "मैडम, आपको पता है ये कौन हैं?"
"नहीं."
"मैडम, ये हिंदी के बड़े लेखक हैं श्रीलाल शुक्ल...इनकी कृति है 'राग दरबारी'. महान कृति मानी जाती है."
उनका ध्यान अपने काम में चला गया और मैं खुश होता रहा मन ही मन. कितना अच्छा है कि लेखक और वो भी हिंदी के लेखक को सम्मान दिया गया. क्या हम मुंशी प्रेम चंद, भगवती चरण वर्मा, अमृता प्रीतम, खुशवंत सिंह, नानक सिंह आदि को बच्चों तक पहुंचा पायेंगे? क्या हम अपने पेंटर, मूर्तिकार, नाटक-कार को कभी सम्मान देंगे? मैं मन ही मन बड़बड़ाता रहा.
ध्यान आया कि गायकों को हम जो आज सर आँखों पर बिठाते हैं, हमेशा ऐसा नहीं था. गाना-बजाना बहुत हल्का पेशा समझा जाता था. मिरासियों का काम. पंजाब के ज़्यादातर गायक जो पचीस तीस साल पीछे के हैं, वो हल्के समझे जाने वाले समाज से आते थे. फिर समाज पलटा, गाने को वो स्थान मिला कि आज जो नहीं है गायक, वो भी गायक बने जा रहा है. मैं मन ही मन बड़बड़ाता रहा.
काश लेखकों, गायकों, कहानीकारों, गीतकारों, मूर्तिकारों, चित्रकारों, वैज्ञानिकों के नाम डाक टिकटों पर नहीं, लोगों के ज़ेहनों में अंकित हों! काश!!
मैं मन ही मन बड़बड़ाता रहा.

CANNIBALISM

इसका अर्थ है इन्सान का इंसानी मांस खाना. मानवाहार. क्या लगता है आपको कि इंसान सभ्य हो गया, वो कैसे ऐसा काम कर सकता है? कैसे कोई प्यारे-प्यारे बच्चों का मांस खा सकता है? कैसे कोई बेटी जैसी लड़की का मांस खा सकता है? कैसे कोई बाप जैसे वृद्ध का मांस खा सकता है? लेग-पीस. बोटी. पुट्ठा. कैसे? कैसे? गलत हैं आप. कहीं पढ़ा था कि ईदी अमीन नाम का शख्स, किसी अमेरिकी मुल्क का अगुआ, जब पकड़ा गया तो उसके फ्रिज में इंसानी मांस के टुकड़े मिले. अभी कुछ साल पहले नॉएडा में पंधेर नामक आदमी और उसका नौकर मिल कर बच्चों को मार कर खाते पाए गए थे. और आप और हम क्या करते हैं? हम इक दूजे का मांस खाते हैं, बस तरीका थोड़ा सूक्ष्म हो गया है, ऊपरी तौर पर दीखता नहीं है. जब आप किसी गरीब का पचास हजार रूपया मार लेते हैं, जो उसने तीन साल में इकट्ठा किया था तो आपने उसके तीन साल खा लिए. आपने उसके जिस्म-जान का लगभग दस प्रतिशत खा लिया. आप उसके बच्चों का, प्यारे बच्चों के तन का, मन का कुछ हिस्सा खा गए. उसके बूढ़े बाप को खा गए, उसकी बेटी को खा गए. बाबा नानक एक बार सैदपुर पहुंचे.शहर का मुखिया मालिक भागो ज़ुल्म और बेईमानी से धनी बना था. जब मलिक भागो को नानक देव जी के आने का पता चला, तो वो उन्हें अपने महल में ठहराना चाहता था, लेकिन गुरु जी ने एक गरीब के छोटे से घर को ठहरने के लिए चुना. उस आदमी का नाम भाई लालो था. भाई लालो बहुत खुश हुआ और वो बड़े आदर-सत्कार से गुरुजी की सेवा करने लगा. नानक देव जी बड़े प्रेम से उसकी रूखी-सूखी रोटी खाते थे. मलिक को बहुत गुस्सा आया और उसने गुरुजी को पूछा, "गुरुजी मैंने आपके ठहरने का बहुत बढ़िया इंतजाम किया था. कई सारे स्वादिष्ट व्यंजन भी बनवाए थे, फिर भी आप उस लालो की सूखी रोटी खा रहे हो, क्यों?" गुरुजी ने उत्तर दिया, "मैं तुम्हारा भोजन नहीं खा सकता, क्योंकि तुमने गरीबों का खून चूस कर ये रोटी कमाई है. जबकि लालो की सूखी रोटी उसकी ईमानदारी और मेहनत की कमाई है". गुरुजी की ये बात सुनकर, मलिक भागो ने गुरुजी से इसका सबूत देने को कहा. गुरुजी ने लालो के घर से रोटी का एक टुकड़ा मंगवाया. फिर शहर के लोगों के भारी जमावड़े के सामने, गुरुजी ने एक हाथ में भाई लालो की सूखी रोटी और दूसरे हाथ में मलिक भागो की चुपड़ी रोटी उठाई. दोनों रोटियों को ज़ोर से हाथों में दबाया तो लालो की रोटी से दूध और मलिक भागो की रोटी से खून टपकने लगा. यह कहानी हुबहू सच्ची न भी हो तब भी सच्ची है. है कि नहीं? आप शाकाहारी हैं, मांसाहारी है, मुद्दा है लेकिन आप मानवाहारी हैं या नहीं, यह भी मुद्दा है. बड़ा मुद्दा. अब कहो खुद को सभ्य. है हिम्मत? गर्व से खुद को हिन्दू, सिक्ख, मुसलमान बाद में कहना भाई, पहले गर्व से खुद को सभ्य कहने लायक तो हो जाओ. नमन...तुषार कॉस्मिक

