Wednesday, 11 October 2017

भगवान



'भगवान' शब्द का संधि-विच्छेद करें तो यह है भग+वान. भग वाला. योनि वाला. योनि, जहाँ से सब जन्म लेते हैं. ध्यान दीजिये, 'भगवान' शब्द पुरुषत्व और स्त्रीत्व दोनों लिए है. हम भगवान शब्द को पुलिंग की तरह प्रयोग करते हैं. लेकिन वो 'पु-लिंग' है तो 'स्त्री-भग' भी है. वो 'भगवान' है. वो अर्द्ध-नारीश्वर है. वो 'भगवान' है.

वो शून्य है

अब है तो फिर शून्य कैसे

और शून्य तो फिर है कैसे


लेकिन वो दोनों

कबीर समझायें तो उलटबांसी हो जाए

गोरख समझायें तो गोरख धंधा हो जाए

वो निराकार है

और साकार भी

साकार में निराकार

और निराकार में साकार

वो प्रभु

वो स्वयम्भु

वो कर्ता और कृति भी

वो नृत्य और नर्तकी भी

वो अभिनय और अभिनेता भी

वो तुम भी

और वो मैं भी

बस वो ...वो ...वो ...वो


मैं नास्तिक नहीं हूँ......हाँ, लेकिन जिस तरह आस्तिकता समझी जाती है, उन अर्थों में आस्तिक भी नहीं हूँ. मेरे लिए हमारा समाज ही भगवान है, हमारी धरती ही भगवती है, हमारा ब्रह्मांड ही ब्रह्मा है. मैं कॉस्मिक हूँ. मैं तुषार कॉस्मिक हूँ.


केवल कुछ प्रश्न  और सभी धर्म और इन धर्मों पर आधारित संस्कृतियाँ धराशायी हो जाएँगी:---

प्रश्न 1:- यदि आप मानते हैं कि हर चीज़ का निर्माण किसी ने किया है और कोई ईश्वर या ईश्वर जैसी इकाई है, तो उस इकाई का निर्माण किसने किया? यदि वह इकाई स्वयं निर्मित हो सकती है, तो यह ब्रह्माण्ड क्यों नहीं?

प्रश्न 2: इस बात का प्रमाण कहां है कि आपके मंदिर, मस्जिद, चर्च, आपकी प्रार्थनाएं और आपके पुजारी उस ईश्वरीय इकाई से जुड़ने का एक तरीका हैं?


प्रश्न 3: इसका प्रमाण कहां है कि यदि आप प्रार्थना करते हैं तो ईश्वर जैसी इकाई आपकी इच्छाओं पर सकारात्मक प्रतिक्रिया देती है?


कुदरत ही भगवान है. जहान ही भगवान है. प्रभु से बढ़िया शब्द है. स्वयम्भू. सेल्फ क्रिएशन. शम्भू. लेकिन इसे पूजने से कोई फायदा नहीं. आदमी पूजन के चक्कर में इसे खराब करता है उल्टा. फूल चढ़ा ही हुआ है भगवान् को. उसे काट के, पत्थर की मूर्ती पे चढ़ा देता है. इडियट है. इन्सान को करना बस इतना है कि इस दुनिया में कुदरत के मुताबिक जीए. यही पूजा काफी है. बिलकुल हम भी कुदरत का हिस्सा हैं, कुदरत ही हैं. लेकिन इन्सान तक आते आते कुदरत ने इन्सान को सेल्फ डिसिशन की शक्ति दी है. और होता यह है कि इन्सान संस्कृति के चक्कर में विकृति कर देता है. अब ज़रूरत यह है कि जितना जल्द हो सके कुदरत की और लौटना चाहिए. उसमें बहुत कम छेड़-छाड़, न के बराबर ही करनी चाहिए.

धर्मों पर मेरा नज़रिया है कि मैं किसी भी तथा-कथित धर्म को नहीं मानता. लेकिन आपको ईश्वर, अल्लाह, वाहगुरू जो मर्ज़ी मानना हो, आप आज़ाद होने चाहिए. आस्तिक्ता की आजादी होनी चाहिए और नास्तिकता की भी. धर्म निहायत निजी मामला होना चाहिए. और आज़ादी बस वहीं तक जहाँ तक दूसरे की आज़ादी में खलल न डालती हो. लाउड स्पीकर बंद. सड़कों का दुरूपयोग बंद. कोई लंगर नहीं, कोई नमाज़, कोई शोभा यात्रा नहीं सड़क पर. जागरण भी करना हो तो साउंड प्रूफ कमरों में करो. नमाज़ की कॉल करने के लिए sms प्रयोग करें या कुछ भी और जिससे बाकी समाज को दिक्कत न हो. और स्कूलों में भगवान की कोई प्रार्थना नहीं. स्कूल शिक्षा स्थल है, वहां तो चार्वाक और मार्क्स भी पढ़ाया जाना है, वो पक्षपात कैसे कर सकता है?


सरकारी कामों में किसी भी धर्म का समावेश नहीं होना चाहिए. कोई भूमि-पूजन नहीं, कोई नारियल फोड़न नहीं. पश्चिम ने चर्च और सरकार को अलग किया. हमारे यहाँ भी सैधांतिक तौर पर ऐसा ही है, लेकिन असल में धर्म जीवन के हर पहलु पर छाया हुआ है. यहाँ नेता किसी एक वर्ग का प्रतिनिधित्व करता रहता है. ओवेसी साफ़ बोलता है कि मैं मुस्लिम -परस्त हूँ. भाजपा हिन्दू-परस्त है. और ये सब गरीब-परस्त है. जबकि प्रजातंत्र की परिभाषा ही यह है कि जो सरकार बने, वो सेकुलर हो, तो ये मुस्लिम-हिन्दू-गरीब-परस्त सेकुलर कैसे होंगे? इन पर तो दसियों वर्षों के लिए पाबंदी लगनी चाहिए. अक्ल ठिकाने आ जाए.


और जिस तरह सुबह-शाम धार्मिक स्थल, बाबा, गुरु लोग प्रवचन करते हैं धार्मिकता पर, वैसे ही वैज्ञानिकता पर भी समाज में प्रवचन करवाने चाहियें. वैज्ञानिकता से मतलब फिसिक्स, केमिस्ट्री ही नहीं होता. जीवन के हर पहलु में वैज्ञानिकता लाए जाने की दरकार है.

आज एक राज़फाश करता हूँ......ये जो भगवान, परमात्मा, प्रभु, अल्लाह, वाहगुरू जो भी नाम प्रयोग करते हो न और मांगते हो...मंदर, मस्ज़िद, गुरुद्वारे में झुक-झुक कर. आरतियाँ उतारते हो, अरदासें करते हो, सब मोनोलोग हैं.मतलब तुम्हारी तुमसे ही बातचीत.सड़क पर चलते अक्सर देखे होंगे ऐसे लोग, जो खुद से ही बतियाते चलते हैं. क्या समझते हैं ऐसे लोगों को देख कर? यही कि कुछ पेच ढीला है. सुनने वाला कोई नहीं, फिर भी सुनाए जाते हैं....लेकिन मन्दिर, गुरुद्वारे, चर्च में तुम्हे खुद पर हैरानी नहीं होती...झुक-झुक जाते हो, बक-बकाये जाते हो.....कोई नहीं देख रहा, कोई नहीं सुन रहा.लेकिन तुम्हें वहम है......और पुजारी, भाई जी, मौलवी जी को कुछ-कुछ पता है कि सब ड्रामा है लेकिन वो कभी सच तुम पर उजागर नहीं होने देंगे...वरना रोज़ी-रोटी छिन्न जाएगी......सो वो पूरा दम-खम लगाए रहते हैं कि तुम्हारा वहम कायम रहे.........जो मांगे ठाकुर आपने ते, सो ही सो ही देवे.......कुछ नहीं देने वाला है, वो. जो देना था, दे चुका.....हाथ पैर दे दिए, सर दे दिया, सर में दिमाग दे दिया. छुट्टी. प्रयोग करो, इन एसेट को. उसके बाद न वो कुछ देता है, न देने वाला है, समझ लो. लेकिन अगर समझ लोगे तो ये गिरजे, गुरूद्वारे, मंदर, मसीत गिर जायेंगे, इनकी डिमांड न के बराबर हो जायेगी, मात्र इस इकलौती बात के समझ आते ही.

क्या दयालु भगवान? सुनता हूँ कि भगवान बड़ा दयावान है, कृपालु है.....सभी धर्मों में कहते हैं...कुरआन में तो शुरू में ही लिखा है.

मेरा ख्याल है कि यदि भगवान कोई है भी तो वो कतई दयालु, कृपालु नहीं है....दुनिया देख कर तो यह लगता है कि जैसे वो कोई बदला ले रहा हो इन्सान से.....या मज़ा ले रहा हो जैसे रोमन सम्भ्रांत वर्ग अपने योद्धाओं   को लड़वा कर खेल की तरह मजा लेते थे........योद्धा (ग्लैडिएटर ) लड़ते थे, एक दूसरे का लहू बहाते थे.......कत्ल करते थे और सम्भ्रांत वर्ग ताली पीटता था....ऐसी ही है यह  दुनिया....अधिकांश लोग कीड़े मकोड़ों की तरह पैदा होते हैं........गरीबी में जीते हैं, गरीबी में मर जाते हैं........एक संघर्ष, इंसान का इन्सान के बीच  संघर्ष...... सम्भ्रांत का बाकी समाज के साथ संघर्ष सब जगह व्याप्त है ..

इतिहास उठा कर देख लो...वर्तमान देख लो........छोटी बेटी के लिए नर्सरी गीत लगाते हैं हम यू- ट्यूब पर.....बाबा ब्लैक शीप........उसमें भेड़ से ऊन  माँगी जाती है.........ऊन माँगी जाती है मालिक के लिए, मालकिन के लिए और सड़क पर रहने वाले के लिए.......रामायण पढ़ो.गणिका मौजूद है. रावण को मार जब सब लौटते हैं तो भरत हनुमान को बहुत सी लड़कियां उपहार स्वरूप देता है......व्यवस्था कैसी थी, ठीक आज जैसी.......मालिकों, मालकिनों, मजदूरों और बेघर गरीबों से भरी .......यह है दुनिया......दयालु है भगवान?

