Monday, 8 May 2017

एक वार्तालाप मेरी फेसबुक मित्र चेष्टा देवी के साथ

चेष्टा देवी---मुझे तो वो स्त्रियां सबसे फालतू लगती है, जो तलाक दे चुके पति के लिए "हाय दइया, हाय दइया" करते और करेजा में मुक्का मारते हुए मंत्रियों के कोठी तक पहुंच जाती है!

Tushar ---- पति के लिए नहीं 'अलिमोनी' के लिए जाती हैं बहुतेरी.

चेष्टा देवी----अलिमोनी मतलब

Tushar ----- निर्वाह निधि

An allowance paid to a person by that person's spouse or former spouse for maintenance, granted by a court upon a legal separation or a divorce or while action is pending. 2. supply of the means of living; maintenance. Get out your tissues: Quotes about true heartbreak

चेष्टा देवी ---हां, परजीवी बनाने का भुगतान तो करना ही पड़ेगा! इस साजिश में न्यायव्यवस्था भी शामिल है।

Tushar ----- सामाजिक व्यवस्था ज़िम्मेदार है.........चूँकि न्याय-व्यवस्था भी सामाजिक व्यवस्था से आती है.

चेष्टा देवी -----ये बात कान घुमाकर पकड़ने जैसा ही है :-)

Tushar ------ नहीं है.........जड़ में सामाजिक मान्यताएं हैं, जहाँ से सब सामाजिक सिस्टम आते हैं.......विवाह, तलाक़, लड़का-लड़की की शिक्षा, उनके रोज़गार के अवसर, सब कहाँ से आते हैं? सामाजिक व्यवस्था से.

फिर आगे न्याय व्यवस्था, पुलिस, स्वास्थ्य व्यवस्था, यह व्यवस्था, वह व्यवस्था, ये सब  तो सामाजिक व्यवस्था के अंग मात्र हैं.

अकेली न्याय-व्यवस्था कोई आसमान से नहीं टपकती.

समाज से टपकती है.

चेष्टा देवी-----सब एक दूसरे को प्रमाणिक कर रही है! सहमत।

Tushar --------- नहीं.....

चेष्टा देवी-----सामाजिक मान्यताएं!

Tushar --------- पहले क्या आता है.....या पहले क्या बना होगा? जंगल से.....खेतों से...चलते हुए....इन्सान एक समाज बना......मतलब कुछ सिस्टम....कुछ कायदे......जो सामाजिक बेसिक मान्यताओं पर आधारित होंगे.

आज हमारी सामाजिक मान्यातएं बदलती हैं तो जजमेंट बदल जाती हैं.

मिसाल के लिए आज से बीस-तीस साल पहले भारत में live-in , सेम सेक्स शादी को जज सिरे से खारिज कर देता...है कि नहीं?

Tushar --------- और मिसाल लीजिये...सीधी..आपके केस से जुडी.

परजीवी कौन बनाता है औरत को? न्याय-व्यवस्था?

नहीं....बिलकुल नहीं.

मेरी दो बेटियां हैं...हम क्या चाहते हैं कि वो शादी करें और बोझ की तरह कल किसी की छाती पर सवार हो जाएँ?

नहीं.

हम उन्हें हर हाल में इस काबिल बनायेंगे कि वो अपने पैरों पर खड़ी हों. भाड़ में गई शादी.

चेष्टा देवी----- हम्म_ समझ रहे हैं :-)

Tushar --------- और गर हम उल्टा करें कि कल बस शादी कर दें जैसे-तैसे.....और आगे क्या होगा? अगर नहीं बनी वहां तो फिर तलाक और चूँकि लड़की पैरों पर खडी नहीं तो फिर उम्मीद करें कि लड़के वाले लाखों देकर जान छुडाएं जो कि बहुत केसेस में होता है.

तो ज़िम्मेदार कौन है?

ज़िम्मेदार माँ-बाप हैं/ Guardian हैं.

इसलिए कहा कि ज़िम्मेदार समाज है.

न्याय-व्यवस्था ने थोड़ा हमें कोई बाँधा है कि हम अपनी बेटियों को पढाएं न.....या उनको बिज़नस न करने दें.....या उनको नौकरी न करने दें.

नही न.....तो फिर मैं कैसे कहूं कि न्याय-व्यवस्था ज़िम्मेदार है? मैं ज़िम्मेदार हूँ, बच्चों की मां ज़िम्मेदार है, हमारा परिवार ज़िम्मेदार है अगर हम लडकियों के पैरों में बेड़ियाँ डालते हैं, उन्हें पंगु कर देते हैं तो, परजीवी कर देते हैं तो.

और गर कल वो कामयाब बिज़नस करें या नौकरी करें या वकालत करें तो भी उसके पीछे हमारे परिवार/समाज का ही बड़ा हाथ होता है.

मेरी बड़ी बिटिया को जापानी भाषा में बहुत रूचि है तो हम तमाम कोशिश कर रहे हैं कि वो इसका सर्टिफिकेट कोर्स करे...... अन्य कोर्स भी करे लेकिन यह भी कर ले.

और आगे भी जो करना चाहे करे और यकीन जानिये हमने, माँ-बाप दोनों ने, पूरी तरह से उसे यह गाइड किया है कि शादी "नहीं" करनी है, यह दुनिया की बकवास व्यवस्थाओं में से है.

हमें नहीं बनाना अपनी बेटियों को परजीवी.

हमारी बेटियों को किसी की alimony की कभी दरकार नहीं होनी चाहिए

हमारी बेटियां कभी किसी के घर-परिवार पर बोझ की तरह नहीं गिरेंगीं.

हम हर हाल में उनको उनके पैरों पर खड़ा करेंगे.

आशा है मेरी बात समझा सका होवूँगा.

चेष्टा देवी ----हाँ

नोट:--- वार्ता खत्म. कमेंट बॉक्स में लिंक दिया है इस वार्तालाप का. सन्दर्भ के लिए देख सकते हैं. नमस्कार.

Saturday, 6 May 2017

जब आप साझे में अपना खर्च खुद वहन करते हैं तो इंग्लिश में इसे कहते हैं, "Pay & Play"
और
हिंदी में कहते हैं, "यारी-दोस्ती पक्की, खर्चा अपना-अपना"
लेकिन
पंजाबी में इसे कह सकते हैं, "हमारी जुत्ती, हमारे सिर/ ਸਾਡੀ ਜੁੱਤੀ, ਸਾਡੇ ਸਿਰ".

ओशो मेरे प्यारे ओशो: नानक साहेब पर आपकी गलत टिप्पणियाँ

आज ही ओशो का नानक साहेब की काबा यात्रा के बारे में एक ऑडियो सुन रहा था......दो चीज़ अखरीं.....वो कहते हैं कि नानक हिन्दू थे.....और दूसरा कि उन्होंने सिक्ख धर्म चलाया था...दोनों ही बात मुझे नहीं जमती. नानक साहेब ने बचपने में ही जनेऊ को इंकार कर दिया था, जो हिन्दुओं का एक ख़ास कर्म-काण्ड है, फिर हरिद्वार में लोग सूरज को पानी दे रहे थे, वो उल्टी दिशा पानी देने लगे. जगन्नाथ में होने वाली आरती पर भी उन्होंने कटाक्ष किया. कैसे कहेंगे, उनको हिन्दू? और उन्होंने कब चलाया सिक्ख धर्म? वो तो गोबिंद सिंह जी ने जब खालसा सजाया तब कहीं एक नए धर्म का बीज पड़ा. "सब सिक्खों को हुक्म है, गुरु मान्यो ग्रन्थ." इसी ऑडियो में ओशो कह जाते हैं कि "कबीर"" गाते थे और मरदाना जो कि मुसलमान था, बजाता था. मुझे तो यह भी उचित नहीं लगता कि नानक साहेब के साथ चलने वाला कोई हिन्दू-मुसलमान रह जाए. नाम चाहे कोई भी ही, बाप-दादा चाहे किसी भी धर्म को मानते हों, वो खुद भी पहले चाहे कुछ भी मानता हो, लेकिन उस समय वो नानक साहेब के अंग-संग था. और उनका ख़ास संगी-साथी था. हो ही नहीं सकता कि ऐसा व्यक्ति हिन्दू-मुस्लिम रह जाए. यह जो ओशो नानक को 'कबीर' कह गए, उसके लिए तो ओशो ने कहा कि चूँकि वो नानक, कबीर, फरीद आदि में फर्क नहीं देखते सो नाम गड्ड-मड्ड कर जाते हैं. लेकिन बाकी पॉइंट ध्यान में रखता हूँ तो मुझे लगता है कि ओशो काफी कुछ गलती कर गए. मेरी इस तरह की दसियों पोस्ट हैं, लेकिन मित्र गलत न समझें, मैं लाख कमियां, गलतियाँ छांट-छांट कर पेश करता हूँ, मुझे ओशो का कोई दुश्मन समझ कर न पढें या पढ़ कर दुश्मन न समझें. ओशो के प्रति प्रेम है मेरा, सम्मान है लेकिन मेरे ओशो प्रेम से यह भी मतलब नहीं है कि ओशो मुझे कहाँ गलत लगते हैं, कहाँ ठीक वो मैं नहीं सोचूंगा, नहीं कहूँगा. नमन...तुषार कॉस्मिक.
मैं नितांत अधार्मिक व्यक्ति हूँ.
न मंदिर, न गुरूद्वारे जाता हूँ, न प्रार्थना करता हूँ, न ही किसी और तरह का धार्मिक कर्म.
हाँ, वैसे सब जगह चला जाता हूँ चाहे मन्दिर हो, चाहे गुरुद्वारा, चाहे चर्च.

बुद्धिजीवी

एक मित्र ने लिखा कि मैं, तुषार, मात्र बुद्धिजीवी हूँ. मतलब था कि मैं कोई आध्यात्मिक व्यक्ति नहीं हूँ. और वो मुझे बुद्धि का पर्दा हटाने की भी सलाह दे रहे थे.
उन्होंने शायद यह कोई मेरी कमी, बुराई, मेरी सीमा बताई.
लेकिन यह सत्य है. मैंने कभी बुद्धिजीवी होने के अलावा कोई क्लेम किया भी नहीं है.
लेकिन जिन को बुद्दिजीवी होने से परहेज़ हो, उनके लिए मशवरा है. ऐसे मत सोचिये जैसे बुद्धि से जीना कोई गलत हो. कुदरत ने बुद्धि दी है तो उसे प्रयोग करना ही चाहिए. आपको नहीं करना न करें. अगली बार जब सड़क पर चलेंगे तो बिना बुद्धि के चलिए. दायें..बायें...देखना ही मत.....लाल बत्ती, हरी बत्ती की बिलकुल परवा मत करना. और सामने से आते तेज़ गति वाले ट्रक में जा भिड़ना. बिलकुल ऐसा ही करना. बिना बुद्धि से जीना. अगर जी पाओ तो.

और बुद्धिजीवी होने का अर्थ ह्रदयहीन होना नहीं है  सर जी.