Thursday, 15 June 2017

डॉक्टर भगवान का रूप माना जाता है, मैं तो कहता हूँ वकील भी भगवान है और चार्टर्ड अकाउंटेंट भी. आपकी जमानत न हो रही हो, तब देखो आपको वकील भगवान लगेगा कि नहीं? आपको इनकम टैक्स डिपार्टमेंट की प्रेम पाती मिली हो तो आप कहाँ मत्था टेकेंगे? सीधे सी ए के पास. मुसीबत में यही आपको-हमको बचाते हैं. बस मामला वहां गड़बड़ा जाता है, जब भगवान खुद पैसों के पुजारी बनने लगते हैं. अगर पैसों का संतुलन भी बना रहे तो ये वाले पेशे वाकई नोबल हैं, जैसे कि कहे भी जाते हैं. लेकिन संतुलन बना रहे तभी.
"बहुत मारा साब आपने, अपुन बस एक मारा, लेकिन सच्ची बोलो, सॉलिड मारा कि नहीं?" अमिताभ विनोद खन्ना से पिटने के बाद.
"बहुत लिखते हैं फेसबुक पे धुरंधर, मठाधीश. अपुन तो बस चिंदी-पिंदी, गैर-मालूम आदमी. लेकिन जित्ता लिखते हैं, करारा लिखते हैं कि नहीं बॉस?" तुषार कॉस्मिक

अबे तुम इंसान हो या उल्लू के पट्ठे, आओ मंथन करो

उल्लू के प्रति बहुत नाइंसाफी की है मनुष्यता ने.......उसे मूर्खता का प्रतीक धर लिया...... उल्लू यदि अपने ग्रन्थ लिखेगा तो उसमें इंसान को मूर्ख शिरोमणि मानेगा......जो ज्यादा सही भी है.........अरे, उल्लू को दिन में नही दिखता, क्या हो गया फिर? उसे रात में तो दिखता है. इंसान को तो आँखें होते हुए, अक्ल होते हुए न दिन में, न रात में कुछ दिखता है या फिर कुछ का कुछ दिखता है. इसलिए ये जो phrase है न UKP यानि "उल्लू का पट्ठा" जो तुम लोग, मूर्ख इंसानों के लिए प्रयोग करते हो, इसे तो छोड़ ही दो, कुछ और शब्द ढूंढो.

