Saturday, 17 June 2017

तोप से गुलेल का काम न लेना चाहिए. हम तोप हैं, दुनिया की होप हैं ए ज़िंदगी. बाकी मर्ज़ी.
जिस दिन 'छोले भठूरे' और 'पकौड़े समोसे' बेचने को आप Entrepreneurship समझने लगेंगे, समझ लीजियेगा कि बिज़नस समझ आने लगा.

Friday, 16 June 2017

वकील मित्रों के चैम्बर में था....खाकी लिफाफे लीगल नोटिस भेजने को तैयार किये जा रहे थे......डाक टिकेट लगाये जा रहे थे... उचक कर देखा मैंने. टिकेट पर एक चेहरा था, नाम लिखा था 'श्रीलाल शुक्ल'.
मैं उत्साहित हो कर बोला, "मैडम, आपको पता है ये कौन हैं?"
"नहीं."
"मैडम, ये हिंदी के बड़े लेखक हैं श्रीलाल शुक्ल...इनकी कृति है 'राग दरबारी'. महान कृति मानी जाती है."
उनका ध्यान अपने काम में चला गया और मैं खुश होता रहा मन ही मन. कितना अच्छा है कि लेखक और वो भी हिंदी के लेखक को सम्मान दिया गया. क्या हम मुंशी प्रेम चंद, भगवती चरण वर्मा, अमृता प्रीतम, खुशवंत सिंह, नानक सिंह आदि को बच्चों तक पहुंचा पायेंगे? क्या हम अपने पेंटर, मूर्तिकार, नाटक-कार को कभी सम्मान देंगे? मैं मन ही मन बड़बड़ाता रहा.
ध्यान आया कि गायकों को हम जो आज सर आँखों पर बिठाते हैं, हमेशा ऐसा नहीं था. गाना-बजाना बहुत हल्का पेशा समझा जाता था. मिरासियों का काम. पंजाब के ज़्यादातर गायक जो पचीस तीस साल पीछे के हैं, वो हल्के समझे जाने वाले समाज से आते थे. फिर समाज पलटा, गाने को वो स्थान मिला कि आज जो नहीं है गायक, वो भी गायक बने जा रहा है. मैं मन ही मन बड़बड़ाता रहा.
काश लेखकों, गायकों, कहानीकारों, गीतकारों, मूर्तिकारों, चित्रकारों, वैज्ञानिकों के नाम डाक टिकटों पर नहीं, लोगों के ज़ेहनों में अंकित हों! काश!!
मैं मन ही मन बड़बड़ाता रहा.

