Wednesday, 14 December 2016

जब तक आप हिन्दू-मुसलमान बनते रहेंगे 
तब तक आपको मोदी-ओवेसी मिलते रहेंगे.

#बेईमान कौन है, तुम या हम?#

नौकर पिछली तनख्वाह का हक़ तो अदा कर नहीं रहा और जिद्द कर रहा है, जबरदस्ती कर रहा है तनख्वाह बढ़वाने की. जिस चीज़ के आगे सरकारी शब्द लग चुका है वो सब सड़ चुकी है. सरकारी अस्तपाल बदबू मारता है, सरकारी स्कूल में बच्चों से लेबर कराई जाती है. सरकारी न्याय लेने के लिए पीढियां घिस जाती हैं, दाढ़ी से मूंछे बड़ी हो जाती हैं. #सरकारी सड़क खड़क चुकी हैं. सरकारी बस की बस हो चुकी है. सरकारी पुलिस दोनों तरफ से रिश्वत लेती है. कौन सही, कौन गलत, उसे कोई मतलब नहीं. थाने गुंडागर्दी के अड्डे हैं और पुलिस मुल्क का सबसे बड़ा माफ़िया. हर सरकारी चीज़ बस सरक रही है किसी तरह से. और सरकार को और टैक्स चाहिए. आप चाहे #कैशलेस हो जाओ, चाहे #लेसकैश लेकिन सरकार को और टैक्स चाहिए. कौन समझाए कि सरकार इसलिए बकवास नहीं थी कि उसे जनता टैक्स कम दे रही थी? वो इसलिए बकवास थी चूँकि वो बकवास थी, वो बे-ईमान थी. अगर सरकारी कर्मचारी को कम पैसे मिलते होते तो काहे हर कोई सरकारी नौकरी के लिए मरा जा रहा है? अगर सरकार को पैसे कम पड़ रहे होते तो काहे हर कोई नेता बनने को जान देने को है? काहे रोज़ नेता अरबों रुपये के स्कैम में फंस रहे होते? नहीं. अभी पिछले पैसों का हिसाब ही नहीं दिया और चले हैं और ज़्यादा मांगने. जनता को उठ खड़े होना चाहिए और उस नेता का कालर पकड़ पूछना चाहिए जो टैक्स न देने वालों को रोज़ बे-ईमान कह रहा है, पूछना चाहिए उसे कि बे-ईमान कौन है बे, तुम या हम? उल्टा चोर कोतवाल को डांटे. उल्टा बे-ईमान नौकर मालिक को मारे चांटेे.

Tuesday, 13 December 2016

#फ़कीरी मेरी नज़र में#

पीछे मोदी जी ने खुद को फ़कीर क्या कह दिया सारा समाज फकीरी पर चर्चा करने लगा.
एक रहिन ईर, एक रहिन बीर, एक रहिन फत्ते, एक रहिन हम. ईर कहिन फकीरी, बीर कहिन फकीरी, फत्ते कहिन फकीरी. तो फिर हमहू कहिन फकीरी.
जिस फ़कीर को अपने #फक्कड़पन में ऐश्वर्य नज़र न आता हो, वो फ़कीर है ही नहीं. ऐश्वर्य का मतलब ऐश करना ही नहीं है, इसका मतलब ईश्वरीय होना भी है. हमारे यहाँ ‘महाराज’ शब्द राजा के लिए तो प्रयोग हुआ ही है, फकीर के लिए भी प्रयोग हुआ है. फ़कीर राजाओं का भी राजा है. वो महाराजा है. बुल्ले 'शाह' याद हैं.शाह शब्द पर गौर कीजिये. वो कोई बादशाह नहीं हैं, लेकिन फिर भी शाहों के शाह हैं. फकीरी का मतलब कोई झोला-वोला उठा कर, कटे-फटे कपड़े पहन कर जीना नहीं है. फकीरी का मतलब है, अलमस्त रहना. फकीरी का मतलब ‘अजीबो-गरीब’ होना नहीं है, फकीरी ‘अजीबो-अमीर’ होना है. दुनिया का सबसे अमीर आदमी भी फ़कीर हो सकता है. बिल गेट्स ने अपनी जायदाद का अधिकांश हिस्सा दान कर दिया, क्या यह फकीरी का लक्षण नहीं है? एक ऐश्वर्यशाली व्यक्ति ही फ़कीर हो सकता है.

Monday, 12 December 2016

करप्ट होना करप्ट है भी कि नहीं?

अमिताभ उतरता है अन्नू कपूर के साथ माल-गाड़ी के डिब्बे से. अन्नू कपूर कहता है कि ठंड बहुत लग रही है और भूख भी. अमिताभ उसे सुझाव देता है कि ठंड लगे तो भूख को याद करो, ठंड नहीं लगेगी और भूख लगे तो ठण्ड को याद करो, भूख नहीं लगेगी.

एक आदमी सोया हो ठंड में और कद हो छह फ़ुट लेकिन कम्बल हो उसके पास पांच फ़ुट का. तो कैसे पूरा पड़ेगा उस पर? सर की तरफ खींचेगा तो पैरों की तरफ से नंगा हो जाएगा. पैरों की तरफ खींचेगा तो सर की तरफ से नंगा हो जाएगा.

एक फिल्म में डायलाग था कि भूखा चोरी करे तो उसे चोरी नहीं कहते, लेकिन भरे पेट का चोरी करे उसे चोरी नहीं,  डकैती  समझना चाहिए. मेरे ख्याल में तो भरे पेट वाला भी कहीं न कहीं भूख का शिकार है. भूख के डर का शिकार.

करप्शन कभी बंद नहीं हो सकता एक अभावग्रस्त समाज में. एक आर्थिक रूप से असुरक्षित समाज में. जयललिता के कपड़ों के अम्बार और जूतों की भरमार के पीछे क्या मानसिकता है? यही कि कल हो न हो.

करप्शन सिर्फ एक लक्षण जो एक बीमार समाज की खबर दे रहा है. हम बीमारी खत्म करने की बजाए उसके लक्षणों,  सिमटोम पर टूट पड़े है.

बीमारी है समाज का असंतुलन. एक समाज जहाँ कोई कोठड़ी में है तो कोई कोठी में. कहीं किसी के पास दस कमरों का घर है तो कहीं दस आदमी एक कमरे में सोते हैं. ऐसे समाज में करप्शन खत्म होगा? होना भी चाहिए?

ऐसे समाज में करप्शन बंद कभी नहीं हो सकती. आप लाख कोशिश कर लें.



लाओत्से की ख्याति बहुत थी कि पंहुचा हुआ फ़कीर है. राजा ने उसे जबरन न्याय-मंत्री बना दिया गया. अब एक सेठ आया कि चोर ने उसका गल्ला चुरा लिया. लाओत्से ने चोर को स्कूल में पढने की सज़ा दी, स्टेट के खर्चे पर, तब तक जब तक वो अच्छा कमाने लायक न हो जाए.  और बीस कोड़े की सज़ा दी सेठ को. राजा हैरान! लाओत्से को कारण बताने को कहा. लाओत्से कहते हैं कि इस सेठ ने मजबूर किया कि चोर चोरी करे. इसने अभाव क्रिएट किया. राजा कुछ कह पाता उससे पहले ही लाओत्से ने तीस कोड़े वित्त-मंत्री को भी मारने को कहा. राजा ने कारण पूछा? लाओत्से ने कहा, “चूँकि यह मंत्री ऐसी वित्तीय प्रणाली पैदा ही नहीं कर सकता कि किसी को चोरी न करनी पड़े. इसलिए यह गुनाह-गार है.” राजा हैरान! अब लाओत्से ने चालीस कोड़े राजा को मारने का हुक्म दिया. अब राजा की हिम्मत नहीं हुई आगे पूछने की. वो समझ गया कि लाओत्से का जवाब क्या होना था.


राजा तो समझ गया आप समझे कि नहीं? ये जो राजा है, वही ज़िम्मेदार है. चोर चोरी करता है और उस पर ध्यान न जाए इसलिए वही सबसे ज़्यादा चिल्लाता है, “चोर, चोर, पकड़ो पकड़ो.” लोग समझते हैं कि कम से कम ये बेचारा तो चोर नहीं हो सकता.


हमारा नेता ही ज़िम्मेदार है, ऐसा बे-हिसाब समाज पैदा करने के लिए. और वो ही चिल्ला-चिल्ली कर रहा है कि करप्शन खत्म करेगा. कोई नोट बंद कर रहा है, तो कोई लोक-पाल कानून लाने को आमदा है. जड़ में कोई नहीं जाना चाहता कि एक करप्ट समाज में करप्ट होना करप्ट है भी कि नहीं?


लक्षणों से उलझे हैं सब, डायग्नोसिस ही नहीं करना चाहते, इलाज क्या ख़ाक करेंगे?

नमन....तुषार कॉस्मिक. कॉपी राईट लेखन
  



मैं आठवीं जमात तक अंग्रेज़ी सीख चुका था...लेकिन शेक्सपियर का लेखन मुझे समझ नहीं आता था........ भाषा समझ लेने का अर्थ यह बिलकुल नहीं कि हमने जो पढ़ा, वो हमें समझ आ ही गया.....हम कुछ का कुछ समझ सकते हैं....अर्थ का अनर्थ कर सकते हैं...व्यर्थ कर सकते हैं......मतलब आदमी अपने हिसाब से निकालता है जनाब. ऐसे मतलब जिनका लेखक के मतलब से कोई मतलब ही नहीं होता.
सही वक्त है कि संसद-सड़क, मंत्री-संत्री, चौपाल-हाल-बेहाल, सब बहस करें कि सरकार कितना लगान वसूल कर सकती है ज़्यादा से ज़्यादा. क्या इस पर भी कोई सीमा होनी चाहिए कि नहीं?

Friday, 9 December 2016

अरुण जेटली हैं वित्त-मंत्री. वैसे सुना था कि अमृतसर में जो इलेक्शन  फाइट किया था इनने, तो रिकॉर्ड बनाया था. हारने का जी. अजीब है हमारे यहाँ के कानून. जिसकी काबलियत पर जनता को यकीन पहले ही नहीं था उसे सरकार ने मंत्री बना दिया. अब मंत्री ने मंत्र मार दिया है. देखते जाईये, भारत की इकॉनमी बीस दिन बाद ही आसमान छूने लगेगी. ठीक वैसे ही जैसे जादूगर का ज़मूरा बिना सहारे की रस्सी पर चढ़ आसमान छूने लगता है. 

"शेख-चिल्ली और कैश-लेस भारत"

शेख-चिल्ली की मशहूर कहानी है. सर में टोकरी रखी है उसके और कुछ अंडे हैं उसमें वो लगा है कल्पना के घोड़े दौडाने. इन अण्डों में से मुर्गे-मुर्गियां निकलेगीं. फिर उनके बच्चे होंगे. फिर उनके बच्चों के बच्चे होंगे और इस तरह से एक बड़ा पोल्ट्री फार्म होगा. और कुछ ही समय में वो अमीर हो जाएगा.
लेस-कैश वाला भारत कुछ ही दिन में कैश-लेस ले-दे करेगा और सरकार को कई गुणा टैक्स देगा और बदले में सरकार इस पैसे से हर भारतीय को कई गुणा अमीर कर देगी. मालामाल.
शेख-चिल्ली को ठोकर लगी थी और सर पे रखी अंडे की टोकरी ज़मीन पर और अण्डों का क्या हुआ होगा ...आप खुददे बहुत समझदार हैं, सोच सकते हैं.
“कैश-लेस बनेगा इंडिया, तब्बी तो बढ़ेगा इंडिया”
वो तो ठीक है सर जी, लेकिन अपने ‘भारत’ का क्या होगा?
वो कौन कह रहा था कि फ़ौज का कहा ब्रह्म-वाक्य होता है, अगर वो कह रही है सर्जिकल स्ट्राइक हुई है तो हुई है? वैसे आज ही नवभारत टाइम्स के मुख-पत्र पर फ़ौज के किसी बड़े अफ़सर के गिरफ्तार होने की खबर है. नहीं, कोई ख़ास बात नहीं जी. सिर्फ रिश्वत के चक्कर में जी.