कहा जाता है कि यह दुनिया उसी की लीला है...ठीक है उसके लिए तो लीला है लेकिन बहुत लोगों की खुशी को लील रही है यह लीला..... काहे का दयालू? वो  तो सर्वशक्तिमान है. वो तो दाता है. वो तो दयालु है, कृपालु है. दुनिया का सुलतान है, मालिक है तो फिर क्यों नहीं इस तरह की दुनिया सही करता? ज्यादातर इन्सान सुखी होने चाहियें, खुश होने चाहिए, जीवन की ख़ास न सही लेकिन आम ज़रूरतें तो आराम से मौजूद होनी चाहियें .......दुनिया में तंदुरुस्ती और मनदुरुस्ती होनी चाहिए....कोई कोई भूखा हो, दुखी हो अपवाद स्वरूप तो माना जा सकता है कि अल्लाह दयालु है......लेकिन दुनिया देखो...उल्टा है........कोई कोई सुखी दीखता है, खुश दीखता है.......धन धान्य  जिनके पास भरपूर है, वो चंद लोग ही हैं .........बस चंद लोग मज़ा मारते दीखते हैं....बाकी तो चक्रव्यूह में फंसे फंसे दुनिया से चले जाते हैं ........दुनिया एक बड़ा पागलखाना लगती है....बीमार....गरीबी की मार. ये कैसी दुनिया बनाई है भगवान ने, खुदा ने? दयालु, कृपालु ने?

लेकिन नहीं.....असल बात यह है कि लीला अवश्य उसी की है.....लेकिन व्यवस्था उस की नहीं है...व्यवस्था हमने बनानी है और बनाने के औज़ार उसने हमें दिए हैं...इन औजारों  से हम चाहें तो जो उसने दिया उससे खुद को बेहतर कर लें    या नीचे गिरा लें...और इन्सान को देख साफ़ हो जाता है कि उसने खुद को नीचे गिरा लिया है.....प्रकृति से ऊपर उठ संस्कृति नहीं, नीचे गिर  विकृति पैदा की है....संस्कृति शब्द को देखें ...सम+ कृति ....ऐसी कृति जिसमें कोई समता हो. कैसी समता पैदा की है हमने? चंद लोग "मैं चाहे ये करूं, मैं चाहे वो करूं, मेरी मर्ज़ी" गायें और बाकी "दुनिया में आये हैं तो जीना ही पड़ेगा, ज़िंदगी अगर ज़हर है तो पीना ही पड़ेगा" गायें ....यह संस्कृति है?  

न....न...वो भगवान, वो खुदा...तटस्थ है....वो बस हमें संघर्ष  करते, बेहतर होते देखना चाहता है.........उसने इन्सान को जो देना था दे दिया...और 'वो' जो देना था, वो 'बुद्धि' है, 'फ्री विल' है, 'मुक्त इच्छा'.......बुद्धि प्रयोग करो, अपने चुनाव करो,अपनी इच्छा और अपनी बुद्धि से अपने चुनाव करो....अच्छे बुरे के लिए तुम स्वयम ज़िम्मेवार हो....वो तटस्थ रहता है.......मौन, मग्न, ....दूर से देखता हुआ, दूर दर्शक.......वो बीच में नहीं आता.

उसने तुम्हें ‘फ्री विल’ दी, ‘मुक्त इच्छा’ दी लेकिन तुम्हारे पण्डे, मौलवी, पादरी, महात्मा  तुम्हें परमात्मा की मर्ज़ी मानने को कहते रहेंगे....नहीं, उसकी मर्ज़ी यही है कि तुम अपनी मर्ज़ी से जीवन जीयो.....अपना भार अपने कन्धों पर लो......अपनी ज़िम्मेदारी खुद लो.......लेकिन तुम्हे समझाया जाता रहता है कि मनमति मत प्रयोग करो......गुरमति प्रयोग करो......कोई कहेगा कि फलां किताब से हुक्मनामा लो, हिदायत लो, कमांडमेंट लो ....सब षड्यंत्र हैं.....अष्टयंत्र हैं, सहस्त्रयंत्र हैं....... सब परमात्मा की इच्छा के खिलाफ हैं.....उसकी इच्छा यह है कि तुम अपनी इच्छा से जीवन जीयो और तुम्हारे धर्म कहते हैं कि नहीं, परमात्मा की इच्छा से जीयो........लेकिन जब वो कहते हैं कि परमात्मा की इच्छा से जीयो तो उनका कहना यह नहीं होता कि परमात्मा की इच्छा यह है कि तुम अपनी इच्छा से जीयो, यदि यह कहना हो तो फिर कहने की ज़रूरत ही नहीं कुछ....नहीं उनका मतलब होता है...अलां किताब, फलां किताब के हिसाब जीयो.....किसी गुज़रे जमाने के इंसान के हिसाब से जीयो......सब बकवास है यह ...इंसान से उसकी आज़ादी, वो आज़ादी जो खुद खुदा ने दी है, वो छीनने का घिनोना खेल है 

तुम प्रार्थना करोगे या नहीं करोगे उस अल्लाह, खुदा, भगवान को कोई मतलब है नहीं.......तुम्हारी मन्नतों से, तुम्हारी प्रार्थनाओं से, अरदासों से उसे कोई मतलब है ही नहीं......तुम्हारे सवा रुपैये या सवा लाख या सवा करोड़ रुपैये चढ़ाने से उसे कोई मतलब ही नहीं है....आकर पढता हूँ कि शिर्डी मंदिर में, या दक्षिण के किसी मंदिर में किसी ने करोड़ों रुपये का सोना चढ़ा दिया.......मूर्ख हैं, बेहतर हो पैसे का कोई बेहतर उपयोग खोजें....कुछ भी समझ न आये तो मुझे दे दें....मैं रोज़ लिखता हूँ, लिखता क्या लड़ता हूँ, जूझता हूँ कि दुनिया बेहतर हो सके...लेकिन नहीं, मैं कोई उस तरह का सौदा नहीं कर सकता. कोई गारंटी नहीं दे सकता कि आप मुझे एक रूपया दोगे तो बदले में आपको हज़ार, लाख, करोड़ मिलेंगे...मैं तो कहूँगा कि इस तरह का सौदा ही झूठा सौदा होता है....अक्सर कहा जाता है कि कोई भी डील यदि बहुत बढ़िया दीखती हो, असम्भव फायदे का वायदा करते दीखती हो तो बहुत सम्भावना है कि वो डील ही झूठी हो....मेरे हिसाब से मंदिर, मज़ार, गुरुद्वार में जो डील की जाती हैं सब असम्भव डील हैं, झूठी डील हैं ...मैं दूसरी डील दे सकता हूँ....डील दे सकता हूँ कि सडकें बेहतर बनें, स्कूल,  अस्पताल सही चलें, शिक्षा बेहतर हो ......लेकिन मेरे जैसे बंदे को कोई फूटी कौड़ी नहीं देगा.....अस्तु, न दे.....मैं फिर भी हाज़िर हूँ  

मेरे यह चंद शब्द मजहबों की मूल धारणा की जडें हिला सकती है....चूँकि धर्मों की तो दुकानीं ही इस बात पर चलती हैं कि भगवान आपकी प्रार्थना सुनता है.........उसका जवाब भी देता है...यदि आपने ठीक से चापलूसी की तो आपको मदद भी करता है........ सब मंदिर, गुरुद्वारे, मजारें बस ठिकाने हैं प्रार्थनाओं के, अरदासों के, मन्नतों के.......आप रब, खुदा, भगवान की सिफतें गाओ........ थोड़ा पैसा खर्च करो मतलब दान दो और बदले में हजारों गुणा वापिस पाओ....यह है सौदा

लेकिन जब मैं यह कहूं कि वो खुदा, परमात्मा बिलकुल तटस्थ है, तो फिर क्यूँ कोई जाए मंदिर, गुरुद्वारे, मस्ज़िद? ये लोग  वहां कोई ज्ञान, कोई जीवन दर्शन सीखने थोडा पहुँचते हैं...सब एक अलिखित सौदे के तहत वहां मौजूद होते हैं, हाजिरी लगवाते हैं...और कहीं कहीं तो लिखित अर्जियां भी लगती हैं.....मैं बहुत पहले राजस्थान मेह्दीपुर बालाजी गया था...वहां लिखित में बालाजी को अर्जियां लगती थीं

अस्तु, मेरा गणित कहता है कि सब प्रार्थनाएं व्यर्थ हैं........कव्वों की कांव कांव से अगर ढोर मरने लगें तो सारा गाँव श्मशान हो जाए.....न न....कुदरत/परमात्मा/खुदा का अपना एक चक्कर है............वो कभी हमारी प्रार्थनाओं, अरदासों, मन्नतों के चक्कर में नहीं पड़ती/पड़ता.....वो कभी उस चक्कर में हस्तक्षेप नहीं करती/करता.
भगवान- My YouTube Video

#भगवान #प्रभु #परमात्मा #ईश्वर #गॉड #अल्लाह #God #Allah

#Jesus #Bhagwanednesday 28 December 201

Tuesday, 10 October 2017

होय वही जो राम रची राखा/ जो तुध भावे साईं भलीकार/ तेरा भाना मीठा लागे/ जो होता है अल्लाह की रजा में होता है

कहानी सुनी-पढ़ी होगी आपने कि एक राजा और मंत्री  शिकार खेलते हुए  चोट-ग्रस्त हो जाते हैं. राजा  बड़ा परेशान हो जाता है. लेकिन मंत्री कहता है, जो होता है ईश्वर भले के लिए करता है. फिर उन्हें आदिवासी पकड़ लेते हैं और बलि देने लगते हैं. तो राजा बड़ा परेशान होता है. मंत्री फिर भी शांत रहता है. धीमी आवाज़ में राजा को कहता है, जो करता है ईश्वर अच्छा ही करता है. राजा परेशान. आग तेज़ की जा रही है, बस भूने ही जाने वाले हैं वो दोनों और मंत्री को सब सही लग रहा है? भूने जाने से पहले दोनों के कपड़े उतारे जाते हैं तो दोनों चोटिल दीखते हैं. दोनों को छोड़ दिया जाता है, चूँकि घायल व्यक्ति को बली न देने की परम्परा थी उन आदिवासियों की. घर को लौटते हुए मंत्री कहता है राजा से, " राजा साहेब, मैं न कहता था, ईश्वर जो करता है सही ही करता है." राजा सहमति में सर हिलाता है. 

लेकिन मेरा सर  असहमति में हिल रहा है. मेरा मानना है कि  इन्सान तक आते-आते वो अल्लाह, वाहेगुर, राम अपना दखल छोड़ देता है. 

इन्सान को उसने अक्ल दी है, अपने क्रिया-कलापों की  फ्रीडम दी है. 

और फिर इन्सान ने अक्ल लगाते हुए उस फ्रीडम को बढ़ाया है. आज बहुत से काम जो सिर्फ रब, अल्लाह, भगवान के हाथ में माने जाते थे, उनको इन्सान ने अपने हाथ में ले लिया है.

उस फ्रीडम को समझना चाहिए. पशु शब्द पाश से आता है, उसके पास वो फ्रीडम नहीं है. वो पाश में है. बंधन में है. पशु है. इन्सान के पास वो फ्रीडम है.

उस फ्रीडम को पहचानें. पशु मत बनें. 

यह सोच, "होय वही जो राम रची राखा. जो तुध भावे साईं भलीकार. तेरा भाना मीठा लागे. जो होता है अल्लाह की रजा में होता है" पशुत्व की और ले जाती है. 

जैसे उस अल्लाह ने पंछी उड़ाए, इन्सान तो नहीं उड़ाया लेकिन इन्सान को अक्ल की आज़ादी दी और इन्सान उड़ने लगा. 

