"संजीव सहगल चमत्कारों में आस्था रखने वाला व्यक्ति था जो समझता था कि खास आशीर्वाद प्राप्त, खास नगों वाली, ख़ास अंगूठियाँ, ख़ास दिनों में ख़ास ऊँगलियों में, खास तरीके से पहनने से उसकी तमाम दुश्वारियां दूर हो सकती थीं."
कुछ नोट किया आपने इन शब्दों में. यह ख़ास तरीका है लेखक का लिखने का जो उन्हें आम से ख़ास बनाता है. सुरेन्द्र मोहन पाठक. उनके शब्द हैं ये. नावेल है 'नकाब'.
"यारां नाल बहारां, मेले मित्तरां दे." फेमस शब्द हैं उनके पात्र रमाकांत के.
और कितनी गहरी बात है यह. पढ़ा होगा आपने भी कहीं, "दिल खोल लेते यारों के साथ तो अब खुलवाना न पड़ता औज़ारों के साथ."
यही फलसफा है जो रमाकांत के मुंह से पाठक साहेब सिखा रहे हैं. मैंने तो देखा है मेरे बहुत करीबी रिश्तेदार को. वो कभी हंसा नहीं अपने भाई-बहन-रिश्तेदार के साथ बैठ. पैसा बहुत जोड़ लिया उसने. लेकिन तकरीबन पैंतालिस की उम्र में ही उसके दिल की सर्जरी हो गई थी. खैर, खुश रहे, आबाद रहे.
मुझे कभी भी पाठक साहेब के कथानक जमे नहीं, लेकिन उनका अंदाज़े-बयाँ, उनके पात्रों के मुंह से निकले dialogue. वाह! वाह!!
उनके पात्रों की बात-चीत, नोंक-झोंक-छौंक, तर्क-वितर्क-कुतर्क. वल्लाह! (वैसे अल्लाह नामक कुछ है नहीं). बहुत कुछ सिखाता है यह सब पढ़ने वालों को.
उनके नोवेलों में बहुत एपिसोड हैं, जो हमारी रोज़-मर्रा की जिंदगियों की सोच-समझ को बेहतर बनाने के कूवत रखते हैं. समाज की गहराइयों को सहज ही नाप डालते हैं पाठक साहेब के पात्र, संवाद, घटनाएं, उप-घटनाएं.
कुल जमा मतलब यह कि पाठक साहेब जासूसी-थ्रिलर-मिस्ट्री लिखते हैं और उनका लेखन मुझे पसंद है, बहुत पसंद है लेकिन जासूसी-थ्रिलर-मिस्ट्री छोड़ के.
वैसे मैं बहुत फिल्म भी इसलिए पसंद करता हूँ कि मुझे कोई करैक्टर पसंद आ गया या फिर वो फिल्म जिस परिवेश को दिखा रही है, वो परिवेश मुझे बहुत भा गया.
मिसाल के लिए "किल-बिल" फिल्म. इस फिल्म में मुझे कुछ भी ख़ास नहीं लगा सिवा हेरोइन 'उमा थर्मन' की उपस्थति के. इसकी कहानी में कुछ भी खास नहीं. सीधी-सादी बदला लेने की कहानी है. हेरोइन के साथ बहुर बुरा किया जाता है, जिसका वो बदला लेती है. एक्शन है, तलवार-बाज़ी है, मार्शल आर्ट है, लेकिन सब सेकंड ग्रेड. बस उमा थर्मन का स्क्रीन पर होना ही जम गया मुझे.
एक टेलीविज़न सीरीज थी. Fargo.वो कहानी जिस परिवेश में दिखाई गई, मुझे उस वजह से खूब जमी. सब तरफ बर्फ. बीच में कस्बा. थ्रिलर. लेकिन थ्रिलर से ज्यादा मुझे जहाँ घटनाएं घटित हो रही थीं, वो परिवेश, वो चौगिर्दा थ्रिलिंग लग रहा था. हर फ्रेम ऐसा कि लगे बस जैसे वहीं, उस कस्बे में पहुँच गए.
मतलब कोई कहानी जंगल में घट रही है या पहाड़ पर या मेट्रो सिटी में या फैक्ट्री में, कहाँ? उसमें कोई पुरातन काल दिखाया जा रहा है या कोई भविष्य की परिकल्पना है, मतलब वो सेटिंग, जहाँ कहानी घटित हो रही है, वो "सेटिंग". वो भी पसंद-नापंसद की वजह है मेरे लिए.
हमारे यहाँ की कुछ फिल्में कभी भी स्विट्ज़रलैंड पहुँच नाचने-गाने लगती हैं, यह उसी "सेटिंग" की बेतुकी समझ है. यह बकवास है. अनर्गल है. यह कहानी की ऐसे-तैसी फेरना है. मैं इसके तो सख्त खिलाफ हूँ.
कहानी किसी भी नावेल, फिल्म या टेलीविज़न सीरीज़ की जान है. यह बात सही है. लेकिन मुझे लगता है कि बहुत और फैक्टर भी हैं, जो किसी भी कहानी को लोगों की पसंद या नापसंद बनाते हैं. ऐसा ज़रूरी नहीं जो फैक्टर मुझे जंचते हो, वो ही आपको भी जंचते हों, सभी को जंचते हों, लेकिन कुछ तो मुझ में और आप में सांझा हो सकता है. सो उन सांझे फैक्टर पर भी लेखक, फिल्मकार को ध्यान देना चाहिए. और यह ध्यान दिया भी जाता है, लेकिन शायद उतना नहीं जितना दिया जाना चाहिए.
नमन.....तुषार कॉस्मिक
Thoughts, not bound by state or country, not bound by any religious or social conditioning. Logical. Rational. Scientific. Cosmic. Cosmic Thoughts. All Fire, not ashes. Take care, may cause smashes.
Sunday, 9 September 2018
Monday, 27 August 2018
तुम तो लगे हो अपने और अपने परिवार के लिए धन इकट्ठा करने.
फिर जब नाली साफ़ न हो, सड़क पर खड्डे हों, पुलिस बदतमीज़ हो, जज बे-ईमान हो तो तुम्हें क्या? तुमने कोई योग-दान दिया था यह सब ठीक करने को? नहीं दिया था.
तब तो तुम ने यही सोचा कि मुझे क्या? मैं क्यों समय खराब करूं? कौन पड़े इस सब पच्चड़ मनें? घर-परिवार पाल लूं, यही काफी है. यही सब सोचा न.
अब जब सड़क पर तेरी बहन-बेटी के साथ कोई गुंडा-गर्दी करता है तो पुलिस सही केस नहीं लिखती, कोर्ट सही आर्डर नहीं लिखती, तो सिस्टम की नाकामी खलती है. खलती है न?
भैये जैसे अपनी, अपने परिवार की बेहतरी के लिए जी-जान लगाते हो, गिरगिटियाते हो, वैसे इस सिस्टम को सुधारने के लिए भी दिमाग लगाओ, जी-जान लगाओ, गाली सहो, छित्तर खाओ, तभी तुम हकदार हो सिस्टम को कोसने को.
वरना जहाँ तुमने कुछ दिया ही नहीं, वहां से कुछ भी पाने की उम्मीद मत रखो.
संघ की शाखा का प्रति-प्रयोग
देश के कोने-कोने में संघ की तर्ज़ पर शाखा लगाओ मितरो. संघ का 'बौद्धिक' सिर्फ हिंदुत्व सिखलाता है. तुम्हार बौद्धिक तर्क और विज्ञान सिखाये. तुम किसी भी धर्म के पक्ष-विपक्ष में मत सिखलाओ. सिर्फ क्रिटिकल थिंकिंग, वैज्ञानिक ढंग से सोचना, सवाल उठाना, जवाब ढूंढना सिखलाओ. सवाल मत सिखाओ, जवाब मत सिखाओ. सवाल उठाना सिखाओ, जवाब ढूंढना सिखलाओ. संघ की नब्बे साल की ट्रेनिंग है, फिर बिल्ली के भागों छींका टूट गया है. इस देश को, दुनिया को संघ-मुसंघ से छुटकारा दिलवाने का मात्र एक ही रास्ता है और वो है क्रिटिकल थिंकिंग. मुल्क के कोने कोने में शाखाएं लगाओ, सिर्फ संघ की शाखा का अनुसरण कर लो. बस फर्क यही रहे कि वो हिंदुत्व सिखाते हैं तुम विज्ञान सिखाओ. मुझ से सम्पर्क करें, आगे की रण-नीति के लिए.
Sunday, 26 August 2018
रक्षा-बंधन
"रक्षा बंधन"
एक बीमार समाज को परिलक्षित करता है यह दिवस. और हम इत्ते इडियट हैं कि अपनी बीमारियों के भी उत्सव मनाते हैं.
एक ऐसा समाज हैं हम, जहाँ औरत को रक्षा की ज़रूरत है. किस से ज़रूरत है रक्षा की? लगभग हर उस आदमी से जो उसका बाप-भाई नहीं है. यह है हमारे समाज की हकीकत.
और इसीलिए रक्षा-बंधन की ज़रूरत है. इस तथ्य को समझेंगे तो यह भी समझ जायेंगे कि यह कोई उत्सव मनाने का विषय तो कतई नहीं है. इस विषय पर तो चिंतन होना चाहिए, चिंता होनी चाहिए.
और हम एक ऐसा समाज है, जिसमें बहन अगर प्रॉपर्टी में हिस्सा मांग ले तो भाई राखी बंधवाना बंद कर देता है. "जा, मैं नहीं करता तेरी रक्षा."
वैरी गुड. शाबाश. तुषार खुस हुआ.
वैसे एक तथ्य यह भी है कि जितने भी बलात्कार होते हैं, करने वाले मामा, ज़्यादातर चाचा, चचेरे-ममेरे भाई, भाई के दोस्त आदि ही होते हैं. सब रिश्तेदार ऐसे ही होते हैं, यह मैं नहीं कहता, रिश्तों पर जान लुटाने वाले लोग भी होते हैं.
अरे यार, बहना से मिलना है, भाई से मिलना है, मिलो. उत्सव मनाना है मना लो. मुझे कोई एतराज़ ही नहीं. लेकिन ये सब ढकोसले जो हम ढोते आ रहे हैं न, इन पर थोड़ा विचार भी कर लो. समाज ऐसा बनाओ कि औरत को रक्षा की ज़रूरत ही न पड़े. उसे आर्थिक-समाजिक-शारीरिक रूप से सक्षम बनाओ ताकि वो खुद लड़ सके. लेकिन इतनी भी सक्षम मत बना देना कि वो मर्दों पर छेड़-छाड़ के झूठे कोर्ट केस ठोक कर जेल करवा दें या फिर दहेज़ या घरेलू हिंसा के झूठे केसों में न सिर्फ पति बल्कि उसकी शादी-शुदा कहीं और बसी बहन का भी जन्म हराम कर दें.
