Friday, 20 January 2017

“You’re all prisoners. What you call sanity, it’s just a prison in your minds that stops you from seeing that you’re just tiny little cogs in a giant absurd machine. Wake up! Why be a cog? Be free like us.”
— Jerome Valeska (Gotham)

Foolish Quote-- Never argue with a fool. Someone watching may not be able to tell the difference.


Many of the quotes are simply idiotic. This one is one of them.Why? See. 

Everyone thinks oneself is a super Genius. Argumentation is way to check how much Genius who is. Avoiding argumentation thinking that the other is a fool is simply foolish.

Thursday, 19 January 2017

I love dogs and I hate gods because dogs are so godly and gods are so dogly.

Monday, 16 January 2017

हरेक को अपना धरम, धरम लगता है, दूजे का भरम लगता है. 

संघी  को सिखाया गया है कि हिंदुत्व जीवन-पद्धति है और इस्लाम मात्र पूजा-पद्धति. जबकि इस्लाम खुद को दीन कहता है, पूरा जीवन दर्शन. और वो है भी.

और हिंदुत्व नाम की कोई चीज़ है नहीं. बांधते रहो शब्दों में, वो सब आपके अपने प्रोजेक्शन हैं. हिंदुत्व तो अपने आप में कुछ है ही नहीं.



ज्ञान के विभिन्न पहलु

वेद मतलब ज्ञान...विदित होना.

लेकिन  वेदना शब्द भी वेद से आता  है. Ignorance is bliss. अज्ञान वरदान है. चूँकि  जैसे-जैसे जीवन में आपकी जानकारी बढ़ती है, वैसे-वैसे चिंता भी बढ़ती है. चिंतन बढ़ता है तो चिंता भी बढ़ती जाती है. ऐसा न हो जाए, वैसा न हो जाए. ये गलत न हो जाए, वो गलत न हो जाए. वेद वेदना बन जाता है.

लेकिन इस दुविधा के बावजूद, चिंता के बावज़ूद ज्ञान ही इन्सान को चिंता-मुक्त करने की क्षमता रखता है. या यूँ कहें कि कम परेशानियों वाला, कम चिंताओं वाला जीवन दे सकता है, सो वेद सम्मान का विषय है. Knowledge sets you free. 

बहुत बार हमें कुछ नहीं पता होता और यह भी नहीं पता होता कि हमें नहीं पता. जैसे किसी वनवासी, जो स्कूल नहीं गया, जिसने किताब नहीं देखी, जिसने पेन-पेंसिल नहीं देखी, उसे नहीं पता कि पढ़ना-लिखना भी कुछ होता है. जब तक उसे स्कूल आदि नहीं दिखायेंगे उसे यह तक नहीं पता लगेगा कि उसे नहीं पता कि पढ़ाई भी कुछ होती है. इसे कहते हैं अंग्रेज़ी में,"You don't know and you don't know that you don't  know."  
बहुत बार हमें नहीं पता होता, लेकिन यह पता होता है कि हमें नहीं पता. अब आप उस वनवासी को स्कूल दिखा दें. कॉपी, किताब, पेन, पेंसिल दिखा दें तो उसे यह पता लग जाएगा कि पढ़ना-लिखना कुछ होता है. अपने अज्ञान का ज्ञान हो जाएगा उसे. उसे पता लग जाएगा कि उसे नहीं पता. इसे कहते हैं अंग्रेज़ी में,"You don't know but you know that you don't  know."  

बहुत बार हमें कुछ पता होता है लेकिन नहीं पता होता कि क्या पता है, समय पर याद ही नहीं आता कुछ. पता है कुछ कि हमें पता है लेकिन उस वक्त, उस ख़ास वक्त नहीं पता होता कि वो क्या है जो हमें पता है. इसे कहते हैं अंग्रेज़ी में,"You know that you know but you don't know what you know."

अब अंग्रेज़ी में इस पोस्ट का  संक्षिप्तीकरण करता हूँ.

There are so many aspects of knowing dear ones.

Sometimes y
ou don't know and you don't know that you don't  know.
Sometimes you don't know but you know that you don't  know.
Sometimes you know that you know but you don't know what you know.
Sometimes it seems that ignorance is bliss. 
But ultimately it is the k
nowledge that sets you free. 


नमन

लिबरल इस्लाम माने क्या?

लिबरल इस्लाम नाम की कोई चीज़ नहीं होती...इस्लाम सिर्फ इस्लाम है....लिबरल या नॉन-लिबरल वाली कोई बात नहीं....जाकिर नायक सही कहता है कि इस्लामिक को यदि कोई फंडामेंटलिस्ट अगर कोई समझता है तो सही समझता है और यह गौरव की बात है....जो फंडामेंट, जो बुनियाद मोहम्मद साहेब ने डाली, उसी पर जीवन की बिल्डिंग खड़ी करना, खड़ी रखना ही तो इस्लाम है. तो इस्लाम लिबरल या नॉन-फंडामेंटलिस्ट हो ही नहीं सकता, हाँ कोई मुसलमान हो सकता है कि ऐसा हो जाए और जब वो ऐसा होता है तो निश्चित ही धर्म-च्युत हो रहा है, बे-ईमान हो रहा है.

Sunday, 15 January 2017

I WOULD HAVE GIVEN "PARAMVEER CHAKRA" TO THAT SOLDIER

That Soldier should be given a Gallantry award. Gallantry is not killing politically-declared-rivals. Gallantry is taking a bold step, standing against the atrocities of the Giants. Gallantry is fighting Goliaths whereas knowing perfectly well that one is just a David's size. Had I been the PM of this country, I would have given him a "Paramveer Chakra".

Saturday, 14 January 2017

जिस दिन सीवर में घुस सफाई करने वाले को एक IAS  अफसर जितनी तनख्वाह और इज़्ज़त देगा समाज, समझ लीजियेगा संस्कृति पैदा हो गई. 
Idiocy is always in majority and democracy is the government of the majority.

So democracy is the Government of the idiots, for the idiots, by the idiots. While reading 'by the idiots', you might think that I am wrong. Because how could so shrewd, so cunning, so clever politicians be called idiots? But I am sure, I am not wrong.

These so called leaders are not wise, they are clever, over-clever but not wise, they are idiots, propelling the whole humanity, the whole earth to commit a collective suicide. 


दुनिया कैसे बदलती है

दुनिया-जहाँ की बकवास करता है राजनेता कि  समाज में जो बेहतरी हो रही है उसी की वजह से है.

होता विपरीत है. राजनेता ही वजह है कि समाज में जो बेहतरी आ सकती है, वो या तो आती नहीं या बरसों, दशकों लटक जाती है.  
अभी ज़्यादा पुरानी  बात नहीं है, कंप्यूटर शिक्षा का विरोध कर रहे थे बिहार के बड़े नेता.

एक पुल  बन कर तैयार होता  है, उद्घाटन नेता कर आता है. न तो पैसा नेता का है, न पुल  बनाने की तकनीक नेता की है. और जो पुल  दस साल पहले बनना चाहिए था, वो आज उद्घाटित हो रहा है, उस देरी  की  जो कु-ख्याति  नेता को मिलनी  चाहिए थी, उसकी बजाए नेता सारा श्रेय अपनी झोली में डाल  लेता है. 

बिजली का आविष्कार  हुए सालों हो गए, आज तक बहुत से गाँवों में बल्ब नहीं जला . यह है राजनेता की मेहनत का फल. वो बीच में न होता तो यह काम कब का हो चुकता. असल में तो तुरत हो जाना चाहिए था. 

खैर, एक मिसाल देता हूँ भविष्य की. एक छोटी दिखने वाली इन्वेंशन कैसे दुनिया बदल सकती है, समझ आना चाहिए. 

आपको पता ही होगा हाइब्रिड कारें आ चुकी हैं.  ये बैटरी पर भी चलती हैं और पारम्परिक ईंधन पर भी. 

बैटरी चार्ज करने में समय लगता है और बिजली भी. 

आपको मोबाइल फ़ोन घण्टों चार्ज करना पड़ता है. ठीक. 
खबर आम है कि  जल्द ही ऐसा होने वाला है कि  फ़ोन मिनटों में चार्ज हो जाएंगे.

मेरा मानना है कि ऐसा हो ही जाएगा. वक्ती बात है बस. न सिर्फ मोबाइल फ़ोन, बल्कि हर चीज़ जो चार्जिंग मांगती है, वो ऐसे ही चार्ज होगी. मिनटों में. 

और यह छोटी से दिखने वाली खोज दुनिया में गहरे राजनीतिक  और सामाजिक बदलाव लाएगी. कैसे? बताता हूँ. 

दुनिया की पेट्रोल-डीज़ल की ज़रूरत तेज़ी से घटेगी, प्रदूषण घटेगा और साथ ही अरब मुल्कों की पेट्रो-डॉलर ताकत घटेगी और फिर घटेगा इनका दखल यूरोप और अमेरिका और बाकी कई मुल्कों में, जहाँ  ये इस्लाम फैलाने की फिराक में हैं. 

इस आविष्कार के चलते दुनिया में बहुत कुछ बदलेगा, बेहतरी आएगी और सारा श्रेय, सारा क्रेडिट ले जाएगा आपका राजनेता, जिसे कक्ख नहीं पता कि यह सब हो क्या रहा है, होगा कैसे.  

खैर, नक्कार-खाने में एक बार फिर से तूती  बजा चला हूँ.नमन... तुषार-कॉस्मिक 

Friday, 13 January 2017

Bold मतलब क्या?

