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Showing posts from June, 2015

RELATIONS

CAN WE MAINTAIN RELATIONS WITH DIFFERENCES? Often I see people who claim and do claim somewhat proudly having a good relationship with someone even having differences. Hmmmm.........What I see? I see, we all, are never in absolute agreement or disagreement with anyone. We must be having some differences with our closest friend and must be having some agreements with our worst enemy. So what I wanna show? I wanna show you that it is the quality and quantity of agreement and disagreement which decides whether a relationship will float or sink. As long as you feel that the differences are unimportant or bearable you go on maintaining, enjoying relations. So what I conclude? Whenever someone exclaims that the one is enjoying a relationship even with differences or when someone wanna claim that even though there are huge differences still the relationship is floating, I conclude that the differences are small, bearable, not big, not big enough to make the SHIP OF THE RELATIONS sunk. That i...

!!!! अहिंसा/प्रेम की शिक्षा खतरनाक भी है !!!!

सबको गले लगाना, अहिंसा, प्रेम यह सब बढ़िया बातें हैं, बढ़िया जीवन मूल्य, लेकिन जीवन ऐसा है नहीं ......तो बुद्ध और गुरु गोबिंद में से यदि चुनना हो तो गोबिंद साहिब को चुनता हूँ, सर काट दो बुरे का यदि कोई और चारा न हो, यह जानते हुए कि वो भी सोया बुद्ध है, पगलाया बुद्ध है, जानते हुए भी कृष्ण अर्जुन को लड़ना सिखाते हैं, अर्जुन तो बुद्ध हुआ जा रहा था, गांधी बा बा, लेकिन वो सिखाते हैं लड़ना .....फिर बुद्ध के चेलों को भी सीखना पडा मार्शल आर्ट, फिर गोबिंद सिंह साहेब का संत और सिपाही दोनों होने का फार्मूला, फिर गांधी बाबा की अहिंसा .......एक संघर्ष है हिंसा और अहिंसा के बीच.........लेकिन चुनना हो तो बुद्ध और गांधी को नहीं चुन सकता....कृष्ण को भी नहीं ....चूँकि चाहे कृष्ण हिंसा सिखा रहे हैं लेकिन कौरवों और पांडवों में से ज़्यादा सही कौरवों को मानता हूँ सो कृष्ण की हिंसा को गलत मानता हूँ .....मात्र गुरु गोबिंद को चुनुँगा हिंसा क्यों है, कैसे है , यह देखना ज़रूरी है......बिन हिंसा तो जीवन ही सम्भव नहीं....जीवन अपने आप में महा-हिंसा है.........सांस लो तो हिंसा, खाओ तो हिंसा........चलो तो हिंसा.......आप ज...

!!पंगे और स्यापे !!

या तो मरी मरी ज़िंदगी जीयो या फिर पंगे लो पंगा पंजाबी शब्द है....बड़ा प्यारा इसके आसपास का ही शब्द स्यापा इनके शाब्दिक अर्थों पर मत जाएँ, वो तो दोनों का मतलब जुदा है, लेकिन फिर भी दोनों शब्द एक दूसरे की जगह फिट किये जा सकते हैं तो मैं कह यह रहा था साहेबान, हाज़रीन की इंसानी तरक्की जितनी भी हुयी है, हुयी पंगे लेने वालों की वजह से है तजुर्बे करने वाले...स्यापा पायी रखने वालों की वजह  से कहते हैं, कितना सही कहते हैं इसका मेरा कोई ठेका नहीं चूँकि कहते वो हैं मैं नहीं, तो जनाब / मोहतरमा कहते हैं कि गल्लैन नाम का आदमी कब्रों में से लाशें निकाल उन्हें रात को अपनी टेबल पर चीर फाड़ करता था और जिस्म के अंदर की anatomy की तस्वीरे बनाता था, तफसील से लिखता था पंगेबाज़ सब पंगेबाज़ या तो मरी मरी ज़िंदगी जीयो या मुर्दों को उठा दो उखाड़ दो बहुत पहले एक फिल्म देखी थी Frankenstein, उसमें एक वैज्ञानिक मुर्दों को कब्र से ला ला कर उनके हाथ पैर काट काट एक नया शरीर तैयार करता है आड़ा टेड़ा ...और वो ही मुर्दा जिंदा हो जाता है, उसी का नाम होता है Frankenstein.....लेकिन वो मुर्दा जहाँ तक मुझे याद है अच्छा मुर्दा होता...