एक मित्र हैं विनय कुमार गुप्ता मेरी लिस्ट में. उनका कमेंट था, "राखी मात्र बहन भाई का पर्व नहीं है।अपने धर्म संस्कृति की रक्षा का संकल्प दिलाते थे समाज के अग्रजन आज के दिन."
मुझे इनकी बात कुछ खुटकी. बात तो सही लगी. मैंने देखा है कई बार, ब्रहामणों को लाल रंग का धागा कलाई पर बांधते हुए धार्मिक किस्म के आयोजनों में. पंडित साथ-साथ कुछ बुदबुदाते भी हैं. जिसे मन्त्र कहा जाता है, हालांकि उन शब्दों का अर्थ किसी को भी नहीं पता होता, शायद पंडित जी को भी नहीं. खैर, मुझे बस दो शब्द "माचल: माचल:" याद आ गए, चूँकि ये शब्द बार-बार बोले जाते हैं.
मैंने कुछ खोज-बीन की, कुछ गूगल किया, फेसबुक खंगाला तो विनय जी बात सही साबित हुई. जो मैंने पढ़ा वो हाज़िर है:--
1. लक्ष्मीजी ने सर्वप्रथम बांधी थी राजा बलि को राखी, तब से शुरू हुई है यह परंपरा.
लक्ष्मीजी ने सर्वप्रथम राजा बलि को बांधी थी। ये बात है तब की जब दानवेन्द्र राजा बलि अश्वमेध यज्ञ करा रहे थे। तब नारायण ने राजा बलि को छलने के लिए वामन अवतार लिया और तीन पग में सब कुछ ले लिया। फिर उसे भगवान ने पाताल लोक का राज्य रहने के लिए दे दिया।
इसके बाद उसने प्रभु से कहा कि कोई बात नहीं, मैं रहने के लिए तैयार हूं, पर मेरी भी एक शर्त होगी। भगवान अपने भक्तों की बात कभी टाल नहीं सकते थे। तब राजा बलि ने कहा कि ऐसे नहीं प्रभु, आप छलिया हो, पहले मुझे वचन दें कि मैं जो मांगूंगा, वो आप दोगे।
नारायण ने कहा, दूंगा-दूंगा-दूंगा।
जब त्रिबाचा करा लिया तब बोले बलि कि मैं जब सोने जाऊं और जब मैं उठूं तो जिधर भी नजर जाए, उधर आपको ही देखूं।
नारायण ने अपना माथा ठोंका और बोले कि इसने तो मुझे पहरेदार बना दिया है। ये सबकुछ हारकर भी जीत गया है, पर कर भी क्या सकते थे? वचन जो दे चुके थे। वे पहरेदार बन गए।
ऐसा होते-होते काफी समय बीत गया। उधर बैकुंठ में लक्ष्मीजी को चिंता होने लगी। नारायण के बिना उधर नारदजी का आना हुआ।
लक्ष्मीजी ने कहा कि नारदजी, आप तो तीनों लोकों में घूमते हैं। क्या नारायणजी को कहीं देखा आपने?
तब नारदजी बोले कि वे पाताल लोक में राजा बलि के पहरेदार बने हुए हैं।
यह सुनकर लक्ष्मीजी ने कहा कि मुझे आप ही राह दिखाएं कि वे कैसे मिलेंगे?
तब नारद ने कहा कि आप राजा बलि को भाई बना लो और रक्षा का वचन लो और पहले त्रिबाचा करा लेना कि दक्षिणा में मैं जो मांगूंगी, आप वो देंगे और दक्षिणा में अपने नारायण को मांग लेना।
तब लक्ष्मीजी सुन्दर स्त्री के वेश में रोते हुए राजा बलि के पास पहुंचीं।
बलि ने कहा कि क्यों रो रही हैं आप?
तब लक्ष्मीजी बोलीं कि मेरा कोई भाई नहीं है इसलिए मैं दुखी हूं।
यह सुनकर बलि बोले कि तुम मेरी धरम बहन बन जाओ।
तब लक्ष्मी ने त्रिबाचा कराया और बोलीं कि मुझे आपका ये पहरेदार चाहिए।
जब ये मांगा तो बलि अपना माथा पीटने लगे और सोचा कि धन्य हो माता, पति आए सब कुछ ले गए और ये महारानी ऐसी आईं कि उन्हें भी ले गईं।
(https://m dot dailyhunt.in/news/india/hindi)
फिर दूसरी जगह यह पढ़ा:---
२. "येन बद्धो बलिराजा,दानवेन्द्रो महाबलः
तेनत्वाम प्रति बद्धनामि रक्षे,माचल-माचलः"
अर्थात दानवों के महाबली राजा बलि जिससे बांधे गए थे,उसी से तुम्हें बांधता हूं।
हे रक्षे ! (रक्षासूत्र) तुम चलायमान न हो,चलायमान न हो।
धर्मशास्त्र के विद्वानों के अनुसार इसका अर्थ यह है कि रक्षा सूत्र बांधते समय ब्राह्मण या पुरोहत अपने यजमान को कहता है कि जिस रक्षासूत्र से दानवों के महापराक्रमी राजा बलि धर्म के बंधन में बांधे गए थे अर्थात् धर्म में प्रयुक्त किए गये थे,उसी सूत्र से मैं तुम्हें बांधता हूं,यानी धर्म के लिए प्रतिबद्ध करता हूं।
इसके बाद पुरोहित रक्षा सूत्र से कहता है कि हे रक्षे तुम स्थिर रहना,स्थिर रहना।
इस प्रकार रक्षा सूत्र का उद्देश्य ब्राह्मणों द्वारा अपने यजमानों को धर्म के लिए प्रेरित एवं प्रयुक्त करना है।
(http://pandyamasters dot blogspot dot com/2016/08/)
अब बात तो विनय जी की सही साबित हुई लेकिन नतीजा मेरा वो नहीं है, जो विनय जी ने दिया.
नतीजा मेरा यह है कि यह उत्सव यदि सच में ही उपरोक्त कथा से जुड़ा है तो फिर साफ़ है कि ब्रहामणों ने मात्र अपनी रक्षा के उद्देश्य से यह परम्परा घड़ी.
अब मेरे पास इस उत्सव को नकारने का यह दूसरा कारण है. किसलिए करनी ब्राह्मणों की रक्षा? आज के जमाने में उनका कैसा भी योगदान नहीं जिसके लिए समाज उनकी रक्षा के लिए अलग से प्रतिबद्ध हो.
न. परम्परा का अर्थ यह नहीं कि बस ढोए जाओ आंख बंद करके. भविष्य में जब कलाई पर पंडित बांधे लाल धागा (मौली) तो यह सब याद रखियेगा.
नमन....तुषार कॉस्मिक
Monday, 20 August 2018
"मन्दिर मस्जिद बैर कराते, मेल कराती मधुशाला" लिखने वाले हरिवंश राय बच्चन साहेब के वंश को अगर आप जानते हैं तो अमिताभ बच्चन से. लेकिन हरिवंश जी आग थे, अमिताभ राख़ है. हरिवंश जी मन्दिर मस्जिद दोनों को ललकारते हैं. अमिताभ गणेश वन्दना गा देते हैं. अफ़सोस यह कि इस मुल्क का महानायक बेटे को माना जा रहा है, जबकि बाप बाप था और है. नमन हरिवंश जी को.
नींद
“वो मुर्दों से शर्त लगा कर सो गया.” सुरेन्द्र मोहन पाठक अक्सर लिखते हैं यह अपने नोवेलों में.
लेकिन जैसे-जैसे जीवन में आगे बढ़ते हैं, कब सोते हैं ऐसे? नींद आती भी है तो उचटी-उचटी.
बचपने में ‘निन्नी’ आती है तो ऐसे कि समय खो ही जाता है. असल में समय तो अपने आप में कुछ है भी नहीं. अगर मन खो जाये तो समय खो ही जायेगा. तब लगता है कि अभी तो सोये थे, अभी सुबह कैसे हो गई? लेकिन यह अहसास फिर खो जाता है. न वैसी गहन नींद आती है, न वैसा अहसास.
‘नींद’. इस विषय पर कई बार लिखना चाहा, लेकिन आज ही क्यों लिखने बैठा? वजह है. मैं खाना खाते ही लेट गया और लेटते ही सो गया. नींद में था कि सिरहाने रखा फोन बजा. अधनींदा सा मैं, फोन उठा बतियाने लगा और आखिर में मैंने सामने वाले को कहा, “सर, थोड़ा तबियत खराब सी थी, सो गया था, मुझे तो लगा कि शायद सुबह हो चुकी लेकिन अभी तो रात के ग्यारह ही बजे हैं.”
डेढ़-दो घंटे की नींद और लगा जैसे दस घंटे बीत चुके. समय का अहसास गड्ड-मड्ड हो गया था इस नींद में. फिर नींद के विषय में सोचने लगा और सोचते-सोचते सोचा कि लिख ही दूं इस विषय पर, सो बन्दा हाज़िर-नाज़िर है.
मेरा मानना है कि ‘जब जागो तब सवेर और जब सोवो तब अंधेर’. मतलब यह जो सूरज के साथ उठना और सूरज के सोने पर सोना, यह वैसे तो सही है, सुबह सब कायनात जागती है, उसके साथ ही जगना चाहिए लेकिन अगर आप ऐसा न भी कर पाओ तो भी कोई पहाड़ न टूट पड़ेगा.
मैं उठता हूँ सुबह-सवेरे भी. पार्क भी जाता हूँ और फिर आकर सो भी जाता हूँ. कभी भी कुर्सी पर बैठे-बैठे सो जाता है. सोफ़ा चेयर हो-ऑफिस चेयर हो, मैं कहीं भी सो सकता हूँ. सिटींग पोजीशन में.
रात को तो ज़मीन पर बिना कुछ बिछाए सोता हूँ. बस तकिये और गद्दियाँ ढेर सारी होनी चाहियें. लेफ्ट साइड ज्यादा सोता हूँ, कहीं पढ़ा था कि हार्ट के लिए अच्छा होता है और मैंने महसूस भी किया कि यह सही है, अगर कभी दर्दे-दिल हो तो इस तरह लेटने से तुरत राहत मिलती है. दोनों घुटनों में गद्दियाँ दबी होती है. दो गद्दियाँ दोनों बाँहों के बीच और एक तकिया सर के नीचे. यानि कुल मिला कर चार गद्दियाँ और एक तकिया. नीचे सफेद मार्बल का फर्श. यह है मेरे सोने का ढंग. और टुकड़ों में सोता हूँ. कभी भी दिन में झपक लेता हूँ. ध्यान पे ध्यान करते हुए कब सो जाता हूँ पता ही नहीं लगता.