"मोदी की खतरनाक राजनीति"

मोदी अपना वोट बैंक बदल रहा है, वो भिखमंगे और जिनके पल्ले कुछ नहीं था, उनको टारगेट कर रहा है. उसे पता है, कि ये लोग jealous थे अमीरों से, और ये निहायत खुश हैं.
उसे वोट अच्छा नौकरी पेशा देगा.
या फिर जो कुछ भी पैसा नहीं जोड़ नहीं पाया, वो देगा.
व्यापरी जी जान लगा देगा, मोदी को गिराने में.
यह पक्का है.
शत प्रतिशत.
और मोदी को अब इस व्यापारी के पैसे की ज़रूरत नहीं है, चूँकि उसके पास टॉप-मोस्ट व्यापारी हैं, अम्बानी, अदानी. सो उसे अब छुट-पुट लोगों की कोई ज़रूरत नहीं है.
और वोट वो इन्ही का पैसा फेंक कर, फिर से खींच लेगा, ऐसी उसे समझ है.
ये जो लोग मोदी-मोदी के नारे उछाल रहे हैं, वो बहुत पेड होंगे.
अपनी पार्टी rti में लायेंगे नहीं.
अपना पैसा पहले ही सफेद कर चुके
दूसरी दलों को कंगला कर दिए, अब आगे फिर से अँधा पैसा प्रयोग होगा, और वो बीजेपी की तरफ से होगा और शुरू हो भी चुका असल में.
यह है राजनीति.

SOMETHING IS BETTER THAN NOTHING. REALLY?
NOTHING IS BETTER THAN SOMETHING BAD.

जिस तरह का प्रजातंत्र है अभी, वो हमें कम से कम जो घटिया हो, उसे चुनने का मौका देता है, चूँकि ये प्रजातंत्र है ही नहीं.


ਸਰਕਾਰ ਸਮਝਾਊਂਦੀ ਰਹੀ ਜਨਤਾ ਨੂੰ,"ਸਾਰਾ ਜਾਂਦਾ ਵੇਖੀਏ, ਤੇ ਅਧਾ ਦੇਯੀਏ ਵੰਡ"
ਪਰ ਹੁਣ ਤਾਂ ਸਰਕਾਰ ਨੂੰ ਸਮਝਣਾ ਪੈ ਰਿਹਾ ਹੈ, "ਟਕੇ ਦੀ ਬੁੜੀ, ਤੇ ਆਨਾ ਸਿਰ ਮੁਨਾਈ"
मुल्क को "लेस कैश" देकर "कैश लेस" करने का गुप्त प्रयास भी इन्हें की खोपड़ियों पर गिरेगा, जिसमें भेजा कुदरत ने भेजा ही नहीं.
साम्भा--- आखिर कितने दिन और जनता का पैसा बैंकों में ही रोके रखना है सरदार, मतलब सरकार? सरदार मतलब सरकार--- ऐसे तो हम जनता को जीने लायक कैश दे ही रहे हैं....और थोड़े दिन में अधिकांश लोग कैश-लेस ले-दे करने लगेंगे. साम्भा-- सरदार मतलब सरकार, और थोड़े दिन में तो बहुत लोग वैसे ही कैश-लेस हो जायेंगे. न रहेगा बांस, न बजेगी बंसरी. दंगा ही न हो जाए? सरदार मतलब सरकार---- ऐसा कुछ नहीं होगा, जब पचास-पचास कोस तक कोई हमें कोस रहा होता है तो समझदार लोग कहते हैं ,"चुप हो जा पगले नहीं तो सरदार, मतलब सरकार आ जाएगी."

Thursday, 8 December 2016

"सरकार की समझ सरकारी है, सो राम-लीला ज़ारी है"

भारत की आबादी—1.25 करोड़ ग़रीबी रेखा के नीचे—22 करोड़ एडल्ट- 60 प्रतिशत ग़रीबी रेखा के नीचे तकरीबन 13 करोड़ लोग एडल्ट होंगे. अगर इनमें से आधे लोगों के कैसे भी खाते हों तो हुई 6.5 करोड़ और अगर हरेक के खाते में एक लाख भी जमा हुआ तो कुल हुआ 6.5 लाख करोड़ रुपैया. और यह सिर्फ ग़रीबी रेखा से नीचे के लोग हैं. ग़रीबी रेखा के आस-पास के लोगों को भी मिला लें तो यह संख्या सहज ही सरकार के चौदह-पन्द्रह लाख करोड़ रुपियों को पार कर जानी है. मतलब यह कि काश सरकते हुए आर्थिक रूप से निचले तबके के खातों में कई दिशाओं तक पहुंचा है, जैसे एडवांस सैलरी दी जा रही है साल भर की. मतलब यह कि निचला तबका कहीं तो काम-धंधा करता है न तो उसको काम देने वाले लोग उसके ज़रिये काश अकाउंट तक पहुंचाएंगे कि नहीं. ज़रा सी समझ नहीं आई सरकार को. काश रातों-रात बदला नहीं जा सकता था. उसके लिए समय चाहिए ही था और उसी समय में यह सब हो जाएगा, इसे सरकार समझ ही नहीं पाई. जो रास्ते देने ही पड़ने थे, उन्ही रास्तों से यह सब होगा ही सरकार समझ ही नै पाई. चूँकि सरकार की समझ सरकारी है. सरक सरक कर चलती है. अब लगे हैं, विभिन्न तरह से ज़बरन लोगों को कैश के बिना लेन-देन करवाने. सब उल्टा गिरेगा इन्ही की उलटी खोपड़ियों परम जिनमें भेजे को कुदरत ने भेजा ही नहीं. देखते जाइए, राम-लीला ज़ारी है.

"टाइटैनिक और नोट-बंदी"

टाइटैनिक फिल्म देखी सुनी होगी आपने. वो जो जहाज़ जिसका नाम टाइटैनिक था, वो कहते हैं कि किसी आइस-बर्ग से ही टकराया था. आइस-बर्ग समझते ही होंगे आप कि क्या होता है. बर्फ की ये बड़े बड़ी चट्टान. आइस-बर्ग सिर्फ दस प्रतिशत ही नज़र आता है. नब्बे प्रतिशत नीचे समुद्र में होता है. आपको ये जो कतार दिख रही हैं न नोट-बंदी की वजह से बैंक और एटीएम के आगे, और ये जो समस्याओं का आपको हमें सामना करना पड़ रहा है रोज़-मर्रा के जीवन में, डे-टू-डे लाइफ की प्रॉब्लम, ये आइस-बर्ग का वो हिस्सा है जो ऊपर से नज़र आता है, दस प्रतिशत. ये नज़र आ रहा है , इसलिए सब ऊपर से नीचे तक के लोग, पक्ष विपक्ष के लोग इसी पर जद्दो-जहद करने में जुटे हैं. इससे उपजी और उपजने वाली समस्याओं नब्बे प्रतिशत हिस्सा है वो है जो अभी लोगों को ठीक से नज़र नहीं आ रहा. वो है कि आप से सरकार टैक्स लेना चाहती है. वो भी डैकैतों जैसा. हर मोड़ पर, हर चौराहे पर, तिराहे पर. हर transaction पर. वो दो तो आप काम कर पाओगे, धंधा कर पाओगे, वरना आप अपराधी. जब तक आप इस आइस-बर्ग नब्बे प्रतिशत हिस्सा जो ओझल है, उसे नहीं देख पाएंगे, उसे मुद्दा नहीं बनायेंगे, आपका टाइटैनिक इस आइस-बर्ग से टकराना ही है.

Tuesday, 6 December 2016

“चोर कौन – हम या सरकार?”