सोशल मीडिया पर माँ-बहन की गालियों से हर पोस्ट को अलंकृत करना बोल्ड हो गया है. अरविन्द को 'अरविन्द भोसड़ी-वाल' और मोदी समर्थकों को 'मोदड़ी के' लिखना गर्व का विषय माना जाने लगा है. Jolly LLB फिल्म का एक गाना है, "मेरे तो L लग गए......" बप्पी लाहिड़ी साहेब ने गाया है. L मतलब लौड़े. जब इत्ता गा दिया था, यह भी गा ही देना था. सनी देओल की फिल्म है 'मोहल्ला अस्सी'. बैन है वैसे तो लेकिन देख ली मैंने. इस फिल्म में एक डायलाग प्रसाद की तरह बंटता है. और वो है, "भोसड़ी के." 'गैंग्स ऑफ़ वासेपुर' जैसी घटिया फिल्म एक कल्ट फिल्म बन जाती है, चूँकि उसमें गालियों की भरमार है."कह के लेंगे." क्या लेंगे? मन्दिर का प्रसाद? नहीं. वो ही जानें, जिन्होंने यह डायलॉग लिखा. वैसे 'मादर-चोद' शब्द लंगर की तरह बंटा है फिल्म में. यू-ट्यूब पर कुछ सीरीज इस लिए मशहूर हो रही हैं कि बनाने वाले नंगी गालियाँ दिखाने की हिमाकत कर रहे हैं. एक छोटी लड़की है मल्लिका. उसके विडियो में आखिरी टैग-लाइन मालूम है क्या है? "भाग भोसड़ी के." AIB एक मशहूर youtube चैनल है. All India Bakchod. बस चोद लो सरे-आम. "सही खेल गया भैन्चोद", यह एक और मशहूर youtube चैनल BB ki Vines वाले भुवन बाम की tagline है. वाह! बोल्ड होना कितना आसान, कितना सस्ता हो गया है. अगर यही बोल्ड होना है तो यह बोल्डनेस गली के हर नुक्कड़ पर भरपूर मौजूद है. आपको एक दूजे की माँ-बहन ताश पत्तों के साथ पीटते बहुत लोग मिल जायेंगे. शाहिद कपूर की बहुत पहले एक फिल्म थी "कमीने". अभी-अभी ताज़ा ही है एक फिल्म “हरामज़ादा”. और “फुद्दू” नाम से एक फिल्म भी आ चुकी. एक दूजे को "चूतिया, फुद्दू" कहते हैं....जैसे मैडल बाँट रहे हों. आलिया भट्ट शाहिद कपूर को “फुद्दू” कहती है फिल्म “उड़ता पंजाब” में. और शाहिद कपूर तो अपने बाल ही इस ढंग से कटाता है कि वहां छप जाता है Fuddu, किसी को कोई शक ही न रहे. तनिक विचार करें, असल में हम सब "चूतिया" हैं और "फुद्दू" है, सब योनि के रास्ते से ही इस पृथ्वी पर आये हैं, तो हुए न सब चूतिया, सब के सब फुद्दू. और हमारे यहाँ तो योनि को बहुत सम्मान दिया गया है, पूजा गया है.....जो आप शिवलिंग देखते हैं न, वो शिव लिंग तो मात्र पुरुष प्रधान नज़रिए का उत्पादन है, असल में तो वह पार्वती की योनि भी है, और पूजा मात्र शिवलिंग की नहीं है, "पार्वती योनि" की भी है. हमारे यहीं असम में कामाख्या माता का मंदिर है, जानते हैं किस का दर्शन कराया जाता है, माँ की योनि का, दिखा कर नहीं छूआ कर. और हमारे यहाँ तो प्राणियों की अलग-अलग प्रजातियों को योनियाँ माना गया है, चौरासी लाख योनियाँ, इनमें सबसे उत्तम मनुष्य योनि मानी गयी है.....योनि मित्रवर, योनि. और यहाँ मित्रगण ‘चूतिया-चूतिया’ कहते रहते हैं! जीवन में जस-का-तस जो है, वो दिखाना ही बोल्ड होना यदि है, तो फिर आप और आगे बढिए स्कूलों में भी ऐसा ही सब पढ़ा दीजिये. मुंशी प्रेम चंद, भगवती चरण वर्मा, अमृता प्रीतम के लेखन की जगह माँ-बहन की इज्ज़त में चार-चाँद लगाने वाला साहित्य पढ़ायें, मिल जाएगा भरपूर. और स्कूलों में ही क्यूँ? अपने पूजा-स्थलों में भी सुनाये जाने वाले किस्से-कहानियां को इन्ही अलंकारों से सुसज्जित कर दीजिये. क्या दिक्कत? इडियट! भूल जाते हैं कि शौच भी किया जाता है ओट में. टट्टी शब्द का अर्थ ही है पर्दा, ओट. जीवन में बहुत कुछ ऐसा है, जो है, लेकिन अगर बदबूदार है तो हम उसे छुपा देते हैं, मंदिर में नहीं सजाते. मंदिर में अगर-बत्ती लगाई जाती है ताकि चौ-गिर्दा खुशबू से महक उठे. तो मित्रवर, बोल्ड होने का मतलब बदलिए. एक मतलब मैं दे देता हूँ. सामाजिक मूर्खताओं से टकराइये, हो सकता हैं छित्तर पड़ें, लेकिन हिम्मत रखिये. यही बोल्डनेस है. तथास्तु! नोट ----ऊपर जो गालीनुमा शब्द प्रयोग किये उनको काँटा निकालने के लिए प्रयोग किया गया काँटा समझिये. अन्यथा आप मेरी किसी भी पोस्ट में शायद ही गाली या अपशब्द पायें. मैं बहुत ही शरीफ बच्चा हूँ, दाल-दाल कच्चा हूँ. नमन...तुषार कॉस्मिक

Thursday, 12 January 2017

'आर्ट्स' की वापिसी

दसवीं में स्कूल में टॉप किया था मैंने और अंग्रेज़ी में तो शायद पूरी स्टेट में. कुछ ख़ास नहीं आती थी लेकिन अंधों में काना राजा वाली स्थिति रही होगी. 

सबको उम्मीद थी कि मैं मेडिकल में या नॉन-मेडिकल में जाऊंगा. नॉन-मेडिकल में इंजीनियर बनते थे और मेडिकल में डॉक्टर. लेकिन मुझे तो न डॉक्टर बनना था और न ही इंजीनियर. मैं अपनी ज़िन्दगी के चार-पांच साल वो सब पढ़ने में नहीं लगाना चाहता था जो मैं पढ़ना नहीं चाहता था. 

मुझे साहित्य और फिलिसोफी और साइकोलॉजी, ऐसे विषयों में रूचि थी. खैर, आर्ट्स में आ गया. मात्र दो महीने पढ़ के प्रथम डिविज़न से पास होता रहा. बाकी समय लाइब्रेरी और रीडिंग सेंटर के नाम. जो पढ़ सकता था, पढ़ गया उन सालों में. 

खैर, उन दिनों  आर्ट्स में  वो छात्र जाते थे, जो परले दर्जे के निकम्मे माने जाते थे. जिनके बस का कुछ नहीं था.  आर्ट्स के विद्यार्थिओं के करियर की अर्थी निकल चुकी मानी जाती थी. 

स्थिति आज भी कुछ बदली नहीं है. आज भी डॉक्टरी, वकालत , चार्टर्ड-अकाउंटेंसी  की पढ़ाई करने वाले ही  कीमती माने जाते हैं.  और आर्ट्स पढने वाले आवारा, नाकारा. 

आर्ट्स, जहाँ से पोलिटिकल और सामाजिक शिक्षा होनी है. वो शिक्षा, जो समाज को इतना उन्नत कर सकती है कि आपको वकीलों, डॉक्टरों और चार्टर्ड-अकाउंटेंट की जरूरत ही न रहे या कम से कम रह जाए. लेकिन सारा जोर डाक्टर, वकील आदि बनने पर है. उनकी इज्ज़त है, उनको पैसा मिलता है. 

बेचारा आर्ट का स्टूडेंट बेरोजगार रहता है, बेज़ार रहता है. किताबें काली करता  रहे, पढता रहे, लिखता रहे, कौन पूछ रहा है?

ऐसा क्यूँ है? 


चूँकि सामाजिक, राजनीतिक व्यवस्था चोरों-डकैतों ने हाईजैक कर ली है. 
कहते रहें कि जनतंत्र है. जनता की सरकार, जनता द्वारा, जनता के लिए. न तो यह जनता की सरकार है और न ही जनता द्वारा बनाई जाती है और न ही जनता के लिए काम करती है.  


यह अमीरों, राजा लोगों की सरकार होती है. जनता में से तो कोई उम्मीदवार जीतना ही लगभग असम्भव है. ऐसा उम्मीदवार,  जो हो सकता है कोई परचून की दूकान चलाता हो लेकिन रात को खूब पढता हो और पढ़-पढ़ कर मुल्क के हालात बदलने के प्लान बनाता हो (आपको मालूम हो शायद कि दुनिया की बहुत सी इजाद आम लोगों ने की हैं).......कोई ट्यूशन पढ़ाने वाला, जो आसमान में रात को तारे देखता हो लेकिन दिन में ज़मीन पर भी तारे देखना चाहता हो, देश-दुनिया को खुशियों के तारों से जगमगाना चाहता हो.......कोई ब्लॉगर हो, जो सिर्फ  ब्लॉग ही नहीं लिखना चाहता, अपने शब्दों के अर्थों  को लोगों में उतरते देखना चाहता है.   लेकिन  जब जनता, असल जनता में से कोई उम्मीदवार मैदान में उतर ही  नहीं सकता तो फिर जनता की बेहतरी की उम्मीद भी कैसी?

सो 'लोकतंत्र' नाम का एक ड्रामा खेला जा रहा है. अब इस ड्रामे के सूत्रधार क्यूँ चाहेंगे कि समाज में कुछ बदले? चूँकि अगर कुछ बदला तो ये लोग गौण होते  जायेंगे. सो सामाजिक शिक्षा, राजनीतिक शिक्षा, साहित्य इन सब को हाशिये पर धकेल दिया गया है. न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी.

लेकिन कब तक? यह सब बैक-डोर से आ धमका है. सोशल मीडिया द्वारा.

और याद रखियेगा, अगर समाज में, देश-दुनिया में कोई बदलाव आएगा, बेहतरी आयेगी तो वो सोशल मीडिया के ज़रिये आयेगी. क्रेडिट चाहे कोई भी ले जाए, लेकिन पीछे सोशल मीडिया द्वारा पैदा की गयी चेतना होगी.

बहुत देर तक जनता को मूर्ख नहीं बनाया जा पायेगा. काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ेगी. वो समय गया जब दशकों तक कुछ नहीं बदला और लोग फिर भी एक ही पार्टी को चुनते रहे. अब काम करके ही दिखाना होगा, चाहे कोई भी हो.

तथा नए लोग आयेंगे, नई विचार-धाराएं आयेंगी, नई व्यवस्थाएं आयेंगी. बहुत देर तक कोई इस बदलाव को नहीं रोक पायेगा. 

तो जब आप किसी नेता को हीरो बनाने लगें तो 'आर्ट्स' को धन्यवाद दीजियेगा और कंप्यूटर-इन्टरनेट-सोशल मीडिया  इजाद करने वालों को भी धन्यवाद ज़रूर दीजियेगा, जिनकी बदौलत 'आर्ट्स' फिर से रोज़मर्रा के जीवन में आ धमका है.


