क्या #CAA संविधान के खिलाफ है?- #NRC/ #CAA-2
अमित शाह ने साफ़ कहा है कि मुस्लिम को छोड़ कर जो भी शरणार्थी भारत में आना चाहें उन्हें सिटीजनशिप दी जायेगी.
मुस्लिम चिल्लम-चिल्ली कर रहे हैं कि हमारे खिलाफ है. लेकिन यह उनके खिलाफ कम है, गैर-मुस्लिम के पक्ष में ज़यादा है.
जो मुस्लिम घुसपैठिये हैं, उनको ही निकालने की बात हो रही है, हालांकि भारत जैसे मुल्क में,
जहाँ बड़ी आसानी से ऐसे लोगों का ड्राइविंग लाइसेंस बन जाता है जो गाडी चलाने तक नहीं जानते,
चालीस साल का आदमी साठ साल की उम्र दिखा कर पासपोर्ट बनवा लेता है,
लोग नकली इनकम सर्टिफिकेट बनवा कर EWS कोटा में अपने बच्चे स्कूलों में भरती करवा लेते हैं,
वहां घुसपैठिये अब तक वोटर कार्ड, आधार कार्ड न बनवा पाए हों, यह अपने आप में एक चमत्कार होगा. खैर. होगा. फिर भी होगा. कुछ तो होगा.
मुस्लिम भाई लोग परेशान हैं. परेशान कुछ तो इसलिए हैं कि यह जो चमत्कार होगा, तो कई बेचारे शरीफ ईमानदार लोग दर-बदर, घर-बेघर कर दिए जायेंगे.
और ज़्यादा परेशानी इस बात की है कि भारत क्लियर स्टेटमेंट देगा. स्टेटमेंट कि मुस्लिम का स्वागत नहीं है भारत में.
और फिर यह डेमोग्राफी बदलने का प्रयास है. मुस्लिम की आबादी का दबाव कम करने का पर्यास होगा. इसे वो साफ़-साफ़ समझते हैं. और यह उनके दीन के खिलाफ है. चूँकि दीन तो दिन दोगुनी-रात चौगुनी रफ्तार से फैलना चाहिए.
अब किसी ने बड़ा ही मासूम सवाल पूछा है कि यार, भारत जैसे मध्यम दर्जे के देश में लोग क्यों भागे चले आते हैं जबकि यहाँ से धड़ा-धड़ लोग कनाडा, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया जैसे मुल्कों को भाग रहे हैं?
देखिये, इन्सान सिर्फ बेहतर ज़िंदगी का तलबगार है. Better Life. बाकी सब बकवास है.
उसे भारत में बेहतर ज़िंदगी अगर दिख रही है तो इसलिए चूँकि जिस मुल्क में वो रहता है, वहां ज़िंदगी बदतर है, बेहतरी की संभावनाएं क्षीण हैं. इसी तरह जो लोग भारत को छोड़ कर जा रहे हैं, उनको आगे कहीं बेहतर ज़िन्दगी दिख रही है. कल अगर लोगों को किसी और प्लेनेट पर बेहतर ज़िन्दगी दिखेगी तो लोग वहां शिफ्ट होना शुरू हो जायेंगे. बस, इत्ती सी बात है.
दूसरी बात यह है कि मैं पूरी तरह से भाजपा सरकार के इस कदम पे उसके साथ हूँ.
क्यों?
चूँकि मेरा साफ़ मानना है कि इस्लाम दुनिया के लिए खतरा है.
इस्लामिक समाज बाकी समाजों के साथ घुलता-मिलता नहीं है बल्कि उन्हें लील जाता है. उनकी सभ्यता-संस्कृति, रीति-रिवाज़ सब खा जाता है.
और
इस्लाम सदैव तख़्त-पलट के लिए प्रयासरत रहता है. इस्लाम का मकसद है दीन को तख़्त पे बिठाना.
और
इस्लामिक समाज की मान्यताएं जड़ हैं जो इस पूरी धरती को ही लील जाने वाली हैं. अँधा-धुंध आबादी पैदा करो और पृथ्वी के सारे स्त्रोत सोख लो, अल्लाह-अल्लाह करते रहो और कुरान से बाहर सोचो ही नहीं. सोचा तो ईश-निंदा और ईश-निंदा तो क़त्ल. ऐसे में क्या ज्ञान-विज्ञान पैदा होगा? इस तरह की सोच सिर्फ अंधे-अंधेरों में ले जा सकती है.
सो कुछ भी बुरा नहीं कि अगर कोई मुल्क, कोई समाज इस्लाम से अलग-थलग रहना चाहता है, इस्लामिक लोगों को अलग-थलग करना चाहता है. NRC वही करने का प्रयास है. पूरी तरह से मुस्लिम को आप खदेड़ नहीं सकते तो फिलहाल यह सब ही करें. उनकी आबादी पर कण्ट्रोल करें. डेमोग्राफी को बैलेंस करें.
और
ऐसा सिर्फ भारत ही नहीं कर रहा. ट्रम्प का दुनिया भर में मजाक उड़ाया गया, आज भी उड़ाया जाता है, लेकिन एजेंडा उनका भी यही था.
कम से कम यह चीन जैसा तो नहीं है जहाँ मुस्लिम को नमाज़ तक पढने नहीं दिया जाता.
वैसे जो नित्यानानद ने किया वह भी कर सकते हैं. दुनिया भर में अनजान टापू खरीदें और वहां मुस्लिम को छोड़ बाकी लोगों का स्वागत करें.
शम्मी कपूर याद है. वो कहते थे, "हम सिर्फ इत्ता ही चाहते हैं कि बारातियों का स्वागत पान-पराग से हो."
हम सिर्फ इत्ता ही चाहते हैं कि इस्लामिक लोग अलग रहें.
उनके मुल्क अलग हों.
उनके टापू अलग हों.
या
और बेहतर है कि उनके प्लेनेट ही अलग हों.
वैसे भी यह हरेक कम्युनिटी की, हरेक इन्सान की आज़ादी होनी चाहिए कि अगर वो किसी जमात के साथ नहीं रहना चाहता तो न रहे. कोई सवाल नहीं होना चाहिए. कोई मुद्दा नहीं होना चाहिए.
नमन...तुषार कॉस्मिक
Thoughts, not bound by state or country, not bound by any religious or social conditioning. Logical. Rational. Scientific. Cosmic. Cosmic Thoughts. All Fire, not ashes. Take care, may cause smashes.
Tuesday, 10 December 2019
Saturday, 30 November 2019
दो लहरों की टक्कर...दक्षिणपंथ बनाम वामपंथ
यह गुरुदत्त जी का उपन्यास है. जहाँ तक याद पड़ता है, पहली बार यह मैंने संघ के कार्यालय में देखा था.
फिर बाद में "हिंदी पुस्तक भण्डार" क्नॉट प्लेस में यह किताब दिखती थी. न मैंने खरीदी, न पढ़ी. अपने इस लेख का शीर्षक धन्यवाद सहित गुरुदत्त जी से ले रहा हूँ.
जिस सामाजिक व्यवस्था में हम हैं. वो मुख्यतः दो रास्तों से आती है.
और दोनों में कनफ्लिक्ट है. कुश्ती है.
दोनों गुत्थम-गुत्था हैं. कुश्ती क्या है MMA फाइट है.
दो लहरों की टक्कर है.
इस व्यवस्था का एक हिस्सा आता है तथा-कथित धर्मों से.
ईसाईयत में पहले चर्च और कोर्ट एक ही होते थे. "जोन ऑफ़ आर्क" को जिंदा जला दिया जाने का कानूनी फैसला चर्च से ही दिया गया था. कानून कोई धर्म से अलग नहीं था.
मुस्लिम समाज की व्यवस्था कहाँ से आती है. कुरान से.
मुस्लिम समाज का कानून कहाँ से आता है? कुरान से.
शरियत क्या है? कुरान से निकला कायदा-कानून.
सिक्खी में भी "रहत मर्यादा" का कांसेप्ट है, जो गुरुओं की शिक्षाओं से आता है.
क्या है मेरा पॉइंट?
पॉइंट यह है कि तथाकथित धर्मों से समाज में एक व्यवस्था निकलती है. कानून निकलता है. राजनीति निकलती है. यह एक लहर है.
एक दूसरी लहर है. इस लहर से भी एक सामाजिक व्यवस्था निकलती है.
इस लहर में सुकरात, प्लेटो, अरस्तु जैसे फलसफी शामिल हैं. इसमें शेक्सपियर, ऑस्कर वाइल्ड, दोस्तोवस्की, प्रेम चंद मुंशी, खुशवंत सिंह जैसे साहित्यकार हैं. इसमें अर्थ-शास्त्री शामिल हैं. इसमें समाज-शास्त्री शामिल हैं. इसमें डार्विन जैसे वैज्ञानिक हैं. इसमें फ्रायड जैसे मनो-वैज्ञानिक हैं. यह व्यवस्था जड़ नहीं है. यह चलायमान है. यह बदलाव का स्वागत करती है. यह बदलाव लाती है. बदलाव के साथ बदलती है. Change is the only Constant.
जो लहर धर्मों से आती है, वो जड़ है और इन्सान को जड़ ही बनाये रखना चाहती है. वो हर तरह के बदलाव का विरोध करती है.
सबसे ज्यादा जड़ इस्लाम है. "कुरान आसमान से उतरी इलाही किताब है. उससे इतर कुछ नहीं हो सकता. आखिरी पैगम्बर हो चुके."
बाकी समाजों ने फिर भी थोड़ी-बहुत जड़ता छोड़ दी है. जैसे ईसाईयत ने बाकायदा "जोन ऑफ़ आर्क" को जलाने के लिए माफी माँगी. गलीलियो को चर्च में बेईज्ज़त करने के लिए माफी माँगी.
सिक्खी में कृपाण रखना शामिल है लेकिन फिर छोटी सी प्रतीक रुपी कृपाण रखने पे रज़ामंदी दिखा दी.
लेकिन आपको फिर भी मुस्लिम औरतें बुरका और सिक्ख पगड़ी न उतारने की जिद्द करते दीखते हैं.
तो यह है टक्कर.
एक लहर विश्वास पर टिकी है
तो
दूजी विचार पर.
एक लहर किसी किताब को ग्रन्थ मान कर वहीं रुक चुकी है
तो
दूजी हर किताब पर चैलेंज स्वीकार करती है.
एक लहर महान शख्सियतों पर टीका-टिपण्णी पर क़त्ल तक करने पर उतारू है
तो
दूजी हर आलोचना का स्वागत करती है.
यह है, "दो लहरों की टक्कर".
एक लहर को दक्षिण मार्ग
और
दूजी को वाम मार्ग
कहा जाता है.
समाज पर हावी विचारधारा ने खुद को दक्षिण पंथी कहा
और
विपरीत विचार वालों को वामपंथी कहा है हमेशा.
Right is right
and
left is wrong.
यह है, "दो लहरों की टक्कर".
धर्मों से सामाजिक व्यवस्था में जो आता है, वो गतिरोध पैदा करता है. सारी दिक्कत ही यही है.
हम अपने साहित्यकार की नहीं सुनते,
समाज शास्त्री की नहीं गुणते,
वैज्ञानिक की नहीं मानते,
मनो-वैज्ञानिक की बात नहीं जानते.
हम इनको बहुत कम सम्मान देते हैं.
हम इन पर बहुत कम ध्यान देते हैं.
यह है, "दो लहरों की टक्कर".
सुरेन्द्र मोहन पाठक साहेब की आत्म-कथा पढ़ रहा था.
उसमें एक किस्सा कुछ-कुछ यूँ है.
एक नौजवान रोज़गार दफ्तर नौकरी मांगने का आवेदन करने जाता है.
उससे पूछा जाता है, "क्या करते हो?"
तो उसका जवाब है,
"कहानी लिखता हूँ,
कविता कहता हूँ,
नाटक खेलता हूँ."
"उसके अलावा क्या करते हो?"
"कुछ नहीं."
"कहानी, कविता और नाटक मात्र के लिए कोई नौकरी नहीं है, कोई सैलरी नहीं है."
"तो फिर प्रेम चंद को क्यों पढ़ाते हो?
निराला को क्यों गाते हो?
भगवती चरण वर्मा को क्यों समझाते हो?
पढ़ाते हो तो पढाने से क्यों कमाते हो?
अगर साहित्य लिखना कोई काम नहीं तो साहित्य पढ़ाना काम कैसे हो गया?"
मुझे याद है. मैं बठिंडा के 'महावीर सनातन धर्म' पब्लिक स्कूल में था. दसवीं में स्कूल में टॉप किया. लेकिन तब तक मुझे साहित्य, फिलोसोफी, समाज विज्ञान जैसी चीज़ों को पढ़ने-समझने का कीड़ा काट चुका था.
कीड़ा नहीं सांप था.
सांप नहीं सांप का बाप था.
सो मैंने जान-बूझ कर आर्ट्स लिया. क्यों? चूँकि मुझे साहित्य पढना था. नतीजा ? मेरी आर्ट्स की पढाई से, साहित्य की पढ़ाई से मुझे आज तक चवन्नी की कमाई नहीं हुई. जबकि मेरे से कहीं फिस्सडी छात्र बढ़िया से फिट हो गए.
हम धर्म की बकवास-बाज़ी करने वालों को राजा जैसा जीवन देते हैं.
उन्हें महंगी कारें गिफ्ट कर देते हैं.
पञ्च तारा होटलों में शिफ्ट कर देते हैं.
धार्मिक स्थलों को सोने-चांदी से मढ़ देते हैं, लेकिन अपने कलाकारों, लेखकों को, फ़लसफ़ी को खड्डे-लैंड लगा के रहते हैं.
मिर्ज़ा गालिब उधार ले के गुज़र-बसर करते थे.
"कर्ज की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हांं
रंग लाएगी हमारी फाका-मस्ती एक दिन"
विन्सेंट वैनगोग ज़िन्दा थे तो अपनी एक पेंटिंग नहीं बेच पाए. पागल हो गए, आत्म-हत्या कर ली पागलपन में ही.
खैर, Godfather-१ में डॉन कोर्लेओन अपने बेटे को समझाता है, "जो भी तेरे साथ विरोधी गैंग के बॉस से मीटिंग फिक्स करवाएगा, वो गद्दार होगा." आप समझ लीजिये, जो भी धार्मिक मान्यताओं को सामाजिक व्यवस्था पर आरोपित करना चाहते है, गद्दार है. समाज में वैज्ञानिकता लाने के रास्ते में रोड़ा है.
ये जो दो लहरों की टक्कर है, MMA फाइट है, इसमें आपने किसे जितवाना है? सोच लीजिये.
कमेंट में बताईये
और
अगर इस लेख में से कुछ ले जाने लायक है तो उसे अपने साथ घर ले जाईये.
नमन....तुषार कॉस्मिक
इसी लेख को अगर सुनना हो तो लिंक मौजूद है:--
https://soundcloud.com/user-363372047/25-nov-939-pm2
फिर बाद में "हिंदी पुस्तक भण्डार" क्नॉट प्लेस में यह किताब दिखती थी. न मैंने खरीदी, न पढ़ी. अपने इस लेख का शीर्षक धन्यवाद सहित गुरुदत्त जी से ले रहा हूँ.
जिस सामाजिक व्यवस्था में हम हैं. वो मुख्यतः दो रास्तों से आती है.
और दोनों में कनफ्लिक्ट है. कुश्ती है.
दोनों गुत्थम-गुत्था हैं. कुश्ती क्या है MMA फाइट है.
दो लहरों की टक्कर है.
इस व्यवस्था का एक हिस्सा आता है तथा-कथित धर्मों से.
ईसाईयत में पहले चर्च और कोर्ट एक ही होते थे. "जोन ऑफ़ आर्क" को जिंदा जला दिया जाने का कानूनी फैसला चर्च से ही दिया गया था. कानून कोई धर्म से अलग नहीं था.
मुस्लिम समाज की व्यवस्था कहाँ से आती है. कुरान से.
मुस्लिम समाज का कानून कहाँ से आता है? कुरान से.
शरियत क्या है? कुरान से निकला कायदा-कानून.
सिक्खी में भी "रहत मर्यादा" का कांसेप्ट है, जो गुरुओं की शिक्षाओं से आता है.
क्या है मेरा पॉइंट?
पॉइंट यह है कि तथाकथित धर्मों से समाज में एक व्यवस्था निकलती है. कानून निकलता है. राजनीति निकलती है. यह एक लहर है.
एक दूसरी लहर है. इस लहर से भी एक सामाजिक व्यवस्था निकलती है.
इस लहर में सुकरात, प्लेटो, अरस्तु जैसे फलसफी शामिल हैं. इसमें शेक्सपियर, ऑस्कर वाइल्ड, दोस्तोवस्की, प्रेम चंद मुंशी, खुशवंत सिंह जैसे साहित्यकार हैं. इसमें अर्थ-शास्त्री शामिल हैं. इसमें समाज-शास्त्री शामिल हैं. इसमें डार्विन जैसे वैज्ञानिक हैं. इसमें फ्रायड जैसे मनो-वैज्ञानिक हैं. यह व्यवस्था जड़ नहीं है. यह चलायमान है. यह बदलाव का स्वागत करती है. यह बदलाव लाती है. बदलाव के साथ बदलती है. Change is the only Constant.
जो लहर धर्मों से आती है, वो जड़ है और इन्सान को जड़ ही बनाये रखना चाहती है. वो हर तरह के बदलाव का विरोध करती है.
सबसे ज्यादा जड़ इस्लाम है. "कुरान आसमान से उतरी इलाही किताब है. उससे इतर कुछ नहीं हो सकता. आखिरी पैगम्बर हो चुके."