और गधा-वधा कहना भी छोड़ दो, गधे कितने शरीफ हैं, किसी की गर्दनें काटते हैं क्या ISIS की तरह? या फिर एटम बम फैंकते हैं क्या अमरीका की तरह?

कुछ और सोचो, हाँ किसी भी जानवर को अपनी नामावली में शामिल मत करना...कुत्ता-वुत्ता भी मत कहना, बेचारा कुत्ता तो बेहद प्यारा जीव है......वफादार. इंसान तो अपने सगे बाप का भी सगा नही.

तो फिर घूम फिर के एक ही शब्द प्रयोग कर लो अपने लिए..."इन्सान"...तुम्हारे लिए इससे बड़ी कोई गाली नही हो सकती...चूँकि इंसानियत तो तुम में है नहीं....और है भी तो वो अधूरी है चूँकि उसमें कुत्तियत, बिल्लियत , गधियत, उल्लुयत शामिल नही हैं...सो जब भी एक दूजे को गाली देनी हो, "इंसान" ही कह लिया करो....ओये इन्सान!!!! तुम्हारे लिए खुद को इंसान कहलाना ही सबसे बड़ी गाली हो सकती है.

अब मेरी यह सर्च-रिसर्च 'डॉक्टर राम रहीम सिंह इंसान' को मत बताना, वरना बेचारे कीकू शारदा की तरह मुझे भी लपेट लेगा...हाहहहाहा!!!!!
ये जो किसान के लिए टसुये बहा रहे हैं कि उसकी फसल की कीमत कम मिलती है, ज़रा तैयार हो जाएँ गोभी सौ रुपये किलो खरीदने को.

जब किसान एकड़ों के हिसाब से ज़मीन का मालिक था तब तो गाने गाता था, "पुत्त जट्टां दे बुलाओंदे बकरे......" ज़्यादा पीछे नहीं, मात्र पचीस-तीस साल पुरानी बात है.

बच्चों-पे-बच्चे पैदा किये गया, ज़मीन बंटती गई, दिहाड़ी मजदूर रह गया तो अब सड़क पर आ गया है. और करो बच्चे पैदा और फिर कहो कि सरकार की गलती है. सरकार पेट भरे. सरकार काम-धेनु गाय है न.

भैये, सरकार के पास पैसा आसमान से नहीं गिरता, टैक्स देने वालों से आता है. सिर्फ सरकार पर ही दोषारोपण मत करो.
किसी के नाम के आगे "जी" न लगाना अपमान नहीं है, सम्मान नहीं देना है. और दोनों एक ही बात नहीं है. अगर मैं किसी को सम्मान नहीं दे रहा तो इसका अर्थ बस इतना ही है कि मैं उसे सम्मान नहीं दे रहा, इसका मतलब अपमान करना नहीं है. अपमान इससे अगला कदम है. है कि नहीं? यह मैं इसलिए लिख रहा हूँ कि किसी बन्धु ने बड़ा इशू बना लिया कि मैंनेे उस के नाम के आगे "जी" नहीं लगाया.

मुझे आप पसंद कर ही नहीं सकते

मुझे आप पसंद कर ही नहीं सकते. मैं चीज़ ही ऐसी हूँ.
अगर मैंने राम के खिलाफ लिखा तो आरक्षण-भोगी खुश हुआ, मुसलमान खुश हुआ लेकिन जब मैंने आरक्षण के खिलाफ लिखा और इस्लाम के खिलाफ लिखा, तो इनने सोचा यह क्या बीमारी है.
जब मैंने सब तथा-कथित धर्मों के खिलाफ लिखा तो नास्तिक खुश हुआ लेकिन जब मैंने कहा कि मैं नास्तिक नहीं हूँ तो उनने सोचा कि यह क्या गड़बड़झाला है.