नमन

Wednesday, 11 January 2017

नागरिकता यानि सिटीजनशिप यानि क्या?

मुझे हमेशा 'नागरिकता' और  'सिटीजन-शिप', ये दोनों  शब्द उलझन में डाल देते हैं. जो लोग ग्रामीण होते हैं, वो नागरिक नहीं होते क्या? 

अंग्रेज़ी में तो  'कंट्री' शब्द ही गाँव के लिए प्रयोग होता है. बहुत पहले हम क्रॉस कंट्री दौड़ लगाया करते थे. तब तो मैंने ध्यान ही नहीं दिया इस शब्द पर. लेकिन आज मतलब पता है.  गाँवों में से दौड़ते हुए जाना.


किसी दौर में गाँव ही कंट्री था. मेरा गाँव, मेरा देश. लेकिन फिर नगर बस गए. तो नागरिकता ही राष्ट्रीयता हो गई. सिटीजन-शिप  मतलब  नेशनलिटी. 


यहीं लोचा  है, हमने नागरिकता को ग्रामीणता से, कस्बाई जीवन से, आदिवासी जीवन से, वनवासी जीवन से  बेहतर मान रखा है. शहरी-करण बाकी सब तरह के जीवन पर आच्छादित हो गया है. जबकि बहुत मानों में शहरीकरण ही इंसानियत की सब बीमारियों का जनक है. शहरीकरण मात्र जनसंख्या वृद्धि की मजबूरी है. 


यही वजह है कि  जिसे 'कंट्री-शिप' कहना चाहिए उसे हम 'सिटीजन-शिप' कहते हैं. और मेरे लिए तो और भी दिक्कत है. मुझे जब कोई परिचय पूछता है तो खुद को भारत का नागरिक बताते हुए उलझन में पड़ जाता हूँ. मैं तो खुद को 'कॉस्मिक' मानता हूँ, वो जो कॉसमॉस यानि ब्रह्मांड से ही सम्बन्ध मानता है खुद का. ज़र्रे-ज़र्रे से. कैसे कहूं कि मैं हूँ कौन? बुल्ला की  जाणा मैं कौन? 


खैर, खुद को 'तुषार कॉस्मिक' कह कर काम चलाता हूँ.  

"नोट-बन्दी से प्रॉपर्टी नहीं होगी सस्ती"

वहम है कि नोट-बंदी से प्रॉपर्टी सस्ती हो जायेगी. प्रॉपर्टी में हूँ सालों से. कुछ नहीं होगा. लोग रेट कम कर ही नहीं रहे. कौन अपनी करोड़ों रुपये की जायदाद रातों-रात आधी कीमत पर बेचने को राज़ी होगा?

 जिसकी कोई ज़बरदस्त ज़रूरत हो तो बेच भी जाए, लेकिन  ऐसे लोग तो पहले भी औने -पौने में बेच जाते थे. बावज़ूद उसके बगल वाली प्रॉपर्टी उससे सवाये रेट पर बिकती थी. बगल वाली क्या उसी  प्रॉपर्टी को खरीदने वाला सवाई ढेड़ गुणा कीमत पर बेच जाता था.


सो अभी लोग इंतज़ार करेंगे. कौन जाने अढाई साल बाद सरकार बदल जाए. नई पालिसी आ जाए. 


और खरीदने वाले को भी कैसे कुछ सस्ता मिलेगा? वो अगर एक करोड़ रुपये की प्रॉपर्टी को तीस लाख रुपये में दिखाता था तो आज उसे अगर वही प्रॉपर्टी सत्तर लाख रुपये में मिल भी जाए तो जो चालीस लाख रुपये वो पहले से ज़्यादा वाइट में दिखा रहा है उस पर टैक्स नहीं भरेगा क्या? 


कोई खास फर्क नहीं है खरीदने वाले को. वो पहले सारा धन बेचने वाले को देता था, अब अगर बेचने वाले को थोड़ा कम दिया भी तो जितना कम देगा, उससे कहीं ज़्यादा सरकार को टैक्स देना होगा.


सो नतीजा निल-बटा-सन्नाटा.

खुद की जय करें. बेबाक.

आपको बता दिया गया कि खुद की प्रशंसा  नहीं करनी चाहिए. अपने मुंह मियां मिट्ठू नहीं बनना. और आप अपना गुण बताना गुनाह मानने लगे.

बात काफी कुछ सही है, खुद को हर कोई तीस क्या, तीस करोड़-मारखां ही समझता है. 


लेकिन एक पहलु और भी है. हम अक्सर अपनी वो क्वालिटी भी प्रदर्शित करने में या कहने में झिझकने लगते हैं जो कि वाकई हम में हैं, इस डर से कि हमें घमंडी न मान लिया जाए.

मेरा मानना यह है कि पहले एक तृतीय व्यक्ति की तरह, थर्ड परसन की तरह की खुद के गुण-अवगुण आंकें. निष्पक्ष अवलोकन. है तो मुश्किल, लगभग असम्भव, लेकिन फिर भी कोशिश करें. और फिर अगर खुद में कुछ भी काबिल-ए-तारीफ़ पाएं तो उसे बताने में, कहने में मत चुकें. समझने दें, जिसे जो समझना हो.

दूसरों की जय से पहले, खुद की जय करें. बेबाक़.


चैलेंज करे कोई तो अपना पक्ष मजबूती से रखें.

That-is-it.

सिखाया तो यह भी गया था कि सदा सच बोलें लेकिन भगत सिंह से अंग्रेज़ों ने साथियों का पता पूछा हो तो सच बोलना चाहिए उनको?

बचपन में बहुत कुछ अंट-शंट सिखाया गया है.  मौका है सफाई का. झाड़-झखाड-उखाड़ का.

मेरे साथ रहें, खुददे काफी कुछ उड़ जाएगा, बाकी आप खुद इतने सक्षम हो जाएंगे कि आगे धूल धुलती रहे.
I agree to dis-agree and  dis-agree to agree because anyone can be right or wrong at any point at any point of time. 

Tuesday, 10 January 2017

A Holy-shit is shittier than any other shit.

FIR की परिभाषा

FIR मतलब  'फर्स्ट इनफार्मेशन रिपोर्ट '. लेकिन थानों में तो पूरी कोशिश की जाती है कि मामले को या तो लिखा ही नही जाए और अगर लिखा भी जाए तो रोज़नामचा में चढ़ा के निबटा दिया जाए. सो FIR फर्स्ट इनफार्मेशन तो कम ही मौकों पर  साबित होती है. वो तो सेकंड या थर्ड इनफार्मेशन ही बनती है. परिभाषा बदलनी चाहिए. नहीं?

8 Shortest stories, with beautiful meanings----Whats-app Gyan

(1) Those who had coins, enjoyed in the rain.
Those who had notes, were busy looking for shelter.

(2) Man and God both met somewhere,
Both exclaimed ...
"My creator"

(3) He asked are you-"Hindu or Muslim"
Response came- I am hungry

(4) The fool didn't know it was impossible. ...
So he did it.

(5) "Wrong number", Said a familiar voice.

(6) What if, God asks you after you die ....
"So how was heaven??"

(7) "They told me that to make her fall in love I had to make her laugh. 
But every time she laughs, I am the one who falls in love."

(8) We don't make friends anymore, We Add them nowadays.

हम उस देश के वासी हैं

हम उस देश के वासी हैं, जहाँ सड़क ही स्पीड-ब्रेकर का काम करती है.
स्पीड-ब्रेकर नहीं गाड़ी-ब्रेकर का काम  भी करती है.


हम उस देश के वासी हैं, जिसमें कुछ भी नहीं बासी है. यहाँ तो हर साल रामलीला भी नए ढंग से पेश की जाती है.

हम उस देश के वासी हैं, जिसके वासी इतने धार्मिक हैं कि सड़कों पर ही नमाज़ पढ़ते हैं, लंगर चलाते हैं, शोभा-यात्राएं निकालते हैं और हर आने-जाने वाले को धार्मिक रंग में रंगने का मौका देते हैं.


हम उस देश के वासी हैं, जिस देश में  गंगा बहती है, इतनी पवित्र कि हज़ारों गंदे नाले भी उसमें गिर कर पवित्र हो जाते हैं.

बाकी आप जोडें ...............

इन्सान सबसे ज़्यादा बुद्धिमान प्राणी समझा जाता है. है क्या?

शर्लाक होल्म्स जिस समय में दिखाए गए हैं , लन्दन की सड़कों पर घुड-गाड़ियाँ चलतीं थी.  बग्घियां. समस्या एक ही  रहती थी. सड़कों पर लीद ही लीद हो जाया करती.

फिर कार, स्कूटर आदि इन्वेंट हो गए. लोगों ने सुख की सांस ली. लेकिन जल्द ही अगली समस्या आ गई. सब तरफ वायु प्रदूषण फैलने लगा. 


दिल्ली में गाँव अधिकांश हरियाणा के जाटों के हैं. जाट हैं या कौन हैं मालूम नहीं, लेकिन कहते सब खुद को जाट हैं.  मैं तो नहीं मानता जात-पात-जाट-पाट को लेकिन अगले मानते हैं. बड़ा दबदबा है इनका. कोई चूं नहीं कर पाता इनके इलाकों में. किरायेदार इनके नाम से ही मकान-दूकान खाली कर जाते हैं. इनसे लिया कर्ज़ा कोई मार नहीं सकता. लेकिन दबदबे का एक नुक्सान भी है इनको. इनके इलाकों में ज़मीन की कीमत कभी उतनी नहीं रहती जितनी होनी चाहिए.  जल्दी से कोई बाहर का व्यक्ति इन गाँवों  में प्रॉपर्टी लेना पसंद नहीं करता. 


ट्रैफिक जाम जानते हैं कैसे होते हैं? सयाने लोग अपनी साइड छोड़ सामने से आने वाले वाहनों की साइड में चलने लगते हैं. ज़्यादा सयाने हैं न. बेवकूफ तो वो होते हैं जो अपने हाथ ही रहते हैं और धीरे-धीरे सरकते हैं. ये सयाने न सिर्फ अपनी साइड का ट्रैफिक जाम कर देते हैं बल्कि सामने से आने वालों को भी जाम कर देते हैं. बंटाधार.


इन्सान सबसे ज़्यादा बुद्धिमान प्राणी समझा जाता है. है क्या? मुझे शंका है. गहन.