Thursday, 4 May 2017

संविधान, विधान, धर्म और कॉमन सिविल कोड

"संविधान, विधान, धर्म और कॉमन सिविल कोड" पहले तो यह समझ लें कि संविधान हो या विधान हो, सब हमारे लिए हैं. वक्त ज़रूरत पर हम इनमें बदलाव करते हैं. तो मेरा सुझाव है कि संविधान में, विधान में तथा-कथित धर्मों को लेकर बहुत बदलाव की दरकार है. **************************************************** पहले संविधान का अनुच्छेद २५ देखें. Article 25. Indian Constitution Freedom of conscience and free profession, practice and propagation of religion (1) Subject to public order, morality and health and to the other provisions of this Part, all persons are equally entitled to freedom of conscience and the right freely to profess, practise and propagate religion (2) Nothing in this article shall affect the operation of any existing law or prevent the State from making any law (a) regulating or restricting any economic, financial, political or other secular activity which may be associated with religious practice; (b) providing for social welfare and reform or the throwing open of Hindu religious institutions of a public character to all classes and sections of Hindus Explanation I The wearing and carrying of kirpans shall be deemed to be included in the profession of the Sikh religion Explanation II In sub clause (b) of clause reference to Hindus shall be construed as including a reference to persons professing the Sikh, Jaina or Buddhist religion, and the reference to Hindu religious institutions shall be construed accordingly. यह अनुच्छेद 25/1 कहता है कि सबको धार्मिक आज़ादी है बशर्ते कि आम-जन में सेकुलरिज्म, स्वास्थ्य, नैतिकता, कायदा कानून बना रहे. इसी आधार पर इस्लाम को धर्मों की श्रेणी से बाहर करना चाहिए चूँकि यह धर्म के नाम पर छद्म सामाजिक, राजनीतिक और सैनिक संगठन है. इस्लाम की मुक्कदस किताब कुरान गवाह है, पढ़ सकते हैं. जी, यह कोई मेरा ओरिजिनल आईडिया नहीं है, अमेरिका और बहुत से अन्य मुल्कों में ऐसे सुझाव दिए जा रहे हैं कि इस्लाम को धर्मों की श्रेणी से बाहर किया जाये. इस्लाम कोई रोज़े, नमाज़, रमजान का नाम नहीं है. इस्लाम में शरिया है जो एक पूरी सामाजिक व्यवस्था है, जिसके अपने कानून हैं. इस्लाम में इस्लाम के पसारे के लिए हिंसा है. तो यह कैसे कोई धर्म हो गया? ****************************************************
जनसंख्या वृद्धि पर संविधान में एक अनुच्छेद जुड़ना चाहिए. कोई भी धर्म-विशेष के लोग एक सीमा के बाद जनसंख्या वृद्धि नहीं कर पाएं. इस पर सख्त रोक लगनी चाहिए. बल्कि अगर मुल्क जनसंख्या घटाने का निर्णय लेता है तो हर धर्म के लोग उसमें अपनी जनसंख्या के अनुपात में अनिवार्य-रूपेण कमी लाएं. हर जन्म, हर मृत्यु कंप्यूटराइज्ड रिकॉर्ड पर हो. यह इसलिए ज़रूरी है कि युद्ध सिर्फ तीर-तलवार से ही नहीं, इंसानी पैदावार से भी जीते जाते हैं. अगर किसी मुल्क पर हमला करना हो तो वहां घुस जाओ और फिर बच्चे ही बच्चे पैदा कर दो. जब आपकी जनसंख्या बढ़ेगी तो, वोटिंग पॉवर बढ़ेगी और इसके साथ ही आप वहां की सरकार में पैठ बनाते हुए धीरे-धीरे पूरी तरह से हावी हो जायेंगे. यूरोप में इस्लाम का दखल इसी तरह से हुआ है और नतीजा भुगत रहा है. अमेरिका इससे आगाह हो चुका है. भारत को अधिकारिक रूप से आगाह अभी होना है. **************************************************** अब संविधान का 25/2/b अनुच्छेद देखें, जो सिक्ख, जैन और बौद्ध को हिन्दू की छत्रछाया में ला के खड़ा कर देता है. और देखिये The Hindu Marriage Act, 1955 क्या कहता है? (1) This Act may be called the Hindu Marriage Act, 1955. (b) to any person who is a Buddhist, Jaina or Sikh by religion. सिक्ख, जैन, बौद्ध खुद को हिन्दू नहीं मानते हैं और खुद को सिक्ख, जैन, बौद्ध कहलाना ही पसंद करते हैं. इनको ज़बरन हिन्दू कहना गलत है. हिन्दू की blanket term से बाहर करना चाहिए इनको. मेरा नाम पहले बाल-कृष्ण था, बदल कर मैंने तुषार रख लिया, लेकिन अगर आप मुझे बाल कृष्ण नाम से ही सम्बोधित करने की जिद्द करेंगे तो यह आपकी मान्यता है, माने जाएँ, मुझ से इसका क्या मतलब? और हिन्दू अपने आप में कोई लगा-बंधा धार्मिक सिस्टम न कभी रहा है और न है. असल में 'हिन्दू' नाम से कभी कोई धर्म रहा ही नहीं फिर भी जिन भी लोगों को खुद को हिन्दू कहलाना सही लगता हो, उन्हें हिन्दू कहलाये जाने का हक़ देना चाहिए. और यह जो हिंदुत्ववादी संघी बकवास है कि सिर्फ हिन्दू ही धर्म है, बाकी सब पूजा-पद्धतियाँ हैं, सम्प्रदाय हैं, पन्थ हैं, यह सिर्फ "तुम्हारा कुत्ता कुत्ता और हमारा कुत्ता टॉमी" के अलावा कुछ नहीं है. "हम धरम है, तुम भरम हो" के अलावा कुछ नहीं है यह. और ऐसा भरम हर तथा-कथित धर्म को है. **************************************************** इसके अलावा नास्तिकों और अज्ञेयवादियों को तथा अन्य किसी भी वाद को मानने वालों को पूरी संवैधानिक सुरक्षा मिलनी चाहिए. मतलब आप जिसे भगवान मानते हैं, कोई उसे यदि मात्र मिट्टी की मूर्ती मानता है तो उस पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए, आप किसी को पैगम्बर मानते हैं, कोई उसे साधारण इनसान मानता है तो कोई बवाल नहीं होना चाहिए. तथा-कथित धर्म के विरोध और धर्म से विद्रोह को पूरी सुरक्षा, सुविधा और सम्मान मिलना चाहिए. आप दिन रात मंदिर, मस्ज़िद, गुरुद्वारों से लोक-परलोक, स्वर्ग, नरक, जीवन, मरण के बारे में चिल्लाते हैं तो कोई यदि आपकी इस चिल्लाहट को बकवास कहे तो कोई पंगा, दंगा नहीं होना चाहिए. लेकिन एक है IPC धारा 295-A. किसी की धार्मिक भावनाओं को जान-बूझ कर यदि कोई आहत करे तो इस धारा के अंतर्गत उसे तीन साल की सज़ा और जुर्माने का प्रावधान है. Section 295A in The Indian Penal Code Deliberate and malicious acts, intended to outrage religious feelings of any class by insulting its religion or religious beliefs.—Whoever, with deliberate and malicious intention of outraging the religious feelings of any class of [citizens of India], [by words, either spoken or written, or by signs or by visible representations or otherwise], insults or attempts to insult the religion or the religious beliefs of that class, shall be punished with imprisonment of either description for a term which may extend to [three years], or with fine, or with both. यकीन जानिए, आपके तमाम महापुरुष और महा-स्त्रियाँ इस धारा के अंतर्गत जेल में होते. सुकरात, जीसस, मंसूर, सरमद और जॉन ऑफ़ आर्क तथा कितने ही महान लोगों को ऐसे ही कानूनों के अंतर्गत क़त्ल किया गया. ऑस्कर वाइल्ड, एल्लन टुरिन जैसे लोगों को जेलों से सड़ा दिया गया. महान लेखक, महान वैज्ञानिक, महान समाज शास्त्री. सदियाँ ऋणी हैं, रहेंगी इनकी. लेकिन शक्ति बुद्धिहीन भीड़ के पास तब भी थी और अब भी है. लानत! ये जो लोग अक्सर कहते हैं कि हमें कानून व्यवस्था पर पूर्ण विश्वास है, ये भी कम “वो” नहीं हैं. बड़े वाले. इडियट. पहले देख तो लो कानून व्यवस्था विश्वास के काबिल है भी कि नहीं. कानून व्यवस्था में व्यवस्था है भी कि नहीं. पीछे ओवैसी चीख रहा था. असल में अपने पिछलग्गुओं को समझा रहा था कि यदि कोई तुम्हारे प्यारे नबी की शान में गुस्ताख़ी करे तो धारा 295-A का प्रयोग करो. सही है. अगले को अन्दर करवा दो बस. बहस मत पैदा होने दो. सच्चाई मत खोजने दो. जेल करवा दो. क़त्ल कर दो. यह देखो ही मत कि किसी तथा-कथित धर्म में धर्म कितना है और अधर्म कितना. वो धर्म कहलाने का हकदार है भी कि नहीं. आपने पढ़ा ही होगा कि श्रीमान “मेसंजर ऑफ़ गॉड” बाबा डॉक्टर राम रहीम सिंह इन्सान के शिष्यों ने यही धारा प्रयोग की हास्य कलाकार कीकू शारदा के खिलाफ़. कोई किसी से कम नहीं है. सब चाहते हैं कि उनके पीछे की भीड़ जुटी रहे, कहीं सत्य की किरण किसी छिद्र से प्रवेश ही न कर जाए. और हमारा आला कानून खड़ा है, ऐसे महापुरुषों की रक्षा के लिए. लेकिन इसे बदलना चाहिए. सबको अपनी कल्पना के घोड़े दौड़ाने का बराबर हक़ होना चाहिए. **************************************************** Article 28 in The Constitution Of India 1949 Freedom as to attendance at religious instruction or religious worship in certain educational institutions (1) No religion instruction shall be provided in any educational institution wholly maintained out of State funds (2) Nothing in clause ( 1 ) shall apply to an educational institution which is administered by the State but has been established under any endowment or trust which requires that religious instruction shall be imparted in such institution (3) No person attending any educational institution recognised by the State or receiving aid out of State funds shall be required to take part in any religious instruction that may be imparted in such institution or to attend any religious worship that may be conducted in such institution or in any premises attached thereto unless such person or, if such person is a minor, his guardian has given his consent thereto Cultural and Educational Rights. यह है संविधान का अनुच्छेद 28, जो स्कूलों को धार्मिक शिक्षा की आज्ञा देता भी है और नहीं भी देता. अब ज़रा अनुच्छेद 30 भी देख लेते हैं. Article 30 in The Constitution Of India 1949 Right of minorities to establish and administer educational institutions (1) All minorities, whether based on religion or language, shall have the right to establish and administer educational institutions of their choice (1A) In making any law providing for the compulsory acquisition of any property of an educational institution established and administered by a minority, referred to in clause (1), the State shall ensure that the amount fixed by or determined under such law for the acquisition of such property is such as would not restrict or abrogate the right guaranteed under that clause (2) The state shall not, in granting aid to educational institutions, discriminate against any educational institution on the ground that it is under the management of a minority, whether based on religion or language यह अनुच्छेद कहता है कि धर्म या भाषा पर आधारित अल्प-संख्यक अपनी चॉइस यानि मर्ज़ी से शिक्षा संस्थान स्थापित कर सकते हैं. और चूँकि ये अल्प-संख्यकों के संस्थान होंगे, इस आधार पर सरकार इनके साथ कोई भेद-भाव नहीं करेगी. अब यहाँ अपनी चॉइस यानि मर्ज़ी के शिक्षा संस्थानों से क्या मतलब? वो तो धार्मिक शिक्षा देंगे ही, अगर चाहेंगे तो. मेरा पॉइंट यह है कि स्कूलों को, शिक्षा संस्थानों को धार्मिक शिक्षा देने का कतई कोई हक़ नहीं होना चाहिए, जब नहीं होगा तो वो बच्चों को प्रार्थना में खड़ा भी नही कर पायेंगे. और न मदरसों में कुरान पढाई जा पायेगी. है कोई कानून कि अगर स्कूल प्रार्थना करवायेंगे तो उनकी मान्यता रद्द हो जायेगी? कहाँ होती है स्कूलों की छुट्टी इस बात पर कि वो प्रार्थना करवा रहे हैं? **************************************************** THE CONSTITUTION (FORTY-SECOND AMENDMENT) ACT, 1976 Statement of Objects and Reasons appended to the Constitution (Forty-fourth Amendment) Bill, 1976 (Bill No. 91 of 1976) which was enacted as THE CONSTITUTION (Forty-second Amendment) Act, 1976 STATEMENT OF OBJECTS AND REASONS 3. It is, therefore, proposed to amend the Constitution to spell out expressly the high ideals of socialism, SECULARISM and the integrity of the nation, to make the directive principles more comprehensive and give them precedence over those fundamental rights which have been allowed to be relied upon to frustrate socio-economic reforms for implementing the directive principles. It is also proposed to specify the fundamental duties of the citizens and make special provisions for dealing with anti-national activities, whether by individuals or associations. THE CONSTITUTION (FORTY-SECOND AMENDMENT) ACT, 1976 [18th December, 1976.] An Act further to amend the Constitution of India. BE it enacted by Parliament in the Twenty-seventh Year of the Republic of India as follows:- 1. Short title and commencement.- (1) This Act may be called the Constitution (Forty-second Amendment) Act, 1976. (2) It shall come into force on such date as the Central Government may, by notification in the Official Gazette, appoint and different dates may be appointed for different provisions of this Act. 2. Amendment of the Preamble.