जब मैंने आरएसएस के खिलाफ लिखा, मोदी के खिलाफ लिखा तो मुसलमान खुश हुआ लेकिन जब मैं कुरान की विध्वंसक आयतें ला सामने रखी तो त्राहि-त्राहि मच गई.
जब मैंने भिंडरावाले के खिलाफ लिखा तो उन्हें लगा कि मैं संघी हूँ, फिर साबित करना पड़ा कि मैं तो लम्बा आर्टिकल लिख चुका, "मैंने संघ क्यूँ छोड़ा".
केजरीवाल के खिलाफ लिखा तो संघी खुश हुआ, लेकिन उससे ज़्यादा तो संघ के खिलाफ लिख चुका.
बहुत कम चांस हैं कि आप मेरे लेख पसंद कर सकें. लेकिन फिर भी पढ़ें मेरा लिखा. इसलिए नहीं कि आपको पसंद आएगा. इसलिए कि आपको जीवन के अलग-अलग पहलूओं पर मेरा नज़रिया नज़र आएगा. और उससे हो सकता है आपकी नज़र तेज़ हो जाए या फिर नज़रिये पर लगा चश्मा उतर जाए.
और मेरे छुप्पे पाठक भी हैं, जो छुप-छुप पढ़ते हैं. आप बड़े लोग हो भई, ऐसे ही बने रहें, बस बने रहें.
और जो कोई मित्र यदा-कदा किसी महानता का मुझ में दर्शन करते हैं, उनको बता दूं ऐसा कुछ भी नहीं है, मैं आज भी तीस रुपये वाले मटर-कुलचा खाता हूँ रेहड़ी पर, और गुस्सा आने पर गाली-गलौच करता हूँ. इससे ज़्यादा मेरी औकात नहीं है और महान वाली कोई बात नहीं है
मैं तो आज ही कह रहा था वी.....तीस हजारी कोर्ट अपने वकील मित्रों के चैम्बर में बैठा था तो, "मेरा बस चला कभी तो बठिंडा वापिस जा बसूँगा..... बच्चे जाएँ, जहाँ जाना हो, जापान, कनाडा....मैं तो दिल्ली से ही आजिज़ आ चुका, आगे कहाँ जाऊँगा? वापिस जाऊँगा बठिंडा...और हो सका तो वहां भी शहर नहीं, किसी साथ लगती बस्ती में."
मुझे पता है दुनिया आगे बढ़ती है....पीछे लौट ही नहीं सकती...और मैं भी नहीं लौट पाऊँगा. जानता हूँ कि कभी हो नहीं पायेगा...... लेकिन क्या करूं? मुझे तो नहीं भाता महानगर.
कुछ यही बात मेरी भाषा पर भी लागू होती....मेरी अधिवक्ता कहती हैं कि मेरी हिंदी भाषा बहुत अच्छी है, अंग्रेज़ी भी ठीक ही है....लेकिन मुझ पर तो पंजाबी हावी है आज तक...वो भी मालवा वाली.....पेंडू टाइप.....गंवारू ....मुझे Iqbal Singh Shahi ने फोन किया था कुछ दिन पहले और दोनों ठेठ पंजाबी बोल रहे थे.........वारिस शाह न आदता जान्दियाँ ने, भावें कटटीए पोरियाँ पोरियाँ जी.....वादडीयां सज्जादडीयां निभन सिरा दे नाल.
अपुन ठहरे बैकवर्ड लोग. थोड़ा झेल लीजिये बस.
सीखना हो तो आप कैसे भी सीख सकते हैं.
कैलकुलेटर में एक होता है "री-चेक बटन". कमाल की चीज़ है. यह आपको हर शाम अपने दिमाग में प्रयोग करना चाहिए, गलतियाँ सही करने में मदद मिलेगी.
फेसबुक का "ब्लाक बटन" बहुत काम की चीज़ है. इसे ज़िन्दगी में भी प्रयोग करें. जिससे नहीं ताल-मेल बैठता दफा करें. सबकी सबके साथ थोड़ा न ट्यूनिंग बैठती है.