Sunday, 8 January 2017

“इस्लाम के खतरे और इलाज”

इस्लाम का पर्दाफ़ाश ज़रूरी है.
लेकिन यह नहीं लगना चाहिए कि हम हिन्दू या किसी भी और बेवकूफी के तरफ़दार हैं. लगना क्या हम किसी भी और बेवकूफी के समर्थक होने ही नहीं चाहिए, चाहे कितनी भी  पवित्र समझी जाती हो. A Holy-shit is shittier than any other shit.

चर्च ने भी बहुत निर्दोष मरवाए, लेकिन वो दौर खत्म हो चुका.
वहां सुधार की लहर चली, और चर्च को सरकार से अलग किया गया.

यहाँ भारत में भी सैद्धांतिक रूप से धर्म और सरकार अलग हैं लेकिन असल में मन्दिर
, मस्ज़िद, गुरुद्वारा ही सरकार में हैं.

मुस्लिम अक्सर कहते हैं कि इस्लामिक आतंकवाद के फैलने में मुख्य हाथ अमेरिका का है..... इससे मैं असहमत हूँ. इस्लाम तो शुरू ही तलवार के जोर से हुआ.

और अमेरिका की बेवकूफी है निश्चित ही जो कुछ पंगे लिए.......लेकिन इस्लाम के पास पेट्रो-डॉलर की ताकत बढ़ते ही उसने यूरोप को नचा दिया और अमेरिका को नचाने पर आमदा है.

इस्लामिक जो सारा दोष अमेरिका पर देते हैं, वो बकवास है.

अमेरिका के दखल से पहले और बाद---दुनिया का इतिहास कुछ और बताता है.

और वो कुछ और यह है कि इस्लाम दुनिया की सबसे खतरनाक सिद्धांतों में से एक है.

कुरान में सब साफ़ लिखा है.....बस उसे घुमाने का प्रयास किया जाता है, लेकिन असलियत समझने के लिए बहुत अक्ल नहीं चाहिए.

सारा नाटक ही यही है कि कुरआन का तजुर्मा आपने गलत किया.

सब साफ़ है.....बस लोग इस्लाम पर अपनी मान्यताएं थोपने लगते हैं...जैसे “ईश्वर, अल्लाह, तेरो नाम”......अब अल्लाह तो 
 कुरआन में बहुत कुछ ऐसा भी कहता है कुरआन में जो काफ़िरों के लिए यानि इस्लाम को न मानने वालों के लिए घातक है...फिर?

जैसे “हिन्दू
-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई आपस में भाई-भाई”.
ये ऐसी  मान्यतायें है, जिन्हें इस्लाम खुद नहीं मानता. उसमें किसी और मज़हब को मानने वाले की कोई गुंजाइश नहीं. ज़ाकिर नायक ग़लत थोड़ा न कहता है यहाँ. 
और तर्जुमा सब हाज़िर है....कुछ गलत नहीं.
सब ऑनलाइन मौजूद है.
और इस्लाम कोई धर्म है भी? बड़ी गलतफहमी है.
यहाँ तक की अमेरिका, इंग्लैंड और भारत का संविधान भी 
गलत-फहमी का शिकार है कि इस्लाम कोई धर्म है.

आज बहुत विचारक इस बात पर भी जोर दे रहे हैं कि इस्लाम को रिलिजन की परिभाषा से बाहर किया जाए.

इस्लाम एक सामाजिक व्यवस्था, जो अपने ही कायदे-कानून के हिसाब से जीना चाहती है.

इस्लाम एक militia है.

इस्लाम जिहाद में यकीन रखता है. पता नहीं जिहाद का मायने क्या हैं? मुझे तो लगता है जब आप सोते-सोते दांत साफ़ करने को उठ ही पड़ते हैं तो यह भी आपने खुद की काहिली के खिलाफ़ एक जिहाद की और जीत गए.

खैर, मुस्लिम का सीक्रेट हथियार है----जनसंख्या विस्फोट.
किसी भी समाज में घुसो और वहां जैसे भी, तैसे भी मुसलमान ही मुसलमान कर दो. आसान तरीका है बच्चे बढ़ाना

अब इसके जवाब में बेवकूफ हिन्दू यह उदघोषणा करते रहते हैं कि हिन्दू भी जनसंख्या बढायें. मतलब सब मिल कर आत्म-हत्या करें, अकेले मुसलमान ही क्यूँ करें?

मुस्लिम के सीक्रेट हथियार का इलाज यह नहीं है कि हिन्दू भी जनसंख्या बढाए, उसका इलाज है जनसंख्या की राशनिंग. वो और भी बहुत वजहों से ज़रूरी है लेकिन एक वजह यह भी है.
तो यह  भी देखना ज़रूरी है कि कोई धर्म छदम राजनीतिक प्रयोजन न ही हो, जैसा कि इस्लाम है.
किसी  धर्म में निहित सामाजिक कायदे कानून  देश-प्रदेश के कायदे कानून से टकराते हुए न हों, जैसे कि इस्लाम के हैं.
कोई धर्म दूसरे धर्मों के खिलाफ हिंसा न सीखा रहा हो, जैसा कि इस्लाम सिखाता है.
यदि ऐसा हो तो फिर ऐसे धर्म को संविधान के हिसाब से अगर धर्म माना जाता रहेगा तो वह इस संवैधानिक  छूट का नाजायज़ फायदा उठाएगा, जैसा इस्लाम करता है.
इस्लाम संविधान में धर्म की तरह दर्ज़ होता है और वो सब काम संवैधानिक छूट के नाम परवैधानिक छूट के नाम पर करता है जो पूरी सामाजिक ढाँचे को खतरे में डाल देते हैं.


खतरा समझा जाने लगा है पूरी दुनिया में. ट्रम्प और मोदी को मोटा-मोटी  उसी खतरे से बचने के लिए चुना है दुनिया ने. लेकिन इससे एक और खतरा है दुनिया को. एक बेवकूफी से बचने के लिए दूसरी बेवकूफी में न पड़ जाएं. चक्र-व्यूह.

मेरे ख्याल से सब तरह की बेवकूफियों से आज़ादी के पक्ष में जो खड़े हों उनको सपोर्ट करने की ज़रूरत है.

आज़ादी के दौर में बहुत सी विचार-धाराएं थी.
जिन्ना को हिन्दू खतरा लगता था.
अम्बेडकर को सवर्ण खतरा बड़ा लगता था.
कांग्रेस को सब घाल-मेल पसंद था. ईश्वर अल्लाह तेरो नाम. 
संघ को सबसे बड़ा खतरा मुस्लिम और ईसाई इन्वेसन लगता था.

नतीजा सामने है----पाकिस्तान बना, आरक्षण आया, कांग्रेस ने दशकों राज किया, और अब संघ हावी है.
भारत में ज्यादातर लम्बी दाढ़ी वाले (और कुछ बिना दाढ़ी के भी ) बकवास लोग पैदा हुए.
इस बीच भारत ने कुछ ग्रेट लोग पैदा किए लेकिन दुर्भाग्यवश ओझल हो गए. ओझल  कर दिए गए. 
खुशवंत सिंह, ओशो, कुल्बुर्गी, नरेंद्र दाभोलकर, हरी-शंकर परसाई,  रेशनलिस्ट सोसाइटी के लोग. कितने ही लेखक, कवि, फिल्म-मेकर. मैं तो सुलभ शौचालय चलाने वालों को भी महान मानता हूँ. थोड़ा खोजेंगे तो अनेक नाम मिल जायेंगे ऐसे लेकिन हाशिये पर छूटे हुए.   
कहने का मतलब है कि कांग्रेस, संघ और बाकी राजनीतिक विचार-धाराओं की वजह से इस समाज के चिंतकों की चिंता नहीं ली गई.

खुशवंत सिंह ने ता-उम्र लिखा. उनका लिखा, स्कूलों में पढ़ाया जाता है. एक सदी का जीवन. ऐसे भुला दिया गया जैसे वो थे ही नहीं.

दाभोलकर, कलबुर्गी जैसों को तो कत्ल ही कर दिया गया. कहानी खत्म.

ओशो, जिन्हें आज दुनिया समझ रही है, जितनी गालियाँ भारत से उनको मिली, शायद ही किसी को मिली होंगी.

यहाँ तो बस चिप्पी लगा दी जाती है कि फलां कम्युनिस्ट है,फलां ये है, फलां वो है. वाम-पंथी है, इसका चेला, उसका चेला. कहानी खत्म.

यह दुर्भाग्य है. ये लोग, 
ओशो, खुशवंत सिंह, कुल्बुर्गी, नरेंद्र दाभोलकर, हरी-शंकर परसाई आदि ज़रूरी नहीं सब जगह सही हों. लेकिन ये भारत के चिन्तक हैं. चिंता लेते हैं भारत की. बहुत कुछ सही भी है इनके लेखन में. कथन में.

भारत को इनकी ज़रुरत है. दुनिया को इनकी ज़रूरत है.

वरना न दुनिया का भविष्य है और न ही भारत का.करते रहो, हैप्पी न्यू इयर. वो तो हैप्पी तभी होगा जब कुछ नया सोचने की कोशिश करेंगे.

नमन...कॉपी राईट

Friday, 6 January 2017

Tushar – Generating AIDS Awareness

https://staroftheday.wordpress.com/2009/06/04/tushar-generating-aids-awareness/

Tushar
Dubbed as the most deadly ailment human body has ever fought, scientists have been running a race against time for years now to find a cure to the deadly human immunodeficiency virus (HIV) that causes acquired immunodeficiency syndrome (AIDS). The manners in which this lethal virus can infect (sexual intercourse, use of infected needles, saliva and vaginal secretion of infected individuals and from HIV-infected mother to baby) makes the human body more vulnerable to it.
This – coupled with the fact that there is no cure yet available – has woken up the world to generate more and more awareness to prevent this fatal disease from spreading. Unfortunately, India is still fighting hard to do that, thanks to the increasing poverty and relatively low literacy levels. However, our “Star of the Day’ today is doing every bit to do that in a manner that is unique in itself but well thought out and can do wonders if the government lends its ear to it.
Hailing from a conservative background, Mr. Tushar has started a movement that calls for “No Marriage Without Health Check-up” – which is also the slogan for his campaign“White Rumaal” (handerkchief). When asked what does this mean and how he thought of starting this, he narrates the following story.
“One of my close friends married her only child, a 21-year-old daughter, to a supposedly sought-after NRI groom. Just after 3 months into her marriage, the girl flew back home, completely distraught with her state of affairs. The reason she gave sent the whole family into a state of shock. She said that an incidental medical report of her husband has found him to be HIV positive. Fearing the worst, she also got herself tested for the same and was also found to be HIV positive, which she contracted from her husband. Today that girl is no more and her father, who was one of my closest friends, couldn’t bear the loss and died soon after.”
The incident changed Tushar’s perception towards the disease that until this time was something he often heard about in media. Being father of a daughter himself, Tushar couldn’t stop himself from starting a movement that would generate awareness against the disease. That’s how ‘White Rumaal’ was born.
He is trying to spread the word around through blogs (www.whiterumaal.wordpress.com), newspapers, TV channels, peaceful demonstrations, etc; and then once the campaign gathers momentum and strength, he will knock at the door of lawmakers to make health checkup a lawful compulsion before marriage.
Knowing how conservative the Indian society is, the idea may not find favor at once and could also face rebellion from some fundamentalists. Nevertheless, Tushar has done something that not many have thought of and for that he is our ‘Star of the Day’.