मास्टर जी- फर्स्ट अप्रैल को मुर्ख दिवस क्यों कहते है? पप्पू- हिंदुस्तान की सबसे समझदार जनता,पूरे साल गधो की तरह कमा कर थर्टी फर्स्ट मार्च को अपना सारा पैसा टैक्स मे सरकार को दे देती है। और फर्स्ट अप्रैल से फिर से गधो की तरह सरकार के लिए पैसा कमाना शुरू कर देती है। इस लिए फर्स्ट अप्रैल को मुर्ख दिवस कहते है। बहुत पहले कभी यह 20 पॉइंट का आर्टिकल पढ़ा था. लेखक का नाम नहीं पता, उनको धन्यवाद देते हुए पेश कर रहा हूँ. 1) सवाल-- आप क्या करते हैं? जवाब – व्यापार टैक्स- प्रोफेशनल टैक्स भरो 2) सवाल-- आप क्या व्यापार करते हैं? जवाब – सामान बेचता हूँ टैक्स- सेल टैक्स भरो 3) सवाल-- सामान खरीदते कहाँ से हो? जवाब –देश के दूसरे प्रदेशों से और विदेश से टैक्स- केन्द्रीय सेल टैक्स भरो, कस्टम ड्यूटी भरो, चुंगी भरो 4) सवाल-- आपको क्या मिल रहा है ? जवाब – लाभ टैक्स- इनकम टैक्स भरो 5) सवाल-- लाभ बांटते कैसे हैं? जवाब –डिविडेंड द्वारा टैक्स- डिविडेंड डिस्ट्रीब्यूशन टैक्स भरो 6) सवाल-- सामान बनाते कहाँ हो? जवाब – फैक्ट्री में टैक्स- एक्साइज ड्यूटी भरो 7) सवाल-- स्टाफ भी है क्या? जवाब –हाँ टैक्स- स्टाफ प्रोफेशनल टैक्स दो 8) सवाल-- करोड़ो में व्यापार करते हो क्या? जवाब –हाँ टैक्स- टर्नओवर टैक्स भरो 9) सवाल-- बैंक से ज़्यादा काश निकालते हो क्या? जवाब –जी, तनख्वाह के लिए टैक्स- काश हैंडलिंग टैक्स भरो 10) सवाल-- अपने क्लाइंट को डिनर और लंच के लिए कहाँ ले जा रहे हो? जवाब –होटल टैक्स- फ़ूड और एंटरटेनमेंट टैक्स भरो 11) सवाल-- व्यापार के लिए शहर से बाहर जाते हो? जवाब – हाँ टैक्स- फ्रिंज बेनिफिट टैक्स भरो 12) सवाल-- क्या किसी को कोई सेवा दी है? जवाब – हाँ टैक्स- सर्विस टैक्स भरो 13) सवाल-- इतनी बड़ी रकम कैसे आई आपके पास? जवाब – जनम दिन पर गिफ्ट मिली टैक्स- गिफ्ट टैक्स भरो 14) सवाल-- कोई जायदाद है आपके पास? जवाब – हाँ टैक्स- वेल्थ टैक्स भरो 15) सवाल-- टेंशन कम करने को, मनोरंजन को कहाँ जाते हो? जवाब – सिनेमा टैक्स- एंटरटेनमेंट टैक्स दो 16) सवाल-- घर खरीदा है क्या? जवाब – हाँ टैक्स- स्टाम्प ड्यूटी भरो और रजिस्ट्रेशन फीस भरो 17) सवाल-- सफर कैसे करते हो? जवाब – बस से टैक्स- सरचार्ज भरो 18) सवाल-- अभी और भी हैं टैक्स? जवाब – क्या टैक्स- शिक्षा टैक्स, शिक्षा टैक्स और सभी केन्द्रीय टैक्सोन पर अतिरिक्त टैक्स और सरचार्ज 19) सवाल-- टैक्स भरने में कभी डेरी भी की है क्या? जवाब –हाँ टैक्स- ब्याज़ और जुर्माना भरो 20) भारतीय का सवाल-- क्या मैं मर सकता हूँ अब? जवाब – नहीं, इंतज़ार करो, हम अभी अंतिम संस्कार टैक्स शुरू करने ही वाले हैं.” आप सब्ज़ी खरीदते हो तो मोल भाव करते हो....बेचने वाला अपना रेट बताता है...आप अपना. चौक से लेबर भी लेते हो तो मोल भाव करते हो, मज़दूर चार सौ मांगता है, आप तीन सौ कहते हो, करते-कराते बीच में कहीं सौदा पट जाता है. आप ड्राईवर रखते हो, वप अपनी डिमांड रखता है, आप अपनी तरफ से काम बताते हो और अपनी तरफ से क्या दे सकते हो अह बताते हो, सौदा जमता है तो आप उसे hire कर लेते हो. अब आओ सरकार पर. सरकार जनता की नौकर है. PM/ CM/ सरकारी नौकर सब पब्लिक के सर्वेंट हैं, नौकर. पब्लिक को मौका दिया क्या कि वो मोल भाव कर सके कि सरकार को कितनी तनख्वाह (टैक्स) देना चाहती है? नहीं दिया न. बस.यही फेर है. नौकर मालिक बन बैठा है. जनतंत्र तानाशाही बन बैठी है. एक कहानी सुनाता हूँ, बात समझ में आ जाएगी. बादशाह एक गुलाम से बहुत खुश रहता था. गुलाम भी बहुत सेवा करता, बादशाह मुंह से निकाले और फरमाईश पूरी. एक बार बादशाह ने भरे दरबार में कह दिया कि मांग क्या मांगता है. वो कहे, "नहीं साहेब, कुछ नहीं चाहिए". बादशाह ने फिर जिद्द की. "मांग, कुछ तो मांग". सारा दरबार हाज़िर. आखिर गुलाम ने मांग ही लिया. जानते हैं,क्या? उसने कहा, "जिल्ले-इलाही मुझे एक दिन के लिए बादशाह बना दीजिये, बस." बादशाह हक्का बक्का.लेकिन जुबां दे चुका था, भरे दरबार में. सो हाँ, कर दी. जैसे ही गुलाम बादशाह की जगह बैठा तख़्त पर. उसने हुक्म दिया, "बादशाह को कैद कर लिया जाए और उसका सर कलम कर दिया जाए." बादशाह चिल्लाता रहा, लेकिन किसी ने उसकी एक न सुनी. यही होता है, हमारे प्रजातन्त्र में. हर पांच साल में ये नेता लोग हाथ बाँध आ जाते है. गुलाम की तरह. और फिर सीट मिलते ही, गर्दन पर सवार हो जाते हैं जनता की. पांच साल की डिक्टेटर-शिप. गुलाम ने हुकम कर दिया कि पब्लिक का पैसा मिट्टी. अब पब्लिक खड़ी है लाइन में. वो पूछती ही नहीं कि जिल्ले-इलाही मालिक तो हम हैं. जिल्ले-इलाही आपने जो पैसा चुनाव में खर्च किया था, वो कहाँ से आया था. जिल्ले-इलाही, हमने आपको नौकरी दी है,लेकिन हम अपनी जेब काटने का हक़ आपको नहीं दिया है, हम आटे में नमक आपको तनख्वाह में दे सकते हैं लेकिन आप हमारा आटा ही छीन लो, यह हम नहीं होने देंगे." वो इसलिए नहीं पूछती चूँकि नौकर बहत शक्तिशाली हो चुका. वो बात भी करता है तो जैसे रामलीला का रावण. वो बात भी करता है तो खुद को 'मैं' नहीं कहता, खुद को 'मोदी' कहता है. और उसका जनतंत्र में कोई यकीन है ही नहीं. जनतंत्र को तो हाईजैक करके ही वो PM बना और फिर से जनतंत्र को हाईजैक करने के लिए whats-app और फेसबुक और तमाम तरह के मीडिया पर उसने लोग छोड़ रखे हैं, जो भूखे कुत्तों की तरह जुटे हैं, हर विरोधी आवाज़ को दबाने. सावधान रहिए. अँधेरे गड्डों में गिरने वाले हैं हम सब. प्रजातंत्र में सरकार नौकर है और जनता मालिक. नौकर अपनी तनख्वाह तब तक बढवाने की जिद्द नहीं कर सकता जब तक कि पहले सी दी जा रही तनख्वाह का हक़ ठीक से अदा न कर रहा हो. नौकर अपनी तनख्वाह तब तक नहीं बढवा सकता, जब तक मालिक राज़ी न हो. नौकर कौन होता है जबरदस्ती करने वाला? जनता की मर्ज़ी भई, अगर उसे कम तनख्वाह वाला नौकर पसंद हो तो वो वही रखेगी. जनता को विकास चाहिए लेकिन इस शर्त पर नहीं कि उसकी जेब में पड़े एक रुपये की चवन्नी रह जाए. नहीं यकीन तो पूछ के देख लो. और बेहतर था यह सब गंदी-बंदी करने से पहले पूछते. और गाँव, गाँव, कस्बे-कस्बे पूछते. यह क्या ड्रामा है? जो करना था, वो कर दिया. बाद में पूछते हो, वो भी मोबाइल app बना कर. जहाँ पचास प्रतिशत लोगों को वो app की abcd ही नहीं पता होगी. और अगर पता भी होगी तो कौन दुश्मन बनाए सरकार को अपनी असल राय ज़ाहिर करके. देशद्रोही--- ये नोट-बंदी बिलकुल ही डिक्टेटर-शिप हो गई भैया. भक्त- नहीं ऐसा नहीं, मोदी जी ने लोगों की राय ली है, नमो app के ज़रिये. देशद्रोही- अच्छा है भैया, लेकिन यह राय किसी ऐसे ढंग से लेते कि उसमें सब लोग शामिल हो पाते. मतलब मेरे गाँव का भैंस चराने वाला ललुआ. खेत में मजदूरी करने वाला भोंदू. गाय के गोबर से सारा दिन उपले घड़ने वाली बिमला. नहीं? भक्त- अबे चोप, मौका दिया न. आज कल मोबाइल फ़ोन घर-घर है. हर- हर मोबाइल, घर-घर मोबाइल. देशद्रोही--- सर जी, लेकिन राय काम करे से पहले लेते तो कोई मतलब था. काम करने के बाद ली गई राय का क्या मतलब? नहीं? भक्त- अबे चोप! देशद्रोही!! ठीक है, जैसे घर चलाने के लिए पैसा चाहिए, वैसे ही सरकारी तन्त्र चलाने के लिए पैसा चाहिए. सरकार को हम ने हक़ दिया है कि वो हम से टैक्स के रूप में पैसा ले सकती है. और जो व्यक्ति टैक्स दे वो इमानदार, जो न दे वो बे-ईमान. सही है न. सरकार हक़ से आम आदमी से पूछती है कि क्या कमाया, क्या खाया, क्या पीया, क्या बचाया? लेकिन खुद अपना हिसाब कभी पब्लिक को नहीं देती, इस तरह से नहीं देती कि पब्लिक समझ सके कि सरकार कहाँ फ़िज़ूल खर्ची कर रही है और कहाँ ज़रूरत के बावजूद भी खर्चा नहीं कर रही. मिसाल के लिए हमारा न्याय-तन्त्र सड़ा हुआ है, मुकदमें सालों बल्कि दशकों लटकते रहते हैं और जज की निष्पक्षता पर भी सवाल उठते रहते हैं. हल है. जजों की संख्या बढ़ाई जा सकती है, हर कोर्ट में CCTV लगाए जा सकते हैं. लेकिन वहां खर्चा नहीं किया जा रहा. हर छह महीने बाद ये जो 'स्वतंत्र-दिवस' 'गणतन्त्र-दिवस' मनाया जाता है, जन से, गण से कभी नहीं पूछा गया कि इसका खर्च बचाया जाए या नहीं. बहुत जगह सरकारी नौकरों को अंधी तनख्वाहें बांटी जा रही हैं, जबकि उनसे आधी तनख्वाह पर उनसे बेहतर लोग भर्ती किये जा सकते हैं. मेरी गली में जो झाडू मारने वाली है उसे लगभग तीस हज़ार तनख्वाह मिलती है, उसने आगे दस हज़ार का लड़का रखा है जो उसकी जगह सारा काम करता है, मतलब जो काम दस हज़ार तक में करने वाले लोग मौजूद हैं, उनको तीस हज़ार सैलरी दी जा रही है. वहां खर्चा घटाया जा सकता है, वो नहीं घटाया जा रहा है बल्कि और बढाया जा रहा है. ये पे-कमीशन, वो पे-कमीशन. ये भत्ता, वो भत्ता. कभी पब्लिक की राय भी ले लो भाई. आखिर पैसा तो उसी ने देना है. आखिर मालिक तो वही है. किताबी तौर पर. क्या पब्लिक को मौका दिया कि वो समझ सके कि कहाँ-कहाँ कितना खर्च सरकार कर रही है और क्या पब्लिक के सुझाव लिए कि कहाँ-कहाँ वो कितना खर्च घटाना या बढ़ाना चाहेगी? क्या मौका दिया जनता-जनार्दन को कि वो समझ सके कि वो कैसे खुद पर टैक्स का बोझ घटा सकती है? जैसे कोई व्यक्ति