बाकी समाजों ने फिर भी थोड़ी-बहुत जड़ता छोड़ दी है. जैसे ईसाईयत ने बाकायदा "जोन ऑफ़ आर्क" को जलाने के लिए माफी माँगी. गलीलियो को चर्च में बेईज्ज़त करने के लिए माफी माँगी.
सिक्खी में कृपाण रखना शामिल है लेकिन फिर छोटी सी प्रतीक रुपी कृपाण रखने पे रज़ामंदी दिखा दी.
लेकिन आपको फिर भी मुस्लिम औरतें बुरका और सिक्ख पगड़ी न उतारने की जिद्द करते दीखते हैं.
तो यह है टक्कर.
एक लहर विश्वास पर टिकी है
तो
दूजी विचार पर.
एक लहर किसी किताब को ग्रन्थ मान कर वहीं रुक चुकी है
तो
दूजी हर किताब पर चैलेंज स्वीकार करती है.
एक लहर महान शख्सियतों पर टीका-टिपण्णी पर क़त्ल तक करने पर उतारू है
तो
दूजी हर आलोचना का स्वागत करती है.
यह है, "दो लहरों की टक्कर".
एक लहर को दक्षिण मार्ग
और
दूजी को वाम मार्ग
कहा जाता है.
समाज पर हावी विचारधारा ने खुद को दक्षिण पंथी कहा
और
विपरीत विचार वालों को वामपंथी कहा है हमेशा.
Right is right
and
left is wrong.
यह है, "दो लहरों की टक्कर".
धर्मों से सामाजिक व्यवस्था में जो आता है, वो गतिरोध पैदा करता है. सारी दिक्कत ही यही है.
हम अपने साहित्यकार की नहीं सुनते,
समाज शास्त्री की नहीं गुणते,
वैज्ञानिक की नहीं मानते,
मनो-वैज्ञानिक की बात नहीं जानते.
हम इनको बहुत कम सम्मान देते हैं.
हम इन पर बहुत कम ध्यान देते हैं.
यह है, "दो लहरों की टक्कर".
सुरेन्द्र मोहन पाठक साहेब की आत्म-कथा पढ़ रहा था.
उसमें एक किस्सा कुछ-कुछ यूँ है.
एक नौजवान रोज़गार दफ्तर नौकरी मांगने का आवेदन करने जाता है.
उससे पूछा जाता है, "क्या करते हो?"
तो उसका जवाब है,
"कहानी लिखता हूँ,
कविता कहता हूँ,
नाटक खेलता हूँ."
"उसके अलावा क्या करते हो?"
"कुछ नहीं."
"कहानी, कविता और नाटक मात्र के लिए कोई नौकरी नहीं है, कोई सैलरी नहीं है."
"तो फिर प्रेम चंद को क्यों पढ़ाते हो?
निराला को क्यों गाते हो?
भगवती चरण वर्मा को क्यों समझाते हो?
पढ़ाते हो तो पढाने से क्यों कमाते हो?
अगर साहित्य लिखना कोई काम नहीं तो साहित्य पढ़ाना काम कैसे हो गया?"
मुझे याद है. मैं बठिंडा के 'महावीर सनातन धर्म' पब्लिक स्कूल में था. दसवीं में स्कूल में टॉप किया. लेकिन तब तक मुझे साहित्य, फिलोसोफी, समाज विज्ञान जैसी चीज़ों को पढ़ने-समझने का कीड़ा काट चुका था.
कीड़ा नहीं सांप था.
सांप नहीं सांप का बाप था.
सो मैंने जान-बूझ कर आर्ट्स लिया. क्यों? चूँकि मुझे साहित्य पढना था. नतीजा ? मेरी आर्ट्स की पढाई से, साहित्य की पढ़ाई से मुझे आज तक चवन्नी की कमाई नहीं हुई. जबकि मेरे से कहीं फिस्सडी छात्र बढ़िया से फिट हो गए.
हम धर्म की बकवास-बाज़ी करने वालों को राजा जैसा जीवन देते हैं.
उन्हें महंगी कारें गिफ्ट कर देते हैं.
पञ्च तारा होटलों में शिफ्ट कर देते हैं.
धार्मिक स्थलों को सोने-चांदी से मढ़ देते हैं, लेकिन अपने कलाकारों, लेखकों को, फ़लसफ़ी को खड्डे-लैंड लगा के रहते हैं.
मिर्ज़ा गालिब उधार ले के गुज़र-बसर करते थे.
"कर्ज की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हांं
रंग लाएगी हमारी फाका-मस्ती एक दिन"
विन्सेंट वैनगोग ज़िन्दा थे तो अपनी एक पेंटिंग नहीं बेच पाए. पागल हो गए, आत्म-हत्या कर ली पागलपन में ही.
खैर, Godfather-१ में डॉन कोर्लेओन अपने बेटे को समझाता है, "जो भी तेरे साथ विरोधी गैंग के बॉस से मीटिंग फिक्स करवाएगा, वो गद्दार होगा." आप समझ लीजिये, जो भी धार्मिक मान्यताओं को सामाजिक व्यवस्था पर आरोपित करना चाहते है, गद्दार है. समाज में वैज्ञानिकता लाने के रास्ते में रोड़ा है.
ये जो दो लहरों की टक्कर है, MMA फाइट है, इसमें आपने किसे जितवाना है? सोच लीजिये.
कमेंट में बताईये
और
अगर इस लेख में से कुछ ले जाने लायक है तो उसे अपने साथ घर ले जाईये.
नमन....तुषार कॉस्मिक
इसी लेख को अगर सुनना हो तो लिंक मौजूद है:--
https://soundcloud.com/user-363372047/25-nov-939-pm2
Sunday, 24 November 2019
Holidays
Why holidays are called holidays?
Simple.
Because
working days are
so ugly,
so boring,
so monotonous,
so robotic,
so UNHOLY.
working days are
so ugly,
so boring,
so monotonous,
so robotic,
so UNHOLY.
Wednesday, 13 November 2019
"करतारपुर कॉरिडोर"
करतारपुर कॉरिडोर खुलने से बहुत खुश हैं भारतीय, ख़ास कर के पंजाबी, ख़ास करके सिक्ख.
अच्छी बात है. लेकिन कुछ शंकाएं हैं.
ये जो पाकिस्तानी प्यार उमड़ रहा है, ये जो इमरान और सिद्धू की गल-बहियाँ दिख रही हैं......ये जो मेहमान-नवाजी दिखाई जा रही है पाकिस्तान की तरफ से......कुछ शंकाएं हैं, गहन शंकाएं हैं.
पहली बात तो यह है कि पाकिस्तान इस्लामिक मुल्क है, इस्लाम की बुनियाद पर खड़ा किया गया मुल्क है. नाम ही है पाकिस्तान. मतलब जो मुस्लिम है वो ही पाक है, बाकी सब नापाक, अपवित्र, गंदे, काफ़िर, वाज़िबुल-क़त्ल.
इस्लाम में तो किसी भी और धर्म, दीन, मज़हब की गुंजाईश ही नहीं है. इस्लाम क्या है "ला इल्लाह-लिल्ल्हा, मुहम्मदुरूसूल अल्लाह". एक ही अल्लाह है, और बस मोहम्मद उसके रसूल हैं. कहानी खत्म. दी एंड. इसमें कहाँ किसी गुरु, किसी वाहेगुरु, किसी "एक ओंकार सतनाम" की गुंजाईश है?
यहाँ यह भी ध्यान रखिये कि एकेश्वर की परिकल्पना जो सिक्खी में है, भारत में है, वो इस्लाम में नहीं है. इस्लाम का अल्लाह बड़ा खतरनाक है. कुरान कहती ज़रूर है कि अल्लाह बड़ा दयालु है, लेकिन है नहीं. वो गैर-मुस्लिम के प्रति बहुत ही हिंसक है. सो "ईश्वर, अल्लाह तेरो नाम", गलत आख्यान है. ईश्वर से अल्लाह बिलकुल भिन्न है.
इस सब में सिवा मस्ज़िद के कहाँ किसी गुरूद्वारे की गुंजाईश है?
मैं सुनता हूँ अक्सर लोग कहते हैं कि थ्योरी कुछ अलग होती है और प्रैक्टिकल कुछ अलग होता है. मुझे हमेशा इस कांसेप्ट पर शंका रही है. मुझे लगता है कि थ्योरी ही अंततः प्रैक्टिकल होता है.
विचार ही कर्म में बदलते हैं.
नक्शा ही बिल्डिंग बनाता है.
और इस्लाम का नक्शा क्या है?
"सिर्फ इस्लाम ही असल दीन है,
बाकी सब काफिर हैं, हीन हैं."
फिर ये जो आपको करतारपुर में दिख रहा है, वो सब क्या है?
"वक्ती है नाज़रीन.
सियासत है हाज़रीन.
पैसे-धेले की तंगी है जनाब.
या शायद कश्मीर का कोई जवाब ....
ये जो कुछ भी है लेकिन बहुत खुश होने की वजह नहीं है."
हमेशा याद रखें,
इस्माल सिर्फ इस्लाम है
और
मुसलमान सिर्फ मुसलमान है.
और सिक्खों को यह सीखने कहीं और नहीं जाना है, अपना ही इतिहास देखना है. वो तो अपनी अरदास में बोलते हैं, "आरों से कटवाए गए, गर्म तवों पर बिठाए गए, खोपड़ियाँ उतरवा दी गईं.......लेकिन सिंहों ने धरम नहीं हारेया" और यह सब सच है.
खालसा का जन्म ही ज़बर के खिलाफ हुआ था, वो कोई हिन्दू के पक्ष में नहीं था, वो ज़ुल्म के खिलाफ़ था. खालसा का अर्थ है, ख़ालिस व्यक्ति. शुद्ध-बुद्ध. संत सिपाही. वो किसी भी जबर के खिलाफ खड़ा होता है. और सिक्खों का इतिहास भी यही रहा है (सिर्फ चौरासी के आगे-पीछे का कुछ दौर-ए-दौरा छोड़ कर).
यह याद रखना चाहिए कि "पंज प्यारे" कौन थे? वो थे दया राम, धर्म दास, मोहकम चंद, हिम्मत राय, साहिब चंद. ये वो लोग थे जिन्होंने गुरु गोबिंद की आवाज़ पर अपनी जान कुर्बान करने की तैयारी दिखा दी थी. ये पहले पांच खालसे थे. ये कोई भी थे लेकिन मुस्लिम कदाचित नहीं थे.
यह याद रखना चाहिए कि जब खालसा पैदा हुआ तब ज़बर किस की तरफ से हो रहा था. ज़ालिम कौन था और ज़ुल्म किस पर हो रहा था? किसने गुरुओं को, उनके परिवारों को शहीद किया?
गुरु गोबिंद के बच्चे दीवार में ईंट-गारे की जगह प्रयोग किये गए. जिंदा बच्चे. जरा सोच कर देखिये. कल्पना करना भी मुश्किल. जिगर फट जाए. रूह काँप जाएगी.उनके दो और बेटे जंग में शहीद हो गए. उनके पिता को पहले ही शहीद कर दिया गया था. और वो खुद, शायद टेंट में सो रहे थे, तब अटैक किया गया था, मुस्लिम द्वारा ही मारे गए. कहते हैं कि बन्दा बहादुर के बच्चों के टुकड़े उनके मुंह में ठूंसे गए थे. बाबा दीप सिंह के बारे में कहा जाता है कि उनकी गर्दन कट गयी थी, वो फिर भी लड़ रहे थे.
सिंह न हो किसी के खिलाफ लेकिन कौन था सिंह के खिलाफ, हिन्दू के खिलाफ? मुसलमान. मुख्यतः मुसलमान जनाब.
मैं फिर से कहता हूँ, हमेशा थ्योरी समझनी चाहिए, प्रैक्टिकल अपने आप समझ आ जायेगा. मूर्ख हैं वो लोग जो कहते हैं कि थ्योरी सिर्फ थ्योरी हैं. न. इस्लाम की थ्योरी समझें.
इस्लाम की थ्योरी यह है कि
सिर्फ इस्लाम ही पाक-साफ़ है,
बाकी सब बकवास है.
वो थ्योरी कल भी वही थी और वो आज भी वही है और आगे भी वही रहेगी, चूँकि इस्लाम में किसी भी फेर-बदल की कोई गुंजाईश ही नहीं है.
और
इस्लामिक लोग सिंहों के उद्भव से पहले भी गैर-मुल्सिम पर आक्रमण कर रहे थे, और आज भी कर रहे हैं और पूरी दुनिया में कर रहे हैं.
मुसलमान का
भारत में हिन्दू से दंगा है,
बर्मा में बौद्ध से अडंगा है,
फलस्तीन में यहूदियों से पंगा है,
यज़ीदी लड़कियों को कर दिया नंगा है.
यूरोप का कानून बदलना है इनको, चूँकि शरिया ही चंगा है.
वैसे बाकी सब लड़ाके हैं, बस इस्लाम अमन-पसंद है, इस्लाम बहुत ही भला है, बहुत चंगा है.
और मोहम्मद आखिरी पैगम्बर हो चुके. बात खत्म.
अब आपके गुरु कहाँ टिकेंगे?
कुरान...इलाही किताब. उतर चुकी आसमान से. बस.
आप कहते रहो कि गुरुबानी धुर की बाणी है. मुसलमान कैसे मानेंगे?
न. थ्योरी को समझें. सब समझ आ जायेगा.
वहां पाकिस्तान में तो सूफी संतों की मजारों पर बम फोड़े जाते हैं. मालूम क्यों? चूँकि सूफियों को इस्लाम से बाहर माना जाता है, इस्लाम के खिलाफ माना जाता है. आप मानते रहो कि सूफी मुस्लिम थे, मुस्लिम नहीं मानते और सही भी है. सूफी इस्लाम के खिलाफ ही थे, इस्लाम में से निकले विद्रोही थे.
करतार-पुर कॉरिडोर खुलने की बधाइयां दे तो रहे हैं आप पाकिस्तान को, यह भी समझिये कि सत्तर सालों तक यह बंद ही क्यों था? यह बंद इसलिए था चूँकि पाकिस्तान पाकिस्तान है और आप नापाकिस्तान हैं.
मुझे बहुत उम्मीद नहीं कि ये खुशियाँ बहुत लम्बे दौर तक टिकने वाली हैं. ख़ुशी होगी मुझे अगर मैं गलत साबित हुआ तो.
नोट:- कृपया समझ लीजिये, इस पोस्ट में मैंने कहीं यह सिद्ध करने का प्रयास नहीं किया है कि सिक्ख हिन्दू हैं या फिर हिन्दू या हिन्दुस्तान के लिए बनाये गए.
नमन....तुषार कॉस्मिक
Friday, 8 November 2019
प्रभात-फेरी
सुबह-सवेरे प्रभात-फेरी निकलनी है. गुरु पर्व है कोई. कोई चार बजे दरवाज़े पर भजन कीर्तन.
नींद हराम करेंगे. मेरी अधार्मिक भावनाओं पर चोट करेंगे.
साला कब समझोगे, तुम्हारा धर्म और लिंग कितना ही बढ़िया हो,
इसे सड़क पर नहीं फैलाना है,
इसका डंका पार्क में नहीं बजाना है,
फुटपाथ पर इसका लंगर नहीं चलाना है,
इसकी झांकियां नहीं निकालनी हैं?
इडियट.
"इस्लाम को अंतिम सलाम कैसे पहुंचे?"
मैं मोदी को एक स्टेज एक्टर से ज्यादा कुछ नहीं मानता. लेकिन सवाल यह है कि कोई भी सरकार आये, यह भरपूर कोशिश होनी चाहिए कि इस्लाम हारना चाहिए.....और ऐसा पूरे दुनिया में होना चाहिए.
बाकी साथ-साथ हर धर्म को झन्ड करते रहें. सब माफिया हैं. इस्लाम सबसे बड़ा.
सब एक दूजे को परोक्ष रूप से सपोर्ट करते हैं. इनका आपसी विरोध भी परोक्ष रूप से दूजे की सपोर्ट बन जाता है.
हिन्दू कट्टर बन जाता है, इस्लाम जैसा ही बन जाता है चूँकि उसे इस्लाम का खतरा महसूस होता है.
और इस्लाम तो है ही छद्म-सेना. मोहम्मद की सेना. यह कोई धर्म नहीं है. यह धरम का भरम है.
यह बस सब तरह की सोच-विचार को निगल कर इस्लामिक सोच को आच्छादित करने का सिस्टम है. और इस सिस्टम में काफिर की हत्या, बलात्कार, लूट-पाट सब जायज़ है.
पूरी दुनिया से इसे उखाड़ फ़ेंकना ज़रूरी है. दुनिया ने बहुत से खतरे देखे हैं. इस्लाम भी बड़ा खतरा है. पिछले चौदह सौ सालों से दुनिया को इसने खूब जंगें दी हैं.
बस. अब इसे विदा कीजिये.
कुरान की एक-एक आयत को तर्क की कसौटी पर कसें.
ऐसा नहीं कि मुसलमान कोई समझ जायेगा. न. वो बहुत मुश्किल है. लगभग असम्भव.
बाकी दुनिया समझ जाए, सावधान हो जाए तो बहुत मसला हल हो सकता है. जैसे आज बहुत मुल्क मुस्लिम को एंट्री देने में हिचक रहें हैं.
क्यों?
चूँकि वो इस्लाम का खतरा समझ रहे हैं. यह खतरा हरेक को समझना चाहिए. यह समझ ऐसे हालात पैदा करेगी कि इस्लाम को विदा होना पड़ेगा.
नमन.....तुषार कॉस्मिक
वर्दी वाला गुंडा
"पुलिस की ठुकाई"
वैसे तो मुझे पुलिस और वकील दोनों से ही कोई हमदर्दी नहीं है लेकिन इसमें पुलिस से कहीं ज्यादा, बहुत ज्यादा चिढ है. वकील पैसा ऐंठते हैं. जायज़-नाजायज़ हर तरीके से. और कोर्ट परिसर में गुंडा-गर्दी भी करते हैं. लेकिन पुलिस नाजायज़ पैसा वसूलती है और हर जगह गुंडागर्दी करती है.