!!हटाओ पर्दे, ये नकाब, ये घूंघट, ये बुर्के!!

अबे कौन बच्ची पर्दों में रहना चाहती है ब्रेन वाश कर दो, और फिर बोलो कि देखो यह सब उनकी अपनी मर्ज़ी है, फ्री-विल बुर्क़ा फ्री-विल है, घूंघट फ्री-विल है, पर्दा फ्री-विल है शाबाश कभी बच्चे , बच्चियां पाल कर देखो......उन्हें सिखाना मत कि यह तुम्हारी पवित्र किताब में लिखा, इसलिए यह ज़रूरी है फिर देखना कि कितनी बच्चियां बुरका और घूंघट में रहना मांगती हैं, तब तुम्हें पता लगेगा कि फ्री-विल होती क्या है कहीं उत्तेजित न हो जाए, मर्द औरत को देख, कहीं औरत उत्तेजित न हो जाए सेक्स के लिए आदमी को देख सो पर्दों में ढक दो ......सात पर्दों में ढक दो ....लाख पर्दों में ढक दो वो, कुदरत , वो खुदा, वो प्रभु, वो स्वयम्भु ....वो पागल है जिसने सेक्स बनाया.....जिसने औरत को औरत और मर्द को मर्द बनाया...सबको हिजड़ा ही बना के भेज देता...बच्चों का क्या है, बना देता कोई और सिस्टम.......कुछ भी, सर्व शक्तिमान जो ठहरा....कान में उंगली हिलाओ, बच्चा बाहर, या फिर नाक में , या फिर कुछ भी और..... तो मूर्ख ही रहा होगा. वो तो आसमानी बाप....कपड़ों समेत क्यों नहीं पैदा किया इंसान को..........महामूर्ख.......कम से कम एक चड्ढी ही पहना ...

!!! फर्क IPP और AAP का !!!

मुझ से कुछेक मित्रों ने पूछा था कि IPP और AAP में फर्क क्या है......बताता हूँ....केजरीवाल कहते हैं कि उन्हें गणतंत्र दिवस की परेड में बुलाया नहीं गया....उनके साथी लोग भी यहाँ पोस्ट कर रहे हैं कि भई यह तो अन्याय है..गलत है....यह दिवस कोई भाजपा का थोड़ा है, यह तो पूरे राष्ट्र का दिवस है. अब फर्क यह है कि मैंने IPP एजेंडा मे सिफारिश की है कि इस तरह के सब दिवस मानना बंद कर  देना चाहिए.....इतना तामझाम, सब बंद, आपको मानना है, सिंबॉलिक आयोजन करें और फिर काम शुरू रोज़ की तरह बल्कि उससे भी ज़्यादा जोश से .....लेकिन यह गाजा बाजा हर साल....साल में दो बार छुटी बंद . जब केजरीवाल कह ही रहे हैं कि वो आजादी की दूसरी लड़ाई लड़ रहे हैं तो फिर ठीक है.....करो विरोध कि यह सब गणतन्त्र-स्वतंत्र दिवस बंद होना चाहिए....सुना है कि शायद किया भी था विरोध लेकिन लगता है कि विरोध उपरी था मैं करता हूँ विरोध IPP एजेंडा पढ़ लीजिये, लिखा है मैंने .. लिखा है कि जन समर्थन से ऐसा होना चाहिए ....चूँकि जब वर्षों से कोई परम्परा चली आ रही हों तो यकायक बदलाव पब्लिक को नागवार गुज़र सकता है...सो पब्लिक की राय से ऐसा किया जाना चाहिए...

!!!बदलो ग्रन्थों को किताबों में !!!