CANNIBALISM

इसका अर्थ है इन्सान का इंसानी मांस खाना. मानवाहार. क्या लगता है आपको कि इंसान सभ्य हो गया, वो कैसे ऐसा काम कर सकता है? कैसे कोई प्यारे-प्यारे बच्चों का मांस खा सकता है? कैसे कोई बेटी जैसी लड़की का मांस खा सकता है? कैसे कोई बाप जैसे वृद्ध का मांस खा सकता है? लेग-पीस. बोटी. पुट्ठा. कैसे? कैसे? गलत हैं आप. कहीं पढ़ा था कि ईदी अमीन नाम का शख्स, किसी अमेरिकी मुल्क का अगुआ, जब पकड़ा गया तो उसके फ्रिज में इंसानी मांस के टुकड़े मिले. अभी कुछ साल पहले नॉएडा में पंधेर नामक आदमी और उसका नौकर मिल कर बच्चों को मार कर खाते पाए गए थे. और आप और हम क्या करते हैं? हम इक दूजे का मांस खाते हैं, बस तरीका थोड़ा सूक्ष्म हो गया है, ऊपरी तौर पर दीखता नहीं है. जब आप किसी गरीब का पचास हजार रूपया मार लेते हैं, जो उसने तीन साल में इकट्ठा किया था तो आपने उसके तीन साल खा लिए. आपने उसके जिस्म-जान का लगभग दस प्रतिशत खा लिया. आप उसके बच्चों का, प्यारे बच्चों के तन का, मन का कुछ हिस्सा खा गए. उसके बूढ़े बाप को खा गए, उसकी बेटी को खा गए. बाबा नानक एक बार सैदपुर पहुंचे.शहर का मुखिया मालिक भागो ज़ुल्म और बेईमानी से धनी बना था. जब मलिक भागो को नानक देव जी के आने का पता चला, तो वो उन्हें अपने महल में ठहराना चाहता था, लेकिन गुरु जी ने एक गरीब के छोटे से घर को ठहरने के लिए चुना. उस आदमी का नाम भाई लालो था. भाई लालो बहुत खुश हुआ और वो बड़े आदर-सत्कार से गुरुजी की सेवा करने लगा. नानक देव जी बड़े प्रेम से उसकी रूखी-सूखी रोटी खाते थे. मलिक को बहुत गुस्सा आया और उसने गुरुजी को पूछा, "गुरुजी मैंने आपके ठहरने का बहुत बढ़िया इंतजाम किया था. कई सारे स्वादिष्ट व्यंजन भी बनवाए थे, फिर भी आप उस लालो की सूखी रोटी खा रहे हो, क्यों?" गुरुजी ने उत्तर दिया, "मैं तुम्हारा भोजन नहीं खा सकता, क्योंकि तुमने गरीबों का खून चूस कर ये रोटी कमाई है. जबकि लालो की सूखी रोटी उसकी ईमानदारी और मेहनत की कमाई है". गुरुजी की ये बात सुनकर, मलिक भागो ने गुरुजी से इसका सबूत देने को कहा. गुरुजी ने लालो के घर से रोटी का एक टुकड़ा मंगवाया. फिर शहर के लोगों के भारी जमावड़े के सामने, गुरुजी ने एक हाथ में भाई लालो की सूखी रोटी और दूसरे हाथ में मलिक भागो की चुपड़ी रोटी उठाई. दोनों रोटियों को ज़ोर से हाथों में दबाया तो लालो की रोटी से दूध और मलिक भागो की रोटी से खून टपकने लगा. यह कहानी हुबहू सच्ची न भी हो तब भी सच्ची है. है कि नहीं? आप शाकाहारी हैं, मांसाहारी है, मुद्दा है लेकिन आप मानवाहारी हैं या नहीं, यह भी मुद्दा है. बड़ा मुद्दा. अब कहो खुद को सभ्य. है हिम्मत? गर्व से खुद को हिन्दू, सिक्ख, मुसलमान बाद में कहना भाई, पहले गर्व से खुद को सभ्य कहने लायक तो हो जाओ. नमन...तुषार कॉस्मिक

Thursday, 15 June 2017

डॉक्टर भगवान का रूप माना जाता है, मैं तो कहता हूँ वकील भी भगवान है और चार्टर्ड अकाउंटेंट भी. आपकी जमानत न हो रही हो, तब देखो आपको वकील भगवान लगेगा कि नहीं? आपको इनकम टैक्स डिपार्टमेंट की प्रेम पाती मिली हो तो आप कहाँ मत्था टेकेंगे? सीधे सी ए के पास. मुसीबत में यही आपको-हमको बचाते हैं. बस मामला वहां गड़बड़ा जाता है, जब भगवान खुद पैसों के पुजारी बनने लगते हैं. अगर पैसों का संतुलन भी बना रहे तो ये वाले पेशे वाकई नोबल हैं, जैसे कि कहे भी जाते हैं. लेकिन संतुलन बना रहे तभी.
"बहुत मारा साब आपने, अपुन बस एक मारा, लेकिन सच्ची बोलो, सॉलिड मारा कि नहीं?" अमिताभ विनोद खन्ना से पिटने के बाद.
"बहुत लिखते हैं फेसबुक पे धुरंधर, मठाधीश. अपुन तो बस चिंदी-पिंदी, गैर-मालूम आदमी. लेकिन जित्ता लिखते हैं, करारा लिखते हैं कि नहीं बॉस?" तुषार कॉस्मिक

अबे तुम इंसान हो या उल्लू के पट्ठे, आओ मंथन करो

उल्लू के प्रति बहुत नाइंसाफी की है मनुष्यता ने.......उसे मूर्खता का प्रतीक धर लिया...... उल्लू यदि अपने ग्रन्थ लिखेगा तो उसमें इंसान को मूर्ख शिरोमणि मानेगा......जो ज्यादा सही भी है.........अरे, उल्लू को दिन में नही दिखता, क्या हो गया फिर? उसे रात में तो दिखता है. इंसान को तो आँखें होते हुए, अक्ल होते हुए न दिन में, न रात में कुछ दिखता है या फिर कुछ का कुछ दिखता है. इसलिए ये जो phrase है न UKP यानि "उल्लू का पट्ठा" जो तुम लोग, मूर्ख इंसानों के लिए प्रयोग करते हो, इसे तो छोड़ ही दो, कुछ और शब्द ढूंढो.