Wednesday, 4 January 2017

किसी भी राजनेता के विपक्ष में लिखने से कुछ नहीं होगा, चाहे मोदी हो, चाहे राहुल गांधी, चाहे केजरीवाल. हम फेसबुक टीपते रह सकते हैं लेकिन खेल इन्ही के हाथ में रहेगा. एक जाएगा, दूसरा आएगा. या तो विकल्प बनाओ या बनो. खुद बनते हो तो बढ़िया, वरना बनाओ. मैं तैयार हूँ बनने को. स्टार्ट-up फिनान्सर ढूंढिए. करोड़ों लगेंगे. दिल्ली से शुरू करते हैं. अपने हाथ से खर्च करें. कुछ और हो न हो, मुल्क का निश्चित ही भला होगा, यह गारंटी है.
गली में कालीन या दरी बिछते ही बच्चे भागना -दौड़ना-खेलना शुरू कर देते हैं. धमा-चौकड़ी शुरू. आप पार्क में बैठ कर लौटते हैं तो थोड़े और जीवंत हो उठते हैं. जीवन जीने के लिए स्पेस की ज़रूरत है पियारियो. बंदे पर बन्दा न चढाओ. शायर साहेब लगे हैं, माइक कस कर पकड़े हैं. कईओं को तो माइक खूबसूरत महबूबा से भी ज़्यादा अज़ीज़ होता है, मिल जाए बस, छोड़ना नहीं फिर. तो शायर साहेब लगे हैं. "कुत्ते की दम पर कुत्ता. कुत्ते की दम पे कुत्ता. फिर उस कुत्ते की दम पे कुत्ता. बोलो वाह!" जनता चिल्ल-चिल्लाए,"वाह! वाह, वाह!!" वो आगे फरमाते हैं, "उस कुत्ते की दम पे एक और कुत्ता., अब उस कुत्ते की दम पे एक और कुत्ता..." भीड़ में से किसी के बस से बाहर हो गया, वो चिल्लाया, पिल-पिल्लाया," बस करो भाए, बस करो. दया करो, ये सब गिर जाएंगे." हम से कब कोई चिल्लाएगा? "बस करो भाई, ये गिर जायेंगे."
है वो वकील लेकिन  वित्त मंत्री बना दिया जाता है. अगली बार आप अपना कोर्ट केस चार्टर्ड-अकाउंटेंट को लड़ने को देना और अपनी इनकम टैक्स रिटर्न किसी आम वकील को भरने को देना. करेंगे आप ऐसा

महान है यह मुल्क. यहाँ तो  एक्टिंग करने वालों
क्रिकेट खेलने वालों, गाना गाने वालों, चाय वालों  तक को कानून बनाने के लिए बिठाल दिया जाता है.

शर्म भी नहीं आती इन लोगों को. कई तो मुश्किल ही शक्ल दिखाते हैं सदन में
, फिर भी पदों पर बरसों जमे रहते हैं.

शर्म भी नहीं आती इन लोगों को. रिकॉर्ड मतों से  से हारा, जनता का दुत्कारा वकील  सरकार में मंत्री बन जाता है.  जनता ने जिसको इस काबिल नहीं समझा कि उसे कोई ज़िम्मेदारी दी जाए, वो  पिछले दरवाज़े से जनता के सर पर बैठ  जाता है. कमाल है भाई!

Tuesday, 3 January 2017

Believing in unsystematic Belief systems is not Bullshit, but Human-shit, Holy-shit.
I see dog in God and God in dog.
I am neither theist nor atheist.
I am a thesis-ist.
1 जनवरी, 2017. नया साल मनाते हुए लोग. तुर्की. इस्ताम्बुल. Night क्लब. अल्लाह-अकबर के नारे के साथ अँधा-धुंध गोलियां बरसाता हुआ शख्स, तकरीबन 40 लोग मरे. कई ज़ख्मी. कितने मुस्लिम ने धरना, प्रदर्शन किये इसके खिलाफ? खैर रहने दीजिये. कितने मुस्लिम ने फेसबुक पोस्ट लिखी इसके खिलाफ? चलिए देखते हैं कितने मुस्लिम इस पोस्ट को like करते हैं और कमेंट में इस massacre के खिलाफ कुछ लिखते हैं? आपकी किताब में क्या लिखा है, वो बाद में देखा जाएगा, लेकिन दुनिया यह तो देख ही रही है कि हो क्या रहा है. समझ जाएँ, समझा जाएँ, वरना मर्ज़ी है.
Man has evolved from double standard to triple, to quadruple, to multiple.Wow! Gr8...9..10...........!!

Monday, 2 January 2017

“#कॉमन_सिविल_कोड/ कुछ सवाल-कुछ जवाब”

