Tuesday, 29 May 2018

रमज़ान है. मौका है

आपको पता हो कि अमेरिका में ट्रम्प के आने के पीछे विचारकों की एक लॉबी थी, जो खुल कर इस्लाम का विरोध करती रही है.

रमज़ान है. पूरा दम लगाना चाहिए कि इस्लाम विदा हो दुनिया से.

सब धर्म बकवास हैं. इस्लाम सबसे बड़ी बकवास है.


पूरी दुनिया के विचारकों को दम लगाना चाहिए. नए बच्चे बीस साल की उम्र तक किसी पुराने धर्म की शिक्षा न लें.

धर्म सब नशों से ज़्यादा ज़हरीला है. दुनिया की सौ बीमारियों में से निन्यानवे के पीछे धर्म है. और बची एक, उसके आगे भी धर्म है.

धर्म की विदाई के बिना यह दुनिया कभी सुखी नहीं हो सकती. धर्म ने जीवन का हर पहलु अपंग कर दिया है.

धर्म सबसे बड़े अधर्म हैं.

बाकी धर्म गिरोह हैं.  इस्लाम माफिया  है.  इसकी ईंट से ईंट बजा दो. सवाल पूछो. हर शब्द पर सवालों की बारिश कर दो. हर जवाब पर सवाल दागो.

ज़्यादा देर नहीं टिक पायेंगे ये मुल्ले. यह तभी तक हावी हैं जब तक तुम्हारे सवाल खामोश हैं.

कभी कोई एक बन्दा सवाल उठाता है, उसके अंग-भंग कर देते हैं, गोली मार देते हैं.

न..न. और नहीं.

सवाल पूछो कि सवाल क्यों नहीं पूछ सकते? सवाल पूछो कि जवाब तार्किक क्यों नहीं? सवाल पूछो कि जवाब का सबूत कहाँ है? नहीं टिकेंगे. धोती-टोपी छोड़ सब भागेंगे.

इस दुनिया से उस दुनिया तक की छलांग तुम्हें सवाल का जम्पिंग बोर्ड ही लगवा सकता है.

रमज़ान है. मौका है. हिम्मत करो.

तुषार कॉस्मिक

ऑनलाइन तमीज़

इन्सान महा बेवकूफ है.  उसे दूसरों के साथ तमीज़ से जीना आया ही नहीं. तभी तो इतने सारे कायदे हैं-कानून हैं. इतना सारा नैतिक ज्ञान है. इत्ती सारी धार्मिक बक-झक है.

सोशल मीडिया पर भी यही हाल है. जरा तमीज़ नहीं. अगर किसी ने लिख दिया, बोल दिया, जो अपने स्वार्थों के खिलाफ है या फिर जमी-जमाई धारणाओं के खिलाफ है तो हो गए व्यक्तिगत आक्रमण पर उतारू. या फिर गाली-गलौच चालू.  Cyber bullying कहते हैं इसे. अधिकांश लोगों को यहाँ लगता है कि छुपे हैं एक आवरण के पीछे. कौन क्या बिगाड़ लेगा?

वैसे तो सीधी समझ होनी चाहिए कि हर कोई स्वतंत्र है, अपनी बात रखने को. क्या ज़रूरत है कि आपके मुताबिक कोई लिखे या कहे? और क्या ज़रूरी है कि आपके किसी कमेंट का, सवाल का कोई जवाब दे?

आप कोई बाध्य हो किसी का लेखन पढ़ने को? नहीं न.

तो फिर सामने वाला भी कोई बाध्य थोड़ा है कि आपसे कुश्ती करे. फिर हरेक के पास अपनी समय सीमाएं हैं. हरेक की अपनी रूचि है. ज़रूरी नहीं कि वो आपके साथ अपना समय लगाना भी चाहे.

सबसे बढ़िया है कि आपको अगर नहीं पसंद किसी का लेखन-वादन तो आप पढ़ो मत उसका लिखा. आप सुनो मत उसका बोला. आप अमित्र करो उसे या फिर ब्लाक करो.

यह कुश्ती किसलिए?

अगर कोई लिखता-बोलता है तो उसने कोई अग्रीमेंट थोड़ा न कर लिया पढ़ने-सुनने वाले से कि अगले दस दिन तक उसी के साथ सवाल -जवाब में उलझा रहेगा.

थोड़ा तमीज़ में रहना सीखें. थोड़ा गैप बनाए रखें. दूजे के सर पर सवार होने की कोशिश न करें.

वैसे सोशल मीडिया की तीन खासियत हैं.

एक तो मित्र बनाने की सुविधा.

दूजी अमित्र बनाने की सुविधा.

और तीसरी, सबसे बड़ी, ब्लाक करने की सुविधा.


ये तीनों सुविधा सब सिखाती हैं अपने आप में. लेकिन लोग कहाँ सीखते हैं? मित्र-सूची में आयेंगे. फिर कुश्ती करेंगे. फिर शिकायत करेंगे कि हमें अमित्र कर दिया. हमें ब्लाक कर दिया.

भैये, तुम्हें तमीज ही नहीं थी. तुम्हें असहमत होते हुए अगले की मित्र सूची में बने रहने की अक्ल नहीं थी.

तथागत. जैसे आये, वैसे विदा हो गए.

दफा हो--स्वाहा.

नमन ...तुषार कॉस्मिक

Belief without system

There is a term used for 'religion' and that is 'Belief System', which is actually 'Belief without system' i.e. 'Bundle of Superstitions'. Shit.

Thursday, 17 May 2018

मर्द ने औरत के साथ अभी तक सोना‌ ही सीखा है, जागना नहीं, इसलिए मर्द और औरत का रिश्ता उलझनों का शिकार रहता है| - Amrita Pritam. मेरी टिप्पणी:-- यह एक फेमिनिस्ट किस्म का ख्याल भर है. मैं अमृता जी के इस कथन से असहमत हूँ. औरत भी मर्द को ATM समझती है. Sex दोनों की ज़रूरत है. औरत भी कम बकवास नहीं है. जरा पलड़ा एक तरफ झुका और मर्द की ऐसी की तैसी फेर देती है. लाखों झूठे दहेज़ प्रताड़ना केस और दशकों पहले के यारों के ऊपर बलात्कार के केस, सबूत हैं. अभी कुछ दिन पहले ही फोन था. किसी फेसबुक मित्र का. पैसे देने थे किसी के. दिए नहीं. उल्टा अपनी बीवी से उसके खिलाफ छेड़-छाड़ का केस डलवा दिया. अब इसमें जल्दी जमानत भी नहीं. अगले को घर छोड़ भागना पड़ गया. स्थिति आदमी की भी खराब है और बहुत बार औरत ही खराब करती है. झूठे केस डाल कर. स्थिति खराब दोनों की है और वो समाज के बुनियादी ढाँचे के गलत होने की वजह से है. जैसे ट्रैफिक लाइट खराब हो तो एक्सीडेंट हो जाये और लोग एक दूजे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने लगें. एक दूजे को गाली देने लगें. जबकि बड़ी वजह यह है कि ट्राफिक लाइट ही काम नहीं कर रही. मर्द और औरत का रिश्ता अगर गड़बड़ होता है तो वो इसलिए नहीं कि आदमी ने औरत के साथ सिर्फ सोना सीखा, जागना नहीं. उसकी वजहें और हैं. और उनमें प्राइवेट प्रॉपर्टी के कांसेप्ट का सब समाजों में स्वीकृत होना एक है. आज निजी प्रॉपर्टी खत्म करो, फॅमिली खत्म. फॅमिली खत्म तो मर्द औरत दोनों आज़ाद. सो वजहें, वो नहीं जो अमृता जी ने लिखा है, वजहें अलग हैं. बीमारी अलग है और इलाज भी अलग है.
दुनिया जो धार्मिक कट्टरता से आज़ाद हो सकती थी, वो इस्लाम की वजह से अपनी बकवास-धार्मिक मान्यताओं को और ज्यादा कस कर पकड़ बैठी है. वैज्ञानिकता न फैलने के पीछे इस्लाम प्रत्यक्ष और परोक्ष मिला कर सबसे ज़्यादा गुनहगार है. और सबसे ज़्यादा गुनाह इस्लाम मुसलमानों के साथ करता है.
ये जो एक-तरफा प्रेम और अहिंसा सिखा गए न महात्मा. मूर्ख हैं. दुनिया छितरों की भी यार है.
EVM अगर शंका पैदा करती है तो बैलट पेपर से क्या दिक्कत है? मुझे समझ नहीं आता. वहीं शाम को लेबर लगा गिनती शुरू करवा दें. विडियो रिकार्डेड. फ़ौज की पहरेदारी में.
Always remember 'patriotism' is a dangerous concept. The second most. The first most dangerous concept is 'religion'.

Friday, 4 May 2018

हम......मैं......तुषार कॉस्मिक..... बुल्ले शाह ने कहा, "बुल्ला की जाणा मैं कौण" पर मैं हूँ तुषार कॉस्मिक ...ਜਿਸਦੇ ਮੋਢ਼ੇਆਂ ਉੱਤੇ ਧੋਣ


लगभग सब तुम्हें अपनी अक्ल उनके पास गिरवी रखने को बोलते हैं.

सिक्खी में मनमत (मन मति) नहीं, गुरमत (गुरु की मति) से चलने पर जोर है.

इस्लाम तो कहता ही है कि मुसलमान वही है जो क़ुरान में लिखे पर चले और मोहम्मद को रोल मॉडल माने.

कृष्ण कहते हैं, "मामेकम शरणम व्रज मतलब सिर्फ मेरी शरण में आ."

छोटे-मोटे गुरु भी कहते सुने जाते हैं, "गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु......"

सब बकवास हैं. वो कुदरत पागल नहीं है, जिसने तुम्हे खोपड़ दिया और उस खोपड़ में दिमाग दिया. अगर वो चाहती कि तुम्हें किसी और गुरु, किसी पैगम्बर, किसी अवतार के नक्शे-कदम पर चलना है तो कभी दिमाग नाम की चीज़ नहीं देती.

चेक करो वैसे .....दिमाग नाम की चीज़ कुदरत ने तुम्हें दी भी है या कहीं पिछलग्गू होने का कोड ही फीड किया है?
तुम्हारे धर्म धर्म नहीं हैं.....गिरोह हैं. Mafia.

तुम्हारा जनतंत्र जनतंत्र नहीं है ......धनतंत्र है. Game of Corporate Money.

तुम्हारे सेकुलरिज्म पर धर्म अच्छादित हैं.....वो छद्म-सेकुलरिज्म बन चुका है. Pseudo-secularism.

तुम्हारे नेता बिना नैतिकता के हैं, वो तुम्हारे लीडर नहीं हैं, तुम्हारे पिछलग्गू हैं. Followers.

तुम्हारे पास सिर्फ मेरे जैसे चंद लोग हैं. वरना तुम्हारा कोई भविष्य नहीं. बस.
जलजले आयेंगे. तूफ़ान. बाढें. सूखा. और ये सब तुम्हारी औलादों को खा जायेंगे. चूँकि तुम ने उनकी माँ की आबरू पर हाथ डाला. धरती माँ.

अविश्वसनीय कविवर कुमार विश्वास जी

कुमार विश्वास:--- इनको संघी भक्त "कुमार बकवास" कहते हैं. और इन्होनें साबित कर दिया कि सही कहते हैं.

केजरीवाल अपनी बकबक के लिए कोर्ट में माफी मांग चुके हैं. अजी वही, जो उन्होंने मजीठीया और जेटली के खिलाफ की थी. अब वही बकबक कुमार विश्वास ने भी की थी. इन्होने बाकायदा माफी नहीं माँगी है. लेकिन इनका तर्क है, "मैंने वही दोहराया जो उन्होंने (केजरी ने) कहा. पार्टी ने कहा."


मेरा इनको कहना है, "कुमार बिस्वास भैया, यह कोई तर्क नहीं है. मतलब आपकी अपनी कोई अक्ल नहीं थी. किसी पार्टी में होने का मतलब यह है क्या कि पार्टी में प्रचलित हर बकवास अपने ऊपर ओढ़ लो? मैंने तो यह भी सुना था, आपका अपना ही कहा हुआ कि हर आदमी का अपना एक सरोकार हो सकता है, जो पार्टी की सोच से अलग हट के हो. मैं असहमत हूँ, पूरी तरह से. आपका तर्क कोई तर्क नहीं है. रोबोट थे क्या आप? जिसका रिमोट पार्टी नामक entity के हाथ था? न. आपको माफी नहीं मिलनी चाहिए. वैसे तो केजरी को भी नहीं मिलनी चाहिए. मेरा शुरू से मानना रहा है कि आप सब कच्चे खिलाड़ी हो. कोई गहन सोच नहीं. मुल्क को नया नेतृत्व चाहिए, लेकिन वो आप जैसे लोग तो नहीं हो सकते. मैं हो सकता हूँ. गूगल कीजिये. मेरा लेखन पढ़िए. समझ आएगा. 

यह कुमार विश्वास जी के कथन का विडियो है:--  
ps://www.youtube.com/watch?v=j91ex_ez3Xg

और यह मेरा विडियो है इनके कथन के खिलाफ :-

https://www.facebook.com/tushar.cosmic/videos/10211348690854442/

Saturday, 21 April 2018

हनुमान जयंती विशेष :-- हनुमान जी के लिए 16 कुंवारी कन्याएं!