और गधा-वधा कहना भी छोड़ दो, गधे कितने शरीफ हैं, किसी की गर्दनें काटते हैं क्या ISIS की तरह? या फिर एटम बम फैंकते हैं क्या अमरीका की तरह?

कुछ और सोचो, हाँ किसी भी जानवर को अपनी नामावली में शामिल मत करना...कुत्ता-वुत्ता भी मत कहना, बेचारा कुत्ता तो बेहद प्यारा जीव है......वफादार. इंसान तो अपने सगे बाप का भी सगा नही.

तो फिर घूम फिर के एक ही शब्द प्रयोग कर लो अपने लिए..."इन्सान"...तुम्हारे लिए इससे बड़ी कोई गाली नही हो सकती...चूँकि इंसानियत तो तुम में है नहीं....और है भी तो वो अधूरी है चूँकि उसमें कुत्तियत, बिल्लियत , गधियत, उल्लुयत शामिल नही हैं...सो जब भी एक दूजे को गाली देनी हो, "इंसान" ही कह लिया करो....ओये इन्सान!!!! तुम्हारे लिए खुद को इंसान कहलाना ही सबसे बड़ी गाली हो सकती है.

अब मेरी यह सर्च-रिसर्च 'डॉक्टर राम रहीम सिंह इंसान' को मत बताना, वरना बेचारे कीकू शारदा की तरह मुझे भी लपेट लेगा...हाहहहाहा!!!!!
ये जो किसान के लिए टसुये बहा रहे हैं कि उसकी फसल की कीमत कम मिलती है, ज़रा तैयार हो जाएँ गोभी सौ रुपये किलो खरीदने को.

जब किसान एकड़ों के हिसाब से ज़मीन का मालिक था तब तो गाने गाता था, "पुत्त जट्टां दे बुलाओंदे बकरे......" ज़्यादा पीछे नहीं, मात्र पचीस-तीस साल पुरानी बात है.

बच्चों-पे-बच्चे पैदा किये गया, ज़मीन बंटती गई, दिहाड़ी मजदूर रह गया तो अब सड़क पर आ गया है. और करो बच्चे पैदा और फिर कहो कि सरकार की गलती है. सरकार पेट भरे. सरकार काम-धेनु गाय है न.

भैये, सरकार के पास पैसा आसमान से नहीं गिरता, टैक्स देने वालों से आता है. सिर्फ सरकार पर ही दोषारोपण मत करो.
किसी के नाम के आगे "जी" न लगाना अपमान नहीं है, सम्मान नहीं देना है. और दोनों एक ही बात नहीं है. अगर मैं किसी को सम्मान नहीं दे रहा तो इसका अर्थ बस इतना ही है कि मैं उसे सम्मान नहीं दे रहा, इसका मतलब अपमान करना नहीं है. अपमान इससे अगला कदम है. है कि नहीं? यह मैं इसलिए लिख रहा हूँ कि किसी बन्धु ने बड़ा इशू बना लिया कि मैंनेे उस के नाम के आगे "जी" नहीं लगाया.

मुझे आप पसंद कर ही नहीं सकते

मुझे आप पसंद कर ही नहीं सकते. मैं चीज़ ही ऐसी हूँ.
अगर मैंने राम के खिलाफ लिखा तो आरक्षण-भोगी खुश हुआ, मुसलमान खुश हुआ लेकिन जब मैंने आरक्षण के खिलाफ लिखा और इस्लाम के खिलाफ लिखा, तो इनने सोचा यह क्या बीमारी है.
जब मैंने सब तथा-कथित धर्मों के खिलाफ लिखा तो नास्तिक खुश हुआ लेकिन जब मैंने कहा कि मैं नास्तिक नहीं हूँ तो उनने सोचा कि यह क्या गड़बड़झाला है.