किसी भी किताब को मात्र एक सलाह मानना चाहिए, सर पर उठाने की ज़रुरत नहीं है, पूजा करने की ज़रुरत नहीं है..... किताबें मात्र किताबें हैं.....उनमें बहुत कुछ सही हो सकता है बहुत कुछ गलत भी हो सकता है, आज शेक्सपियर को हम कितना पढ़ते हों....पागल थोड़ा हैं उनके लिए, मार काट थोड़ा ही मचाते हैं...और शेक्सपियर, कालिदास, प्रेम चंद सबकी प्रशंसा करते हैं तो आलोचना भी करते हैं खुल  कर..... यही रुख चाहिए सब किताबों के प्रति......एक खुला नजरिया.....चाहे गीता हो, चाहे शास्त्र, चाहे कुरआन, चाहे पुराण, चाहे कोई सा ही ग्रन्थ हो ग्रन्थ असल में इंसान की ग्रन्थी बन गए हैं......ग्रन्थ इंसान के सर चढ़ गए हैं...ग्रन्थ इंसान का मत्था खराब करे बैठे हैं... इनको मात्र किताब ही रहने दें.....ग्रन्थ तक का ओहदा ठीक नहीं...... ग्रन्थ शब्द का शाब्दिक अर्थ तो मात्र इतना कि पन्नों को धागे की गाँठ से बांधा गया है...धागे की ग्रन्थियां.... लेकिन आज यह शब्द एक अलग तरह का वज़न लिए है...ऐसी किताबें जिनके आगे इंसान सिर्फ़ नत मस्तक ही हो सकता है...जिनको सिर्फ "हाँ" ही कर सकता है....तुच्छ इंसान की औकात ही नहीं कि वो इन ग्रन्थों म...

"HOW TO EARN - MOVING FROM SHIT TO HIT"

It is the learning which we are selling always. Not the services, not the products. We sell the learning.. Even when we are selling any product or any service still we are selling our "learning". I was discussing McDonald's success story with some of my friends.  One of my friend said that be it McDonald's or Cafe Coffee Day, they are actually into the bu siness of "property", they hire a place and then sublet to their customers, who sit their, chat with friends, family and beloved ones. I said, yeah that is right. Another friend said that actually they are selling a "system", their products are immaterial, actually their products are just crap. If they stop advertising perhaps within one year their sales will fall drastically. I agreed, yeah, that too is right. They are selling their "system" and now they are just copycatting, producing replicas. But as I see, they are selling their "learning". They learnt by and by, how to hi...

KNOWING?

Even after knowing, one do not know. Knowing can give a misconception of knowing. One can go on living in an oblivion of knowing.  Seems paradoxical, I explain.  Knowing can be knowing of words only. Shallow knowing. A class 4th student, living in an English speaking atmosphere can perhaps understand a play of Shakespeare but perhaps by word meanings only, can he understand the life experiences of what William Shakespeare wanna convey through those words? Perhaps not, because he has not seen that much life to relate the contexts, to compare the different aspects of life. Knowing can be knowing of words' meaning. But still not knowing the meaning deep enough to get penetrated into one's life. Almost everyone knows that physical exercise is good but this knowing remains knowing only, this knowing is not so much knowing which could penetrate into one's being.It remains at surface only and one go on living in an oblivion of knowing. Knowing is a very tricky thing. Do you know,...

THE REAL POLITICIANS

This democracy is mediocracy. Electing mediocre people, by the electors who are mediocre. Darwin's theory ,"survival of the fittest" does not fit here. Just see human history, our fittest people could not survive.  Our philosophers like Socrates, Mystics like Jesus, Painters like Vangogh, Writers like Oscar Wilde, Scientists like Galileo, they either became mad, or sick or  landed in jail or got murdered. Such people are not elected. Such people are selected to get humiliated, prosecuted. Our cream is bound not to survive.Our society is such a stupid thing. Our mediocre people are bound to survive, live long and rule because they accomplish the stupidities, mediocrity of the multitude. A real political party is that which stands in election declaring knowing pretty well, declaring before handedly that it is going to get defeated and that defeat will be the defeat of the society. Such a party, such politicians have the solutions but society is so idiotic it cannot face th...