हिन्दू ब्रिगेड हाहाकारी तरीके से कॉमन सिविल कोड के समर्थन में खड़ी है. मानना यह है इनका कि मुस्लिम समाज ने अलग सिविल कानून की आड़ में बहुत से फायदे ले रखे हैं और समाज को असंतुलित कर रखा है. मुस्लिम एक से ज़्यादा शादी करते हैं, बिन गिनती के बच्चे पैदा करते हैं. आदि-आदि. तो क्यूँ न एक साझा कानून बनाया जाए? क्रिमिनल कोड एक ही है मुल्क में. क़त्ल करे कोई तो सज़ा एक ही है, चाहे हिन्दू हो, चाहे मुसलमान, चाहे सिक्ख. लेकिन हिन्दू बेटी को पिता की सम्पति में जो अधिकार है, वो मुसलमान बेटी को नहीं है. तलाक के बाद हिन्दू पत्नी को पति से जो सहायता मिलती है, वैसी मुस्लिम स्त्री को नहीं है. तो क्यूँ न एक ही कानून हो? कॉमन सिविल कोड. अनेकता में एकता. इसमें कुछ पेच हैं. अनेकता में एकता के फोर्मुले पर ही सारा जोर है जबकि एकता में अनेकता बनाए रखना भी ज़रूरी है. जहाँ तक हो सके, किसी भी समाज के नेटिव फैब्रिक को नहीं छेड़ा जाए. आदिवासी समाज में कुछ अलग कायदे हैं. वहां घोटुल व्यवस्था है. शादी से पहले जवां लड़के-लड़कियां एक साझे हाल में जीवन के नियम सीखते हैं. सेक्स भी. प्रैक्टिकल. आपका बड़ा से बड़ा स्कूल सेक्स एजुकेशन में उनसे पीछे है. अब आप कहें कि यह अनैतिक है, गैर कानूनी है. इसे हमारे तथा-कथित विकसित सामाजिक ढाँचे के हिसाब से परिभाषित करना चाहें तो आप मूर्ख है. उल्टा आपको उनसे कुछ सीखने की ज़रुरत है. तो कॉमन कोड के नाम पर कुछ स्थानीय, कुछ कबीलाई, ग्रामीण, आदिवासी परम्पराएं इसलिए ही तहस-नहस न हो जाएं कि एक ही झंडे तले लाना है. हो सकता है, वो हमारी आधुनिक मान्यताओं से बेहतर साबित हों. तो साझा कानून लागू करने से पहले गहन बहस होनी चाहिए कि बेहतर सामाजिक व्यवस्था क्या है. मैंने तो कल ही लिखा कि शादी का हक़ तब तक नहीं होना चाहिए जब तक स्त्री-पुरुष दोनों एक सीमा तक कमाने न लगें और यह कमाई पांच वर्ष की निरन्तरता न लिए हो. एक छोटा loan लेना हो तो बैंक तीन साल के फाइनेंसियल मांगता है और दो लोग परिवार बनायेंगे, बच्चे पैदा करेंगे, उनकी फाइनेंसियल ताकत कोई ढंग से नहीं पूछता और लड़की की तो बिलकुल नहीं! कल अगर नहीं झेल पायेंगे खर्च, तो बोझ समाज पर पड़ेगा. बहुएं जला दी जाती थीं. फिर कानून बना डोमेस्टिक वायलेंस एक्ट/ 498-A आया. अब विक्टिम आदमी हो गया. बहुत से शादी-शुदा आदमियों की बैंड बजा दी उनकी बीवियों ने. चौराहे पर सिग्नल न हो तो लोग दिक्कत महसूस करते हैं. टकराने लगते हैं एक दूजे से. लड़ने लगते हैं. और सिग्नल हो, लेकिन खराब हो जाए ज़रा देर के लिए, तो भी गदर मच जाता है. समस्या का हल यह नहीं था कि दहेज विरोधी कानून बना दो. ऐसे अनेक कानून हैं जो सिर्फ किताबों में बंद रहते हैं. सार्वजानिक स्थलों पर बीड़ी, सिगरेट पीना मना है, तो भी आपको हर जगह लोग दूसरों के नाक-मुंह में अपना उगला गंदा धुंआ घुसेड़ते नज़र आयेंगे. दहेज बंद हो गया क्या? लोग भव्य शादियाँ करते हैं. शादी नहीं करते, एक मेला लगाते हैं, शादी मेला, शाही मेला. और उनमें दोनों पक्षों में खूब ले-दे भी होता है. बेतुके कानून बनाए गए, और कुछ मामला सुलझा लेकिन कुछ और उलझ गया. अब दूल्हा पक्ष भी फंसने लगा. शादी के कॉन्ट्रैक्ट को गोल-मोल न रख के, सब पहले से निश्चित किया जाए. पश्चिम में prenuptial कॉन्ट्रैक्ट बनाए जाते हैं. वो सब जगह होने चाहियें. यह सात-आठ जन्म के साथ वाली बात बकवास है. सीधा सीधा हिसाबी-किताबी रिश्ता होता है. कानूनी बंधन. कहते भी हैं. सिस्टर-इन-लॉ. कानूनी बहन. असल में तो आधी घर वाली ही मानते हैं. Brother-in-law देवर को कहते हैं. कानूनी भाई. लेकिन असल में दूसरा वर भी माना जाता है. और कई समाजों में तो पति के मर जाने के बाद देवर के साथ ही भाभी की शादी कर दी जाती है. एक चादर मैली सी. एक फिल्म है, देख लीजिए अगर मौका मिले तो. शादी का हक़, बच्चा पैदा करने का हक़ जन्म-सिद्ध अधिकार नहीं होना चाहिए. यह Birth Right नहीं होना चाहिए, यह Earned Right होना चाहिए, कमाया हुआ हक़. स्त्री पुरुष दोनों के लिए. और तलाक ट्रिपल नहीं होना चाहिए, सिंगल होना चाहिए. तुरत. कानून हो कि कोई भी बच्चा किसी भी धर्म में दीक्षित न किया जाए, जब तक वो अठारह साल का न हो, और अगर कोई कोशिश भी करे तो उसे सज़ा हो. अंग्रेज़ी भाषा सीखने से ज़रूरी नहीं कि छठी कक्षा का बच्चा शेक्सपियर को समझ सकता है. पंजाबी सीखने का मतलब नहीं कि गुरु ग्रन्थ में क्या लिखा है, समझ आ जाए. धर्म के नाम पर बच्चों का रोबोटीकरण ही होता है. बच्चा व्यक्तिगत होना ही नहीं चाहिए. तो मान लेगा क्या समाज आज? मेरे हिसाब से तो बच्चा पैदा करने का कानूनी हक़ खत्म कर देना चाहिए. लेकिन यह कब होगा? बच्चा सार्वजनिक होना चाहिए. मैं तो चाहता हूँ कि कानून हो कि धन कमाने की तो कोई सीमा न हो, लेकिन एक सीमा के बाद धनपति न तो अपने लिए धन रख सके और न ही अपने बच्चों के लिए. बाकी धन को स्वेच्छा से पब्लिक डोमेन में डाल दे, न डाले तो ऐसा कानूनन किया जाए. तो कॉमन सिविल कोड की बक-झक करने वालों को समझना चाहिए कि इसके ऊपर-नीचे, दाएं-बाएँ भी बहुत कुछ है. बहुत सी वर्तमान और भविष्य की अल्टरनेटिव व्यवस्थाओं को मद्दे नज़र रखना चाहिए. क्या आप कुछ साल पहले सोच सकते थे कि लोग सेम सेक्स में शादी करेंगे और इसे कानूनी मान्यता भी दी जाएगी? लिव-इन को भी कानूनी मान्यता देनी पड़ेगी, सोच सकते थे क्या आप?लव मैरिज ही पूरे गाँव की, मोहल्ले की चर्चा का मुद्दा रहती थी महीनों, सालों. टॉक ऑफ़ दा टाउन. कुछ समय पहले तक शादी ही एक मात्र व्यवस्था थी कि स्त्री पुरुष सहवास कर सकें, आज शादी उनमें से एक व्यवस्था है, कल ग्रुप-लिव-इन आ सकता है. परसों और भी व्यवस्थाएं उत्पन्न होंगी. आपको कायदे कानून बदलने पडेंगे. multiple सिस्टम खड़े हो सकते हैं. आप डंडा नहीं रख सकते कि एक ही व्यवस्था चलेगी. लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि कोई समाज कोई ऐसी व्यवस्था अपनाने लगे जो पूरे देश दुनिया के ताने-बाने को उलझा दे. जैसे कोई कहे कि जनसंख्या पर इसलिए नियंत्रण नहीं करेंगे चूँकि उनके धर्म में ऐसा करना मना है तो वहां जबरदस्ती करनी होगी. चूँकि आज आक्रमण सिर्फ बन्दूकों, तोपों, गोलों से ही नहीं होते, जनसंख्या विस्फोट से भी होते हैं. किसी भी समाज में घुस के जनसंख्या विस्फोट कर के वहां के समाजिक ताने-बाने को तहस-नहस किया जा सकता है. इसका ख्याल रखना भी ज़रूरी है. डंडा घुमाने की आज़ादी सबको है लेकिन वो वहीं खत्म हो जाती है जहाँ दूसरे की नाक शुरू होती है. अब कोई छूत का रोगी कहे कि उसे छूट होनी चाहिए कि वो सबको छू सके, अगर आप रोको तो आप छूआछूत को बढ़ा रहे हो, तो गलत बात है. आज़ादी है लेकिन दूसरों को रोगी करने की नहीं. तो अगर व्यक्तिगत बच्चा पैदा करने की, पालने की आज़ादी दी भी जा रही हो किसी समाज में तो वो अल्टीमेट, अनलिमिटेड आज़ादी नहीं होनी चाहिए जैसी कि आज है. आज वो आज़ादी दूसरों के नाक ही नहीं, आँख, कान सब फोड़ रही है. दूसरों को छू रही है और छूत का रोगी कर रही है. धर्मों पर मेरा नज़रिया है कि मैं किसी भी तथा-कथित धर्म को नहीं मानता. लेकिन आपको ईश्वर, अल्लाह, वाहगुरू जो मर्ज़ी मानना हो, आप आज़ाद होने चाहिए. आस्तिक्ता की आजादी होनी चाहिए और नास्तिकता की भी. धर्म निहायत निजी मामला होना चाहिए. और आज़ादी बस वहीं तक जहाँ तक दूसरे की आज़ादी में खलल न डालती हो. लाउड स्पीकर बंद. सड़कों का दुरूपयोग बंद. कोई लंगर नहीं, कोई नमाज़, कोई शोभा यात्रा नहीं सड़क पर. जागरण भी करना हो तो साउंड प्रूफ कमरों में करो. नमाज़ की कॉल करने के लिए sms प्रयोग करें या कुछ भी और जिससे बाकी समाज को दिक्कत न हो. और स्कूलों में भगवान की कोई प्रार्थना नहीं. स्कूल शिक्षा स्थल है, वहां तो चार्वाक, बुद्ध और मार्क्स भी पढ़ाया जाना है, वो पक्षपात कैसे कर सकता है? सरकारी कामों में किसी भी धर्म का समावेश नहीं होना चाहिए. कोई भूमि-पूजन नहीं, कोई नारियल फोड़न नहीं. पश्चिम ने चर्च और सरकार को अलग किया. हमारे यहाँ भी सैधांतिक तौर पर ऐसा ही है, लेकिन असल में धर्म जीवन के हर पहलु पर छाया हुआ है. यहाँ नेता किसी एक वर्ग का प्रतिनिधित्व करता रहता है. ओवेसी साफ़ बोलता है कि मैं मुस्लिम -परस्त हूँ. भाजपा हिन्दू-परस्त है. और ये सब गरीब-परस्त है. जबकि प्रजातंत्र की परिभाषा ही यह है कि जो सरकार बने, वो सेकुलर हो, तो ये मुस्लिम-हिन्दू-गरीब-परस्त सेकुलर कैसे होंगे? इन पर तो दसियों वर्षों के लिए पाबंदी लगनी चाहिए. अक्ल ठिकाने आ जाए. कुछ कॉमन होना चाहिए, कुछ अन-कॉमन रहने देना चाहिए. कहीं एकता में अनेकता और कहीं एकता में अनेकता होनी चाहिए. कहीं जबरदस्ती नहीं करनी चाहिए. कहीं जबरदस्ती की सख्त ज़रूरत है. वर्तमान के साथ भविष्य के सामाजिक बदलावों को भी नज़र में रखने की ज़रूरत है. कुछ पुराना रखना चाहिए, कुछ नया रखना चाहिए. सो कोई भी कदम उठाने से पहले गहन चर्चा होनी चाहिए, जहाँ तक हो सके जन-मानस तैयार करना चाहिए, फिर कदम-कदम बदलाव लाने चाहियें. थोड़ा बदलाव लाकर प्रयोग करें, देखें कि नतीजा क्या आता है, फिर अगले कदम उठाएं. और मैं विधान ही नहीं, संविधान की तबदीली में भी यकीन रखता हूँ. विधान, संविधान सब हमारे लिए है. जनतंत्र की परिभाषा ही है, जन के लिए, जन द्वारा, जन की सरकार. अभी लोग कॉमन सिविल कोड के समर्थन में खड़े हैं, वो भी मूर्ख हैं और जो विरोध में खड़े हैं, वो भी मूर्ख हैं चूँकि दोनों के पास वजहें बड़ी ही अहमकाना हैं. थोड़ा गहरे में सोचेंगे तो कॉमन/ अन-कॉमन/ ज़बरदस्ती / जन-मानस सहमति सबको जगह देनी पड़ेगी कायदा कानून बनाने में. नोट---चुराएं न, किसी ने भी लिखा हो, मेहनत लगती है, उसे सम्मान दें अगर पसंद हो तो. वरना अपना विरोध तो ज़ाहिर कर ही सकते हैं, स्वागत है.
झूठ है कि लोग चढ़ते सूरज को सलाम करते हैं. लोग चढ़ते नहीं, चढ़े सूरज को सलाम करते हैं. कीमती वो व्यक्ति है जो चढ़े नहीं, चढ़ते नहीं, अँधेरे में छुपे सूरज की क्षमता/ पोटेंशियल पहचाने.
जो भी मित्र पूछते हैं कि मोदी का विरोध करता हूँ मैं, तो फिर विकल्प क्या है, उनसे उल्टा पूछना चाहता हूँ मैं कि मोदी के अलावा भारत बुद्धि, कौशल, क्षमता से विहीन है क्या? खुद में सम्भावना क्यूँ नहीं तलाशते आप? अन्यथा बन्दा तो हमेशा हाज़िर-नाज़िर है. आप स्टार्ट-up फाइनेंस arrange कीजिये, बाकी सब मैं पेश करता हूँ.
आमिर खान-इन-दंगल---- म्हारी छोरियां छोरों से कम हैं क्या?

एक ख़बर----मेट्रो में  90 प्रतिशत पॉकेट-मारी महिलाओं ने की. 