- In the Preamble to the Constitution,- (a) for the words "SOVEREIGN DEMOCRATIC REPUBLIC" the words "SOVEREIGN SOCIALIST SECULAR DEMOCRATIC REPUBLIC" shall be substituted. ये जो ऊपर सन्दर्भ दिए हैं, इनसे साफ़ है कि भारत एक सेक्युलर स्टेट माना जाता है. और सरकार को, सेक्युलर सरकार को, पब्लिक ड्यूटी में रहते हुए किसी भी व्यक्ति को, सरकारी संस्थान को, सरकारी नियमों से चलने वाले संस्थान को किसी भी धार्मिक गति-विधी में शामिल नहीं होना चाहिए. ऐसा पाए जाने पर तुरत परमानेंट छुटी होनी चाहिए. अभी पीछे मेट्रो में केजरीवाल जी के पोस्टर लगे थे, किसी गुरु परब की बधाइयां दे रहे थे. क्यों भाई? आप एक संवैधानिक पद पर हो, सेक्युलर पद पर. सेक्युलर होने का मतलब ही है इन सब मान्यताओं से उदासीन रहना. और ऐसा कोई केजरीवाल ही नहीं, गली के छुटभैया नेता से लेकर सर्वोच्च नेता तक कर रहे हैं. है कोई कानून जो इनको पद-मुक्त कर सके मात्र इस मुद्ददे पर? **************************************** Article 27 Indian Constitution. Freedom as to payment of taxes for promotion of any particular religion No person shall be compelled to pay any taxes, the proceeds of which are specifically appropriated in payment of expenses for the promotion or maintenance of any particular religion or religions denomination संविधान के अनुच्छेद 27 में लिखा है कि सरकार किसी भी ख़ास धर्म के प्रचार में जनता के टैक्स का पैसा खर्च नहीं करेगी, लेकिन इस अनुच्छेद में यह नहीं लिखा है कि यदि पब्लिक का पैसा सरकार सब धर्मों पर बाँट कर खर्च करे तो वो ऐसा नहीं कर सकती. मतलब सरकार पब्लिक का पैसा, टैक्स देने वालों का पैसा, किसी विशेष धर्म पर तो खर्च नहीं कर सकती लेकिन हाँ, सब धर्मों पर मिल बाँट कर खर्च कर सकती है. लिखा कुछ भी लेकिन हज सब्सिडी चालू है. बस यहीं मेरा मत भेद है, मेरा कहना है कि सरकार को इस पंगे में पड़ना ही नहीं चाहिए. **************************************** मेरे सुझावों के ज़मीन पर आने पर आप देखेंगे हज की सब्सिडी खत्म. स्कूलों में ज़बरदस्ती की प्रार्थना खत्म, गुर-पर्वों, ईद, राम नवमी की सरकारी बधाईयों खत्म. अंध-श्रधा में कमी. तार्किकता में बढ़ोतरी. वैज्ञानिकता में बढ़ोतरी. तथा और भी बहुत कुछ....... **************************************************** अब “#कॉमन_सिविल_कोड" पर भी कुछ विचार प्रस्तुत है. हिन्दू ब्रिगेड हाहाकारी तरीके से कॉमन सिविल कोड के समर्थन में खड़ी है. मानना यह है इनका कि मुस्लिम समाज ने अलग सिविल कानून की आड़ में बहुत से फायदे ले रखे हैं और समाज को असंतुलित कर रखा है. मुस्लिम एक से ज़्यादा शादी करते हैं, बिन गिनती के बच्चे पैदा करते हैं. आदि-आदि. तो क्यूँ न एक साझा कानून बनाया जाए? क्रिमिनल कोड एक ही है मुल्क में. क़त्ल करे कोई तो सज़ा एक ही है, चाहे हिन्दू हो, चाहे मुसलमान, चाहे सिक्ख. लेकिन हिन्दू बेटी को पिता की सम्पति में जो अधिकार है, वो मुसलमान बेटी को नहीं है. तलाक के बाद हिन्दू पत्नी को पति से जो सहायता मिलती है, वैसी मुस्लिम स्त्री को नहीं है. तो क्यूँ न एक ही कानून हो? कॉमन सिविल कोड. अनेकता में एकता. इसमें कुछ पेच हैं. अनेकता में एकता के फोर्मुले पर ही सारा जोर है जबकि एकता में अनेकता बनाए रखना भी ज़रूरी है. जहाँ तक हो सके, किसी भी समाज के नेटिव फैब्रिक को नहीं छेड़ा जाए. Article 29 in The Constitution Of India 1949 29. Protection of interests of minorities (1) Any section of the citizens residing in the territory of India or any part thereof having a distinct language, script or culture of its own shall have the right to conserve the same. (2) No citizen shall be denied admission into any educational institution maintained by the State or receiving aid out of State funds on grounds only of religion, race, caste, language or any of them. आदिवासी समाज में कुछ अलग कायदे हैं. वहां घोटुल व्यवस्था है. शादी से पहले जवां लड़के-लड़कियां एक साझे हाल में जीवन के नियम सीखते हैं. सेक्स भी. प्रैक्टिकल. आपका बड़ा से बड़ा स्कूल सेक्स एजुकेशन में उनसे पीछे है. अब आप कहें कि यह अनैतिक है, गैर कानूनी है. इसे हमारे तथा-कथित विकसित सामाजिक ढाँचे के हिसाब से परिभाषित करना चाहें तो आप मूर्ख है. उल्टा आपको उनसे कुछ सीखने की ज़रुरत है. तो कॉमन कोड के नाम पर कुछ स्थानीय, कुछ कबीलाई, ग्रामीण, आदिवासी परम्पराएं इसलिए ही तहस-नहस न हो जाएं कि एक ही झंडे तले लाना है. हो सकता है, वो हमारी आधुनिक मान्यताओं से बेहतर साबित हों. तो साझा कानून लागू करने से पहले गहन बहस होनी चाहिए कि बेहतर सामाजिक व्यवस्था क्या है. मैंने तो कल ही लिखा कि शादी का हक़ तब तक नहीं होना चाहिए जब तक स्त्री-पुरुष दोनों एक सीमा तक कमाने न लगें और यह कमाई पांच वर्ष की निरन्तरता न लिए हो. एक छोटा loan लेना हो तो बैंक तीन साल के फाइनेंसियल मांगता है और दो लोग परिवार बनायेंगे, बच्चे पैदा करेंगे, उनकी फाइनेंसियल ताकत कोई ढंग से नहीं पूछता और लड़की की तो बिलकुल नहीं! कल अगर नहीं झेल पायेंगे खर्च, तो बोझ समाज पर पड़ेगा. बहुएं जला दी जाती थीं. फिर कानून बना डोमेस्टिक वायलेंस एक्ट/ 498-A आया. अब विक्टिम आदमी हो गया. बहुत से शादी-शुदा आदमियों की बैंड बजा दी उनकी बीवियों ने. चौराहे पर सिग्नल न हो तो लोग दिक्कत महसूस करते हैं. टकराने लगते हैं एक दूजे से. लड़ने लगते हैं. और सिग्नल हो, लेकिन खराब हो जाए ज़रा देर के लिए, तो भी गदर मच जाता है. समस्या का हल यह नहीं था कि दहेज विरोधी कानून बना दो. ऐसे अनेक कानून हैं जो सिर्फ किताबों में बंद रहते हैं. सार्वजानिक स्थलों पर बीड़ी, सिगरेट पीना मना है, तो भी आपको हर जगह लोग दूसरों के नाक-मुंह में अपना उगला गंदा धुंआ घुसेड़ते नज़र आयेंगे. दहेज बंद हो गया क्या? लोग भव्य शादियाँ करते हैं. शादी नहीं करते, एक मेला लगाते हैं, शादी मेला, शाही मेला. और उनमें दोनों पक्षों में खूब ले-दे भी होता है. बेतुके कानून बनाए गए, और कुछ मामला सुलझा लेकिन कुछ और उलझ गया. अब दूल्हा पक्ष भी फंसने लगा. शादी के कॉन्ट्रैक्ट को गोल-मोल न रख के, सब पहले से निश्चित किया जाए. पश्चिम में prenuptial कॉन्ट्रैक्ट बनाए जाते हैं. वो सब जगह होने चाहियें. यह सात-आठ जन्म के साथ वाली बात बकवास है. सीधा सीधा हिसाबी-किताबी रिश्ता होता है. कानूनी बंधन. कहते भी हैं. सिस्टर-इन-लॉ. कानूनी बहन. असल में तो आधी घर वाली ही मानते हैं. Brother-in-law देवर को कहते हैं. कानूनी भाई. लेकिन असल में दूसरा वर भी माना जाता है. और कई समाजों में तो पति के मर जाने के बाद देवर के साथ ही भाभी की शादी कर दी जाती है. एक चादर मैली सी. एक फिल्म है, देख लीजिए अगर मौका मिले तो. शादी का हक़, बच्चा पैदा करने का हक़ जन्म-सिद्ध अधिकार नहीं होना चाहिए. यह Birth Right नहीं होना चाहिए, यह Earned Right होना चाहिए, कमाया हुआ हक़. स्त्री पुरुष दोनों के लिए. और तलाक ट्रिपल नहीं होना चाहिए, सिंगल होना चाहिए. तुरत. कानून हो कि कोई भी बच्चा किसी भी धर्म में दीक्षित न किया जाए, जब तक वो अठारह साल का न हो, और अगर कोई कोशिश भी करे तो उसे सज़ा हो. अंग्रेज़ी भाषा सीखने से ज़रूरी नहीं कि छठी कक्षा का बच्चा शेक्सपियर को समझ सकता है. पंजाबी सीखने का मतलब नहीं कि गुरु ग्रन्थ में क्या लिखा है, समझ आ जाए. धर्म के नाम पर बच्चों का रोबोटीकरण ही होता है. बच्चा व्यक्तिगत होना ही नहीं चाहिए. तो मान लेगा क्या समाज आज? मेरे हिसाब से तो बच्चा पैदा करने का कानूनी हक़ खत्म कर देना चाहिए. लेकिन यह कब होगा? बच्चा सार्वजनिक होना चाहिए. मैं तो चाहता हूँ कि कानून हो कि धन कमाने की तो कोई सीमा न हो, लेकिन एक सीमा के बाद धनपति न तो अपने लिए धन रख सके और न ही अपने बच्चों के लिए. बाकी धन को स्वेच्छा से पब्लिक डोमेन में डाल दे, न डाले तो ऐसा कानूनन किया जाए. तो कॉमन सिविल कोड की बक-झक करने वालों को समझना चाहिए कि इसके ऊपर-नीचे, दाएं-बाएँ भी बहुत कुछ है. बहुत सी वर्तमान और भविष्य की अल्टरनेटिव व्यवस्थाओं को मद्दे नज़र रखना चाहिए. क्या आप कुछ साल पहले सोच सकते थे कि लोग सेम सेक्स में शादी करेंगे और इसे कानूनी मान्यता भी दी जाएगी? लिव-इन को भी कानूनी मान्यता देनी पड़ेगी, सोच सकते थे क्या आप?लव मैरिज ही पूरे गाँव की, मोहल्ले की चर्चा का मुद्दा रहती थी महीनों, सालों. टॉक ऑफ़ दा टाउन. कुछ समय पहले तक शादी ही एक मात्र व्यवस्था थी कि स्त्री पुरुष सहवास कर सकें, आज शादी उनमें से एक व्यवस्था है, कल ग्रुप-लिव-इन आ सकता है. परसों और भी व्यवस्थाएं उत्पन्न होंगी. आपको कायदे कानून बदलने पडेंगे. multiple सिस्टम खड़े हो सकते हैं. आप डंडा नहीं रख सकते कि एक ही व्यवस्था चलेगी. लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि कोई समाज कोई ऐसी व्यवस्था अपनाने लगे जो पूरे देश दुनिया के ताने-बाने को उलझा दे. जैसे कोई कहे कि जनसंख्या पर इसलिए नियंत्रण नहीं करेंगे चूँकि उनके धर्म में ऐसा करना मना है तो वहां जबरदस्ती करनी होगी. चूँकि आज आक्रमण सिर्फ बन्दूकों, तोपों, गोलों से ही नहीं होते, जनसंख्या विस्फोट से भी होते हैं. किसी भी समाज में घुस के जनसंख्या विस्फोट कर के वहां के समाजिक ताने-बाने को तहस-नहस किया जा सकता है. इसका ख्याल रखना भी ज़रूरी है. डंडा घुमाने की आज़ादी सबको है लेकिन वो वहीं खत्म हो जाती है जहाँ दूसरे की नाक शुरू होती है. अब कोई छूत का रोगी कहे कि उसे छूट होनी चाहिए कि वो सबको छू सके, अगर आप रोको तो आप छूआछूत को बढ़ा रहे हो, तो गलत बात है. आज़ादी है लेकिन दूसरों को रोगी करने की नहीं. तो अगर व्यक्तिगत बच्चा पैदा करने की, पालने की आज़ादी दी भी जा रही हो किसी समाज में तो वो अल्टीमेट, अनलिमिटेड आज़ादी नहीं होनी चाहिए जैसी कि आज है. आज वो आज़ादी दूसरों के नाक ही नहीं, आँख, कान सब फोड़ रही है. दूसरों को छू रही है और छूत का रोगी कर रही है. धर्मों पर मेरा नज़रिया है कि मैं किसी भी तथा-कथित धर्म को नहीं मानता. लेकिन काम-चलाऊ ढंग से इन्हें धर्म मान भी लें तो इनमें इस्लाम शामिल नहीं होना चाहिए और हिन्दू की छत्र-छाया से सिक्ख, बौद्ध और जैन को बाहर होना चाहिए, यह मैं पहले ही लिख आया हूँ. तो आपको ईश्वर, अल्लाह, वाहगुरू जो मर्ज़ी मानना हो, आप आज़ाद होने चाहिए. आस्तिक्ता की आजादी होनी चाहिए और नास्तिकता की भी. धर्म निहायत निजी मामला होना चाहिए. और आज़ादी बस वहीं तक जहाँ तक दूसरे की आज़ादी में खलल न डालती हो. लाउड स्पीकर बंद. सड़कों का दुरूपयोग बंद. कोई लंगर नहीं, कोई नमाज़, कोई शोभा यात्रा नहीं सड़क पर. जागरण भी करना हो तो साउंड प्रूफ कमरों में करो. नमाज़ की कॉल करने के लिए sms प्रयोग करें या कुछ भी और जिससे बाकी समाज को दिक्कत न हो. और स्कूलों में भगवान की कोई प्रार्थना नहीं. स्कूल शिक्षा स्थल है, वहां तो चार्वाक, बुद्ध और मार्क्स भी पढ़ाया जाना है, वो पक्षपात कैसे कर सकता है? सरकारी कामों में किसी भी धर्म का समावेश नहीं होना चाहिए. कोई भूमि-पूजन नहीं, कोई नारियल फोड़न नहीं. पश्चिम ने चर्च और सरकार को अलग किया. हमारे यहाँ भी सैधांतिक तौर पर ऐसा ही है, लेकिन असल में धर्म जीवन के हर पहलु पर छाया हुआ है. यहाँ नेता किसी एक वर्ग का प्रतिनिधित्व करता रहता है. ओवेसी साफ़ बोलता है कि मैं मुस्लिम -परस्त हूँ. भाजपा हिन्दू-परस्त है. और ये सब गरीब-परस्त है. जबकि प्रजातंत्र की परिभाषा ही यह है कि जो सरकार बने, वो सेकुलर हो, तो ये मुस्लिम-हिन्दू-गरीब-परस्त सेकुलर कैसे होंगे? इन पर तो दसियों वर्षों के लिए पाबंदी लगनी चाहिए. अक्ल ठिकाने आ जाए. कुछ कॉमन होना चाहिए, कुछ अन-कॉमन रहने देना चाहिए. कहीं एकता में अनेकता और कहीं एकता में अनेकता होनी चाहिए. कहीं जबरदस्ती नहीं करनी चाहिए. कहीं जबरदस्ती की सख्त ज़रूरत है. वर्तमान के साथ भविष्य के सामाजिक बदलावों को भी नज़र में रखने की ज़रूरत है. कुछ पुराना रखना चाहिए, कुछ नया रखना चाहिए. सो कोई भी कदम उठाने से पहले गहन चर्चा होनी चाहिए, जहाँ तक हो सके जन-मानस तैयार करना चाहिए, फिर कदम-कदम बदलाव लाने चाहियें. थोड़ा बदलाव लाकर प्रयोग करें, देखें कि नतीजा क्या आता है, फिर अगले कदम उठाएं. और मैं विधान ही नहीं, संविधान की तबदीली में भी यकीन रखता हूँ. विधान, संविधान सब हमारे लिए है. जनतंत्र की परिभाषा ही है, जन के लिए, जन द्वारा, जन की सरकार. अभी लोग कॉमन सिविल कोड के समर्थन में खड़े हैं, वो भी मूर्ख हैं और जो विरोध में खड़े हैं, वो भी मूर्ख हैं चूँकि दोनों के पास वजहें बड़ी ही अहमकाना हैं. थोड़ा गहरे में सोचेंगे तो कॉमन/ अन-कॉमन/ ज़बरदस्ती / जन-मानस सहमति सबको जगह देनी पड़ेगी कायदा कानून बनाने में. **************************************************** नोट---चुराएं न, किसी ने भी लिखा हो, मेहनत लगती है, उसे सम्मान दें अगर पसंद हो तो. वरना अपना विरोध तो ज़ाहिर कर ही सकते हैं, स्वागत है. नमन...तुषार कॉस्मिक...कॉपी राईट मैटर