और वो अल्लाह, भगवान, रब  अब कहीं कोई दखल ही नहीं देता कि इन्सान करता क्या  है. जैसे कोई चेस का खेल बना दे, नियम बना दे और फिर पीछे हट जाये. खेलने वाले खेलते हैं, खेल बनाने वाला कोई हर मूव में पंगे थोड़ा न ले रहा है. जो कोई हारेगा-जीतेगा अपनी अक्ल से, अपने प्रयास से. 

सो "भाना" उसका खेल बनाने तक था, "रज़ा" उसकी खेल बनाने तक थी, "रचना" उसकी खेल रचने तक थी, उसके आगे नहीं कोई दखल नहीं. उसके आगे जो होता है, वो उसके दखल के बिना होता है. 

हमें उसका दखल इसलिए लगता है कि हमें पता नहीं होता कि उसके खेल के गहन नियम क्या हैं. जैसे परबत खिसकते हैं, बहुत से लोग मारे जाते हैं, लग सकता है कि कुदरती आपदा है, अल्लाह की मार है, लेकिन वो इंसानी कुकर्मों का नतीजा भी हो सकती है. इन्सान नहीं समझता तो कोई क्या करे? वो उस अल्लाह के नियम नहीं समझना चाहता, वो नहीं समझना चाहता कि अल्लाह ने पहाड़ दुर्गम क्यों बनाए? अगर वो चाहता कि इन्सान वहां रहे, बस्तियां बसाए, लगातार बसें चलाए,  तो वो उन्हें सुगम न बनाता?

मिसाल के लिए, किसी का जवान बेटा एयर एक्सीडेंट में मारा जाए और गलती बेस स्टाफ की हो, तो हो सकता है उसे यह रब की रज़ा लगे, भाना लगे, राम की रचना लगे लेकिन यह एक इंसानी गलती थी, जिसे भविष्य में बहुत हद तक कण्ट्रोल किया जा सकता है. 

अब कल कोई उल्का पिंड आ कर टकरा जाए और पृथ्वी का कोई बड़ा हिस्सा नष्ट हो जाए, तो आप इसे क्या कहेंगे? रब की रज़ा. अकाल पुरख का भाना. कह सकते हैं, तब तक जब तक हमारे वैज्ञानिक ऐसी उल्काओं को रस्ते में नष्ट करने में सक्षम न हो जाएँ. 

सो कुल मतलब यह कि यह, "रब की रज़ा. अकाल पुरख का भाना, राम की रचना" का  कांसेप्ट मात्र इन्सान को शांत किये रखने का टूल है, इससे ज़्यादा इसका कोई अर्थ नहीं है.

नमन....तुषार कॉस्मिक

हमारी दिवाली-हमारे पटाखे

बड़ा दुखित हैं मेरे हिन्दू वीर. कोर्ट ने पटाखों पर बैन लगा दिया दिवाली पर. धर्म खतरे में आ गया. धर्मों रक्षति रक्षतः. व्हाट्स-एप्प और फेसबुक का जम कर प्रयोग हो रहा है, हिन्दुओं को जगाने में. मैंने सुना था कि लोगों ने ख़ुशी से घी के दीपक जलाए थे राम जी वापिस आये थे तो. दीपावली शब्द का अर्थ ही है दीपों की कतार. लेकिन पटाखे भी चलाये थे, यह तो मैंने नहीं सुना. शायद आविष्कृत भी नहीं हुए थे. चीन ने आतिश-बाज़ी का आविष्कार किया था शायद. नहीं, लेकिन यह कैसे हो सकता है? हम तो पुष्पक विमान, एटम बम तक खोज चुके थे. निश्चित ही आतिश-बाज़ी भी हमारी खोज है. पटाखे निश्चित ही हम ने चलाए थे, जब राम जी लौटे थे तो. लेकिन वाल्मीकि रामायण तो कहती है कि राम के आगमन पर सारा ताम-झाम भरत की आज्ञा से शत्रुघ्न ने करवाया था, लेकिन उसमें पटाखों का तो कोई ज़िक्र नहीं है. रास्तों के खड्डे भरे गए थे, उन पर पानी छिड़का गया था, फूल बिखेरे गए थे. घरों पर झंडे लगाए गए थे और स्वागत में गण्य-मान्य लोगों के साथ गणिकाएं (वेश्याएँ) तक खड़ी की गयीं थी राम के स्वागत में. सो यह बकवास भूल जायें कि लोग राम के आगमन पर खुश थे और स्वयमेव घरों के बाहर घी के दीपक जला रहे थे. कहीं नहीं लिखा कि लोगों ने खुद घी के दीपक जलाये थे, पटाखे चलाना तो दूर की बात. सब गाजा-बाजा सरकारी हुक्म से था मित्रवर. नीचे वाल्मीकि रामायण के सन्दर्भ दिए हैं, अंग्रेज़ी में है, हिंदी में मिले तो दे दीजियेगा. चेप देंगे वो भी. कुल बात इतनी कि कोर्ट ने जो कहा है सही कहा है, दूसरा अगर भूतिया है तो खुद सुपर-भूतिया नहीं बनना चाहिए, बल्कि अपना भुतियापा खत्म करना चाहिए ताकि वो भी सही रास्ते पर अग्रसर हो. संघ अग्रसर. यह, "हम तो डूबेंगे तुझे भी ले डूबेंगे", वाली पालिसी छोड़ दीजिये. अगले बच्चे पैदा करे जाते हैं तो हम भी लाइन लगा देंगे. अगले नालियां खून से भर देते हैं हर साल जानवर काट-काट, हम भी गंद डालेंगे. यह भुतियापे का गुणनफल है. छोड़ दीजिये. अन्यथा वो कुदरत जब बदला लेगी तो हिन्दू-मुस्लिम नहीं देखेगी, सबकी लेगी..जान. चूँकि आप भी अपने भुतियापों में कोई फर्क नहीं छोड़ रहे, एक दूजे से बढ़-चढ़ के कर रहे हैं. आप समझो-न समझो, समझाना मेरा फर्ज़ है. बाकी आप जानो, आपकी मर्ज़ी है-आपका मर्ज़ है. "Hearing the news of a great happiness from Hanuma, Bharata the truly brave ruler and the destroyer of enemies, commanded (as follows) to Shatrughna, who too felt delighted at the news." ६-१२७-१ "Let men of good conduct, offer worship to their family-deities, sanctuaries in the city with sweet-smelling flowers and to the accompaniment of musical instruments." ६-१२७-२ "Let bards well-versed in singing praises and Puranas (containing ancient legends, cosmogony etc.) as also all panegyrists, all those proficient in the use of musical instruments, PROSTITUTES all collected together, the queen-mothers, ministers, army-men and their wives, brahmanas accompanied by Kshatriyas (members of fighting class), leaders of guilds of traders and artisans, as also their members, come out to see the moon-like countenance of Rama." ६-१२७-३/ ६-१२७-४ "Hearing the words of Bharata, Shatrughna the destroyer of valiant adversaries called together, laborers working on wages, numbering many thousands and dividing them into gangs, ordered them (as follows):६-१२७-५ "Let the CAVITIES on the path from Nandigrama to Ayodhya be levelled. Let the rough and the even places be made flat."६-१२७-६ "Let the entire ground be sprinkled with ice-gold water. Let some others strew it all over with parched grains and flowers."६-१२७-७ "Let the streets in Ayodhya, the excellent City, be lined with flags. Let the dwellings (on the road-side) be decorated, till the time of rising of the sun."६-१२७-८ Hahahahah...... does not it seem modern day politics? नमन....तुषार कॉस्मिक

Monday, 9 October 2017

TINA

विनोद दुआ.....youtube पर एक्टिव हैं....The Wire .....नाम से है चैनल....एक एपिसोड में TINA कांसेप्ट को बताया इन्होने. TINA मतलब There is no Alternative. विनोद जी बताते हैं कि जैसे आज मोदी के बारे में ऐसा कहा जा रहा है कि उनके बिना भारत में कोई और है नहीं जो प्रधान-मंत्री बन सके, कोई और alternative ही नहीं है, तो ऐसा कांसेप्ट पहली बार नहीं है समाज में. ऐसा पहले जवाहर लाल नेहरु के समय में भी कहा जाता था कि उनकी जगह कोई नहीं ले सकता, ऐसा इंदिरा गाँधी के बारे में भी कहा जाता रहा ही, लेकिन लोकतंत्र की खूबसूरती यह है कि लोकतंत्र नए विकल्प पैदा कर ही लेता है, ऐसे विकल्प जो आज शायद नज़र न आ रहे हों. ठीक. अब विनोद जी ने जो कहा, वो कहा, मैं क्या लस्सी घोल रहा हूँ इसमें? तो मेरा कहना यह है मित्रगण कि विनोद जी ने बहुत सतही बात कही है. पुराने पत्रकार हैं, करीब 40 साल से एक्टिव हैं, राजनीति-विशेषज्ञ हैं, बहुत से चुनावों की समीक्षा कर चुके हैं, बहुत सी सरकारें देख चुके. लेकिन यहाँ इनकी समझ को मैं बहुत गहन नहीं पाता. देखिये, विकल्प तो मिल ही जाना है. दुनिया कभी किसी के लिए नहीं रूकती. दुनिया चलती ही रहती है. लेकिन सवाल यह है, पॉइंट यह है, मुद्दा यह है कि विकल्प जो मिलता है, वो कैसे मिलता है और कैसा मिलता है? अभी तक जो विकल्प मिले भारत को, वो क्या वाकई लोकतंत्र की वजह से मिले थे? जवाहर गए, इंदिरा आ गईं, यह लोकतंत्र था या परिवार-तन्त्र? इंदिरा गईं, राजीव आ गए. इसे लोकतंत्र कहते हैं? मनमोहन गए, अँधा कॉर्पोरेट धन बहा कर मोदी आ गए. यह जन-तन्त्र है या धन-तन्त्र? लोकतंत्र का अर्थ है, लोक में से कोई भी शीर्ष पद पर पहुँच सके, मात्र इस बल पर कि वो मुल्क के लिए ऐसा बेहतरीन कांसेप्ट, प्रोग्राम, प्लान लेकर आता है, जो दूसरे नहीं ला पा रहे. अब वो इन्सान चाहे झाड़ू मारने वाला ही क्यूँ न हो. है क्या यह सम्भव? वो बेचारा बिन मोटे पैसे के म्युनिसिपेलिटी का चुनाव न जीत पाए, प्रधान-मंत्री बनना तो ख्वाब है बस. तो विनोद दुआ साहेब यहीं चूक गए. वो इस गहराई तक नहीं गए कि विकल्प आ तो जायेगा लेकिन क्या वो विकल्प जन-तन्त्र के कांसेप्ट के अनुरूप होगा? मेरा मानना यह है कि फिलहाल तो नहीं होगा. बहुत से झाड़ू वाले इस मुल्क को दिशा दे सकते हैं. मोदी का विकल्प हो सकते हैं, लेकिन तब जब यह सच में जन-तन्त्र हो. आपने देखे होंगे बहुत से वीडियो कि कोई सफेदी वाला, कोई भीख मांगने वाला, कोई खोमचे वाला बहुत ही शानदार गा रहा है. देखे हैं न? आमिर खान की नई फिल्म भी इसी कांसेप्ट पर है. कोई आम सी लड़की को सिंगिंग स्टार बना देता है. शायद. ट्रेलर देखे हैं मैंने बस. जिस दिन हम जन में से, आम-जन में से विकल्प ला पायेंगे, उस दिन आप यह कहने के हकदार होंगें दुआ साहेब कि जनतंत्र विकल्प दे ही देता है. अभी आप बस इतना कह सकते हैं कि मोदी का विकल्प नहीं है, यह सोचने वाले बस मूरख हैं. आप कह सकते हैं कि विकल्प तो मिल ही जाते हैं. आप कह सकते हैं कि TINA कांसेप्ट एक बकवास कांसेप्ट है. लेकिन आपको आगे जो कहना था, जो आपने ने नहीं कहा, वो यह था कि जो विकल्प मिलते हैं वो लोक-तन्त्र देता है, यह कहना सरा-सर गलत है, चूँकि सही अर्थों में अभी की (अ)व्यवस्था लोक-तन्त्र की अर्थी है, लोक-तन्त्र से कोसों दूर हैं, बल्कि लोक-तन्त्र के खिलाफ़ षड्यंत्र है. नमन.....तुषार कॉस्मिक.
हमारे शादी-ब्याह-जन्म दिवस जैसे आयोजनों में सारा जोर खाने-पीने पर है. करने को सिवा खाने या फिर दारू पीने के कुछ भी नहीं होता. कुछ नाच भी लिया जाता है. अधिकांश लोग बस खाते हैं. क्या हम भुक्कड़ हैं?
आप क्यों हैं सोशल मीडिया पर? हम तो इसलिए हैं कि अपने समाज की चिंता लेते हैं.....ज्ञान, विज्ञान बढे....जनसंख्या घटे......रोज़गार की चिंता न हो.....स्वास्थय और शिक्षा लगभग मुफ्त हो........धर्म के नाम पर वैचारिक वैज्ञानिकता का गला न घोंटा जाये....समय लगाते हैं, ऊर्जा, ध्यान कि शायद हमारे किये से कुछ बेहतरी आ जाए.
काजू बहुत पसंद हैं मुझे.....बाज़ार से लाते ही श्रीमती जी को मुझसे छुपा देने को कहता हूँ....क्यों? चूँकि छुटकी बिटिया को भी बहुत पसंद हैं. आज समझ में आता है कि माँ क्यों कहती थीं, "तूने खाया मैंने खाया एक ही बात है."
बचपन में विडियो गेम खेलते थे कार वाली, जिसमें कार टकरा ही जाती थी अंततः, आज असल में ऐसा हो जाता है.