पुलिस माफिया है.थाणे इनकी बदमाशी के अड्डे हैं, जहाँ पुलिस किसी को भी अँधा-धुंध कूट सकती है, अपंग कर सकती है, क़त्ल कर सकती है.
डंडा इनको समाज ने दिया अपनी रक्षा के लिए लेकिन वही डंडा ये चलाते हैं समाज को धमकाने के लिए, रिश्वत वसूलने के लिए.
यकीन जानो अधिकांश अपराध होते ही इसलिए हैं कि पुलिस हरामखोर है.
ये पब्लिक के सेवक हैं? रक्षक हैं?
नहीं. ये भक्षक हैं. दो-चार सौ में बिक जाते हैं, सरे-राह. यह औकात हैं इनकी.
"अगर जनता गलत करती है तो तुम करो न कानूनी कार्रवाई. रिश्वत ले लेते हो तो फिर पब्लिक का वही गलत काम सही हो जाता है क्या? जब तक रिश्वत नहीं गयी जेब में, आंखे तरेरते हो. जेब गर्म होते ही नर्म हो जाते हो."
तीस हजारी बवाल के बाद अब ये मानवाधिकार की दुहाई देते फिर रहे हैं. आज बीवी बच्चे सड़क पर उतार लाये हैं.
एक फिल्म देखी थी जिसमें विलेन सारी व्यवस्था पर कब्जा कर लेता है. पुलिस कमीश्नर को उल्टा लटका देता है. न्यायधीश पर मुकदमा चलाता है और सारी (कु)व्यव्य्स्था की ऐसी-तैसे कर देता है.
अब मैं सोचता हूँ कि वो विलेन था कि हीरो? सब गड्ड-मड्ड हो गया. आपको पता है "बैटमैन" जितना मशहूर है, उससे ज़्यादा उसका विलेन "जोकर " मशहूर है? उसके डायलाग लोग ढूंढ-ढूंढ पढ़ते हैं.
अब वेस्ट की बहुत सी फिल्मों के विलेन भी अपना एक फलसफा लिए होते हैं और यह फैसला करना मुश्किल हो जाता है कि वो विलन हैं या हीरो. हीरो विलेन लगता है और विलेन हीरो.
ऐसी ही व्यवस्था तुम्हारी है. पुलिस वाले रक्षक नहीं, भक्षक हैं.
तुमने उसे वर्दी दी. हाथ में डंडा दिया. कमर पे गन लटकाई. किसलिए? अपनी रक्षा के लिए. पर वो तुम्हें ही धमकाता रहता है. मिस-गाइड करता है. तुमसे रिश्वत लेता है.
ऐसी की तैसी इसकी. समझ लो अच्छे से, उसकी ताकत तुम्हारी दी हुयी है. छीन लो उससे यह ताकत जो वो तुम्हारे ही खिलाफ इस्तेमाल करता है.
अभी तो तीस हजारी में कुछ खास हुआ भी नहीं है. दो-चार पुलिस वाले पिटे हैं तो वकील भी पिटे हैं. वकीलों पर तो गोलियां भी चली हैं. और पुलिस वाले चले मानवाधिकार चमकाने.
साला तुम मानव कहाँ हो? तुम तो पुलिस वाले हो. तुमने आज तक समाज को सिर्फ पीटा है. अभी तो तुम्हारी पिटाई ठीक से शुरू भी नहीं हुई. और लगे बिलबिलाने.
कितने ही लोगों को तुमने जेल पहुंचा दिया, नाजायज़ केस बना कर. कितने ही लोगों को ठाणे में ले जाकर पीट-पीट कर अपंग कर दिया. कितनों को क़त्ल कर दिया थाणे में. कितनों की रोज़ तुम बिन वजह बे-इज्ज़ती करते हो. कितनों ही से रिश्वत लेते हो.
तुम मानव हो? न. न. तुम पुलिस वाले हो. वर्दी-धारी. अभेद वर्दी-धारी. वर्दी-धारी गुंडे. वर्दी वाले गुंडे.
हमें ख़ुशी हैं कि तुम पिटने लगे हो. मैं बस खुल्ले में कह रहा हूँ. एक सर्वे करवा लो. चाहो तो एक गुप्त वोटिंग करवा लो. लगभग हर वोट तुम्हारे खिलाफ़ जायेगा.पुलिस की पिटाई से समाज खुश है लेकिन यह कोई हल नहीं है. हम तुम्हारी वर्दी पर कैमरे लगवाना चाहते हैं. हम पुलिस स्टेशन पर कमरे लगवाना चाहते हैं. हम हर उस जगह कैमरे चाहते हैं जहाँ तुम मौजूद होवो. फिर देखते हैं तुम जनता से 'ओये' भी कैसे कहते हो. जरा बदतमीजी की तो तुम्हारी वर्दी छीन ली जाएगी और तुम्हें लाखों जुर्माना ठोका जायेगा. अबे ओये, समाज विज्ञान के ठेकेदारों, अक्ल के अन्धो, अगर किसी को ताकत देते हो तो उस पर कण्ट्रोल कैसे रखोगे यह भी सोचो. तुमने पुलिस को ताकत दी. असीमित. लेकिन कण्ट्रोल तुम्हारा है नहीं तो वो तो करेगा ही मनमानी. मैं हैरान हो जाता हूँ कि एक थर्ड-रेटेड इन्सान कैसे रौब मार रहा होता है अच्छे खासे लोगों पर! दिल्ली में तो पुलिस बात ही तू-तडांग से करती है. बदतमीज़ी अपना जन्म-सिद्ध अधिकार समझती है. यह मनमानी दिनों में रोक सकते हो तुम चूँकि पुलिस के पास अपने आप में कोई ताकत है ही नहीं. सो थोडा पिटने दो पुलिस को, यह शुभ है समाज के लिए. थोडा और पिटने दो पुलिस को, यह और शुभ है समाज के लिए. लेकिन साथ में इनकी वर्दी पर, थानों पर, ठिकानों, पाखानों पर सब जगह कैमरे फिट करो. तब अक्ल ठिकाने आ जाएगी, है तो पिद्दी भर, वो भी भ्रष्ट, लेकिन ठिकाने आ जाएगी. कण्ट्रोल समाज के हाथ आ जायेगा. और समाज को सही अर्थों में रक्षक मिल जायेगा. नमन....तुषार कॉस्मिक
हमें ख़ुशी हैं कि तुम पिटने लगे हो. मैं बस खुल्ले में कह रहा हूँ. एक सर्वे करवा लो. चाहो तो एक गुप्त वोटिंग करवा लो. लगभग हर वोट तुम्हारे खिलाफ़ जायेगा.पुलिस की पिटाई से समाज खुश है लेकिन यह कोई हल नहीं है. हम तुम्हारी वर्दी पर कैमरे लगवाना चाहते हैं. हम पुलिस स्टेशन पर कमरे लगवाना चाहते हैं. हम हर उस जगह कैमरे चाहते हैं जहाँ तुम मौजूद होवो. फिर देखते हैं तुम जनता से 'ओये' भी कैसे कहते हो. जरा बदतमीजी की तो तुम्हारी वर्दी छीन ली जाएगी और तुम्हें लाखों जुर्माना ठोका जायेगा. अबे ओये, समाज विज्ञान के ठेकेदारों, अक्ल के अन्धो, अगर किसी को ताकत देते हो तो उस पर कण्ट्रोल कैसे रखोगे यह भी सोचो. तुमने पुलिस को ताकत दी. असीमित. लेकिन कण्ट्रोल तुम्हारा है नहीं तो वो तो करेगा ही मनमानी. मैं हैरान हो जाता हूँ कि एक थर्ड-रेटेड इन्सान कैसे रौब मार रहा होता है अच्छे खासे लोगों पर! दिल्ली में तो पुलिस बात ही तू-तडांग से करती है. बदतमीज़ी अपना जन्म-सिद्ध अधिकार समझती है. यह मनमानी दिनों में रोक सकते हो तुम चूँकि पुलिस के पास अपने आप में कोई ताकत है ही नहीं. सो थोडा पिटने दो पुलिस को, यह शुभ है समाज के लिए. थोडा और पिटने दो पुलिस को, यह और शुभ है समाज के लिए. लेकिन साथ में इनकी वर्दी पर, थानों पर, ठिकानों, पाखानों पर सब जगह कैमरे फिट करो. तब अक्ल ठिकाने आ जाएगी, है तो पिद्दी भर, वो भी भ्रष्ट, लेकिन ठिकाने आ जाएगी. कण्ट्रोल समाज के हाथ आ जायेगा. और समाज को सही अर्थों में रक्षक मिल जायेगा. नमन....तुषार कॉस्मिक
Tuesday, 29 October 2019
बग-दादी
तुम लादेन मारो, बग-दादी मारो
या इनका दादा-दादी,
फर्क नहीं पड़ेगा.....
कोई और ले लेगा इनकी जगह.
वो सदियों से होता आया है.
पत्ते काटने से कुछ नहीं होगा.
जड़ काटो. जड़ कुरान है. कुरान पर हमला करो.
गाली-गलौच से नहीं. तर्क से. फैक्ट से.
और अब तो तुम्हारे पास हथियार है.
तुम्हारा मोबाइल फोन. यह तुम्हारा यार है.
इससे करो मुकाबला
ORIGINALITY
Originality is never 100% original, yet it is ORIGINAL.
How? Lemme explain.
A computer is what?
It is somewhat typewriter, somewhat calculator, somewhat TV, somewhat this, somewhat that.......
Right?
Can you say that there is nothing original in the computer because it is TV, Calculator, typewriter, everything Old, everything stale?
No dear. Though old things are there, yet it is NEW. Fresh. A never before thing. ORIGINAL.
That is what Originality is.
Tuesday, 22 October 2019
जब तक सीनिमा है, तब तक लोग चूतिया बनते रहेंगे
"जब तक सीनिमा है, तब तक लोग चूतिया बनते रहेंगे", यह महाज्ञान हमें सीनिमा से ही मिलता है (गैंग्स ऑफ़ वासेपुर).
"आप को टीवी देखना ही नहीं चाहिए" यह ज्ञान भी टीवी पर रवीश कुमार से मिलता है.
"और सोशल मीडिया से क्रांति नहीं आ सकती" यह जबर्दस्त ज्ञान भी हमें सोशल मीडिया पर महा-एक्टिव मित्रगण से मिलता है.
MORAL:-- पोस्ट करते रहें.
"आप को टीवी देखना ही नहीं चाहिए" यह ज्ञान भी टीवी पर रवीश कुमार से मिलता है.
"और सोशल मीडिया से क्रांति नहीं आ सकती" यह जबर्दस्त ज्ञान भी हमें सोशल मीडिया पर महा-एक्टिव मित्रगण से मिलता है.
MORAL:-- पोस्ट करते रहें.
बस अक्ल है तुम्हारी खोई-खोई
न कोई गौरी मां है, न काली
न झाड़ों वाली, न पहाड़ों वाली
न डंडे वाली, न झंडे वाली,
न अवतार, न कोई पीर, न पैगम्बर,
खाली है अम्बर, खाली है अम्बर
न जहनुम, न जन्नत
न पूरी होगी कोई मन्नत
सब व्यर्थ है
अनर्थ है, अनर्थ है
बस कोरी कथा है
तुम्हारी व्यथा है
न अल्लाह है, न भगवान है
पागल इन्सान है
कायनात हैरान है
न कोई देवता है, न देवी कोई
बस अक्ल है तुम्हारी खोई-खोई
न कोई चुड़ैल, न परी
बात खरी है, खरी-खरी
न कोई प्रेत, न है जिन्न कोई
बस अक्ल है तुम्हारी सोई-सोई
बस अक्ल है तुम्हारी खोई-खोई
नमन......तुषार कॉस्मिक
Tuesday, 10 September 2019
Qutab Minar Controversy: क्या मंदिर तोड़ कर बनवाई गई थी कुतुब मीनार?
मुसलमान बहुत दुखी हैं कि बाबरी मस्ज़िद तोड़ दी गई. और ओवेसी बंधु अकसर एक्शन के रिएक्शन की बात करते हैं. क्या कोई मुसलमान यह देखने को राज़ी है कि कितने ही मंदिर तोड़-तोड़ कर मस्जिदें बनाई गईं.
क़ुतुब मीनार असल में क्या है?
सपरिवार क़ुतुब मीनार जाना हुआ. बहुत पहले पी. एन. ओक. साहेब की किताब पढ़ी थी, "भारतीय इतिहास की भयंकर भूलें", जिसमें वो ज़िक्र करते हैं कि बहुत सी ऐतिहासिक इमारतें जो मुगलों की बनाई कही जाती हैं, वो असल में हिन्दू राजाओं ने बनवाई थी. इन्हीं इमारतों में वो क़ुतुब मीनार का ज़िक्र भी करते हैं. मुझे उनके दिए कोई भी तर्क याद नहीं. लेकिन आज जब वहां जाना हुआ तो उनकी बहुत याद आई.
"लौह स्तम्भ" के प्रांगण में घुसने से पहले ही जो 'परिचय पत्थर' पर लिखा है उसी ने दिमाग में उथल-पुथल मचा दी.
लिखा है, “कुवुतल इस्लाम ( इस्लाम की शक्ति) नाम से प्रसिद्ध यह इमारत भारत में प्राचीनतम मस्ज़िद है. इसके दालान में प्रयुक्त खम्बे और दूसरी सामग्री सताईस हिन्दू और जैन मंदिर ध्वस्त करके प्राप्त की गई. मुख्य इमारत के सामने पांच मेहराबों की पंक्ति बाद में लगाई गई. ताकि इसमें इस्लामिक वास्तुकला की विशेषता दृष्टिगोचर हो. इन मेहराबों पर अंकित धार्मिक लेख अरबी ढंग का अलंकरण है पर इनके गठन में हिन्दू शिल्प की छाप स्पष्ट है.”
यानि कि इतिहासकार मानते हैं कि मंदिर ध्वस्त करके मस्ज़िद बनाई गई. सबसे पहली मस्ज़िद ही भारत में मंदिर ध्वस्त करके बनाई गई, यह थी इस्लाम की शक्ति यानि 'कुवुतल इस्लाम'.
और हिन्दू शिल्प को अरबी वास्तुकला दर्शाने की बदमाशी की गई, यह थी इस्लाम की शक्ति यानि 'कुवुतल इस्लाम'.
और वो मस्ज़िद कहाँ से हो गई, उसके बीचों-बीच तो दो कब्रें हैं, कौन सी मस्ज़िद में ऐसा होता है? और अगर वो मस्ज़िद थी तो उसके बीचो- बीच "लौह स्तम्भ" का क्या काम? इस्लाम की शक्ति यानि 'कुवुतल इस्लाम' दिखाने को क्या?
और कौन सी मस्ज़िद ऐसे खम्बों पर बनाई जाती है जिन पर मंदिर की घंटियाँ उकेरी गई हों? इस्लाम की शक्ति यानि 'कुवुतल इस्लाम' दिखाने को क्या?
जब कभी आपका जाना हो वहां, तो सेल्फी लेने और फोटो निकालने से थोड़ा ज़्यादा दिमाग लगाइयेगा. ध्यान दीजियेगा, वहां क़ुतुब मीनार के इर्द- गिर्द जो प्रांगण खड़ा है, वो क़ुतुब मीनार से सदियों पुराना दिख रहा है, उसकी शिल्प कला बिलकुल भिन्न है. और 'लौह स्तम्भ' पर कोई भारतीय लिपि लिखी है, शायद ब्राह्मी और 'लौह स्तम्भ' के इर्द-गिर्द प्रांगण है वो भी क़ुतुब मीनार के समय से बहुत पुराना लगता है. और ध्यान से देखना, अर्ध- निर्मित या अर्ध- ध्वस्त मेहराबों के ऊपर-ऊपर जो पत्थर लगे हैं, सामने की तरफ, जिन पर अरबी/ उर्दू की इबारत लिखी हैं, वो साफ़ ऐसा प्रतीत होते हैं कि बाद में लगे हैं और उनके पीछे के पत्थर कहीं पुराने हैं. और शायद यही इतिहासकार ऊपर कह रहे हैं.
अगर कभी अजमेर जाएँ तो देखें , वहां "अढाई दिन का झोंपड़ा" नाम से एक ऐसी ही आधी अधूरी सी इमारत है. यह एक मंदिर था जिसे तोड़ कर अढाई दिन में मस्ज़िद जैसा रूप देने का प्रयास किया गया. जो न मंदिर रहा न मस्ज़िद. इसके प्रांगण में तो मंदिर के भग्न- अवशेष भी रखे हैं. और लिखा है वहां के परिचय पत्थर पर कि यह निर्माण मंदिर तोड़ कर किया गया.
क्यूँ ज़िक्र कर रहा हूँ "अढाई दिन का झोंपड़ा" का? वजह है. क़ुतुबमीनार के साथ खड़े लौह स्तम्भ के गिर्द निर्माण को देखिये और "अढाई दिन का झोंपड़ा" को भी.
आपको Dejavu जैसा कुछ अहसास होगा. ऐसा लगेगा कि आप ने जो देखा है, वैसा ही कुछ आप फिर से देख रहे हैं. और इन निर्माण के पीछे की कहानी? वो तो इतिहासकार मान रहे हैं कि काफी कुछ एक जैसी है.