अपने ऊपर टैक्स का बोझ घटाने के लिए चार्टर्ड अकाउंटेंट के पास जाता है. अपना सब जमा-घटा, खाया-कमाया-बचाया बताता है और फिर चार्टर्ड अकाउंटेंट उसे सलाह देता है ठीक उसी तरह से सरकार को जनता को मौका देना चाहिए कि जनता सरकारी खर्च घटाने या बढाने के लिए सरकार को सलाह दे. आखिर पता तो लगे कि ये जो अनाप-शनाप टैक्स थोपे जाते हैं इनमें से कितने घटाए जा सकते हैं, हटाये जा सकते हैं. पता तो लगे कि क्या एक सीमा के बाद हर व्यक्ति यदि अपनी कमाई का 10/15 परसेंट यदि टैक्स में दे तो उससे सरकार का काम चल सकता है या नहीं. और यदि कोई सरकार ऐसा नहीं करती, और जनता पर बस टैक्स ठोके जाती है और टैक्स न देने वाले को बे-ईमान घोषित करती है तो वो सरकार खुद बे-ईमान है. अब मोदी जी के आसमानी निर्णय की बात. क्या उन्होंने यह निर्णय जनता पर थोपने से पहले जनता को मुल्क के खर्चे का हिसाब किताब बताया? जब वोट लेने थे तो घर-घर मोदी, हर-हर मोदी किया जा रहा था, लेकिन नोट छीनने से पहले घर-घर सरकारी खर्चे का हिसाब-किताब क्यों नहीं पहुँचाया? क्यूँ नहीं जनता से सलाह ली कि समाज में, निजाम में ऐसे क्या परिवर्तन किये जाएं कि लोगों को टैक्स आटे में नमक जैसा लगे? टैक्स की चोरी होती क्यूँ है? चूँकि वो नमक ही नहीं, आधे से ज़्यादा आटा भी छीन लेता है. आज अगर कोई झुग्गी वाला बच्चा पैदा करता है तो उसका खर्चा भी सरकार पर पड़ता है, उसे कहीं न कहीं सरकारी दवा, सरकारी अस्पताल, सरकारी स्कूल, सरकारी सुविधा की ज़रुरत पड़ती है. वो खर्चा हमारी आपकी जेब से निकालती है सरकार. और सिधांतत: सरकार हम ही हैं याद रहे. तो क्या हम ऐसी इजाज़त देते रहना चाहते हैं कि समाज में कोई भी बच्चों का अम्बार लगाता जाए और हम उसके लिए टैक्स भरते रहें. यानि करे कोई और भरे कोई, यह व्यवस्था है या कुव्यवस्था? तो यह जो मोदी जी या कोई भी नेता कहता है कि उनकी सरकार गरीबों के लिए है, उसका मतलब यही है कि जितने मर्ज़ी बच्चे पैदा करो, उनका खर्चा टैक्स के रूप में पैसे वालों की जेबों से निकाला जाएगा. और गरीब ताली बजाएगा. उसे पता नहीं ऐसा नेता उसका शुभ-चिन्तक नहीं है, उसका छुपा दुश्मन है. ऐसा नेता उसे समृधि नहीं, अनंत ग़रीबी की और धकेल रहा है और ऐसा नेता बाकी समाज को मजबूर कर रहा है अपनी मेहनत की कमाई इन गरीबों पर खर्च करने के लिए. जब मोदी जी जैसे नेतागण कहते हैं कि उनकी सरकार गरीबों के लिए है तो उसका मतलब साफ़ है, गरीब बने रहो, ज़रा से अमीर बनने का प्रयास भी किया तो सरकार हाथ-पैर धो कर तुम्हारे पीछे पड़ जायेगी. अमेरिका के बारे में एक बात प्रसिद्ध है कि America is a land of Opportunities. People in America can have a Great American Dream. यानि एक गरीब से गरीब व्यक्ति भी बुलंदियों पर पहुँच सकता है, लेकिन हमारे यहाँ के नेता कहते हैं कि उनकी सरकार गरीबों की सरकार है. वो भूल ही जाते हैं कि हर गरीब के अंतर-मन में अमीर होने की इच्छा है. वो भूल जाते हैं कि लोग साफ़ समझ रहे हैं कि ये नेतागण उनके अमीर होने में बाधक है. वो भूल जाते हैं कि हर सरकार को अमीर और गरीब दोनों का होना चाहिए, हर सरकार को हर गरीब को अमीर होने का मौका देना चाहिए. हर नेता को यह घोषित करना चाहिए कि उसके शासन में अमीर होना कोई गुनाह नहीं है. भाई मेरे, नेता कोई भी हो, भीड़ के सम्मोहन में फंस कर तालियाँ पीटने से समाज की समस्याएं हल नहीं होंगी. समस्या हल होती हैं उन पर गहरे में सोचने से. मोदी जी का नोट-बंदी का निर्णय मोदी जी और भाजपा के अस्तित्व के लिए निर्णायक सिद्ध होगा. चूँकि जब तक सरकार खुद बे-ईमान हो, निजाम खुद बे-ईमान हो, जब तक टैक्स आटे में नमक जैसे न हों, जब तक टैक्स का पैसा कहाँ कितना खर्च हो रहा है उसका जन-जन को हिसाब न दिया जाए, कहाँ कितना खर्च बढाया, जाए, घटाया जाए जन-जन से पूछा न जाए, तब तक किसी के पैसे को काला पैसा घोषित करने का किसी भी सरकार को कोई हक़ नहीं है. तब तक किसी को भी बे-ईमान घोषित करने का सरकार को कोई हक़ नहीं है. और जनता जो भी पैसा कमाती है, यदि वो चोरी-डकैती का नहीं है, किसी से धोखा-धड़ी करके नहीं इकट्ठा किया गया, किसी भी और किस्म के अपराध से हासिल नहीं किया गया तो वो सब सफेद है. और याद रखिये सरकार हमारी है. सरकार हम खुद हैं. प्रजातंत्र इसे ही कहते हैं. आज सभी विपक्षी राजनितिक दलों के पास मौका है, सुनहरा मौका. एक जुट हो जाएं और जनता को गहरे में समझाएं कि यह नीति कहाँ गलत है. जनता की दस-बीस दिन की दिक्कतों को गिनवाने मात्र से कुछ नहीं होगा, वो तो आज नहीं कल कम हो ही जानी हैं. वो मुद्दा कोई बहुत दूर तक फायदा नहीं देगा इन दलों को. फायदा तब मिलेगा जब मोदी-नीति गहरे में कहाँ गलत है, यह समझा और समझाया जाए. समाज-शास्त्र को बीच में लाया जाए. मुल्क की इकोनोमिक्स को बिलकुल आसान करके जनता को समझाये जाने का आग्रह किया जाए. जनता को उसका हक़ याद कराया जाए. जनता को जनतंत्र की परिभाषा समझाई जाए. मालिक को उसका हक़ दिया जाए और नौकर को उसकी जगह दिखाई जाए. और जनता को हक़ दिया जाए कि वो खुद फैसला कर सके कि क्या वो आटे में नमक से ज़्यादा टैक्स सरकार को देना चाहती है या नहीं, जनता को उसके मालिक होने का हक़ लौटाया जाए, उसे हक़ दिया जाए कि वो खुद तय कर सके कि सरकारी कामों के लिए कितना पैसा खर्च किया जाए, कहाँ खर्च बढ़ाया जाए, कहाँ घटाया जाए. जो दल ऐसा करने की हिम्मत करेंगे, वो अप्रत्याशित रूप से फायदे में रहेंगे. और जनता भी. और एक बात. मोदी-भक्ति ही देश-भक्ति नहीं है. और आरएसएस ही मात्र देश-भक्त नहीं है. और सरकार का विरोध देश-विरोध नहीं है, देश-द्रोह नहीं है. अपने वक्त की सरकारों का अक्सर लोग विरोध करते हैं और यह सबका प्रजातांत्रिक अधिकार है. और बहुत से लोग जो अपने समय की सरकारों का विरोध करते थे, उस वक्त जेलों में डाल दिए गए, फांसियों पर चढ़ा दिए गए और बाद में जन-गण को समझ आया कि उनसे बड़ा शुभ-चिन्तक कोई नहीं था. देशभक्ति की परिभाषा भी नेतागण ने अपने हिसाब से बना रखी है. वैसे यह जो सब कुछ मैंने लिखा २०१४ में भाजपा भी यही सब कहती थी. यकीन न हो तो भाजपा की spokes-person मीनाक्षी लेखी के विडियो youtube पर देख लीजिये. और भाजपा भी उन दलों में से एक है जिसने आज तक RTI के तले खुद को लाए जाने का विरोध ही किया है. कहानी आपने पढ़ी सुनी होगी. एक फ़कीर के पास कोई औरत गई कि “मेरे बच्चे को समझा दीजिए, बहुत ज़्यादा गुड़ खाता है.” फ़कीर ने कहा, “हफ्ते बाद आना.” औरत फिर आई. फ़कीर ने कहा,”चार दिन बाद आना.” वो चार दिन बाद आई. फ़कीर ने कहा, “दस दिन बाद आना.” वो दस दिन बाद आई. अब फ़कीर ने कहा, “लाओ बच्चे को.” बच्चा लाया गया. फ़कीर ने उसे समझाया, “गुड़ छोड़ दे बेटा. कभी-कभार ठीक है खाना, लेकिन हर वक्त खाना सही नहीं.” अब औरत हैरान! बोली, “भगवान, पहले दिन ही क्यूँ नहीं समझाया?” फ़कीर ने कहा, “बेटा तब मैं खुद खाता था बहुत ज़्यादा, इत्ते दिन मुझे लगे छोड़ने में और जो गलत काम खुद करता हो, बेहतर है वो खुद्द उसे छोड़े पहले तभी दूसरों को उपदेश दे.” अब पुरानी कहानी है. लेकिन हमारी राजीनीतिक पार्टियाँ समझती नहीं और भाजपा भी उनमें शामिल है. अपना काला-गोरा धन पब्लिक के सामने लाना नहीं चाहती और पब्लिक के अढाई लाख के पीछे पड़ी है. खैर, इलेक्शन में इनके गुड़ को गोबर कीजिये, तब्बे समझ आएगा इन्नो. आमिर खान की लगान फिल्म याद हो शायद आपको, सारा संघर्ष टैक्स कोलेकर था. आप-हम आज परवाह ही नहीं करते, कब-कहाँ से सरकार हमारे जेब काटती रहती है. शायद हमने मान लिया है कि सरकारें जब चाहें, जितना चाहें, जहाँ चाहे हम से पैसा वसूल सकती हैं. दफा कीजिये इस मिथ्या धारणा को और आज से यह देखना शुरू कीजिये कि आपकी सरकारें पैसा वसूल सरकारें हैं या नहीं...ठीकऐसे ही जैसे आप देखते हैं कि कोई फिल्म पैसा वसूल फिल्म है या नहीं निचोड़ यह है - - - 1. कोई धन ‘काला धन’ नहीं होता जब तक सरकार टैक्स आटे में नमक जैसा न लेती हो. 2. कोई व्यक्ति चोर नहीं होता जब तक सरकार टैक्स चोरों जैसे न लेती हो. 3. कोई व्यक्ति बे-ईमान नहीं होता जब तक सरकार खुद इमानदार न हो. 4. कोई टैक्स ही सही नहीं होता जब तक उसमें सबकी भागीदारी न हो. मतलब जो लोग टैक्स देने के काबिल न हों उनको इस मुल्क में बच्चे पैदा करने का हक़ भी क्यूँ हो? क्या आप पड़ोसी के बच्चे को पालने के लिए ज़िम्मेदार हैं. अगर नहीं तो फिर जो टैक्स नहीं भर सकते उनके बच्चे आप क्यूँ पालें? 5. कोई राजनितिक दल जब तक खुद काले -गोर चंदे के दल-दल में फंसा हो, धंसा हो, rti में आना न चाहता हो, कोई हक़ नहीं उसे जनता के साथ आँख मिला कर काला काल धन चिल्लाने का. 6. आपने दुकानदार देखें होंगे, ऐसे जो बस एक ही ग्राहक आ जाए तो उसे लूट लें. और ऐसे भी देखे होंगे जो होलसेल टाइप से काम करते हैं, बहुत कम कमाते हैं हर आइटम पर, लेकिन कुल मिला कर बहुत ज़्यादा कमाते हैं. बस यही समझना था हमारी सरकार को. इन बिन्दुओं पर सोचें, समझ आ जायेगी, देशद्रोह के, बेईमान के ठप्पे लगाने से कुछ नहीं होगा, दिमाग पर जोर देने से होगा. “नया समाज” मैं लिख रहा हूँ अक्सर कि एक सीमा के बाद निजी सम्पति अगली पीढी को नहीं जानी चाहिए.......