जब मैंने आरएसएस के खिलाफ लिखा, मोदी के खिलाफ लिखा तो मुसलमान खुश हुआ लेकिन जब मैं कुरान की विध्वंसक आयतें ला सामने रखी तो त्राहि-त्राहि मच गई.
जब मैंने भिंडरावाले के खिलाफ लिखा तो उन्हें लगा कि मैं संघी हूँ, फिर साबित करना पड़ा कि मैं तो लम्बा आर्टिकल लिख चुका, "मैंने संघ क्यूँ छोड़ा".
केजरीवाल के खिलाफ लिखा तो संघी खुश हुआ, लेकिन उससे ज़्यादा तो संघ के खिलाफ लिख चुका.
बहुत कम चांस हैं कि आप मेरे लेख पसंद कर सकें. लेकिन फिर भी पढ़ें मेरा लिखा. इसलिए नहीं कि आपको पसंद आएगा. इसलिए कि आपको जीवन के अलग-अलग पहलूओं पर मेरा नज़रिया नज़र आएगा. और उससे हो सकता है आपकी नज़र तेज़ हो जाए या फिर नज़रिये पर लगा चश्मा उतर जाए.
और मेरे छुप्पे पाठक भी हैं, जो छुप-छुप पढ़ते हैं. आप बड़े लोग हो भई, ऐसे ही बने रहें, बस बने रहें.
और जो कोई मित्र यदा-कदा किसी महानता का मुझ में दर्शन करते हैं, उनको बता दूं ऐसा कुछ भी नहीं है, मैं आज भी तीस रुपये वाले मटर-कुलचा खाता हूँ रेहड़ी पर, और गुस्सा आने पर गाली-गलौच करता हूँ. इससे ज़्यादा मेरी औकात नहीं है और महान वाली कोई बात नहीं है
मैं तो आज ही कह रहा था वी.....तीस हजारी कोर्ट अपने वकील मित्रों के चैम्बर में बैठा था तो, "मेरा बस चला कभी तो बठिंडा वापिस जा बसूँगा..... बच्चे जाएँ, जहाँ जाना हो, जापान, कनाडा....मैं तो दिल्ली से ही आजिज़ आ चुका, आगे कहाँ जाऊँगा? वापिस जाऊँगा बठिंडा...और हो सका तो वहां भी शहर नहीं, किसी साथ लगती बस्ती में."
मुझे पता है दुनिया आगे बढ़ती है....पीछे लौट ही नहीं सकती...और मैं भी नहीं लौट पाऊँगा. जानता हूँ कि कभी हो नहीं पायेगा...... लेकिन क्या करूं? मुझे तो नहीं भाता महानगर.
कुछ यही बात मेरी भाषा पर भी लागू होती....मेरी अधिवक्ता कहती हैं कि मेरी हिंदी भाषा बहुत अच्छी है, अंग्रेज़ी भी ठीक ही है....लेकिन मुझ पर तो पंजाबी हावी है आज तक...वो भी मालवा वाली.....पेंडू टाइप.....गंवारू ....मुझे Iqbal Singh Shahi ने फोन किया था कुछ दिन पहले और दोनों ठेठ पंजाबी बोल रहे थे.........वारिस शाह न आदता जान्दियाँ ने, भावें कटटीए पोरियाँ पोरियाँ जी.....वादडीयां सज्जादडीयां निभन सिरा दे नाल.
अपुन ठहरे बैकवर्ड लोग. थोड़ा झेल लीजिये बस.
सीखना हो तो आप कैसे भी सीख सकते हैं.
कैलकुलेटर में एक होता है "री-चेक बटन". कमाल की चीज़ है. यह आपको हर शाम अपने दिमाग में प्रयोग करना चाहिए, गलतियाँ सही करने में मदद मिलेगी.
फेसबुक का "ब्लाक बटन" बहुत काम की चीज़ है. इसे ज़िन्दगी में भी प्रयोग करें. जिससे नहीं ताल-मेल बैठता दफा करें. सबकी सबके साथ थोड़ा न ट्यूनिंग बैठती है.