रावण को मारने के बाद जब हनुमानजी भरत से मिलते हैं और उन्हें बताते हैं कि राम आ रहे हैं तो भरत ने कहा कि हनुमान जी को कुछ उपहार देंगे. भरत, "देवो वा मानुषो वा त्वमनुक्रोशादिहागतः । प्रियाख्यानस्य ते सौम्य ददामि ब्रुवतः प्रियम् ।। ६.१२८.४३ ।। गवां शतसहस्रं च ग्रामाणां च शतं परम् । सुकुण्डलाः शुभाचारा भार्याः कन्याश्च षोडश ।। ६.१२८.४४ ।। हेमवर्णाः सुनासोरूः शशिसौम्याननाः स्त्रियः । सर्वाभरणसम्पन्नाः सम्पन्नाः कुलजातिभिः ।। ६.१२८.४५ ।। निशम्य रामागमनं नृपात्मजः कपिप्रवीरस्य तदद्भुतोपमम् । प्रहर्षितो रामदिदृक्षया ऽभवत् पुनश्च हर्षादिदमब्रवीद्वचः ।। ६.१२८.४६ ।। अर्थात हे कोमल प्राणी! तुम एक दिव्य प्राणी हो या एक इंसान हो, जो करुणा करके आये हो? तुमने जो मुझे इतनी बढ़िया खबर दी है, उसके बदले में मैं तुम्हें एक सौ हजार गाय, एक सौ सबसे अच्छे गांव और पत्नियों बनाने के लिए16 स्वर्ण रूपी अच्छे आचरण की कुंवारी कन्याएं दूंगा. इन लड़कियों के कानों में सुंदर छल्ले हैं, इनकी नाक और जांघें सुंदर हैं, ये चाँद के रूप जैसी रमणीय हैं और अच्छे परिवार में पैदा हुई हैं." हनुमान जी के लिए 16 कुंवारी कन्याएं! और ऐसा लगता है वहां राजा के पास असंख्य गुलाम लड़कियों थीं जो किसी को भी दी जा सकती थीं. महान रघुकुल!! वाल्मीकि रामायण/युद्ध कांड /125/44-45
यह क्या भोकाल है?
फेसबुक डाटा चोरी हो गया!
अबे फेसबुक पे ज़्यादातर डाटा डाला ही इसलिए जाता है कि वो चोरी जाए-चाहे साधी जाए लेकिन जाए और दूर तक जाए.

दिल्ली में सीलिंग

राजा गार्डन से धौला कुआं को चलो तो शुरू में ही सड़क के दोनों तरफ मार्बल की मार्किट है. ये दूकान-दार कोई छोटे व्यापारी नहीं हैं. करोड़ों के मालिक हैं. लाखों का धंधा रोज़ करते होंगे. इन्होनें अपनी दुकानों के आगे सैंकड़ों फुट जगहें घेर रखीं थीं. मार्बल का काम ही ऐसा है. जगह चाहिए. आज ही पढ़ा कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाई गयी मोनिटरिंग कमिटी के सदस्य वहां से गुज़र रहे थे. एकाएक उनका ख्याल बन गया. आधी मार्किट सील कर दी. कुछ दंगा-वंगा भी हुआ. कोई दुकानदार गिरफ़्तार भी हो गए. अब ऐसे लोगों के साथ खड़े हैं सब के सब नेता. केजरीवाल भी. एक दम बकवास बात है. मेरा मानना है कि जो इस धरती पर आ गया, उसे रहने की जगह मिलनी ही चाहिए और किराए का कांसेप्ट ही खत्म होना चाहिए. असल में तो प्रॉपर्टी का कांसेप्ट ही खत्म होना चाहिए. लेकिन वो बहुत दूर की बात है अभी. कम से कम गरीब लोगों को बक्श दिया जाना चाहिए या फिर उन्हें तरीके के घर मिलने चाहियें और वो भी मुफ्त. लेकिन ऐसे अमीर, ऐसे करोड़ों अरबों के मालिकों द्वारा ज़मीन की घेरा-घारी न रोकेंगे तो अराजकता ही फैलेगी और दिल्ली में अराजकता ही है. जिसका जहाँ मन करता है, जगह घेर लेता है. पीछे खबर थी कि छतरपुर की तरफ सैंकड़ों बीघे ज़मीन घेर ली गई. बड़े नेता और धार्मिक नेता शामिल थे. राधा-स्वामी सत्संग वालों ने भी ज़मीन घेर रखी थी. आलीशान बिल्डिंग बना रखीं थी. तोड़ दीं गयीं, फिर भी कब्जा नहीं छोड़ रहे थे. अब पता नहीं क्या स्थिति है. तो भैये, समझ लीजिये. ये बिक गई है गौरमिंट. सारे मिल के तूचिया बना रहे हैं हमें. बस. कुछ नहीं होना इनमें से किसी से. सब ऐसे भगवान भरोसे है, जो पता नहीं है भी कि नहीं, पता नहीं जिसे हम से कोई मतलब है भी कि नहीं. नमन....तुषार कॉस्मिक

केजरीवाल: एक लघु समीक्षा

जब केजरीवाल ताज़े-ताज़े उभर रहे थे, शायद २०१२ की बात है, तब मैंने एक लेख लिखा था. टाइटल था, "मूर्ख केजरीवाल." और यकीन जानिये कदम-दर-कदम केजरीवाल ने मुझे सही साबित किया है. ताज़ा मिसाल उनके माफ़ीनामे हैं, जो उन्होंने मानहानि के मुकद्दमों से पीछा छुड़ाने के लिए दिए हैं. कतई अपरिपक्व हैं केजरी सर. बस लगा दिए आरोप. बिना किसी पुख्ता सबूत के. सुनी-सुनाई उड़ा दी. ऐसा तो मैं फेसबुक पर लिखते हुए भी नहीं करता. ज़रूरत हो तो थोड़ा रिसर्च कर लेता हूँ. रिफरेन्स भी खोज के डाल देता हूँ. मुझे पता है कि सवाल उठेंगे. सवाल उठेंगे तो जवाब भी होने चाहियें. और यह साहेब राष्ट्र की राजनीति बदलने चले थे. जनाब को अभी बहुत सीखना है. असल में तो यह केजरीवाल की ही बेवकूफी है कि आज मोदी विराजमान है. कांग्रेस के नीचे से सीट खींच ली, जिसे झट से भाजपा ने लपक लिया. लाइफ-टाइम अवसर था. संघ नब्बे सालों में वो न कर पाया जो केजरी-अन्ना ने उसे करने का मौका दे दिया. सो कुल मिला कर मेरा मानना यह है कि राष्ट्र केजरीवाल की मूर्खताओं का नतीजा भुगत रहा है. दूसरा उनका कमजोर पक्ष है, अपने साथियों को साथ लेकर न चलना. मैंने सुना-पढ़ा उनका डिफेन्स. "लोग आते-जाते रहते हैं. जितने गए हैं, उनसे ज़्यादा आ गए हैं." लेकिन सब बकवास है. उनके अधिकांश शुरुआती साथी साथ छोड़ चुके हैं. कुछ तो कमी होगी साहेब में. मैं आज भी दीवाली पर उन सब मित्रों को खुद मिलने जाता हूँ, जो पूरा साल मुझे जुत्ती नहीं मारते. बीवी मुझे कोसती रहती है, "ये एकतरफ़ा इश्क पालने से क्या फायदा?" लेकिन मैं ढीठ. जब तक सामने वाला मुझे घर से भगा नहीं देगा, मैं रिश्ता खत्म नहीं मान सकता. इडियट हूँ न. खैर, मुझे अफ़सोस के साथ लिखना पड़ रहा है कि राष्ट्र को केजरीवाल के बेहतरीन वर्ज़न की ज़रूरत है. नमन...तुषार कॉस्मिक

Friday, 30 March 2018

कानून और हम

वकील नहीं हूँ. प्रॉपर्टी बिज़नस का छोटा सा कारिन्दा हूँ. वक्त-हालात ने कोर्टों के चक्कर लगवाने थे-लगवा दिए. शुरू में बड़ी मुसीबत लगती थी, अब खेल जैसा लगता है. बहुत कुछ सिखा गया ज़िन्दगी का यह टुकड़ा. ब्लेस्सिंग इन डिस्गाइज़ (Blessing in Disguise)...यानि छुपा हुआ वरदान. कानून व्यवस्था कैसे बेहतर हो-फायदेमंद हो - व्यक्ति और समाज दोनों के लिए? यही विषय है यहाँ .....तो चलिए मेरे साथ ....... 1) अगर आपके पास प्रॉपर्टी है तो 'रजिस्टर्ड वसीयत' ज़रूर करें अन्यथा बाद आपके लोग उस प्रॉपर्टी के लिए दशकों कोर्टों में लड़ते रहेंगे. और हो सके तो प्रॉपर्टी का विभाजन भी कर दें, मतलब किसको कौन सा फ्लोर मिलेगा, कौन सी दूकान मिलेगी, ज़मीन का कौन सा टुकड़ा मिलेगा. यकीन जानें, लाखों झगड़े सिर्फ इस वजह से हैं कोर्टों में चूँकि प्रॉपर्टी छोड़ने वाले ने यह सब तय नहीं किया. Partition Suit कहते हैं इनको. दशकों लटकते हैं ये भी. 2) कोर्ट में जो भी डॉक्यूमेंट दाखिल किये जाते हैं, वो एफिडेविट यानि हल्फिया-बयान यानि शपथ-पत्र के अतंर्गत दिए जाते हैं. इसे ओथ कमिश्नर से attest करवाने के बाद दाखिल किया जाता है. ध्यान रहे, कोई भी झूठा स्टेटमेंट कोर्ट को देना या नकली कागज़ात दाखिल करना पर्जरी/फोर्जरी (perjury/forgery) कहलाता है, जिस पर जेल भी हो सकती है. आपका प्रतिद्वंदी झूठा/ गलत केस थोपने के आरोप में आप पर वापिसी केस ठोक सकता है. कोर्ट केस को हल्के में न लें. यह आग से खेलने जैसा है. "ये केस नहीं आसां, इक आग का दरिया है और डूब के जाना है." 3) ड्राफ्टिंग बहुत ही ध्यान मांगती है. बात-चीत के दौरान हम अपनी बात को कैसे भी एक्सप्लेन कर लेते हैं लेकिन जब उसी बात को लिखित में लाना हो तो बहुत ध्यान से करना होता है. एक गलत comma किसी इंसान की जान ले सकता है, किसी कम्पनी को करोड़ों का नुक्सान कर सकता है, आपके केस की किस्मत उलट-पुलट सकता है. गूगल करें, कई किस्से मिल जायेंगे. 4) आम-तौर पर वकील को दस से बीस हज़ार रुपये शुरू में दिए जाते हैं, फिर पांच सौ से दो हज़ार तक तारीख पे. मेरे ख्याल से, किसी भी केस को यदि जीतने जितनी मेहनत लगानी हो तो यह पैसे बहुत ही कम हैं. आम-जन चाहते हैं कि वकील पैसे भी कम ले और केस भी जितवा दे, जो कि लगभग असम्भव है. यकीन मानें, अपने विरोधी के सात पन्ने के दावे का जवाब तैयार किया है मैने. ड्राफ्टिंग के पचास पन्ने बने हैं और फिर कोई सवा सौ पन्नो की 18 जजमेंट हैं. कुल मिला कर 177 पन्ने. समय लगा अढाई महीने. अढाई महीने की तपस्या. कौन वकील दस-बीस हज़ार लेकर ऐसा कर सकता है? काम-चलाऊ पैसों में काम-चलाऊ काम ही तो मिलेगा. बाद में निकालते रहो, वकील को गालियाँ. अरे, भैया, खुद लड़ लेते न अपना केस. कानून हरेक को अपना केस खुद लड़ने की छूट देता है. मैं अपने केस खुद लड़ता हूँ. खुद लड़ो या फिर ढंग के पैसे खर्च करो. लेकिन ढंग के पैसे खर्च करने के बाद भी आपको अपना केस खुद पढ़ना चाहिए, आधा तो खुद ही लड़ना चाहिए, यह मैं कई बार लिख चुका हूँ. सौ प्रतिशत लड़ाई वकीलों पर छोड़ना, सौ प्रतिशत मूर्खता है. 5) बार-बार कहा जा रहा है, चीफ-जस्टिस तक ने कहा कि जजों की संख्या बहुत कम है, बढ़ाई जानी चाहिए. अभी तारीख दो-तीन महीने की दी जाती है, सिविल मैटर में. इसे यदि दस-पन्द्रह दिन तक लाया जाये तो केस बड़ी तेज़ी से निपटने लगेंगे. लेकिन उसके लिए जजों की संख्या चार गुना करनी होगी. क्या नहीं की जा सकती? की जा सकती है. लेकिन आपका आला नेता ऐसा चाहता ही नहीं. क्यों? ताकि खुद के काले कारनामों की सज़ा जीते जी न मिल सके. बस. कभी सुना आपने कि किसी नेता ने कहा तक हो कि वो न्याय-व्यवस्था में सुधार लाएगा? वादा तक नहीं किया किसी ने. चुनावी जुमला तक नहीं उछाला. 6) मेरा मानना है कि एक भ्रष्ट समाज का तकरीबन हर बाशिंदा-कारिन्दा सम्भवतः भ्रष्ट ही होगा. जजों के बारे में तो मैं ठीक से कुछ नहीं कह सकता, लेकिन कोर्ट-स्टाफ छोटी-मोटी रिश्वत खुल्ले-आम लेता है. फिर यह भी पढ़ा है कि कुछ बड़े केसों की फाइल गुम हो गईं, जल गईं. इंसानी गलती है... कभी भी, किसी से भी हो सकती है......नहीं? ऐसा न हो, तो कोर्ट परिसर के चप्पे-चप्पे में CCTV रिकॉर्डिंग होनी चाहिए. आपको अमेरिका के कोर्टों की प्रक्रिया youtube पर दिख जायेगी, यहाँ अभी तक कोर्ट-रूम में विडीयो कैमरा नहीं हैं. 7) अगला यह किया जा सकता ही कि आर्बिट्रेशन को बढ़ावा दिया जाये. अब यह क्या होती है? समझ लीजिये आर्बिट्रेशन मतलब 'प्राइवेट कोर्ट'. जज कौन होगा, यह अग्रीमेंट करने वाले लोग पहले से ही तय करते हैं. वो कोई भी हो सकता है. बस फैसला कानूनी विधा के अनुरूप ही दिया जाना होता है. तो कोई भी वकील या रिटायर्ड जज अक्सर आर्बिट्रेटर नियुक्त किये जाते हैं. सबसे बढ़िया है INDIAN COUNCIL OF ARBITRATION, : Room 112, Federation House, Tansen Marg, New Delhi, 110001,011 2371 9102 को आर्बिट्रेटर नियुक्त किया जाए. सरकारी संस्थान है. "बांगड़ सीमेंट सस्ता नहीं सबसे अच्छा." आर्बिट्रेशन की विडियो रिकॉर्डिंग होनी चाहिए, अन्यथा बाद में हारने वाला पक्ष नंगे-पन की हद तक मुकर जाता है और आर्बिट्रेटर तक को कोर्ट में घसीट लेता है. मुल्क में आर्बिट्रेटरों की फ़ौज खड़ी की जा सकती है. यकीन जानें, प्रॉपर्टी-चेक बाउन्सिंग जैसे मैटर जो दशकों चलते हैं कोर्टों में, महीनों में निपट जायेंगे, वो भी बिना कोर्ट जाए. 8) बहुत केस मात्र इसी बात पर घिसटते रहते हैं कि कोई एक पार्टी कोर्ट में यही कहती रहती है कि उसे अलां-फलां नोटिस नहीं मिला या समय पर नहीं मिला. इसे बड़ी आसानी से हल किया जा सकता है. आज प्रक्रिया यह है कि रजिस्टर्ड AD लैटर भेजा जाता है, जिसे पोस्टमैन रिसीव करवाता है. आलम यह है कि पोस्टमैन बेचारा बड़ा ही हकीर-फकीर सा कारिन्दा होता है इस निज़ाम का, सीढ़ी का सबसे निचला स्टेप, जो बड़े थोड़े से पैसों में बिक जाता है. आखिर दुनिया की चमक–दमक-धमक उसे भी लुभाती है. इस बे-ईमान दुनिया में जो ईमान-दार रहे, वो तूचिया साबित होता है अन्त-पन्त, यह उसे भी समझ आता है. फिर लैटर बंद होता है, बड़ी आसानी से कोर्ट में बका जा सकता है कि लिफाफा खाली था. मुझे याद है, कुछ सालों पहले तक रमेश नगर, दिल्ली डाक-खाना खुली RTI एप्लीकेशन ले लेता था. और उसकी कॉपी के हर पन्ने पर अपनी मोहर मार के देता था. यह था 'बेस्ट तरीका'. लेकिन सरकार को समझ आ गया कि जनता को बेस्ट सर्विस तो मिलनी ही नहीं चाहिए, सो यह ढंग जल्द ही बंद कर दिया गया. अब आप भेजते रहो RTI रजिस्टर्ड डाक से, घंटा नहीं परवा करता कोई. खैर, कोर्ट को शुरुआती नोटिस भेजने का जिम्मा भी खुद पर लेना चाहिए, जिसमें दस्ती का प्रावधान हो, भेजने वाला साथ खुद जा सके 'प्रोसेस सर्वर' के साथ, या फिर अपना कोई बन्दा भेज सके. उस विजिट की विडियो रिकॉर्डिंग हो. मसला हल. और RTI एप्लीकेशन लेने का ‘बेस्ट तरीका’ फिर से शुरू कर लेना चाहिए. इसके साथ ही 'तार/ टेलीग्राम' व्यवस्था भी फिर से शुरू की जा सकती है. कम से कम कानूनी नोटिस भेजने के लिए तो इसका उपयोग किया ही जा सकता है. E-post कुछ-कुछ इसका ही विकल्प है, लेकिन पोस्ट जिसे भेजी गई उसे मिली या नहीं, E-post यह सुनिश्चित नहीं करती. सो फिलहाल यह एक निकम्मी सर्विस है इस मामले में. लेकिन अगर E-post को रजिस्टर्ड भी कर दिया जाये तो कम से कम भेजे गए कंटेंट को चैलेंज करना मुश्किल होगा, बशर्ते रिसीव ठीक से हुई हो. 9) आपको पता है, पप्पू की शादी में विडियो रिकॉर्डिंग क्यों करवाई गयी थी? यादगार के लिए न. सही बात. लेकिन एक और बात है, और वो भी सही बात है. रिकॉर्डिंग इसलिए करवाई गई थी चूँकि वो एक कानूनी सबूत है. जी हां. समझ लीजिये, पूरी शादी ही कानूनी प्रक्रिया है. जो बाराती-घराती हैं, वो गवाह हैं और विडियो-रिकॉर्डिंग विडियो-एविडेंस है. कोई मुकर सकता है कि उसकी शादी ही नहीं हुई? न. आसान नहीं है. लगभग असम्भव. तो मल्लब यह कि आपको भी गवाह और विडियो-ऑडियो रिकॉर्डिंग की अहमियत समझनी है. किसी को पैसा उधार दें-प्रॉपर्टी किराए पर दें, खरीदें-बेचें, तो हो सके तो सारी प्रक्रिया की ऑडियो-विडियो रिकॉर्डिंग कर लें. बहुत काम आयेगी. आसान नहीं है मुकरना. कोर्ट पर भी केसों का वज़न कम पड़ेगा, अगर मसले वहां तक जाएँ ही नहीं. जब कच्चे-पक्के ढंग से कोई डील की जाती है तो डिफाल्टर पार्टी को मौका मिल जाता है डील को चैलेंज करने का और मसला सालों कोर्ट में खिंचता रहता है. तो इससे बचने के लिए पुख्ता ढंग से डील करें, आर्बिट्रेशन का क्लॉज़ हर अग्रीमेंट, हर डीड में डालें, ऑडियो-विडियो रिकॉर्डिंग करें. मज़बूत गवाहों की मौजूदगी में डील करें. ऐसे आप पर और कोर्ट पर केसों का बोझ कम पड़ेगा. 10) वैसे तो एक अच्छे समाज में पुलिस, कोर्ट, फ़ौज की मौजूदगी नाममात्र होनी चाहिए. इनका प्रयोग अपवाद के तौर पर होना चाहिए. लेकिन यह तब तक नहीं होगा जब तक निजी सम्पति का उन्मूलन नहीं होगा, परिवार के कंसेप्ट की विदाई नहीं होगी, मुल्कों की अर्थी नहीं निकलेगी. दिल्ली अभी बहुत-बहुत दूर है. लेकिन दिल्ली कितनी ही दूर हो कभी तो निकट भी होगी. कभी तो वहां पहुंच भी होगी. सो यह सब सुझाव बीच के समय के लिए है. अपने सुझाव दीजिये, स्वागत है. नमन.....तुषार कॉस्मिक
I read somewhere, "A hero is only as good as his villain."
Wow!