मैं बहुत छोटा था तो माँ-पिता जी के साथ वैष्णों देवी जाता था, देखता था लोग चट्टानों पर सोये होते थे. आज भी अनेक लोग सड़कों पर-फुटपाथों पर सोते हैं. और कई महानुभाव तो सड़क की बीचों-बीच बने डिवाइडर पर बड़े शान से मौत को ललकारते हुए सो रहे होते हैं. मुझे तो फिर भी मार्बल का साफ़ सुथरा फ़र्श मुहैया है सोने को.
जिनको ध्यान का कुछ नहीं पता निश्चित ही जीवन में कुछ खो रहे हैं. भैया, आप सिद्ध-बुद्ध होवो न होवो लेकिन ध्यान अगर सीखा होगा तो आप स्वस्थ होंगे, स्वयम में स्थित होंगे और स्वयम में स्थित होते ही सब तरह की चिंता-फ़िक्र तिरोहित हो जाती हैं और ऐसा होते ही तन भी शांत हो जाता है.
खैर, बड़ी बेटी जब बहुत छोटी थी तो मैं उसके कान में बहुत धीरे-धीरे बुदबुदाता था, इतना कि वो उठे न, इतना कि मेरी आवाज़ उस तक पहुंचे. अब पहुँचती थी या नहीं, कितना पहुँचती थी, कितना नहीं, यह सब पक्का कुछ नहीं लेकिन मेरे कथन जो होते थे उनका असर तो उस पर दीखता था. मैं बुदबुदाता था उसके कान में कि वो हेलदी है, जीनियस है, सुंदर है, प्रसन्न है. और वो खेलती रहती थीं, नाचती रहती थी, कूदती रहती थी. नींद के साथ यह छोटा सा प्रयोग था. इसे आप सम्मोहन कह सकते हैं. नींद में दखल था लेकिन उसे हिन्दू-मुस्लिम बनाने को नहीं था, उसे स्वस्थ और समझदार बनाने को था. और वो समझदार है. कई बार तो मुझ से बहुत तेज़ और आगे पाता हूँ उसे. हो सकता है बाप की बापता हो यह, लेकिन उसके सामने कई बार लगता है कि मैं गुज़रे जमाने की चीज़ हूँ.
यह प्रयोग जिसका मैंने ज़िक्र किया, यह खुद भी खुद पर किया जा सकता है. इसे आप आत्म-सम्मोहन या योग-निद्रा कह सकते हैं. आप सोते हुए खुद को जो निर्देश देंगे, वो काफी हद तक फली-भूत होंगे. आप खुद को कह कर सोयें कि गहरी नींद सोना है, बीच में नहीं उठना है, अच्छे सपने देखने हैं तो लगभग ऐसा ही होगा.
‘स्वीट-ड्रीम्स’, जो एक दूजे को कहते हैं उसका यही तो मतलब है.
कई बार आप अलार्म लगा के सोते हैं, लेकिन अलार्म बाद में बजता है आप उससे ठीक पहले उठ जाते हैं, उसका यही तो मतलब है.
बहुत से हार्ट-अटैक सोते हुए या अर्द्ध-निद्रा जैसी अवस्था में होते हैं, किसलिए? इसलिए चूँकि व्यक्ति का अंतर्मन हावी रहता है. किसी का बच्चा बीमार है, किसी ने कर्ज़ा देना है, किसी की बेटी भाग गयी है पड़ोसी के साथ. किसी को कोई टेंशन. किसी को कोई और चिंता. सब घेर लेती हैं अर्द्ध-निद्रा में. बस हार्ट-अटैक हुआ ही हुआ. अधरंग हुआ कि हुआ. दिमाग की नस फटी ही फटी.
नींद न आ रही हो तो ज़बरन नींद में जाने का प्रयास न करें. उल्टा करें. लेटे हैं तो बैठ जायें, बैठे हैं तो उठ जायें, उठे हैं तो चलने लगें, चल रहे हैं तो भागने लगें. थक जायेंगे तो नींद अपने आप आ जायेगी.
और जिनको नींद न आने की सतत समस्या है, उनको लेबर चौक पर बैठना शुरू कर देना चाहिए. चार-पांच सौ रुपये दिहाड़ी मिलेगी और नींद भी.
"तुषार, तू सो गया है क्या?" ऑफिस की सेट्टी पर अक्सर सो जाता था मैं और मुझे यह पूछ कर मेरा वो कमीना दोस्त उठाता था. कितनी बार चाहा कि उसे कहूं कि हाँ, मैं सोया हुआ हूँ, गहरी नींद में हूँ और एक हफ्ते से पहले नहीं उठूंगा. इडियट. गलत सवाल का जवाब सही कैसे हो सकता है?
अक्सर पढ़ता-सुनता हूँ कि फलां आदमी फलां औरत के साथ सोता है, मतलब सेक्स करता है. अबे ओये, जब कोई आदमी-औरत सेक्स करते हैं तो वो जागना हुआ, परम जागना हुआ कि सोना हुआ? उलटी दुनिया!
पीछे परिवार सहित 857, रघुबीर नगर के बस स्टैंड से गुज़र रहा था, वहां सड़क पर एक परिवार सोया था. खुली-चौड़ी सड़क है. सोते हैं लोग ऐसे. एक बच्चा, शायद साल भर का होगा, नंगा सोया था. लड़का. लिंग लेकिन उत्थान पर था. Morning Erection! लेकिन तब तो सुबह नहीं थी. रात का वक्त था. असल में यह 'Morning Erection' है ही एक गलत कांसेप्ट. आदमी जब भी गहन नींद में होगा, जब भी अच्छे सपने देख रहा होगा, जब भी खुश होगा, उसे Erection हो सकती है. उसका लिंग उत्थान पर हो सकता है. व्यक्ति जितना चिंता फ़िक्र में होगा, सेक्स के लिए उसका शरीर उतना ही कम तैयार होगा, जितना खुश, जितना शांत उतना ही सेक्स के लिए ज़्यादा तैयार होगा. कुदरत खुद गवाह है भई. सिम्पल. और स्त्रियों में यह चाहे न दीखता हो लेकिन होगा उनमें भी ज़रूर ऐसा ही. क्यों? चूँकि वो भी तो इसी कुदरत की बेटियां हैं, कुदरत उनके साथ कोई भेद-भाव थोड़ा न करती है.
और ये जो हमारे सपने हैं न, ये सिर्फ हमारी सोच, हमारे मन का प्रक्षेपण है. मन में जो भी हो, चाहे डर, चाहे ख़ुशी, चाहे कोई दबी इच्छा, सब प्रकट हो जाता है नींद में. बस. इससे ज़्यादा कुछ नहीं है इनमें. न तो कोई भविष्य के संकेत हैं इनमें और न ही कोई देवी-देवता या आपके दादा पड़दादा आते हैं सपनों में. जो आता है, वो सब अंतर-मन में निहित जो है उससे आता है. जैसे किसी तह-खाने को खोल दिया गया हो.
जल्द ही आप के सपने डाउनलोड हो जाया करेंगे और आप फिल्म की तरह देख पायेंगे उनको. ये फिल्में व्यक्ति की बीमारियाँ समझने में बहुत मदद करेंगे, शायद क्राइम हल करने में भी मदद-गार हों, शायद किसी के छुपे टैलेंट का हिंट मिले इनसे, शायद राजनीतिज्ञों के-अपराधियों के हाथ पड़ खतरनाक भी साबित हों. वक्त बतायेगा क्या होगा. वैसे तो इनको देख कर आप बोर ही होंगे. कुछ न होगा इनमें बकवास के सिवा.
इन्सान इतना बेवकूफ है कि उसने नींद जैसे प्राकृतिक चीज़ को भी उलझा दिया. 'चीकू' कुत्ता है. हमारे घर के बाहर ही रहता है हमेशा. गधा सा सारा दिन घोड़े बेच सोया रहता है. इसे कोई किताब पढ़ने की ज़रूरत ही नहीं कि सोना कैसे है. मैं सोचता हूँ इसे यह वाला लेख पढ़ के सुना दूं. कोशिश करूंगा, लेकिन यह सुनते-सुनते इतना बोर हो जायेगा कि फिर सो जायेगा. मैं जानता हूँ इसे. अब आप भी सो जायें.
नमन.....तुषार कॉस्मिक
Wednesday, 8 August 2018
भारतीय समाज को सब बामनी किस्सों को छोड़ आगे बढ़ना होगा, वरना वहीं गोल-गोल घूमता रहेगा सदियों.
वही रास-लीला, वही राम-लीला. वही दशहरा, वही राम. वही रावण. वही कृष्ण. वही शिव. वही पार्वती.....
इन सब में ही जब उलझा रहेगा तो वैज्ञानिक, दार्शनिक, ज्वलन्त लेखक पश्चिम में ही पैदा होंगे यहाँ तो बारिश के गड्डे भरे जायें उत्ता ही काफी है.
हम
हम पार्कों में नकली हंसी हंसते हैं, चूँकि हमारी कुदरती हंसी-ख़ुशी खो चुकी है. 'हास्य-योग' बना रखा है हमने.
हम हस्त-मैथुन कर रहे हैं, चूँकि कुदरती काम-क्रीड़ा पर हमने पहरे लगा रखे हैं, कानून बांध रखे हैं.
हम ऐसे लोगों के मरण पर अफ़सोस ज़ाहिर कर आते हैं जिनके मरने से हमें ख़ुशी होती है. चलो पिंड छूटा.
हम नेता को गाली देते हैं लेकिन सामने पड़ जाये तो पूँछ हिलाते हैं.
हम भूल चुके हैं कि असली क्या है और नकली क्या है. हमारे असल में नकल है और नकल में असल है. स्त्रियाँ नकली सम्भोग-आनन्द दर्शाती हैं ताकि पुरुष खुश रहे. नकली चीखती चिल्लाती हैं. नकली ओर्गास्म. अंग्रेज़ी में तो कहावत ही है, Fake it till you make it". जब सोना न खरीद सको तो नकली सोना पहन लो.
हम इन्सान हैं.
हम सब जानवरों से बुद्धिमान हैं, हम महान हैं..
कौन है असली हीरो?
"हेलो फ्रेंड्स, चाय पी लो" पूछने वाली मैडम को आप फेमस कर देते हैं. जैसे स्क्रीन में से निकल चाय का लंगर चला देंगी और सबका चाय का बजट घट जायेगा या कट जायेगा.
"सेल्फी मैंने ले ली आज" गाने वाली को सर पे बिठा लेते हैं. जैसे सेल्फी लेना कोई दुर्गम पहाड़ चढ़ना हो, जिसे आज चढ़ ही लिया मैडम ने. सेल्फी इनने ले ली ही आज.
"सही खेल गया भेन्चो" कहने वाले 'झंडू बाम', नहीं-नहीं, सॉरी-सॉरी, 'भुवन बाम' को आप हीरो बना देते हैं.