Sunday, 8 October 2017

यह जनतंत्र नहीं, धनतंत्र है

मोदी जी ने भयंकर आर्थिक ग़लतियाँ की हैं.......अभी तो आर्थिक मंदी चल रही है. जॉब्स जा रही हैं...व्यापारी दुखी हैं....मोदी को नहीं पता कि करना क्या है.

अर्थ-व्यवस्था में सब चीज़ें जुड़ी होती हैं. 
जैसे कोई गाड़ी...एक पुर्ज़ा छेड़ोगे तो उसका असर सारी गाड़ी की परफॉरमेंस पर पड़ेगा. मतलब आपने ब्रेक खराब कर दी....लेकिन उससे सिर्फ ब्रेक खराब नहीं होती, गाड़ी तो पूरी ही ठुकेगी. टुकड़े-टुकड़े जुडी कोई चीज़ हो, एक टुकड़ा छेड़ो, असर उस सारी चीज़ पर पड़ेगा. सारा कुछ छिड़ जायेगा.

मिसाल के लिए, अगर व्यापारी को मिलने वाले पैसे पर ब्याज बढ़ायेंगे तो वो उधार नहीं ले पायेगा.....उधार नहीं ले पायेगा तो व्यापार फैला नहीं पायेगा...और फिर नौकरियों से लोग निकाल देगा.

इनको लगता है कि टैक्स ज्यादा आ जाये तो ये लोग तरह-तरह की स्कीम चला कर लोगों का फायदा करेंगे और फिर-फिर उस जनता का वोट लेंगे जो बिलकुल न के बराबर आर्थिक योग-दान करती है मुल्क की इकॉनमी में. रोबिन हुड मेथड. हिडन कम्युनिज्म. लेकिन इनको वो भी करना  भी नहीं आ रहा. जो जनसंख्या सिर्फ बच्चे पैदा करती है, उसे दिए जाओ सुविधा.....बस !

ये जो गाय-गंगा-हिन्दू राष्ट्र यह सब संघ का मूल-मन्त्र है.

इनकी शाखाओं में यह सब बात चलती ही है.
पोंगा-पंथी.

संघ के पास कोई वैज्ञानिक वैचारिक धारणा नही है. 
आज पहुँच ज़रूर गए राजनीति के शीर्ष पर...लेकिन टिकेंगे...ऐसा कम लगता है.

अब तो लोग कांग्रेस को भी याद करने लगे...वो चोर होंगे......लेकिन फिर भी लोग उनके समय के मुकाबले 
आज ज्यादा दुखी हैं. ठाकरे परिवार.......यशवंत सिन्हा....सुब्रमण्यम  स्वामी.....अरुण शौरी......और वो कौन बड़ा वकील है? .......सब मोदी पर सवाल उठा रहे हैं.

हाँ....जेठमलानी. 
पता नहीं कैसे वो इत्ता बड़ा वकील माना जाता है?

खैर! 
भारत को ज़रूरत है राजनीतिक, सामाजिक नेतृत्व की, लेकिन कोई सिस्टम ही नहीं है कि ढंग के विचार रखने वाले लोग आगे आ सकें.

मुद्दा यह नहीं कि आप घटिया में से कम  घटिया लोग चुन लेंगे...मुद्दा  यह है कि वैचारिक लोग आगे कैसे आयेंगे?


जब तक बिन पैसे के लोग न आ पायेंगे....तब तक नये भी पुराने जैसे ही होंगे.


भाजपा ने लगभग सारे प्रत्याशी बदल दिए MCD में.....वो जीत भी गए...हुआ क्या?

घंटा!

प्रत्याशी...या दल बदलने से कुछ नहीं होगा. 
सिस्टम बदलने होंगे. जब तक बिन पैसे के राजनीति का सिस्टम नहीं आता...यह जनतंत्र नहीं, धनतंत्र रहेगा. इसमें कॉर्पोरेट मनी का बोलबाला रहेगा.

कांग्रेस सीधा खा रही थी....चूँकि चुनाव में फिर से पैसा फेंकना होता था...मोदी घुमा के पैसा खींच रहे हैं....उनको पता है सीधा खींचेंगे तो पकड़े जायेंगे सो वो पूंजी-पतियों को फायदा दे रहे हैं....बड़े वाले पूंजीपतियों को....चुनाव में फिर से इनसे पैसा लेंगे और बेड़ा पार.

इसे जनतंत्र कहते हैं?
जो जीत जाता है, बस खुद को राजा ही समझता है.
यह जनतंत्र का बहुत ही विकृत रूप है.
इसे जनतंत्र कहना भी ठीक नहीं.
यह धनतंत्र है.

सादर नमन.....तुषार कॉस्मिक

Tuesday, 3 October 2017

क्या भारत सच में सेक्युलर देश है?
घंटा! मतलब घंटा बजाने वाले लोगों का देश है असल में.
अगर ऐसा नहीं होता तो आपको हर दशहरे पर प्रधान-मंत्री और राष्ट्रपति रावण जलाते न दीखते.
भैय्यन, प्रधानमंत्री-राष्ट्रपति, ये सेक्युलर पद हैं, कोई जाकर बताओ इनने.
जनानी मर्दानी हो तो गौरव है लेकिन मर्द जनाना हो जाए तो यह शर्म का विषय! क्यों?

Thursday, 28 September 2017

भारत मंदी के कुचक्र में

यशवंत सिन्हा ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है जेटली के खिलाफ.
लोग मोदी के सम्मोहन से बाहर आ रहे हैं.
सुब्रह्मण्यम् स्वामी ने भी ऐसा ही कहा था...लेकिन लोग उसे क्रैक भी मानते हैं. लेकिन मामला है सीरियस. 
मोदी ने बेडा-गर्क कर दिया है मुल्क का.
अर्थ-व्यवस्था खराब कर दी है नोट-बंदी और GST से.
उनके खुद के लोग मानते हैं अब तो.
भारत मंदी के कुचक्र में है.
सरकारी बैंक सब घाटे में हैं.
माल्या जैसों को भगा जो दिया.
अभी राज ठाकरे ने भी मोदी को खूब बजाया है.
उसने कहा कि मोदी ने मीडिया खरीद कर चुनाव जीता है.
अब जब जहाज डूबने की तरफ है तो सब निकल रहे हैं.
अगला चुनाव ज़रूरी नहीं मोदी जीत पाए....बाकी वक्त बताएगा.
असल में उसके पास कोई तैयारी नहीं थी.
कोई प्लान नहीं था.
और आज भी नहीं है.
जब तक समाजिक बदलाव न हों, कैसा भी आर्थिक, राजनीतिक बदलाव बहुत फायदेमंद नहीं होगा.
कुछ समय तक जो फायदेमंद लगेगा भी, वो भी लम्बे समय में नुक्सान-दायक साबित होगा.
हम जो राजनेता बदलने से सोचते हैं कि देश बदल जाएगा, ऐसा नहीं होगा.
बीमार समझ रहा है कि बीमारी कहीं और है.
वो सोच के, समझ के राज़ी ही नहीं कि बीमारी खुद उसमें है.
जब तक वो नहीं सुधरेगा, तब तक न राजनेता सुधरेगा, न अर्थ-व्यवस्था सुधरेगी.
समाज समझता ही नहीं कि कांग्रेस या भाजपा के आने-जाने से कोई बहुत फर्क नहीं पड़ेगा, जब तक सामजिक मान्यताओं में बदलाव नहीं आता. 

कोई समाज कैसे समृद्ध है, कैसे सुव्यवस्थित है?
समृद्धि, सुव्यवस्था कोई आसमान से गिरी वहां?
कोई राजनेताओं ने लाई?
नहीं.
जब तक किसी भी समाज के नेता समाज से टकराने की हिम्मत नहीं करते, छित्तर खाने की हिम्मत नहीं करते, समाज में बदलाव नहीं आ सकता, समाज में समृद्धि नहीं आ सकती, सुव्यवस्था नहीं आ सकती.