Sunday, 11 June 2017

"सरकार समर्थन मूल्य घोषित करती है । लेकिन मंडी में इससे कम में बिचोलिये खरीदते है। इसपर शक्ति से रोक लगनी चाइए। गरीबो के नाम पर भाव नहीं बढ़ाते ।गरीबो को पालने का बोझ किसान पर नहीं डाल कर सरकार को उठाना चाइये" Gopal Chawda ji.
"आपकी बात सही है कि गरीबों को पालने के लिए यह सब दिक्कत है......असल बात ही यह है कि जनसंख्या वृद्धि अनियंत्रित है.....गरीब बच्चा पैदा करता जाता है...उसका पैदईशी हक है पैदा करना.....लेकिन उसके लिए पूरे समाज को भुगतना पड़ता है...सो कहीं न कहीं, किसी न किसी को उसके और उसके परिवार का भरण-पोषण का खर्च वहन करना पड़ता है. अगर यह बोझ किसान के सर से हटा भी लेंगे तो कहीं और पड़ेगा...तो हल यह नही है कि बोझ सरकार उठाये...वो टैक्स भरने वालों पर ही पड़ेगा...लेकिन पड़े ही क्यूँ? यह है असल मुद्दा. तो जन्म वृद्धि पर नए नियम, नए नियंत्रण करे बिना समस्या हल नहीं होगी." तुषार कॉस्मिक
मैंने केजरीवाल की नियत पर कभी शक नहीं किया है लेकिन उनकी अक्ल पर मुझे हमेशा शंका रही है. बहुत पहले मैंने एक लेख लिखा था "मूर्ख केजरीवाल". एक मिसाल देता हूँ अपनी मान्यता के पक्ष में.
जरनैल सिंह राजौरी गार्डन दिल्ली सीट के सिटींग MLA थे. उन्हें उखाड़ कर पंजाब में चुनाव लड़वा दिया.
नतीजा जानते हैं क्या हुआ? दोनों सीट गवा दीं.
यह केजरीवाल की महान मूर्खता का जिंदा नमूना है. पंजाब के चुनाव में पंजाब का व्यक्ति न लड़वा कर दिल्ली का व्यक्ति लड़वाना यह कहाँ की समझदारी थी? पंजाब के लोग टिकट लेने को मरे जा रहे थे, लेकिन टिकट दी दिल्ली के आदमी को. वाह भाई वाह!
और दिल्ली की जीती सीट को छोड़ना, यह कहाँ की समझदारी थी? क्या सोचा कि सरदार खुस होगा? साबासी देगा?
सरदार ने धो दिया. बम्पर वोट से भाजपा के मनजिंदर सिंह सिरसा जीते. कल्लो बात. बड़े आये.
केजरीवाल के रूप में एक उम्मीद तो भारत में जगी थी, लेकिन उनकी अक्ल की कमी ने वो धुल-धूसरित कर रखी है. हां, हम और आप होते तो बात कुछ और होती. नहीं?

Saturday, 10 June 2017

औकात

भिखारी अपनी औकात के हिसाब से भीख नहीं मांगता, सामने वाले की औकात के अनुसार मांगता है. जैसे साइकिल वाला होगा तो उससे दस-बीस रूपया नहीं, एक दो रूपया ही मांगेगा. और ऑडी या मरसडीज़ कार वाला होगा तो पचास-सौ रूपया मांगेगा.
तो साहेबान-कद्रदान, यह मसल सिर्फ भीख मांगने में ही फिट नहीं होती, हर व्यापार में फिट होती है.
डॉक्टर, चार्टर्ड अकाउंटेंट, वकील से लेकर इलेक्ट्रीशियन, प्लम्बर, नाई, हलवाई तक आपको अपनी हैसियत, अपनी लियाकत के अनुसार चार्ज नहीं करते, आपकी हैसियत के हिसाब से 'काटते' हैं.
यह 'काटना' शब्द बिलकुल सही है. इंसान इंसान को 'काटता' है. शारीरिक रूप से न सही, आर्थिक रूप से सही. और अर्थ शरीर का ही हिस्सा है, जैसे किसी ने ऑटो चला के दस लाख रुपये जोड़े दस साल में तो यह उसके शरीर, उसकी उम्र के दस साल को काटना हुआ कि नहीं अगर उसके साथ धोखा हो गया दस लाख का तो?
अब अक्सर सही लगता है कि जो पिछली पीढी के लोग रूपया जेब में होते हुए भी चवन्नी ही दिखाते थे.