Monday, 1 May 2017

बेखूफ़ समझ रक्खे हो का बे?

भगवान परशुराम ने इक्कीस बार धरती को क्षत्रिय-विहीन किया.
वैरी गुड.
अबे, ओये, जब एक बार कर दिए थे तो फिर बीस बार और करने की का ज़रूरत थी? और फिर अब जो बचे हैं ई क्षत्रिय या खत्री, वो का हैं बे ?
झूट्टे कहीं के!
राम भगवान ने रावण मारा था. अबे, जब मार ही दिए थे एक बार, फिर हर साल काहे मारते हैं, हर साल काहे जलाते हैं? अगर सच में रावण मर गया था तो बार-बार-हर-बार का ज़रूरत यह सब नाटक-नौटंकी करने की?
बेखूफ़ समझ रक्खे हो का बे?
झूट्टे कहीं के!
इस पोस्ट का श्रेय ससम्मान ओशो को.

यहाँ शुद्ध भोजन मिलता है

इलेक्शन आते हैं, अँधा पैसा खर्च होता है. झंडे, डंडे, सूरज, तारे, नारे, सब घुमा दिए जाते हैं. गली...गली..घर घर. जब तक सूरज चंद रहेगा.....@#$%& तेरा नाम रहेगा. "हर हर महादेव" तब्दील हो कर "हर हर मोदी, घर घर मोदी" बन जाते हैं और कोई हिन्दू मठाधीश ने इस पर ऐतराज़ नहीं उठाता! जिसे सारी उम्र आपने नहीं देखा, जिसकी किसी उपलब्धि को आप नहीं जानते, उसका चेहरा आप अपने चेहरे से ज़्यादा बार देख चुके होते हैं इलेक्शन के चंद दिनों में. जनतंत्र धनतंत्र में बदल गया, सबको पता है. चुनाव काबलियत से कम और पैसे से ज़्यादा जीता जाता है, सबको पता है. घूम-फिर कर संसद में राजे, महाराजे, और अमीर पहुँच जाते हैं, सबको पता है. इसे जनतंत्र कहते हैं? यह जनतंत्र के नाम पर एक बहूदी बे-वस्था है, जिसे जनतंत्र होने का गुमान बहुत है. जब भी सुनता हूँ "भारत दुनिया का सबसे बड़ा जनतंत्र है" तो समझ नहीं आता कि हंसू कि रोऊँ. कॉर्पोरेट मनी का नंगा नाच है यह तथा-कथित जनतंत्र. कुछ भी कहो इसे यार, लेकिन जनतंत्र मत कहना, मुझे मितली सी आती है. "यहाँ शुद्ध भोजन मिलता है", ऐसा बोर्ड लगाने से मक्खियों से भिनभिनाता ढाबा शुद्ध-बुद्ध हो जाता है क्या? बोर्ड. बोर्ड से भ्रमित होते हैं लोग. बोर्ड बढ़िया होना चाहिए. इस गलगली सी, लिजलिजी सी बे-वस्था पर एक बहुत बढ़िया बोर्ड टांग दिया गया है. जनतंत्र. प्रजातंत्र. जन खुश है कि उसका तन्त्र है. प्रजा खुश है कि उसका तन्त्र है. जनता का तन्त्र. लानत!

मैं

मैं नहीं कहता कि मेरा लिखा अंतिम है किसी भी विषय पर. मैं कोई 'मैसेंजर ऑफ़ गॉड' नहीं हूँ, जिसका कहा अंतिम हो. दिल्ली मेट्रो में सफर करने वाला आम बन्दा हूँ जो छुटपन में घर के बाहर गली में भरने वाले नालियों के पानी में मिक्स बारिश के पानी में नहाता था, जो नालियों में गिरे अपने कंचे निकाल लेता था, जो आज भी सोफ़ा पर ही सोता है या ज़मीन पर, जो रेहड़ियों पर बिकने वाला खाना खाता है. बचपने में मेरा एक नाम रखा हुआ था "नली चोचो", चूँकि मेरी नली मतलब नाक हर दम चूती मतलब बहती रहती थी. तो मेरे जीवन में कुछ भी खास जैसा ख़ास है नहीं. तो मैं तो शायद 'डॉग ओफ मैसेंजर' होऊँ. सो मुझे छोड़िये लेकिन मेरी कही बात पकड़िये, वो भी अगर सही लगे तो. विभिन्न विषयों पर विभिन्न राय रखता हूँ मैं, वो सही-गलत कुछ भी हो सकती हैं. मेरी राय से ज़्यादा महत्वपूर्ण यह है कि आप अपनी राय बनाने लगें, राय जो तर्क पर, वैज्ञानिकता पर, फैक्ट पर, प्रयोगों पर आधारित हों. बस, मेरी चिंता इतनी ही है.
नमन..तुषार कॉस्मिक

जिगर मुरादाबादी के शब्द और फैशन

जिगर मुरादाबादी के शब्द हैं जो राज कुमार के होठों पर आ कर अमर हो गए. "ज़माना हम से है, हम जमाने से नहीं." जब आप फैशन की दुनिया में कदम रखते हैं तो यहाँ आप बस जमाने के कदम-ताल से कदम मिलाने को ही प्रयास-रत रहते हैं. हम ज़माने से हैं, ज़माना हम से नहीं. जिस्म पर क्या जमेगा, इसकी परवा नहीं करते, 'इन' 'आउट' की परवा करते हैं बस. कहाँ 'इन' है, क्या 'इन' है, किसके 'इन' है, और अगर कुछ 'इन' है भी तो आप भी उसे 'इन' करें, यह मुझे आज तक समझ नहीं आया. अभी कपूरथला में इंगेजमेंट का आयोजन था. किसी से बात कर रह था, "ब्याह शादी पर ये जो अचकन, चूड़ी-दार पायजामे पहनते हो, क्यूँ?" कारण उसे नहीं पता था. मैंने कहा, "शायद सब पहनते हैं, इसलिए तुम भी पहनते हो." उसने कहा, "नहीं, मुझे यह सब पहनना अच्छा लगता है." मैंने कहा कि उसे अच्छा क्या इसलिए नहीं लगता कि सबको अच्छा लगता है. अब वो कुछ गोता खा गया. ईमानदार लड़का था, वरना साफ़ मुकर जाता कि नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं था. मुझ से कोई पूछ रहा था कि वकील गर्मी में काला कोट और काला गाउन सा क्यूँ पहनते हैं? मैंने कहा, "कोई वजह जैसी वजह समझ नहीं आती. सब अज़ीब है. जब कोई डिग्री लेता है, तो अज़ीब सी टोपी और अज़ीब सा गाउन पहनता है. मुझे इन सब में से किसी के पीछे कोई तार्किकता नज़र नहीं आती." देवी शकीरा पहले ही कह चुकी हैं. हिप्स झूठ नहीं बोलते. हिप्स क्या शरीर का कोई भी अंग-प्रत्यंग झूठ नहीं बोलता. तभी तो स्किन टाइट कपड़े पहने जाते हैं. कपड़ों में भी शरीर दिखाने की चाह. नग्न होने की चाह. हिप्स झूठ नहीं बोलते, चाहे शकीरा के हों, चाहे किसी के भी हों. अमेरिकी कैदी अपने पायजामे नीचे सरका देते थे, ताकि बिन बोले ही देखने वाले समझ जाएँ कि उनकी सहमति है सेक्स सहभागिता में. अब आज के नौजवान और नौजवानियाँ जॉकी का कच्छा दिखाते हुए नीचे सरकी अपनी पतलून से क्या मेसेज देना चाहते हैं, वो ही जानें, बस गुज़ारिश इतनी सी है कि शकीरा जी के शर्करा शब्द याद रखें. रवीश कुमार को मैं काफी संजीदा टीवी एंकर मानता हूँ...पर जनाब तपती गर्मी में कोट पहने टाई लगाये समाचारों पर समीक्षा प्रस्तुत कर रहे थे............कहीं तो सोच में गड़बड़ है कपड़े तक पहनने में लोग अंध-विश्वासी हैं...न सिर्फ अनपढ़, कम पढ़े लिखे बल्कि ठीक ठाक पढ़े लिखे लोग भी. अब कोट, टाई पहना व्यक्ति ही संजीदा लगेगा, सभ्य लगेगा, यह अंध विश्वास नहीं तो क्या है मेरा धंधा है कपड़े का, कौन सा कपड़ा Casual है, कौन सा Formal, सब अंध विश्वास है आदमी मरे मरे रंग पहने, औरत चटकीले रंग, यह अंध विश्वास है बुजुर्ग हैं तो मरे-मरे रंग पहने, यह अंध विश्वास है ऊँची एड़ी वाली स्त्री अच्छी दिखती हैं, यह अन्धविश्वास है....चीन में तो स्त्री के छोटे पैर सुन्दर दीखते हैं, इसका इतना जबरदस्त अंध विश्वास था कि बच्चियों को इतनी छोटे लोहे के जूते पहनाये जाते थे कि उनका बाकी शरीर तो बढ़ जाता था लेकिन पैर छोटे रह जाते थे, इतने छोटे कि वो अपाहिज हो जातीं थी.....हमेशा के लिए....अभी भी शायद एक आध औरत उन बदकिस्मत औरतों में से जीवित हो. मैं मुक्त हूँ, उन्मुक्त हूँ, लम्बे बाल रखता हूँ. स्त्रियों जैसे. तंग पतलून के साथ कुरता पहनता हूँ और गले में रंग-बिरंग रेशमी वस्त्र. 'अजीबो-अमीर' लुक्स. "बोहेमियन" लुक्स. आप मुझे एक बार मिलेंगे तो कभी नहीं भूलेंगे. खैर, अगली बार जब आप कपडे पहने तो ध्यान रखें कि आप कहीं पिछलग्गू तो नहीं. ध्यान रखें कि आप एक के पीछे एक चलने वाली भेड़ तो नहीं. ध्यान रखें कि ज़माना आप से है, या आप जमाने से हैं.