क्या है यह सब? यह इन लोगों का हल्कापन नहीं दर्शाता. यह आप लोगों की उथली सोच को दिखाता है.
आपकी सोच 'चाय', 'सेल्फी' और 'भेन्चो' पे अटकी है. इससे आगे जाती ही नहीं.
कैसे पहचानोगे आप कि कौन है असल हीरो?
गोविंदा जैसा नाच अगर किसी अंकल ने कर लिया तो आप फ्लैट हो गए, फ्लोर हो गए, कोठी हो गए, हवेली हो गए, महल हो गए.
कोई थर्ड क्लास फिल्मों का एक्टर, उसे आप हीरो मान लेते हैं. मतलब जिसने कभी एक मीनिंग-फुल फिल्म नहीं की हो, लेकिन आपको क्या? आपके लिए उसका ओवर-एक्टिंग वाला स्टाइल ही काफी है. जिसने साबुन, तेल, जांघिया, बनियान, ईमान सब बेच दिया लेकिन समाज के किसी एक मुद्दे को नहीं छेड़ा, जी-गुर्दा ही नहीं जिसमें. लेकिन आपको क्या? आपके लिए वो हीरो है.
कोई नेता, जो नेतृत्व की परिभाषा भी ठीक से न समझता हो चाहे, वो आपके लिए हीरो हो जाता है. हीरो क्या, देवता हो जाता है, अवतार हो जाता है.
कुछ नहीं समझते लोग. निन्यानवें प्रतिशत लोग तुचिए हैं, जिनका जीवन एक कीड़े से ज्यादा नहीं, जिनको सिर्फ खाना-पीना और बच्चे पैदा करना है और मर जाना है. जिनका सामाजिक योगदान जीरो है. क्या फर्क पड़ता है, इनके मरने-जीने से?
चलिए मैं बता देता हूँ कि आपका असली हीरो कौन है. आपका असली हीरो-असली नायक न गायक है, न एक्टर है, न सिपाही है, न फौजी है, न नेता है, न वकील, न जज.
आपका असली हीरो है 'वैज्ञानिक'. वो भी कौन सा? विज्ञान शब्द 'एक' है लेकिन विषय बड़ा है. तो कौन सा वैज्ञानिक है असली हीरो?
गणितज्ञ हो, भौतिक वैज्ञानिक हो, रसायन वैज्ञानिक हो, इनका समाज से सीधा-सीधा टकराव नहीं होता. इनकी खोजें न तो आम समाज को समझनी होती हैं और न ही उनके समझ में आनी होती हैं.
असली हीरो है "समाज वैज्ञानिक".
कैसे?
वो ऐसे कि समाज वैज्ञानिक को उन्हीं लोगों के जूते खाने होते हैं, गाली-गोली सहानी होती है जिनका वो भला सोचता है, जिनके भले के लिए वो शोध कर रहा होता है. समाज वैज्ञानिक का जीवन हमेशा दांव पर लगा रहता है. वो कु-व्यवस्था, आउटडेटिड व्यवस्था को चैलेंज कर रहा होता है, अब जमी-जमाई दुकानदारी कैसे बरदाश्त कर ले कि कोई उसका धंधा ही चौपट कर दे? न. सो वो टूट पड़ती है समाज वैज्ञानिक पर. मंदर-मस्जिद-चर्च सब टूट पड़ता है, समाज वैज्ञानिक पर. राजनेता टूट पड़ता है. और पूरी कोशिश की जाती है कि समाज वैज्ञानिक को तोड़ दिया जाये-मरोड़ दिया जाये. आम आदमी तो तुचिया है, उसने कभी दिमाग नामक यंत्र को कष्ट दिया ही नहीं. वो बड़ी जल्दी जिधर हांको, हंक जाता है. उसे पता ही नहीं लगता कि कौन उसके फायदे में है और कौन नुक्सान में. उसे अपना मित्र भी शत्रु दीखता है.
यह 'समाज वैज्ञानिक' कोई भी रस्ता अख्तियार कर सकता है अपनी बात समाज तक पहुँचाने के लिए. वो गा सकता है, नाच सकता है, लिख सकता है, भाषण दे सकता है. कुछ भी कर सकता है. उसका मेथड गौण है, उसका 'कंटेंट' महत्वपूर्ण है. उसके कंटेंट में आग है.
आपके अधिकांश सेलब्रिटी बकवास हैं. उनमें आग है नहीं. वो राख हैं, बुझी हुई.
जिसे देख-सुन समाज को गुस्सा न आये, आंखें लाल न हो जायें, डौले फड़-फड़ न करने लगें, वो असल हीरो है ही नहीं.
असल हीरो है, जो मरे समाजों को तबाह करने पर आमादा हो. "कबीरा खड़ा बाज़ार में, लिए लुकाठी हाथ." आ जाओ बेटा, जिसने सर फुड़वाना हो.
असल हीरो अराजक है, असामाजिक है. बेजान राज्य को जब तक तोड़ा न जाये, जर्जर समाज को जब तक गिरा न दिया जाये, तब तक कैसे नव-निर्माण होगा?
आप मर चुके हैं, जिंदा हैं लेकिन बेजान हैं. असल हीरो वो है, जो आपको जिंदा करने आये लेकिन आप उसे मारने पर अमादा हो जायें.
उम्मीद है समझा सका होवूंगा.
नमन...तुषार कॉस्मिक
केजरीवाल नहीं है भविष्य: मिसाल
इन्द्रलोक, दिल्ली मेट्रो स्टेशन के ठीक एक बड़ी सी ट्रैफिक लाइट है. बड़ी इसलिए कि बहुत ट्रैफिक होता है यहाँ. सब तरफ ये.... चौड़ी सड़क हैं. एक सड़क जो शहज़ादा बाग़ को जाती है, इसका मुहाना बंद किया गया है. किसलिए? इसलिए चूँकि यहाँ कांवड़ियों के लिए शिविर लगाया गया है. इसमें क्या ख़ास है? शायद कुछ नहीं. चूँकि ऐसा दिल्ली में जगह-जगह है. ख़ास मुझे जो दिखा, वो यह कि इस शिविर के बाहर एक बड़ा सा होर्डिंग लगा है, जिस पर अरविन्द केजरीवाल जी विराज रहे हैं और कांवड़ियों का स्वागत कर रहे हैं.
इसलिए लिखता हूँ कि केजरीवाल भारत का भविष्य नहीं है. एक सेक्युलर स्टेट के स्टेट्समैन को सेक्युलर होना चाहिए. उसे इन सब पच्चड़ में पड़ना ही नहीं चाहिए. अब केजरी के ऐसा करने से मेरी अधार्मिक भावनाएं आहत हो गईं हैं, उसका क्या? मेरी अधार्मिक आस्था खतरे में पड़ गई, उसका क्या?
चलो, वो तो किया जो किया. मतलब इस हद तक चले गए कि तथा-कथित धार्मिक कृत्यों के लिए सड़क बंद हो तो हो. क्या फर्क पड़ता है?
मतलब चीफ मिनिस्टर का काम यही तो बचा है कि एक बिजी सड़क बंद करवा के धार्मिक(?) कार्यक्रम आयोजित करवाए. वाह रे मेरे भारत!
जेम्स बांड हूँ मैं
कैसे?
सिम्पल है, समझाता हूँ.
मैं जिस माहौल में रहता हूँ, उसकी सोच कुछ और है और मेरी सोच कुछ और है. वो उत्तर जाता है तो मैं दक्षिण. वो पूरब जाता है तो मैं पश्चिम. मैं तो रहता भी पश्चिम विहार, दिल्ली में हूँ. लेकिन क्या मैं अपनी सोच इस माहौल में ज़ाहिर करता हूँ? जी करता हूँ, लेकिन हर वक्त नहीं, हर जगह नहीं.
अक्सर तो मैं माहौल की सोच में शुमार हो जाता हूँ. ऊपर-ऊपर से ही सही, लेकिन हो जाता हूँ.
मिसाल के लिए मैंने कांवड़ यात्राओं के लिए शिविरों में अपनी उपस्थिती दर्ज़ करवाई हैं जबकि इनको मैं परले दर्ज़े का अहमकाना काम मानता हूँ. अरे यार, मन की शक्ति पैदा करनी है तो मैराथन में हिस्सा ले लो, पहाड़ चढ़ लो, नदियाँ साफ़ कर लो, तालाब खोद लो, कुछ भी और कर लो. बहुत कुछ किया जा सकता है. रोज़ लोग नए-नए कारनामे करते ही हैं.
खैर. मेरी मौसी के बड़े बेटे हैं, उम्र-दराज़ हैं, हर साल दिल्ली के रिज रोड़ पर कांवड़ियों के लिए बड़ा इन्तेजाम करते हैं. हमें बुलाते रहे हैं और हम जाते भी रहे हैं.
अब यह क्या है? एक तरफ विरोध, दूजी तरफ हाज़िरी. यह तो गोरख-धंधा हो गया. लेकिन याद रखें, जेम्स बांड हूँ मैं. दुश्मन देस. सो बदला भेस.
श्रीमति जी को पता है मेरी उल्ट खोपड़ी का. लेकिन दफ्तर में 'गुरु जी' की फोटो टांग गई हैं, स्कूटी पे 'गुरु जी' लिखवा छोड़ा है. क्या करूं? लडूं. नहीं लड़ता. दफ्तर उनका भी है, स्कूटी उनकी भी है. ठीक है, कर लो मर्ज़ी.
साले साहेब गणेश स्थापित करते रहे, विसर्जन में उनके साथ शामिल होते रहे हम भी.
अभी पीछे पड़ोसी ने मन्दिर में माता का जागरण किया, गए हम सपरिवार.
मामा जी सिक्ख हैं. वो अपने कार्यक्रम गुरूद्वारे में करते हैं, जाते हैं हम.
आप सोच सकते हैं, कैसा गिरगिटिया आदमी है. कहता कुछ है, करता कुछ और है. कथनी और करनी में कितना फर्क है. बिलकुल है जनाब.
असल में मेरे गणित से कथनी और करनी में फर्क होना ही चाहिए वरना सीधा-सीधा आत्म-हत्या करने जैसा है, व्यक्ति 4 दिन सर्वाइव नहीं कर पायेगा. समाज ऐसा है ही नहीं कि कोई सीधा-सच्चा जी सके.
क्या व्यक्ति जिस तरह का जीवन जीना चाहता है, जिस तरह के जीवन मूल्य जीना चाहता है, वैसा जी पाता है, आसानी से जी पाता है, जी सकता है?
क्या ज़रूरी है कि हर व्यक्ति सुकरात हो जाए?
और जो सुकरात नहीं होते या नहीं होना चाहते क्या उनको विचार का, विमर्श का कोई हक़ नहीं?