सवाल यह है कि लौह-स्तम्भ हिन्दू निर्माण, उसके इर्द गिर्द प्रांगण हिन्दू निर्माण, क़ुतुब मीनार के इर्द गिर्द का प्रांगण हिन्दू निर्माण तो फिर क़ुतुब मीनार कैसे इस्लामिक निर्माण हो सकता है? सोच के देखिये. मुझे यहीं P.N. OAK साहेब की ज़रूरत महसूस हो रही है. मुझे पूरी-पूरी शंका है कि क़ुतुब मीनार भी कहीं बहुत पहले भारतीय राजाओं ने बनवाया हो सकता है और बाद में इसे इस्लामिक दिखाने के लिए ऊपर से अरबी/ उर्दू लिखे पत्थर जड़ दिए गए. यहाँ ध्यान रहे, क़ुतुब के सामने खड़े बड़े-बड़े मेहराबों के साथ ऐसा ही किया गया, इतिहासकार मान चुके हैं कि ऐसा किया गया था और इंट्रोडक्टरी पत्थर पर लिख चुके हैं.
तो क्या किया जाए? मेरे ख्याल में विज्ञान की मदद ली जाए, P.N. OAK साहेब क्या कहते हैं, वो पढ़ा जाए. पत्थरों के कार्बन टेस्ट या फिर कोई भी टेस्ट जो उनकी उम्र बता सकें, वो किये जाएं, कुछ नया निकल सकता है. याद रखियेगा मेरी बात.
अगर हिन्दू मांग रहे हैं कोई दो-चार मस्जिदें कि यह हमारे राम, कृष्ण, शिव से जुड़ी हैं, तो दे क्यूँ नहीं दी सहर्ष मुसलमान ने? नहीं, इनको तो विरोध करना है. फिर कहते हैं कि गुजरात क्यूँ हुआ? वो तीन मस्जिद दे दोगे तो बड़ा कोई तोप चल जायेगी, इस्लाम खतरे में आ जाएगा? उल्टा इस्लाम की शान बढ़ती. हिन्दू मुस्लिम में प्रेम बढ़ता. हिन्दू खुद तुम्हें कितनी ही मस्ज़िद बना के अपने हाथ से देता.
नहीं, मुसलमान को मिला ओवेसी जैसा कचरा. जो पन्द्रह मिनट में हिन्दूओं को खत्म करने की बात करता है.
कभी मुसलमानों ने थाणे जलाए, कि ओवेसी ने गलत कहा है? बस कमलेश तिवारी ने कुफ्र तौल दिया है.
"बाबरी गिरने पर खूब परेशान हैं मुसलमान
कभी बोलते तो जब तोडा गया था बामियान"
नमन......तुषार कॉस्मिक
क़ुतुब मीनार असल में क्या है?
सपरिवार क़ुतुब मीनार जाना हुआ. बहुत पहले पी. एन. ओक. साहेब की किताब पढ़ी थी, "भारतीय इतिहास की भयंकर भूलें", जिसमें वो ज़िक्र करते हैं कि बहुत सी ऐतिहासिक इमारतें जो मुगलों की बनाई कही जाती हैं, वो असल में हिन्दू राजाओं ने बनवाई थी. इन्हीं इमारतों में वो क़ुतुब मीनार का ज़िक्र भी करते हैं. मुझे उनके दिए कोई भी तर्क याद नहीं. लेकिन आज जब वहां जाना हुआ तो उनकी बहुत याद आई.
"लौह स्तम्भ" के प्रांगण में घुसने से पहले ही जो 'परिचय पत्थर' पर लिखा है उसी ने दिमाग में उथल-पुथल मचा दी.
लिखा है, “कुवुतल इस्लाम ( इस्लाम की शक्ति) नाम से प्रसिद्ध यह इमारत भारत में प्राचीनतम मस्ज़िद है. इसके दालान में प्रयुक्त खम्बे और दूसरी सामग्री सताईस हिन्दू और जैन मंदिर ध्वस्त करके प्राप्त की गई. मुख्य इमारत के सामने पांच मेहराबों की पंक्ति बाद में लगाई गई. ताकि इसमें इस्लामिक वास्तुकला की विशेषता दृष्टिगोचर हो. इन मेहराबों पर अंकित धार्मिक लेख अरबी ढंग का अलंकरण है पर इनके गठन में हिन्दू शिल्प की छाप स्पष्ट है.”
यानि कि इतिहासकार मानते हैं कि मंदिर ध्वस्त करके मस्ज़िद बनाई गई. सबसे पहली मस्ज़िद ही भारत में मंदिर ध्वस्त करके बनाई गई, यह थी इस्लाम की शक्ति यानि 'कुवुतल इस्लाम'.
और हिन्दू शिल्प को अरबी वास्तुकला दर्शाने की बदमाशी की गई, यह थी इस्लाम की शक्ति यानि 'कुवुतल इस्लाम'.
और वो मस्ज़िद कहाँ से हो गई, उसके बीचों-बीच तो दो कब्रें हैं, कौन सी मस्ज़िद में ऐसा होता है? और अगर वो मस्ज़िद थी तो उसके बीचो- बीच "लौह स्तम्भ" का क्या काम? इस्लाम की शक्ति यानि 'कुवुतल इस्लाम' दिखाने को क्या?
और कौन सी मस्ज़िद ऐसे खम्बों पर बनाई जाती है जिन पर मंदिर की घंटियाँ उकेरी गई हों? इस्लाम की शक्ति यानि 'कुवुतल इस्लाम' दिखाने को क्या?
जब कभी आपका जाना हो वहां, तो सेल्फी लेने और फोटो निकालने से थोड़ा ज़्यादा दिमाग लगाइयेगा. ध्यान दीजियेगा, वहां क़ुतुब मीनार के इर्द- गिर्द जो प्रांगण खड़ा है, वो क़ुतुब मीनार से सदियों पुराना दिख रहा है, उसकी शिल्प कला बिलकुल भिन्न है. और 'लौह स्तम्भ' पर कोई भारतीय लिपि लिखी है, शायद ब्राह्मी और 'लौह स्तम्भ' के इर्द-गिर्द प्रांगण है वो भी क़ुतुब मीनार के समय से बहुत पुराना लगता है. और ध्यान से देखना, अर्ध- निर्मित या अर्ध- ध्वस्त मेहराबों के ऊपर-ऊपर जो पत्थर लगे हैं, सामने की तरफ, जिन पर अरबी/ उर्दू की इबारत लिखी हैं, वो साफ़ ऐसा प्रतीत होते हैं कि बाद में लगे हैं और उनके पीछे के पत्थर कहीं पुराने हैं. और शायद यही इतिहासकार ऊपर कह रहे हैं.
अगर कभी अजमेर जाएँ तो देखें , वहां "अढाई दिन का झोंपड़ा" नाम से एक ऐसी ही आधी अधूरी सी इमारत है. यह एक मंदिर था जिसे तोड़ कर अढाई दिन में मस्ज़िद जैसा रूप देने का प्रयास किया गया. जो न मंदिर रहा न मस्ज़िद. इसके प्रांगण में तो मंदिर के भग्न- अवशेष भी रखे हैं. और लिखा है वहां के परिचय पत्थर पर कि यह निर्माण मंदिर तोड़ कर किया गया.
क्यूँ ज़िक्र कर रहा हूँ "अढाई दिन का झोंपड़ा" का? वजह है. क़ुतुबमीनार के साथ खड़े लौह स्तम्भ के गिर्द निर्माण को देखिये और "अढाई दिन का झोंपड़ा" को भी.
आपको Dejavu जैसा कुछ अहसास होगा. ऐसा लगेगा कि आप ने जो देखा है, वैसा ही कुछ आप फिर से देख रहे हैं. और इन निर्माण के पीछे की कहानी? वो तो इतिहासकार मान रहे हैं कि काफी कुछ एक जैसी है.
सवाल यह है कि लौह-स्तम्भ हिन्दू निर्माण, उसके इर्द गिर्द प्रांगण हिन्दू निर्माण, क़ुतुब मीनार के इर्द गिर्द का प्रांगण हिन्दू निर्माण तो फिर क़ुतुब मीनार कैसे इस्लामिक निर्माण हो सकता है? सोच के देखिये. मुझे यहीं P.N. OAK साहेब की ज़रूरत महसूस हो रही है. मुझे पूरी-पूरी शंका है कि क़ुतुब मीनार भी कहीं बहुत पहले भारतीय राजाओं ने बनवाया हो सकता है और बाद में इसे इस्लामिक दिखाने के लिए ऊपर से अरबी/ उर्दू लिखे पत्थर जड़ दिए गए. यहाँ ध्यान रहे, क़ुतुब के सामने खड़े बड़े-बड़े मेहराबों के साथ ऐसा ही किया गया, इतिहासकार मान चुके हैं कि ऐसा किया गया था और इंट्रोडक्टरी पत्थर पर लिख चुके हैं.
तो क्या किया जाए? मेरे ख्याल में विज्ञान की मदद ली जाए, P.N. OAK साहेब क्या कहते हैं, वो पढ़ा जाए. पत्थरों के कार्बन टेस्ट या फिर कोई भी टेस्ट जो उनकी उम्र बता सकें, वो किये जाएं, कुछ नया निकल सकता है. याद रखियेगा मेरी बात.
अगर हिन्दू मांग रहे हैं कोई दो-चार मस्जिदें कि यह हमारे राम, कृष्ण, शिव से जुड़ी हैं, तो दे क्यूँ नहीं दी सहर्ष मुसलमान ने? नहीं, इनको तो विरोध करना है. फिर कहते हैं कि गुजरात क्यूँ हुआ? वो तीन मस्जिद दे दोगे तो बड़ा कोई तोप चल जायेगी, इस्लाम खतरे में आ जाएगा? उल्टा इस्लाम की शान बढ़ती. हिन्दू मुस्लिम में प्रेम बढ़ता. हिन्दू खुद तुम्हें कितनी ही मस्ज़िद बना के अपने हाथ से देता.
नहीं, मुसलमान को मिला ओवेसी जैसा कचरा. जो पन्द्रह मिनट में हिन्दूओं को खत्म करने की बात करता है.
कभी मुसलमानों ने थाणे जलाए, कि ओवेसी ने गलत कहा है? बस कमलेश तिवारी ने कुफ्र तौल दिया है.
"बाबरी गिरने पर खूब परेशान हैं मुसलमान
कभी बोलते तो जब तोडा गया था बामियान"
नमन......तुषार कॉस्मिक
Thursday, 22 August 2019
सेक्युलरिज्म
सेक्युलरिज्म दुनिया के सबसे कीमती कांसेप्ट में से है. यह वही है जो मैंने लिखा कि सबको अपनी अपनी मूर्खताओं के साथ जीने का हक़ होना चाहिए, तब तक जब तक आप दूजों की जिंदगियों में दखल न दो.
यह जो संघी इसके खिलाफ हैं, वो इडियट हैं. उनमें और मुस्लिम में ख़ास फर्क नही. वो कहते हैं कि हिंदुत्व सेक्युलर है. By Default. नहीं है. होना चाहिए. लेकिन नहीं है. मैं राम के खिलाफ बोलना चाहता हूँ कृष्ण के भी. काली माता के भी. गौरी माता के भी. झंडे वाली माता के भी. कुत्ते वाली माता के भी. मुझे मन्दिर देंगे बोलने के लिए? नहीं देंगे.
सो टारगेट सेकुलरिज्म होना चाहिए किसी भी आइडियल समाज का. लेकिन यह देखने की बात है कि जो तबके/ दीन/ मज़हब By default हैं ही सेकुलरिज्म के खिलाफ. जैसे इस्लाम. उनको अगर आप सेकुलरिज्म के कांसेप्ट वाले समाज में डाल भी दोगे तो वो आपकी मूर्खता है. जैसे मैं नहीं हूँ हिन्दू. लेकिन अगर कोई मुझे हिन्दुत्व के कांसेप्ट में डाल भी देगा तो वो उसकी मूर्खता है. और यह गलती कर रहा है भारतीय समाज. और यह गलती दुनिया में और भी समाजों में हो रही है.
खतरनाक गलती है.
यह जो संघी इसके खिलाफ हैं, वो इडियट हैं. उनमें और मुस्लिम में ख़ास फर्क नही. वो कहते हैं कि हिंदुत्व सेक्युलर है. By Default. नहीं है. होना चाहिए. लेकिन नहीं है. मैं राम के खिलाफ बोलना चाहता हूँ कृष्ण के भी. काली माता के भी. गौरी माता के भी. झंडे वाली माता के भी. कुत्ते वाली माता के भी. मुझे मन्दिर देंगे बोलने के लिए? नहीं देंगे.
सो टारगेट सेकुलरिज्म होना चाहिए किसी भी आइडियल समाज का. लेकिन यह देखने की बात है कि जो तबके/ दीन/ मज़हब By default हैं ही सेकुलरिज्म के खिलाफ. जैसे इस्लाम. उनको अगर आप सेकुलरिज्म के कांसेप्ट वाले समाज में डाल भी दोगे तो वो आपकी मूर्खता है. जैसे मैं नहीं हूँ हिन्दू. लेकिन अगर कोई मुझे हिन्दुत्व के कांसेप्ट में डाल भी देगा तो वो उसकी मूर्खता है. और यह गलती कर रहा है भारतीय समाज. और यह गलती दुनिया में और भी समाजों में हो रही है.
खतरनाक गलती है.
आज़ादी - दो पहलु
१. "क्या हम में आज़ादी बर्दाशत करने का जिगरा है ?"
यूनान, मिश्र, रोम मिट गए सब जहाँ से.
यह सिर्फ सभ्यताएं ही नहीं मिटी, इनकी देवी-देवता भी मिट गए.
TROY फिल्म का दृश्य है, Achilles हमला करता है तो विरोधियों के देवता 'अपोलो' की मूर्ति का भी सर कलम कर देता है. यहाँ भारत में सोमनाथ के मन्दिर पर आक्रमण हुआ, फिर अनेक मंदिर गिरा कर मस्ज़िद बना दिए गए. किसका क्या बिगाड़ लिया इन देवताओं ने? कुछ नहीं.
कहना यह चाहता हूँ कि देवी-देवता भी हम इंसानों के साथ हैं.....हमारी वजह से हैं .....हमारे बनाए हैं.
भारत में कुछ ही मीलों की दूरी से बोली बदल जाते है....न सिर्फ बोली बदलती है....देवी-देवता भी बदल जाते हैं...ऐसे-ऐसे देवी-देवतायों के नाम है जिनको शायद ही उस इलाके से बहार किसी ने सुना हो.....जम्भेश्वर नाथ, मुक्तेश्वर नाथ...कुतिया देवी. झंडे वाली माता-डंडे वाली माता.
लेकिन बड़ी मान्यता होती है उन इलाकों में.
कुछ मज़ारों की, कुछ मंदिरों. कुछ गुरुद्वारों की ख़ास-ख़ास मान्यता होती है.
न तो इन स्थानों से, न इन देवी-देवतायों से कुछ मिलता है, जो मिलता है, जो बनता है, जो बिगड़ता है सब आपके अपने प्रयासों की वजह से.
बस एक भावनात्मक सम्बल ज़रूर चाहिए होता है इंसान को, उस सम्बल का ही काम करते है यह सब देवता, देवियाँ, मंदर, मसीत, चर्च, गुरद्वार और मज़ार.
असल में इंसान आजादी तो चाहता है, लेकिन इसका मतलब ठीक-ठीक समझता नहीं है, वो कहीं डरता भी है इस आज़ादी से.
आज़ादी का मतलब है कि आप खुद जिम्मेवार हैं अपने कर्मों के प्रति.......कोई चाँद-सितारे नहीं......कोई आसमानी बाप नहीं...कोई पहाड़ों वाली माँ नहीं.
लेकिन इस तरह की आज़ादी खौफ़नाक लगती है इंसान को.
लगता है जैसे किसी ने फेंक दिया हो पृथ्वी पर, निपट अकेला....बिना किसी अभिभावक के.......You are to carry your Cross. तुम्हें सूली चढ़ना है और सूली भी खुद ही कन्धों पर लाद कर ले जानी है. चढ़ जा बेटा सूली पर. लेकिन सच्चाई यही है.
क्या हम इसे स्वीकार करेंगे?
क्या हमें वास्तव में ही आज़ादी चाहिए?
क्या हम में हिम्मत है अपने कर्मों की जिम्मेवारी लेने की?
क्या हम कभी खुद को काल्पनिक मातायों से, आसमानी पिता से, चाँद सितारों की काल्पनिक गुलामी से आज़ाद कर पायेंगे?
२. "असीमित आज़ादी का खतरा"
कहते हैं कि जहाँ दूसरे की नाक शुरू होती है, वहां आपकी आज़ादी खत्म हो जाती है. मतलब आज़ादी है, लेकिन असीमित नहीं है.
लेकिन सिर्फ कहते हैं, हमारे यहाँ बहुत बहुत आज़ादी ऐसी है जो असीमित है, लेकिन असीमित होनी नहीं चाहिए. ...तभी हल है...जैसे जनसंख्या, कारों की संख्या, प्राइवेट पूंजी........एक हद के बाद इन पर व्यक्तिगत कण्ट्रोल खत्म हो जाना चाहिए.
यानि असीमित आज़ादी न तो बच्चे पैदा करने की होनी चाहिए और न ही वाहन रखने की और न ही प्राइवेट पूँजी की.
पूँजी रखने की आज़ादी हो लेकिन एक हद के बाद की पूँजी 'पब्लिक डोमेन' में आ जानी चाहिए. जैसे 'कॉपी राईट' है, वो कुछ दशकों के लिए है, फिर खत्म हो जाता है. यानि जैसे मेरी लिखी कोई किताब हो, उस पर मेरा कमाने का, प्रयोग का एक्सक्लूसिव हक़ एक समय के बाद खत्म, वो पब्लिक डोमेन की चीज़ हो गई. ऐसे ही पूँजी के साथ होना चाहिए. यह सीधा-सीधा पूंजीवाद में समाजवाद का सम्मिश्रण है.