बहुत मित्र तो इसे वामपंथ/ कम्युनिस्ट सोच कह कर ही खारिज कर रहे हैं.....आपको एक मिसाल देता हूँ......भारत में ज़मींदारी खत्म हुई कोई साठ साल पहले......पहले जो भी ज़मीन का मालिक था वोही रहता था...लेकिन कानून बदला गया....अब जो खेती कर रहा था उसे मालिक जैसे हक़ दिए गए.....उसे “भुमीदार” कहा जाने लगा...यहएक बड़ा बदलाव आया...."ज़मींदार से भुमिदार". भुमिदार ज़रूरी नहीं मालिक हो... वो खेती मज़दूर भी हो सकता था....वो बस खेती करता होना चाहिए किसी भूभाग पर....उसे हटा नहीं सकते....वो लगान देगा...किराया देगा...लेकिन उसकी अगली पीढी भी यदि चाहे तो खेती करेगी वहीं. कल अगर ज़मीन को सरकार छीन ले, अधिग्रहित कर ले तो उसका मुआवज़ा भी भुमिदार को मिलेगा यह था बड़ा फर्क यही फर्क मैं चाहता हूँ बाकी प्रॉपर्टी में आये......पूँजी पीढी दर पीढी ही सफर न करती रहे...चंद खानदानों की मल्कियत ही न बनी रहे ...एक सीमा के बाद पूंजी पब्लिक डोमेन में जानी चाहिए इसे दूसरे ढंग से समझें....आप कोई इजाद करते हैं...आपको पेटेंट मिल सकता है...लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि आप या आपकी आने वाली पीढ़ियों को हमेशा हमेशा के लिए उस पेटेंट पर एकाधिकार रहेगा..नहीं, एक समय सीमा के बाद वो खत्म हो जायेगा...फिर उस इजाद पर पब्लिक का हक़ होगा.....आप देखते हैं पुरानी क्लासिक रचनाएँ इन्टरनेट पर मुफ्त उपलब्ध हैं. धन भी एक तरह की इजाद है, एक सीमा तक आप रखें, उसके बाद पब्लिक डोमेन में जाना चाहिए एक और ढंग से समझें.....पैसे की क्रय शक्ति की सीमा तय की जा सकती है..और की जानी चाहिए यदि समाज में वो असंतुलन पैदा करता हो........आप कुछ दशक पीछे देखें राजा लोगों की एक से ज़्यादा बीवियां होती थीं....लेकिन आज बड़े से बड़ा राजनेता एक से ज़्यादा बीवी नहीं रख सकता ....रखैल रखे, चोरी छुपे रखे वो अलग बात है...खुले आम नहीं रख सकता....क्यूँ? चूँकि यदि आप पैसे वालों को एक से ज़्यादा स्त्री रखने का हक़ खुले आम दे देंगे तो समाज में असंतुलन पैदा होगा.....हडकम्प मच जायेगा...सो पैसे की सीमा तय की गयी एक और ढंग से समझें, आप घी तेल, चीनी जमा नहीं कर सकते...काला बाज़ारी माना जाएगा..लेकिन आप मकान जमा कर सकते हैं.....वो काला बाज़ारी क्यूँ नहीं है.....वो सम्मानित क्यूँ है? निवेश क्यूँ है? वो काला बाज़ारी क्यूँ नहीं है? बिलकुल है. जब आप घी, तेल, चीनी आदि जमा करते हैं तो समाज में हाय तौबा मच जाते है..आप बाकी लोगों को उनकी बेसिक ज़रूरत से मरहूम करते हैं.....आप जब मकान जमा करते हैं तब क्या होता है? आप को खुद तो ज़रुरत है नहीं. आप ज़रूरतमंद को लेने नहीं देते. आप बाज़ार पर कब्जा कर लेते हैं. आप निवेश के नाम पर हर बिकाऊ सौदा खरीद लेते हैं और उसे असल ज़रूरतमंद को अपनी मर्ज़ी के हिसाब से बेचते हैं. यह काला बाज़ारी नहीं तो और क्या है? एक निश्चित सीमा तक किसी भी व्यक्ति का कमाया धन उसके पास रहना चाहिए, उसकी अगली पीढ़ियों तक जाना चाहिए....इतना कि वो सब सम्मान से जी सकें.....बाकी पब्लिक डोमेन में ... आपको यह ना-इंसाफी लग सकती है ..लेकिन नहीं है... यह इन्साफ है....मिसाल लीजिये, आपके पास आज अरबों रुपैये हों..आप घर सोने का बना लें लेकिन बाहर सड़क खराब हो सकती है, हाईवे सिंगल लाइन हैं, दुतरफा ट्रैफिक वाले.....आपको इन पर सफर करना पड़ सकता है , एक्सीडेंट में मारे जा सकते हैं आप....साहिब सिंह वर्मा, जसपाल भट्टी और कितने ही जाने माने लोग सड़क एक्सीडेंट में मारे गए हैं .... दूसरी मिसाल लीजिये, समाज में यदि बहुत असंतुलन होगा, तो हो सकता है कि आपके बच्चे का कोई अपहरण कर ले, क़त्ल कर दे....अक्सर सुनते हैं कि बड़े अमीर लोगों के बच्चे अपहरण कर लिए जाते हैं और फिर फिरौती के चक्कर में मार भी दिए जाते हैं .... सो समाज में यदि पैसा बहेगा, सही ढंग से पैसा प्रयोग होगा तो व्यवस्था बेहतर होगी, संतुलन होगा, सभी सम्मानपूर्वक जी पायेंगे यदि तो उसका फायदा सबको होगा..अब मैं आज की व्यवस्था की बात नहीं कर रहा हूँ जिसमें व्यवस्थापक सबसे बड़ा चोर है......यह तब होना चाहिए जब व्यवस्था शीशे की तरह ट्रांसपेरेंट हो...और ऐसा जल्द ही हो सकता है...व्यवस्थापक को CCTV तले रखें, इतना भर काफी है और निजी पूँजी सीधे भी पब्लिक खाते में डाली जा सकती है, सीधे कोई भी व्यक्ति लाइब्रेरी, सस्ते अस्पताल, मुफ्त स्कूल बनवा सकता है और कुछ भी जिससे सब जन को फायदा मिलता हो मेरे हिसाब से यह पूंजीवाद और समाजवाद का मिश्रण है, ऐसा हम अभी भी करते हैं...तमाम तरह के अनाप शनाप टैक्स लगा कर जनता से पैसा छीनते हैं और जनता के फायदे में लगाने का ड्रामा करते हैं, कर ही रहे हैं. लेकिन यदि यह व्यवस्था सही होती तो आज अधिकांश लोग फटे-हाल नहीं, खुश-हाल होते. सो ज़रुरत है, बदलाव की. व्यवस्था शीशे जैसे ट्रांसपेरेंट हो....टैक्स बहुत कम लिया जाए..आटे में नमक जैसा. अभी तो सुनता हूँ कि यदि सब टैक्स जोड़ लिया जाए तो सौ में पचास पैसा टैक्स में चला जाता है...यह चोर बाज़ारी नहीं तो और क्या है? कोई टैक्स न दे तो उसका पैसा दो नम्बर का हो गया, काला हो गया. इडियट. कभी ध्यान दिया सरकार चलाने को, निजाम चलाने को, ताम-झाम चलाने को जो पैसा खर्च किया जाता है, यदि ढंग से उसका लेखा-जोखा किया जाए तो मेरे हिसाब से आधा पैसा खराब होता होगा..आधे में ही काम चल जाएगा....फ़िज़ूल की विदेश यात्रा, फ़िज़ूल के राष्ट्रीय उत्सव, शपथ ग्रहण समारोह, और सरकारी नौकरों को अंधी तनख्वाह.....किसके सर से मुंडते हैं?...सब जनता से न. जनता से हिसाब लेते है कि क्या कमाया, क्या खाया, क्या हगा, क्या मूता, कभी जनता को हिसाब दिया, कभी बताया कि कहाँ कहाँ पैसा खराब किया, कहाँ कहाँ बचाया जा सकता था, कभी जनता की राय ली कि क्या क्या काम बंद करें/ चालू करें तो जनता पर टैक्स का बोझ कम पड़े. व्यवस्था बेहतर होगी तो आपको वैसे भी बहुत कम पुलिस, वकील, जज, अकाउंटेंट, डॉक्टर, आदि की ज़रुरत पड़ने वाली है ..सरकारी खर्चे और घट जायेंगे. व्यवस्था शीशे की तरह हो, व्यवस्थापक अपने खर्चे का जनता को हिसाब दें, जनता से अपने खर्च कम ज़्यादा करने की राय लें...जहाँ खर्च घटाए जा सकते हैं, वहां घटाएं...टैक्स कम से कम हों.......निजी पूंजी को एक सीमा के बाद पब्लिक के खाते में लायें.....यह होगा ढंग गरीब और अमीर के बीच फासले को कम करने का....समाज को आर्थिक चक्रव्यूह से निकालने का अब इसमें यह भी जोड़ लीजिये कि जब निजी पूँजी पर अंकुश लगाया जाना है तो निजी बच्चे पर भी अंकुश लगाना ज़रूरी है....सब बच्चे समाज के हैं.....निजी होने के बाद भी...यदि अँधा-धुंध बच्चे पैदा करेंगे तो समाज पर बोझ पड़ेगा....सिर्फ खाने, पीने, रहने, बसने, चलने फिरने का ही नहीं, उनकी जहालत का भी. एक जाहिल इंसान पूरे समाज के लिए खतरा है, उसे बड़ी आसानी से गुमराह किया जा सकता है. भला कौन समझदार व्यक्ति अपने तन पर बम बाँध कर खुद भी मरेगा और दूसरे आम जन को भी मारेगा? जाहिल है, इसलिए दुष्प्रयोग किया हा सकता है. बड़ी आसानी से कहीं भी उससे जिंदाबाद मुर्दाबाद करवाया जा सकता है. असल में समाज की बदहाली का ज़िम्मेदार ही यह जाहिल तबका है. उसके पास वोट की ताकत और थमा दी गयी है. सो यह दुश्चक्र चलता रहता है. एक बच्चे को शिक्षित करने में सालों लगते हैं, पैसा लगता है, मेहनत लगती है......आज बच्चा पैदा करने का हक़ निजी है लेकिन अस्पताल सरकारी चाहिए, स्कूल सरकारी चाहिए..नहीं, यह ऐसे नहीं चलना चाहिए, यदि आपको सरकार से हर मदद चाहिए, सार्वजानिक मदद चाहिए तो आपको बच्चा भी सार्वजानिक हितों को ध्यान में रख कर ही पैदा करने की इजाज़त मिलेगी. आप स्वस्थ हैं, नहीं है, शिक्षित हैं नहीं है, कमाते हैं या नहीं..और भी बहुत कुछ. बच्चा पैदा करने का हक़ कमाना होगा. वो हक़ जन्मजात नहीं दिया जा सकता. उसके लिए यह भी देखना होगा कि एक भू भाग आसानी से कितनी जनसंख्या झेल सकता है, उसके लिए सब तरह के वैज्ञानिकों से राय ली जा सकती है, आंकड़े देखे जा सकते हैं, उसके बाद तय किया जा सकता है. जैसे मानो आज आप तय करते हैं कि अमरनाथ यात्रा पर एक समय में एक निश्चित संख्या में ही लोग भेजे जाने चाहिए..ठीक वैसे ही बस फिर क्या है, समाज आपका खुश-हाल होगा, जन्नत के आपको ख्वाब देखने की ज़रुरत नहीं होगी, ज़िंदगी पैसे कमाने मात्र के लिए नहीं होगी, आप सूर्य की गर्मी और चाँद की नरमी को महसूस कर पायेंगे, फूलों के खिलने को और दोस्तों के गले मिलने का अहसास अपने अंदर तक समा पायेंगे अभी आप हम, जीते थोड़ा न हैं, बस जीने का भ्रम पाले हैं जीवन कमाने के लिए है जैसे, जब कोई मुझ से यह पूछता है कि मैं क्या करता हूँ और जवाब में यदि मैं कहूं कि लेखक हूँ, वक्ता हूँ, वो समझेगा बेरोजगार हूँ, ठाली हूँ...कहूं कि विवादित सम्पत्तियों का कारोबारी हूँ तो समझेगा कि ज़रूर कोई बड़ा तीर मारता होवूँगा कुछ मैंने कहा, बाकी आप कहें, स्वागत है नमन.....कॉपी राईट लेखन.......तुषार कॉस्मिक.