तो हज़रात मेरा मानना यह है कि जिस तरह का सामाजिक ताना बाना हमने बनाया है,
उसमें यह कतई ज़रूरी नहीं कि व्यक्ति की सोचनी और कथनी एक हो,
कोई ज़रूरी नहीं कि कथनी और करनी एक हो,
कोई ज़रूरी नहीं कि सोचनी और कथनी और करनी एक हो.
असल में तो समाज का भला करने के लिए भी व्यक्ति वही कामयाब हो पायेगा,
जिसकी सोचनी कुछ और हो,
कथनी कुछ और हो
और करनी कुछ और
इस चालबाज़ समाज का तो भला करने के लिए भी व्यक्ति को इस समाज से चार रत्ती ज़्यादा चालबाज़ होना होगा
जेम्स बांड की तरह ही जीया जा सकता है. जब मौका लेगे, जहाँ मौका लगे, चौका-छक्का लगा दो. दुश्मन देस में उसी के भेस में घुसे रहो. While in Rome, do as the Romans do. लेकिन जब मौका लगे दुश्मन का शिविर ढहा दो. जेम्स बांड किसी भी मुल्क में रहे, कैसे भी रहे, उसकी निष्ठा अपने मुल्क के प्रति है.
बस आम जन में और जेम्स बांड में यही फर्क है और यह बड़ा फर्क है. आम-जन अगर कहीं गलत देखते हैं तो विरोध नहीं करते, सही करने का प्रयास नहीं करते. आराम-परस्त हो जाते हैं. लेकिन मैं ऐसा नहीं हूँ. मैं जेम्स बांड हूँ. मेरी निष्ठा है तर्क के प्रति, वैज्ञानिकता के प्रति, समाज की बेहतरी के प्रति. मैं बीच-बीच में जहाँ मौका लगता है, लोगों को ऐसे शब्द, ऐसे तर्क पकड़ा ही देता हूँ कि वो कुछ देर तो सर धुनते रहें. फिर अपने पास 'सोशल मीडिया' नामक चौपाल है ही. अब लगातार विडियो बनाने का भी प्लान है.
मैं कैसे भी जीऊँ, जेम्स बांड कैसे भी जी रहा हो, मौके पे अस्त्र-शस्त्र चलाने से न वो चूकता है और न मैं. मैं जेम्स बांड ही हूँ. Licensed to Kill.
जेम्स बांड महान करैक्टर है. वो दारू पीता है, औरत-बाज़ है. मतलब वो कोई सही आदमी की परिभाषा में शायद ही फिट हो. लेकिन वो अपनी सोच का पक्का है. ऐसे ही लोग दुनिया का भला कर सकते हैं. यही हैं नए पीर-पैगम्बर.
महान इसलिए नहीं कि वो दारू पीता है या औरत-खोर है. ...न....न. वो मतलब नहीं है मेरा.
मेरा मतलब है कि वो माहौल में फिट होता है ज़रूरत के मुताबिक और दुश्मन का किला ढहा देता है, दुश्मन का व्यूह तोड़ देता है. इसीलिए महान है. तमाम टेढ़े-मेढ़े कृत्य करता हुआ.
जीवन में सही क्या है, गलत क्या है....यह आकलन स्थिति क्या है उसके मददे-नज़र ही किया जाना चाहिए.इसे ऐसे समझें.......हमारे क्रांतिकारी रेल गाड़ी लूट लेते थे......यह महान काम था, लूट ही सही थी.....अन्यथा लड़ते कैसे? मौका तय करता है कि क्या करना है.
जैसे सच बोलना चाहिए. मैं भी मानता हूँ. वरना व्यक्ति की वैल्यू ही खत्म है. कौन यकीन करता है झूठे आदमी पर? वो कहानी सुनी होगी आपने कि रोज़ रोज़ शेर आया, शेर आया चिल्लाता था गडरिया. गाँव वाले आते बचाने और वो उनका मज़ाक उड़ाता कि देखो, कैसे बेवकूफ बनाया. एक दिन सच्ची शेर आ गया, वो फिर चिल्लाया लेकिन आज कोई नहीं आया. सबको लगा मूर्ख बना रहा है. शेर फाड़ के खा गया उसे. छुट्टी.
सो सच बोलना चाहिए. लेकिन अगर भगत सिंह को अँगरेज़ पकड़ पूछें कि बता राजगुरु कहाँ छुपा है, सुखदेव कहाँ छुपा है तो क्या उसे बता देना चाहिए सच सच?
नहीं बताना चाहिए. यहाँ सच बोलना गलत है.
सो स्थिति के मुताबिक तय करना होता है. जेम्स बांड स्थिति के मुताबिक फिट होता है. तुरत. क्विक. यह है उसकी एक बड़ी ख़ासियत. और मैं जेम्स बांड हूँ.
नमन...तुषार कॉस्मिक
Wednesday, 25 July 2018
नशा
"नशा शराब में होता तो नाचती बोतल" सुना ही होगा आपने, अमिताभ पर फिल्माया गया गाना. बकवास गणित है यह. आग तिल्ली में नहीं, माचिस की डिब्बी में भी नहीं, लेकिन घिस दो तिल्ली माचिस के पतले पटल पर, आग पैदा हो जायेगी. बच्चा न लड़की में है और न लड़के में, लेकिन सम्भोग-रत हो जायेंगे दोनों तो बच्चा पैदा हो जायेगा. सिम्पल.
खैर, मैंने अपनी ज़िन्दगी में कोई नशा शरीर में नहीं डाला है. और मेरी कभी इच्छा भी नहीं हुई.
पिता जी, शराब पीते थे, लेकिन बहुत सम्भल कर. मीट के भी शौक़ीन थे. खुद बनाते थे और बनाते-बनाते चौथाई मीट खा जाते. जिस रात उनकी मृत्यु हुई, उस रात भी उन्होंने दारू पी थी. अस्सी के करीब थे वो तब. लाल. सीधी कमर. मुझे बस इतना ही कहते थे कि बेटा मैं तो दिहाड़ी करता था, कम उम्र था, समझाने वाला कोई था नहीं, पता नहीं कब पीने लगा लेकिन हो सके तो तू मत पीना.
और मुझे शायद उनका कहा जम गया. जो कहते हैं कि गुड़ छोड़ने की शिक्षा से पहले खुद गुड़ खाना छोड़ो, वो बकवास करते हैं. पिता जी पीते थे, मुझे मना कर गए और मुझे उनकी मनाही पकड़ गई.
फिर मैंने कहीं एक कहानी पढ़ी थी. अकबर बीरबल की.
अकबर ने पूछा बीरबल से,"बीरबल पीते हो?"
बीरबल ने कहा,"जी जनाब."
"कितनी पीते हो?"
"रोज़ाना दो जाम जनाब"
अकबर को शक हुआ. भेष बदल पहुँच गया बीरबल के घर . बीरबल दारू पी रहा था. एक जाम, दो जाम, तीन जाम.....
अगली सुबह अकबर ने कहा,"गर्दन उतार ली जायेगी."
"क्यों जनाब?"
"झूठ बोलते हो, जिल्ले-इलाही के सामने."
"कैसे जनाब?"
"कहते हो दो जाम पीते हो, लेकिन हमने खुद देखा कि तुम जाम पे जाम पीये जा रहे थे."
"जनाब लेकिन मैं तो दो ही जाम पीता हूँ."
"फिर से झूठ. हमने अपनी आँखों से देखा है."
"जी जनाब, आपने देखा सही है, लेकिन समझा गलत है."
"कैसे?"
"जनाब, मैं तो दो ही जाम पीता हूँ, बाकी के जाम तो पहले वाले दो जाम पीते हैं."
बादशाह अवाक! सही कहता है. बीरबल तो बीरबल पहले दो जाम तक ही होता है. उसके बाद कहाँ बीरबल? वो तो मदहोश. फिर कैसा बीरबल? कौन बीरबल? फिर तो जाम ही जाम को पीये जा रहे हैं.
बस ये कहानी मुझे और घर कर गई. काहे इस तरह से होश गवाना. न. न. मुझे मंजूर नहीं. मुझे नहीं लगता कि मुझ में पिता जी जितनी कूवत है सम्भल कर पीने की.
हो सकता है, मैं गलत होवूं. बन्धु-बांध्वियाँ कह सकते हैं कि बिना पीये ही बकवास किये जा रहा है. जो पीया नही, वो जीया नहीं. जिस लाहौर नहीं
डिट्ठा ओ जम्मिया ही नहीं. लेकिन क्या ज़हर की मारक शक्ति परखने के लिए ज़हर पीकर मुझे देखना होगा. क्या डॉक्टर को बीमारी समझने के लिए खुद बीमार होना होगा? नहीं न.
तो बस, मुझे जो समझ आया वो मैंने किया या कहें नहीं किया, नहीं पीया.
और जो समझा आया, वैसा ही मैंने लिख दिया.
नमन....तुषार कॉस्मिक
कुहू कॉस्मिक
कुहू (मेरी छोटी बेटी) 5.5 साल की है. सारा दिन घर में मोहल्ले की हम-उम्र लड़कियों का जमघट रहता है.
परसों कुहू ममी के साथ कहीं गई थी. माही (कुहू की फ्रेंड) मुझे कहने आई, "अंकल, कुहू को कहना कि माही छः बजे खेलने आयेगी." मतलब एडवांस बुकिंग.
कितनी निराली है इन बच्चों की दुनिया! बार्बियाँ. ढेरों खिलौने. इनकी माँएँ कभी झल्लाती हैं, "इनका खेल ही नहीं खत्म होता." "पेट नहीं भरता इनका खेल-खेल."
अभी-अभी गिन्नी (कुहू की एक और फ्रेंड) की ममी आईं, "गिन्नी...तुझे अगर ममी न बुलाये तो तू तो कभी घर ही नहीं आयेगी. "
कोई माँ बन जाएगी, कोई बच्चा, कोई टीचर, कोई स्टूडेंट. सारा दिन कुछ-न-कुछ करती रहती हैं.
मैंने कुहू को बोल रखा है, "बेटा, थोड़ी-थोड़ी देर में ममी, पापा और सूफी (कुहू की बड़ी बहन) को हग्गी और किस्सी ज़रूर करना है, उससे हमारी एनर्जी बनी रहती है." वो करती भी है.
मेरे पास अगर कमाने का झंझट न हो तो मैं कुहू की दुनिया का हिस्सा बना रहूँ. इन सब बच्चों को खेलते हुए देख-देख निहाल होता रहूँ.
थोड़ा तो सौभग्यशाली हूँ. जो समझता हूँ कुछ चीज़ें. वरना तो लोग बस बच्चे पैदा करते हैं. उनको पता ही नहीं लगता कि बच्चा बड़ा कब हो गया. बच्चे के जीवन का वो कभी भी हिस्सा नहीं बनते. बचपने को बचकाना समझने की भूल करते हैं.