Great Words!!

Monday, 12 February 2018

A wise man was dying. 

A TV New Reporter asked him:

"As you are dying, what do you think of life sir?"

"A Good riddance", he replied.

Sunday, 4 February 2018

जित्ता धन, समय और ऊर्जा आज तक मन्दिर, गुरूद्वारे और चर्चों में लगा है, उत्ता अगर वैज्ञानिकता पैदा करने में लगा होता तो इंसान को शायद ही नकली खुदाओं के आगे हाथ जोड़ने- मत्थे रगड़ने की ज़रूरत पड़ती.

Tuesday, 30 January 2018

A park is just like parking. Parking is used to park vehicles. A park is used to park human beings. 

Friday, 26 January 2018

"Ignorance of Law is no Excuse."
Right.
But the irony is, law is not taught in schools or colleges as a mandatory subject.
Does this mean, people learn law by birth? Wow!

Wednesday, 24 January 2018

Who are we?

Who are we?

Newer and updated versions of our parents

and

Older and outdated version of our kids.

Friday, 8 December 2017

सड़क-नामा

भारत में सड़क सड़क नहीं है...भसड़ है.
यह घर है, दुकान है. इसे घेरना बहुत ही आसान है. इसपे सबका हक़ है, बस पैदल चलने वाले को छोड़ के. उसके लिए फुटपाथ जो था, वो अब दुकानें बना कर आबंटित कर दिया गया है. उन दुकानों के आगे कारों की कतार होती है. पदयात्री सड़क के बीचो-बीच जान हथेली पर लेकर चलता जाता है. रोम का ग्लैडिएटर. कहीं पढ़ा था कि एक होता है ‘राईट टू वाक (Right to walk)’, पैदल चलने का हक़, कानूनी हक़. बताओ, पैदल चलने का भी कोई कानूनन हक़ होता है? मतलब अगर कानून आपको यह हक़ न दे तो आप पैदल भी नहीं चल सकते. खैर, एक है पैदल चलने का हक़ ‘राईट टू वाक (Right to walk)’ और दूसरा है ‘राईट टू अर्न (Right to earn)’ यानि कि कमाने का हक़. जब इन दोनों हकों में कानूनी टकराव हुआ तो कोर्ट ने ‘राईट टू अर्न’ को तरजीह देते हुए फुटपाथ पर रेहड़ी-पटड़ी लगाने वालों को टेम्पररी जगहें दे दीं. तह-बज़ारी. अब वो अस्थाई जगह, स्थाई दुकानों को भी मात करती हैं. जिनको दीं थीं, उन में से शायद आधे भी खुद इस्तेमाल नहीं करते. किराए पर दे नहीं सकते कानूनन, भला फुटपाथ भी किराए पर दिया जा सकता है कोई? लेकिन आधे लोग किराया खाते हैं उन जगहों का. एक किरायेदार को मैं भड़का रहा था, "कितना किराया देते हो?" "छह हज़ार रुपये महीना." "क्यों देते हो? मत दो." "ऐसा कैसे कर सकते हैं, गुडविल खराब होगी. कल कोई हमें दुबारा दुकान किराए पर नहीं देगा." "अरे, दुबारा दुकान किराए पर लेने की नौबत तब आयेगी न जब मालिक तुम से यह जगह छुड़वा पायेगा. जाने दो उसे कोर्ट. यह जगह उसके बाप की ज़र-खरीद नहीं है. सड़क है." वो कंफ्यूजिया गया और मैं मन ही मन मुस्किया गया.
सड़क के बीचों-बीच डिवाइडर पे भी लोग सोते हैं और वहां भी कहीं-कहीं लोगों ने घर बसा रखे हैं. अगर कोई इन सोये लोगों पे कार चढ़ा दे तो मुझे समझ ही नहीं आता कि गलती कार वाले की है या डिवाइडर-फुटपाथ पर सोने वाले की. न तो फुटपाथ सोने के लिए बना था और न ही कार चलाने के लिए. शायद दोनों की ही बराबर गलती होती है. खैर. कोर्ट में केस चलता रहता है और नतीजा ढाक के तीन पात निकलता है. हाँ, 'जॉली एल.एल. बी.' जैसी फिल्म ज़रूर बन जाती है, इस विषय पर.
सड़क पार करने के लिए जो सब-वे बनाये जाते हैं, वो ज़्यादातर प्रयोग नहीं होते चूँकि उनको भिखमंगों और नशेड़ियों ने अपना ठिकाना बना रखा है. वहां दिन में भी रात जैसा अन्धेरा होता है. खैर, बनाने थे बना दिए, पैसे खाने थे खा लिए. कौन परवा करता है कि सही बने या नहीं, प्रयोग हो रहे हैं कि नहीं और अगर नहीं हो रहे तो क्यों नहीं हो रहे? और अगर हो रहे हैं तो सही से प्रयोग हो पा रहे हैं कि नहीं?
राजू भाई के साथ पंजाबी बाग, क्लब रोड से निकल रहे थे. मैंने कहा, "भाई, अब तो रोहतक रोड़ से निकलना चाहिए, क्लब रोड पे तो अब दोनों तरफ बहुत गाड़ियाँ खड़ी होती हैं, निकलना बहुत मुश्किल हो जाता है."

वो बोले, "जब सड़क के दोनों और दूकानें खुल जायेंगी तो चलने की जगह कहाँ बचेगी? सड़क चलने के लिए है या बाज़ार बनाने के लिए."