ऐसे ही कारें, अन्य वाहन. आज दिल्ली में वाहनों की संख्या एक समस्या बन चुकी है. पार्किंग के लिए कत्ल हो जाते हैं. लोग दूसरों के घरों, दुकानों की आगे, चलती सड़कों के बीचों-बीच, मोड़ों पे, कहीं भी कारें खड़ी कर चलते बनते हैं. छोटी गलियों में स्कूटर तक खड़े करने की जगह नहीं, फिर भी ज़बरन खड़ा करते हैं.
अब यह है, असीमित उपभोग का दुष्परिणाम. न. इसे सीमित करना ही होगा. राशनिंग करनी ही होगी. आज नहीं तो कल.आज कर लें तो बेहतर.
ऐसे ही बच्चे हैं. हर व्यक्ति को असीमित बच्चे पैदा करने का हक़ छीनना ही होगा. यह हक़ जन्म-सिद्ध नहीं होना चाहिए. यह हक़ एक privilege (विशेषाधिकार) होना चाहिए. व्यक्ति स्वस्थ हो, आर्थिक रूप से सक्षम हो तो ही बच्चा पैदा करने का हक़ हो. वो भी तब, जब एक भू-भाग विशेष उस बच्चे का बोझ उठाने को तैयार हो.
मतलब आजादी होनी चाहिए, लेकिन असीमित नहीं, देश-काल के अनुरूप उस आज़ादी को पुन:-पुन: परिभाषित करना ही होगा. उसमें बड़ा हस्तक्षेप वैज्ञानिकों का होना चाहिए न कि ज़ाहिल नेताओं का. और धार्मिक किस्म के लोगों का तो इसमें कोई हाथ-पैर पाया जाए तो काट ही देना चाहिए. क्योंकि ये लोग किसी भी समस्या का हल नहीं हैं, असल में ये लोग ही हर समस्या की वजह हैं, ये ही समस्या हैं.
और आज़ादी अगर हमें चाहिए तो हमें ज़िम्मेदारी भी लेनी होगी. वो ज़िम्मेदारी है असीमिति आज़ादी को सीमित करने की वक्त ज़रूरत के मुताबिक, वरना हम सब सामूहिक आत्म-हत्या की तरफ बढ़ ही रहे हैं.
नमन...तुषार कॉस्मिक.
यूनान, मिश्र, रोम मिट गए सब जहाँ से.
यह सिर्फ सभ्यताएं ही नहीं मिटी, इनकी देवी-देवता भी मिट गए.
TROY फिल्म का दृश्य है, Achilles हमला करता है तो विरोधियों के देवता 'अपोलो' की मूर्ति का भी सर कलम कर देता है. यहाँ भारत में सोमनाथ के मन्दिर पर आक्रमण हुआ, फिर अनेक मंदिर गिरा कर मस्ज़िद बना दिए गए. किसका क्या बिगाड़ लिया इन देवताओं ने? कुछ नहीं.
कहना यह चाहता हूँ कि देवी-देवता भी हम इंसानों के साथ हैं.....हमारी वजह से हैं .....हमारे बनाए हैं.
भारत में कुछ ही मीलों की दूरी से बोली बदल जाते है....न सिर्फ बोली बदलती है....देवी-देवता भी बदल जाते हैं...ऐसे-ऐसे देवी-देवतायों के नाम है जिनको शायद ही उस इलाके से बहार किसी ने सुना हो.....जम्भेश्वर नाथ, मुक्तेश्वर नाथ...कुतिया देवी. झंडे वाली माता-डंडे वाली माता.
लेकिन बड़ी मान्यता होती है उन इलाकों में.
कुछ मज़ारों की, कुछ मंदिरों. कुछ गुरुद्वारों की ख़ास-ख़ास मान्यता होती है.
न तो इन स्थानों से, न इन देवी-देवतायों से कुछ मिलता है, जो मिलता है, जो बनता है, जो बिगड़ता है सब आपके अपने प्रयासों की वजह से.
बस एक भावनात्मक सम्बल ज़रूर चाहिए होता है इंसान को, उस सम्बल का ही काम करते है यह सब देवता, देवियाँ, मंदर, मसीत, चर्च, गुरद्वार और मज़ार.
असल में इंसान आजादी तो चाहता है, लेकिन इसका मतलब ठीक-ठीक समझता नहीं है, वो कहीं डरता भी है इस आज़ादी से.
आज़ादी का मतलब है कि आप खुद जिम्मेवार हैं अपने कर्मों के प्रति.......कोई चाँद-सितारे नहीं......कोई आसमानी बाप नहीं...कोई पहाड़ों वाली माँ नहीं.
लेकिन इस तरह की आज़ादी खौफ़नाक लगती है इंसान को.
लगता है जैसे किसी ने फेंक दिया हो पृथ्वी पर, निपट अकेला....बिना किसी अभिभावक के.......You are to carry your Cross. तुम्हें सूली चढ़ना है और सूली भी खुद ही कन्धों पर लाद कर ले जानी है. चढ़ जा बेटा सूली पर. लेकिन सच्चाई यही है.
क्या हम इसे स्वीकार करेंगे?
क्या हमें वास्तव में ही आज़ादी चाहिए?
क्या हम में हिम्मत है अपने कर्मों की जिम्मेवारी लेने की?
क्या हम कभी खुद को काल्पनिक मातायों से, आसमानी पिता से, चाँद सितारों की काल्पनिक गुलामी से आज़ाद कर पायेंगे?
२. "असीमित आज़ादी का खतरा"
कहते हैं कि जहाँ दूसरे की नाक शुरू होती है, वहां आपकी आज़ादी खत्म हो जाती है. मतलब आज़ादी है, लेकिन असीमित नहीं है.
लेकिन सिर्फ कहते हैं, हमारे यहाँ बहुत बहुत आज़ादी ऐसी है जो असीमित है, लेकिन असीमित होनी नहीं चाहिए. ...तभी हल है...जैसे जनसंख्या, कारों की संख्या, प्राइवेट पूंजी........एक हद के बाद इन पर व्यक्तिगत कण्ट्रोल खत्म हो जाना चाहिए.
यानि असीमित आज़ादी न तो बच्चे पैदा करने की होनी चाहिए और न ही वाहन रखने की और न ही प्राइवेट पूँजी की.
पूँजी रखने की आज़ादी हो लेकिन एक हद के बाद की पूँजी 'पब्लिक डोमेन' में आ जानी चाहिए. जैसे 'कॉपी राईट' है, वो कुछ दशकों के लिए है, फिर खत्म हो जाता है. यानि जैसे मेरी लिखी कोई किताब हो, उस पर मेरा कमाने का, प्रयोग का एक्सक्लूसिव हक़ एक समय के बाद खत्म, वो पब्लिक डोमेन की चीज़ हो गई. ऐसे ही पूँजी के साथ होना चाहिए. यह सीधा-सीधा पूंजीवाद में समाजवाद का सम्मिश्रण है.
ऐसे ही कारें, अन्य वाहन. आज दिल्ली में वाहनों की संख्या एक समस्या बन चुकी है. पार्किंग के लिए कत्ल हो जाते हैं. लोग दूसरों के घरों, दुकानों की आगे, चलती सड़कों के बीचों-बीच, मोड़ों पे, कहीं भी कारें खड़ी कर चलते बनते हैं. छोटी गलियों में स्कूटर तक खड़े करने की जगह नहीं, फिर भी ज़बरन खड़ा करते हैं.
अब यह है, असीमित उपभोग का दुष्परिणाम. न. इसे सीमित करना ही होगा. राशनिंग करनी ही होगी. आज नहीं तो कल.आज कर लें तो बेहतर.
ऐसे ही बच्चे हैं. हर व्यक्ति को असीमित बच्चे पैदा करने का हक़ छीनना ही होगा. यह हक़ जन्म-सिद्ध नहीं होना चाहिए. यह हक़ एक privilege (विशेषाधिकार) होना चाहिए. व्यक्ति स्वस्थ हो, आर्थिक रूप से सक्षम हो तो ही बच्चा पैदा करने का हक़ हो. वो भी तब, जब एक भू-भाग विशेष उस बच्चे का बोझ उठाने को तैयार हो.
मतलब आजादी होनी चाहिए, लेकिन असीमित नहीं, देश-काल के अनुरूप उस आज़ादी को पुन:-पुन: परिभाषित करना ही होगा. उसमें बड़ा हस्तक्षेप वैज्ञानिकों का होना चाहिए न कि ज़ाहिल नेताओं का. और धार्मिक किस्म के लोगों का तो इसमें कोई हाथ-पैर पाया जाए तो काट ही देना चाहिए. क्योंकि ये लोग किसी भी समस्या का हल नहीं हैं, असल में ये लोग ही हर समस्या की वजह हैं, ये ही समस्या हैं.
और आज़ादी अगर हमें चाहिए तो हमें ज़िम्मेदारी भी लेनी होगी. वो ज़िम्मेदारी है असीमिति आज़ादी को सीमित करने की वक्त ज़रूरत के मुताबिक, वरना हम सब सामूहिक आत्म-हत्या की तरफ बढ़ ही रहे हैं.
नमन...तुषार कॉस्मिक.
आइये, हम सलेक्टिव बनना-बनाना छोड़ दें/ मंदी...बेरोज़गारी...और हमारे महान धर्म
"आइये, हम सलेक्टिव बनना-बनाना छोड़ दें"
"#मंदी...#बेरोज़गारी...और हमारे महान धर्म"
मोमिन भाई को और लिबरल बहन को ज्यादा ही चिंता है आर्थिक मंदी की आज कल.....वैरी गुड...चिंता होनी चाहिए, सबको होनी चाहिए.
बेरोजगारी पैदा हो रही है...होगी ही. जब आपने बच्चों की लाइन लगाई थी तो किसी से पूछा था कि इनको रोज़गार कैसे मिलेगा?
अल्लाह देगा...भगवान देगा...
"जिसने मुंह पैदा किये हैं, वो रिज़क भी देगा"
"वो भूखा उठाता है, लेकिन भूखा सुलाता नहीं है"
ले लो फिर उसी से...फिर काहे सरकार को कोस रहे हो?
तुम्हे पता ही नहीं कि जैसे-जैसे.....आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस का दखल बढेगा दुनिया में, 'इंसानी मूर्खता' की ज़रूरत घटती जाएगी.
जो काम एक रोबोट इन्सान से कहीं ज्यादा दक्षता से कर सकता है, कहीं कम खर्चे में कर सकता है, उसके लिए कोई क्यों ख्वाह्म्खाह इंसानों का बोझा ढोयेगा?
विज्ञान के साथ-साथ दुनिया बदलती जाने वाली है. जनसंख्या, वाहियात जनसंख्या, अनाप-शनाप जनसंख्या खुद ही मर जाएगी. कोई न देने वाला तुम्हें रोज़गार?
तुम्हारी इस पृथ्वी पर कोई बहुत ज़रूरत ही नहीं रह जानी अगले कुछ सालों में. इंसानी लेबर समय-बाह्य होती जाएगी समय के साथ-साथ. ऐसे में ये जो बच्चों की लाइन लगा रखी है, यह खुद ही आत्म-घात कर लेगी. और इसके लिए कोई मोदी ज़िम्मेदार नहीं है, कोई भी सरकार ज़िम्मेदार नहीं है, तुम खुद हो ज़िम्मेदार.
सरकार से इत्ती ज्यादा उम्मीद रखना सिर्फ मूर्खता है. चूँकि रोज़गार हो, जीवन के बाकी आयाम हों, ये बहुत से ऐसे फैक्टर पर निर्भर हैं जिन पर सरकार का कोई बस ही नहीं है. जैसे रोबोटीकरण है, इस को कोई सरकार कितना रोक पायेगी? मुझे नहीं लगता कि सरकार के हाथ में कुछ ज्यादा है इस क्षेत्र में. जो तकनीक आ जाती है, बस आ जाती है. उसे फिर कौन रोक पाता है?
और रोबोट के आने के बाद इंसान खाली होने ही वाला है. इसे कोई नहीं रोक पायेगा.
लेकिन सरकार आपको क्यों बताये यह सब? वो नहीं बताएगी. चूँकि सच सुनने-समझने को आप तैयार ही नहीं होंगे.
मंदी बिलकुल मुद्दा है. होना चाहिए लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि "इस्लाम" और "गैर-इस्लाम" मुद्दा नहीं है. वो भी मुद्दा है. बड़ा मुद्दा है. पूरी दुनिया में मुद्दा है. कश्मीर भी मुद्दा है. फिलस्तीन मुद्दा है. रोहिंग्या मुस्लिम मुद्दा है. अमेरका में ट्रम्प का आना मुद्दा है. जो इन मुद्दों से आंख चुराए, वो मूर्ख है.
सो यह एकतरफा बात मत कीजिये मोमिन भाई. लिबरल बहनिया.
सब मुद्दे हैं. सेलेक्टिव मत बनें.
हमें वैज्ञानिक समाज चाहिए. हमें बच्चे नहीं चाहियें. हमें कैसा भी धर्म/ दीन/ मजहब नहीं चाहिए. हमें समृद्ध समाज चाहिए.
उसके लिए आपको शुरुआत करनी होगी इस्लाम के खात्मे से. चूँकि जब तक आप इस्लाम को नहीं ललकारेंगे तब तक बाकी सब दीन/धर्म भी इस्लाम जैसे बने रहेंगे चूँकि उनको इस्लाम का मुकाबला इसी तरह से करना समझ में आता है. लेकिन आपको तर्क से करना है मुकाबला सबका. शुरुआत इस्लाम से करें, चूँकि वो सबसे ज्यादा आदिम है. कैसे है? उसके लिए गूगल करें, कुरान ऑनलाइन है, खुद देख लीजिये कि मोहम्मद साहेब क्या कह गए हैं.
सब को वैज्ञानिकता के धरातल पे ला पटकें..... सब दम तोड़ देंगे. क्या इस्लाम? क्या हिंदुत्व? क्या कुछ भी और?
आईये कुछ उस तरह से हिम्मत करें. यह सेलेक्टिव बनना-बनाना छोड़ दें.
नमन...तुषार कॉस्मिक
"#मंदी...#बेरोज़गारी...और हमारे महान धर्म"
मोमिन भाई को और लिबरल बहन को ज्यादा ही चिंता है आर्थिक मंदी की आज कल.....वैरी गुड...चिंता होनी चाहिए, सबको होनी चाहिए.
बेरोजगारी पैदा हो रही है...होगी ही. जब आपने बच्चों की लाइन लगाई थी तो किसी से पूछा था कि इनको रोज़गार कैसे मिलेगा?
अल्लाह देगा...भगवान देगा...
"जिसने मुंह पैदा किये हैं, वो रिज़क भी देगा"
"वो भूखा उठाता है, लेकिन भूखा सुलाता नहीं है"
ले लो फिर उसी से...फिर काहे सरकार को कोस रहे हो?
तुम्हे पता ही नहीं कि जैसे-जैसे.....आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस का दखल बढेगा दुनिया में, 'इंसानी मूर्खता' की ज़रूरत घटती जाएगी.
जो काम एक रोबोट इन्सान से कहीं ज्यादा दक्षता से कर सकता है, कहीं कम खर्चे में कर सकता है, उसके लिए कोई क्यों ख्वाह्म्खाह इंसानों का बोझा ढोयेगा?
विज्ञान के साथ-साथ दुनिया बदलती जाने वाली है. जनसंख्या, वाहियात जनसंख्या, अनाप-शनाप जनसंख्या खुद ही मर जाएगी. कोई न देने वाला तुम्हें रोज़गार?
तुम्हारी इस पृथ्वी पर कोई बहुत ज़रूरत ही नहीं रह जानी अगले कुछ सालों में. इंसानी लेबर समय-बाह्य होती जाएगी समय के साथ-साथ. ऐसे में ये जो बच्चों की लाइन लगा रखी है, यह खुद ही आत्म-घात कर लेगी. और इसके लिए कोई मोदी ज़िम्मेदार नहीं है, कोई भी सरकार ज़िम्मेदार नहीं है, तुम खुद हो ज़िम्मेदार.
सरकार से इत्ती ज्यादा उम्मीद रखना सिर्फ मूर्खता है. चूँकि रोज़गार हो, जीवन के बाकी आयाम हों, ये बहुत से ऐसे फैक्टर पर निर्भर हैं जिन पर सरकार का कोई बस ही नहीं है. जैसे रोबोटीकरण है, इस को कोई सरकार कितना रोक पायेगी? मुझे नहीं लगता कि सरकार के हाथ में कुछ ज्यादा है इस क्षेत्र में. जो तकनीक आ जाती है, बस आ जाती है. उसे फिर कौन रोक पाता है?
और रोबोट के आने के बाद इंसान खाली होने ही वाला है. इसे कोई नहीं रोक पायेगा.
लेकिन सरकार आपको क्यों बताये यह सब? वो नहीं बताएगी. चूँकि सच सुनने-समझने को आप तैयार ही नहीं होंगे.
मंदी बिलकुल मुद्दा है. होना चाहिए लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि "इस्लाम" और "गैर-इस्लाम" मुद्दा नहीं है. वो भी मुद्दा है. बड़ा मुद्दा है. पूरी दुनिया में मुद्दा है. कश्मीर भी मुद्दा है. फिलस्तीन मुद्दा है. रोहिंग्या मुस्लिम मुद्दा है. अमेरका में ट्रम्प का आना मुद्दा है. जो इन मुद्दों से आंख चुराए, वो मूर्ख है.
सो यह एकतरफा बात मत कीजिये मोमिन भाई. लिबरल बहनिया.
सब मुद्दे हैं. सेलेक्टिव मत बनें.