बाहुबली और संघी सोच

बाहुबली...संघी सोच को हवा देती है. भारतीय योद्धाओं का महिमा-मंडली-करण. भारतीय योद्धा लड़े थे लेकिन अधिकांश हारे हैं. युद्ध "बाहुबल" से कम और युद्ध-विद्या और अस्त्र-शस्त्रों की आधुनिकता से अधिक जीते जाते हैं, "बुद्धिबल" से अधिक जीते जाते हैं. देर-सबेर हार ही पल्ले पड़नी थी चूँकि हम आविष्कारक नहीं थे. पोरस मुझे लगता है कि अगर जीता नहीं तो हारा भी नहीं था. युद्ध में उसका बेटा, जिसका नाम भी पोरस था, वो मारा गया था, लेकिन इन्होने मिल कर सिकन्दर को आगे बढ़ने से रोक दिया था, तो इसे हार नहीं कह सकते. शिवाजी, गुरु गोबिंद, बन्दा बहादुर, हरी सिंह नलुआ, रणजीत सिंह जैसे योद्धाओं ने सख्त टक्कर दी. जहाँ तक मैंने पढ़ा, पृथ्वीराज के सत्रह बार गौरी को हराने की बात विवादित है. हाँ, एक बार ज़रूर गौरी उससे हारा था. मेरा पॉइंट यह नहीं है कि एक बार हारा या कितनी बार हारा. एक बार भी हारा तो भी हारा तो था. मेरा पॉइंट यह है कि एक बार भी हारने पर उसे क्यूँ छोड़ा? युद्ध युद्ध होता है, इसमें कोई गहरी फिलोसोफी ढूँढना बकवास है. पृथ्वीराज ने बेवकूफी की जिसे गौरी ने नहीं दोहराया. गौरी ने वही किया जो युद्ध के हिसाब से करना बनता था. और पृथ्वीराज राज-धर्म को भूल गया था. उसने जयचंद की बेटी जो रिश्ते में उसकी भी बेटी जैसी ही लगती थी, संयोगिता (संयुक्ता) को उठा लाया था. हमें यह याद रखना चाहिए कि राम अगर राज-धर्म के लिए सीता को छोड़ देते हैं तो पृथ्वी राज-धर्म भूल संयुक्ता को उठा लाते हैं, नतीजा सब जानते हैं. जयचंद को कोसने से पहले पृथ्वी को कोसें भगवन. एक और बात ध्यान दें कि उस समय तक आज के भारत जैसा कोई कांसेप्ट नहीं था. सब राजाओं का अपना इलाका था, अपना देश था. सो यह सोचना कि जयचंद ने बाहरी का साथ दिया, कोई सही नहीं है. वो राजा था, उसे जो ठीक लगा उसने किया, बाहरी, भीतरी जैसी कोई बात नहीं थी. ये सब वैसे भी अपनी सीमाएं बढ़ाने के लिए लड़ते रहते थे. अशोक ने कलिंग में जो भयंकर मार-काट की थी, वो कोई किसी बाहरी के खिलाफ थी? नहीं, मरने और मारने वाले सब यहीं के थे. वाल्मीकि रामायण के अंत में साफ़ लिखा है कि राम ने अपने सीमाएं बढ़ाने के लिए ऐसे राज्यों पर हमला किया जिनकी उनसे कोई दुश्मनी नहीं थी. वो अश्वमेध यज्ञ, घोडा छोड़ना क्या था? यही कि अधीनता स्वीकार करो, वरना लड़ो. अब समझ लीजिये कि हमारे यहाँ के राजाओं के युद्ध कोई 'धर्म-युद्ध' नहीं थे, मात्र युद्ध थे. और तो और महाभारत जिसे धर्म-युद्ध कहा जाता है उसमें भी धर्म जैसी कोई बात नहीं थी. कृष्ण की चाल-बाज़ियों से अधिकांश कौरव मारे गए थे. तो पृथ्वी राज चौहान, महाराणा प्रताप, लक्ष्मी बाई और अनेक लोग अंततः हारे थे. अगर हारे न होते तो कैसे गुलाम हो जाते? लेकिन संघ हमेशा सिखाता है कि हमारा सब सही सही था. संघ तरीके से इस्लाम के खिलाफ घड़ा गया है...लगभग हर बात.......जैसे जैसे सोचो वैसे यह बात पक्की होती जाती है. संघ उसकी प्रति-छाया है. इस्लाम शुद्ध-रूपेण एक बकवास आइडियोलॉजी है. और उसी को जवाब देने के लिए बहुत सी बकवास आइडियोलॉजी खड़ी की गयी हैं. बाला साहेब, मोदी, योगी, ट्रम्प सब इस्लाम का जवाब हैं. खालसा, संघ और अमेरिका और यूरोप में कई संस्थाएं इस्लाम के खिलाफ जवाब हैं. इस्लाम एक विध्वंसक आइडियोलॉजी है, जो येन-केन-प्रकारेण सब को मुस्लिम बनाने में यकीन रखती है. सो वक्त ज़रूरत के हिसाब से इसका मुकाबला करने के लिए, जिसे जो सही लगा, उसने वो किया. लेकिन वो सही भी अंततः गलत साबित हुआ. होना ही था. हम एक गड्डे में गिर गए, पर फायदा सिर्फ इतना है कि बड़ी खाई में गिरने से बच गए. छोटी गलती ने बड़ी गलती करने से रोका. छोटे कांटे से बड़ा काँटा निकाला गया. लेकिन छोटा काँटा गड गया. उसे भी निकालना है. छोटे गड्डे से भी निकलना है. आप इस्लाम के खिलाफ संघ खड़ा कर लो. एक बकवास के खिलाफ एक और बकवास. एक अंधत्व के खिलाफ एक और अंधत्व. नहीं.....दुनिया की हर बकवास आइडियोलॉजी का जवाब तर्क-युद्ध है, न कि एक और बकवास आइडियोलॉजी खड़ी करना. वो कहते हैं न कि अगर कोई एक आंख फोड़े तो आप बदले में उसकी आंख फोड़ देंगे तो फिर अंत में दुनिया में सब अंधे ही बचेंगे. एक अंधत्व, गधत्व, उल्लुत्व, इडियटत्व के खिलाफ हिन्दूत्व या और ऐसे ही कोई 'त्व' खड़े करने से समस्या हल नहीं होगी, गुणित हो जायेगी. अयान हिरसी अली का बहुत सम्मान है आज की दुनिया में. इस्लाम की ज़बरदस्त विरोधी हैं. उन्होंने कहा कि ट्रम्प की इस्लाम के खिलाफ नीति से बेहतर है कि तार्किकता फैलाई जाये, क्रिटिकल थिंकिंग. और यही मेरा मानना है. 'क्रिटिकल थिंकिंग' ही आखिरी इलाज है, हर अंधत्व, गधत्व, उल्लुत्व, इडियटत्व के खिलाफ. नमन...तुषार कॉस्मिक

Saturday, 29 April 2017

डॉक्टर, वकील और चार्टर्ड अकाउंटेंट... प्रोफेशनल कहे जाते हैं....मतलब 'धंधे-वाले'.'प्रोफेशनल'. अब मत कहना किसी महिला को कि वो 'धंधे वाली' है चूँकि अधिकारिक तौर पर सिर्फ डॉक्टर, वकील और चार्टर्ड अकाउंटेंट ही 'धंधे वाले' हैं, 'प्रोफेशनल' हैं.

टके दी बूढी ते आना सिर मुनाई


अभी केजरीवाल से जुड़ा एक मुद्दा हवा में है. मुद्दा है कि उन्होंने कोई नब्बे करोड़ से ज़्यादा रुपये राजनीतिक मशहूरी में खर्च कर दिए, जो उनसे वसूले जाने चाहियें. उनका कहना है कि ऐसा सभी राज्य करते हैं और उन्होंने तो बाकी राज्यों से बहुत कम खर्च किये हैं.
मेरा पॉइंट यह नहीं है कि किसने कितने खर्च किये. कम किये, ज़्यादा किये. वसूली होनी चाहिए या नहीं होनी चाहिए. न. मेरा पॉइंट यह है ही नहीं.
मेरा पॉइंट है कि किये ही क्यूँ? पब्लिक का पैसा पब्लिक के कामों पर खर्च होना चाहिए न कि किये गए कामों को बताने पर. आपको अलग से क्यूँ बताना पब्लिक को? आपका काम खुद नहीं बोलता क्या? देवी शकीरा तो बोलती हैं कि हिप्स भी बोलते हैं और झूठ नहीं बोलते, सच बोलते हैं और आपको लगता है कि आपके काम जिनसे करोड़ों-अरबों रुपये का पब्लिक को फायदा पहुंचा हो, वो भी नहीं बोलते. आपको लगता है कि उसके लिए अलग से करोड़ों-अरबों रूपये खर्च करने की ज़रूरत है, यह बताने को कि पब्लिक को कोई फायदा पहुंचा है. वैरी गुड.
पंजाबी की कहावत है एक. टके दी बूढी ते आना सिर मुनाई. 
एक और कहावत है. दाढ़ी नालों मुच्छां वध गईयाँ.
मतलब खुद समझिये, मैं नहीं समझाऊंगा.

सच-झूठ/ झूठ-सच

आप झूठ कभी सौ प्रतिशत बोल ही नहीं सकते. उसमें भी आपको सच तो मिलाना ही पड़ता है.
सबसे सफ़ल झूठा वो होता है, जो सच बोलता है. मतलब सच ज़्यादा से ज़्यादा प्रयोग करते हुए झूठ बोलता है.
शातिर आदमी सच-झूठ का घाल-मेल इस तरह से करता है कि जो वो चाहे, वो ही नज़र आये
और
यही मिलावट अनाड़ी इस तरह से करता है कि जो वो नहीं दिखाना चाहता, वो दिख जाता है. मैं अक्सर कहता हूँ कि ढोल अपनी पोल खुद खोल देता है. बजता घना है. थोथा चना बाजे घना. लेकिन उस बजने में ही अपना राज़-फ़ाश कर जाता है.
समझ-दार व्यक्ति वो है जो सच और झूठ के इस घाल-मेल में से हंस की तरह मोती चुगता है, बाकी छोड़ देता है. हंसा तो मोती चुगे.....
ये जो किसान अपना रोना रो रहे हैं, इनको कहना है, "अबे ओये, जब बच्चों की लाइन लगा रहे थे, तब नहीं सोचा कि यही बच्चे कल तुम्हारी धरती माता के इत्ते टुकड़े करेंगे कि वो बेचारी इनमें से किसी का भी पेट न भर पायेगी. इडियट. ठेका नहीं लिया किसी ने तुम्हारा."

कल की उठी 'आम आदमी पार्टी' ने दिल्ली का मुख्यमंत्री दिया, MCD में 48 councillor दिए, पंजाब में 4 MP दिए, 21 विधायक दिए, इसे हार कहते हैं या जीत?
सन्दर्भ के लिए ध्यान दें कि भाजपा का जन्मदाता संघ नब्बे साल पहले बना था.