पश्चिम विहार, दिल्ली में रहता हूँ. पास ही विष्णु गार्डन इलाका है. बहुत सी जींस बनाने की अवैध फैक्ट्री हैं वहां. सब काम मुसलमानों के हाथ में हैं. पीछे नबी के जन्म का जुलुस निकाल रहे थे. घोड़े वाले मन्दिर से पश्चिम विहार मात्र आधा किलोमीटर है, यकीन मानें मैं यह दूरी पार ही नहीं कर पाया, सडकों पर इतना जमघट. मुझे कार वापिस घुमानी पड़ी और 3-4 किलोमीटर का चक्कर काट दूसरे रूट से घर आना पड़ा. यह सब धर्म, मज़हब, दीन कुछ भी नहीं है. यह सब बकवास है जो हिन्दू, सिक्ख और अब मुस्लिम भी करने लगे हैं. यह धार्मिक आज़ादी नहीं, धार्मिक बर्बादी है. रघुबीर नगर, दिल्ली, 857 का बस स्टैंड. वहां एक मस्जिद भी है. इस के आगे दोनों तरफ कुल मिला कर शायद 200 फुट चौड़ी सड़क होगी. लेकिन जुम्मे को आपको वहां से निकलना भारी हो जाएगा चूँकि मुस्लिम एक तरफ़ का रस्ता बंद कर वहां नमाज़ पढ़ते हैं. अभी दो-तीन दिन पहले ही मैं रघुबीर नगर घोड़े वाला मन्दिर से गुज़र रहा था. भगवे झंडे, ऊपर ॐ का छापा. मोटर साइकिल से रस्ता घेर कर सरकते सैंकड़ों लोग. मैंने कार में से ही पूछा, “ये क्या कर रहे हो भाई?” “शौर्य दिवस मना रहे हैं. बाबरी मस्जिद तोड़ी थी न.” पूरा जुलुस था. गाजा-बाजा. फोटो-सेल्फी लेते लोग. नाचते-शोर मचाते लोग. नारे लगाते लोग. मूर्ख-पग्गल लोग. जैसे-तैसे निकाली कार. कांवड़ के दिनों में पूरी दिल्ली की सड़कें शिव की महिमा गाती हैं “बम बम. बोल बम. बोल भोले बम बम.” बचते-बचाते हम निकलते हैं. कहीं किसी 'भोले' को टच भी हो गए तो वो सारा भोलापन भूल जाता है और तांडव मचा देता है, तीसरा नेत्र खोल देता है. तौबा. धार्मिक लोग जगह-जगह इन भोलों के खाने-पीने का इन्तेजाम करते हैं और मेरे जैसे अधर्मी-पापी इन सब को मन ही मन कोसते रहते हैं. सिक्ख बन्धु भी कहाँ पीछे हैं? गुरु नानक का जन्म-दिवस था पीछे. तो ख़ूब बाजे-गाजे के साथ शोभा-यात्रा निकाली गई. मज़ाल है कोई और निकल पाया हो सड़क से. फिर सुबह-सवेरे प्रभात-फेरी भी तो निकालते हैं. कोई चार बजे सुबह, अमृत वेले, सड़क पर ढोलकी-छैने बजाते हैं. “मिटी धुंध जग चानन होआ.” मैंने पूछा श्रीमति जी से, “दिन हो गया क्या?” “नहीं, अभी नहीं.” “अबे, फिर ये क्यों गा रहे हैं, मिटी धुंध, जग चानन होआ?” “बस करो, सोये-सोये भी उल्टा ही सोचते हो. सो जाओ.” “सोने दें ये लोग, तब न.” गर्मी में सिक्ख बन्धु सडकों पर ठंडा-मीठा पानी पिलाते हैं. जिनको नहीं प्यास उनको भी पकड़-पकड़ पिलाते हैं. ट्रैफिक रोक-रोक पिलाते हैं. सेवा करते हैं भाई अगले. आपको न करवानी हो लेकिन उनको तो करनी है न. सेवा करेंगे, तभी तो मेवा मिलेगा. आप उनके मेवे में कैसे बाधक हो सकते हैं? क्या कहा? “मीठा ज्यादा डालते हैं और दूध का सिर्फ रंग होता है.” “न. न. अच्छे बच्चे यह सब नोटिस नहीं करते. चुप-चाप गट से पी जाते हैं. प्रसाद है भाई. तुम्हें शुगर है? कोई फर्क नहीं पड़ता. इसमें गुरु साहेब का आशीर्वाद है. पी जाओ. गुरु फ़तेह.” ट्रैफिक-लाइट कुछ लोगों के लिए स्थाई धंधा देती हैं. भिखमंगे कारों के शीशे ऐसे बजाते हैं जैसे वसूली कर रहे हों. हिजड़े ताली बजाते हुए हक़ से मांगते हैं. कितने असली कितने नकली, किसी को नहीं पता. कोई समय था भीख मांगने में भी एक गरिमा थी. “जो दे उसका भला, जो न दे उसका भी भला.” लेकिन अब तो भिखारी को दिए बिना आप भला बात भी कैसे कर सकते हो? भीख दया भाव से नहीं, जान छुडाने के लिए देनी पड़ती है. गाड़ी का शीशा साफ़ करता हुआ व्यक्ति पैसे ऐसे मांगेगा जैसे हमने उससे अग्रीमेंट किया हो कि हमारी गाड़ी ट्रैफिक लाइट पर आयेगी और वो शीशा साफ़ करने का नाटक करेगा और हम उसे पैसे निकाल कर देंगे. तौबा! छोटी बच्चियां, कोई 5 से 10 साल की, जिमनास्टिक टाइप का खेला दिखायेंगी और फिर भीख मांगेंगी. मैं सोचता हूँ, “इनके माँ-बाप अगर इनके हितैषी होते तो इनको पैदा ही नहीं करते.” गुब्बारे बेचता बच्चा. आपको नहीं लेने गुब्बारे लेकिन उसे आपसे पैसे लेने ही हैं. वो पहले गुब्बारे लेने का आग्रह करेगा, मना करने पर भीख मांगेगा. कुछ चौक पर इतने ज़्यादा मांगने वाले होते हैं कि बत्ती ग्रीन से रेड करा देते हैं. "ट्रैफिक सिग्नल", यह फिल्म ट्रैफिक सिग्नल पर भीख मांगने वालों की ज़िन्दगी दिखाती है. देखने के काबिल है. दारु से धुत लोग अक्सर सडकों पर पसरे दीखते हैं. तीस हज़ारी से वापिस आ रहा था तो सड़क के बीच एक पग्गल अधलेटा देखा. उसे कोई फर्क नहीं पड़ रहा ट्रैफिक से. अपने आप बचते रहो और उसे बचाते रहो. अगर उसे लग गई तो गलती आपकी, आपके बाप की. कुछ अँधेरे मोड़ों पर हिजड़े और लड़कियां खड़े हो ग्राहक ढूंढते हैं. ऐसा कम है, लेकिन है. दिल्ली की सड़कों को नब्बे प्रतिशत कारों ने घेरा होता है. कार चाहे लाखों रुपये की हो लेकिन अक्ल धेले की नहीं होती. कहीं भी गाड़ी खड़ी कर देंगे. मोड़ों पर नहीं खड़ी करनी चाहिए लेकिन वहीं खड़ी करेंगे. होती रहे मुड़ने वाले वाहनों को दिक्कत. सड़क इनकी है, इनके रसूख-दार बाप की है. मज़ाल है किसी की, जो इनको ‘ओये’ भी कह जाये. रसूख-दार बाप. याद आया, वो तो अपने नाबालिग बच्चों को कारें पकड़ा देते हैं. किसी को उड़ा भी देंगे तो क्या फर्क पड़ता है? बाप का पैसा और रसूख किस दिन काम आयेगा? वैसे भी नाबालिग को कहाँ कोई सजा होती है. कुछ महान लोग खटारा ही नहीं, कबाड़ा कारें भी खड़ी रखते हैं. शायद जगह घेरे रखें इसलिए, शायद उनकी लकी कार है वो कबाड़ा इसलिए, शायद वो अक्ल के अंधे हैं इसलिए. पार्किंग के लिए अब कत्ल तक होने लगे हैं. जगह होती नहीं लेकिन जो कार ले आया, वो समझता है कि जब गाड़ी उसने ले ली है तो उसे आपके घर के आगे गाड़ी खड़ी करने का हक़ है. लड़ते रहो आप अब. अब कारें दिल्ली की सड़कों पर चलती नहीं, रेंगती हैं. इंच-इंच. मैं तो चलते-चलते सोता रहता हूँ. सोते-सोते जगता रहता हूँ. किसी को गाड़ी लग जाये तो लोग गन निकाल लेते हैं, निकाल ही नहीं लेते, ठोक भी देते हैं. मैंने अपनी कार से राजस्थान, हिमाचल, उत्तरांचल, पंजाब और जम्मू-कश्मीर के ट्रिप किये हैं, 15-15 दिन के. मुझे यह बिलकुल पसंद नहीं, जैसे लोग 3-4 दिन निकाल घूमने जाते हैं. ऐसे क्या घूमना होता है? इत्ता समय तो आने-जाने में ही निकल जाता है. भगे-भगे जाओ और थके-टूटे लौट आओ. न. कम से कम पन्द्रह दिन लो और एक स्टेट घूम लो. अपना यही तरीका रहा. खैर, लम्बी ड्राइव का अपना मज़ा था. उस दौर में हाई-वे पर पंच-तारा किस्म के ढाबे अवतरित नहीं हुए थे. सुविधाओं का अभाव था. मैं अक्सर सोचता, “क्या हर दो-चार किलो-मीटर की दूरी पर पुलिस वैन, एम्बुलेंस, फायर ब्रिगेड, टॉयलेट नहीं होना चाहिए? हाई-वे रात को रोशन नहीं होने चाहियें क्या?” देखता हूँ वो अभी भी नहीं हुआ. बीच-बीच में सड़क से खींच रेप, मर्डर, लूट-पाट की खबरें आती रहतीं हैं. अलबत्ता ढाबे आज बेहतर मिल जाते हैं. लेकिन उनको ढाबा कहना सही नहीं है, वो रेस्तरां हैं. अगर आपको ढाबा ही चाहियें तो जहाँ ट्रक वाले खाते हैं, वहां रुकिए और कीजिये आर्डर दाल फ्राई, मज़ा आ जायेगा. घर से कदम बाहर धरते ही हम कहाँ होते हैं? सड़क पर. और सड़क से कदम बाहर रखते ही हम कहाँ होते हैं? अमूमन घर में. लेकिन हम अपना घर सजा-संवार लेते हैं. सड़क से हमें कोई मतलब ही नहीं. सड़कों को सुधार की आज भी बहुत ज्यादा ज़रूरत है. और सड़कों को ही नहीं सड़क पर चलने वालों को भी सुधार की बहुत-बहुत ज़रूरत है. रोड़-सेंस जीरो है. लोग सड़क को सड़क नहीं समझते, ड्राइंग रूम समझते हैं, जैसे मर्ज़ी चलते-फिरते रहते हैं. आगे वाला बिलकुल सही गाड़ी चला रहा हो, जितना ट्रैफिक की स्पीड हो, उसी स्पीड से गाड़ी चला रहा हो, फिर भी पीछे वाले को सब्र नहीं होता. उसे हॉर्न बजाना है तो बस बजाए जाना है. जन्मसिद्ध अधिकार का उचित प्रयोग! होता रहे आपका ब्लड प्रेशर ऊपर-नीचे. की फरक पैंदा ए? असल में उसे समस्या यह नहीं कि आपकी गाड़ी की स्पीड क्या है, उसे समस्या यह है कि आपकी गाड़ी उसके आगे है ही क्यों. उसका बस चले तो अपनी गाड़ी उड़ा ले या आपकी गाड़ी उड़ा दे. छोटी-मोटी रेड-लाइट पर रुकना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं महान लोग. अगर आपने गाड़ी रोक भी दी तो पीछे वाला आपको हॉर्न मार-मार परेशान करेगा कि क्यों रुके हो, मतलब रेड-लाइट जम्प क्यों नहीं करते? अगर आप ज़ेबरा-क्रासिंग पर रुके हो तो भी पीछे वाले आपको हॉर्न मार-मार अहसास करवा देंगे कि आपको गाड़ी आगे बढ़ानी चाहिए, मतलब रोको भी तो ज़ेबरा-क्रासिंग पार करके. यह तो हाल है. आमने-सामने अड़ जाती हैं कारें, कोई पीछे हटने को राज़ी नहीं, सारा ट्रैफिक जाम कर देते हैं. गाड़ियाँ नहीं इक दूजे के ईगो अड़ जाते हैं कहीं पढ़ा था की एक संकरे पुल पर दो रीछ आमने सामने आ गए. पुल इतना संकरा था कि पीछे तक नहीं जा सकते थे. आधा रस्ता आ चुके थे. नीचे गहरी नदी. लेकिन इनके ईगो नहीं अड़े. रीछ इंसानों से समझ-दार निकले. एक रीछ बैठ गया और दूसरा उसके ऊपर से निकल गया. कितनी समझ-दारी! यहाँ ज़रा सा ट्रैफिक धीमा हो जाये, लोग अपनी साइड छोड़ सामने वाली की साइड में घुस जाते हैं. श्याणे सारे ट्रैफिक की ऐसी-तैसी फेर देते हैं. इंसानों से ज़्यादा समझ-दार तो चींटियां होती हैं, कभी ट्रैफिक जैम में नहीं फंसती.


जो सबसे तेज़ रफ्तार गाड़ियों के लिए लेन होती है, वहां सबसे कम रफ्तार वाले वाहन चलते हैं. मस्त. हाथियों की तरह. बड़े ट्रक. ट्राले. अब आप निकलते रहो, जिधर मर्ज़ी से. यहाँ लेन से कुछ लेना-देना है ही नहीं.