DEMAND & SUPPLY DECIDE THE PRICE--FAIR CAPITALISM-BULLSHIT

Example-1 Most of the diamond supply is controlled by a company head-quartered in London called DeBeers. Several times a year, DeBeers invites diamond merchants to London to view diamonds.  Each dealer is shown a predetermined quantity and quality of diamonds and told what the price is. The number of stones each dealer can buy is strictly limited. In fact, though, DeBeers has several years’ worth of supply in their vaults and continues to mine more and more diamonds every year. Basically they control the supply so the market is not flooded with diamonds. in reality, emeralds are far rarer than diamonds, but there is no central organization controlling the supply, so a good-quality emerald tends to sell for about the same price as a similar quality and size diamond. If the supply were not controlled by DeBeers, diamonds would be far cheaper than emeralds. Fair market. Steered by demand and supply. Free market.Bullshit! Example-2 I have been into properties for severa...

JUDGE BUT DON'T BE JUDGEMENTAL

Being Non judgemental doesn't mean that one should not judge, one should have no opinion, one should become a vegetable.  No. It simply means that one should judge, opine but like a third person having no personal grudge or favours or biases. Judging without being judgemental. उदासीन होने का अर्थ यह नहीं है कि उदास रहो. इसका मतलब यह भी नहीं है कि अपनी कोई राय ही न रखो, लुल्ल हो जाओ इसका मतलब है कि जब भी किसी विषय विशेष पर अपनी राय बनानी हो तो त्रित्य व्यक्ति की तरह विषय को देखो, अपनी व्यक्तिगत लाग लपेट बीच में मत लाओ NEVER BE NON-JUDGEMENTAL Often I come across a new age statement,"Never be judgemental". I see this statement quite foolish. I always say,"Be judgemental, be mental, why to remain only physical?" I am judgemental and I know everyone is, there is never any moment when one is not judgemental. If you think, you judge, if you judge, you are judgemental. So Never give a shit to this bullshit,"Never be judgemental" Be judgemental, you are a...

TALENT-- NOTHING INHERENT IN IT

There is nothing like inherent natural talent. It is just social exposure that decides one's talent.  Just imagine that we are capable of downloading human's memory in a pen-drive and transfer to another person's mind. What will happen? Someone, who never drawn a single straight line can become a great painter. Someone who never jumped a narrow street drainage can become a great Gymnast. Someone who was afraid of mathematics can become Einstein. Talent is nothing but impact one's social exposure.Nothing natural, nothing inherent. Social exposure, we cannot fully control its impacts on different people. The kids put in a similar class room, taught by same teachers get different grades, Reason? They are being impacted by so many other factors. At home, at play, by peers, by TV programs. So many other factors. Hence the differences. But why kids born and brought up in a Hindu atmosphere become mostly Hindu? Simple. Impact of Social exposure. But why kids taught in a s...

क्या हर बन्दा अपनी अपनी जगह सही है?

"हर बन्दा अपनी अपनी जगह सही है" "आपके विचार मात्र आपकी ओपिनियन हैं" "Don't be judgemental, whatever you think right or wrong, that is only your perception.Far from reality" इस तरह की बातें...कुछ कुछ मेरा मानना है कि इस तरह की थ्योरी इंसान को झोलझाल बनाती हैं, उसकी सोच को लुल्ल कर देती हैं (भाषा के लिए माफी.....कृपया PK फिल्म को ध्यान में रखा जाए) यह थ्योरी ग़लत तो है ही....खतरनाक भी है.....ऐसी थ्योरी ही ज्ञान विज्ञान की तरक्की में बाधा हैं. ठीक और गलत का फैसला हालात....यानि देश काल...यानि ख़ास सिचुएशन ...यानि तमाम गवाह और मुद्दों की जानकारी की रोशनी में ही किया जाता है यदि ऐसा न हो तो आप कोई ज्ञान विज्ञान विकसित ही नहीं कर सकते यदि ऐसा न हो तो कभी आइंस्टीन आइंस्टीन न हो पाते, कभी न्यूटन , न्यूटन न हो पाते जब यह मानेंगे कि कुछ भी सही गलत नहीं होता, कैसे कोई भी समाजिक विज्ञान विकसित करेंगे......कैसे मनोविज्ञान, राजनीति विज्ञान, समाज विज्ञान...कैसे विकसित करेंगे....सब कोशिश में रहते हैं कि एक बेहतर समाज घड पाएं....कैसे घडेंगे ....जब हम इंसानों की दुनिया...