बिजी-बिजी

सेठ जी फोन पर व्यस्त थे........उनके केबिन में कुछ ग्राहक दाख़िल हुए लेकिन सेठ जी की बात फोन पर ज़ारी रही......लाखों के सौदे की बात थी....फिर करोड़ों तक जा पहुँची.........फोन पर ही करोड़ों की डील निबटा दी उन्होंने......ग्राहक अपनी बारी आने के इंतज़ार में उतावले भी हो रहे थे....लेकिन अंदर ही अंदर प्रभावित भी हो रहे थे........ इतने में ही एक साधारण सा दिखने वाला आदमी दाख़िल हुआ.........वो कुछ देर खड़ा रहा....फिर सेठ जी को टोका, लेकिन सेठ जी ने उसे डांट दिया, बोले, "देख नहीं रहे भाई , अभी बिजी हूँ"......वो आदमी थोड़ी देर खड़ा रहा, फिर से उसने सेठ जी को टोका, सेठ जी ने फिर से उसे डपट दिया............सेठ जी फिर व्यस्त हो गए......अब उस आदमी से रहा न गया, वो चिल्ला कर बोला , “सेठ जी, MTNL से आया हूँ, लाइनमैन हूँ, अगर आपकी बात खत्म हो गई हो तो जिस फोन से आप बात कर रहे हैं, उसका कनेक्शन जोड़ दूं?” आप हंस लीजिये, लेकिन यह एक बहुत ही सीरियस मामला है. बहुत दिखाते हैं कुछ लोग अपनी व्यस्तता. दोगुनी, तिगुनी करके. जैसे व्यस्त अगर हैं तो कोई अहसान है हम पर. जैसे कद्दू में तीर मार लिया हो व्यस्त हो कर. बहुत पहले मैंने लिखा था कि दो तरह के गरीब होते हैं, एक जिनके पास पैसा नहीं है, दूजे जिनके पास समय नहीं है. अंग्रेज़ी में afford शब्द दो अर्थों में प्रयोग होता है. afford मतलब क्रय शक्ति और afford मतलब समय निकालना. यानि धन और समय का होना कहीं एक ही पलड़े में तौला गया है. इस हिसाब से बिज़नसमैन गरीब ही कहलायेगा, चाहे अरबपति हो तो भी. चूँकि वो तो रहेगा ही बिजी. बिजनेसमैन. कहते भी हैं कि एम्प्लोयी आठ घंटे काम करता है लेकिन एम्लोयर चौबीस घंटा काम करता है. इन अर्थों में जो चौबीस घंटे काम करे, जिसके पास खिलते फूल, हंसते बच्चे, उगते सूरज को देखने का समय न हो वो तो महा-फटीचर हुआ. होता रहे अरबपति. और ध्यान रहे ये जो वकील, डॉक्टर, प्रोपर्टी डीलर, चार्टर्ड-अकाउंटेंट, आर्किटेक्ट, कैटरर या कोई भी व्यस्त नज़र आयें आपको बहुत ज़्यादा, तो इनसे दूर ही रहना. यह मत सोचना कि ये लोग व्यस्त हैं तो निश्चित ही अपने काम के माहिर होंगे और इनकी महारत आपके भी काम आयेगी. नहीं आयेगी. ये असली व्यस्त हो सकते हैं, नकली व्यस्त हो सकते हैं, ये माहिर हो सकते हैं, नहीं भी हो सकते हैं. बाज़ार में नकली सिक्के भी चल निकलते हैं कई बार. जब Dhinchak पूजा चल सकती है तो कोई भी चल सकता है. तो बन्दा/ बंदी वो पकड़ो भाई लोग, जिस के पास आपके लिए समय हो. महारत देख लो जितनी देख सकते हो लेकिन पहले समय देखो कि समय उसके पास है कि नहीं आपके लिए. अगर नहीं है तो ऐसे व्यक्ति की महारत भी आपके तो काम आने वाली है नहीं. और मेरा संदेश व्यस्त बन्धु-गण को भी है. अंग्रेज़ी का afford शब्द याद रखें, अगर बहुत बिजी हैं आप तो गरीब हैं, पैसे होते हुए भी और आपका बहुत बिजी होना, खुद को बिजी दिखाना कोई प्लस नहीं माइनस पॉइंट है जनाब/ मोहतरमा. नमन....तुषार कॉस्मिक