आपने विडियो गेम खेला होगा आपने जिसमें एक कार या मोटर-साईकल होती है आपकी, जिसे आपको तेज़ चलती दूसरी गाड़ियों से बचाना होता है. अब हम सब वो गेम रोज़ खेलते हैं, लेकिन असली. 
पढ़ा था कहीं कि सड़कें युद्ध-स्थल तक तोपें और टैंक आदि लाने-ले जाने के लिए बनाई जातीं थीं, लेकिन आज तो हर सड़क ही अपने आप में युद्ध-स्थल बन चुकी है.लोग सड़कों पर ही लड़ते-मरते हैं. और पढ़ा था कि युद्धों में उतने लोग नहीं मरते जितने सड़क एक्सीडेंटों में मरते हैं. यह बात कितनी सही-गलत है, नहीं पता लेकिन बहुत लोग मरते हैं, ज़ख्मी होते हैं सड़कों पर, यह पक्का है. मैं तो किसी का पलस्तर चढ़ा देखते ही पूछ बैठता हूँ, "टू-व्हीलर से गिरे क्या?" और ज़्यादातर जवाब "हाँ" में मिलता है. जगजीत सिंह और चित्रा सिंह का बेटा विवेक सिंह, अजहरुद्दीन का बेटा, जसपाल भट्टी, साहेब सिंह वर्मा जैसे लोग एक्सीडेंट में ही मारे गाये तो आम आदमी की क्या औकात? लोग पीछे से ही गाड़ी से उड़ा देते हैं. मैं हमेशा नियमों के पालन का तरफ-दार हूँ, लेकिन नियमों के साथ-साथ अक्ल लगाने का भी तरफ-दार हूँ. "लीक लीक गाड़ी चले, लीक चले कपूत, ये तीनो लीक छोड़ चलें, शायर, शेर और सपूत." महान शब्द हैं ये, लेकिन लीक छोड़ने का मतलब यह नहीं कि लीक छोड़ने के लिए लीक छोड़नी है. लीक छोड़नी मात्र इसलिए कि वो छोड़ने के ही लायक है, लीक छोड़नी क्योंकि उसपे चलना खतरनाक है, घातक है. बचपन से हमें सिखाया गया कि हमेशा बाएं (लेफ्ट) हाथ चलो. सड़क पर पैदल चलते हुए मैं अक्सर सोचता कि ऐसे तो पीछे से आती हुई कोई भी गाड़ी हमें उड़ा सकती है. सामने से आती हुई गाड़ी से तो हम खुद भी बचने का प्रयास कर सकते हैं. बार-बार पीछे मुड़-मुड़ कर देखते हुए कैसे चला जा सकता है? सो मैं हमेशा पैदल चलता तो दायें(राईट) हाथ. अभी पीछे ट्रेड-फेयर गये तो वहां से ट्रैफिक पुलिस के कुछ पम्फलेट लिए. साफ़ हिदायत लिखी थी कि पैदल चलने वाले राईट चलें. वाह! मेरा दिमाग दशकों आगे चलता है. जब कोई और आपको टके सेर भी न पूछे तो आप खुद ही अपनी पीठ थप-थपा दें. और क्या? पुलिस सिर्फ पर्सनल वसूली में रूचि लेती है न कि ट्रैफिक कैसे सुधरे इस में. सड़कों पर जगह-जगह मूवी कैमरे लगा देने चाहियें, जो-जो नियम तोड़ता दिखे, उसे चालान भेज दिए जायें, जो न भरे उसे फयूल मत दें. जो न भरे उसकी गाड़ी की सेल ट्रान्सफर मत करो. फिर रोड सेंस सिखाने की वर्कशॉप भी चलायें, उस में हाजिरी के बिना दुबारा गाड़ी सड़क पर मत लाने दें. जो पैसा इक्कट्ठा हो, उसे सड़कों की बेहतरी में लगायें. मामला हल. खैर, बंद किये जाएँ सड़क पर नमाजें, जुलुस, जलसे, शोभा-यात्राएं, कांवड़-शिविर. सड़क इन कामों के लिए नहीं है. वो सिर्फ चलने के लिए है. वो दुकान-दारी के लिए नहीं है. धार्मिक(?) दुकान-दारी के लिए भी नहीं. लोगों ने अपने घर चमका लिए हैं लेकिन सडकें बाहर टूटी हैं, चूँकि सड़कें सार्वजनिक हैं. "सांझा बाप न रोये कोई." सड़क नेता के लिए, लोकल बाबुओं के लिए तो कमाई का साधन है. वहां सदैव खुदाई, भराई, बनवाई, तुड़वाई चलती रहती है. अन्त-हीन. सड़क में गड्डे हैं या गड्डे में सड़क, पता ही नहीं लगता. अभी कहीं पढ़ा था कि सड़क के गड्डे के कारण स्कूटर फिसलने से किसी की मौत हो गई तो उसके परिवार ने सरकार पर लाखों रुपये हर्ज़ाने का केस ठोक दिया. ऐसा ही होना चाहिए, लेकिन वो पैसा ज़िम्मेदार नेता और बाबुओं की जेबों से निकलना चाहिए, तब मज़ा है. कल समालखा गए थे दिल्ली चण्डीगढ़ हाई-वे से, तो Sanjay Sajnani भाई कह रहे थे, "सड़क तो पूरी तरह से बनी नहीं है, फिर सरकार ये टोल किस चीज़ का वसूल रही है?" "पता नहीं भाई, मुझे तो लगता है सरकार पहले ही ज़रूरत से ज़्यादा टैक्स ले रही है लोगों से?" "पूछना नहीं चाहिए RTI लगा के?" "बिल्कुल और फिर जवाब अगर ढंग का न हो तो PIL(जनहित याचिका) लगानी चहिये." ह्म्म्म....हम्म्म्म.....सोचते रहे हम... सरकार को कोसते रहे हम. हमारी सडकें हमारे सड़ चुके तन्त्र का लाइव टेलीकास्ट हैं. लेकिन अव्यवस्था/ कुव्यवस्था/ बेवस्था को ही व्यवस्था मान लिया गया है, स्वीकार कर लिया है. आप अगर धन कमा भी लेंगे, तो भी आपके घर के बाहर सड़क टूटी मिलेगी.....सड़को पर बेहूदगी से गाड़ियाँ चलाने वाले-पार्क करने वाले लोग मिलेंगे.....बदतमीज़ पुलिस मिलेगी.....स्नेल की चाल से रेंगता ट्रैफिक मिलेगा....आपके धन कमाने से आप सिर्फ अपने घर का इन्फ्रा-स्ट्रक्चर सही कर सकते हैं, मुल्क का नहीं.....उसके लिए आप को या तो मुल्क छोड़ देना होगा या फिर मेरे जैसे किसी सर-फिरे के साथ होना होगा. एक किताब पढी थी मैंने 'बिल गेट्स' द्वारा लिखित "दी रोड अहेड (The Road Ahead)" (आगे की सड़क). यह किताब इंसानी भविष्य किस सड़क पर दौड़ेगा, इसकी भविष्य-वाणियों से भरी है. किताब कोई दस बरस पहले पढ़ी थी. ठीक से याद कुछ नहीं, लेकिन मुझे लगता है उसमें कई भविष्य-वाणियाँ सो सत्य साबित भी हो चुकी होंगी. भविष्य सिर्फ तिलक-टीका-धारी पंडित ही नहीं बताते बिल गेट्स जैसे लोग भी बताते हैं और ज़्यादा सटीक बताते हैं. भारत की सड़कों का भविष्य आप बताएं-बनाएं. नमन..तुषार कॉस्मिक

आलोचक

हाँ, मैं सिर्फ आलोचना करता हूँ. और समझ लीजिये, आलोचना शब्द का अर्थ गहन नज़र से देखना होता है, नुक्स निकालना नहीं. लोचन यानि नज़र का प्रयोग. शरीर की ही नहीं बुद्धि की नज़र का भी प्रयोग करना.

सेकुलरिज्म

नहीं, हम एक सेक्युलर स्टेट बिलकुल नहीं है........एक सेक्युलर स्टेट में नास्तिक, आस्तिक, अग्नास्तिक सबकी जगह होनी चाहिए... स्टेट को किसी भी धारणा से कोई मतलब नहीं होता. वो निरपेक्ष है. उसका धर्म संविधान और विधान है. पुराण या कुरान नहीं.....ऐसे में किसी भी तरह की प्रार्थना का कोई मतलब नहीं है स्कूलों में....लेकिन आपके सब स्कूल चाहे सरकारी हों चाहे पंच-सितारी हों, सुबह-सुबह बच्चों को गैर-सेक्युलर बनाते हैं....उनकी सोच पर आस्तिकता का ठप्पा लगाते हैं. आपके तो अधिकांश स्कूलों के नाम भी संतों, गुरुओं के नाम पर हैं. मैंने नहीं देखा कि किसी स्कूल का नाम किसी वैज्ञानिक, किसी फिलोसोफर. किसी कलाकार के नाम पर हो. आपने देखा कि किसी स्कूल का नाम आइंस्टीन स्कूल हो, नीत्शे स्कूल हो, गलेलियो स्कूल हो, या फिर वैन-गोग स्कूल हो......देखा क्या आपने? नाम होंगे सेंट फ्रोएब्ले, सेंट ज़विओर, गुरु हरी किशन स्कूल या फिर दयानंद स्कूल..... अगर प्रार्थना ही करवानी है तो दुनिया के अग्रणी वैज्ञानिकों, कलाकारों, समाज-शास्त्रियों, फिलोसोफरों को धन्य-वाद की प्रार्थना गवा दीजिये. उसमें ऑस्कर वाइल्ड भी, शेक्सपियर भी, एडिसन भी, स्टीव जॉब्स, मुंशी प्रेम चंद भी, अमृता प्रीतम भी भी हों... यह होगा सेकुलरिज्म का बीजा-रोपण. अभी हम सेकुलरिज्म को सिर्फ किताबों में रखे हैं. और यह जो हिन्दू ब्रिगेड सेकुलरिज्म का विरोध करती है, वो कुछ-कुछ सही है. असल में वो विरोध अब अमेरिका तक में होने लगा है. वो विरोध सेकुलरिज्म के नाम पर इस्लाम जो फायदा उठाता है उसका है. इस्लाम में सेकुलरिज्म की कोई धारणा नहीं है. इस्लाम तो सिवा इस्लाम के किसी और धर्म को धर्म ही नहीं मानता. इस्लाम में जिहाद है. इस्लाम में अपनी सामाजिक व्यवस्था है. इस्लाम में अपना निहित कायदा-कानून है. तो फिर ऐसे में सेकुलरिज्म का क्या मतलब रह जाता है? लेकिन यहाँ विरोध इस्लाम का होना चाहिए न कि सेकुलरिज्म का. लेकिन भारत में चूँकि अधिकांश समय सरकार कांग्रेस की रही है. यहाँ हज सब्सिडी चलाई गई, यहाँ मुस्लिम के लिए अलग पर्सनल सिविल लॉ बनाया गया. यहाँ का बुद्धिजीवी भी हिन्दू की कमी तो लिखता-बोलता रहा लेकिन इस्लाम के खिलाफ चुप्पी साधे रहा. यहाँ तक कि ओशो भी कुरान के खिलाफ बोले तो जीवन के अंतिम वर्षों में. हिन्दू को अखरता है. उसे लगता है कि यह छद्म सेकुलरिस्म है. बात सही है. किसी एक तबके के साथ गर्म और किसी दूसरे के साथ नर्म व्यवहार किया जाए, और फिर खुद को सेक्युलर भी कहा जाए तो यहाँ कहाँ का सेकुलरिज्म हुआ? लेकिन हिंदुत्व वालों को तो सेकुलरिज्म वैसे ही अखरता है जैसे मुस्लिम को. जैसे इस्लाम में सेकुलरिज्म की कोई कल्पना नहीं, ऐसे ही हिंदुत्व वालों को भी सेकुलरिज्म एक आँख नहीं भाता. उन्हें तो सब वैसे ही हिन्दू लगते हैं, चाहे सिक्ख हों, चाहे बौद्ध, चाहे जैन. ईसाईयत और इस्लाम को वो भी धर्म नहीं मानते. तो विरोध सबका का होना चाहिए- इस्लाम का भी और इस्लाम या किसी भी और तबके की नाजायज़ तरफ़दारी का भी, छद्म सेकुलरिज्म का भी. और हिंदुत्व का भी. लेकिन सेकुलरिज्म का नहीं. सेकुलरिज्म अपने आप में दुनिया की बेहतरीन धारणाओं में से है. नमन.....तुषार कॉस्मिक