"बिहार में परीक्षा में नकल ....लानत, लेकिन किस पर"

बिहार में परीक्षा में हो रही नकल के बहुत फोटो छापे मित्रों ने पीछे ........बहुत कोसा वहां के निज़ाम को, सरकार को...... मुझे लगता है गलत कोसा.......गलत नज़रिया अख्तियार किया मित्रों ने...... मेरी समझ है कि विद्यार्थी जो कर रहे थे सही था.....लानत भेजो ऐसी विद्या को , जो विद्या है ही नहीं......इस तरह की विद्या को नक़ल कर के, आधा अधूरा पढ़ के जो  विद्यार्थी पास करे वो समझदार है, वो प्रैक्टिकल इंसान है, जो रट रट कर जाए, सब सीख सिखा जाए वो मूर्ख है..... रखा क्या है इस पढ़ाई में, कहाँ काम आती है, कितना काम आती है.....और इंसान को कितना समझदार बनाती है? बकवास.....बढ़िया है, मित्रो अगली बार और खुल कर करो नक़ल...और लानत भेजो उन पर जो तुम्हारी फोटो सरकाते फिर रहे हैं फेसबुक पर, इस मंशा से जैसे पता नहीं कितना बड़ा अपराध हो गया हो, गुनाह हो गया हो

"बदमाश औरतें"

महिलाओं में एक अलग ही ब्रिगेड तैयार हो गयी है......बदमाश ब्रिगेड...जो बात बेबात आदमियों को गाली देती हैं, हाथ उठा देती हैं, थप्पड़, लात घूंसे जड़ देती हैं......और अक्सर आदमी बेचारा पिटता है, सरे राह......... क्या है इन औरतों की शक्ति का राज़?.... इन्हें लगता है कि इनका औरत होना सबसे बड़ी शक्ति है....खास करके भीड़ में..........समाज का सामूहिक परसेप्शन बन चुका है कि आदमी शिकारी है और और त शिकार, बेचारी अबला.....सो यह बेचारी अबला बस मौका देखते ही आदमी की इज्ज़त उतार देती है....इसे लगता है कि अव्वल तो आदमी उस पर वापिसी हाथ उठाने की हिम्मत ही नहीं करेगा और करेगा भी तो वो अपने कपड़े फाड़ लेंगी.......शोर मचा देंगी........बलात्कार का आरोप लगा देंगी.. इलाज़ क्या है.......इलाज एक तो यह है कि समाज में यह विचार प्रसारित किया जाए कि औरत मर्द किसी को भी एक दूजे के खिलाफ अत्याचार की छूट नहीं दी जा सकती दूजा है ये जो बदमाश किस्म की औरतें हैं इनको जब भी सम्भव हो बाकायदा तरीके से धुना जाए.........लकड़ी को लकड़ी नहीं काटती...लेकिन लोहे को लोहा काटता है यदि मर्द को औरत की इज्ज़त से खिलवाड़ करने का हक़ नहीं है तो औरत क...

!!! टैक्स !!!

मास्टर जी-1 अप्रैल को मुर्ख दिवस क्यों कहते है? पप्पू- हिंदुस्तान की सबसे समझदार जनता,पूरे साल गधो की तरह कमा कर 31 st मार्च को अपना सारा पैसा टैक्स मे सरकार को दे देती है। और 1 st अप्रैल से फिर से गधो की तरह सरकार के लिए पैसा कमाना शुरू कर देती है। इस लिए 1st अप्रैल को मुर्ख दिवस कहते है। ( By my friend Vinod Kumar) टैक्स भरो इमानदारी से!! क्यों भई, क्यों भरें इमानदारी से टैक्स? चोरों जैसे टैक्स लगा रखें हैं....और उम्मीद करते हैं कि टैक्स इमानदारी से भरें लोग........... नहीं, टैक्स कम होने चाहिए......सरकारी खर्चे घटने चाहिए.....एक सरकारी नौकर जिसे पचास हज़ार सैलरी मिलती है महीने की, तथा और तमाम तरह की सुविधायें.....वो खुले बाज़ार में पांच से दस हज़ार भी न पा सके..........कहाँ से दी जा रही है उसे सैलरी? पब्लिक से लिए गए टैक्स से....... सो यह तो बात ही नहीं कि लोग टैक्स इमानदारी से भरें....असली बात है कि भरें ही क्यों? तुम कुछ भी अनाप शनाप टैक्स लगा दो और जो न भरे उसे चोर घोषित कर दो, उसके पैसे को दो नम्बर का घोषित कर दो. लानत! चोर तो तुम हो........ संसद की कैंटीन में मुफ्त जैसा खाना खाते...