Tuesday, 25 April 2017

धनतंत्र से जनतंत्र के सफर का सूत्र

डॉक्टर, वकील और चार्टर्ड अकाउंटेंट... प्रोफेशनल कहे जाते हैं....मतलब 'धंधे-बाज़'.'प्रोफेशनल'. अब मत कहना किसी महिला को कि वो 'धंधे वाली' चूँकि अधिकारिक तौर पर सिर्फ डॉक्टर, वकील और चार्टर्ड अकाउंटेंट ही 'धंधे वाले' हैं, 'प्रोफेशनल' हैं. खैर, मेरा पॉइंट यह है कि इनको अपने धंधे की मशहूरी करना कानूनन मना है. किसलिए? इसलिए कि काबलियत न होते हुए भी पैसे के दम पर इनमें से कोई मशहूरी कर-करा के लोगों को बेवकूफ न बना पाए. इसलिए कि ये लोग आम-जन के बहुत ही सेंसिटिव मामलों को डील करते हैं. इसलिए कि इनमें से अगर कोई आगे बढ़े तो मात्र "माउथ टू माउथ" रेफरेंस की वजह से और यह रेफरेंस तभी मिलता है जब किसी में काबलियत हो और उस काबलियत का फायदा रेफरेंस देने वाले को मिला हो. अभी केजरीवाल से जुड़ा एक मुद्दा हवा में है. मुद्दा है कि उन्होंने को नब्बे करोड़ से ज़्यादा रुपये राजनीतिक मशहूरी में खर्च कर दिए, जो उनसे वसूले जाने चाहियें. उनका कहना है कि ऐसा सभी राज्य करते हैं और उन्होंने तो बाकी राज्यों से बहुत कम खर्च किये हैं. मेरा पॉइंट यह नहीं है कि किसने कितने खर्च किये. कम किये ज़्यादा किये. वसूली होनी चाहिए या नहीं. न. मेरा पॉइंट यह है ही नहीं. मेरा पॉइंट है कि किये ही क्यूँ? पब्लिक का पैसा पब्लिक के कामों पर खर्च होना चाहिए न कि किये गए कामों को बताने पर. आपको अलग से क्यूँ बताना पब्लिक को? आपका काम खुद नहीं बोलता क्या? देवी शकीरा तो बोलती हैं कि हिप्स भी बोलते हैं और झूठ नहीं बोलते, सच बोलते हैं और आपको लगता है कि आपके काम जिनसे करोड़ों-अरबों रुपये का पब्लिक को फायदा पहुंचा हो, वो भी नहीं बोलते. आपको लगता है कि उसके लिए अलग से करोड़ों-अरबों रूपये खर्च करने की ज़रूरत है, यह बताने को कि पब्लिक को कोई फायदा पहुंचा है. वैरी गुड. पंजाबी की कहावत है एक. टके दी बूढी ते आना सिर मुनाई. एक और कहावत है. दाढ़ी नालों मुच्छां वध गईयाँ. मतलब खुद समझिये, मैं नहीं समझाऊंगा. अब आगे चलिए. बात इससे भी बड़ी है. इलेक्शन आते हैं, अँधा पैसा खर्च होता है. झंडे, डंडे, सूरज, तारे, नारे, सब घुमा दिए जाते हैं.गली...गली..घर घर. ...जब तक सूरज चंद रहेगा.....@#$%& तेरा नाम रहेगा. "हर हर महादेव" तब्दील हो कर "हर हर मोदी, घर घर मोदी" बन जाते हैं और कोई हिन्दू मठाधीश ने इस पर ऐतराज़ नहीं उठाता! जिसे सारी उम्र आपने नहीं देखा, जिसकी किसी उपलब्धि को आप नहीं जानते, उसका चेहरा आप अपने चेहरे से ज़्यादा बार देख चुके होते हैं इलेक्शन के चंद दिनों में. जनतंत्र धनतंत्र में बदल गया, सबको पता है. चुनाव काबलियत से कम और पैसे से ज़्यादा जीता जाता है, सबको पता है. घूम-फिर कर संसद में राजे, महाराजे, और अमीर पहुँच जाते हैं, सबको पता है. इसे जनतंत्र कहते हैं? यह जनतंत्र के नाम पर एक बहूदी बे-वस्था है, जिसे जनतंत्र होने का गुमान बहुत है. जब भी सुनता हूँ "भारत दुनिया का सबसे बड़ा जनतंत्र है" तो समझ नहीं आता कि हंसू कि रोऊँ. कॉर्पोरेट मनी का नंगा नाच है यह तथा-कथित जनतंत्र. कुछ भी कहो इसे यार, लेकिन जनतंत्र मत कहना, मुझे मितली सी आती है. "यहाँ शुद्ध भोजन मिलता है", ऐसा बोर्ड लगाने से मक्खियों से भिनभिनाता ढाबा शुद्ध-बुद्ध हो जाता है क्या? बोर्ड. बोर्ड से भ्रमित होते हैं लोग. बोर्ड बढ़िया होना चाहिए. इस गलगली सी, लिजलिजी सी बे-वस्था पर एक बहुत बढ़िया बोर्ड टांग दिया गया है. जनतंत्र. प्रजातंत्र. जन खुश है कि उसका तन्त्र है. प्रजा खुश है कि उसका तन्त्र है. जनता का तन्त्र. लानत! इस लानती बे-वस्था को बदलने का सूत्र दिया है मैंने शुरू में. राजनीति की गदंगी दूर करने का सूत्र. ऊपर लिखित डॉक्टर, वकील और चार्टर्ड अकाउंटेंट पर लागू कानून. आज हालत यह है कि राजनेता भी ब्रांड बन चुके हैं, बनाये जा चुके हैं. अँधा पैसा खर्च किया जाता है इस ब्रांडिंग में. जीत हार इस ब्रांडिंग की वजह से होती है, न कि किसी नेता की काबलियत की वजह से. बंद कीजिये सब तरह से. कोई ब्रांडिंग नहीं, कोई मशहूरी नहीं. आप सेवा क्षेत्र में हैं. सेवा कीजिये. काम कीजिये. काम बोलता है. काम को बोलने दीजिये. झंडे-डंडे बंद. रेडियो टीवी, अखबार विज्ञापन बंद. sms, रिकार्डेड मेसेज बंद. बैनर-बाज़ी बंद. पीछे लिखा था मैंने, "कार बनाने वाली कम्पनियों को लगता है कि पिछली सीट पर बैठने वालों की टांगों की लम्बाई बैठते ही स्वयमेव छोटी हो जाती हैं. गोलगप्पे वाले भैया को लगता है कि उसके देते ही गोलगप्पा आप हज़म कर लेते हैं सो वो दूसरा गोलगप्पा पहले वाले के साथ ही तैयार रखता है. और नेता जी को लगता है कि वो कुछ भी करें, लेकिन चुनावी बाज़ी पोस्टरबाजी, नारेबाज़ी, भाषण-बाज़ी से जीती जा सकती है. बिज़नैस करने का अपना-अपना ढंग है." यह सब कला-बाज़ी बंद की जा सकती है. हम बंद करेंगे, शातिर लोग छेद खोजेंगे. लेकिन वो डाल-डाल तो हम पात-पात होना होगा. वो शेर तो हम शमशेर होना होगा. मैं नहीं कहता कि मेरा लिखा अंतिम है इस विषय पर. मैं कोई 'मैसेंजर ऑफ़ गॉड' नहीं हूँ, जिसका कहा अंतिम हो. दिल्ली मेट्रो में सफर करने वाला आम बन्दा हूँ जो छुटपन में घर के बाहर गली में भरने वाले नालियों का पानी में मिक्स बारिश के पानी में नहाता था, जो नालियों में गिरे अपने कंचे निकाल लेता था, जो आज भी सोफ़ा पर ही सोता है, या ज़मीन पर. न. मैं तो शायद 'डॉग ओफ मैसेंजर' होऊँ. सो मुझे छोड़िये लेकिन मेरी कही बात पकड़िये. इस विषय में बहुत सोचा जा सकता है, ऐसा मैं सोचता हूँ, आप भी सोच कर देखिये. नमन..तुषार कॉस्मिक

देवी शकीरा जी के शर्करा शब्द

देवी शकीरा पहले ही कह चुकी हैं. हिप्स झूठ नहीं बोलते. हिप्स क्या शरीर का कोई भी अंग-प्रत्यंग झूठ नहीं बोलता. तभी तो स्किन टाइट कपड़े पहने जाते हैं. कपड़ों में भी शरीर दिखाने की चाह. नग्न होने की चाह. हिप्स झूठ नहीं बोलते, चाहे शकीरा के हों, चाहे किसी के भी हों.
अमेरिकी कैदी अपने पायजामे नीचे सरका देते थे, ताकि बिन बोले ही देखने वाले समझ जाएँ कि उनकी सहमति है सेक्स सहभागिता में. अब आज के नौजवान और नौजवानियाँ जॉकी का कच्छा दिखाते हुए नीचे सरकी अपनी पतलून से क्या मेसेज देना चाहते हैं, वो ही जानें, बस गुज़ारिश इतनी सी है कि शकीरा जी के शर्करा शब्द याद रखें.
नारी शक्ति ऐलान करती है कि उनका हक़ है जैसे मर्ज़ी कपडे पहनें. बिलकुल पहनें भई. यह तो वैसे भी महावीर का मुल्क है, जिनके वस्त्र आसमान ही था. दिगम्बर. यह तो नागा बाबाओं का मुल्क है. यह तो कश्मीर की लल्ला का मुल्क है. नग्न संत. यह तो सदियों से काम-क्रीडा में लिप्त नग्न मूर्तियों से पटे खजुराहो के मन्दिरों का मुल्क है. यह तो काम के सूत्र लिखने वाले वात्स्यायन का मुल्क है. ठीक मर्ज़ी है आपकी, जैसे मर्ज़ी कपड़े पहनें, या न भी पहनें.
मेरा तो पॉइंट मात्र इतना है कि यह मुल्क बहुत से सेक्स के भूखे लोगों का भी है जो नज़रों ही नज़रों से बलात्कार कर दें, औरत के शरीर को चीर-फाड़ कर दें, चिंदी-चिंदी कर दें, तार-तार कर दें, बेकार कर दें, .
बाकी हम तो चुप ही हैं इस विषय में, ज़्यादा कुछ बोलेंगे तो बोलेंगे कि बोलते हैं.
नारी शक्ति जिंदाबाद.
नमन....तुषार कॉस्मिक

Monday, 24 April 2017

'केजरीवाल का ओड-इवन' और 'मोदी की नोटबंदी', दोनों इस दौर के असफ़ल प्रशासनिक प्रयोग हैं.

Sunday, 23 April 2017

भावना मैडम को आहत करें

कुछ भी कहो, लिखो, बको, भौंको कोई परवा नहीं लेकिन इनकी पवित्र सी, सौम्य सी भावना मैडम आहत नहीं होनी चाहिए.

इनके धर्म, मज़हब, पन्थ, दीन पर अटैक नहीं होना चाहिए और इनके गुरु महाराज, पैगम्बर, अवतार तो इंसानी आलोचना से परे की चीज़ हैं. आपको उनके हर कथन, हर करम पर मुंडी 'हाँ' में ही हिलानी है. अगर आपने ज़र्रा भी इनकी आलोचना की तो इनकी वो जो हैं न, सौम्य सी भावना जी, उनको चोट लग जाती है. लेकिन मैं कहता हूँ कि अगर आप इनकी भावना जी को आहत करने की हिम्मत नहीं करते तो आपका लेखन, सोचन सब कूड़ा है, करकट है, कायरता है, बुजदिली है, चूँकि यही भावना मैडम पूरी दुनिया में गंद फैलाएं हैं.

कुछ भी कहो, लिखो, बको, भौंको कोई परवा नहीं लेकिन इनकी पवित्र सी, सौम्य सी भावना मैडम आहत ज़रूर होनी चाहिए.

गज़ब ढंग बिज़नैस के

कार बनाने वाली कम्पनियों को लगता है कि पिछली सीट पर बैठने वालों की टांगों की लम्बाई बैठते ही स्वयमेव छोटी हो जाती हैं.

गोलगप्पे वाले भैया को लगता है कि उसके देते ही गोलगप्पा आप हज़म कर लेते हैं सो वो दूसरा गोलगप्पा पहले वाले के साथ ही तैयार रखता है.

और नेता जी को लगता है कि वो कुछ भी करें, लेकिन चुनावी बाज़ी पोस्टरबाजी, नारेबाज़ी, भाषण-बाज़ी से जीती जा सकती है.

बिज़नैस करने का अपना-अपना ढंग है.

Friday, 21 April 2017

This is a misconception that all Chinese look alike, another misconception is this that they produce inferior quality products.

First point, all Sikhs look alike to the foreign people, all black people look alike to the white people. So nothing special about Chinese.

Second point, Chinese produce all kinda product, what if your importers import inferior products only?
ऋषियों की तपस्या भंग करने के लिए उर्वशी, मेनका जैसी अप्सराएं बनीं थीं
और
डाइटिंग करते लोगों की तपस्या भंग करने के लिए नाना और दादा प्रकार के व्यंजन बने हैं.

कौन है पैगम्बर ,गुरु, अवतार

हर वो बात जिससे दुनिया में बेहतरी आती हो
आयत है, धुर की बाणी है, भगवत गीता है
और
ऐसी बात करने वाला हर शख्स 
पैगम्बर है, गुरु है, अवतार है
और 
जो यह बात न समझे वो
उल्लू नहीं है, गधा नहीं है, बंदर नहीं है
बस 
इडियट है.

राजनीति में पदार्पण का विचार

कांटे को निकालने के लिए काँटा प्रयोग करना होता है कहते हैं कि कीचड़ में पत्थर मारोगे तो छींट खुद पर भी पडेंगी. लेकिन कीचड़ को साफ़ करने के लिए कीचड़ में उतरना पड़ता है दीवार को साफ़ रखने के लिए "यहाँ न थूकें" जितना लिख कर खराब करना ही पड़ता है. करना पड़ता है. इसे विज्ञान की भाषा में 'नेसेसरी ईविल' कहते हैं बुराई है लेकिन ज़रूरी बुराई है. नेसेसरी ईविल. जैसे फ्रिक्शन. यानि घर्षण. इससे गति में बाधा पड़ती है. जितनी ज़्यादा होगी फ्रिक्शन, उतनी गति घटती जायेगी लेकिन अगर फ्रिक्शन जीरो होगी तो गति बिलकुल नहीं होगी. जैसे मानो फर्श पर तेल गिरा हो, ऐसे चिकने तल पर आगे बढ़ना लगभग असम्भव हो जाता है. लेकिन अगर किसी सरफेस पर बहुत पत्थर हों, खड्डे हों तो भी चलना मुश्किल हो जाता है.नेसेसरी ईविल. सोचता हूँ राजनीति, जिसमें कोई नीति नहीं, उसमें चला ही जाऊं. नहीं?

