पृथ्वी पर राजनैतिक लकीरों के अलावा राष्ट्र कुछ भी नहीं हैं. इन राजनैतिक लकीरों को अंतिम तथ्य और सत्य मानना सिवा मूढ़ता के कुछ नहीं.
और भारत तो कभी ऐसा राष्ट्र रहा ही नहीं जैसा आज है, वरना आपको राष्ट्र में ही महाराष्ट्र और सौराष्ट्र कैसे मिल सकता है? छोटे गिलास में बड़ा गिलास? कैसे सम्भव?
आज आप अपने राष्ट्र-गान में पंजाब और सिंध का ज़िक्र करते हैं, जबकि न तो आपका पंजाब अब पांच नदियों का रहा और न ही सिंध आपके राष्ट्र का हिस्सा रहा.
आप आज भी अपने एक प्रदेश को पश्चिमी बंगाल मानते हैं, जबकि वो आपके राष्ट्र के पूर्व में है. हाँ, लेकिन वो बंगला-देश के निश्चित ही पश्चिम में है. तो सही है, आपका मानना कि यह पश्चिमी बंगाल है. यानि कहीं गहरे में आपको पता है कि वो प्रदेश बांग्ला-देश का हिस्सा है.
आप कश्मीर को अपना अटूट अंग मानते हैं लेकिन आपके राष्ट्र के लगभग सभी ACT के शुरू में लिखा रहता है कि वो बाकी सब प्रदेशों पर लागू हैं, सिवा जम्मू और कश्मीर. मतलब आपके जिस प्रदेश पर आपके देश के कायदा-कानून लागू ही नहीं होते, आप उसे दुनिया को अपने देश का अटूट अंग बताते आ रहे हैं, बच्चों को पढ़ाते आ रहे हैं. जबकि भीतर से आप को सब पता है कि असलियत क्या है.
आज भी बिहारी मज़दूर दिल्ली में जब होता है तो बिहार को अपना मुलुक बताता है.
तो भाई, जिसे आज आप राष्ट्र कहते हैं वो सिर्फ अंग्रेज़ों की मेहरबानी से है और पन्द्रह अगस्त को जिस भारत का विभाजन हुआ आप बताते हैं, वो अंग्रेज़ों का बनाया, जोड़ा भारत था. एक बात.
दूसरी बात यह कि राष्ट्र कोई सॉलिड एंटिटी नहीं हैं कि आज जितना है, वो उतना ही रहेगा या है भी, कुछ पक्का नहीं है. वो सब जोड़-तोड़ का परिणाम है. राजनैतिक जोड़-तोड़. वो कोई अंतिम तथ्य और सत्य है ही नहीं.
तीसरी बात राष्ट्र सिर्फ एक बुराई हैं. पृथ्वी एक है. यहाँ से चाँद देखते हो तो क्या वहां की कोई राजनैतिक लकीरें दिखाई देंगी आपको, यदि हों तो? या चाँद से आपको पृथ्वी की राजनैतिक लकीरें दिखेंगी?
राष्ट्र इस बात का सबूत हैं कि इंसान इतना mature, समझदार हो नहीं पाया कि एक यूनिट की तरह रह पाए. विविधता में सामंजस्य बिठा ही नहीं पाया. वो टुकड़ा-टुकड़ा बंटा है. उसे एक दूसरे के खिलाफ हर दम फौजें तैनात करके रखनी पड़ती हैं. यह सबूत है कि इन्सान सभ्यता के नाम पर कहाँ खड़ा है? यह एक जंगल है, इंसान का बनाया जंगल, जो कुदरत के जंगल से कहीं खतरनाक है.
इसे हम सभ्यता कहते हैं और इस पर गर्व करना चाहते हैं! सभ्यता का अर्थ है सभा में बैठने लायक बनना. तो हम सभा में बैठने लायक हो गए हैं, सभ्य हो गए हैं, बस एक दूसरे के खिलाफ एटम बम ताने रखते हैं.