Thursday, 7 December 2017

सम्भोग

सम्भोग शब्द का अर्थ है जिसे स्त्री पुरुष समान रूप से भोगे. लेकिन कुदरती तौर पर स्त्री पुरुष से कहीं ज़्यादा काबिल है इस मामले में. उसका सम्भोग कहीं गहरा है, इतना गहरा कि वो हर धचके के साथ कहीं गहरा आनंद लेती है, पुरुष ऊपर-ऊपर तैरता है, वो गहरे डुबकियाँ मार रही होती है, जभी तो हर कदम में बरबस उसकी सिसकियाँ निकलती हैं. और फिर ओर्गास्म. वो तो इतना गहरा कि पुरुष शायद आधा भी आनंदित न होता हो. कोई सेक्सो-मीटर हो तो वो मेरी बात को साबित कर देगा. और उससे भी बड़ी बात पुरुष एक ओर्गास्म में खल्लास, यह जो शब्द है स्खलित होना, उसका अर्थ ही है, खल्लास होना. खाली होना, चुक जाना. लेकिन वो सब पुरुष के लिए है, वो आगे जारी नहीं रख सकता. लेकिन स्त्री के साथ ऐसा बिलकुल नहीं है. वो एक के बाद एक ओर्गास्म तक जा सकती है. जाए न जाए, उसकी मर्ज़ी, उसकी शारीरिक और मानसिक क्षमता और एच्छिकता, लेकिन जा सकती है. तो मित्रवर, निष्कर्ष यह है कि सम्भोग शब्द बहुत ही भ्रामक है. सेक्स में सम्भोग बिलकुल भी नहीं होता. स्त्री की कई गुणा सेक्स शक्ति के आगे पुरुष बहुत बौना है. मैं अक्सर सोचता कि कुदरत ने ऐसा भेदभाव क्यूँ किया? पुरुष को काहे नहीं स्त्री के मुकाबले बनाया? लेकिन फिर याद आया कि बच्चे को जन्म देने की पीड़ा भी तो वो ही सहती है, शायद उसी की क्षतिपूर्ती की कुदरत ने. पुरुष सेक्स में स्त्री से कमतर सामाजिक कारणों से भी है. वो सामाजिक बोझ को ढोता हुआ, पहले ही चुक चुका होता है. वो स्त्री के मुकाबले कहीं ज़्यादा बीमार रहता है, कहीं ज़्यादा नशों में लिप्त रहता है. एकाधिक ओर्गास्म छोड़िये, पुरुष अक्सर स्त्री को एक ओर्गास्म भी नहीं दे पाता. वो जैसे -तैसे बस अपना काम निपटाता है. अब आप इसे सम्भोग....समान भोग कैसे कहेंगे? किसी की क्षमता हो तीन रोटी खाने की और उसे आप आधी रोटी खिला दें तो कैसे उसका पेट भरे? यह स्त्री की त्रासदी. और समाजिक घेराबंदी कर दी गयी उसके गिर्द. वो चूं भी न करे. कई समाजों में तो उसकी भग-नासा तक काट दी जाती है बचपन में ही. ताकि उसे कम से कम सेक्स का आनन्द अनुभव हो. सही सभ्यता तब होगी जब स्त्री अपनी सेक्स की क्षमताओं को पूर्णतया अनुभव करेगी. और करवाना हर पुरुष की ज़िम्मेदारी है. उसे सीखना होगा बहुत कुछ. और सामाजिक ताना-बाना भी बदलना होगा. स्त्री उम्र में बड़ी हो, पुरुष छोटा हो तो ही बेहतर. अलावा इसके दोनों को बाकायदा ट्रेनिंग की ज़रुरत है. जैसे क्लच, ब्रेक दबाने और स्टीयरिंग घुमाना सीखने से कोईड्राइविंग नहीं सीखता, उसके लिए रोड के कायदे भी समझ में आना ज़रूरी है,रोड सेंस होना भी ज़रूरी है, उसी तरह से लिंग और योनि तक ही सेक्स सीमित नहीं है, उसके लिए स्त्री पुरुष के तन और मन का ताल-मेल होना ज़रूरी है, जो सीखने की बात है, जो मात्र शब्दों में ही सीखा सीखाया नहीं जा सकता, जो आप सबको सेक्स करते कराते सीखना होगा. अधिकांश पुरुष जल्द ही चुक चुके होते हैं...कोई सिगरट, तो कोई शराब, तो कोई मोटापे तो कोई किसी और स्यापे की वजह से. लेकिन यदि फिर भी दम बचा हो तो अपनी स्त्री के साथ सम्भोग करते चले जाओ, वो ओर्गास्म तक पहुंचेगी ही और यदि वहां तक तुम खुद न चुके तो अब गाड़ी आगे बढाते जाओ और बिना समय अंतराल दिए गतिमान रहो, स्त्री यदि ओर्गास्म तक पहुँच भी जाए तो उसे बहुत समय-गैप मत दीजिये, सम्भोग को गतिशील रखें, उसका सम्भोग पुरुष के सम्भोग की तरह ओर्गास्म के साथ ही खत्म नहीं होता, बल्कि ज़ारी रहता है. स्त्री निश्चय ही आगामी ओर्गास्म को बढ़ती जायेगी. और ऐसे ही चलते जाओ. वीर तुम बढे चलो, धीर तुम बढे चलो. सर्वधर्मान परित्यज्य, मामेकम शरणम् व्रज . सब धर्मों को त्याग, एक मेरी ही शरण में आ. कृष्ण कहते हैं यह अर्जुन को. मेरा मानना है,"सर्वधर्मान परित्यज्य, सम्भोगम शरणम् व्रज." सब धर्मों को छोड़ इन्सान को नाच, गाना, बजाना और सम्भोग की शरण लेनी चाहिए. बस. बहुत हो चुकी बाकी बकवास. बिना मतलब के इशू. नाचते, गाते, सम्भोग में रत लोगों को कोई धर्म, देश, प्रदेश के नाम पर लडवा ही नहीं सकेगा. और हाँ, सम्भोग मतलब, सम्भोग न कि बच्चे पैदा करना. कोई समाज शांत नहीं जी सकता जब तक सेक्स का समाधान न कर ले.....सो बहुत ज़रूरी है कि स्त्री पुरुष की दूरी हटा दी जाए.....समाज की आँख इन सम्बन्धों की चिंता न ले.......सबको सेक्स और स्वास्थ्य की शिक्षा दी जाए....सार्वजानिक जगह उपलब्ध कराई जाएँ. देवालय से ज़्यादा ज़रुरत है समाज को सम्भोगालय की......पत्थर के लिंग और योनि पूजन से बेहतर है असली लिंग और योनि का पूजन........सम्भोगालय....पवित्र स्थल...जहाँ डॉक्टर मौजूद हों.....सब तरह की सम्भोग सामग्री...कंडोम सहित.. और भविष्य खोज ही लेगा कि स्त्री पुरुष रोग रहित हैं कि नहीं ...सम्भोग के काबिल हैं हैं कि नहीं ...और यदि हों काबिल तो सारी व्यवस्था उनको सहयोग करेगी .....मजाल है कोई पागल हो जाए. आज जब कोई पागल होता है तो ज़िम्मेदार आपकी व्यवस्था होती है, जब कोई बलात्कार करता है तो ज़िम्मेदार आपका समाजिक ढांचा होता है...लेकिन आप अपने गिरेबान में झाँकने की बजाये दूसरों को सज़ा देकर खुद को भरमा लेते हैं समझ लीजिये जिस समाज में सबको सहज रोटी न मिले, साफ़ हवा न मिले, पीने लायक पानी न मिले, सर पे छत न मिले, आसान सेक्स न मिले, बुद्धि को प्रयोग करने की ट्रेनिंग की जगह धर्मों की गुलामी मिले वो समाज पागल होगा ही और आपका समाज पागल है आपकी संस्कृति विकृति है आपकी सभ्यता असभ्य है आपके धर्म अधर्म हैं नमन....तुषार कॉस्मिक

तीन पॉइंट

1.जिसे आप संस्कृति समझते हैं, वो बस विकृति है. 2.जिसे आप धार्मिकता कहते हैं, उसे मैं मूर्खता कहता हूँ, सामूहिक मूर्खता. 3. जिसे आप सनातन समझते हैं, वो मात्र पुरातन है, जितना पुराना, उतना ही सड़ा हुआ.

CYBORG

मुझे ऐसा लगता है कि आने वाले समय में किताबें, फिल्में, ऑडियो आदि सीधा मानव मस्तिष्क में ट्रांसप्लांट किये जा पायेंगे...इससे व्यक्ति के वर्षों बचेंगे.
और डाटा को सुपर कंप्यूटर में डाला जायेगा, जिसकी लॉजिकल प्रोसेसिंग के बाद वो रिजल्ट दे देगा कि सही क्या है या यूँ कहें कि सबसे ज़्यादा सम्भावित सही क्या है....और यह डाटा भी इन्सान पलों में ही access कर पायेगा. इससे तर्क-वितर्क और भी साइंटिफिक हो जायेगा.
इस तरह से किस उम्र में कितना डाटा डाला जाये, कंप्यूटर प्रोसेसिंग के रिजल्ट भी किस तरह से ट्रांसप्लांट किये जाएँ, यह सब भविष्य तय करेगा.
इंसानी जानकारियाँ और उन जानकारियों के आधार पर की गई उसकी गणनाएं/ कंप्यूटिंग/ तार्किकता/Rationality भविष्य में आज जैसी नहीं रहेंगी, यह पक्का है. इंसान कुछ-कुछ CYBORG हो जायेगा. यानि रोबोट और इन्सान का मिक्सचर.
तकनीक ही गेम-चेंजर साबित होगी. समाज खुद से तो बदलने से रहा. और नेता तो इसे जड़ ही रखेंगे ताकि उनका हित सधता रहे.

Monday, 4 December 2017

सेक्स और इन्सान

माना जाता है कि इन्सान इस पृथ्वी का सबसे समझदार प्राणी है. लेकिन यह इन्सान ही है, जो सेक्स न करके हस्त-मैथुन कर रहा है. "एक...दो...तीन...चार...हा...हा...हा....हा........." यह इन्सान ही है, जो पब्लिक शौचालय में लिख आता है, "शिवानी रंडी है.....", "भव्या गश्ती है", "मेरा लम्बा है, मोटा है, जिसे मुझ से Xदवाना हो, फ़ोन करे......98..........", आदि अनादि. यह इन्सान ही है, जो हिंसक होता है तो दूसरे की माँ, बहन, बेटी को सड़क पे Xद देता है. "तेरी माँ को xदूं........तेरी बेटी को कुत्ते xदें ........तेरी बहन की xत मारूं". यह इन्सान ही है, जो बलात्कार करता है और सेक्स के लिए न सिर्फ बलात्कृत लड़की का बल्कि अपना भी जीवन दांव पर लगा देता है. यह इन्सान ही है, जो गुब्बारे तक में लिंग घुसेड़ सुष्मा, सीमा, रेखा की कल्पना कर लेता है. यह इन्सान ही है, जो कपड़े पहने है, चूँकि उससे अपना नंग बरदाश्त ही नहीं हुआ. लेकिन फिर ढका अंग बरदाश्त नहीं होता तो वही कपड़े स्किन-टाइट कर लेता है. आज की फिल्में देखो तो हेरोइन अधनंगी है, पुरानी फ़िल्में देखो तो हेरोइन ने कपड़े पूरे पहने हैं लेकिन इत्ते टाइट कि अंग-अंग झाँक रहा है. वैजयंती माला-आशा पारेख की फिल्में याद करें. यह इन्सान ही है, जो सेक्स नहीं करता सो दूसरों को सेक्स करते देखता है. पोर्न जितना देखा जाता है उतना तो लोग मंदिर-गुरूद्वारे के दर्शन नहीं करते होंगे. यह इन्सान ही है, जो गीत भी गाता है तो उसमें सिवा सेक्स के कुछ नहीं होता. "तू मुझे निचोड़ दे, मैं तुझे भंभोड़ दूं. आहा...आहा." यह इन्सान ही है, जिसने शादियों का आविष्कार किया, जिससे परिवार अस्तित्व में आया, जिससे यह धरती जो सबकी माता है, उसे टुकड़ों में बांट दिया गया, ज़मीन को जायदाद में बदल दिया गया और इन्सान इन्सान के बीच दीवारें खिंच गईं, दीवारें क्या तलवारें खिंच गईं. "ज़र, ज़ोरू और ज़मीन, झगड़े की बस वजह तीन." लेकिन तीन नहीं, वजह एक ही है....और वो है सेक्स का गलत नियोजन चूँकि सेक्स के गलत नियोजन की वजह से ही ज़र, जोरू और ज़मीन अस्तित्व में आये हैं. "ये तेरी औरत है." "ये तेरा मरद हुआ आज से." जबकि न कोई किसी की औरत है और न ही कोई किसी का मर्द. इन्सान हैं, कोई कुर्सी-मेज़ थोड़ा न हैं, जिन पर किसी की मल्कियत होगी? वैसे और गहरे में देखा जाए तो वस्तुओं पर मलकियत भी इसीलिए है कि इंसानों पर मल्कियत है. अगर इन्सानों पर मलकियत न हो, अगर परिवार न हों तो सारी दुनिया आपकी है, आप कोई पागल हो जो मेज़-कुर्सी पर अपना हक जमाओगे. सारी दुनिया छोड़ टेबल-कुर्सी पर हक़ जमाने वाले का तो निश्चित ही इलाज होना चाहिए. नहीं? वो सब पागल-पन सिर्फ घर-परिवार-संसार की वजह से ही तो है. जब पति-पत्नी सम्भोग करते हैं तो वहां बेड पर दो लोग नहीं होते, चार होते हैं. पति की कल्पना में कोई और ही औरत होती है और पत्नी किसी और ही पुरुष की कल्पना कर रही होती है. वैसे वहां चार से ज़्यादा लोग भी हो सकते हैं......ख्यालात में पार्टनर बदल-बदल कर भी लाए जा सकते हैं. यह है जन्म-जन्म के, सात जन्म के रिश्तों की सच्चाई. शादी आई तो साथ में ही वेश्यालय आया. उसे आना ही था. रामायण काल में गणिका थी तो बुद्ध के समय में नगरवधू. और नगरवधू का बहुत सम्मान था. 'वैशाली की नगरवधू' आचार्य चतुर-सेन का जाना-माना उपन्यास है, पढ़ सकते हैं. 'उत्सव' फिल्म देखी हो शायद आपने. शेखर सुमन, रेखा और शशि कपूर अभिनीत. 'शूद्रक' रचित संस्कृत नाटक 'मृच्छकटिकम' पर आधारित थी यह फिल्म. वेश्या दिखाई गई हैं. खूब सम्मानित. आज भी किसी नेता, किसी समाज-सुधारक की जुर्रत नहीं कि वेश्यालय हटाने की सोच भी सके. वो सम्भव ही नहीं है. जब तक शादी रहेगी, वेश्यालय रहेगा ही. सनी लियॉनी को आखिर उस भारतीय समाज ने स्वीकार किया, जहाँ फिल्म अभिनेत्री अगर शादी कर ले तो उसे रिटायर माना जाता था. BB ki Vines, Carryminati, All India Bakchod, ये तीन टॉप के इंडियन youtube चैनल हैं. इन सब की एक साझी खूबी है. जानते हैं क्या? सब खुल कर माँ-बहन-बेटी xदते हैं. All India Bakchod ने तो अपने नाम में ही सेक्स का झंडा गाड़ रखा है. इन्सान ने सेक्स को बुरी तरह से उलझा दिया. बस फिर क्या था? सेक्स ने इन्सान का पूरा जीवन जलेबी कर दिया जबकि सेक्स एक सीधी-सादी शारीरिक क्रिया है, जिसे विज्ञान ने और आसान कर दिया है. विज्ञान ने बच्चे के जन्म को सेक्स से अलग कर दिया है. अब लड़की को यह कहने की ज़रूरत नहीं, "मैं तेरे बच्चे की माँ बनने वाली हूँ." और लड़के को विलन बनते हुए यह कहने की कोई ज़रुरत नहीं, "डार्लिंग, मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ, लेकिन देखो अभी यह बच्चा हमें नहीं चाहिए तो तुम किसी अच्छे से डॉक्टर से मिल कर इसे गिरा दो. यह लो पचास हज़ार रुपये. और चाहिए होंगे तो मांग लेना." विज्ञान ने यह सहूलियत दे दी है कि पुरुष और स्त्री एक दूसरे की स्वास्थ्य रिपोर्ट ले कर सेक्स में जाएँ. जगह-जगह शौचालय ही नहीं सार्वजनिक सम्भोगालय भी बनने चाहियें, जहाँ कोई भी स्त्री-पुरुष अपनी मर्ज़ी से सम्भोग कर सकें . उलझी हुई समस्याओं के समाधान इतने आसान और सीधे होते हैं कि उलझी बुद्धि को वो स्वीकार ही नहीं होते. इन्सान इस पृथ्वी का सबसे समझदार प्राणी है, उसकी बुरी तरह उलझी समस्यायों के समाधान इतने आसान कैसे हो सकते हैं? वो कैसे स्वीकार ले? वो कैसे स्वीकार कर ले कि उसकी समस्यायों के समधान हो भी सकते हैं. आपको पता है सड़क किनारे कुत्ता-कुतिया को सम्भोग-रत देख लोग उनको पत्थर मारने लगते हैं, जानते हैं क्यों? कैसे बरदाश्त कर लें, जो खुद नहीं भोग सकते, वो कुत्ते भोगें? मेरा प्रॉपर्टी का काम रहा है शुरू से. पुरानी बात है. एक जवान लड़का किसी लड़की को ले आया फ्लैट पे. उन दिनों नई-नई अलॉटमेंट थी. कॉलोनी लग-भग खाली थी. कुछ शरारती लोगों ने बाहर से कुंडी लगा दी और 100 नम्बर पे फोन कर दिया. पुलिस आ गई, लड़का-लड़की हैरान-परेशान. बेचारों की खूब जिल्लत हुई. दुबारा न आने की कसमें खा कर गए. बाद में जिन्होंने फ़ोन किया था, वो ताली पीट रहे थे. एक ने कहा, "साला, यहाँ ढंग की लड़की देखती तक नहीं और ये जनाब मलाई खाए जा रहे थे. मज़ा चखा दिया. हहहाहा..........." सेक्स जो इन्सान को कुदरत की सबसे बड़ी नेमत थी, सबसे बड़ी समस्या बन के रह गया. चूँकि इन्सान इस पृथ्वी का सबसे मूढ़ प्राणी है. नमन...तुषार कॉस्मिक

Sunday, 3 December 2017

राम-राम/रावण-रावण

घर के पास वाले पार्क में घूमता हूँ तो अक्सर बुज़ुर्ग सामने से 'राम-राम' करते हैं. मैं 'नमस्ते जी' ही कहता हूँ. एक अंकल को मज़े-मज़े में 'रावण-रावण' कह दिया. पकड़ ही लिए मुझे. 