आप ले आओ बेस्ट आर्थ-शास्त्री, क्या होगा?
वो अगर कोई ऐसी नीति बनाता है जो समाज की जमी-जमाई मान्यता के विरोध में है और कोई समाज की इन मानयताओं के खिलाफ जाना नहीं चाहता तो कैसे होगा सुधार?
कुछ नहीं होगा.
चाहे ले आओ आप हारवर्ड वाले या हार्ड वर्क वाले या फिर नोबेल विजेता.
होना कुछ नहीं.
सो मित्रवर, कुछ नहीं होने वाला भारत में फिलहाल, लम्बी औड़ो और सो जाओ.

नमन.... आपका प्यार कॉस्मिक तुषार

Thursday, 21 September 2017

मैंने संघ क्यों छोड़ा

संघ मतलब आरएसएस, मतलब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ. बात बठिंडा(पंजाब) की है. मुस्लिम या ईसाई को छोड़ शायद ही कोई लड़का हो जो अपने लड़कपन में एक भी बार संघ की शाखा में न गया हो....शायद मैं आठवीं में था.....ऐसे ही मित्रगण जाते होंगे शाखा...सो उनके संग शुरू हो गया जाना.....अब उनके खेल पसंद आने लगे...फिर शुरू का वार्म-अप और बहुत सी व्यायाम, सूर्य नमस्कार, दंड (लट्ठ) संचालन बहुत कुछ सीखा वहां........जल्द ही शाखा का मुख्य शिक्षक हो गया..वहीं थोड़ा दूर कार्यालय था ...वहां बहुत सी किताबें रहती थी.......पढ़ी भी कुछ......संघ की शाखा का सफर जो व्यायाम और खेल से शुरू हुआ वो संघ की विचारधारा को समझने की तरफ मुड़ गया. लेकिन दूसरों में और मुझमें थोड़ा फर्क यह था कि मैं सिर्फ संघ की ही किताबें नही पढ़ता था, उसके साथ ही वहां बठिंडा की दो लाइब्रेरी और रोटरी रीडिंग सेंटर में बंद होने के समय तक पड़ा रहता था.......बहुत दिशायों के विचार मुझ तक आने लगे. बस यहीं आते आते मुझे लगने लगा कि संघ की विचारधारा में खोट है. मैं अक्सर सोचता, यह राष्ट्रवाद, यह अपने राष्ट्र पर गौरव करना, दूसरे राष्ट्रों से बेहतर समझना, विश्व-गुरु समझना, यह तो सरासर घमंड है, ऐसा ही कोई जापानी भी समझ सकता है, ऐसा ही कोई भी अन्य मुल्क का वासी भी समझ सकता है लेकिन यह तो गलत है.....और फिर भारत तो मुझे कोई महान लगता भी न था...सब जानते थे कि अमरीका, इंग्लैंड और कितने ही मुल्क हम से आगे थे....फिर काहे की महानता? किस्से-कहानियों की? इतिहास की? पहली बात तो इतिहास का सही-गलत कुछ पता नही लगता..फिर लग भी जाए तो वो सिर्फ इतिहास है..वर्तमान नही.....मुझे संघ की अपने पूर्वजों पर, अपनी पुरातनता पर गर्व करने वाली बात भी कभी न जमती थी...मुझे हमेशा लगता कि यदि हम इतने ही महान थे तो फिर अंग्रेजों के गुलाम ही क्यों-कर हुए? मुझे लगता था कि खुद पर खोखला गर्व करने से बेहतर है अपनी कमियों को स्वीकार करना, बल्कि खोजना ताकि हम खुद को सुधार सकें. और फिर मुझे लगता था कि संघ हिन्दुओं को जैन, बौद्ध, सिक्ख आदि पर थोपना चाहता है......मेरा परिवार हिन्दू-सिख है.........तो संघ तो सिक्ख को भी हिन्दू कहता था जबकि बाबा नानक तो जनेऊ को इनकार कर चुके थे अपने बचपन में.....लगा यह तो ज्यादती है ...यह गलत है.....जो लोग हिन्दू मान्यताओं के सरासर विरोध में थे, उनको भी हिन्दू कहा जा रहा था......और फिर साफ़ समझ आया कि संघ भारत की हर पुरातन रीत-हर रिवाज़ का पोषक है.......संघ समाज में कोई वैज्ञानिक विचारधारा का पोषक नहीं है, यह तो बस चाहता है कि समाज पर हिन्दू पुरातनपंथी हावी रहे. संघ बाबा नानक को भी महान कहता था और हिन्दू मान्यताओं को भी...अरे भाये, किसी एक तरफ तो आओ, या तो कहो कि जनेऊ बकवास है, या तो कहो कि सूरज को पानी देना गलत है या फिर कहो कि बाबा नानक गलत हैं...न, दोनों ठीक हैं, दोनों महान हैं और यही है हिंदुत्व.....जिसका न मुंह, न सर, न पैर. जल्द ही समझ आ गया कि यह हिंदुत्व की धारणा संघ की बकवासबाजी से ज्यादा कुछ नहीं....."जो इस भारत भूमी को अपनी पुण्य भूमी मानता हो, यहाँ के पूर्वजों को अपने पूर्वज मानता हो, यहाँ कि संस्कृति को अपनी संस्कृति मानता हो, वो हिन्दू है." क्या बकवास है? अरे भाई, हम तो इस धरती को अपनी भूमी मानते हैं, हम तो पूरी इंसानियत को अपने पूर्वज मानते हैं, कौन कहाँ से आया था, कहाँ चला गया, किसे पता है? और यहाँ कि संस्कृति को ही अपना मानते होने से क्या मतलब? शेक्सपियर हमारी लिए क्यों अपना नहीं हो और कालिदास ही क्यों अपना हो? मात्र इसलिए कि शेक्सपियर भारत का नही था. "हर आविष्कार पहले ही भारत में हो चुका था, हमारे ग्रन्थों में लिखा था".....मैं अक्सर सोचता कि विज्ञान कोई रुक थोड़ा ही गया है.....जहाँ तक हो चुका हो चुका, अब कर लो दुनिया को अचम्भित, अपने ग्रन्थ उठाओ और ताबड़-तोड़ आविष्कार कर दो....और दिनों में ही भारत को अमरीका से भी आगे बना दो....चलो और कोई न सही लेकिन संघ के लोग तो संस्कृत समझने वाले थे, वो तो ऐसा आसानी से कर ही सकते थे. और भी बहुत सी बातें... जल्द ही समझ आया कि संघ सिर्फ व्यायाम कराने के लिए, खेल खिलाने के लिए नही बनाया गया और न ही सिर्फ ट्रेन दुर्घटना में लोगों को बचाने के लिए और न सिर्फ बाढ़ में फंसे लोगों को बचाने के लिए...नही...संघ की अपनी एक थ्योरी है, वो भारतीय समाज के एक बड़े हिस्से को अच्छी लगेगी लेकिन असल में वो थ्योरी उसी समाज के खिलाफ है, उसी के नुक्सान में है. किसी भी समाज का सही खैर-ख्वाह वो व्यक्ति या वो संस्था होती है जो उस समाज की कमियां बताने की हिम्मत कर सके...जो उसके अंध-विश्वास दूर करने का प्रयास करे....जो उस समाज में वैज्ञानिक सोच कैसे बढ़े इसकी चिंता लेता हो.........लेकिन यह सब करने के लिए तो समाज की नाराज़गी झेलने पड़ती है, समाज गुस्सा होता है कि उसे जगाया क्यों जा रहा है...... संघ ही हिन्दू समाज का सबसे बड़ा दुश्मन है क्योंकि संघ हिन्दू समाज के अंध-विश्वासों का पोषक है, क्योंकि संघ हिन्दू समाज में वैज्ञानिकता आने की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है. संघ ने हिन्दू समाज का बहुत नुक्सान किया है इसके जर्जर ढाँचे को ठोक-पीट कर गिरने से बचा रखा है. इसे गिरने देते, नया समाज खड़ा होता. बस पुरखों की बकवास को पूजते रहेंगे. मैं पुरखों से सिर्फ सीखने में विश्वास रखता हूँ. मेरे नज़र में कोई भी कहीं भी गलत-सही हो सकता है, पुरखे भी. सो उनको वैसा ही सम्मान या असम्मान देता हूँ. मिसाल के लिए पृथ्वीराज चौहान ने माफ किया गौरी को तो यह कोई अक्ल का काम नहीं था. फिर पुरखे कोई इसी मुल्क में पैदा हुए जो, वो ही नहीं है हमारे. जिसने हमें बल्ब दिया, हमारा घर रोशन किया, हम उसके भी अहसान-मंद हैं. वो भी हमारा पुरखा है. संघ का इस्लाम के लिए स्टैंड आंशिक तौर पर सही है. वो जो लोभ से या डर से या ज़बरदस्ती से धर्म परिवर्तन कराए उसके खिलाफ है, वो सही भी है. इस्लामिक आक्रमण का विरोध किया जाना चाहिए था लेकिन वो किसी और ढंग से हो सकता था. उसके लिए तार्किकता फैलानी चाहिए. क्रिटिकल थिंकिंग का नारा बुलंद करना चाहिए न कि "गर्व से कहो हम हिन्दू हैं" का. यह सब दसवीं-ग्यारवीं क्लास तक आते समझ आ गया था. सो तभी संघ छोड़ दिया. कभी-कभी याद आ जाता है शरद-पूर्णिमा की रात को शाखाओं का इकट्ठा होकर खीर खाना.......संघ कार्यालय में मुफ्त ट्यूशन पढ़ाया जाना......वहीं पर सहभोज का आयोजन., जिसमें सब अपने घर से खाना लाते थे और मिल बाँट खाते थे........वो कसरतें, वो खेल.........सब बढ़िया.....लेकिन वो तो सतही था......भीतरी तो थी संघ की विचारधारा जो बिलकुल ही सतही दिखी मुझे. और आज सालों बाद, मेरा वो संघ को छोड़ने का कदम मुझे और भी ठीक प्रतीत होता है. शेयर कर सकते हैं, चोरी नही. नमन..तुषार कॉस्मिक

बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपैया

कोर्ट भरे पड़े हैं फॅमिली प्रॉपर्टी डिस्प्यूट केसों से....पार्टीशन सूट.
जिस भाई-बहन के पास कब्जा होता है, मज़ाल वो दूजे भाई-बहन को हिस्सा देने को आराम से राज़ी हो जाये.
इसमें क्या हिन्दू-क्या मुसलमान? धन का अपना ही मज़हब है....वहां हिन्दू मुस्लिम सब बराबर है.

When it's the question of money everybody is of the same religion.