हमें वैज्ञानिक समाज चाहिए. हमें बच्चे नहीं चाहियें. हमें कैसा भी धर्म/ दीन/ मजहब नहीं चाहिए. हमें समृद्ध समाज चाहिए.
उसके लिए आपको शुरुआत करनी होगी इस्लाम के खात्मे से. चूँकि जब तक आप इस्लाम को नहीं ललकारेंगे तब तक बाकी सब दीन/धर्म भी इस्लाम जैसे बने रहेंगे चूँकि उनको इस्लाम का मुकाबला इसी तरह से करना समझ में आता है. लेकिन आपको तर्क से करना है मुकाबला सबका. शुरुआत इस्लाम से करें, चूँकि वो सबसे ज्यादा आदिम है. कैसे है? उसके लिए गूगल करें, कुरान ऑनलाइन है, खुद देख लीजिये कि मोहम्मद साहेब क्या कह गए हैं.
सब को वैज्ञानिकता के धरातल पे ला पटकें..... सब दम तोड़ देंगे. क्या इस्लाम? क्या हिंदुत्व? क्या कुछ भी और?
आईये कुछ उस तरह से हिम्मत करें. यह सेलेक्टिव बनना-बनाना छोड़ दें.
नमन...तुषार कॉस्मिक
तुम हो बलि का बकरा
पाकिस्तान की हालत देख कर, काबुल में ताज़ा धमाके में साठ से ज़्यादा मुसलमानों का मुसलमानों द्वारा क़त्ल देख कर, मुसलमानों की रक्त-रंजित हिस्ट्री देख कर, मोहम्मद साहेब के अपने ही परिवार का मुसलमानों द्वारा कत्ल देख कर, मोहम्मद साहेब को समझ जाना चाहिए कि उनका बनाया हुआ दीन हीन है.
चलो उनको न भी समझ आये, मुसलमानों को समझ जाना चाहिए कि उनका दीन हीन है.
चलो मुसलमानों को न भी समझ आये बाकी दुनिया को समझ जाना चाहिए कि मोहम्मद साहेब का बनाया हुआ दीन हीन है. समझ जान चाहिए कि बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होए?
और बाकी दुनिया में सब को तो नहीं लेकिन कुछ को तो समझ आने ही लगा है. उसी का नतीजा है कि इस्लाम के खिलाफ ट्रम्प खड़ा हो जाता है, आरएसएस खड़ा हो जाता है, चीन खड़ा हो जाता है, म्यांमार का बौद्ध भिक्षु खड़ा हो जाता है.
लेकिन यह नतीजा अभी नाकाफी है. रोज़ 'अल्लाह-हू-अकबर' के नारे के साथ इंसानी जिस्म की हवा में उड़ती बोटियाँ देखते-सुनते हुए भी कुछ लोग अंधे-बहरे बने हुए हैं.
कब तक इस्लाम को सही-सही समझने के लिए अपनी बलि देते रहोगे?
न समझोगे तो मिट जाओगे ऐ जहाँ वालो, तुम्हारी दास्ताँ भी न होगी दास्तानों में.
अब तो समझो मूर्खो तुम इस्लाम के लिए सिर्फ बलि का बकरा हो .
चलो उनको न भी समझ आये, मुसलमानों को समझ जाना चाहिए कि उनका दीन हीन है.
चलो मुसलमानों को न भी समझ आये बाकी दुनिया को समझ जाना चाहिए कि मोहम्मद साहेब का बनाया हुआ दीन हीन है. समझ जान चाहिए कि बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होए?
और बाकी दुनिया में सब को तो नहीं लेकिन कुछ को तो समझ आने ही लगा है. उसी का नतीजा है कि इस्लाम के खिलाफ ट्रम्प खड़ा हो जाता है, आरएसएस खड़ा हो जाता है, चीन खड़ा हो जाता है, म्यांमार का बौद्ध भिक्षु खड़ा हो जाता है.
लेकिन यह नतीजा अभी नाकाफी है. रोज़ 'अल्लाह-हू-अकबर' के नारे के साथ इंसानी जिस्म की हवा में उड़ती बोटियाँ देखते-सुनते हुए भी कुछ लोग अंधे-बहरे बने हुए हैं.
कब तक इस्लाम को सही-सही समझने के लिए अपनी बलि देते रहोगे?
न समझोगे तो मिट जाओगे ऐ जहाँ वालो, तुम्हारी दास्ताँ भी न होगी दास्तानों में.
अब तो समझो मूर्खो तुम इस्लाम के लिए सिर्फ बलि का बकरा हो .
मानव भविष्य -- #कश्मीर और #इस्लाम के सन्दर्भ में
आपको न #मुसलमान बन कर सोचना है और न ही #हिन्दू बन कर. आपको सिर्फ सोचना है. तटस्थ हो कर.
और किसी भी घटना-दुर्घटना के पीछे इतिहास भी हो सकता है, यह भी देखना चाहिए, कोई आइडियोलॉजी भी हो सकती है, और वो आइडियोलॉजी खतरनाक भी हो सकती है, यह भी देखना चाहिए.
शिकारी जब खुद शिकार बनने लगे तो वो चीखने लगता है, देखो मैं विक्टिम हूँ, मैं विक्टिम हूँ. इसे 'विक्टिम कार्ड' खेलना कहते हैं.
चोर पकड़ा न जाए, इसलिए चोरी करने के बाद सबसे ज्यादा वोही चिल्लाता है, "चोर, चोर, पकड़ो, पकड़ो." ताकि कम से कम यह तय हो जाये कि वो चोर नहीं है. किसी का भी शक कम से कम उस पर न जाए.
जब दो लोग लड़ रहे होते हैं तो दोनों एक जैसे लगते हैं, लोग अक्सर कमेंट करते हैं कि साले ये लड़ाके लोग हैं, लड़ते रहते हैं, वो इत्ती ज़हमत ही नहीं उठाते कि शायद उन में से कोई एक ऐसा भी हो सकता है, जो सही लड़ाई लड़ रहा हो. लोग समझते ही नहीं कि शायद कोई एक सिर्फ इसलिए लड़ रहा है कि उस पर अटैक किया जा रहा है. बार-बार किया जा रहा है. क्रिया की प्रतिक्रिया है. आपको जो मुसलामानों पर अत्याचार लग रहा है. वो उनकी अपनी करनी का फल है. वो उनकी अपनी आइडियोलॉजी का बैक-फायर है. क्या सोचते थे? सरदार खुस्स होगा, साबासी देगा? दुनिया कहीं तो जवाब देगी?
मेरा तर्क यह है कि आप हिन्दू, सिक्ख, जैन, बौध हो कर सोचते हैं तो गलत है. न. फिर आप इक छोटे इस्लाम में खुद को कैद कर रहे हैं. एक गंदे बदबूदार दड़बे में न सही, एक सज धजे कमरे में खुद को कैद कर रहे हैं. लेकिन है कैद ही.
आज का हर समाज समय-बाह्य है. मतलब जैसे विज्ञान ने सीवर सिस्टम दे दिया लेकिन आप फिर भी अड़े रहें कि नहीं ये तो हमारी सदियों की परम्परा है, हम तो डब्बा लेकर खेत में ही जायेंगे शौच करने.
तो हर समाज लगभग ऐसा ही है. वो बहुत कुछ अड़ा हुआ है, सड़ा हुआ है. हमें अंततः हर धर्म/ दीन/ हर इस तरह के समाज का विरोध करना ही होगा तो ही इन्सान नए दौर में जा पायेगा. वरना सारी पृथ्वी को ले डूबेगा. "हम तो डूबेंगे सनम तुम्हें भी ले डूबेंगे." डूब ही रहा है, डुबा ही रहा है.
इस्लाम का सबसे ज्यादा विरोध इसलिए है चूँकि वो हिंसक भी है. सिर्फ शारीरिक तौर पर ही नहीं. वैचारिक तौर भी. वहां आपकी एक न चलेगी. सब विचार खत्म. आपको बंधना होगा. आपकी सोच को बंधना होगा. कुरान और मोहम्मद के गिर्द. और यह घातक है.
'पोटाशियम साइनाइड' इस्लाम है, बाकी छोटे ज़हर हैं, कुछ तो इतने धीमे कि जहर जैसे लगें भी न.
माफिया इस्लाम है, बाकी छोटे-मोटे गुंडे हैं.
कश्मीर. आपको कश्मीर पर मेरी राय जाननी है तो यह समझना होगा कि मेरी दीन-दुनिया के बारे में क्या राय है?
मेरी राय है कि कोई भी धर्म/ दीन से बंधना मूर्खता है. क्या आप सारी उम्र एक ही सब्जी खाने पर अड़े रहते हैं? क्या आप एक ही रंग के कपड़े पहनते हैं ता-उम्र? क्या आप अपने शरीर को बंधन में बांधना पसंद करते हैं?
फिर किसी और की सोच से क्यों बंधना? चाहे कोई चौदह सौ साल पहले हुआ या चौदह हजार साल पहले?
चाहे कोई अरब में पैदा हुआ, चाहे अयोध्या में.
हम हमारी सोच से क्यों न जीयें? हम बिना ठप्पा लगे ही क्यों न जीयें?
मेरी सोच यह है जैसे विज्ञान आगे बढ़ता है, वैसे ही 'समाज विज्ञान' को भी आगे बढ़ना चाहिए और इंसान को इस 'समाज विज्ञान' को आत्म-सात करना चाहिए.
लेकिन सब समाज किसी न किसी धर्म से बंधे हैं. लगभग सब कहते हैं कि नहीं, हमारे नबी/ अवतार/ भगवान/गुरु जो फरमा गए वही सही है. इस्लाम इसमें सबसे ज़्यादा कट्टर है. वो तो टस से मस हो के राज़ी नहीं. सो खड़ा है. जस का तस.
और इस्लाम पूरी दुनिया को अपनी लपेट में लेने को उत्सुक हैं. लोग इस्लाम की दावत देते फिर रहे हैं. "इस्लाम कबूल करो." कोई गुनाह है कि कबूल करना है?
और इस्लाम हिंसक है. बम फटाक.
इसलिए इस्लाम को पूरी दुनिया से खदेड़ना ज़रूरी है.
कश्मीर का मसला कोई मसला नहीं होता अगर वहां सिर्फ मुस्लिम न होते. इस मसले की न कानून अहम वजह है, न इतिहास और न राजनीति.
अहम् वजह इस्लाम है.
भारत की एक तरफ पाकिस्तान है. मुस्लिम मुल्क है. वो पाकिस्तान और भारत नापाक-स्तान. दूसरी तरफ बांगला-देश है. मुस्लिम बहुल मुल्क है. उधर कश्मीर है. मुस्लिम बहुल प्रदेश है. और कहते हैं कि भारत के अंदर जितने मुस्लिम हैं, उतने किसी और मुल्क में नहीं है. ऐसे में यदि गैर-मुस्लिम को अपना कल्चर बचाए रखना है तो उसे हर तरह से इस्लाम का विरोध करना ही होगा. कोई और चॉइस नहीं है.
और आरएसएस का शक्ति में आने की एक वजह यह है कि भारत का गैर-मुस्लिम अपने समाज को इस्लाम के आक्रमण से बचाए रखना चाहता है.
मेरा मानना यह है कि धरती माता ने किसी के नाम रजिस्ट्री नहीं कि वो किसकी है. लेकिन 'सर्वाइवल ऑफ़ दी फिटेस्ट' की थ्योरी बिलकुल काम करती है. 'वीर भोग्या वसुंधरा'. वीर भोगते हैं वसुंधरा. हिन्दू पॉवर में थे तो उन्होंने कश्मीर पर राज कर लिया. अंग्रेज़ पावरफुल थे तो उन्होंने अपना सिक्का जमाया. मुस्लिम शक्ति में आये तो उन्होंने वहां से हिन्दू भगा दिए.
आरएसएस शक्ति में आया तो उन्होंने अब कानून में रद्दो-बदल कर दिए. मैं इसका स्वागत करता हूँ. इसलिए चूँकि यह इस्लामिक शक्तियों को रोकने में सहायक सिद्ध हो सकता है.
और जब मैं इस्लाम का विरोध करता हूँ तो वो कोई हिन्दू का समर्थन नहीं है. हिन्दुत्व का समर्थन नहीं है. लाख कहते रहें आरएसएस वाले कि हिंदुत्व अपने आप में सेक्युलर है, हिन्दुत्व में सब मान्यताओं का सम्मान है लेकिन आप मांगें कोई मन्दिर कि मुझे राम के खिलाफ प्रवचन करना है, आपको भगा दिया जायेगा.
फिर भी यह समाज उतना लगा-बंधा नहीं है जितना इस्लाम. इस्लाम की तरह एक दम डिब्बा-बंद, सील-बंद समाज नहीं है. यहाँ फिर गुंजाईश है, बहुत गुंजाईश है कि आप कुछ भी सोच सकते हैं, लिख सकते हैं, बोल सकते हैं.
इस समाज को 'नव-समाज' की तरफ अग्रसर किया जा सकता है. इस्लाम के साथ ऐसी कोई सम्भावना नहीं है. 'नव-समाज' का रास्ता इस्लाम से होकर नहीं गुजरेगा. न. इस्लाम तोे इस राह में चीन की दीवार है. इसे गिराना ही होगा.
मैं जानता हूँ कि 'मुल्क' बकवास कांसेप्ट है. पूरी पृथ्वी, कायनात एक है. लेकिन मेरे मानने से क्या होता है? सब लोग बंटे हैं. धर्मों में. विभिन्न मान्यताओं में. और अपने-अपने ज़मीन के टुकड़े को पकड़ के बैठे हैं. सो जब तक कोई 'वैश्विक संस्कृति', 'ग्लोबल कल्चर' पैदा नहीं होती तब तक तो मुल्क रहेंगे और तब तक रहने भी चाहियें ताकि ऐसा न हो कि ग्लोबल कल्चर ऐसी हो जाये कि हमें आगे ले जाने की बजाए चौदह सौ या चौदह हजार साल पीछे धकेल दे. अगर हम इस्लाम का विरोध नहीं करते तो यही होने वाला है. हमें ग्लोबल कल्चर चाहिए जो समाज-विज्ञान पर आधारित हो. ऐसा कल्चर चाहिए जो आज के विज्ञान के अनुरूप हो. जो खुद को हर पल बदलने को तैयार हो. जो किसी अवतार, किसी गुरु, किसी नबी, किसी कुरान-पुराण से बंधा न हो.
इसी परिप्रेक्ष्य में मुझे लगता है कि कश्मीर का भारत में विलय सही है. कश्मीर क्या धरती के हर कोने से इस्लामिक शक्तियों को कमजोर करने का जो भी प्रयास हो उसका स्वागत होना चाहिए. एक बार इस्लाम को आपने बाहर कर दिया, बाकी धर्म बाहर करना इत्ता मुश्किल न होगा.
एक बार माफिया खत्म तो बाकी छोटे-मोटे गुंडे ज़्यादा देर टिक न पायेंगे. लेकिन यह भी तभी आसान होगा जब पूरी दुनिया के बुद्धिजीवी हर धर्म की बखिया उधेड़ते रहें. सो कश्मीर का भारत में विलय का फिलहाल स्वागत है.
इस्लाम का विरोध रहेगा लेकिन विरोध हिंदुत्व का भी रहेगा. चूँकि टारगेट 'विश्व बन्धुत्व' है. इसमें न हिंदुत्व चलेगा और न इस्लाम.
और कश्मीर का भारत में विलय का स्वागत भी वक्ती है चूँकि टारगेट 'वसुधैव कुटुम्बकम' है. इसमें न कोई इस तरह का प्रदेश चलेगा और न देश.
नमन.....तुषार कॉस्मिक
और किसी भी घटना-दुर्घटना के पीछे इतिहास भी हो सकता है, यह भी देखना चाहिए, कोई आइडियोलॉजी भी हो सकती है, और वो आइडियोलॉजी खतरनाक भी हो सकती है, यह भी देखना चाहिए.
शिकारी जब खुद शिकार बनने लगे तो वो चीखने लगता है, देखो मैं विक्टिम हूँ, मैं विक्टिम हूँ. इसे 'विक्टिम कार्ड' खेलना कहते हैं.
चोर पकड़ा न जाए, इसलिए चोरी करने के बाद सबसे ज्यादा वोही चिल्लाता है, "चोर, चोर, पकड़ो, पकड़ो." ताकि कम से कम यह तय हो जाये कि वो चोर नहीं है. किसी का भी शक कम से कम उस पर न जाए.
जब दो लोग लड़ रहे होते हैं तो दोनों एक जैसे लगते हैं, लोग अक्सर कमेंट करते हैं कि साले ये लड़ाके लोग हैं, लड़ते रहते हैं, वो इत्ती ज़हमत ही नहीं उठाते कि शायद उन में से कोई एक ऐसा भी हो सकता है, जो सही लड़ाई लड़ रहा हो. लोग समझते ही नहीं कि शायद कोई एक सिर्फ इसलिए लड़ रहा है कि उस पर अटैक किया जा रहा है. बार-बार किया जा रहा है. क्रिया की प्रतिक्रिया है. आपको जो मुसलामानों पर अत्याचार लग रहा है. वो उनकी अपनी करनी का फल है. वो उनकी अपनी आइडियोलॉजी का बैक-फायर है. क्या सोचते थे? सरदार खुस्स होगा, साबासी देगा? दुनिया कहीं तो जवाब देगी?
मेरा तर्क यह है कि आप हिन्दू, सिक्ख, जैन, बौध हो कर सोचते हैं तो गलत है. न. फिर आप इक छोटे इस्लाम में खुद को कैद कर रहे हैं. एक गंदे बदबूदार दड़बे में न सही, एक सज धजे कमरे में खुद को कैद कर रहे हैं. लेकिन है कैद ही.