"क्यों भई? यह क्या बोला जवाब में?" 
"कुछ नहीं अंकल, वो रावण भी तो महान था न?"

"नहीं तो उसे राम के बराबर का दर्ज़ा दोगे क्या?"
"अंकल उसके दस सर थे. ब्राहमण था. अन्त में लक्ष्मण उससे ज्ञान लेने भी तो जाता है, तो थोड़ा सा सम्मान, थोड़ा सा क्रेडिट रावण को भी देना चाहिए कि नहीं?"

अंकल थोड़ा सोच में पड़ गए और मैं निकल लिया पतली गली से.

मूर्खों का देश

जिस देश में धिन्चक पूजा, राधे माँ, निर्मल बाबा, स्वामी ॐ जैसे लोग सलेबिरिटी हों...... जिस देश में बिग-बॉस जैसे टीवी प्रोग्राम खूब देखे जाते हों..... जिस देश में गंगा बहती तो हो लेकिन बुरी तरह से प्रदूषित हो..... हम उस देश के वासी हैं. हम उस देश के वासी हैं जिसके लिए काटजू साहेब ने कहा था कि निन्यानवें प्रतिशत मूर्ख लोगों का देश हैं. आपको अभी भी शक है काटजू साहेब की बात पर?

बेस्ट सेल्स-मैन

सुना  होगा आपने कि बढ़िया सेल्स-मैन वो है जो गंजे को कंघी बेचे. 
गलत सुना है. 

बढ़िया सेल्समेन वो है, जो अदृशय प्रोडक्ट बेचे.

नहीं समझ आया. 
जाओ जा के निर्मल बाबा का एक सेशन अटेंड कर के आओ. 'कृपा' नहीं दिखेगी लकिन कृपा की बिक्री दिखेगी.

नबी का जन्म-दिन

इस बार  नबी का जन्म-दिन ऐसे मनाया गया जैसे कम-से-कम दिल्ली में तो मैंने पहले कभी नहीं देखा. निश्चित ही यह बाहुबल, वोटिंग-बल, संख्या-बल भी दिखाने को था. सडकें सडकें नहीं थी, जुलुस स्थल  थी आज. नारे बुलंद हो रहे थे, "सरकार की आमद...मरहबा...मरहबा."

पश्चिम विहार, दिल्ली में रहता हूँ. पास ही विष्णु गार्डन इलाका है. विष्णु गार्डन में बहुत सी जींस बनाने की अवैध फैक्ट्री हैं. सब काम मुसलमानों के हाथ में हैं. आज नबी के जन्म का जुलुस निकाल रहे थे. घोड़े वाले मन्दिर से पश्चिम विहार मात्र आधा किलोमीटर है, यकीन मानें मैं यह दूरी पार ही नहीं कर पाया, सडकों पर इतना जमघट. मुझे कार वापिस घुमानी पड़ी और 4-5 किलोमीटर का चक्कर काट दूसरे रूट से घर आना पड़ा. यह सब धर्म, मज़हब, दीन कुछ भी नहीं है. यह सब बकवास है जो हिन्दू, सिक्ख और अब मुस्लिम भी करने लगे हैं. यह धार्मिक आज़ादी नहीं, धार्मिक बर्बादी है. बंद करो सड़क पर नमाजें, जुलुस, जलसे, शोभा-यात्राएं, कांवड़-शिविर. सड़क इन कामों के लिए नहीं है. वो सिर्फ चलने के लिए है. वो दूकान-दारी के लिए नहीं है. धार्मिक(?) दुकान-दारी के लिए भी नहीं.

क्या है मेरा नज़रिया? 

१. मेरा नज़रिया यह है कि नबी हों, गुरु हों, अवतार हों, महात्मा हों, कोई भी हों, एक तो सरकारी छुटियाँ बंद कर देनी चाहियें इन सब के जन्म से मरण तक के किसी भी दिवस पर.  अगर ऐसे छुटियाँ ही करते रहे तो पूरा साल छुट्टियों को ही देना पड़ेगा.

२. दूसरा कैसा भी पब्लिक फंक्शन करना हो, वो बंद हॉल या फिर खुले मैदानों में करें, कोई लाउड स्पीकर नहीं, कोई शोर-शराबा नहीं. आम जन-जीवन को डिस्टर्ब  करने की किसी को इजाज़त नहीं मिलनी चाहिए.  

३. तीसरा और सबसे ज़रूरी. अगर आपने सच में ही अपने नबी के जीवन का फायदा दीन-दुनिया  तक पहुँचाना है तो उनके जीवन, उनकी कथनी, उनकी करनी पर खुली बहस आयोजित करें, आमंत्रित करें. और यह बहस मात्र आपके दीन, आपके नबी की हाँ में हाँ मिलाने को ही नहीं होनी चाहिए, इसमें 'न' कहने वालों को भी आने दीजिये. 

आने दीजिये अगर कोई उनको पैगम्बर नहीं मानता तो. 

आने दीजिये अगर कोई उनको आखिरी पैगम्बर नहीं मानता तो. 

आने दीजिये अगर कोई खुद को पैगम्बर मानता है तो. 

आने दीजिये अगर कोई अल्लाह-ताला को इनसानी अक्ल पर लगा ताला मानता है. 

आने दीजिये अगर कोई  क़ुरान में लिखी उन आयतों पर सवाल उठाता है जो काफिरों के खिलाफ हिंसा को आमंत्रित करती हैं. 

आने दीजिये ऐसे लोगों को जो क़ुरान के हर शब्द, हर वाक्य पर सवाल उठाते हों. 

फिर देखिये क्या निकल के आता है. अगर सरकार की कथनी-करनी में दम होगा तो हम भी कहेंगे, "सरकार की आमद... मरहबा.....मरहबा." और सच में ही सरकार के जीवन से सारी दुनिया बहुत कुछ सीख पायेगी. 

लेकिन है इतनी हिम्मत मुसलमानों में कि दुनिया भर में ऐसे आयोजन कर सकें?

मुझे गहन शंका है. और मेरी शंका अगर सही है तो समझ लीजिये दुनिया को गहन अन्धकार में धकेलने के औज़ार हैं ऐसे आयोजन जो आज दिल्ली में किये जा रहे थे. 

नमन...तुषार कॉस्मिक

अनुष्का शर्मा की NH-10--अच्छी फिल्म

अनुष्का शर्मा ने एक फिल्म में एक्टिंग ही नहीं की, बनाई भी खुद थी. NH-10. मेरे पास शब्द नहीं इस फिल्म की तारीफ के लिए. ज़रूर देखें. और हाँ, मैं सिर्फ आलोचना करता हूँ. और समझ लीजिये, आलोचना शब्द का अर्थ गहन नज़र से देखना होता है, नुक्स निकालना नहीं. लोचन यानि नज़र का प्रयोग. शरीर की ही नहीं बुद्धि की नज़र का भी प्रयोग करना. तो देखिये यह फिल्म तन और मन की नज़रों को प्रयोग करते हुए, मेरे कहने पर.

The world seems to have No Future

Oscar wilde, Osho, Khushwant Singh and people like them, I respect them, I love them. Had the world listened to their words, it would have been far better. But the world has fallen into the hands of the rogues, marching towards collective suicide. There is no future, if everything goes on as it is going on.

मैं और श्रीमति जी.....ट्रेड फेयर दिल्ली में ...कुछ ही दिन पहले


Tuesday, 28 November 2017

मैं और धर्म

मैं सिरे का अधार्मिक व्यक्ति हूँ. किशोर-अवस्था से. गुरूद्वारे में ग्रन्थ-साहेब-जी-दी-ग्रेट के सामने किसी के मत्था टेके पैसे उठा लिए एक बार. फिर सोचा मन्दिर में हाथ आज़माया जाए, लेकिन कुछ हासिल न हुआ सिवा चरणामृत के. बंगला साहेब गुरूद्वारे जाना होता है, परिवार की जिद्द की वजह से, मुझे सिर्फ दो चीज़ पसंद हैं.....एक कड़ाह प्रसाद, दूजा लंगर प्रसाद. शनिवार को वो जो बर्तन में सरसों का तेल डाल के मंगते घूमते हैं न, उनमें से एक का तेल से भरा डोलू (बर्तन) ही धरवा लिया था मैंने. मोहल्ले में भागवत कथा हो रही है. मैं बीवी जी को कह रहा था, "मैं भी जा सकता हूँ क्या?" बीवी ने कहा, "नहीं. हमने मोहल्ले भर से लड़ाई नहीं करनी." "पंडित जी से पूछ तो लेता कि शंकर जी ने कौन सी विद्या से हाथी का सर इन्सान के धड़ से जड़ दिया था? पंडित जी की गर्दन काट कर भी ऐसा ही चमत्कार किया जा सकता है क्या? ट्राई करने में क्या हर्ज़ है? फिर सारी दुनिया उनकी भी पूजा करेगी. मॉडर्न गणेश जी. नहीं?" "नहीं....नहीं." "हनुमान जी तो उड़ते थे, जंगल-पहाड़ लाँघ जाते थे. ज़रा पंडी जी को भी दसवें माले से नीचे फेंक के देखते हैं, इन पर भी तो भगवान की कृपा होगी, आखिर दिन-रात भागवत जो करते हैं. नहीं?" "नहीं....नहीं....नहीं." भगवान आधी से ज्यादा आबादी के लिए सर-दर्द बना हुआ है. कोई आस्तिक है तो कोई नास्तिक. मुझे यह शब्द सुनते ही नींद आने लगती है. मुझे लगता है कि जिनके जीवन को मृत्यु का डर ढांप लेता है, वो ज्यादा रब्ब-रब्ब करते हैं, वरना जीवन से भरपूर व्यक्ति कहाँ चिंता करता है कि जीवन से पहले क्या था, जीवन के बाद क्या होगा? कौन पड़े इस बकवास में कि दुनिया किसी रब्ब ने बनाई कि किसी बिग-बैंग ने? मुझे तो विश्वास करने में ही विश्वास नहीं है. लोग तो हिजड़ों तक की दुआ-बद्दुआ पर विश्वास करते हैं. डरते हैं. रेड-लाइट पर भीख की कमाई करने में सबसे आगे हिजड़े होंगें. कितने असली हैं या कितने उनमें से नकली, यह अलग शोध का विषय है. शादी के बाद हिजड़े सुबह-सवेरे मेरे घर में शोर-शराबा कर रहे थे. माता-पिता जो दे रहे थे, वो उनकी नाक के नीचे नहीं आ रहा था. मैं उठा, प्यार से समझाया, जो उन्हें समझ न आया. कौन समझता है प्यार से? तुरत 100 नम्बर पर फोन कर दिया और बाहर आ कर हिजड़ों को बता दिया कि तुम से बड़े बदमाश आ रहे हैं, तुम्हें थोड़ा दान-दक्षिणा देने. हिजड़े शायद समझ गए, तुरत तितरी हो गए. सड़क पर ढोल बजाती औरत, उसके साथ अपने जिस्म पर हंटर चलाता आदमी. सटाक....सटाक. पैसे मांग रहे हैं, जैसे जिस्म पर हंटर नहीं कद्दू में तीर चल रहा हो. मैंने कहा, "ला मैं लठ बजा दूं तेरे जिस्म पर, फिर ले जाना पैसे". भाग गए. मैं नितांत अधार्मिक व्यक्ति हूँ. रावण जलाने के लिए धन इक्कठा करने वालों को चवन्नी नहीं दी लेकिन एक अंकल जो बड़ी मेहनत से ट्रैफिक मैनेज कर रहे थे, उनको बुला कर सौ का नोट दे दिया.
घर के पास वाले पार्क में घूमता हूँ तो अक्सर बुज़ुर्ग सामने से 'राम-राम' करते हैं. मैं 'नमस्ते जी' ही कहता हूँ. एक अंकल को मज़े-मज़े में 'रावण-रावण' कह दिया. पकड़ ही लिए मुझे. 

"क्यों भई? यह क्या बोला जवाब में?" 
"कुछ नहीं अंकल, वो रावण भी तो महान था न?"