सत्य

जितना बड़ा मुद्दा 'भगवान' इस दुनिया के लिए रहा है और है, उतना ही बड़ा मुद्दा ‘सत्य’ भी रहा है और है. चलिए मेरे संग, थोड़ा सत्य भाई साहेब के विभिन्न पह्लुयों पर थोड़ा गौर करें:----- 1. “सदा सत्य बोलो” क्यों बोलो भाई? अगर भगत सिंह पकड़े जायें अंग्रेज़ों द्वारा और अँगरेज़ पूछे उनके साथियों के बारे में तो बता ही देना चाहिए, नहीं? सदा सत्य बोलो. इडियट वाली बात. जीवन जैसा है, सदा सत्य बोलना ही नहीं चाहिए. सत्य और असत्य का प्रयोग स्थिति के अनुसार होना चाहिए. बहुत बार असत्य सत्य से भी कीमती है. एक चौराहे पर बुड्डा फ़कीर बैठता था. बड़ा नाम था उसका. फक्कड़. बाबा. लोग यकीन करते थे लोग उसके कथन पर. एक रात बैठा था अपनी धुन में धूनी रमाये. अकेला. एक जवान लड़की बदहवास सी भागती निकली उसके सामने से. और दक्षिण को जाती सड़क पर कहीं खो गई. कुछ ही पल बाद इलाके के जाने-माने चार बदमाश पहुंचे वहां. चौक पर ठिठक गए. तय नहीं कर पाए किधर को जाएँ. फिर बाबा नज़र आया. बाबा का सब सम्मान करते थे. बदमाश भी. उन्हें पता था बाबा झूठ नहीं बोलता. बाबा से पूछा, “लड़की किधर गयी?” बाबा ने उनको उल्टी दिशा भेज दिया. लड़की बच गई. अब क्या कहेंगे आप? बाबा का झूठ सच्चा था या नही? सत्य-असत्य का फैसला मात्र बोले गए शब्दों से नहीं होता. किस स्थिति में, क्या बोला गया, उस सबको ध्यान में रख कर होता है. युधिष्ठिर ने जो कहा, “अश्व्थाथ्मा मारा गया, नर नहीं हाथी”. इसे अर्द्ध-सत्य माना जाता है लेकिन यह अर्द्धसत्य नहीं पूर्ण असत्य है. किस मंशा से, क्या बोला जा रहा है, किस स्थिति में बोला जा रह है, किसे सुनाने के लिए-क्या पाने के लिए बोला जा रहा है, सब माने रखता है. असल में झूठ बोलना एक कला है. कहते हैं सबसे बढ़िया झूठ वही बोलता है जो सच बोलता है. मतलब जो अपने झूठ को सच में कहीं इस तरह से मिक्स कर देता है कि वो जल्दी से पकड़ में ही नहीं आता. तो सदा सत्य नहीं बोलिए. सत्य बोलिए. सच्चे झूठ बोलिए. विचार से बोलिए. विश्वास से बोलिए. 2. "सत्यम ब्रूयात, प्रियं ब्रूयात, मा ब्रूयात सत्यम अप्रियम" सत्य बोलो और प्रिय बोलो. अप्रिय सत्य नहीं बोलना चाहिए. लो कल्लो बात. यह एक और बकवास है. अगर आप को अप्रिय लगने वाला सत्य नहीं बोलना है तो हो गया आपके सत्य का राम-नाम-सत्य. सत्य ने कोई ठेका नही ले रखा प्रिय लगने का. और बहुत बार हथौड़े की तरह सत्य की चोट पड़नी ही चाहिए, लगता रहे अप्रिय. मानव स्वभाव है कि उसे सीधा-सीधा अपने प्रतिकूल मालूम पड़ने वाला सत्य अक्सर हज़म नहीं होता लेकिन बहुत बार बाद में वही अमृत-तुल्य भी मालूम होता है. आवारा लड़का अपने दोस्तों के साथ मिल किसी लड़की का दुप्पट्टा खींच रहा था. लड़की के साथ ज़बरदस्ती करने ही वाला था कि उधर से उस लड़के का बाप गुज़रा. बाप ने लड़के को भरे बाज़ार में उसके दोस्तों के बीच खींच कर एक लाफा मारा और कहा, “अबे, वो लड़की रिश्ते में तेरी बहन लगती है.” लड़के को बाप पर बहुत गुस्सा आया, उसके तन-मन में बाप के खिलाफ आग लग गई. लेकिन फिर भी बाप की शर्म रखनी पड़ी. उसे वहां से हटना पड़ा. बाद में लड़के को पता लगा कि वो लड़की दूर-दूर तक उसकी बहन नहीं लगती थी. बाप ने झूठ बोला था. यहाँ बाप ने न तो सत्य बोला और न ही प्रिय बोला लेकिन यह “अप्रिय असत्य” लाख “प्रिय सत्यों” से बेहतर है. आई समझ में बात? 3. “सत्य परेशान हो सकता है, पराजित नहीं” यह भी सरासर बकवास है. जीवन में जीत हार सत्य-असत्य आधार पर नहीं होती. यहाँ सत्य-असत्य कोई भी जीत जाता है. और कोई भी परेशान हो सकता है. कितने ही लोग कोर्ट के चक्कर काटते मर जाते हैं सारी उम्र और उनको न्याय नहीं मिलता. 4. "सत्यमेव जयते" सत्यमेव जयते भारत का 'राष्ट्रीय आदर्श वाक्य' है, जिसका अर्थ है- "सत्य की सदैव ही विजय होती है". यह भारत के राष्ट्रीय प्रतीक के नीचे देवनागरी लिपि में अंकित है लेकिन यह नितांत असत्य कथन है. मेरा जानना तो यह है कि जो जीत जाता है, वो तो सत्य हो ही जाता है. "जयमेव सत्ये " विजेताओं को सच्चा और सही मान लिया जाता है क्योंकि इतिहास उनकी अवधि में लिखा जाता है, उनकी देखरेख में लिखा जाता है. एक उदाहरण. कांग्रेस ने 1 9 47 के बाद भारत में अधिकांश समय पर शासन किया है तो आपको इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, महात्मा गाँधी के नाम पर सड़क, पार्क, स्थान, योजनाएं मिलेंगी. जैसे कि जगदीश बसु, सी.वी. रमन, सूर्यसेन, भगत सिंह ने भारत को लगभग कुछ नहीं दिया था। एक और उदाहरण, दिल्ली में दो रिंग रोड़ हैं. कांग्रेस ने आंतरिक रिंग रोड को नाम दिया महात्मा गांधी रोड़. और बीजेपी ने बाहरी रिंग रोड को नाम दिया हेडगेवार मार्ग. हेडगेवार भाजपा की मां आरएसएस के जन्मदाता थे. डॉक्टर केशव राव बली राम हेडगेवार. और गांधी आरएसएस जैसी मानसिकता रखने वाले द्वारा मारे गए थे और कांग्रेस ने हमेशा आरएसएस का विरोध किया है. अब कौन सही, सच्चा है? समझ लीजिये, सच्चा कोई भी हो सकता है जीतने वाला भी या हारने वाला भी. किसी की जीत हार से उसके सच्चे-झूठे होने का प्रमाण नहीं मिलता. जांचें, फिर से जांचें.

5. एक कंसेप्ट है जिसे 'परसेप्शन' कहते हैं. अब यह क्या है? परसेप्शन का अर्थ है अनुभूति लेकिन यह पूर्व स्थापित नज़रिये से प्रभावित रहती है और परसेप्शन सही हो भी सकता है, उसमें सत्य हो भी सकता है और नहीं भी. लेकिन दिक्कत यह है कि सबको अपना परसेप्शन सत्य ही लगता है. सबको अपना कुत्ता टॉमी और दूसरे का कुत्ता कुत्ता दीखता है. सब डिफेन्स मिनिस्ट्री बनाते हैं, अटैक मिनिस्ट्री कोई नहीं बनाता, फिर भी अटैक होते हैं और कोई दूसरे ग्रह से नहीं होते. सबको अपना धरम, धरम और दूसरे का भरम लगता है. तो जितने लोग, उतने नज़रिए, उतने सत्य और ऐसा इसलिए कि नज़रिए में वैज्ञानिकता नहीं होती, बस विश्वास हैं, मान्यताएं हैं. तो सावधान हो जायें, हो सकता है कि आपका परसेप्शन असत्य हो. 6. राम नाम सत्य है"/ "सतनाम वाहेगुरु" किसी भी नाम में कुछ भी सत्य नहीं है......हर नाम काम चलाऊ है, चाहे आप राम कहें, चाहे वाहेगुरु.......व्यक्ति या वस्तु के नाम से सत्य का क्या लेना देना? हर नाम, मात्र नाम है..........नाम का अपने आप में सत्य, असत्य से कोई मतलब नहीं ....कोई भी नाम अपने आप में सत्य या असत्य कैसे हो सकता है? एक कोल्ड ड्रिंक का नाम आप COKE रखें या PEPSI, इसका सत्य असत्य से क्या मतलब, यह सिर्फ नाम है...नाम मात्र. आखिर में थोड़ा अंग्रेज़ी तड़का. Names are just for the name sake. There is nothing truth or untruth in the name itself. Be it any name. नमन...तुषार कॉस्मिक

Tuesday, 12 September 2017

अब जैसा समाज है ऐसा नहीं है कि कोई बुद्धू है और कोई चतुर-चालाक उसे बेवकूफ बना जाता है. नहीं. आज सभी चतुर हैं, चालाक है. असल में ज़रूरत से ज्यादा चालाक हैं. ओवर-स्मार्ट. ओवर-कलैवर. आज लड़ाई ओवर-कलैवर और ओवर-कलैवर के बीच है. बस जब अपनी दुक्की पिट जाती है तब दुनिया घटिया-कमीनी-हरामी लगने लगती है.
सवाल यह नही है कि आप मुसलमान हो कि बेईमान हो, बौद्ध हो कि बुद्धू हो, हिन्दू हो कि भोंदू हो. न. सवाल यह है कि आप सवाल नहीं उठाते. सवाल उठाना आपको सिखाया नहीं गया. बल्कि सवाल न उठाना सिखाया गया. आपकी सवाल उठाने की क्षमता ही छिन्न-भिन्न कर दी गयी. आपको बस मिट्टी का एक लोंदा बना दिया गया, जिसे समाज अपने हिसाब से रेल-पेल सके. खत्म.

Saturday, 9 September 2017

कुरान-अल-अंबिया (Al-'Anbya'):22 - "यदि इन दोनों (आकाश और धरती) में अल्लाह के सिवा दूसरे इष्ट-पूज्य भी होते तो दोनों की व्यवस्था बिगड़ जाती। अतः महान और उच्च है अल्लाह, राजासन का स्वामी, उन बातों से जो ये बयान करते है." मेरी टिप्पणी,"क्या सबूत है कि अगर अल्लाह के सिवा कोई और इष्ट-पूज्य होता तो आकाश और धरती की व्यवस्था बिगड़ जाती? और क्या सबूत है कि अल्लाह ही पूज्य है? और अगर यही साबित न हो तो फिर अल्लाह महान है, उच्च है, राजसन का स्वामी है, यह भी कैसे साबित होगा? असल में अल्लाह एक है और वही पूजनीय है या फिर देवी-देवता अनेक हैं और सभी पूजनीय हैं, ये सब इन्सान की कल्पनाएँ है जिन पर पूरी की पूरी सभ्यताएं मतलब तथा-कथित सभ्यताएं खड़ी हुई हैं, खड़ी हैं. सब बकवास. सबूत किसी के पास किसी बात का नहीं. सबूत किसी के पास नहीं कि कोई अल्लाह या कोई देवी-देवता हैं भी कि नहीं और हैं तो फिर उनको इंसान की पूजा-अर्चना से कोई मतलब भी है कि नहीं. बस चल रहे हैं एक दूजे के पीछे. अंधे-अँधा ठेलिया, दोनों कूप पड़न्त."