आज का हर समाज समय-बाह्य है. मतलब जैसे विज्ञान ने सीवर सिस्टम दे दिया लेकिन आप फिर भी अड़े रहें कि नहीं ये तो हमारी सदियों की परम्परा है, हम तो डब्बा लेकर खेत में ही जायेंगे शौच करने.
तो हर समाज लगभग ऐसा ही है. वो बहुत कुछ अड़ा हुआ है, सड़ा हुआ है. हमें अंततः हर धर्म/ दीन/ हर इस तरह के समाज का विरोध करना ही होगा तो ही इन्सान नए दौर में जा पायेगा. वरना सारी पृथ्वी को ले डूबेगा. "हम तो डूबेंगे सनम तुम्हें भी ले डूबेंगे." डूब ही रहा है, डुबा ही रहा है.
इस्लाम का सबसे ज्यादा विरोध इसलिए है चूँकि वो हिंसक भी है. सिर्फ शारीरिक तौर पर ही नहीं. वैचारिक तौर भी. वहां आपकी एक न चलेगी. सब विचार खत्म. आपको बंधना होगा. आपकी सोच को बंधना होगा. कुरान और मोहम्मद के गिर्द. और यह घातक है.
'पोटाशियम साइनाइड' इस्लाम है, बाकी छोटे ज़हर हैं, कुछ तो इतने धीमे कि जहर जैसे लगें भी न.
माफिया इस्लाम है, बाकी छोटे-मोटे गुंडे हैं.
कश्मीर. आपको कश्मीर पर मेरी राय जाननी है तो यह समझना होगा कि मेरी दीन-दुनिया के बारे में क्या राय है?
मेरी राय है कि कोई भी धर्म/ दीन से बंधना मूर्खता है. क्या आप सारी उम्र एक ही सब्जी खाने पर अड़े रहते हैं? क्या आप एक ही रंग के कपड़े पहनते हैं ता-उम्र? क्या आप अपने शरीर को बंधन में बांधना पसंद करते हैं?
फिर किसी और की सोच से क्यों बंधना? चाहे कोई चौदह सौ साल पहले हुआ या चौदह हजार साल पहले?
चाहे कोई अरब में पैदा हुआ, चाहे अयोध्या में.
हम हमारी सोच से क्यों न जीयें? हम बिना ठप्पा लगे ही क्यों न जीयें?
मेरी सोच यह है जैसे विज्ञान आगे बढ़ता है, वैसे ही 'समाज विज्ञान' को भी आगे बढ़ना चाहिए और इंसान को इस 'समाज विज्ञान' को आत्म-सात करना चाहिए.
लेकिन सब समाज किसी न किसी धर्म से बंधे हैं. लगभग सब कहते हैं कि नहीं, हमारे नबी/ अवतार/ भगवान/गुरु जो फरमा गए वही सही है. इस्लाम इसमें सबसे ज़्यादा कट्टर है. वो तो टस से मस हो के राज़ी नहीं. सो खड़ा है. जस का तस.
और इस्लाम पूरी दुनिया को अपनी लपेट में लेने को उत्सुक हैं. लोग इस्लाम की दावत देते फिर रहे हैं. "इस्लाम कबूल करो." कोई गुनाह है कि कबूल करना है?
और इस्लाम हिंसक है. बम फटाक.
इसलिए इस्लाम को पूरी दुनिया से खदेड़ना ज़रूरी है.
कश्मीर का मसला कोई मसला नहीं होता अगर वहां सिर्फ मुस्लिम न होते. इस मसले की न कानून अहम वजह है, न इतिहास और न राजनीति.
अहम् वजह इस्लाम है.
भारत की एक तरफ पाकिस्तान है. मुस्लिम मुल्क है. वो पाकिस्तान और भारत नापाक-स्तान. दूसरी तरफ बांगला-देश है. मुस्लिम बहुल मुल्क है. उधर कश्मीर है. मुस्लिम बहुल प्रदेश है. और कहते हैं कि भारत के अंदर जितने मुस्लिम हैं, उतने किसी और मुल्क में नहीं है. ऐसे में यदि गैर-मुस्लिम को अपना कल्चर बचाए रखना है तो उसे हर तरह से इस्लाम का विरोध करना ही होगा. कोई और चॉइस नहीं है.
और आरएसएस का शक्ति में आने की एक वजह यह है कि भारत का गैर-मुस्लिम अपने समाज को इस्लाम के आक्रमण से बचाए रखना चाहता है.
मेरा मानना यह है कि धरती माता ने किसी के नाम रजिस्ट्री नहीं कि वो किसकी है. लेकिन 'सर्वाइवल ऑफ़ दी फिटेस्ट' की थ्योरी बिलकुल काम करती है. 'वीर भोग्या वसुंधरा'. वीर भोगते हैं वसुंधरा. हिन्दू पॉवर में थे तो उन्होंने कश्मीर पर राज कर लिया. अंग्रेज़ पावरफुल थे तो उन्होंने अपना सिक्का जमाया. मुस्लिम शक्ति में आये तो उन्होंने वहां से हिन्दू भगा दिए.
आरएसएस शक्ति में आया तो उन्होंने अब कानून में रद्दो-बदल कर दिए. मैं इसका स्वागत करता हूँ. इसलिए चूँकि यह इस्लामिक शक्तियों को रोकने में सहायक सिद्ध हो सकता है.
और जब मैं इस्लाम का विरोध करता हूँ तो वो कोई हिन्दू का समर्थन नहीं है. हिन्दुत्व का समर्थन नहीं है. लाख कहते रहें आरएसएस वाले कि हिंदुत्व अपने आप में सेक्युलर है, हिन्दुत्व में सब मान्यताओं का सम्मान है लेकिन आप मांगें कोई मन्दिर कि मुझे राम के खिलाफ प्रवचन करना है, आपको भगा दिया जायेगा.
फिर भी यह समाज उतना लगा-बंधा नहीं है जितना इस्लाम. इस्लाम की तरह एक दम डिब्बा-बंद, सील-बंद समाज नहीं है. यहाँ फिर गुंजाईश है, बहुत गुंजाईश है कि आप कुछ भी सोच सकते हैं, लिख सकते हैं, बोल सकते हैं.
इस समाज को 'नव-समाज' की तरफ अग्रसर किया जा सकता है. इस्लाम के साथ ऐसी कोई सम्भावना नहीं है. 'नव-समाज' का रास्ता इस्लाम से होकर नहीं गुजरेगा. न. इस्लाम तोे इस राह में चीन की दीवार है. इसे गिराना ही होगा.
मैं जानता हूँ कि 'मुल्क' बकवास कांसेप्ट है. पूरी पृथ्वी, कायनात एक है. लेकिन मेरे मानने से क्या होता है? सब लोग बंटे हैं. धर्मों में. विभिन्न मान्यताओं में. और अपने-अपने ज़मीन के टुकड़े को पकड़ के बैठे हैं. सो जब तक कोई 'वैश्विक संस्कृति', 'ग्लोबल कल्चर' पैदा नहीं होती तब तक तो मुल्क रहेंगे और तब तक रहने भी चाहियें ताकि ऐसा न हो कि ग्लोबल कल्चर ऐसी हो जाये कि हमें आगे ले जाने की बजाए चौदह सौ या चौदह हजार साल पीछे धकेल दे. अगर हम इस्लाम का विरोध नहीं करते तो यही होने वाला है. हमें ग्लोबल कल्चर चाहिए जो समाज-विज्ञान पर आधारित हो. ऐसा कल्चर चाहिए जो आज के विज्ञान के अनुरूप हो. जो खुद को हर पल बदलने को तैयार हो. जो किसी अवतार, किसी गुरु, किसी नबी, किसी कुरान-पुराण से बंधा न हो.
इसी परिप्रेक्ष्य में मुझे लगता है कि कश्मीर का भारत में विलय सही है. कश्मीर क्या धरती के हर कोने से इस्लामिक शक्तियों को कमजोर करने का जो भी प्रयास हो उसका स्वागत होना चाहिए. एक बार इस्लाम को आपने बाहर कर दिया, बाकी धर्म बाहर करना इत्ता मुश्किल न होगा.
एक बार माफिया खत्म तो बाकी छोटे-मोटे गुंडे ज़्यादा देर टिक न पायेंगे. लेकिन यह भी तभी आसान होगा जब पूरी दुनिया के बुद्धिजीवी हर धर्म की बखिया उधेड़ते रहें. सो कश्मीर का भारत में विलय का फिलहाल स्वागत है.
इस्लाम का विरोध रहेगा लेकिन विरोध हिंदुत्व का भी रहेगा. चूँकि टारगेट 'विश्व बन्धुत्व' है. इसमें न हिंदुत्व चलेगा और न इस्लाम.
और कश्मीर का भारत में विलय का स्वागत भी वक्ती है चूँकि टारगेट 'वसुधैव कुटुम्बकम' है. इसमें न कोई इस तरह का प्रदेश चलेगा और न देश.
नमन.....तुषार कॉस्मिक
Saturday, 10 August 2019
बकरीद
बेचारे बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी. एक दिन ईद आयेगी.
"मौत का एक दिन मुअय्यन है, नींद क्यों रात भर आती नहीं."
और वो दिन बकरीद है. वैसे "बलि का बकरा" सिर्फ बकरा ही नहीं बनता. इस दिन बकरे ही नहीं और भी बहुत से जानवर काट दिए जाते हैं. कोई आसमानी बाप है. जिसका नाम "अल्लाह" है, वो बहुत खुश होता है इन जानवरों के काटे जाने से, वो जो सब जानवरों का जन्मदाता है. वो खुश होता है इन जानवरों का खून गलियों में, नालियों में बहता हुआ देख कर. वैरी गुड!
साला खाना मांस खुद है, बीच में अल्लाह को ला रहे हैं. बे-ईमानी देखो ईमानदारों की.
फिर तर्क शुरू होता है कि सब्जियों में भी जान होती है तो क्या हर्ज़ है कि बकरा खा लिया? वैरी गुड! तुम्हारे बेटा-बेटी में भी जान है, उसे भी जिबह कर दो और फिर खिला दो सारे समाज को. वो भी तो तुम्हें प्यारे होंगे. उससे प्यारा शायद ही कुछ हो. अल्लाह को कुर्बानी देनी है न सबसे प्यारी चीज़ की तो वो कोई बकरा तो हो नहीं सकता. वो तुम्हारे बच्चे हो सकते हैं. उनकी दे दो क़ुरबानी. कोई बात नहीं, तुम निश्चिन्त रहो, बीच में कानून नहीं आयेगा. तुम्हारा मज़हब है न. वो तो वैसे ही कानून से ऊपर है. तुम्हारे लिए बना है न अलग से पर्सनल लॉ. यहाँ भी कानून बनेगा अलग से. ईद पर कुर्बानी के बीच कोई पुलिस, कोई कोर्ट नहीं आयेगा. कुर्बानी देनी है तो ठीक से दो. यह अल्लाह को मूर्ख मत बनाओ बकरे काट कर.
जानवर और सब्जियां खाने में क्या बेहतर है उसका सीधा फार्मूला देता हूँ. समझ आये तो गठरी में बाँध लेना. पॉकेट में डाल लेना. पर्स में सम्भाल लेना.
इंसान सब खा जाता है. कहते हैं जो जीव पृथ्वी पर रेंगता है-चलता है, आसमान में उड़ता है, समन्दर में तैरता है वो हर जीव इन्सान खा जाता है.
कोई नियम है क्या? क्या खाना है, क्या नहीं खाना है, कोई फार्मूला है क्या?
तो फार्मूला यह है कि जीवन में चेतना का लेवल है. जितनी चेतना एक इन्सान में है उतनी अमीबा में नहीं होगी, उतनी सब्ज़ी में नहीं होगी. तो कम से कम चेतना वाले प्राणी को ही भोजन बनाया जाये, जहाँ तक सम्भव हो.
मिटटी, ईंट-पत्थर तो खा नहीं सकते. सब्जियां-अनाज-फल ही खाए जाएँ. मांस सिर्फ वहां खाया जाए जहाँ मजबूरी हो, जहाँ मांस के अलावा कुछ भी सुलभ न हो खाने को.
और मैं कोई अहिंसा नहीं सिखा रहा. ऐसा नहीं कह रहा कि इन्सान को जानवर नहीं मारना चाहिए. क्या हम मच्छर नहीं मारते? क्या हम खटमल नहीं मारते या फिर कॉकरोच. किसे मारते हैं? कब मारते हैं? क्यों मारते हैं? यह सब मायने रखता है.
अब इस फार्मूला को समझोगे तो 99 प्रतिशत मांसाहार खत्म हो जायेगा.
और
यह कुर्बानी/बलि वगैहरा की बकवास इस फार्मूला में कहीं नहीं टिकेगी. यह बात ही आदिम है. बचकाना है. बंद करो. चाहे किसी भी दीनी किताब में यह सब लिखा हो, न लिखा हो.
बचपन में एक कहानी सुनी थी. एक विशालकाय दानव आता है इक नगर में. आदम-बू. आदम-बू कहता हुआ. उसे इन्सान की बू आ रही होती है, ठीक वैसे ही जैसे किसी भी परजीवी जानवर-कीट-पतंगे को आती है, अपने शिकार की. वो नगर में आकर बहुत से इंसान मार देता है. कुछ खा जाता है. कई घयाल कर देता है. राजा मुकाबला नहीं कर पाता. सो वो उससे समझौता बिठाता है कि उसे रोज़ एक इन्सान भेजा जायेगा खाने के लिए ताकि ख्वाह्म्खाह बहुत से इन्सान न मारे जाएँ, घायल न किये जायें. एक-एक कर के कई नागरिक भेजे जाते हिं और दानव द्वारा खा लिए जाते हैं. शहर में मुर्दनगी छाई रहती है. पता नहीं कल किस की बारी आ जाये? फिर कोई सूरमा पैदा होता है. मरना तो है ही सबने. लड़ के मरेंगे. टीम बनाता है. गुरिल्ला तकनीक सिखाता है. सब मिल के दानव पर आक्रमण करते हैं. दानव खत्म. आज जो तुम जानवर खा रहे हो न. वो उस दानव से कम नहीं हो. जिस दिन तुम पर आक्रमण होगा तभी अक्ल आएगी तुम्हें.
कल दूर ग्रह के विशालकाय, शक्तिशाली प्राणी पृथ्वी पर उतरने वाले हों, कल ही उनकी मानव-ईद हो, और उनको हिदायत हो उनके पैगम्बर की कि कल के दिन मुस्लिम मानवों की कुरबानी उनके प्यारे अल्लाह को हर हाल में दी जानी चाहिए. तो कैसा लगेगा तुम्हें?
तुमने तमाम कानून बना रखे हैं कि ताकतवर इन्सान कमज़ोर का शोषण न कर सके. करता है फिर भी, वो अलग बात है लेकिन कानून तो हैं न. जानवर बड़े मजे से तुम काट देते हो, खा जाते हो. क्यों? सिर्फ इसलिए कि वो कमजोर हैं तुम्हारे मुकाबले में. इसीलिए तुमने आज तक कानून नहीं बनाये कि जानवर भी नहीं कटेगा, नहीं खाया जाएगा. कैसे भी नहीं काटा जाना चाहिए. न मुसलमान द्वारा कुर्बानी के नाम पर. न गैर-मुस्लिम द्वारा बलि के नाम पर. न त्योहार पर. न किसी भी और वार पर.
दीवाली का दीवाला निकल जाए और ईद की लीद. गुरु की विदाई हो जाए शुरू. पादरी के निकल जाएँ पाद. घणी तमन्ना है.
चलिए चलते-चलते दो शब्द और पढ़ते जाइए.
"पागलों की कमी नहीं ग़ालिब, एक ढूँढो हज़ार मिलतें हैं
हर गली, हर मोहल्ला, हर बाज़ार मिलतें हैं
रोम, काबा, हरिद्वार मिलतें हैं
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वार मिलतें हैं
ईद, दिवाली,क्रिसमस, हर त्यौहार मिलतें हैं
गले मिल, गला काट, मेरे यार मिलतें हैं
मेरे यार, इक बार, दो बार नहीं, बार बार मिलतें हैं
पागलों की कमी नहीं ग़ालिब, एक ढूँढो हज़ार मिलतें हैं"
ग़ालिब ने नहीं मैंने लिखा है.....ज़ाहिर है
नोट:--आप कॉपी पेस्ट कर सकते हैं, मुझे कोई दिक्कत नहीं.
नमन...तुषार कॉस्मिक
"मौत का एक दिन मुअय्यन है, नींद क्यों रात भर आती नहीं."
और वो दिन बकरीद है. वैसे "बलि का बकरा" सिर्फ बकरा ही नहीं बनता. इस दिन बकरे ही नहीं और भी बहुत से जानवर काट दिए जाते हैं. कोई आसमानी बाप है. जिसका नाम "अल्लाह" है, वो बहुत खुश होता है इन जानवरों के काटे जाने से, वो जो सब जानवरों का जन्मदाता है. वो खुश होता है इन जानवरों का खून गलियों में, नालियों में बहता हुआ देख कर. वैरी गुड!
साला खाना मांस खुद है, बीच में अल्लाह को ला रहे हैं. बे-ईमानी देखो ईमानदारों की.
फिर तर्क शुरू होता है कि सब्जियों में भी जान होती है तो क्या हर्ज़ है कि बकरा खा लिया? वैरी गुड! तुम्हारे बेटा-बेटी में भी जान है, उसे भी जिबह कर दो और फिर खिला दो सारे समाज को. वो भी तो तुम्हें प्यारे होंगे. उससे प्यारा शायद ही कुछ हो. अल्लाह को कुर्बानी देनी है न सबसे प्यारी चीज़ की तो वो कोई बकरा तो हो नहीं सकता. वो तुम्हारे बच्चे हो सकते हैं. उनकी दे दो क़ुरबानी. कोई बात नहीं, तुम निश्चिन्त रहो, बीच में कानून नहीं आयेगा. तुम्हारा मज़हब है न. वो तो वैसे ही कानून से ऊपर है. तुम्हारे लिए बना है न अलग से पर्सनल लॉ. यहाँ भी कानून बनेगा अलग से. ईद पर कुर्बानी के बीच कोई पुलिस, कोई कोर्ट नहीं आयेगा. कुर्बानी देनी है तो ठीक से दो. यह अल्लाह को मूर्ख मत बनाओ बकरे काट कर.