मुझे लगता है कि बच्चे का जीवन भरपूर है जीवन से. वरना हम तो बस जीते हैं मरी-मराई ज़िन्दगी.
थोड़ा सा किस्मत वाला हूँ. कुहू के खेलों का हिस्सा हूँ. .
नमन....तुषार कॉस्मिक
लाइन वहां से शुरू होती है, जहाँ हम खड़े होते हैं
अमिताभ बच्चन ने बोला है यह dialogue. फेमस है.
कीमती शब्द हैं, किन्ही अर्थों में.
कैसे?
लाइन वहीं से शुरू होनी चाहिए, जहाँ आप खड़े हों. मैं सिनेमा या रेल की टिकट लेने को खड़े लोगों की लाइन की बात ही नहीं कर रहा. न.
हर इन्सान कुदरत की नई कृति है. वो किसी और की बनाई लाइन पे क्यों चले? किसी और के पीछे क्यों चले? क्यों खड़ा हो किसी के पीछे?
ये बड़े ही सिम्पल से शब्द हैं मेरे. लेकिन और आगे लिखूंगा तो निन्यानवे प्रतिशत इंसानी आबादी की समझ से बाहर हो जाएगी मेरी बात.
क्यों खड़े हैं आप किसी अरब के रेगिस्तानों में 1400 साल पहले पैदा हुए आदमी के पीछे?
क्यों अंधे हैं आप किसी कृष्ण, किसी राम के नाम के पीछे? जो शायद हजारों साल पहले हुए.
क्यों आपने दो हज़ार साल पहले पैदा हुए किसी व्यक्ति को ईश्वर का बेटा मान रखा है? आप क्या किसी और ईश्वर के बेटे हैं?
ये लोग सही थे या गलत थे? यह सेकेंडरी सवाल है. प्राइमरी सवाल यह है कि इनके जीवन, इनके कथनों को काहे अंधे हो कर मानना?
तुम इनसे एक कतरा भी, एक ज़र्रा भी कमतर नहीं हो.
तुम किसी पैगम्बर, किसी अवतार, किसी भगवान से जरा भी कमतर नहीं हो.
लाइन वहां से शुरू होती है, जहाँ हम खड़े होते हैं.
नमन...तुषार कॉस्मिक
बे-ईमान
जानते हैं मुसलमान 'बे-ईमान' किसे समझता है?
जो 'बिना ईमान वाला' हो.
और कौन है 'बिना ईमान वाला'?
जो 'मुस्लिम' नहीं है.
क्योंकि ईमान तो दुनिया में एक ही है और वो है इस्लाम.
मतलब जो मुस्लिम नहीं है, वो तो वैसे ही चोर, उचक्का, डकैत, हरामी है. आपने पढ़ा होगा, "हलाल मीट शॉप". ये इस्लामी ढंग से जिबह किये गए जानवर का मांस बेचती दुकानें हैं.
लेकिन सब तो उस ढंग से नहीं काटते जानवर. तो जो बाकी ढंग हैं, वो है झटका. लेकिन जो हलाल नहीं, वो तो "हराम" ही हुआ न, चाहे वो झटका, चाहे फटका. इसलिए मुसलमान सिर्फ हलाल मीट खाते हैं.
खैर, अब जो दुनिया यह समझ रही है, वो अपना अस्तित्व बचाए रखने का संघर्ष कर रही है. चाहे उस संघर्ष में वो भी इस्लाम जैसे ही होती जा रही है.
जिससे आप लडेंगे, कुछ कुछ उस जैसे हो ही जायेंगे. आपको लड़ने वाले के स्तर पर आना ही होगा. एक विद्वान भी अगर किसी रिक्शे वाले से सड़क पर भिड़ेगा तो उसे एक बार तो रिक्शे वाले के स्तर पे आना ही होगा. सब किताब-कलम मतलब लैपटॉप-गूगल धरा रह जायेगा. माँ-बहन याद की जाएगी एक-दूजे की.
क़ुरान से भिड़ने के लिए सड़े-गले पुराण खड़े करने ही होंगें. हालाँकि तर्क-स्थान बनाते दुनिया को तो आज यह स्वर्ग होती. लेकिन उसमें मेहनत बहुत है, सो आसान रस्ता चुन लिया गया है.
बस यही कारण है कि भारत भी 'लिंचिस्तान' बनता जा रहा है.
हम सब सिर्फ बन्दर हैं. इन्सान-नुमा ही सही
एक मित्र ने कमेंट किया है कि मैं इस्लाम के खिलाफ लिखता हूँ तो क्या मुसलमानों के कत्ल पर सहमत हूँ.
नहीं हूँ? बिलकुल नहीं हूँ. मेरे दोस्त हैं, मुस्लिम. यहाँ भी हैं. मैंने घंटों बिताएं हैं मुस्लिम मित्रों के साथ.
प्रॉपर्टी डीलिंग में भी मेरे दोस्त हैं नाज़िम भाई. आज कल सबसे ज्यादा इन्ही के साथ बात-चीत होती है.
Anikul Rahman दिल्ली में रहते हैं, मेरे छोटे साले साहेब के घर के बिलकुल साथ वाली सोसाइटी में द्वारका में. मैं ख़ास मिलने गया था इनसे. गपशप हुई. मुझे उनकी बातों से लगा कि वो चिंतित हैं, सेफ्टी के लिए अपने और अपने परिवार के लिए. होना भी चाहिए.
एक हैं Mo Zeeshan Shafayye. ये मुझे मिले बाराबंकी में. इनकी कोई प्रॉपर्टी फंसी है कोर्ट केस में. कोई साल भर पुराना नाता है और यकीन जानिये बहुत ही प्यारा नाता है.
और भी लोग हैं. जिनसे सम्पर्क रहा है घंटों, सालों.
तो मेरी समझ यह है कि ये सब लोग भी एक अच्छी, सेहतमंद, सेफ ज़िन्दगी ही चाहते हैं. ये सब भी अपने परिवारों के लिए जान लड़ाते हैं. ये सब लोग भी वैसे ही हैं जैसे और तबके के लोग हैं. बुनियादी ज़रूरते, बुनियादी उम्मीदें, बुनियादी तकलीफें सब एक जैसी हैं. एक जैसी ही होंगी. अलग कैसे हो सकती हैं? बन्दर के बच्चे सब एक जैसे हैं.
अब फर्क कहाँ है? फर्क है आइडियोलॉजी में. फर्क है किताबों की पकड़ में. कोई एक किताब पकड़ के बैठ गया है तो कोई दूसरी. कोई एक कहानी के पीछे पागल है तो कोई दूसरी. कहानी ही तो है. अगर कोई आया भी इस दुनिया से और विदा हो गया तो उसका जीवन पीछे कहानी ही तो छोड़ता है और क्या?
बस यहीं फर्क है. यह फर्क ऐसे नहीं मिटेगा कि हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई. वो तो होने से रहा. यह फर्क मिटेगा अगर हिन्दू, मुस्लिम यह कहें कि कौन हिन्दू, कौन मुस्लिम? हम सब हैं एक जैसे कसाई, एक जैसे हलवाई, एक जैसे नाई.
हम सब सिर्फ बन्दर हैं. इन्सान-नुमा ही सही.
नमन...तुषार कॉस्मिक
मेरा समाज--एक झलक
मैं पश्चिम विहार, दिल्ली में रहता हूँ. मेरे बगल में ही एक इलाका है मादी पुर. यह एक पुनर्वास कॉलोनी है. इस कॉलोनी के लगभग हर चौक पर मैं अक्सर टोन-टोटके करे हुए देखता हूँ. निश्चित ही यहाँ के परेशान निवासियों की समस्याओं का हल बामन, मौलवी या बाबा ने इनको यह सब करने में बताया होगा.
मादीपुर के एक तरफ पश्चिम विहार और दूसरी तरफ पंजाबी बाग. आपको गलियों या सड़कों के बीचों-बीच इन दोनों इलाकों में इस तरह की बेहूदगी नहीं मिलेगी.
पंजाबी बाग तो वेस्ट दिल्ली के सबसे अमीर इलाका है. जिन्न-भूत-प्रेत लगता है अमीरों से दूर भागते हैं.
असल में सब कहानी अनपढ़ता की है. और जब मैं अनपढ़ लिखता हूँ तो उसका मतलब यह नहीं कि कोई पढ़ना लिखना जानता है तो वो अनपढ़ नहीं हो सकता. नहीं, वो निपट अनपढ़ से ज्यादा अनपढ़ हो सकता है चूँकि उसकों वहम हो जाता है कि वो पढ़ा-लिखा है अब उसको आगे पढ़ने, खुद को गढ़ने की ज़रूरत नहीं है. वो खुद के लिए एवं समाज के लिए अनपढ़ों से भी ज्यादा खतरनाक है.
लोग अनपढ़ हैं, अनगढ़ हैं. जिधर मर्ज़ी हंक जाते हैं. कुछ समय पहले यहाँ दिल्ली के हर मोड़ पर साईं बाबा की विशाल चौकी के लिए पैसे इकट्ठे करने की दूकान लगी होती थी. मोहल्ले के चार चोर जुड़ जाते थे और घर-घर, दूकान-दूकान जा-जा लोगों हलकान कर के वसूली करते थे. फिर होड़ होती थी कि 'हमसर हयात' (तथा-कथित सूफी गायक, जिसे मैंने इन साईं संध्याओं से ही जाना) को बुलाया कि नहीं. लेकिन 'जगत-गुरु शंकराचार्य' ने बोल दिया कि साईं तो मुसलमान थे, मन्दिर में कैसे रख सकते हैं उनकी मूर्ति? व्हाट्स-एप पर साईं के खिलाफ़ मेसेज फ्लोट करने लगे. भला उसकी कमीज़ मेरी कमीज़ से सफेद कैसे? भला मेरा ग्राहक तोड़ के वो कैसे ले गया? खैर, वो ज्वार कटा तो नहीं, घटा ज़रूर है.
वैसे ये साहेबान 'जगद्गुरु' कैसे हो गए? यह भी समझ नहीं आया आज तक. विश्व में ईसाई और इस्लाम दो बड़े धर्म ईसा और मोहम्मद को मानते हैं. इनको क्यों मानेंगे अपना गुरु? और यहाँ भारत में, मैं इनको अपना गुरु नहीं मानता तो ये कैसे हो गए जगद्गुरु?
खैर, आज-कल दिल्ली का हिन्दू समाज 'गुरु जी' के पीछे लगा है. ये जब जिंदा थे तो मैंने कभी इनका नाम तक नहीं सुना था. अब दिल्ली में हर तीसरी कार के पीछे लिखा होता है 'गुरु जी'. इनके सत्संग घर-घर होते रहते हैं. ध्यान किया जाता है. किसलिए? आर्थिक और दुनियावी समस्यायों के हल के लिए.