Sunday, 1 January 2017

हम भारतीय है, भारतवर्ष महान है, विश्व-गुरु है. मतलब हम महान हैं. विश्व-गुरु हैं हम. झूठे हैं, मक्कार है, कुत्ते हैं, कमीने हैं, कंजर हैं वो लोग, जो यह अफवाह फैलाते हैं कि हम अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड में बसने को मरे जाते हैं.
हर सरकार कहती है कि वो गरीब के लिए है. मतलब साफ़ है, अमीर होना लोकतंत्र की धारणा के खिलाफ है. अमीर और मध्यम वर्गीय अमीर का वोट खारिज़ कर देना चाहिए. अब्बी के अब्बी. नहीं? बताएं आप
मैं हर तथा-कथित धर्म के खिलाफ हूँ, एक नहीं हजारों बार लिख चुका हूँ....लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि किसी भी व्यवस्था में यदि ज़रा सा भी कुछ अच्छा हो तो वो न लिया जाए. क्या मैं नुसरत फ़तेह अली का गाना इसलिए नापसंद कर दूं कि वो पाकिस्तानी थे और मुसलमान भी? मैं ऐसा नहीं कर सकता. आज-कल मीशा शफी के गाने बहुत सुनता हूँ मैं. पाकिस्तानी हैं और मुस्लिम भी. पाकिस्तान की अचार-मसाले बनाने वाली कंपनी है "शान". इसके कुछ अचार हमें इतने पसन्द हैं कि हर "ट्रेड फेयर" में हम अपनी ट्राली इन्ही के सामान से भर लेते हैं. मेरी मित्र Veena Sharma अक्सर पाकिस्तानी ड्रामों की तारीफ लिखती हैं. एक टीवी प्रोग्राम है पाकिस्तान का "हस्बेहाल", बहुत पसंद है मुझे. एक हास्य कलाकार हैं 'अज़ीज़ी', बहुत पसंद हैं मुझे. हसन निसार साहेब भी कहीं पसंद, कहीं नापसंद हैं मुझे. मैं तो एक वाक्य में से भी किसी एक शब्द को ना-पसंद और बाकी शब्दों को पसंद कर सकता हूँ. मेरी पसंद नापसंद बहुत पॉइंटेड है, कृपा करके समझें.
ज़बरदस्त ब्रांडिंग से घटिया प्रोडक्ट धड़ल्ले से कैसे बेचा जा सकता है, बेकार बर्गर, पिज़्ज़ा और जहरीले कोक ही इसकी मिसाल नहीं है.......निर्मल बाबा और नरेन्द्र बाबा भी है.

"सम्मोहन का राजनीतिक दुष्प्रयोग"

कुछ लोगों का धंधा ही था राजा की शान में कसीदे गढ़ना. राग दरबारी. मोदी क्या आए, बिल्ली के भागों छींका क्या टूटा, ऑनलाइन क्या और ऑफलाइन क्या ऐसे लोग पैदा हो गए, गली-गली. किस्से गढ़े जाने लगे, मोदी जी की शान में. मोदी जी का नाता Nostradamus तक से गढ़ दिया गया. तारक फ़तेह साहेब तक कनाडा से आ-आ कर समझाने लगे कि मोदी साहेब कोई काम गलत करते ही नहीं. कोई कसर नहीं छोड़ी जनता का दिमाग खराब करने की. इंसानी स्वभाव की कमज़ोरी का फायदा उठाया गया. मालूम है कि इन्सान को अपने तर्कों पर बहुत भरोसा नहीं होता. वो बहुत देर तक तर्कों पर टिका नहीं रहता. कोला ज़हर है, आपको पता होता रहे लेकिन शादी में अगर वेटर एक बार सामने लाये भरा गिलास लाये तो आप मना कर देते हैं, दूसरी बार मना कर देते हैं, तीसरी बार मना कर देते हैं, लेकिन चौथी-पांचवीं बार उठा ही लेते हैं. टीवी पर एक बार कोला की मशहूरी आती है, आप ख़ास ध्यान नहीं देते. दूसरी बार आती है आप कुछ-कुछ ध्यान देते हैं, पांचवीं, छठी, सातवीं बार वो आपके ज़ेहन में उतरती ही चली जाती है. यह एडवरटाइजिंग नहीं है, हिप्नोटाईजिंग है. यह इन्सान की आत्मा का बलात्कार है. उसकी सोच-समझ का कत्ल है. मैं हैरान होता कि अब्बी तो आई थी कोला की ad, फिर से, फिर से, फिर-फिर से. वही किया गया पिछले चुनाव में. जिसने ज़्यादा किया, वो बाज़ी मार गया. ये जो नववर्ष की बधाई के पोस्टर लगे हैं मेरी-आपकी गली में, उनका आप और हमारी बधाई से कोई मतलब नहीं है, वो बस इसलिए हैं कि हमारे ज़ेहन में कुछ नाम बसे रहें. सम्मोहन पैदा किया गया. कोशिश अभी भी जारी है. सब कलई खुल जाएगी एक-दो ढंग के चुनाव हार जाएँ.
दो लीटर की गैस निकली बोतल से गिलास में कोला उड़ेलती श्रीमती शर्मा को देख मैं सोच रहा था कि ज़हर भी पेश करते हैं लोग तो कैसा बदमज़ा करके.
करेला ऊपर से नीम चढ़ा!
कोला ऊपर से गैस निकला!!

Saturday, 31 December 2016

"अब तक का 'ट्रिपल तलाक' का विरोध और सहयोग--दोनों बकवास"

"अब तक का '#ट्रिपल_तलाक' का विरोध और सहयोग--दोनों बकवास" मैं मुसलमानों के ट्रिपल तलाक का कुछ कुछ पक्षधर हूँ, कुछ कुछ पक्षधर नहीं हूँ. कोई शादी तब तक नहीं होगी जब तक लड़का, लड़की दोनों अलग-अलग कमाने-खाने के लायक न हों. कम से कम पांच साल का रिकॉर्ड दें. एक छोटा loan लेना हो तो बैंक तीन साल के फाइनेंसियल मांगता है और दो लोग परिवार बनायेंगे, बच्चे पैदा करेंगे, उनकी फाइनेंसियल ताकत कोई ढंग से नहीं पूछता और लड़की की तो बिलकुल नहीं! तलाक तो तुरत ही होना चाहिए. कुछ रद्दो-बदल के साथ.वर्षों-दशकों तक तलाक के लिए एडियाँ रगड़ना कहाँ की अक्ल है? दो लोग नहीं रहना चाहते साथ, बात खत्म हो गई और क्या सबूत चाहिए. शादी निरा कॉन्ट्रैक्ट है, आप माने या न मानें. लेकिन कॉन्ट्रैक्ट की शर्तें बदलने की ज़रुरत है. अक्सर झगड़े तब पड़ते हैं जब कॉन्ट्रैक्ट पुख्ता तरीके से न बना हो. अगर कॉन्ट्रैक्ट एयर-टाइट हो तो लोग कोर्ट जाने की हिम्मत ही नहीं करते. प्रॉपर्टी के धंधे में हूँ और अच्छे से जानता हूँ कि अधिकांश कॉन्ट्रैक्ट ही निकम्मे होते हैं. अगर कॉन्ट्रैक्ट बनाने पर मेहनत कर ली जाए तो मुकद्दमों की नौबत ही न आए. सो शादी के कॉन्ट्रैक्ट को गोल-मोल न रख के, सब पहले से निश्चित किया जाना ज़रूरी है. पश्चिम में prenuptial कॉन्ट्रैक्ट बनाए जाते हैं. वो सब जगह होने चाहियें. यह सात-आठ जन्म के साथ वाली बात बकवास है. सीधा सीधा हिसाबी-किताबी रिश्ता होता है. कानूनी बंधन. कहते भी हैं. सिस्टर-इन-लॉ. कानूनी बहन. असल में तो आधी घर वाली ही मानते हैं.Brother-in-law देवर को कहते हैं. कानूनी भाई. लेकिन असल में दूसरा वर भी माना जाता है. और कई समाजों में तो पति के मर जाने के बाद देवर के साथ ही भाभी की शादी कर दी जाती है. एक चादर मैली सी. एक फिल्म है देख लीजिए अगर मौका मिले तो. तो बातें साफ़ करें. तलाक ट्रिपल ही क्यूँ? सिंगल होना चाहिए और वो दोनों तरफ से हो सकता हो, ऐसा होना चाहिए. और उसके बाद बच्चे का खर्चा आधा-आधा दें माँ-बाप, छुट्टी. वैसे तो बच्चे समाज के होने चाहियें. सार्वजनिक. लेकिन जब तक वहां नहीं पहुँचता समाज, तब तक के लिए यह इंतेज़ाम किया जा सकता है. या बच्चा सामाजिक हो या सार्वजनिक, इसको ऑप्शनल भी रखा गया हो यदि किसी समाज में, वहां भी मेरे वाल सुझाव काम आ सकते हैं. और जिन भी लोगों ने ट्रिपल तलाक के पक्ष या विपक्ष में आज तक कहा है, लिखा है सब बकवास है. सब लगे बंधे दायरों के सवाल जवाब हैं. स्त्रियाँ तो इसलिए पक्षधर हैं कि उन्हें तलाक के बाद अलिमनी मिलती रहे और पुरुष इसलिए विरोध कर रहे हैं कि देना न पड़े कुछ और तर्क यह है कि कुरान में ऐसा नहीं लिखा. अब लिखा, नहीं लिखा, वो तो यही जाने. पहले तो यही साबित नहीं हो पता कि इन पवित्र ग्रन्थों में लिखा क्या है. खैर, मेरी नज़र और नज़रिया किसी भी धर्म या धर्म ग्रन्थ से नहीं बधा है. न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर. शादी का हक़ जन्म-सिद्ध अधिकार नहीं होना चाहिए. यह Birth Right नहीं होना चाहिए, यह Earned Right होना चाहिए, कमाया हुआ हक़. स्त्री पुरुष दोनों के लिए. और तलाक ट्रिपल नहीं होना चाहिए, सिंगल होना चाहिए. तुरत. कॉपी राईट