"इंडस्ट्री"

इंडस्ट्री बढनी चाहिए, इससे रोज़गार बढेगा, निर्यात बढ़ेगा और फिर निर्यात से जुड़े रोज़गार तो बढेंगे ही लेकिन ख्याल यह रखना चाहिए कि उद्यम वो होने चाहिए जो देश दुनिया के फायदे में हों, मात्र पैसा कमाने के लिए आज जो बहुत सी कंपनियां खड़ी हैं, वैसे उद्यम तो न ही हों तो बेहतर. जैसे पानी को बोतल में भर के बेचना, यह कोई धंधा नहीं है, यह इंसान के मुंह पर तमाचा है, उसे बताना है कि तुझे साफ़ पानी  भी अगर पीना है तो एक लीटर के अठारह रुपये देने होंगे.... जैसे मैदे से भरे पिज़्ज़ा, बर्गर बेचना, जिनमें न स्वाद है न सेहत... जैसे फेयर एंड लवली क्रीम , जो इंसान को बताती है कि काले होना कोई गुनाह से कम नहीं है एक बात और समझनी ज़रूरी है, उद्यम उतने ही बढ़ने चाहिए, जितने से इकोलोजिकल संतुलन बना रहे.....उद्योग प्रदूषण फैलाते हैं, प्राकृतिक संतुलन बिगाड़ते हैं...... इंसान को फर्नीचर चाहिए, पेड़ काट दो.......क्या उतने ही पेड़ लगाये भी जाते हैं, क्या बार बार पेड़ काटने और लगाने से पृथ्वी की उपजाऊ शक्ति पर बुरा असर तो नहीं पड़ता? सस्ती पैकिंग चाहिए प्लास्टिक के लिफ़ाफ़े पैदा करो....बिना यह सोचे कि यह जल्दी से गलेंगे नहीं....

"करप्शन"

एक फिल्म थी A WEDNESDAY जिसमें नसीरुद्दीन शाह मेन रोल में थे, उसमें एक आम आदमी की पॉवर दिखाई थी, वो सारे सिस्टम से आगे चलता हुआ, अपनी पहचान छुपाता हुआ, आतंकियों को खत्म करता है.... कुछ कुछ वैसे ही सलाह दे रहा हूँ.....आप, मैं और हम...करप्शन खतम कर सकते हैं, जड़ से आप कहेंगे, कैसे? हम तो बिलकुल साधरण लोग हैं, आम आदमी मेरा प्लान पढ़ लीजिये, समझ आ जायेगी हमें पता है कि पुलिस वाले हमारे आपके झगड़े में खुद ही, वकील, जज बन जाते हैं और दोनों तरफ से पैसे खाते हैं, हम समझौते पर राज़ी हो भी जाएँ तब भी जब तक उनका पेटा न भरा जाए, वो समझौता तक नहीं करने देते..अपना रौब , दबदबा बनाये रखते हैं........ आपको राज़ की बात बताता हूँ, ये जितने सरकारी कर्मचारी हैं , ये बर्फ के बने हैं, इनकी सख्ती, इनकी कठोरता, ज़रा सा गर्मी लगते ही और पिघलना, गलना शुरू ........ तो नाज़रीन, हाज़िर हैं कब्ज़ नाशक......... अरे अरे, नहीं, नहीं ..... करप्शन नाशक चूर्ण आप एक नकली लड़ाई करो आपस में और 100 नम्बर पर काल कार दो, कॉल एंड्राइड फ़ोन से करो, रिकॉर्डिंग सब रखो....... पुलिस देर सवेर आएगी ......आपस में एक दूजे के खिलाफ खूब बोलो......धी...