Thursday, 8 June 2017

एक संवैधानिक सलाह

जनसंख्या वृद्धि पर संविधान में एक अनुच्छेद जुड़ना चाहिए. कोई भी धर्म-विशेष के लोग एक सीमा के बाद जनसंख्या वृद्धि नहीं कर पाएं. इस पर सख्त रोक लगनी चाहिए. बल्कि अगर मुल्क जनसंख्या घटाने का निर्णय लेता है तो हर धर्म के लोग उसमें अपनी जनसंख्या के अनुपात में अनिवार्य-रूपेण कमी लाएं. हर जन्म, हर मृत्यु कंप्यूटराइज्ड रिकॉर्ड पर हो. यह इसलिए ज़रूरी है कि युद्ध सिर्फ तीर-तलवार से ही नहीं, इंसानी पैदावार से भी जीते जाते हैं. अगर किसी मुल्क पर हमला करना हो तो वहां घुस जाओ और फिर बच्चे ही बच्चे पैदा कर दो. जब आपकी जनसंख्या बढ़ेगी तो, वोटिंग पॉवर बढ़ेगी और इसके साथ ही आप वहां की सरकार में पैठ बनाते हुए धीरे-धीरे पूरी तरह से हावी हो जायेंगे. यूरोप में इस्लाम का दखल इसी तरह से हुआ है और नतीजा भुगत रहा है. अमेरिका इससे आगाह हो चुका है. भारत को अधिकारिक रूप से आगाह अभी होना है.

क्या हम सभ्य हैं?

आपने ग्लैडिएटर फिल्म देखी होगी. गुलामों को एक बड़े मैदान में छोड़ दिया जाता था, एक दूजे के ऊपर मरने-मारने को. भद्र-जन देखते थे इनका लड़ना-मरना और ताली बजाते थे, खुश होते थे इनको लहू-लुहान होते हुए, मरते हुए. कितनी असभ्य थी रोमन सभ्यता! नहीं? क्या लगता है आपको कि आज बड़े सभ्य हो गए हैं हम? नहीं हुए. बस अपनी असभ्यता थोड़ी और गहरे में छुपा ली हमने. बॉक्सिंग क्या है? एक-दूजे को मुक्कों से मारते हुए लोग. कई मौतें हो चुकी हैं रिंग में. इन्सान आज भी सभ्य होने के लिए संघर्ष-रत है. वो कभी सभ्य हुआ ही नहीं. आज भी स्कूल में पढ़ाते हैं यूनानी सभ्यता, रोमन सभ्यता, चीनी सभ्यता, भारतीय सभ्यता. सब झूठ बात. इनमें कोई सभ्यता सभ्य नहीं थी. इंसान तो आज भी सभ्य नहीं है. तमाम सभ्यताएं सभ्य होने का प्रयास भर हैं. आज भी आधी से ज़्यादा दुनिया गरीब पैदा होती है, गरीब जीती है और गरीब मरती है. इसे सभ्यता कहेंगे? एक अकेली औरत रात को छोड़ दो रास्ते पर, सुबह तक कटी-फटी मिलेगी. यह सभ्यता है? नहीं है इन्सान सभ्य. सिर्फ बेल-बूटों के जंगल से ईंट-पत्थर के जंगल में पहुँच गया है. सभ्यता शब्द सभा से आता है. मतलब इन्सान सभा में बैठने लायक हो जाये तो सभ्य. वो एक उपमात्मक शब्द है. एक इशारा है. सभा में बैठने लायक कब होता है इंसान? जब वो इतना समझ-दार हो जाए कि उसके बीच के मसले बात-चीत से, प्यार से हल होने लगें न कि लड़ के, कट के, मर के. गले मिल के मसले हल होने लगें, न कि गले काट के, तब इन्सान सभ्य है.
तो है क्या इन्सान सभ्य? मेरा जवाब है, "नहीं". और आपका?
जब तक सर पे छत, पेट में दाना और तन पर कपड़ा है.......हम अमीर हैं....."अजीबो-अमीर". नहीं सुना होगा शब्द. "अजीबो-गरीब" सुना होगा. मल्लब अज़ीब हो गए तो गरीब, लेकिन हम उलटे हैं, अज़ीब भी हैं और अमीर भी.