धारणायें

मुझे बैटमैन फिल्में कभी ख़ास नहीं लगी, लेकिन "डार्क नाईट" फिल्म में जोकर के डायलाग खूब पसंद आये मुझे. लगा यह जोकर तो जीवन के गहरे सत्य ही तो उगल रहा है.
अभी-अभी "मुक्ति भवन" देखी. फिर इसके रिव्यु भी देखे, बहुत सराहा गया है फिल्म को. मुझे फिल्म धेले की नहीं लगी. बस फिल्म जब काशी पहुँचती है तो वहां काशी के सीन ठीक लगे. लेकिन मुक्ति भवन नामक होटल के मेनेजर के डायलाग बहुत जमे.
एक जगह वो कहता है, "मोक्ष जानते हैं क्या होता है? मनुष्य को लगता है कि वो लहर है. लेकिन फिर जब उसे अहसास हो जाता है कि वो लहर नहीं समन्दर है, तो वो अहसास ही मोक्ष है." वाह! क्या बात है!!
ठीक ऐसे ही जीवन है. कभी कोई व्यक्ति का एक कथन सही लगता है तो कभी दूसरा बकवास. कभी कोई कहीं एक काम बहुत सही कर रहा होता है तो कहीं बहुत गलत. सो मेरी धारणाएं बहुत पॉइंटेड हैं. मैं सिर्फ मुद्दा-दर-मुद्दा धारणाएं बनाता हूँ. चाहे कोई व्यक्ति हो, किताब हो, घटना हो, फिल्म हो, कुछ भी हो.
और मेरा मानना यह है कि आपको भी ऐसा ही करना चाहिए.
नमन..तुषार कॉस्मिक

सरोजिनी नगर मार्किट

यह मार्किट दिल्ली की चंद उन मार्किट में से है, जहाँ आपको कुछ न खरीदना हो, न खरीदने लायक लगे, फिर भी जाना चाहिए. आज सपरिवार जाना हुआ. मेरी कज़न की दुकानें हैं अपनी वहां. अब उनकी कहानी भी थोड़ा समझने लायक है. दुकानों से इतना ज़्यादा किराया आता रहा है और आज भी आता है हर महीने कि उनके पूरी परिवार को कुछ भी और करने की ज़रूरत ही नहीं रही तकरीबन सारी उम्र. लेकिन उनके दोनों बेटे सही से विकसित नहीं हुए. जब संघर्ष न मिले तो भी विकास नहीं होता. कहते हैं अगर बच्चा खुद अंडा तोड़ कर बाहर निकले तो ही जी पाता है, अगर आप उसे अंडा तोड़ने की ज़हमत से बचा लें, उसे संघर्ष से बचा लें तो बहुत सम्भावना है कि वो मर जाएगा थोड़े समय में ही. अमीरों के बच्चे देखे आपने कभी? थुल-थुल, ढुल-मुल जैसे उन्हें कोई मानसिक रोग हो. खैर, कुछ-कुछ दीदी के बच्चों के साथ भी ऐसा ही हुआ. लेकिन अब वक्त के थपेड़े खा कर कुछ सम्भल गए हैं. "जो दुःख-तकलीफ मैंने देखीं, मेरे बच्चे न देखें", यह धारणा वालों को मेरे शब्दों पर गौर फरमाना चाहिए. ज़्यादा टेंशन मत लिया करो बच्चों की भैय्ये, पकने दिया करो, तपने दिया करो. खैर, बात मार्किट की. बद-इन्तेज़ामी की जिंदा मिसाल है यह मार्किट. कदम रखते ही कदम बढ़ाना मुश्किल कर देंगे चलते-फिरते दुकानदार. "सर, चश्मा ले लीजिये." "सर, बेल्ट लीजिये." "मैडम, बैग लीजिये." आप एक कदम चलेंगे, किसी न किसी विक्रेता की टांग-बाजू बीच में आन ही टपकेगी. मन कर रहा था कि पीट दूं, दो-चार को. कितना ही मना करो, लेकिन कहाँ कुछ होगा? वहां तो सैंकड़ों लोग यही काम में जुटे हैं. हर कदम. कदम-कदम. पुलिस सिर्फ नकली विजिल करती है. जैसे ही पुलिस आती है, वो लोग दिखावे के लिए चंद मिनट के लिए इधर-उधर हो जाते हैं. फिर शुरू. सब सेटिंग है, वरना मैं एक दिन में सब को दादी-नानी याद दिला दूं. और वहां मार्किट में, चलती मार्किट में, खचा-खच भरी मार्किट में NDMC के लोग झाड़ू चला रहे थे और रेहड़ी से कूड़ा उठा रहे थे. धूल उड़ाते हुए. लोगों को मुफ्त में खांसी बांटते हुए. वल्लाह! इनसे vacuum cleaner टाइप मशीन न ली गयी! ऐसी जगह के लिए भी! शाबाश! अक्ल के अंधो, मेरी दिल्ली के कौंसिलर लोगो शाबाश!!! अच्छी बात रोज़गार चल रहा है लेकिन आखिर व्यवस्था भी तो होनी चाहिए न जी. आख़िरी बात. शुरू में यह मिक्स टाइप की मार्केट थी, जहाँ सब्जी, मिठाई, फर्नीचर, कपड़ा तथा अन्य कई किस्म की दुकान-दारी थी. लेकिन अब यह मार्किट सिर्फ रेडी-मेड कपड़ों के लिए मशहूर है. किन्तु मेरी नज़र में यह अज़ीब सी मार्किट है, जहाँ आधे से ज्यादा माल सेकंड-हैण्ड होता है, सोच-समझ कर खरीदें तो शायद कुछ बढ़िया माल हाथ लग भी जाए आपके. वहां तो पानी तक ब्रांडेड नहीं मिल रहा था. Aqua-life नामक था कोई ब्रांड...बीस रुपये भी दो ...तो भी पानी बड़े ब्रांड का, अपनी पसंद के ब्रांड का नहीं मिलेगा. क्या हुआ अगर हम दारू नहीं पीते? पानी पीते हैं, वो भी अपनी पसंद के ब्रांड का. नमन.....तुषार कॉस्मिक

Friday, 8 September 2017

जब तक मरे हुए पूर्वजों को बामनों के जरिये खाना-लत्ता पहुंचाने वाले भूतिए भारत में मौजूद हैं, धर्म की ध्वजा फहराती रहेगी. गर्व से कहो हम हिन्दू हैं.
शेर झुण्ड में हमला करते हैं और वो भी पीछे से. यह है इनकी औकात. शेर-दिली. सो आइन्दा खुद को शेर कहने-कहलाने से पहले जरा सोच लेना.तुम तो इंसान हे बने रहो, वो ही काफी है. इडियट.

रोहिंग्या मुसलमान गो बैक

जब आप आसमानी किताब को मानते हैं, जिस में लिखा है कि जो न माने उसे मारो तो फिर आपको कोई नहीं मारेगा, यह कल्पना करना भी मूर्खता है. और यही मुसलमान को समझना है. उसे समझना है कि वो एक फसादी किताब का पैरोकार का है. उसे समझना है कि जब वो मारेगा तो उसके बच्चे भी मारे जायेंगे. जब वो बलात्कार करेगा, उसकी औरतों के साथ भी यही होगा. जब उसकी नज़र में इस्लाम को न मानने वाला काफिर है, थर्ड क्लास है, वाजिबुल-क़त्ल है तो बाकी दुनिया की नज़र में वो भी ऐसा अस्तित्व है जो मिटा देने लायक है. जब मुसलमान किसी को बम से उड़ाता है, ट्रक चढ़ा के मारता है, गोलियों से भूनता है तो यह जेहाद है लेकिन जब मुसलमान को कोई "विराधू" ( मयाँमार का मियाँ-मार बौद्ध नेता) भगा दे, मार दे तो यह उस पर ज़ुल्म है! यह नहीं चलेगा. रोहिंग्या मुसलमान के दर्द में खड़े लोगों को यह समझना ही होगा. बहुत दर्दे-दिल उमड़ रहा मेरे मुस्लिम भाईयों को..इनके मुस्लिम भाई, बहिन काटे जा रहे हैं म्यांमार (बर्मा) में....च.च.च......वैरी सैड! यही दर्दे-दिल कब्बी तब न उमड़ा जब "अल्लाहू-अकबर" के नारे के साथ बम बन के दुनिया के किसी भी कोने में आम-जन को उड़ा दिया जाता है, जब कहीं भी ट्रक चढ़ा दिया जाता है, कहीं भी गोलियों की बरसात कर दी जाती है. सो मेरा स्टैंड साफ़ है, मुझे हमदर्दी है रोहिंग्या मुसलमानों के प्रति, इसलिए नहीं कि उनको मारा जा रहा है, इसलिए कि वो मुसलमान हैं. ये जो तथा-कथित बड़े-बड़े वकील रोहिंग्या के पक्ष में खड़े हैं न इनको चाहिए रोहिंग्या को अपने घरों में बसा लें. चालीस हज़ार ही तो हैं. ये कब चालीस लाख हो जायेंगे तुम्हें पता भी न लगेगा. भारत पहले ही जनसंख्या के दबाव से त्रस्त है और भर्ती कर लो. पूरी दुनिया से कर लो भर्ती. इडियट. जनसंख्या घटानी है कि बढ़ानी है? इडियट. हमारे कानूनों को हमारे खिलाफ़ प्रयोग किया जा रहा है मूर्खो, समझ लो. कानून में धार्मिक आज़ादी लिखी है, लेकिन समझ लो कि इस्लाम कोई धर्म नहीं है, यह पूरी सामाजिक, कानूनी व्यवस्था है, यह छद्म Militia है. इनको समझ नहीं आ रहा कि पूरी दुनिया से मुसलमान को ही क्यों खदेड़ा जा रहा है? अमेरिका में ट्रम्प क्यों जीत गया? चूँकि उसने मुस्लिम को खदेड़ने की खुल्ली हुंकार भरी. पूरी दुनिया को इस्लाम का खतरा समझा आ रहा है, यहाँ के इन सेक्युलर-वादियों को समझ नहीं आ रहा. अबे, सेक्युलर उसके साथ हुआ जाता है, जो खुद सेक्युलर हो. इस्लाम को अपने चश्मों से नहीं, इस्लाम के चश्मे से देखो, तब समझ आएगा कि वो किसी मल्टी-कल्चर को नहीं मानता है. इस्लाम न सिर्फ एक-देव-वादी है बल्कि एक ही कल्चरवादी भी है. इस्लाम सिर्फ इस्लाम को मानता है. फिर से लिख रहा हूँ, "इस्लाम को अपने चश्मों से नहीं, इस्लाम के चश्मे से देखो, तब समझ आएगा कि वो किसी मल्टी-कल्चर को नहीं मानता है. इस्लाम सिर्फ इस्लाम को मानता है." और उससे होता यह है कि इस्लाम जरा से पॉवर में आ जाए...चाहे वो पॉवर जनसंख्या की वजह से ही हो.....तो इस्लाम बाकी सब तरह की मान्यता वालों की ऐसी-की-तैसी कर देता है. सरमद, मंसूर, दारा शिकोह के साथ जो हुआ, वो ही आज बंगला देश के ब्लोग्गरों के साथ होता है, सरे-आम काट दिए जाते हैं. उससे डेमोक्रेसी, सेकुलरिज्म, फ्री-थिंकिंग सब खत्म हो जाती है. "वसुधैव कुटुबुकम" याद दिलाने वाले रवीश कुमार जी समझ लें, इस्लाम भी "वसुधैव कुटुबुकम" में यकीन रखता है लेकिन तभी जब सब मुसलमान हो जाएँ. सो भुलावे में मत आयें. रोहिंग्या वहीं भेजे जाएँ, जहाँ से वो आये हैं. ज्यादा हमदर्दी है अगर किसी क़ानून-बाज़ को इनसे तो म्यांमार में जाकर केस लड़ें इनके लिए, ताकि सू-ची इनको वापिस लें, काहे दूसरे मुल्कों पर बोझ डाल रही हैं. या फिर इस्लामिक मुल्कों में जा कर केस लड़ें ये कानून-वीर, ताकि ये मुल्क रोहिंग्या मुसलमान को अपने यहाँ रखें, वो मुसलमान बिरादर हैं आखिर. उनकी अपनी कौम. उम्मत. मेरी सुप्रीम कोर्ट श्री को एक सलाह है. वो चाहे तो आम जन से भारत में वोटिंग करवा ले. #Rohingya को रखना है या नहीं. वो बेस्ट है. कल न सरकार पर कोई दोष और न ही कोर्ट श्री पर. लेकिन ऐसा होगा? मुझे लगता नहीं. विरोध करने वाले मोदी सरकार का इस मुद्दे पर विरोध करते रहेंगे, जिसका फायदा भाजपा सरकार को मिलेगा ही, चूँकि हिन्दू जो कि एक बड़ा तबका है भारत में, उसे दिख रहा है कि जबरदस्ती मुसलमान को थोपा जा रहा है मुल्क में. इसका जवाब देगा, वो वोटिंग में. सो जो मोदी सरकार का विरोध कर रहे हैं इस मुद्दे पर, असल में वो मोदी सरकार का ही फायदा कर रहे हैं. नमन...तुषार कॉस्मिक