कल पता लगेगा कि किसी और फोटो, मूर्ति, जिंदा-मुर्दा शख्सियत को पकड़ लेगा हमारा समाज. यह सब चलता ही रहता है.
समस्याओं का हल विज्ञान में है. वैज्ञानिक सोच में है. वैज्ञानिकता में है. इन सब बकवास-बाज़ियों में नहीं है.
कांवड़ यात्रा शुरू हो जाएगी. यकीन जानें, कांवड़ लाने वाले अधिकाँश लोग, ये जो मैंने ऊपर ज़िक्र किया मादीपुर, ऐसे इलाकों से हैं. कोई अमीर लोग कांवड़ लेने नहीं जाते. अमीर इनको पोषित ज़रूर करता है, ताकि अपने पाप कटवा सके. एक बकवास होड़ है, हर साल. साल दर साल. सडकें जाम कर दो, जो पहले ही बस रेंगती हैं. हल्ला-गुल्ला करो. ये धर्म है. हिन्दू धर्म. कोई खिलाफ कैसे बोल सकता है? विधर्मी कहीं के. इस्लाम के खिलाफ़ बोल के दिखाओ तो जानें. बोल बम. जय श्री राम.
हिन्दू बड़ा खुश है, ख़ास कर के मन्दिर में बैठा बामन. अग्निवेश को पीट दिया. आपने सुना अग्निवेश का भाषण, वो बता रहे हैं कि अमर नाथ का शिव लिंग मात्र एक कुदरती घटना है, इसमें कुछ भी दिव्यता नहीं है. वो जियोग्राफी का तथ्य बता रहे हैं. मैं भी ऐसा ही लिखता हूँ, बहुत पहले से. बिलकुल सही बात है, वैज्ञानिक बात है. लेकिन यह तो हमला हो गया मंदिर पर. बामन पर. बामन के इर्द-गिर्द खड़ी राजनीति पर. कैसे बरदाश्त किया जा सकता है? सो कूट दो. मार दो. कत्ल कर दो.
मैं कहता हूँ कि समाज जिसके खिलाफ नहीं, वो इन्सान बोदा है, थोथा है. यह सीधी कसौटी है. अग्निवेश में कुछ अग्नि है, जो उन्होंने ऐसा कहा. ऐसे ही लोग चाहिए भारत को.
वरण यह समाज भूत-प्रेत-हैवान-भगवान में फंसा रहेगा.
इसे बाहर निकालो, मितरो.
नमन.....तुषार कॉस्मिक
Wednesday, 18 July 2018
सबसे ज्यादा छित्तर इन्सान खुद को मारता रहता है.
ज़रा गलती हो जाये, खुद को कचोटता रहता है.
अच्छे काम पर खुद को शाबाशी भी देनी चाहिए.
हाँ, लेकिन न्यूट्रल नज़र बहुत ज़रूरी है, खुद के प्रति भी और यहीं सब नाप-तोल गड़बड़ा जाता है.
तकड़ी का काँटा कहीं भी एक्सट्रीम पकड़ लेता है.
या तो खुद को हम आसमान पर चढ़ा लेते हैं या फिर खड्ड में गिरा लेते हैं.
बैलेंस बना ही नहीं पाते चूँकि हमारी नजरों पर हज़ार-हज़ार पर्दे हैं बेवकूफियों के.
खैर, अल्लाह-ताला नाम का ताला खुल जाए सबसे ज़रूरी तो यही है.
हो नहीं पाता अक्सर. अधिकांश इन्सान इत्ते खुश-किस्मत नहीं होते. अंधेरों में पैदा होना, अंधेरों में जीना और अंधेरों में ही मरना, यही नियति है अधिकांश जन की.
जितना व्यक्ति जानदार होगा उतना ही दीन-दुनिया उससे परेशान होगी. जानदार से मतलब डौले-शोले वड्डे होना नहीं है. रीढ़ मज़बूत होना है. और वो रीढ़ मजबूत योग या जिमनास्टिक करने से नहीं गहन सोच से होती है, जो कि अधिकांश जन की होती नहीं. दुनिया में आये हैं तो बस खाओ, पीओ, बच्चे पैदा करो और मर जाओ. बस इससे ज्यादा सोच ही नहीं है. पागल थे वो लोग जिन्होंने आविष्कार करने में जिंदगियां गला दीं, जिन्होंने समाज को दिशा देने में हाथ-पैर कटवा दिए, जिन्होंने दुनिया को रोशनी मिल सके इसलिए ज़हर पी लिया. बस तुम ठीक हो, जो सिर्फ अपनी औलादों और अपने लिए पैसे का ढेर खड़ा करने में ही मोक्ष पा लेते हो. उल्लू मर जाते हैं, औलाद छोड़ जाते हैं पीछे, इस धरती पर गंद डालने को. जरा योगदान नहीं कि दुनिया कि बेहतरी हो सके. लंगर लगा देंगे सड़क पर, हो गया काम. सड़क पर गंद डालेंगे, ट्रैफिक जाम कर देंगे, प्लास्टिक का ज़हर फैला देंगे और इतने में निहाल हो जायेंगे.
इडियट हो, मर जाओ
अधिकांश लोग अपनी नाक से आगे नहीं सोच पाते.
दूर के बड़े फायदे को नहीं देख पाते. दूर तक होते हुए फायदे नहीं देख पाते. नहीं देख पाते कि सामने वाला सोने का अंडा देने वाली मुर्गी साबित हो सकता है.
वो बस नजदीक का फायदा देखते हैं. तुरत होने वाला फायदा देखते हैं. मुर्गी को तुरत हलाल या हराम करने में यकीन करते हैं.
इडियट हैं. होना तो यह चाहिए कि कई बार दूर के बड़े फायदे के लिए निकट का छोटा फायदा भी कुर्बान कर देना चाहिए. ऐसा मेरा मानना है.
मैं लम्बे रिश्ते बनाने में यकीन रखता हूँ. लेकिन रख नहीं पाता हूँ चूँकि आप लम्बे रिश्ते तभी रख सकते हैं जब सामने वाला भी ऐसा ही सोचता हो. अन्यथा आप मुर्दा किस्म के रिश्ते ढोते रहेंगे.
इडियट केजरीवाल
तभी कहता हूँ कि केजरीवाल नहीं है भविष्य भारत का. भारत का भविष्य मैं हूँ. ये जनाब तो हिन्दुओं को मुफ्त तीर्थयात्रा करवा रहे हैं और मुस्लिमों को हज की बधाइयां देते फिर रहे हैं.
स्टेट सेक्युलर है. और स्टेट्समैन को भी सेक्युलर होना मांगता. मांगता कि नहीं?
न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर.
संविधान सेक्युलर है. संविधान तो वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने की बात भी करता है.
अब मैं जैसे नहीं मानता किसी भी धर्म को तो मेरे जैसे लोगों के साथ तो ना-इन्साफी है न कि मेरे पैसे से हज या तीर्थ करवाए जाएँ या कैसी भी धार्मिक मान्यता को बढ़ावा दिया जाए.
इडियट हैं ये नेता. दफा करो इनको. सिर्फ मेरे जैसों को बढ़ाओ, जो तुम्हारे समाज की बकवास मान्यताओं को तार-तार कर के रख देंगे.
धार्मिक मूर्खताएं
बड़ा मजाक उड़ाया जा रहा है कि जगन नाथ भगवान बीमार हुए, उनका इलाज हुआ, अब शायद ठीक हैं.
ये कुछ खास बात नहीं है.
हिन्दू तो शिव पार्वती मूर्तियों का बाकायदा हर साल विवाह भी करते हैं. बारात निकलती है, भजन-भोजन होता है, कन्या-दान होता है, विदाई होती है, सब.
सिक्खों में किताब (ग्रन्थ) को जिंदा मानते हैं. चंवर से हवा करते हैं, वस्त्र पहनाते हैं, बदलते हैं.
मुसलामानों में पत्थर मारते हैं कहीं, तो समझते हैं कि शैतान को मार रहे हैं. बकरा काट के खुद खा जाते हैं और समझते हैं कि अल्लाह को कुर्बानी दे दी.
धर्म का मतलब है, अक्ल पे पर्दा गिरना, जो न करवाए, वही बढ़िया, वरना तौबा! तौबा!! तौबा!!!
ये कुछ खास बात नहीं है.
हिन्दू तो शिव पार्वती मूर्तियों का बाकायदा हर साल विवाह भी करते हैं. बारात निकलती है, भजन-भोजन होता है, कन्या-दान होता है, विदाई होती है, सब.
सिक्खों में किताब (ग्रन्थ) को जिंदा मानते हैं. चंवर से हवा करते हैं, वस्त्र पहनाते हैं, बदलते हैं.
मुसलामानों में पत्थर मारते हैं कहीं, तो समझते हैं कि शैतान को मार रहे हैं. बकरा काट के खुद खा जाते हैं और समझते हैं कि अल्लाह को कुर्बानी दे दी.
धर्म का मतलब है, अक्ल पे पर्दा गिरना, जो न करवाए, वही बढ़िया, वरना तौबा! तौबा!! तौबा!!!
कश्मीरियों से मेरा ताज़ा वास्ता
प्रॉपर्टी डीलर हूँ. कल कुछ कश्मीरी आये थे किराए पर लेने.
चार लोग, दो लड़के, दो लड़की.
मैंने लड़की के लहजे से पहचान लिया कि वो कश्मीरी हैं.
वो यहाँ नर्सिंग जैसा कुछ कर रही थी. मैंने बोला कि जब सीखना यहीं है, काम यहीं करना है, तो सब कश्मीरी भारत ही आ जायें. भारत तो कहता ही है कि कश्मीर हमारा है तो फिर कश्मीरी भी हमारे ही हुए.
लड़की पता क्या बोली?
बोली, "लेकिन कश्मीरी मत मानते कि हम भारत के हैं."
यह सब बस flow में बात हुई.
नार्मल flow.
यह बात मामला खोल गई.
मैं बाद में मेरे साथ वाले डीलर, जो कि खुद मुस्लिम है, को कह रहा था, "जब ये लोग खुद को भारत से अलग मानते हैं तो फिर यहाँ किराए का घर किस लिए ढूंढ रहे हैं?"
उसने कहा, "हाँ, इसको यह बात कहनी नहीं चाहिए थी?"
मतलब.....'कहनी' नहीं चाहिए थी...चाहे दिल में कुछ भी हो.
वाह!
लेकिन यह बात तो सब कुछ ही कह गयी.
मेरा बस यही पॉइंट है कि.....जब कश्मीरी खुद को मानते ही नहीं भारतीय तो फिर यहाँ क्या कर रहे हैं?