हम टुकड़ा-टुकड़ा बंटी पृथ्वी को अंतिम सत्य और तथ्य मानना चाहते हैं. इस बुराई को अच्छाई मानना चाहते हैं.
हमारा राष्ट्र-गान, हमारे राष्ट्र ध्वज, हमारे राष्ट्र-चिन्ह सब इस बुराई का प्रतीक हैं. और अब तो इसमें हमारा सुप्रीम कोर्ट तक शामिल है. बाकी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ तो है ही महान.
राष्ट्र बुराई हैं और राष्ट्र-वाद उससे बड़ी बुराई है. राष्ट्र एक नेसेसरी ईविल है. भौतिकी में एक सिद्धांत है नेसेसरी ईविल का. जैसे फ्रिक्शन. इसे नेसेसरी ईविल माना जाता है. इसके बिना गति सम्भव नहीं है, लेकिन यह बहुत ज़्यादा हो तो भी गति सम्भव नहीं है. तो इसका होना गति के लिए ज़रूरी है. यह अवरोधक होते हुए भी गति में सहायक है. ज़रूरी बुराई.
तो ठीक है, राष्ट्र है. अन्तिम सत्य नहीं है, अंतिम तथ्य नहीं हैं लेकिन जैसे भी है, वैसे तो हैं ही. तो उनको उसी तरह से स्वीकार करना हमारी मजबूरी है. मतलब हम राष्ट्र को सिर्फ इस नजरिये से देख सकते हैं कि ये एक तथ्य हैं, लेकिन अंतिम तथ्य नहीं हैं, ये हैं लेकिन इनका होना कोई गुण नहीं, अवगुण है मानव सोच समझ का. ये हैं, लेकिन ये मानव सभ्यता का कलंक हैं. ये हैं, तभी 'वसुधैव कुटुम्बकम' की धारणा धारणा मात्र है. ये हैं, तभी 'विश्व बंधुत्व' सिर्फ किताबी बात है. ये हैं, लेकिन ये एक लानत हैं.
लेकिन राष्ट्र-वाद इनको महिमा मंडित करता है. वो कहता है कि भारत-भूमि ही सर्वश्रेष्ठ है. वो कहता है कि भारत ही विश्व गुरु था और बनेगा. वो कहता है कि पृथ्वी का बाकी सब हिस्सा दोयम दर्जे का है, सिर्फ यही टुकड़ा विशेष है. वो कहता है कि राष्ट्र ही सत्य है और तथ्य है. इस राष्ट्र-वाद से बचना है. ऐसे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघो से बचना है.
राष्ट्र बस वक्ती ज़रूरत है.
राष्ट्र नेसेसरी ईविल हैं.
राष्ट्र वर्चुअल रियलिटी हैं.
वर्चुअल रियलिटी मतलब “आभासी वास्तविकता”. ऐसी वास्तिवकता जो सिर्फ आभासी है. जो है नहीं, लेकिन उसका होना असल लगता है. जैसे आप 3-D फिल्म देखते हैं, कुल प्रयास यह है कि फिल्म आपको वास्तविकता प्रतीत हो. तो राष्ट्र अपने आप में कुछ हैं नहीं, लेकिन नेता का कुल प्रयास है कि आपको राष्ट्र असलियत लगें. वो लड़वा देगा गरीब के बच्चों को इसके नामपर, मरवा देगा.
Samuel Johnson बहुत पहले कह गए थे कि देश-भक्ति गुंडों की अंतिम शरण स्थली है और उनके ये शब्द दुनिया के बेहतरीन कथनों में शुमार है . लेकिन हमारा सुप्रीम कोर्ट हमें राष्ट्र-भक्ति सिखा रहा है. बढ़िया है भाई.
राष्ट्र- वाद की अंध-भक्ति से बचना होगा, चूँकि असल में तो राष्ट्र और राष्ट्र-वाद दोनों को विदा होना चाहिए इस पृथ्वी से, चूँकि एक कोढ़ है तो दूसरा कोढ़ में खाज.
नमन..तुषार कॉस्मिक
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