Sunday, 4 December 2016

देशद्रोही-- सर जी, मेरे एक दोस्त को अधरंग था.
भक्त--- दुःख की बात है लेकिन मुझे क्यों बता रहा है?
देशद्रोही-- सर जी, उसका एक दोस्त एथलेटिक का कोच था.
भक्त--- तो मुझे क्यों बता रहा है?
देशद्रोही-- सर जी, सुनो तो, वो कोच दोस्त उसे अंतर-राष्ट्रीय एथलेटिक प्रतियोगिता में जबरदस्ती ले गया.
भक्त--- बढ़िया है.
देशद्रोही-- और न सिर्फ ले गया, बल्कि वहां सौ मीटर की दौड़ में दौड़ा भी दिया.
भक्त--- हम्म...... लेकिन मुझे क्यों बता रहा है?
देशद्रोही-- वो मर गया सर जी.
भक्त--- दुःख की बात है यार यह तो.
देशद्रोही-- सर जी, क्या बेहतर नहीं था कि पहले उसे ठीक हो जाने देते. ताकि उसके अंग-प्रत्यंग ठीक से काम कर सकें? फिर उसे वर्ल्ड क्लास ट्रेनिंग दी जाती, फिर दौड़ा लेते. प्रतियोगिता ठीक से फाइट तो करता वो, और क्या पता कोई मैडल भी जीत लेता?
भक्त— बात तो ठीक है यार तेरी.
देशद्रोही-- सर जी, वो दोस्त और कोई नहीं मेरा भारत है, जिसकी आधी आबादी की इकॉनमी को अधरंग हो रखा है, पहले ही कैश-लेस थी, उसके पास ठीक से रहने, खाने तक का कैश नहीं था, उसे मोदी जी जबरन कैशलेस करने लगे हैं. वो मर जाएगा सर जी.
भक्त—अबे चोप्प!देशद्रोही!!
देशद्रोही--- सर जी, अगर कोई हो तो अपनी पार्टी की ख़ासियत बताएं.
भक्त----- अबे, हमारी पार्टी इकलौती पार्टी है, जो पाक-साफ़ है. यू क्नो, “पार्टी-विद-ए-डिफरेंस”.
देशद्रोही--- सर जी, सच में क्या?
भक्त---- और नहीं तो क्या? हम कोई आम-आदमी-पार्टी के नेताओं जैसे थोड़ा न है, जो रोज़ पकड़े जाते हैं.
देशद्रोही--- लेकिन सर जी, वो तो ज्यादातर तो ऐसे केस हैं जो पोकेट-मार पर भी न बने. और उनमें से ज्यादातर तो कोर्ट ने रद्द दिए हैं.
भक्त- अबे, तू मूर्ख है, तुझे समझ नहीं आएगी. सिर्फ हमारी पार्टी ही इमानदार है.
देशद्रोही- सर जी, लेकिन आपकी पार्टी के प्रमुख बंगारू लक्ष्मण तो सरे-आम रिश्वत लेते हुए पकडे गए थे.
भक्त- हाँ बे, लेकिन वो इक्का-दुक्का केस था.
देशद्रोही---- सर जी, लेकिन वो पार्टी प्रमुख थे. और फिर आपकी ही पार्टी के बड़े नेता राघव जी अपने नौकर के साथ सेक्स सम्बन्धों में पकड़े गए थे.
भक्त- अबे! उसे पार्टी से निकाल तो दिया गया था.
देशद्रोही--- सर जी, वो तो केजरीवाल भी कर रह है.
भक्त- फिर भी हमारी पार्टी ही “पार्टी-विद-ए-डिफरेंस” है. ये इक्का-दुक्का केस है.
देशद्रोही--- लेकिन सर जी, आपके मोदी जी भी कोई कम हैं क्या?
भक्त- अबे, क्या बक रहा है? उन्होंने आज तक एक पैसा रिश्वत नहीं ली.
देशद्रोही--- सर जी, भ्रष्टाचार सिर्फ रिश्वत लेना ही थोड़ा न होता है. इसका तो मतलब है आचार, व्यवहार भ्रष्ट होना. और उस परिभाषा से मोदी जी भी भ्रष्टाचारी हैं.
भक्त--- क्या बक रहा है बे? मोदी जी पर उंगली मत उठाना, वरना ऊंगली ही नहीं, हाथ काट देंगे. हाथ ही नहीं बाजु काट देंगे.
देशद्रोही--- लेकिन सर जी, मैं साबित कर सकता हूँ.
भक्त---कर, बक और न किया न तो देख लिओ तेरी खैर नहीं.
देशद्रोही--- सर जी, मोदी जी ने चुनावी भाषणों में हर भारतीय के खातों में पन्द्रह-पन्द्रह लाख डलवाने का ऐलान किया था अगर उनकी सरकार बनेगी तो.
भक्त--- अबे, तो उससे वो भ्रष्टाचारी हो गए?
देशद्रोही--- सर जी, उससे नहीं हुए. जब अमित शाह ने कहा कि मोदी जी के बोल-बच्चन जुमला मात्र थे, तब हुए. झूठ बोल कर प्रजातंत्र को हैक करने से हुए. संसद की सीढियो पर सर टिकाने से कोई देश- भक्त नहीं होता, देश भक्त तब होता है जब भ्रष्टाचारी न हो, मतलब जब उसका आचार भ्रष्ट न हो, मतलब जब उसने वोट छीनने के लिए झूठ फरेब का सहारा न लिया हो.
भक्त—अबे चोप, देशद्रोही!
भक्त----- मोदी, मोदी, मोदी.
हर हर मोदी, घर घर मोदी.
देशद्रोही--- लेकिन सर जी, वो उमा भारती तो कहती हैं कि मोदी सिर्फ मीडिया द्वारा भरा गया गुब्बारा हैं.
भक्त---- अबे वो विरोधिओं की चाल है सब.
देशद्रोही--- लेकिन सर जी, उमा जी तो भाजपा से ही सम्बन्धित हैं. और वो रामजेठमलानी भी कहते हैं कि मोदी ने उनको उल्लू बनाया है.
भक्त-- अबे वो भी विरोधिओं की चाल है.
देशद्रोही-- सर जी, लेकिन वो भी तो आपकी पार्टी से ही सम्बन्धित रहे हैं. और सर जी, वो शत्रुघ्न सिन्हा भी नोट-बैन पर कुछ सवाल उठा रहे हैं.
भक्त--- हाँ बे, वो भी विरोधिओं की चाल है.
देशद्रोही--- लेकिन वो भी तो आपकी पार्टी से ही सम्बन्धित हैं.और सर जी,वो मीनाक्षी लेखी ने भी पीछे कहा था कि नोट-बंदी बहुत गलत कदम होगा.
भक्त--- हाँ बे, वो भी विरोधिओं की चाल है.
देशद्रोही---- सर जी, लेकिन वो भी तो आपकी ही पार्टी से हैं. और वो राज ठाकरे भी कहते हैं कि मोदी जी सरकारी पैसे से अपनी पार्टी की रैली करते हैं. रैली के लिए जिस हेलीकाप्टर में उड़ते हैं वो भी सरकारे पैसे से उड़ता है. न सिर्फ वो बल्कि 25 हेलीकाप्टर तब तक हवा में उड़ते हैं, जब तक मोदी जी रैली को सम्बोधित करते हैं, सब सरकारी पैसे से. सरकारी मतलब जनता के पैसे से. जनता के पैसे से मोदी जी अपनी पार्टी का प्रचार करते हैं.
भक्त-- अबे, राज ठाकरे हमारी पार्टी से नहीं है.
देश-द्रोही-- लेकिन सर जी, वो आपके विरोधी भी तो नहीं हैं.
और..........
भक्त--- अबे चोप, देशद्रोही!
देशद्रोही--- सर जी, सुना है, अमित शाह बीजेपी नेताओं के बैंक अकाउंट चेक करेंगे.
भक्त----- मैं न कहता था शुरू से हमारी पार्टी सबसे ईमानदार है.
देशद्रोही--- लेकिन सर जी, फिर थे शायद आज़ादी से लेकर आज तक का सारा हिसाब राष्ट्र के आगे रख देंगे भाजपा नेताओं का. मल्ल्ब रोडपति से कैसे करोड़पति बने ज़रा ‘आम अमरुद आदमी’ को भी इतना जल्ली अमीर होने का नुस्खा मिल जाएगा. नहीं?
भक्त---- अबे क्या बकैती करता है, वो तो बस नोट-बंदी के दौर की ही चेकिंग होनी है.
देशद्रोही--- हम्म्म्म.......तो सर जी, भाजपा अपनी पार्टी का अकाउंट तो ज़ाहिर कर ही देगी कि उनके पास कितना पैसा आया, किस से आया? खास करके मोदी जी के चुनाव का खर्च किसने वहन किया वो तो पता लगा ही जाएगा. नहीं?
भक्त- अबे, चोप. वो तो बस नोट-बंदी के दौर की ही चेकिंग होनी है.