उनके जैसे तो और भी बहुत हैं यहाँ भारत में.
और भारत सरकार इनको एंट्री ही क्यों दे रही है?
मेरा एक दोस्त है कश्मीरी....ब्राह्मण है ..वो भी यही सब बताता था.
कोई भी कश्मीरी मुस्लिम....खुद को भारतीय नहीं मानता.
मुझे लगता है कि वजह है कि इनको पता है कि कश्मीर टूरिज्म से बहुत अमीर हो सकता है.
पैसा एक बड़ी वजह है.
अब जब वहां नहीं है टूरिज्म तो गरीबी है.
गरीबी है तो ये लोग भारत को भाग रहे हैं.
लेकिन अंदर से भारत के प्रति खोटे हैं.
नहीं होना चाहते भारत के साथ. चाहते हैं भारत दफा हो और वो अपनी सरकार बना लें और टूरिज्म से पैसा कमायें.
कश्मीर की समस्या की वजह इस्लाम है. और पैसा है
और कुछ यह भी है कि कश्मीर कभी भारत का उस तरह से हिस्सा रहा ही नहीं जैसे और स्टेट हैं.
फिर से लिखता हूँ ......वजह....वजह.....है...इस्लाम......टूरिज्म का पैसा और पुराने कोई राजनीतिक इकरार-नामे.
नमन...तुषार कॉस्मिक
ये मेरा झापढ़ है भैया
Written By My Australian Friend Veena Sharma
अक्सर लोग मेरी भारत पे की गयी टीका टिप्पणियों को वैयक्तिगत ले लेते हैं और मुझे हैरान कर देते हैं और सोचने पे मजबूर कि भाई तुम्हें प्यार है भारत से पर मेरा प्यार तुमसे कम है ये तुमसे किसने कह दिया। मैं वो अंधी माँ नहीं जिसे दुनिया में अपने बच्चे के सिवा कोई और सुंदर नहीं लगता। मैं वो बच्चा भी नहीं जिसे बस अपनी माँ ही सबसे बढ़िया दिखायी दे। सत्य का अपनेपन से क्या लेना देना। क्या सत्य भी तेरा या मेरा होता है?
ख़ैर आज अपने अनुभव से भारत के प्राइवट स्कूल माफ़िया की बात करूँगी। बच्चों से जम के फ़ीस ले कर ये अधपढ़ क़िस्म की अध्यापिकाएँ अनपढ़ टाइप के माँ बाप को उल्लू बनाने के लिए रख लेते हैं। मैं स्वयं कई साल भारत के प्राइवट स्कूलो में पढ़ाती रही।सच कहूँ तो कॉलेज में लेक्चरर बनने का सपना तो पूरा हो ना सका अब मरते क्या ना करते। सरकारी स्कूल से पढ़े अंग्रेज़ी साहित्य में M.A तो कर लिया कॉन्वेंट में पढ़े जैसे अंग्रेज़ी बोलनी अब आए नहीं। तो कुछ घसियारे टाइप के स्कूल हमपे कृपा का बैठे। अब अच्छी अंग्रेज़ी बोलने वाले उन स्कूल्ज़ में क्यूँ पढ़ाएँगे जिनके मालिक अनपढ़ लाला लोग।
एक दिन बहुत थक गयी तो कुर्सी पे बैठ गयी। प्रिन्सिपल राउंड पे निकले तो मुझे बाहर बुला के बोले “ मैडम कुर्सी बैठने के लिए नहीं” अब मन हुआ पूछूँ “ कि भाई इस पे तू लटक के फाँसी के फंदे पे झूल ले फिर”
मैडम बच्चों की लाइन सीधी नी बनवा पाते वीना मैडम, वीना मैडम फ़लाँ मैडम से आप ज़्यादा बात ना करो अच्छा नहीं आपके लिए, मैडम आपकी कापी देखी आप तो ग़लतियाँ ढंग से निकालती नहीं, वीना मैडम बहुत नम्बर दे देते हो आप,मैडम छुट्टी के पैसे कटेंगे वग़ैरह वग़ैरह...
जितनी फ़ज़ीहत जितना अपमान उन दिनों सहा उस से अधिक सम्मान मैं अपने घर पे काम करने वाली बाई को देती थी। “ आजा सुनिता बहन चल दोनों चाय पीते हैं फिर करियो सफ़ाई “
सजी धजी साड़ियों में घूमती और स्कूल के प्रांगण को सुशोभित करती ये हसीनाएँ सिवा सजे धजे मज़दूरों के कुछ नहीं।
और यहाँ प्लीज़ सारी थैंक यू , मेरी बॉस भी मुझे एक बात में चार बार कहती है तो वो ग़ुलामी के दिन याद आ जाते हैं मन ही मन कहती हूँ “ अबे वीना तेरी इतनी औक़ात कहाँ है, याद हैं वो दिन जब प्रिन्सिपल राउंड पे आता था कैसे एक मिनट में आगे गीला पीछे पीला हो जाता था, मन चकरा जाता था, घिग्गी बंध जाती थी”
अरे भाई हम पीछे रह गए फिसड्डी देशों से भी उसकी वजह तो होगी और वजह देश की मिट्टी थोड़ा ही है अब वजह कौन है सोच लो। सोचोगे तभी तो सुधरोगे। पर नहीं यहाँ तो गीत भी ऐसे ही बनते हैं “ हम तो ऐसे हैं भैया” गोबर सनी सड़कों पे धूल उड़ाते हुए गाओ “ ये अपना टशन है भैया” मन तो करता है एक रसीद करके कहूँ “ ये मेरा झापढ़ है भैया, ये मेरा थप्पड़ है भैया”
अंत करते हुए कहूँ कि ख़यालों में मैंने उन सब प्रिन्सिपल्ज़ के मुँह पे ख़ूब झापड़ लगाए।अब क्या करें सच में तो लगा नहीं पाए।ख़याली पुलाव ख़ूब बनाए।
Veena Sharma from Australia
खतरनाक वकील
वकील का पेशा बहुत ही नोबल(भद्र) माना जाता है. लेकिन सिर्फ माना जाता है. है नहीं. कैसे हो सकता है? एक समाज, जो नोबल न हो, उसकी कोई भी चीज़ कैसे नोबल हो सकती है?
वकील भी उतना ही हरामी है, जितने आप है, जितना मैं हूँ.
नहीं, गलत लिख गया मैं. वकील हम से ज्यादा हरामी है. वजह है. वजह है, उसका हमसे ज़्यादा कायदा-कानून जानना. सो वो एक हैंकड़ में रहता है कि मैं वकील हूँ. मैं कुछ खास हूँ. ऐसी की तैसी बाकी टुच्चे-मुच्चे लोगों की. ये बिगाड़ क्या सकते हैं मेरा?
तीस हज़ारी कोर्ट में K ब्लाक के पास पार्किंग के ठीक ऊपर एक गंदा सा ढाबा है. सुना था मैंने कि उसमें किसी वकील साहेब का कत्ल हो गया था. किसी सिविलियन ने कर दिया था. कर दिया होगा. चल गया अगले का दांव, वरना तो कोर्टों में वकील वैसे ही एक-जुट होते हैं, फुल बदमाशी. किसी को कुछ नहीं समझते.
पीछे सर्टिफाइड कापियां लेने के लिए लाइन में खड़ा था तो एक वकील मोहतरमा लाइन छोड़ सीधे ही घुस गई खिड़की में और मेरे रोकने पर लगी मुझे ही तमीज़ का पाठ पढ़ाने. हाथा-पाई होते होते बची. उसके अगले ही दिन, मेट्रो की लाइन में टिकट लेने को खड़ा तो देखा एक वकील महोदया बिना लाइन की परवाह किये सीधे ही पहले नम्बर पर पहुँच गईं.
ये घटनाएं बताती हैं कि वकील आम लोगों को ठेंगे पे रखते हैं. वजह है, लोगों का कानून में शून्य होना. वजह है, कानून व्यवस्था लचर होना. कौन भिड़े, इन से? बरदाश्त कर लो, इनकी बदमाशियां, बस इसी में समझ-दारी है.
कल-परसों की खबर है, दिल्ली साकेत कोर्ट में वकील औरत का बलात्कार वकील आदमी ने कर दिया. झाडें अब वकील होने का रौब एक दूजे पर.
वैसे अधिकांश वकील वकालत में फेल होते हैं. न इनको ढंग से अंग्रेज़ी आती है, न टाइपिंग, न ड्राफ्टिंग, न बहस. ये लोग लगभग जीरो हैं, लेकिन इनके पास काला कोट है. वो भी असली-नकली डिग्री की बदौलत. कहते हैं कि भारत के आधे वकीलों की डिग्री फर्ज़ी है, शायद इनमें से कोई तो जज भी बन चुके हों. तौबा!
खैर, आपको कई वकील मिल जायेंगे, जिनके कोट पसीने से सफेद हो रखे होंगें. जूते घिसे, फटे. सौ-दौ सौ रुपये के काम के लिए कोर्टों के बाहर-अंदर ग्राहक पकड़ते हुए. ट्रैफिक चालान निपटवाते हुए.
प्रॉपर्टी डीलर हूँ, अधिकांश लोग वकीलों को किराए पर मकान नहीं देते. मुझे लगता है कि सही करते हैं.
अपने आपको, अपने परिवार को कानून सिखाएं. ज़रूरी है. वकील आपका कुछ नहीं बिगाड़ पायेगा, आपको बेवकूफ न बना पायेगा, वरना सावधान रहिये, काले कोट वालों से. खतरनाक हैं.
नोट:--- हो सकता है कोई वकील सच में नोबल हों, वैसे न हों, जैसा मैंने लिखा है. तो यह लेख उनके बारे में नहीं है. अपवाद तो कहीं भी हो सकते हैं. और अपवाद नियम के खिलाफ नहीं होते, नियम को साबित करते हैं.
नमन................तुषार कॉस्मिक
Monday, 2 July 2018
बच्चियां न हिन्दू थीं जन्म से, न मुस्लिम. पहला बलात्कार तो उनको हिन्दू मुस्लिम बना कर किया गया. यह उनके मन से बलात्कार था. बलात्कार क्या है? बल से किया गया कार्य, ज़बरन किया गया कार्य. फिर तन से ज़बरन सम्भोग कर के किया गया. मैं दुखी हूँ. मैं इनको हिन्दू मुस्लिम के खांचे में बाँट नहीं देख सकता. सॉरी,बच्चों को ऐसे नहीं देख सकता. मेरी दो बेटियां हैं. मैं सेक्स के बंधन के खिलाफ हूँ लेकिन बलात्कार के और भी खिलाफ हूँ. यह गलत है. बिना मर्ज़ी के तो किसी को हाथ लगाने तक की हिम्मत नहीं होनी चाहिए बलात्कार तो बहुत ज़्यादा है. न. न.
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