Sunday, 11 June 2017

"सरकार समर्थन मूल्य घोषित करती है । लेकिन मंडी में इससे कम में बिचोलिये खरीदते है। इसपर शक्ति से रोक लगनी चाइए। गरीबो के नाम पर भाव नहीं बढ़ाते ।गरीबो को पालने का बोझ किसान पर नहीं डाल कर सरकार को उठाना चाइये" Gopal Chawda ji.
"आपकी बात सही है कि गरीबों को पालने के लिए यह सब दिक्कत है......असल बात ही यह है कि जनसंख्या वृद्धि अनियंत्रित है.....गरीब बच्चा पैदा करता जाता है...उसका पैदईशी हक है पैदा करना.....लेकिन उसके लिए पूरे समाज को भुगतना पड़ता है...सो कहीं न कहीं, किसी न किसी को उसके और उसके परिवार का भरण-पोषण का खर्च वहन करना पड़ता है. अगर यह बोझ किसान के सर से हटा भी लेंगे तो कहीं और पड़ेगा...तो हल यह नही है कि बोझ सरकार उठाये...वो टैक्स भरने वालों पर ही पड़ेगा...लेकिन पड़े ही क्यूँ? यह है असल मुद्दा. तो जन्म वृद्धि पर नए नियम, नए नियंत्रण करे बिना समस्या हल नहीं होगी." तुषार कॉस्मिक
मैंने केजरीवाल की नियत पर कभी शक नहीं किया है लेकिन उनकी अक्ल पर मुझे हमेशा शंका रही है. बहुत पहले मैंने एक लेख लिखा था "मूर्ख केजरीवाल". एक मिसाल देता हूँ अपनी मान्यता के पक्ष में.
जरनैल सिंह राजौरी गार्डन दिल्ली सीट के सिटींग MLA थे. उन्हें उखाड़ कर पंजाब में चुनाव लड़वा दिया.
नतीजा जानते हैं क्या हुआ? दोनों सीट गवा दीं.
यह केजरीवाल की महान मूर्खता का जिंदा नमूना है. पंजाब के चुनाव में पंजाब का व्यक्ति न लड़वा कर दिल्ली का व्यक्ति लड़वाना यह कहाँ की समझदारी थी? पंजाब के लोग टिकट लेने को मरे जा रहे थे, लेकिन टिकट दी दिल्ली के आदमी को. वाह भाई वाह!
और दिल्ली की जीती सीट को छोड़ना, यह कहाँ की समझदारी थी? क्या सोचा कि सरदार खुस होगा? साबासी देगा?
सरदार ने धो दिया. बम्पर वोट से भाजपा के मनजिंदर सिंह सिरसा जीते. कल्लो बात. बड़े आये.
केजरीवाल के रूप में एक उम्मीद तो भारत में जगी थी, लेकिन उनकी अक्ल की कमी ने वो धुल-धूसरित कर रखी है. हां, हम और आप होते तो बात कुछ और होती. नहीं?

Saturday, 10 June 2017

औकात

भिखारी अपनी औकात के हिसाब से भीख नहीं मांगता, सामने वाले की औकात के अनुसार मांगता है. जैसे साइकिल वाला होगा तो उससे दस-बीस रूपया नहीं, एक दो रूपया ही मांगेगा. और ऑडी या मरसडीज़ कार वाला होगा तो पचास-सौ रूपया मांगेगा.
तो साहेबान-कद्रदान, यह मसल सिर्फ भीख मांगने में ही फिट नहीं होती, हर व्यापार में फिट होती है.
डॉक्टर, चार्टर्ड अकाउंटेंट, वकील से लेकर इलेक्ट्रीशियन, प्लम्बर, नाई, हलवाई तक आपको अपनी हैसियत, अपनी लियाकत के अनुसार चार्ज नहीं करते, आपकी हैसियत के हिसाब से 'काटते' हैं.
यह 'काटना' शब्द बिलकुल सही है. इंसान इंसान को 'काटता' है. शारीरिक रूप से न सही, आर्थिक रूप से सही. और अर्थ शरीर का ही हिस्सा है, जैसे किसी ने ऑटो चला के दस लाख रुपये जोड़े दस साल में तो यह उसके शरीर, उसकी उम्र के दस साल को काटना हुआ कि नहीं अगर उसके साथ धोखा हो गया दस लाख का तो?
अब अक्सर सही लगता है कि जो पिछली पीढी के लोग रूपया जेब में होते हुए भी चवन्नी ही दिखाते थे.