मोदी जी start-up नाम से कोई योजना चलाए हैं.बिज़नस स्टार्ट करना हो तो फाइनेंशियल सपोर्ट. तो मित्रगण, मैं राजनीतिक- समाजिक अभियान स्टार्ट करना चाहता हूँ. बिन पैसे के कुछ होगा नहीं, सिवा सोशल मीडिया पर टीपने के. तो यदि सच में कोई परिवर्तन चाहते हैं कि देश-दुनिया में हो तो मुझे start-up मनी इंतेज़ाम करवाएं. भविष्य का ब्लू-प्रिंट मिलेगा. नक्शा मिलेगा. सब क्लैरिटी के साथ. वरना हम आलोचक चाहे किसी के भी हों, उसे बाहर कर भी दें, तो उसके हटने से जो जगह खाली होगी, उसे भविष्य के साथ परियोजक से तो नहीं भर पायेंगे. और बन्दा हाज़िर है, भविष्य की परियोजना के साथ.बाकी मर्ज़ी है. मैं याद दिलाता रहूँगा गाहे-बगाहे.
दिल्ली में हूँ, जिस किसी को भी भारत के भविष्य की चिंता हो, मुझ से मिल सकते हैं, पैसे की दरकार है, ताकि भारत को एक वैज्ञानिकता दी जा सके, राजनितिक और सामाजिक, हर लिहाज़ से. है कोई माई का लाल तैयार. पूरा ब्लू-प्रिंट मिलेगा, खाली बकवास नहीं. वरना हम आलोचना तो करते रह सकते हैं, चाहे मोदी की हो चाहे किसी और की, लेकिन इनके हटने से जो vaccum पैदा होगा उसकी भरपाई किसी बेहतर इंतेज़ाम से नहीं कर पायेंगे. और वो बेहतर इंतेज़ाम मौजूद है, तुषार कॉस्मिक. डंके की चोट पर.
"हमारी सरकार गरीब के लिए है" मोदी
नहीं, वोट लेते टेम भी बोला करो कि हमें वोट सिर्फ गरीब का चइए. मध्यम वर्ग और अमीर वर्ग वोट और नोट विरोधियों को दे दें. लोकतंत्र की परिभाषा फिर से पढ़ लेते, समझ आ जाता कुछ.
जो भी व्यक्ति/ पार्टी समाज के किसी भी एक वर्ग की नुमाइंदगी पेश करता/करती हो, उसे तो अगले दस साल तक कभी किसी भी चुनाव में खड़े होने का हक़ ही नहीं होना चाहिए और उसके सार्वजानिक भाषणों पर सख्त पाबंदी लगनी चाहिए.
गुर्र्रर्र्र्रर्र्र..........इडियट चुनो और इडियट बनो.
नसबंदी पर पैसे देने चाहियें और यहाँ गर्भवती होने पर पैसे दिए जाने का एलान. इडियट आरएसएस, इडियट भाजपा, इडियट मोदी, इडियट भक्त.

IDIOTIC WORDS "HAPPY NEW YEAR"

Existence does not know any old year or old month or old day or old hour or old moment. For it every moment, every hour, every day, every month, every year is new. Fresh. Full of hope. It is only the idiotic humans, who need some particular day labelled as first day of a new year to celebrate as "Happy New Year". Most of the days of an year are Unhappy, hence the humans have to say "HAPPY NEW YEAR" to keep themselves solaced, to keep themselves living in an oblivion. In-fact humans don't understand the ways of the existence. The day they understand, you will never hear such idiotic words "HAPPY NEW YEAR" because you will see them happy every moment. 2) TIME In-fact there is no time, concept of time is just a fallacy. It is non-existent. Past is just memory, it does not exist outta memory and future is just an estimate/ imagination, it also does not exist outta imagination. So now what remains, present. Present is present always. Can you call it time without past and without future? I do not think so. So, when I talk that one should live in the present, it simply means mind should not indulge in memories or in imaginations too much, rather it should learn to be present in the present also. 3) MY DOUBT REGARDING THEORY OF RELATIVITY There is a theory in Physics, I have a vague idea, that if someone can move as fast as speed of light, one can travel in time, can go back and forth in time. Perhaps related to Einstein's theory of relativity. Time is considered 4th dimension. But I have my doubts. To me time is a Non-entity. We all just feel that there is something like time, but actually there is nothing. While looking at a fast moving fan, we feel that there is a wheel, moving wheel, but actually there are only 3 or 4 blades, which are moving so fast that the gaps which human eyes can see is surpassed, giving an illusion of a moving wheel. We see stars in the sky, but there may be none. Many stars are gone, Only the light emitted by them is approaching us now and giving us an illusion of their entity. Similarly time is just an illusion. And if an illusion, how can anyone move back and forth in TIME? I am not sure. Comment plz. 4) LIVING IN PRESENT, IS IT POSSIBLE? I do not think that this theory of living in present is of much value. The only thing, I understand is, the subconscious should not be omni-potent, omni-present in human life. The life should not become a victim of sub-consciousness. But it does not mean that one should always, forcibly try to be conscious, fully conscious. No, it is not even possible always. Suppose, you drive a car for the first time, you will have to be conscious of its controls. But once you become easier, what is the need to always think of clutch and brakes and accelerator. No, all the jobs can be taken care of by the sub-conscious. It is a servant, why not use it and think something more valuable. And while thinking your mind may drift to past, present or future or something imaginary. This is quite natural. And this is the way, nothing wrong in it. It is wrong to force oneself to be present in the present all the times. No, no.not at all. But then why all this hue and cry, of remaining conscious and remaining in the present. There is a reason. Sub-conscious is great servant but if not checked, it takes the seat of the owner. The tenant becomes the owner, if never checked. Hence the need of becoming conscious, remaining in the present. You can see many people, it seems they are slept even while walking, talking. Only a few days back, I was chatting with my advocate, she is fighting cases all the times. In discussion, I refereed to some particular section of an ACT, she said yes, this a legal law. I was amazed, what did she say? A legal law. Can there be an illegal law? Clearly she uttered these words in a state of sub-consciousness. Another daily life instance. I was sitting in HaldiRam a few days back, in Paschim Vihar, Delhi. An elderly lady slipped from the open stairs and came down sliding at least 10 steps. Must have suffered multiple fractures. One reason, I find, that we do not remain conscious to our surroundings. In a BAT MAN movie, there was dialogue, villain utters while dying, and dialogues of villains are usually very powerful, the villain utters, "I am dying because I did not remain conscious of my surroundings" So one should remain conscious, where standing, where sitting, where walking, one might not get hurt, injured or meet an accident. This type of consciousness, I advise. Not always remaining in the present. No, never. I think one must practice remaining in present, conscious. Conscious of one's thoughts, actions. Become conscious. Learn this. Learn that human views, emotions, actions can be/ are hijacked by the sub-conscious. First this much understanding be imbibed. And start seeing oneself, one;s life whenever possible, how much of it is outta sub-consciousness. The one's who are at new on this subject, I think will be amazed to see that many of their actions are just mechanical. Years back, I attended a workshop, Landmark Forum, the end result of this workshop was to make us understood that MAN IS A MACHINE. The whole instance of the saints and not-so-saints on remaining CONSCIOUS is to come outta this MACHINE-NESS. But what I am trying to point out, it does not mean that we are to force ourselves to remain in present, remain conscious all the times. No, that is literally something impossible. If it had been a virtue, how could ARCHIMEDES, find out some thing, go on yelling YUREKA, YUREKA, running naked on the road. He must have been taking a bath, but not only taking a bath but thinking something else also, that is why he got the idea. This reminds me Einstein, I read, that he said that he gets a lot of ideas about galaxies, stars, while playing with soap bubbles. He was such an absent minded person that he used to forget his destination while travelling in the train, it is said. How can you be conscious to your surroundings while deeply thinking, pondering, contemplating over an issue? No. that is impossible. Mind can not be parted in that way. It can be parted consciously and sub-consciously, it can not be parted consciously and consciously. So my point is, it is neither possible nor a virtue to remain in the present always. Should not be advised. Then what should be advised? I think we should all be BEWARED of our sub-consciousness. We should be taught, trained, how it gets CONDITIONED, how it works. We should be aware of its working. We are not here to be VICTIM of sub-consciousness but rather be its MASTERS. And for that first of all, we should be aware of all this, what I have said. Sometimes ever mere knowledge is enough. You become aware that a dangerous spider is walking over your body, mere knowledge is enough for you to get rid of it, immediate action will be there. But in this matter people should be further trained that while eating, while walking, while drinking, whenever possible they should be conscious . I am saying one should be conscious, learn the working of the sub-conscious, but I am not saying that one should always be conscious, always remain in the present. That is literally not possible and even not beneficial, if somehow someone forces oneself to live like that. That is what, I think, what I live. NAMSKAAR TUSHAR COSMIC COPY RIGHT MATTER SHARING IS ALLOWED BUT NOT STEALING
"How willingly we go through whatever situations we face decides the quality of our experience and the quality of our life."---- Sadguru Jaggi
"It is not how willingly but how well we go through whatever situations we face decides the quality of our experience and quality of our life."---- Tushar Cosmic

Thursday, 29 December 2016

"गरीब का भला करना गुनाह है"

ये जो लोग गरीब घरों के बच्चों को पढ़ा रहे हैं मुफ्त, या फिर उनको मुफ्त कपड़े-लत्ते दे रहे हैं, खाना दे रहे हैं और समझ रहे हैं, समझा रहे हैं कि बहुत भला कर रहे हैं दुनिया का, इडियट हैं. यह सब दुनिया का भला नहीं, बुरा है गहरे में. ऊपरी तौर पर यह सब बहुत अच्छा लग सकता है बस.
असल भला आप तभी करेंगे, जब आप साथ- साथ नसबंदी कार्यक्रम चलायें. मतलब जबरन नसबंदी से नहीं है.मतलब ऐसा अभियान चलाने से है जो इनको समझाए कि आप आ गए इस दुनिया में तो यह ज़रूरी नहीं कि आगे अपनी कापियां छोड़ के जाओ. "उल्लू मर गए, औलाद छोड़ गए", यह न ही हो तो अच्छा. खुद का वज़न नहीं झेल पा रहे तो आपके बच्चों का वज़न कैसे झेलोगे? आपका और आपके बच्चों का वज़न इस समाज को ही झेलना पड़ेगा.
और उसके लिए सरकार को और ज़्यादा टैक्स वसूलने पडेंगे. जिन लोगों का आपके और आपके बच्चों के जन्म में कोई हाथ-पैर या कोई भी अंग प्रत्यंग (?) नहीं है, उनको पालने के लिए सरकार दूसरों की जेबें काटेगी.
यह सब इन लोगों समझाए बिना, बड़े पैमाने पर समझाए बिना, किसी भी गरीब का कैसा भी भला करना गुनाह है. इस धरती के प्रति अपराध है. आने वाली नस्लों की बर्बादी है.
एक फोटो देखी होगी आपने सोशल मीडिया पर, एक भिखमंगी औरत को दूसरी औरत भीख दे रही है, लेकिन क्या दे रही हैं? कंडोम. चूँकि उस भिखमंगी के इर्द-गिर्द चार-पांच छोटे बच्चे हैं. और तो और पेट भी फूला है. यह फोटो कमाल की है, इसमें पूरा भविष्य छुपा है मानव जाति का. अगर ऐसा न किया गया तो मानव और उसके साथ- साथ पूरी पृथ्वी तबाह होनी निश्चित है.