"नहीं तो उसे राम के बराबर का दर्ज़ा दोगे क्या?"
"अंकल उसके दस सर थे. ब्राहमण था. अन्त में लक्ष्मण उससे ज्ञान लेने भी तो जाता है, तो थोड़ा सा सम्मान, थोड़ा सा क्रेडिट रावण को भी देना चाहिए कि नहीं?"

अंकल थोड़ा सोच में पड़ गए और मैं निकल लिया पतली गली से.
मृत्यु क्रिया में बैठ पंडित जी-भाई जी का क्रन्दन सुनना मुझे बेहोश कर जाता. "जीवन क्षण-भंगुर है, अस्थाई है." मैं सोचता जब जीवन इतना क्षण-भंगुर है, अस्थाई है तो मैं इसे इनकी बक-बक सुनने में क्यों बेकार करूं? वैसे ही इतना कम है जीवन. ऐसी क्रियाएं तकरीबन एक घंटे की होतीं हैं लेकिन अब आखिरी पांच मिनटों में ही एंट्री करता हूँ.
कान-फोडू लाउड-स्पीकरों की मदद से ये जो धार्मिक कीर्तन-जागरण-अज़ान करते हैं लोग, इनको तो उम्र-कैद होनी चाहिए. नहीं? ट्रैफिक रोक कर लंगर बांटने वाले, मीठा दूध पिलाने वाले धार्मिक हैं या अधार्मिक इसका फैसला भी समाज को करना चाहिए. सड़क पर बैठ नमाज़ पढ़ते लोग और कांवड़ियों की आव-भगत के लिए लगे शिविर देखिये. कितना धार्मिक है यह सब. लेकिन मैं ही पता नहीं क्यों इतना अधार्मिक हूँ, जिसे इनको देख झुंझलाहट होती है? इस्लाम में मोहम्मद साहेब जी दी ग्रेट को आखिरी पैगम्बर माना गया है अल्लाह ताला का. मतलब उनके बाद अल्लाह ने पैगम्बर भेजने वाली अपनी फैक्ट्री पर ताला जड़ दिया. यह कंसेप्ट मुझे कभी भी समझ ही नहीं आया. मेरी नज़र में जो भी दुनिया की बेहतरी का कोई पैग़ाम दे वो पैगम्बर है. आखिरी का तो सवाल ही नहीं. रोज़ नए पैगम्बर आते हैं और आते रहने चाहियें. खैर, ऐसा नहीं कि मैं शुरू से ऐसा था. अगर आप ब्रूस-ली की फिल्म देख कर निकलो तो एक बार तो मन करता है कि उसी की तरह दो-चार लोग धुन दो. ऐसे ही बचपने में भगत प्रहलाद पर फिल्म देख मैं भी लगा नारायण-नारायण करने. घर के मन्दिर के सामने बैठा रहता घंटो. बस नारायण प्रकट हुए ही हुए. लेकिन फिर किशोर-अवस्था तक पहुँचते-२ जब किताबी दुनिया ने मेरे दिमाग में प्रवेश करना शुरू किया तो खराबा हो गया और मैं अधार्मिक किस्म का हो गया. ये जो लड़ी-वार विशाल भगवती जागरण करवाते हैं लोग, या फिर साईं बाबा की चौकी, इन्हें देख मुझे लगता है कि मुल्क का यौवन बूढ़ा हो गया है. जवानी आई ही नहीं इन पर. मतलब इनकी सोच पर. बूढ़ी सोच ने इनको ढक लिया पूरी तरह से. इन्हें कोई वैज्ञानिक खोज नहीं करनी है, इन्हें कोई सामाजिक बेहतरी के प्रोग्राम में शामिल नहीं होना है, इन्हें जागरण-चौकियां और लीलाएं करवानी हैं बस. "यूनान, मिश्र, रोम मिट गए सब जहाँ से, कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी. सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोसिताँ हमारा." यह कोई गर्व की बात है कि यूनान और मिश्र ने तो अपनी पुरानी सभ्यता छोड़ दी लेकिन हमारा युवक आज भी उसे ढोए जा रहा है, जो उसके पुरखे-चरखे ढोते थे. यह गर्व नहीं शर्म का विषय है. यह यौवन यौवन है ही नहीं. मेरी रूचि सिर्फ समाज की बेहतरी में है, लेकिन मैं तो नितांत अधार्मिक व्यक्ति हूँ, नक्कार-खाने की तूती हूँ, टूटी हुई टूटी हूँ. तुतियाता रहता हूँ, टिप-टिपाता रहता हूँ. कुछ समय पहले कुछ कवित्त जैसा लिखा था, हाज़िर है. ::: धर्म ::: धर्म का हिन्दू-मुस्लिम से क्या मतलब? धर्म है कुदरत को धन्यवाद... धर्म है खुद की खुदाई.... धर्म है दूसरे का सुख दुःख समझना..... धर्म है दूसरे में खुद को समझना.... धर्म है विज्ञान ... धर्म है प्रेम..... धर्म है नृत्य..... धर्म है गायन ..... धर्म है नदी का बहना.... धर्म है बादल का बरसना... धर्म है पहाड़ों के झरने.... धर्म है बच्चों का हँसना...... धर्म है बछिया का टापना..... धर्म है प्रेम-रत युगल...... धर्म है चिड़िया का कलरव...... धर्म का मोहम्मद से, राम से क्या मतलब? धर्म का गीता से, कुरआन से क्या मतलब? धर्म का मुर्दा इमारतों, मुर्दा बुतों से क्या मतलब? धर्म है अभी.... धर्म है यहीं.... धर्म है ज़िंदा होना... धर्म है सच में जिंदा होना.... धर्म का हिन्दू-मुस्लिम से क्या मतलब? नमन.....तुषार कॉस्मिक

Sunday, 26 November 2017

नमन शहीदों को?

सीमा पर कोई जवान मरेगा, तो सरकारी अमला सलाम ठोकेगा उसकी लाश को, शायद उसे कोई तगमा भी दे दे मरणोंपरांत, हो सकता है उसके परिवार को कोई पेट्रोल पंप दे दे या फिर कोई और सुविधा दे दे. शहीदों को सलाम. नमन. किसी दिन कूड़ा उठाने वाली निगम की गाड़ी न आई हो तो झट से कूड़े को ढक दिया जाता है, बहुत अच्छे से, ताकि बदबू का ज़र्रा भी बाहर न आ सके. यह शहीदों का सम्मान-इनाम-इकराम सब वो ढक्कन है जो संस्कृति के नाम पर खड़ी की गई विकृति की बदबू को बाहर नहीं फैलने देता. "ऐ मेरे वतन के लोगों ज़रा आँख में भर लो पानी जो शहीद हुए हैं उनकी ज़रा याद करो क़ुरबानी." शहीद! वतन के लिए मर मिटने वाला जवान!! गौरवशाली व्यक्तित्व!!! है न? गलत. कुछ नहीं है ऐसा. जीवन किसे नहीं प्यारा? अगर जीवन जीने लायक हो तो कौन नहीं जीना चाहेगा? जो न जीना चाहे उसका दिमाग खराब होगा. और यही किया जाता है. दिमाग खराब. वतन के लिए शहीद हो जाओ. असल में तुम्हारे सब शहीद बेचारे गरीब हैं, जिनके पास कोई और चारा ही नहीं था जीवन जीने का इसके अलावा कि वो खुद को बलि का बकरा बनने के लिए पेश कर दें. एक मोटा 150 किलो का निकम्मा सा आदमी फौज में भर्ती होता है और जी जान से देश सेवा करता है। जी हाँ, शहीद होकर, वो और कुछ नहीं कर पाता लेकिन दुश्मन की एक गोली जरूर कम कर देता है. तुमने-तुम्हारी तथा-कथित महान संस्कृति ने उन गरीबों के लिए कोई और आप्शन छोड़ा ही नहीं था सिवा इसके कि वो लेफ्ट-राईट करें और जब हुक्म दिया जाए तो रोबोट की तरह कत्ल करें और कत्ल हो जायें. बस. तो अगली बार जब कोई जवान शहीद हो और उसे सम्मान दिया जाए तो कूड़े-दान के ऊपर पड़े ढक्कन को याद कीजियेगा. कितने जवान अमीरों के, बड़े राजनेताओं के बच्चे होते हैं, कितने प्रतिशत, जो फ़ौज में भर्ती होते हों, जंग में सरहद पर लड़ते हों...शहीद होते हैं? नगण्य. यदि शहीद होना इतने ही गौरव की बात है तो क्यों नही आपको अम्बानी, अदानी, टाटा, बिरला आदि के बच्चे फ़ौजी बन सरहद पर जंग लड़ते, मरते दीखते? यदि शहीद होना इतने ही गौरव की बात है तो क्यों नही आपको गांधी परिवार के बच्चे, भाजपा के बड़े नेताओं के बच्चे या किसी भी और दल के बड़े नेताओं के बच्चे फ़ौजी बन सरहद पर जंग लड़ते-मरते दीखते? नहीं, इस तरह से शहीद होना कोई गौरव की बात नहीं है. असल में यदि सब लोग फ़ौज में भर्ती होने से ही इनकार कर दें तो सब सरहदें अपने खत्म हो जायेंगी. सारी दुनिया एक हो जायेगी. लेकिन चालाक लोग, ये अमीर, ये नेता कभी ऐसा होने नहीं देंगे, ये शहीद को glorify करते रहेंगे, उनकी लाशों को फूलों से ढांपते रहेंगे, उनकी मूर्तियाँ बनवाते रहेंगे और खुद को और अपने परिवार को AC कमरों में सुरक्षित रखेंगे. समझ लें, असली दुश्मन कौन है, असली दुश्मन सरहद पार नहीं है, असली दुश्मन आपका अपना अमीर है, आपका अपना सियासतदान है. वो कभी आपको गरीबी से उठने ही नही देगा, वरना आप अपने बच्चे कैसे जाने देंगे फ़ौज में मरने को. वो कभी आपको असल मुद्दे समझ आने नही देगा, वरना आप अपने बच्चे कैसे जाने देंगे फ़ौज में मरने को. लेकिन यहाँ सब असल मुद्दे गौण हो जाते हैं, बकवास मुद्दों से भरा रहता अखबार-सारा संसार. और यह भी साज़िश है, साज़िश है इन्ही लोगों की है. अभी-अभी एक अंग्रेज़ी फिल्म देखी थी हंगर गेम्स, उसमें ट्रेनर अपनी शिष्या को समझाता है कि हर दम ध्यान रखो, असली दुश्मन कौन है क्योंकि असली दुश्मन बहुत से नकली दुश्मन पेश करता है और खुद पीछे छुप जाता है इनके . मेरा भी आपसे यही कहना है कि ध्यान रखें असली दुश्मन कौन है. "इक साज़िश है, गरीब गरीब ही रहें गरीब ही रहें, तभी तो कमअक्ल रहेंगे गरीब ही रहें, तभी तो गटर साफ़ करेंगे गरीब ही रहें, तभी तो फ़ौजी बन मरेंगे गरीब ही रहें, तभी तो जेहादी बनेंगे इक साज़िश है, गरीब गरीब ही रहें और सब शामिल हैं सियासत शामिल है कारोबार शामिल है तालीम शामिल है मन्दिर शामिल है मस्जिद शामिल है इक साज़िश है, गरीब गरीब ही रहें कब कोई बच्चा गरीब पैदा होता है कब कोई कुदरती फर्क होता है इक सारी उम्र एश करे दूजा घुटने रगड़ रगड़ मरे इक सवार, दूजा सवारी इक मजदूर, दूजा व्योपारी इक साज़िश है, गरीब गरीब ही रहें" अब तुम भी जागो. विचारों. अक्ल का घोडा दौड़ाओ. कोई ठेका नहीं लिया कुछ चुनिन्दा लोगों ने शहीद होने का. तुम तो अपने बकवास सदियों पुराने विचार शहीद करने को तैयार नहीं ....ज़रा सी चोट पड़ते ही....लगते हो चिल्लाने ...लगते हो बकबकाने...गालियाँ देने. और दूसरे कोई लोग होने चाहिए जो अपने आप को शहीद करें और तुम पूजोगे बाद में अपने शहीदों को. तुम उनकी मूर्तियाँ बना के पूजा करने का नाटक करते रहोगे. नहीं, कुछ न होगा ऐसे ...ये सब नहीं चलना चाहिए........तुम्हे बलि देनी होगी अपने विचारों की.....तुम्हें शहीद करना होगा अपनी सड़ी गली मान्यताओं को. कोई फायदा न होगा व्यक्ति शहीद करने से. फायदा होगा विचार शहीद करने से...फायदा होगा समाज की, हम सब की कलेक्टिव सोच ..जो सोच कम है अंध विश्वास ज़्यादा...उस सोच पे चोट करने से...फायदा होगा इस अंट शंट सोच को छिन्न भिन्न करने से. फायदा होगा धर्म के नाम पे, राजनीती के नाम पे, कौम के नाम पे, राष्ट्र के नाम पे और नाना प्रकार के विभिन्न नामों पे जो वायरस इंसानों में, आप में , मुझ में, हम सब में पीढी दर पीढी ठूंसे गए हैं, उन वायरस के विरुद्ध जंग छेड़ने से. फायदा होगा विचार युद्ध छेड़ने से....फायदा होगा तर्क युद्ध छेड़ने से...फायदा होगा जब यह युद्ध गली गली, नुक्कड़ नुक्कड़ छेड़ा जाएगा. बाक़ी आयें और दोस्तों को भी लायें, मैं सिर्फ बातें करने में यकीन नही करता, ज़मीनी काम करने में भी यकीन है..स्वागत है. नमन...तुषार कॉस्मिक

यादें बचपन की

तूने खाया, मैंने खाया एक ही बात है." और अपनी पसंद की चीज़ माँ मेरे मुंह में ठूंसती जाती थी.
आज काजू लाते हैं तो मैं श्रीमति को कहता हूँ, "मुझ से छुपा के रख दो, बच्चों को पसंद हैं, वो खायेंगे."