"सरकारी नौकर"

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यह निज़ाम पब्लिक के पैसे से चलता है, जिसका बड़ा हिस्सा सरकारी नौकरों को जाता है…सरकारी नौकर जितनी सैलरी पाते हैं, जितनी सुविधाएं पाते हैं, जितनी छुट्टिया पाते है … क्या वो उसके हकदार हैं?.... मेरे ख्याल से तो नहीं … … सरकारी नौकर रिश्वतखोर हैं, हरामखोर हैं, कामचोर हैं .... ये जो हर ऐरा गैरा नत्थू खैरा सरकारी नौकरी पाने को मरा जाता है, वो इसलिए नहीं कि उसे कोई पब्लिक की सेवा  करने का कीड़ा काट गया है, वो मात्र इसलिए कि उसे पता है कि सरकारी नौकरी कोई नौकरी नहीं होती बल्कि सरकार का जवाई बनना होता है, जिसकी पब्लिक ने सारी उम्र नौकरी करनी होती है .... सरकारी नौकर कभी भी पब्लिक का नौकर नहीं होता, बल्कि पब्लिक उसकी नौकर होती है.... सरकारी नौकर को पता होता है, वो काम करे न करे, तनख्वाह उसे मिलनी ही है और बहुत जगह तो सरकारी नौकर को शक्ल तक दिखाने की ज़रुरत नहीं होती, तनख्वाह उसे फिर भी मिलती रहती है सरकारी नौकर को पता होता है, उसके खिलाफ अव्वल तो पब्लिक में से कोई शिकायत कर ही नहीं पायेगा और करेगा भी तो उसका कुछ बिगड़ना नही है सीट मिलते ही सरकारी नौकर के तेवर बदल जाते हैं, आवाज़ में रौब ...

MURDER MYSTERY STORIES

I have read whole of Sherlock Holmes. Sherlock, his deduction method, very unique, none could match till now. People are still mad for 221 b, Baker Street, London.  Another name, Hercule Poirot of Agatha Christie, a Genius, he reads situation, he reads psychology, he reads everything. "Murder at Orient Express". A master piece. Rest I forgot. From Belgium. Having egg shap ed head. Uttering "Mon ami". Agatha's main characters "Hercule Poirot" & "Miss Marple". I could never read Miss Marple. I tried but failed, could not raise enough interest. And now about Surender Mohan Pathak, an Indian mystery writer, writing in Hindi. I have read, not all, but some of his novels. Pathak is very poor in weaving mystery. Very Poor. I read "धब्बा" only a few days back. Very Poor. Pathak is good at presentation, language, flow. Very good. One can learn life, many aspects of life from Pathak but not the mystery writing. To me Pathak is a good wri...

देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर

कभी नन्हे बच्चे की किलकारी सुनी है......कभी उसकी आँखों में झाँका है......मूर्ख जंग करने चले हैं...मरने मारने चले हैं........ "आओ प्यारे सर टकरायें" 1) हलवाई यदि सिर्फ हलवा ही नहीं बनाता तो उसे हलवाई कहना कहाँ तक उचित है ...? 2) कोई ग्लास पीतल या स्टील का कैसे हो सकता है जब ग्लास का मतलब ही कांच होता है? 3) स्याही को तो स्याह (काली) ही होना था, फिर नीली स्याही, लाल स्याही क्योंकर हुयी? 4) सब गंदगी पानी से साफ़ करते हैं, लेकिन जब पानी ही गन्दा कर देंगे तो किस को किस से साफ़ करेंगे? 5) जल जब जल ही नहीं सकता तो इसे जल कहना कहाँ तक ठीक है? 6) जब कोई मुझे कहता है ,"आ जा "तो मुझे कभी समझ नहीं आता कि वो मुझे आने को कह रहा है, या जाने को या आकर जाने को, क्या ख्याल है आपका? 7) जित्ती भी आये, लगता है कम आई...तभी तो कहते हैं इसे कमाई....मुझे नहीं अम्बानी से पूछ लो भाई.... क्या ख्याल है आपका? 8) जब हम राजतन्त्र से प्रजातंत्र में तब्दील हो गए हैं तो क्या राजस्थान का नाम प्रजास्थान न कर देना चाहिए. नहीं? 9) वेस्ट बंगाल भारत के ईस्ट में है , फिर भी इसे वेस्ट बंगाल क्यों कहते हैं..? 1...