Wednesday, 19 April 2017

MCD

मेरी गली में जो सफाई कर्मचारी है, उसने आगे लड़के रखे हैं, कम सैलरी पर, वो उठाते हैं, कूड़ा, जितना भी उठाते हैं.

MCD के काम देखते हुए इनके वेतन बढ़ाने नहीं घटाने चाहियें...वैसे तो लगभग सभी सरकारी कर्मचारियों के वेतन बहुत ज़्यादा हो चुके हैं, छुट्टियाँ बहुत ज़्यादा हैं, भत्ते बहुत ज़्यादा हैं और इनके कामों पर कोई अंकुश है नहीं, तभी तो हर कोई सरकारी नौकरी के लिए मरा जाता है.

भाजपा ने जगह-जगह ये बड़े होर्डिंग लगाये हैं, MCD की उपलब्धियां लिखी हैं. एक भी बोर्ड ऐसा नहीं जिसपे लिखा हो कि हमने दिल्ली की सफाई की है या करेंगे.


Political Correctness

अभी-अभी एक पोस्ट नाज़िल हुई है मुझ पर. हाज़िर है.

"एक शब्द-संधि है "Political Correctness". इसका अर्थ समझने लायक है, मतलब व्यक्ति जिसे सही कहता है या जिसे गलत कहता है, वो यह इसलिए नहीं कहता कि उसे वो सही लगता है या गलत लगता है. नहीं, ऐसा वो इसलिए कहता है कि राजनैतिक तौर पर ऐसा कहना उसके लिए सही है, करेक्ट है, फायदेमंद है. Political Correctness. भारत में यह टर्म बहुत कम प्रयोग होती है, होनी चाहिए, शातिरों को एक्सपोज़ करती है यह टर्म. दूसरी टर्म है "Social Correctness". इसका मतलब आप खुद ही समझ चुके होंगे. इसे भी प्रयोग होना चाहिए."

Sunday, 16 April 2017

क्यों वोट दें "आप " को, दिल्ली MCD चुनाव में?

नमस्कार मित्रो,
मैं तुषार कॉस्मिक.

पिछले ऑडियो में मैंने बताया था कि क्यूँ आप सबको वोट भाजपा या कांग्रेस को न देकर सिर्फ आम आदमी पार्टी को ही देना चाहिए.

इस ऑडियो में बात आगे बढ़ाता हूँ लेकिन स्थानीय मुद्दों को मद्दे-नज़र रखते हुए.

मैं पश्चिम विहार, A-4 में रहता हूँ. हमारे पास एक park है राजीव गांधी park.

पहले तो मुझे park का यह नाम ही नहीं जमता. गांधी परिवार के अलावा भी अनेक लोगों का योगदान है इस मुल्क को आगे बढ़ाने में.

लेकिन एअरपोर्ट तो इंदिरा गांधी, मेट्रो स्टेशन तो राजीव गांधी, सब तरफ गांधी ही गांधी. यह गांधी की गंध से कब आज़ाद होंगे हम?

कब भगत सिंह, चन्द्रशेखर आज़ाद, विवेकानन्द, लाला लाजपत रॉय, चित्त्गाँव के मास्टर दा, सी वी रमन, रामानुजन जैसे लोगों के प्रति अपना सम्मान पेश करेंगे? यह एक ही परिवार की गुलामी कब छोडेंगे हम?

कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी और सोनिया गांधी, उनके पल्ले बस एक ही बात है कि वो गांधी परिवार से हैं. दूसरी कोई योग्यता है क्या इनके पल्ले. योग्यता, जिस के दम पर ये दोनों मुल्क को नेतृत्व दे सकते हैं? कुछ नहीं.

खैर, जनवरी, दो हजार सोलह में एक ई-मेल किया था मैंने हमारी पार्षद रेनू काम्बोज जी को. जिसमें मैंने इस park के विषय में बिन्दुवार कुछ सुझाव दिए थे. हालांकि नतीजा जीरो आया था लेकिन ई-मेल आज भी मेरे पास ऑन-रिकॉर्ड हैं, कॉपी कोई भी मित्र मुझ से ले सकते हैं.

इस ई-मेल में पहला पॉइंट था कि park में प्ले-ग्राउंड और सिटींग एरिया को अलग-अलग नहीं दिखाया गया है. तो होता यह है कि जहाँ लैंड-स्केपिंग की गई है, वहां लोग-बाग़ बैठते हैं उनका बैठना सही भी है, लेकिन वहीं बच्चे क्रिकेट खेलते हैं, फुटबाल खेलते हैं, तो क्यूँ न आप बोर्ड लगवा दें कि जिससे पता लगे कि खेलने के लिए कौन सा एरिया है और बैठने के लिए कौन सा?

अगला पॉइंट था, park में कुत्ते बहुत होते हैं और तो और स्थानीय लोग भी अपने कुत्ते घुमाते हैं तो पहले तो ऐसे गेट लगाये जा सकते हैं कि जानवर न पार न जा पायें, दूजा कुत्ते न घुमाएं जाएँ, ऐसे बोर्ड भी क्यूँ न लगाये जाएँ?

तीसरा पॉइंट था कि park के एक हिस्से के बीचों-बीच एक सीमेंट का चबूतरा बना है, शायद स्केटिंग के लिए, लेकिन इस चबूतरे की वजह से वो सारा हिस्सा ही ठीक से प्रयोग नहीं हो पाता, वरना park का वो टुकड़ा, एक बड़े मैदान के तौर पर प्रयोग होता, जहाँ फ़ुटबाल, क्रिकेट आदि खेला जा सकता था. और स्केटिंग वहां करता भी नहीं कोई.

पांचवा पॉइंट था, कि लोग देवी-देवता की फोटो-मूर्ती पेड़ों के इर्द-गिर्द विसर्जित करते हैं, मना करो भाई उनको, बोर्ड लगाओ मनाही के, ऐसे park इन कामों के लिए थोड़ा हैं. विसर्जन करें जैसे भी, लेकिन स्थानीय park में नहीं.

छठा पॉइंट था, park में रेगुलर सफाई नहीं है, सफाई करायें. सन्दर्भ के लिए बता दूं कि अभी कुछ दिन पहले तक जहाँ फाइबर का झूला लगा है, वहां कूड़े को ढेर किया जाता था और वहीं कूड़ा जलाया भी जाता था, यह तो था सफाई का हाल.

सातवां पॉइंट था, वाल्किंग के लिए जो ट्रैक बनाया गया है, वहां जो सख्त पत्थर बिछे हैं, वो हटा लिए जाएँ. चूँकि पत्थरीला सरफेस न तो दौड़ने के लिए अच्छा माना जाता है और न ही चलने के लिए. घुटनों, टखनों और अन्य जोड़ों पर कुप्रभाव पड़ता है सख्त तल पर लगातार दौड़ने चलने से. और यह मूर्खता मुल्क भर में चलती है.

इस में चौथा पॉइंट मैंने स्किप किया था जान-बूझ कर. आखिरी में पेश करने को. चौथा पॉइंट park के कोने में बने टॉयलेट को लेकर था. मैंने लिखा कि यह टॉयलेट ऐसा है कि न वहां कोई लाइट का इंतेज़ाम है, न सफाई कर्मचारी है, न पानी का इंतेज़ाम है और यह अलग-थलग सा पड़ा है, जहाँ कोई नहीं जाता.

और अब मुझे पता लगा कि इस टॉयलेट को बनवाने में छ लाख से ज़्यादा खर्च किये गए. rti लगा पता किया है मित्रों ने. वैरी गुड. धेले का नहीं है यह टॉयलेट. आज तक एक भी बन्दा इसे प्रयोग करता मैंने नहीं देखा है. है ही ऐसी बेतुकी जगह कि कोई क्या प्रयोग करेगा? और ज़रूरत भी क्या ऐसे पार्कों में टॉयलेट की. सब तरफ आबादी है सटी हुई, जिसने जाना है टॉयलेट अपने घर जायेगा, यहाँ क्या इतनी मारा-मारी? जहाँ भी बनायेंगे बदबू भरेंगे. इस टॉयलेट की ज़रूरत किसे थी? निश्चित ही यहाँ के वासियों को तो थी नहीं. बाकी आप खुद नतीजा निकालें.

मित्रो, आपका घर पचास गज का हो, सौ गज का हो, एक एक इंच सही प्रयोग हो, एक एक पैसे का सदुपयोग हो, आप प्रयास करते हैं. करते हैं कि नहीं? पंजाबी की कहावत है, “सांझा बाप न रोवे कोई?” यहाँ सांझी ज़मीन है, सांझा पैसा है तो कोई सही डिजाइनिंग नहीं है, कोई वैज्ञानिक समझ नहीं है, बस जहाँ मर्ज़ी landscaping कर दी, जहाँ मर्ज़ी स्केटिंग की जगह बना दी, जहाँ मर्ज़ी टॉयलेट बना दिए, जहाँ मर्ज़ी ये बड़े बड़े बेतुके से गेट खड़े कर दिए, जिनकी कोई उपयोगिता नहीं.

आज भी भाजपा के समय के लगाये लोहे के पुराने झूले टूटे-फूटे पड़े हैं उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं. जनता तो पागल है न उसे दिखाता कहाँ है? भाजपा जो पार्कों में फाइबर के झूले लगाने के होर्डिंग लगवा रही है उसे इस park के पुराने झूलों के दर्शन करवा दिए जाएँ. मामला साफ़ हो जायेगा, किसी को कुछ समझाना नहीं पड़ेगा.

कांग्रेस के एक पार्षद ने तो इस park में चार-पांच फुट की ऊंचाई के पिलरों पर बल्ब लगवा दिए थे. चार हफ्ते नहीं चले वो बल्ब. सब टूट-फूट गए. ज़रा कॉमन सेंस नहीं लगाई. अपने घर के बाहर आप छोड़ दीजिये चार फुट की ऊंचाई पर CFL, कुछ दिन बाद न CFL बचेगा, न होल्डर.

पुरानी बात है, कांग्रेस थी पॉवर में. A-4 फ्लैट्स की एंट्री पर कूड़ेदान हुआ करता था, लोग कूड़े से पहले ही परेशान थे, मोबाइल टॉयलेट और खड़ा करवा दिया लाकर, वहां पर. उस समय वहां झुग्गियां थीं और कांग्रेस के लिए वो वोट-बैंक था. याद रखियेगा कांग्रेस का वह दौर, जो आज कहती है, “अनुभव है उनके पास”. अनुभव दिल्ली को गंद-खाना बनाने का, लूटने का.

सर्विस लेन के खांचे कूड़े से भरे पड़े हैं, व्यक्तिगत खर्चे से साफ़ करवाते हैं लोग. और ऐसा इसलिए है कि कोई सुध लेने वाला नहीं है कि घरों से निकलने वाले मल की सही निकासी हो रही है कि नहीं.

ये जो स्थानीय मुद्दे पेश किये हैं मैंने, ये कोई मेरी ही स्थान के हों ऐसा बिलकुल भी नहीं है. आप जहाँ भी रहते हों, ऐसे ही मुद्दे आपके स्थान के इर्द-गिर्द भी बिखरे होंगे. ये मुद्दे यत्र-तत्र-सर्वत्र हैं.

और ये मुद्दे काफी हैं साबित करने को कि वोट भाजपा को नहीं जाना चाहिए, वोट कांग्रेस को नहीं जाना चाहिए.

एक और बात, आम आदमी पार्टी का एलान है कि हाउस-टैक्स माफ़ करेंगे. हालाँकि केजरीवाल जी ने बता दिया है कि MCD एक्ट के कौन से सेक्शन के तहत वो ऐसा कर सकते हैं, फिर भी सोशल मीडिया पर चिल्लम-चिल्ली है कि उनके पास पॉवर ही नहीं होगी ऐसा करने की. यह विरोध साबित करता है कि विपक्षियों के दिल में दिल्लीवासियों के लिए ज़रा प्यार, ज़रा दर्द नहीं है. अगर होता तो कहते कि ठीक है, अगर केजरीवाल दिल्ली की जनता को कैसी भी राहत दे पायेंगे तो हम उनका साथ देंगे, साथ देंगे अगर उनके पास पॉवर नहीं भी होगी तो भी, उनको कानूनी तन्त्र-मन्त्र में नहीं उलझायेंगे, जन-तन्त्र की मूल भावना का ख्याल रखेंगे. लेकिन जनता के लिए वाकई प्रेम हो तब न. देश किनसे बनता है? देश-वासियों से. और यदि देश-वासियों से प्रेम नहीं तो  देश-प्रेम का नारा मात्र जुमला है, चुनावी जुमला. और मित्रो, विपक्षियों का देश प्रेम वाकई जुमला है, शिगूफा है, फरेब है, चूँकि विपक्ष चाहता ही नहीं कि दिल्ली की जनता को कोई राहत मिले. याद रखियेगा, इसी विपक्ष ने दिल्ली में कूड़ा-कूड़ा कर दिया, इसी विपक्ष ने दिल्ली में बीमारियाँ फैलायीं, इसी विपक्ष ने आपको केजरीवाल को चुनने की सज़ा दी, आज मौका है, आप अपने वोट की ताकत से इनको सज़ा दें.