देशद्रोही--- चलिए सर जी, इतना भर तो बता ही देंगे अमित शाह कि जो 1100 करोड़ रुपये मोदी जी के कार्य-काल में advertisement पर खर्च किये हुए हैं, उनमें से कुछ भी पैसा उनकी पार्टी प्रचार में नहीं गया. नहीं?
भक्त—अबे चोप, देशद्रोही!
देशद्रोही--- सर जी, मोदीजी के कार्यकाल की कोई उपलब्धि और बताएं.
भक्त----- मोदी जी ने “मेक इन इंडिया” चलाया.
देशद्रोही--- लेकिन सर जी, सुना है वो ‘मेक इन इंडिया’ का शेर भी इंडिया से बाहर की कम्पनी ने बनाया है.
भक्त- उससे क्या होता है? तुम उनकी योजना का मतलब समझो.
देशद्रोही-----सर जी, लेकिन “मेड इन इंडिया” क्यूँ नहीं? या “मेड इन इंडिया बाय इंडियन” क्यूँ नहीं? मतलब हम भारतीयों के हाथ पैर, दिमाग कुछ कम है कि हमारे मुल्क में हम आमंत्रित करें दुनिया भर को कि आओ और यहाँ आकर उद्योग लगाओ. मतलब मोदी जी ने यह पहले से ही कैसे मान लिया कि हम खुद कुछ नहीं बना सकते?
भक्त---- अरे वो बाहर से टेक्नोलॉजी आयेगी, बाहर के तकनीशियन आयेंगे, बाहर की पूंजी आयेगी तो यहाँ रोज़गार पैदा होगा.
देशद्रोही--- मतलब न हम तकनीक पैदा कर सकते हैं, न सीख सकते हैं, न पूंजी पैदा कर सकते हैं. और न ढंग का रोज़गार. हम सिर्फ लेबर टाइप काम ही कर सकते हैं. यही न?
भक्त- अरे भाई, हमारे पास अपार युवा शक्ति है, इसे रोज़गार भी तो देना है कि नहीं.
देशद्रोही--- सर जी, उसके लिए “मेक-इन-इंडिया” क्यों? मेड-इन-इंडिया क्यों नहीं? मैक-डोनाल्ड बेकार सा बर्गर हमारे मुल्क में बेच सकता है, डोमिनो पिज़्ज़ा बेच-बेच अमीर बन सकता है तो हम अपना डोसा, अपने छोले भटूरे, अपने परांठे वर्ल्ड लेवल पर क्यूँ नहीं ले जा सकते? रामदेव सौ-सौ साल पुराने कम्पनी को जड़ से उखाड़ सकते हैं तो मेड-इन-इंडिया क्यों नहीं? श्री श्री रविशंकर भी बढ़िया प्रोडक्ट बना रहे हैं तो मेड-इन-इंडिया क्यों नहीं?
भक्त—अबे कैसे कहूँ चोप, देशद्रोही? अबकी बार तो समझ ही नहीं आ रहा यार.
देशद्रोही--- सर जी, कभी आपने देखा है कि कोई मर जाए और फिर से जिंदा हो जाए.
भक्त------ पागल हुए हो, ऐसा कभी होता है?
देशद्रोही-- होता है, होता है. आठ तारीख को हमारे मुल्क के हज़ार और पांच सौ के नोट मर गए थे और बीस दिन बाद पता लगा कि इनमें जान है अभी. आधी ही सही.
भक्त---- अबे चोप! कहाँ की कहाँ जोड़ता है.
देशद्रोही---सर जी, एक कहावत का मतलब ही बता दीजिए?
भक्त—---कौन सी?
देशद्रोही-- थूक कर चाटना?
भक्त—---अबे चोप्प! देशद्रोही!!
देशद्रोही--- सर जी, सुना है सुप्रीम कोर्ट से बहुत खुश हैं आप कि सिनेमा में फिल्म चलने से पहले अब राष्ट्र गान चलना अनिवार्य कर दिया उनने.
भक्त---- खुश तो होने की बात ही है, अब तो सुप्रीम कोर्ट भी राष्ट्र-वादी होती जा रही है?
देशद्रोही------ लेकिन सर जी, आप तो राष्ट्र-गान का विरोध नहीं करते थे कि रोबिन्द्र नाथ टैगोर ने यह जार्ज पंचम के स्वागत में लिखा था न कि भारत की शान में.
भक्त- जो भी हो अपना सुप्रीम कोर्ट है बढ़िया.
देशद्रोही--- सर जी, अभी चार दिन पहले ही तो आप कोर्ट को गरिआते फिर रहे थे जब उसने नोट-बंदी पर आपकी सरकार को हिदायत दी थी कि पब्लिक का ध्यान रखो वरना दंगे भड़क सकते हैं.
भक्त—अबे चोप्प! देशद्रोही!!
भक्त---- इनकम टैक्स का साल भर बाद हिस्साब देने में जब इतनी परेशानी है तो सोचो मारने के बाद भगवान को हिसाब देने में कितनी दिक्कत होगी.
देशद्रोही------ सर जी, सीधा कहो न कि सरकार को भगवान मान लिया जाए.
भक्त—वैसे ऐसा है तो नहीं लेकिन तुम चाहो तो ऐसा ही मान लो.
देशद्रोही--- तो सर जी अपुन तो नास्तिक हैं.
भक्त—अबे चोप्प! देशद्रोही!!
मार्क्स से बचा नहीं जा सकता...हर व्यवस्था में मार्क्स रहेंगे... लेकिन विकृत या सुकृत रूप में, यह सवाल है?
देशद्रोही—सुना है सर जी आप सुप्रीम कोर्ट से बहुत खुश हैं कि राष्ट्र-गान सिनेमा में फिल्म चलने से पहले अनिवार्य कर दिया है उनने?
भक्त- बिलकुल. बात ही खुशी की है. अपने राष्ट्र की जय का गान है यह.
देशद्रोही- और सुना है सर जी आप पाकिस्तान के ऊपर जो कथित सर्जिकल स्ट्राइक की है उससे भी बहुत खुश हैं. सही है क्या?
भक्त--- पाकिस्तान की ईंट से ईंट बजा देनी चाहिए.
देशद्रोही---- सर जी, जिस राष्ट्र-गान को आप अपने राष्ट्र की जय का गान बता रहे हैं उसी में गाया जाता है,
“जनगणमन-अधिनायक जय हे भारतभाग्यविधाता!
पंजाब ‘सिन्धु’ गुजरात मराठा द्राविड़ उत्कल बंग
विन्ध्य हिमाचल यमुना गंगा उच्छलजलधितरंग
तव शुभ नामे जागे, तव शुभ आशिष मागे,
गाहे तव जयगाथा।
जनगणमंगलदायक जय हे भारतभाग्यविधाता!
जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे।।”
सर जी, इस गान में तो “सिन्धु” भी और सिन्धु प्रदेश तो अब पाकिस्तान में है तो निश्चित ही हमारा राष्ट्र गान सही नहीं है और जब सही नहीं तो फिर आपकी खुशी भी सही नहीं. नहीं?
भक्त—अबे चोप्प! देशद्रोही!!
देशद्रोही--- सर जी, आप तो घोर राष्ट्रवादी हैं. नहीं?
भक्त---- हैं. कोई शक? घोर ही नहीं घनघोर हैं.
देशद्रोही------ सर जी, आप तो भारतभूमि को ही सर्वश्रेष्ठ मानते हैं, नहीं?
भक्त— बिलकुल भारत ही विश्व-गुरु था और विश्व-गुरु बनेगा.
देशद्रोही--- सर जी आप तो “वसुधैव कुटुम्बकम” की धारणा में भी विश्वास करते हैं. नहीं?.
भक्त— बिलकुल, यह महान विचार भी अपने ही राष्ट्र की देन है.
देशद्रोही--- सर जी आप तो “विश्व बंधुत्व” की धारणा में भी विश्वास करते होंगे. नहीं?
भक्त— बिलकुल, यह महान विचार भी अपने ही राष्ट्र की देन है.
देशद्रोही-- सर जी, अगर सच में ही आप “वसुधैव कुटुम्बकम” और “विश्व बंधुत्व” में यकीन करते हैं तो आप की यह जिद्द नहीं होती कि भारत ही सर्वश्रेष्ठ है. यह घमण्ड नहीं तो और क्या है?
भक्त—अबे चोप्प!
देशद्रोही--- कुटुम्ब तो कुटुम्ब है न सर जी, कोई एक ही व्यक्ति महान हो, बाकी हीन हों तो यह कैसा कुटुम्ब होगा?
एक ही व्यक्ति गुरु रहे हमेशा, यह कैसा कुटुम्ब होगा?
किसी बंधुत्व में एक ही व्यक्ति महान हो, एक ही व्यक्ति विशेष रहे, एक ही व्यक्ति गुर रहे, यह कैसा बंधुत्व होगा?
यह कैसा संतुलन होगा?
नहीं सर जी, आपका राष्ट्र-वाद सिवा आपे घमंड के विस्तार के कुछ भी नहीं.
भक्त—अबे चोप्प! देशद्रोही!!

‘यन्त्रणा’

‘यन्त्रणा’. यह शब्द बहुत गहरा है. इसका शाब्दिक अर्थ है कष्ट , भयंकर कष्ट. लेकिन गहन अर्थ है यंत्र की भांति जीना. जैसे ही हम स्व-चैतन्य खो कर यंत्र हो जाते हैं, प्रोग्राम्ड हो जाते हैं तो जीवन यन्त्रणा हो जाता. इसकी पुलक खो हो जाती है. इसका असल खो जाता है. बहुत पहले "लैंडमार्क फोरम" नाम से वर्कशॉप अटेंड की थी. उसका निचोड़ यह था कि हम सब मशीन हैं, यंत्र हैं. उसका मतलब था कि हम सब का जीवन यन्त्रणा मात्र है.थोड़ा ध्यान से देखें, हम सब को समाज ने बचपन से ही यंत्र में तब्दील करने में कोई कसर नहीं छोडी. हमारे सब विचार किसी और के हैं. बस किसी और की फीडिंग. और हम समझ रहे हैं कि हम विचारशील है. यह ऐसे ही है जैसे एक रोबोट जिसका रिमोट किसी और के हाथ में हो, लेकिन वो गाता रहे, "मैं खुद-मुख्तार हूँ, मैं खुद-मुख्तार हूँ", जबकि उसे कभी पता ही न लगे कि यह जो वो गा रहा है कि वो खुद-मुख्तार है, वो भी बस फीडिंग है. वो गाना भी रिमोट-कण्ट्रोल से उससे गवाया जा रहा है. जब तक इस फीडिंग को नहीं तोडेंगे, जब तक इस यांत्रिकता से बाहर नहीं आयेंगे जीवन यन्त्रणा ही रहेगा.
देशद्रोही--- सर जी, आरएसएस मतलब संघ में ध्वज को ही गुरु माना गया है, सच है क्या?
भक्त---- बिलकुल, हम भगवा ध्वज को ही नमन करते हैं. हमारे यहाँ व्यक्ति नहीं, विचार की पूजा होती है.
देशद्रोही------ बढ़िया बात है सर जी, फिर ये मोदी मोदी चिल्लाने वाले लोग तो देश द्रोही होंगे न? मूर्ख व्यक्ति-पूजक!
भक्त- अबे चोप्प! देशद्रोही!!
"कुछ दिन पहले"
देशद्रोही--- सर जी, सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को हिदायत दी है कि नोट-बंदी की वजह से लोगों को ज़्यादा परेशानी न हो इसका ख्याल रखा जाए, कहीं दंगे ही न भड़क जाएं.
भक्त--- चोर हैं खुद. देशद्रोही कहीं के.
"कुछ दिन बाद"
देशद्रोही-- सर जी, सुप्रीम कोर्ट ने फिल्म से पहले सिनेमा हाल में राष्ट्र-गान अनिवार्य कर दिया है.
भक्त—बढ़िया. बधाई हो, सुप्रीम कोर्ट भी राष्ट्र- वादी बनती जा रही है.
"आज"
देशद्रोही-- सर जी, सुप्रीम कोर्ट ने अदालती कार्रवाई से पहले राष्ट्र-गान अनिवार्य किये जाने वाली याचिका को नकार दिया है और केंद्र सरकार से पूछा है कि नोट- बंदी की वजह से लोगों को हो रही मुश्किलें दूर करने के लिए क्या किया?
भक्त- अबे चोप्प! देश द्रोही!!
भक्त--- हम राष्ट्रवादी हैं और हमसे बड़ा देश-भक्त न कोई हुआ है और न होगा.
देशद्रोही-- है सर जी है, और एक नहीं कई हैं. मैं अब्बी का अब्बी साबित कर सकता हूँ.
भक्त ---- कर. और अगर न किया तो तेरी टाँगे तोड़ दूंगा.
देशद्रोही-- राज ठाकरे....उद्धव ठाकरे..........और.........
भक्त---अबे पॉइंट पर आ न, इनके नाम लेने से क्या होगा?
देशद्रोही---- ये आप सबसे बड़े राष्ट्र-वादी हैं?
भक्त---- कैसे?
देशद्रोही ---- चूँकि ये महाराष्ट्र-वादी हैं.
भक्त---- अबे चोप्प! देशद्रोही!!
ओवेसी- मैं फ़कीर हूँ, कलन्दर हूँ.

मोदी— मैं फ़कीर हूँ, झोला लेकर चल पडूंगा.


दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, मैं हमेशा कहता हूँ. एक ही सिक्के के दो पहलु. सिर्फ़ शक्लें अलग हैं.

एक अच्छा राजनैतिक वक्ता वो ही माना जाता है जो शब्दों की ऐसी धुंध पैदा कर दे कि सच्चाई की कोई किरण आप तक पहुँच ही न पाए.


Saturday, 3 December 2016

"राष्ट्र और राष्ट्र-वाद-- कोढ़ और कोढ़ में खाज"

पृथ्वी पर राजनैतिक लकीरों के अलावा राष्ट्र कुछ भी नहीं हैं. इन राजनैतिक लकीरों को अंतिम तथ्य और सत्य मानना सिवा मूढ़ता के कुछ नहीं.

और भारत तो कभी ऐसा राष्ट्र रहा ही नहीं जैसा आज है, वरना आपको राष्ट्र में ही महाराष्ट्र और सौराष्ट्र कैसे मिल सकता है? छोटे गिलास में बड़ा गिलास? कैसे सम्भव?

आज आप अपने राष्ट्र-गान में पंजाब और सिंध का ज़िक्र करते हैं, जबकि न तो आपका पंजाब अब पांच नदियों का रहा और न ही सिंध आपके राष्ट्र का हिस्सा रहा.