फोटो....फिल्म...ज़िन्दगी

फोटो देखता हूँ तो उसके इर्द-गिर्द क्या है, बैक-ग्राउंड क्या है, इस पर भी बहुत ज्यादा ध्यान देता हूँ. मैं फोटो को पूरा देखता हूँ. पीछे तार पर टंगा कच्छा, दीवार पर पान की पीक, उखड़ा हुआ प्लास्टर, सफेदी की पपड़ियाँ या फिर उगता सूरज, बहती पहाड़ी नदी, दूर तक फैला समन्दर. सब. बहुत बार फोटो जिसकी है वो शायद खुद को ही दिखाना चाहता है, बैक-ग्राउंड पर उसका ध्यान ही नहीं जाता. कई बार वो सिर्फ बैक-ग्राउंड ही दिखाना चाहता है लेकिन मैं फोटो उसकी चाहत के अनुसार कभी भी नहीं देखता. मैं पूरी फोटो देखता हूँ, अपने हिसाब से देखता हूँ. फिल्म भी ऐसे ही देखता हूँ. फिल्म की कहानी, करैक्टर तो देखता ही हूँ, फिल्म की कहानी कहाँ बिठाई गई है, वो बहुत ही दिलचस्पी से देखता हूँ. जैसे 'मसान' फिल्म काशी के पंडों की ज़िंदगी के कुछ पहलु दिखाती थी, मिल्खा सिंह भारतीय एथलीटों के जीवन के कुछ रंग, जॉली एल.एल. बी. वकीलों-जजों की ज़िन्दगी. तो फिल्म कहाँ घूम रही है, मतलब जंगल, पहाड़, महानगर या कोई झुग्गी-बस्ती, कहाँ? मेरे लिए यह बहुत मायने रखता है, यह भी तय करता है कि मुझे फिल्म पसंद आयेगी या नहीं. ज़िंदगी देखता हूँ तो अपने हिसाब से कोई क्या दिखाना चाहता है, वो तो देख लेता हूँ लेकिन वो क्या नहीं दिखाना चाहता वो भी देखता हूँ. क्या मैं सही देखता हूँ?

खुशवंत सिंह.....संघी सोच....मेरी सोच

एक मित्र:---जिस खुशवंत सिंह को आप भारतीय इतिहास और समाज के लिए ज़रूरी बता रहे है यह वही खुशवंत सिंह है न जिसका बाप शोभा सिंह है और यह वही सोभा सिंह है न जिसकी विधिक गवाही पर अंग्रेजो ने शहीद भगत सिंह को फ़ासी दी थी और इनाम में शोभा सिंह को दिल्ली में बहुत बड़ी जमीन दी थी जिस पर प्लाटिंग करके सोभा सिंह अमीर बना था मैं--- अगर आप के पिता जी ने कोई बेगुनाह का खून किया हो तो आपको फांसी चढ़ा दें क्या? जुकरबर्ग कल बलात्कार में दोषी पाया जाये तो फेसबुक छोड़ देंगे क्या आप? खुशवंत सिंह को पढ़ना चाहिए यह उनके लेखन को आधार मान कर लिखा है मैंने. ज़मीन ली या नहीं ली यह अलग मुद्दा है. अगर ले भी ली हो तो भी उनका लेखन अगर दमदार है, भारत के फायदे में हैं तो उसे पढ़ना चाहिए. मिसाल के लिए एक वैज्ञानिक अगर कुछ खोज दे जिससे कैंसर खत्म होता, लेकिन फिर उससे कत्ल हो जाये तो क्या उसकी खोज को इसलिए नकार दें कि उससे कत्ल हो गया? किसी भी व्यक्ति के जीवन के अलग-अलग पहलु होते हैं, सो समर्थन या विरोध होना चाहिए पॉइंट-दर-पॉइंट, पहलु-दर-पहलु. संघी सोच है, "खुशवंत सिंह गद्दार है, उसका बाप गद्दार था." खुद जैसे बहुत बड़े वाले देश-भक्त हों. पता भी है देश का भला-बुरा कैसे होगा? तुम्हारे हिन्दू-हिन्दू चिल्लाने से तो होगा नहीं. होना होता तो हो चुकता. "हम महान हैं, हमारे पूर्वज महान थे, हमारी संस्कृति महान है. हम विश्व-गुरु थे, हम विश्व-गुरु हैं." यह सब चिल्लाने से न कोई महान होता है, न ही विश्व-गुरु. इडियट. संघ हर उस सोच का गला घोटता है.....हर आवाज़ दबाता है जो उसके खिलाफ जाती है. ऐसी की तैसी. अपना दिमाग लगाओ, खुद जान जाओ. नमन...तुषार कॉस्मिक

Sunday, 3 September 2017

शाकाहार Versus मांसाहार

अगर पौधों में जान है तो पशु काट खाने में ही क्यों बवाल करना? बिलकुल सही तर्क है.
इसी तर्क को उलटा घुमाते हैं....शीर्षासन कराते हैं. अगर पौधों में जान है सो पशु काट खाने में ही क्यों बवाल करना? फिर इन्सान इंसान को ही क्यों न काट खाए....इक दूजे के बच्चों को क्यों न काट खाए?
सवाल जीवन में चैतन्य की सीक्वेंस का है....
सवाल भोजन की मजबूरी का है.. 
सवाल चॉइस का है.....
अगर चॉइस हो तो फल-सब्जी खा लें, चूँकि उसके नीचे आप जा नहीं सकते...मिटटी-पत्थर आप खा नही सकते..
"जीवम जीवस्य भोजनम"...लेकिन क्या आप अपने बच्चे खा जायेंगे? नहीं न. तो फिर यह भी देखें कि कौन सा जीवन खाना है......जीवन के क्रम में वनस्पति ही सबसे निचले स्तर पर खड़ी है, जो भोजनीय है.
क्या मैंने सही लिखा?

मेरी असलियत

हम कभी खुद के बारे में सोचते हैं-बताते हैं तो खुद को ही ढंग से फेस नहीं कर पाते. अगर कहीं पिटे हों, गिरे हों, असफल हुए हों तो वो सब स्किप कर जाते हैं. लेकिन अपुन तो हैं ही क्रिटिक. भ्रष्ट बुद्धि. नेगैटिविटी से भरे हुए. सो अपने बारे में भी वही रवैया है, जो सारी दुनिया के बारे में है. असलियत यह है कि मैंने जीवन में गलतियाँ ही गलतियाँ की हैं. ढंग का काम शायद ही मुझ से कोई हुआ हो. माँ-बाप ने मुझे गोद लिया था, और बहुत ही बढ़िया परवरिश दी, अनपढ़ होते हुए मुझे पढ़ने का खूब मौका दिया, भरपूर प्यार दया, काम-धंधा करने के लिए खूब धन भी दिया, जिसके लिए मैं हमेशा शुक्रगुजार हूँ, और रहूंगा. बदले में उनकी ठीक से देख-भाल नहीं कर पाया मैं. और तो और मैं अपनी दोनों बच्चियों को भी अभी तक वैसी परवरिश भी नहीं दे पाया, जैसी मुझे मिली. यह है मेरी असलियत. अगर अब तक का अपना जीवन एक शब्द में लिखना हो तो वो शब्द होगा-- बेकार. मैं जितनी भी अक्ल घोटता हूँ यहाँ, वो इसलिए नहीं कि मैं खुद को कोई बहुत सयाना समझता हूँ, नहीं, ऐसा बिलकुल नहीं है. मुझे अपनी अक्ल की सीमाएं पता हैं. मुझे तो कोई भी मूर्ख बना जाता है. मैं यहाँ बस एक फर्ज़ निभाता हूँ, वो यह कि शायद मेरे लिखे से मेरे जैसी बेफकूफियों से कोई बच सके. बस. अगर मेरे लेखन में ज़र्रा भी कोई अच्छाई आती हो दुनिया में तो उसका नब्बे प्रतिशत क्रेडिट मेरे माँ-बाप को जाता है, जिनकी जुत्ती बराबर भी मैं नहीं बन सका..
नमन ...तुषार कॉस्मिक