तो मित्रो, वोट सिर्फ आम आदमी पार्टी को वोट दीजिये. इनके कैंडिडेट को आज़मा कर देखिये. ये कोई हमारे रिश्तेदार नहीं बन जायेंगे, यह कोई हिन्दू मैरिज एक्ट के तहत शादी नहीं होने जा रही जिसमें तलाक़ मुश्किल है, कोई सात जन्मों का, जन्म-जन्मान्तर का बंधन नहीं बंधने जा रहा. नहीं, मात्र तीन साल बाद चुनाव फिर होंगे. नहीं काम करेंगे तो इनको भी धक्का दे दीजियेगा. लेकिन अभी आपके वोट पर सिर्फ हक़ आम आदमी पार्टी का है, और किसी का नहीं.

सुनने के लिए धन्यवाद...फिर से नमस्कार...मैं तुषार

Saturday, 15 April 2017

मेरा लेखन ---- नक्कार-खाने की तूती

शुरू-शुरू में प्रियंका त्रिपाठी ने जब मेरा लिखा पढ़ा तो उनको बिलकुल यकीन नहीं हुआ कि यह सब बकवास मैं खुद लिख रहा हूँ. उन्होंने तमाम ढंग से मेरे लिखे को टैली किया, कहाँ से कॉपी मार रहा हूँ? गूगल, फेसबुक सब खंगाल दिया. बहुत मुश्किल से उन्हें मेरी बक-बक करने की क्षमता पर भरोसा हुआ. ऑनलाइन छोड़ दूं तो घर हो या बाहर, मेरे लिखे को कोई टके सेर नहीं पूछता, कोई पढ़ता नहीं, पढ़ता छोड़ो देखता तक नहीं, देखता छोड़ो कोई थूकता तक नहीं, तो भी अपनी पड़ोसन को ज़बरन सुना रहा था एक बार. सुनने के बाद बोलीं, "अच्छा लिखा है भैया, आपने लिखा है यह सब?" मैं उनका मुंह ताकता रहा. अभी-अभी फेसबुक पर कोई भाई लिख रहा था कि फेसबुक पर लिखने से कुछ नहीं होगा. यहाँ भी मित्र लिखते हैं अक्सर,"लिखिए, लेकिन छोटा लिखिए". बिलकुल असहमत हूँ उनकी इस बात से. मैंने तो कल ही लिखा एक पाठक को, कि यदि आपको मेरा लेखन लम्बा लगता है तो आप मेरे लिखे को पढने के हकदार ही नहीं हैं, विदा लीजिये. आप सेक्स करते हैं तो उसे छोटा रखना चाहते हैं या चाहते हैं कि चलता रहे? जब आप छोटा लिखे की आशा करते हैं तो इसका मतलब है, आप मेरे लिखे को जल्द खत्म हुआ चाहते हैं. आप कोई बड़ा नावेल कैसे पढ़ते हैं? लाख व्यवधान आयें, फिर भी बुकमार्क करते जाते हैं और पढ़ते जाते हैं. आपको पता है, सर आर्थर कानन डोयल ने एक बार शर्लाक होल्म्स को मार दिया? किस्सा खतम. आगे लिखना ही नहीं चाहते थे. लेकिन इतने पत्र आये, इतना विरोध हुआ शर्लाक के खात्मे का, इतनी डिमांड हुए शेर्लोक की वापिसी की कि उनको शर्लाक दुबारा जिंदा करना पड़ा. जिसे आप पसंद करते है, उसका लेखन तो आप चाहेंगे कि पढ़ते ही जाएँ. सो मैं तो छोटा-बड़ा सब लिखता हूँ, जब लिखता हूँ तो. जिसने पढ़ना होगा, पढ़ेगा. ऑन-लाइन लिखने और पढ़ने का एक फायदा यह है कि यह दुनिया लगभग सेंसर-विहीन है, यहाँ वो सब लिखा-पढ़ा जा सकता है जो मेन स्ट्रीम मीडिया शायद हिम्मत ही न करे प्रकाशित करने की. 'पोलिटिकल करेक्टनेस', 'सोशल करेक्टनेस' की ऐसी की तैसी. "नक्कारखाने की तूती ही सही, बजाता जाऊंगा कोई सुने न सुने, फर्ज़ अपना निभाता जाऊंगा" "स्वागत मेरे लेखन में मेरी दुनिया देखन में कोई बिलबिला जाए तो कोई पिलपिला जाए कोई पीला हो तो कोई लाल हो कम ही को खुशी हो ज़्यादा को मलाल हो फिर भी आयें,आयें शुरू है धायं धायं" तुषार कॉस्मिक

विचार-योद्धा

मैं कहीं भी अकेला जाऊं, पीछे से घर वाले फ़ोन करते हैं, हर घंटे. क्यूँ? इसलिए कि कहीं मैं किसी से भिड़ तो नहीं गया?

बड़ी बिटिया के स्कूल मात्र दो बार गया और दोनों बार लड़ आया, बाद में फैसला दिया गया कि मुझे कभी भी वहां नहीं जाने दिया जायेगा, चूँकि बच्ची वहीं पढ़ानी है.

आप मेरा लिखा पढ़ते हैं, निरी लड़ाई है. 

भारत इतने मुद्दों से जकड़ा है कि लड़ाई-भिड़ाई तो होगी ही.

जब आप व्यवस्था बदलने की कोशिश करेंगे तो पुरानी व्यवस्था आपको सुस्वागतम नहीं कहने वाली. वो तमाम कोशिश करेगी अपने आप को जमाए रखने के लिए. 

मेरा ख्याल है कि भिड़ना शुभ संकेत है. भारत को और बहुत लोग चाहियें जो भिड़ सकें.

जो भारत की वैचारिक बोझिलता को, अवैज्ञानिकता से भरी बे-वस्था को छिन्न-भिन्न कर सकें.

योद्धाओं का सम्मान होता था पहले. आज भी होना चाहिए. आज युद्ध तीर तलवार से नहीं, विचार से होने हैं. 

"मैं भी ठीक, तू भी ठीक", किस्म के लोग मात्र मिटटी लौंदे हैं, जिधर मोड़ो, मुड़ने को तैयार.  ये क्या लड़ेंगे? न...न....भारत को लड़ाकों की सख्त ज़रूरत है. योद्धाओं की, विचार-योद्धाओं की, जो अवैज्ञानिकता की ईंट से ईंट बजा कर रख दें. ईंट का जवाब पत्थर नहीं पहाड़ से दें. विचार-योद्धा.

असल भारतीयता क्या है

कहा-सुना जाता है कि मनु ने वर्ण-व्यवस्था बनाई. वैसे वर्ण का अर्थ रंग है. तो यह पहला रंग-भेद था शायद. न सिर्फ भेद था, भेद-भाव भी था. ब्राहमण को पूरे समाज के सर पर बिठा दिया. मैं तो हैरान हूँ आज भी मंदिरों में ब्राह्मण खुले-आम कहते हैं कि ब्राह्मण की सेवा की जाए.

और जो जातियां, उपजातियां पनपीं, वो सिर्फ ब्राह्मणों ने अपनी सुविधा के लिए अपने यजमानों की मोहरबंदी की है. जैसे ज़मीन बांटते चले जाएँ किसान के बच्चे और अपना हिस्सा अपने-अपने नाम रजिस्ट्री करवाते जाएँ, जैसे लोग अपनी गाय-भैंस पहचानने के लिए गर्म लोहे से इन जानवरों के शरीर दाग देते हैं, वैसे ही ब्राह्मणों के परिवार जैसे बढ़े तो उन्होंने अपनी सुविधा के लिए कि कौन किसका ग्राहक, यह पहचान के लिए लोगों कि उपजातियां और फिर उन उपजातियों की भी उपजातियां घड़ लीं. हरिद्वार चले जाएँ, पण्डे लेकर बैठे हैं पोथे. और कौन किसका यजमान, वो हिसाब जाति, उपजाति से होता है.

आज जिसे हिन्दू व्यवस्था कहा जाता है उसमें यह ब्राह्मण व्यवस्था एक धारा रही है न कि एक-मात्र धारा. वाल्मीकि रामायण में जाबालि राम का विरोध करता है तर्कों से, उसे क्या कहेंगे? चार्वाकों के तो ग्रन्थ जला दिए गए, उन्हें क्या कहेंगे? बुद्ध तो नास्तिक कहे जाते हैं, उन्हें क्या कहेंगे? नानक तो जनेऊ को इंकार किये हैं, उन्हें क्या कहेंगे? और अम्बेडकर ने तो मनु-स्मृति की होली जलवाई दी थी तो उनको क्या कहेंगे आप? और आर्य-समाजी तो मूर्ति पूजा का विरोध करते हैं, उनको क्या कहेंगे आप? यहाँ रावण को पूजने वाले भी हैं और दुर्योधन को पूजने वाले भी, इन्हें क्या कहेंगे?

यह जो ब्राहमणी व्यवस्था सर चढ़ बैठ गई है और हर मुद्दे पर बस बकवाद करती है, यही भारतीयता के खिलाफ है, वो भारतीयता जहाँ अनेक तरह के विचार पनपे हैं, एक दूजे के धुर विरोधी विचार.

असल भारतीयता ब्राह्मण-पंथी नहीं है, असल भारतीयता विचारवादिता है.

Friday, 14 April 2017

स्कूलों को लूटने वाले गिरोह के 3 मेंबर गिरफ्तार

एक गिरोह पकड़ा गया है, जो स्कूलों को लूटता था. मैं इनके नेक काम के लिए इन्हें दिल से बधाई देना चाहता हूँ. यह रही खबर और लिंक कमेंट बॉक्स में है. "स्कूलों को लूटने वाले गिरोह के 3 मेंबर गिरफ्तार" विशेष संवाददाता, द्वारका 40 से ज्यादा प्राइवेट स्कूलों में रॉबरी और चोरी करने वाले गिरोह के तीन मेंबर गिरफ्तार कर लिए गए। इनके टारगेट पर नेताओं के स्कूल भी रहते थे। एडमिशन के टाइम में इस गिरोह ने मोटी रकम मिलने की उम्मीद में यह वारदातें की। साउथ वेस्ट दिल्ली में पिछले दिनों कई प्राइवेट स्कूलों में चोरी और लूट की वारदातें हुई थी। दिन निकलने से पहले लुटेरे स्कूलों के गार्डों को बंधक बना कर इनके ऑफिस में रखी रकम लूट कर ले गए थे। डीसीपी सुरेंद्र कुमार के मुताबिक, एसीपी ऑपरेंशंस राजेंद्र सिंह की देखरेख में बनाई गई टीम ने इन वारदातों का सुराग लगाया। इंस्पेक्टर रमेश कुमार और एसआई नवीन कुमार की टीम ने तीन मुलजिम गिरफ्तार कर लिए। इनके नाम हैं बबलू, दीपक और सुनील लाला। बबलू और दीपक मजनूं का टीला इलाके में रहते हैं। सुनील बुराड़ी इलाके के संत नगर में रहता है। इन तीनों से स्कूलों से लूटा गया सामान और रकम बरामद की गई। डीसीपी के मुताबिक, इन तीनों ने बताया कि इनके गिरोह में 10 लोग हैं। इन्हें जानकारी मिली थी कि एडमिशन के दिनों में प्राइवेट स्कूल बच्चों के माता-पिता से दाखिले के लिए मोटी रकम वसूलते हैं। इन्हें उम्मीद थी कि स्कूलों में इन्हें मोटी रकम हाथ लगेगी। यह लोग सुबह टारगेट किए गए स्कूल के आसपास कार से पहुंचते थे। यह लोग ऐसी जगह से बाउंड्री वॉल पार कर स्कूल के अंदर जाते थे, जहां पर सीसीटीवी नहीं होते थे। अंदर जाकर यह लोग गार्ड्स को बंधक बना देते थे। उसके बाद अंदर लगे सीसीटीवी कैमरों को हटा देते थे और उनकी डीवीआर उठा लेते थे। उसके बाद यह लोग स्कूलों के दफ्तर के ताले तोड़ कर वहां रखी रकम लूट कर ले जाते थे। डीसीपी के अनुसार, इन मुलजिमों ने बताया कि इनके गिरोह ने 40 से ज्यादा स्कूलों में रॉबरी और चोरी की वारदातें की हैं। इनकी आठ वारदातों की जानकारी मिल चुकी है। खास बात यह है कि यह गिरोह पिछले चार सालों से एडमिशन के दिनों में यह वारदातें कर रहा है। यह एक सीजन में वारदातों के दौरान की गई गलतियों से सबक लेते हुए अगले साल के एडमिशन के सीजन में रॉबरी करते हैं। इनके टारगेट बने कई स्कूलों के मालिक राजनीतिक पार्टियों के जाने-माने नेता भी हैं। http://navbharattimes.indiatimes.com/metro/delhi/other-news/3-members-of-gang-robbery-arrested/articleshow/58054418.cms