आप आज भी अपने एक प्रदेश को पश्चिमी बंगाल मानते हैं, जबकि वो आपके राष्ट्र के पूर्व में है. हाँ, लेकिन वो बंगला-देश के निश्चित ही पश्चिम में है. तो सही है, आपका मानना कि यह पश्चिमी बंगाल है. यानि कहीं गहरे में आपको पता है कि वो प्रदेश बांग्ला-देश का हिस्सा है.

आप कश्मीर को अपना अटूट अंग मानते हैं लेकिन आपके राष्ट्र के लगभग सभी ACT के शुरू में लिखा रहता है कि वो बाकी सब प्रदेशों पर लागू हैं, सिवा जम्मू और कश्मीर. मतलब आपके जिस प्रदेश पर आपके देश के कायदा-कानून लागू ही नहीं होते, आप उसे दुनिया को अपने देश का अटूट अंग बताते आ रहे हैं, बच्चों को पढ़ाते आ रहे हैं. जबकि भीतर से आप को सब पता है कि असलियत क्या है.
आज भी बिहारी मज़दूर दिल्ली में जब होता है तो बिहार को अपना मुलुक बताता है.

तो भाई, जिसे आज आप राष्ट्र कहते हैं वो सिर्फ अंग्रेज़ों की मेहरबानी से है और पन्द्रह अगस्त को जिस भारत का विभाजन हुआ आप बताते हैं, वो अंग्रेज़ों का बनाया, जोड़ा भारत था. एक बात.

दूसरी बात यह कि राष्ट्र कोई सॉलिड एंटिटी नहीं हैं कि आज जितना है, वो उतना ही रहेगा या है भी, कुछ पक्का नहीं है. वो सब जोड़-तोड़ का परिणाम है. राजनैतिक जोड़-तोड़. वो कोई अंतिम तथ्य और सत्य है ही नहीं.

तीसरी बात राष्ट्र सिर्फ एक बुराई हैं. पृथ्वी एक है. यहाँ से चाँद देखते हो तो क्या वहां की कोई राजनैतिक लकीरें दिखाई देंगी आपको, यदि हों तो? या चाँद से आपको पृथ्वी की राजनैतिक लकीरें दिखेंगी?

राष्ट्र इस बात का सबूत हैं कि इंसान इतना mature, समझदार हो नहीं पाया कि एक यूनिट की तरह रह पाए. विविधता में सामंजस्य बिठा ही नहीं पाया. वो टुकड़ा-टुकड़ा बंटा है. उसे एक दूसरे के खिलाफ हर दम फौजें तैनात करके रखनी पड़ती हैं. यह सबूत है कि इन्सान सभ्यता के नाम पर कहाँ खड़ा है? यह एक जंगल है, इंसान का बनाया जंगल, जो कुदरत के जंगल से कहीं खतरनाक है.

इसे हम सभ्यता कहते हैं और इस पर गर्व करना चाहते हैं! सभ्यता का अर्थ है सभा में बैठने लायक बनना. तो हम सभा में बैठने लायक हो गए हैं, सभ्य हो गए हैं, बस एक दूसरे के खिलाफ एटम बम ताने रखते हैं.

हम टुकड़ा-टुकड़ा बंटी पृथ्वी को अंतिम सत्य और तथ्य मानना चाहते हैं. इस बुराई को अच्छाई मानना चाहते हैं.

हमारा राष्ट्र-गान, हमारे राष्ट्र ध्वज, हमारे राष्ट्र-चिन्ह सब इस बुराई का प्रतीक हैं. और अब तो इसमें हमारा सुप्रीम कोर्ट तक शामिल है. बाकी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ तो है ही महान.

राष्ट्र बुराई हैं और राष्ट्र-वाद उससे बड़ी बुराई है. राष्ट्र एक नेसेसरी ईविल है. भौतिकी में एक सिद्धांत है नेसेसरी ईविल का. जैसे फ्रिक्शन. इसे नेसेसरी ईविल माना जाता है. इसके बिना गति सम्भव नहीं है, लेकिन यह बहुत ज़्यादा हो तो भी गति सम्भव नहीं है. तो इसका होना गति के लिए ज़रूरी है. यह अवरोधक होते हुए भी गति में सहायक है. ज़रूरी बुराई.

तो ठीक है, राष्ट्र है. अन्तिम सत्य नहीं है, अंतिम तथ्य नहीं हैं लेकिन जैसे भी है, वैसे तो हैं ही. तो उनको उसी तरह से स्वीकार करना हमारी मजबूरी है. मतलब हम राष्ट्र को सिर्फ इस नजरिये से देख सकते हैं कि ये एक तथ्य हैं, लेकिन अंतिम तथ्य नहीं हैं, ये हैं लेकिन इनका होना कोई गुण नहीं, अवगुण है मानव सोच समझ का. ये हैं, लेकिन ये मानव सभ्यता का कलंक हैं. ये हैं, तभी 'वसुधैव कुटुम्बकम' की धारणा धारणा मात्र है. ये हैं, तभी 'विश्व बंधुत्व' सिर्फ किताबी बात है. ये हैं, लेकिन ये एक लानत हैं.

लेकिन राष्ट्र-वाद इनको महिमा मंडित करता है. वो कहता है कि भारत-भूमि ही सर्वश्रेष्ठ है. वो कहता है कि भारत ही विश्व गुरु था और बनेगा. वो कहता है कि पृथ्वी का बाकी सब हिस्सा दोयम दर्जे का है, सिर्फ यही टुकड़ा विशेष है. वो कहता है कि राष्ट्र ही सत्य है और तथ्य है. इस राष्ट्र-वाद से बचना है. ऐसे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघो से बचना है.

राष्ट्र बस वक्ती ज़रूरत है.
राष्ट्र नेसेसरी ईविल हैं.
राष्ट्र वर्चुअल रियलिटी हैं.

वर्चुअल रियलिटी मतलब “आभासी वास्तविकता”. ऐसी वास्तिवकता जो सिर्फ आभासी है. जो है नहीं, लेकिन उसका होना असल लगता है. जैसे आप 3-D फिल्म देखते हैं, कुल प्रयास यह है कि फिल्म आपको वास्तविकता प्रतीत हो. तो राष्ट्र अपने आप में कुछ हैं नहीं, लेकिन नेता का कुल प्रयास है कि आपको राष्ट्र असलियत लगें. वो लड़वा देगा गरीब के बच्चों को इसके नामपर, मरवा देगा.

Samuel Johnson बहुत पहले कह गए थे कि देश-भक्ति गुंडों की अंतिम शरण स्थली है और उनके ये शब्द दुनिया के बेहतरीन कथनों में शुमार है . लेकिन हमारा सुप्रीम कोर्ट हमें राष्ट्र-भक्ति सिखा रहा है. बढ़िया है भाई.

राष्ट्र- वाद की अंध-भक्ति से बचना होगा, चूँकि असल में तो राष्ट्र और राष्ट्र-वाद दोनों को विदा होना चाहिए इस पृथ्वी से, चूँकि एक कोढ़ है तो दूसरा कोढ़ में खाज.

नमन..तुषार कॉस्मिक

Wednesday, 30 November 2016

आप बहुत खुश हैं चूँकि कहीं आप अमीरों से जलते थे

भक्त- मोदी जी ने बढ़िया कर दिया जो अमीरों का अरबों रूपया मिटटी हो गया.
देशद्रोही- सर जी, आप बहुत खुश हैं.
भक्त- वो तो हूँ. साले चोर. मुल्क का सारा पैसा दबा कर बैठे थे.
देशद्रोही- सर जी, आप सच इस वजह से खुश हैं या इस वजह से कि आप अमीरों से जलते थे कि वो जो मज़े कर रहा था और आप नहीं कर पा रहे.
भक्त- अबे जले मेरी जूती. भाग. देश द्रोही!!

मोदी जी और यूनान का कोई भविष्य-वक्ता

भक्त- यूनान का कोई भविष्य-वक्ता पहले ही कह गया था कि मोदी जी, दशकों तक भारत पर राज करेंगे.
देश-द्रोही- सर जी, आपको नाम पता है उस भविष्य-वक्ता का?
भक्त- उससे क्या फर्क पड़ता है?
देश-द्रोही- आपने खुद पढ़ा है उस का लिखा?
भक्त-नहीं. लेकिन उससे क्या फर्क पड़ता है. औरों ने पढ़ा है.
देश-द्रोही- उस भविष्य-वक्ता का नाम Nastrodamus है और उसके लेख से अगर आप यह सिद्ध करना चाहो कि दावूद इब्राहीम भी प्रधानमन्त्री बन सकता है भारत का, तो ऐसा कर सकते हैं आप. उसकी शब्द ऐसे है कि जो मर्ज़ी मतलब निकाल ले कोई.
भक्त- अबे तो फिर ठीक है जो मतलब हम ने निकाला वो ठीक भी हो सकता है. है कि नहीं?
देश-द्रोही- लेकिन जो मतलब कोई और निकाले, वो भी ठीक हो सकता है. है कि नहीं?
भक्त- नहीं, उसने मोदी जी के बारे में ही लिखा है और तू नहीं समझेगा. भाग. देश-द्रोही!

मोदी जी को वोट की राजनीति नहीं करते

भक्त- मोदी जी को वोट की राजनीति नहीं करते. उनको पता था कि वोट कट सकते हैं. फिर भी देश-हित में नोट बंदी की. की न?
देश-द्रोही- सर जी, लेकिन पिछले इलेक्शन में पैसा तो उन्होंने पानी की तरह बहाया था. घर-घर मोदी, हर-हर मोदी ऐसे ही तो नहीं हो गया था.
भक्त- उससे क्या फर्क पड़ता है? वो तो बाकी सभी पार्टी वाले भी कर रहे थे.
देश-द्रोही- लेकिन मोदी जी अगर वोट की राजनीति नहीं करते तो फिर दो-दो जगह से इलेक्शन क्यूँ लड़ रहे थे?
भक्त- अबे वो सब देश-सेवा के लिए ज़रूरी था.
देश-द्रोही--- तो सर जी, अगर आगे हम उनको वोट न दें तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा न. मोदी जी वोट की राजनीति थोड़े न करते हैं. नहीं?
भक्त- अबे चोप! देशद्रोही!!

आम आदमी ऑन रिकॉर्ड/ ऑफ रिकॉर्ड

भक्त- जितने भी सर्वे हुए हैं, लोगों ने नोट-बंदी की सराहना की है.
देश-द्रोही- सर जी, सर्वे सब नकली हैं.
भक्त- कैसे?
देश-द्रोही--- मरना है, किसी ने मोदी जी के खिलाफ बोल के? वो केजरीवाल दिल्ली में क्या जीत गया, दिल्ली की और केजरीवाल की और उसके साथियों की ऐसी-की-तैसी कर रखी है मोदी जी ने. आम आदमी की क्या औकात?
भक्त- आम आदमी आम-आदमी-पार्टी के साथ नहीं है, वो मोदी जी के साथ है.
देश-द्रोही- सर जी, आम आदमी सिर्फ ओन रिकॉर्ड ही कह रहा है कि मोदी जी ने बहुत अच्छा किया. ऑफ रिकॉर्ड तो वो यही कह रहा है कि मोदी ने हमारे नोट खत्म कर दिए, हम मोदी के वोट खत्म कर देंगे.
भक्त- चोप. ऐसा कुछ नहीं है. तुम देश-द्रोही हो . बस

2000 का नोट और रिश्वत

भक्त- 1000 और 500 के नोट इसलिए बंद किये गए हैं कि बड़े नोटों से रिश्वत देना आसान होता है.
देश-द्रोही-- लेकिन फिर 2000 का नोट किस लिए सर जी?
भक्त - वो भी बंद कर दिया जाएगा.
देश-द्रोही-- फिर चालू ही क्यूँ किया सर जी?
भक्त- अबे चोप! देशद्रोही!!