जानवर और सब्जियां खाने में क्या बेहतर है उसका सीधा फार्मूला देता हूँ. समझ आये तो गठरी में बाँध लेना. पॉकेट में डाल लेना. पर्स में सम्भाल लेना.
इंसान सब खा जाता है. कहते हैं जो जीव पृथ्वी पर रेंगता है-चलता है, आसमान में उड़ता है, समन्दर में तैरता है वो हर जीव इन्सान खा जाता है.
कोई नियम है क्या? क्या खाना है, क्या नहीं खाना है, कोई फार्मूला है क्या?
तो फार्मूला यह है कि जीवन में चेतना का लेवल है. जितनी चेतना एक इन्सान में है उतनी अमीबा में नहीं होगी, उतनी सब्ज़ी में नहीं होगी. तो कम से कम चेतना वाले प्राणी को ही भोजन बनाया जाये, जहाँ तक सम्भव हो.
मिटटी, ईंट-पत्थर तो खा नहीं सकते. सब्जियां-अनाज-फल ही खाए जाएँ. मांस सिर्फ वहां खाया जाए जहाँ मजबूरी हो, जहाँ मांस के अलावा कुछ भी सुलभ न हो खाने को.
और मैं कोई अहिंसा नहीं सिखा रहा. ऐसा नहीं कह रहा कि इन्सान को जानवर नहीं मारना चाहिए. क्या हम मच्छर नहीं मारते? क्या हम खटमल नहीं मारते या फिर कॉकरोच. किसे मारते हैं? कब मारते हैं? क्यों मारते हैं? यह सब मायने रखता है.
अब इस फार्मूला को समझोगे तो 99 प्रतिशत मांसाहार खत्म हो जायेगा.
और
यह कुर्बानी/बलि वगैहरा की बकवास इस फार्मूला में कहीं नहीं टिकेगी. यह बात ही आदिम है. बचकाना है. बंद करो. चाहे किसी भी दीनी किताब में यह सब लिखा हो, न लिखा हो.
बचपन में एक कहानी सुनी थी. एक विशालकाय दानव आता है इक नगर में. आदम-बू. आदम-बू कहता हुआ. उसे इन्सान की बू आ रही होती है, ठीक वैसे ही जैसे किसी भी परजीवी जानवर-कीट-पतंगे को आती है, अपने शिकार की. वो नगर में आकर बहुत से इंसान मार देता है. कुछ खा जाता है. कई घयाल कर देता है. राजा मुकाबला नहीं कर पाता. सो वो उससे समझौता बिठाता है कि उसे रोज़ एक इन्सान भेजा जायेगा खाने के लिए ताकि ख्वाह्म्खाह बहुत से इन्सान न मारे जाएँ, घायल न किये जायें. एक-एक कर के कई नागरिक भेजे जाते हिं और दानव द्वारा खा लिए जाते हैं. शहर में मुर्दनगी छाई रहती है. पता नहीं कल किस की बारी आ जाये? फिर कोई सूरमा पैदा होता है. मरना तो है ही सबने. लड़ के मरेंगे. टीम बनाता है. गुरिल्ला तकनीक सिखाता है. सब मिल के दानव पर आक्रमण करते हैं. दानव खत्म. आज जो तुम जानवर खा रहे हो न. वो उस दानव से कम नहीं हो. जिस दिन तुम पर आक्रमण होगा तभी अक्ल आएगी तुम्हें.
कल दूर ग्रह के विशालकाय, शक्तिशाली प्राणी पृथ्वी पर उतरने वाले हों, कल ही उनकी मानव-ईद हो, और उनको हिदायत हो उनके पैगम्बर की कि कल के दिन मुस्लिम मानवों की कुरबानी उनके प्यारे अल्लाह को हर हाल में दी जानी चाहिए. तो कैसा लगेगा तुम्हें?
तुमने तमाम कानून बना रखे हैं कि ताकतवर इन्सान कमज़ोर का शोषण न कर सके. करता है फिर भी, वो अलग बात है लेकिन कानून तो हैं न. जानवर बड़े मजे से तुम काट देते हो, खा जाते हो. क्यों? सिर्फ इसलिए कि वो कमजोर हैं तुम्हारे मुकाबले में. इसीलिए तुमने आज तक कानून नहीं बनाये कि जानवर भी नहीं कटेगा, नहीं खाया जाएगा. कैसे भी नहीं काटा जाना चाहिए. न मुसलमान द्वारा कुर्बानी के नाम पर. न गैर-मुस्लिम द्वारा बलि के नाम पर. न त्योहार पर. न किसी भी और वार पर.
दीवाली का दीवाला निकल जाए और ईद की लीद. गुरु की विदाई हो जाए शुरू. पादरी के निकल जाएँ पाद. घणी तमन्ना है.
चलिए चलते-चलते दो शब्द और पढ़ते जाइए.
"पागलों की कमी नहीं ग़ालिब, एक ढूँढो हज़ार मिलतें हैं
हर गली, हर मोहल्ला, हर बाज़ार मिलतें हैं
रोम, काबा, हरिद्वार मिलतें हैं
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वार मिलतें हैं
ईद, दिवाली,क्रिसमस, हर त्यौहार मिलतें हैं
गले मिल, गला काट, मेरे यार मिलतें हैं
मेरे यार, इक बार, दो बार नहीं, बार बार मिलतें हैं
पागलों की कमी नहीं ग़ालिब, एक ढूँढो हज़ार मिलतें हैं"
ग़ालिब ने नहीं मैंने लिखा है.....ज़ाहिर है
नोट:--आप कॉपी पेस्ट कर सकते हैं, मुझे कोई दिक्कत नहीं.
नमन...तुषार कॉस्मिक
मंदिर वहीं बनायेंगे
मोमिन भाई बड़ी मासूमियत से कहते हैं, "वहां राम मंदिर की जगह लाइब्रेरी बना लेते, अस्पताल बना लेते, कुछ भी आम-जन के फायदे की चीज़ बना लेते, लेकिन मानते ही नहीं."
मैं तो बिलकुल सहमत हूँ. यही बात अगर आप काबा या गिरजे के लिए भी कहें तो ही Valid है?
मैं तो मानता हूँ. साले सब भूतिया राग हैं. कहिये ऐसे, कहा जैसे मैंने. कह सकते हैं? अन्यथा आप सिर्फ एक मुस्लिम हैं. और चूँकि आप मुस्लिम हैं, इसीलिए वो हिन्दू हैं. इस तरह के हिन्दू हैं. हिन्दुत्व वाले हिन्दू हैं.
वो बात, मंदिर की है ही नहीं. बात है कल्चरल कनफ्लिक्ट की. मंदिर तोड़ के मस्जिद बनाईं गईं थीं यह एतिहासिक तथ्य है. मंदिर मतलब अगलों की कल्चर तोड़ी गयी थी. अब वो तथा-कथित मस्जिद तोड़ कर मंदिर बनाया जाना है. तुमने उनका कल्चर तोडा, वो तुम्हारा कल्चर इनकार कर रहे हैं. और वो तुम भी जानते हो.
असल में दुनिया को न तो तुम्हारे कल्चर की ज़रूरत है और न उनके. न इस्लाम की ज़रूरत है और न ही हिंदुत्व की. दुनिया धर्मों के बिना बड़े आराम से चल सकती है. कहीं बेहतर चल सकती है. सामाजिक नियमों को हमने कानूनी-जामा पहना रखा है. वो काफी है.
लेकिन तुम इत्ते मूर्ख हो कि चौदह सौ साल पहले किसी आदमी से शुरू हुई बात-बेबात से आगे सोच के राज़ी ही नहीं. पत्थर की लकीर. और तुम लकीर के फकीर. पत्थर टूट जायेगा लेकिन लकीर रहेगी.
दुनिया ने अनके किताब पैदा कर दीं. सोशल मीडिया पर इत्ता साहित्य लिखा जा चुका जो मानव इतिहास में न लिखा गया होगा उससे पहले. लेकिन तुम मान के बैठे हो कि नहीं कोई किताब आसमान से उतरती है. प्रिंटिंग प्रेस है अल्लाह के पास. जिससे कोई-कोई किताब उतरती है. कैसी मूर्खों जैसी बात है? आज तक तुमने देखी कोई किताब आसमान से डाउन-लोड होते हुए? किसी और ने देखी? बस मान लो कुछ भी.
फर्क सिर्फ इतना है कि हिन्दू कोई धर्म नहीं. उसकी कोई एक किताब नहीं. उसकी कोई जिद्द नहीं कि नहीं जो किसी किताब में कहा गया, वही अंतिम है. यहाँ अनेक तरह की किताब हैं. अनेक तरह के विचार हैं. और ऐसा ही समाज मानव का भविष्य है. तुम्हारा समाज नहीं.
दो तरह के पदार्थं पढाये गए थे हमको. घुलनशील और अघुलनशील. Soluble and Insoluble. अधिकांश समाज घुलनशील हैं. इक दूजे में घुल-मिल जाते हैं. रोटी-बेटी का रिश्ता भी रख लेते हैं. एक दूजे के पूजन-स्थल पर चले जाते हैं. एक दूजे की मान्यताओं में शामिल हो जाते हैं. और कोई इक दूजे को जबरन अपने मज़हब में खींचने की दावत नहीं देता फिरता. बम-फटाक. तुम्हारा समाज बंद समाज है. कुरान की घेरा-बंदी से बंधा. इसका कुछ नहीं हो सकता. या तो इसे छोड़ो या फिर पूरी दुनिया से रुसवा हो जाओ. और तुम हर जगह रुसवा हो रहे हो. अब तुम हर जगह हार रहे हो.
कश्मीर हो, इसराईल हो, चीन हो, अमेरिका हो, जहाँ तुम हो वहां पंगा है. और यह पंगा अब नंगा है. वो जो इन्टरनेट है उसने सब नंगा कर दिया है.
मोहम्मद साहेब ने 1400 साल पहले बता दिया था कि तुम ईमानदार हो, तुम मुसलमान हो और बाकी सब बे-ईमान हैं. ठीक है. जब बाकी हैं ही तुम्हारी निगाह में बे-ईमान तो ठीक है. अब वो बे-ईमान लोग तुम्हारे साथ नहीं रहना चाहते. वो बे-ईमान लोग तुम्हारा हर जगह विरोध कर रहे हैं. यह कल्चर की लड़ाई है. यह आइडियोलॉजी की लड़ाई है.
बस हमने तो यह देखना है कि इस लड़ाई में हम कोई और इस्लाम न पैदा कर लें. इसलिए समझदार इंसान को मोहम्मद के विरोध के साथ राम का भी विरोध करना चाहिए. इस्लाम के साथ हिंदुत्व का भी विरोध करना चाहिए. न हमें गिरजा चाहिए और न ही गुरुद्वारा. न हमें मन्दिर चाहिए और न ही मस्जिद.
सो यह जो राम मंदिर वाली जगह पर लाइब्रेरी बनाने की बात है, हक़ में हूँ मैं पूरी तरह से इसके. मंदिर नहीं लाइब्रेरी बननी चाहिए. लेकिन वो काबा तोड़ के भी बननी चाहिए और वेटिकेन का गिरजा भी. यह सब इंसान की छाती पर बोझ हैं. हटाओ बे इन सब को.
है हिम्मत यह कहने की? अगर नहीं है तो मत कहो कि हमने तो अस्पताल/लाइब्रेरी बनाने को कहा था, ये लोग माने नहीं?
इडियट.
नमन...तुषार कॉस्मिक
नोट:-- कॉपी पेस्ट कर लीजिये अगर, पोस्ट इस लायक लगे तो, मेरा नाम देना कोई ज़रूरी नहीं है.
मैं तो बिलकुल सहमत हूँ. यही बात अगर आप काबा या गिरजे के लिए भी कहें तो ही Valid है?
मैं तो मानता हूँ. साले सब भूतिया राग हैं. कहिये ऐसे, कहा जैसे मैंने. कह सकते हैं? अन्यथा आप सिर्फ एक मुस्लिम हैं. और चूँकि आप मुस्लिम हैं, इसीलिए वो हिन्दू हैं. इस तरह के हिन्दू हैं. हिन्दुत्व वाले हिन्दू हैं.
वो बात, मंदिर की है ही नहीं. बात है कल्चरल कनफ्लिक्ट की. मंदिर तोड़ के मस्जिद बनाईं गईं थीं यह एतिहासिक तथ्य है. मंदिर मतलब अगलों की कल्चर तोड़ी गयी थी. अब वो तथा-कथित मस्जिद तोड़ कर मंदिर बनाया जाना है. तुमने उनका कल्चर तोडा, वो तुम्हारा कल्चर इनकार कर रहे हैं. और वो तुम भी जानते हो.
असल में दुनिया को न तो तुम्हारे कल्चर की ज़रूरत है और न उनके. न इस्लाम की ज़रूरत है और न ही हिंदुत्व की. दुनिया धर्मों के बिना बड़े आराम से चल सकती है. कहीं बेहतर चल सकती है. सामाजिक नियमों को हमने कानूनी-जामा पहना रखा है. वो काफी है.
लेकिन तुम इत्ते मूर्ख हो कि चौदह सौ साल पहले किसी आदमी से शुरू हुई बात-बेबात से आगे सोच के राज़ी ही नहीं. पत्थर की लकीर. और तुम लकीर के फकीर. पत्थर टूट जायेगा लेकिन लकीर रहेगी.
दुनिया ने अनके किताब पैदा कर दीं. सोशल मीडिया पर इत्ता साहित्य लिखा जा चुका जो मानव इतिहास में न लिखा गया होगा उससे पहले. लेकिन तुम मान के बैठे हो कि नहीं कोई किताब आसमान से उतरती है. प्रिंटिंग प्रेस है अल्लाह के पास. जिससे कोई-कोई किताब उतरती है. कैसी मूर्खों जैसी बात है? आज तक तुमने देखी कोई किताब आसमान से डाउन-लोड होते हुए? किसी और ने देखी? बस मान लो कुछ भी.
फर्क सिर्फ इतना है कि हिन्दू कोई धर्म नहीं. उसकी कोई एक किताब नहीं. उसकी कोई जिद्द नहीं कि नहीं जो किसी किताब में कहा गया, वही अंतिम है. यहाँ अनेक तरह की किताब हैं. अनेक तरह के विचार हैं. और ऐसा ही समाज मानव का भविष्य है. तुम्हारा समाज नहीं.
दो तरह के पदार्थं पढाये गए थे हमको. घुलनशील और अघुलनशील. Soluble and Insoluble. अधिकांश समाज घुलनशील हैं. इक दूजे में घुल-मिल जाते हैं. रोटी-बेटी का रिश्ता भी रख लेते हैं. एक दूजे के पूजन-स्थल पर चले जाते हैं. एक दूजे की मान्यताओं में शामिल हो जाते हैं. और कोई इक दूजे को जबरन अपने मज़हब में खींचने की दावत नहीं देता फिरता. बम-फटाक. तुम्हारा समाज बंद समाज है. कुरान की घेरा-बंदी से बंधा. इसका कुछ नहीं हो सकता. या तो इसे छोड़ो या फिर पूरी दुनिया से रुसवा हो जाओ. और तुम हर जगह रुसवा हो रहे हो. अब तुम हर जगह हार रहे हो.
कश्मीर हो, इसराईल हो, चीन हो, अमेरिका हो, जहाँ तुम हो वहां पंगा है. और यह पंगा अब नंगा है. वो जो इन्टरनेट है उसने सब नंगा कर दिया है.
मोहम्मद साहेब ने 1400 साल पहले बता दिया था कि तुम ईमानदार हो, तुम मुसलमान हो और बाकी सब बे-ईमान हैं. ठीक है. जब बाकी हैं ही तुम्हारी निगाह में बे-ईमान तो ठीक है. अब वो बे-ईमान लोग तुम्हारे साथ नहीं रहना चाहते. वो बे-ईमान लोग तुम्हारा हर जगह विरोध कर रहे हैं. यह कल्चर की लड़ाई है. यह आइडियोलॉजी की लड़ाई है.
बस हमने तो यह देखना है कि इस लड़ाई में हम कोई और इस्लाम न पैदा कर लें. इसलिए समझदार इंसान को मोहम्मद के विरोध के साथ राम का भी विरोध करना चाहिए. इस्लाम के साथ हिंदुत्व का भी विरोध करना चाहिए. न हमें गिरजा चाहिए और न ही गुरुद्वारा. न हमें मन्दिर चाहिए और न ही मस्जिद.
सो यह जो राम मंदिर वाली जगह पर लाइब्रेरी बनाने की बात है, हक़ में हूँ मैं पूरी तरह से इसके. मंदिर नहीं लाइब्रेरी बननी चाहिए. लेकिन वो काबा तोड़ के भी बननी चाहिए और वेटिकेन का गिरजा भी. यह सब इंसान की छाती पर बोझ हैं. हटाओ बे इन सब को.
है हिम्मत यह कहने की? अगर नहीं है तो मत कहो कि हमने तो अस्पताल/लाइब्रेरी बनाने को कहा था, ये लोग माने नहीं?
इडियट.
नमन...तुषार कॉस्मिक
नोट:-- कॉपी पेस्ट कर लीजिये अगर, पोस्ट इस लायक लगे तो, मेरा नाम देना कोई ज़रूरी नहीं है.
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