किसान की समस्याएं और हल

भारत कृषि प्रधान मुल्क है. ज़रा शहर से बाहर निकलो, खेत ही खेत.फिर किसान बेहाल क्यूँ हैं और समाधान क्या है? मैं कोई कृषि विशेषज्ञ नहीं हूँ, फिर भी कुछ सुझाव हैं, शायद काम के हों:-- 1. ज़मींदार तो राजा था. लेकिन मजदूर बेहाल था. तो ज़मीदारी प्रथा खत्म करने के लिए ज़मींदारी अबोलिश्मेंट एक्ट लाया गया. इससे खेतीहर को लगभग मालिकाना हक़ मिल गए ज़मीन के. अच्छा कदम था. लेकिन फिर किसान ने इतने बच्चे पैदा कर लिए कि वो ज़मीन किसी का पेट भरने को नाकामयाब हो गयी. तो एक तो हल यह है कि अब आगे किसान बच्चे कम पैदा करे. लेकिन क्या सिर्फ किसान ही ऐसा करे? तो जवाब है नहीं.सबको ही जनसंख्या घटानी चाहिए. चूँकि गरीब जनता को फिर से कम कीमत पर अनाज देना सरकार की मज़बूरी बन जाती है और जिसमें किसान पिसता है. 2. किसानों को आधुनिकतम ट्रेनिंग दी जाये. और फसल वो उगायें जिसको निर्यात भी किया जा सके. मिसाल के लिए आयुर्वेदिक दवा उगा सकते हैं. 3. घरेलू खपत में किसान को उसकी फसल का ज़्यादा से ज़्यादा फायदा मिल सके इसके लिए हो सके तो आढ़ती सिस्टम खत्म किया जाए. बिचौलिए ही सब खा जायेंगे तो किसान को क्या मिलेगा? हो सके तो किसान खुद मंडी में डायरेक्ट बेचें. कैसे बेचें इसका सिस्टम खड़ा किया जा सकता है, इसकी भी ट्रेनिंग किसान को दी जा सकती है. 4. यातायात के सिस्टम सही किये जाएँ ताकि फसल खराब होने से पहले ही भूखे पेटों में पहुँच सके, गोदामों में न सड़ जाये, रस्तों में ही न अड़ जाए. 5. बाकी किसान को मुआवजा आदि दिया जा सकता है अगर बहुत त्रासदी हो तो, लेकिन यह कोई स्थायी समाधान है नहीं. दो और लेख हैं मेरे इस विषय से सम्बन्धित, पेश हैं:------- 1. " किसान को मौसम की मार, कारण और सम्भावित निवारण " मुआवजा दे तो सकते हैं, कर्जा माफ़ कर तो सकते हैं ...लेकिन यह भी तो समाज पर बोझ ही होगा, सामाजिक असंतुलन पैदा करेगा. यह ज़रूरी तो है लेकिन क्या यह कोई हल है? किसान की ऐसी हालात इस बारिश की वजह से नहीं हुआ है, उसकी वजह यह है कि जनसंख्या के बढ़ने से ज़मीन टुकड़ों में बंटती चली गयी, और बंटते बंटते वो इतनी कम रह गयी कि अब वो किसी एक परिवार के पेट पालने लायक भी नहीं रही, आज अगर एक किसान परिवार के पास पहले जैसा बड़ा टुकड़ा हो ज़मीन का, तो उसकी कमाई से ही वो अपना वर्तमान और भविष्य सब संवार लेगा खेती तो है ही कुदरत पर निर्भर, वो कभी भी खराब हो सकती है सो यदि किसान होगा पूरा-सूरा तो निश्चित ही कुदरत की मार उसकी कमर तोड़ देगी, लेकिन यदि वो मज़बूत होगा तो निश्चित ही इस तरह की बारिशें तो उस पर कभी कहर बन कर न टूट सकेंगी........ सो मेरे ख्याल से मुआवजा फ़ौरी हल तो हो सकता है लेकिन इससे कोई मुद्दा हल नहीं होगा .....आज आप बचा लो किसान, कल वो और बच्चे पैदा करेगा, फिर उनकी दिक्कतें बढ़ती जायेंगी.......आप कब तक मुआवजें देते रहेंगे और मुआवज़े कोई आसमान से तो गिरते नहीं.....वो भी समाज का पैसा है.......समाज का एक हिस्सा दूसरे हिस्से को कब तक पाले, क्यों पाले? सो हल तो निश्चित ही कुछ और हैं कहीं पढ़ा था कि विज्ञान की मदद से बारिश पर नियंत्रण किया जाए. बेमौसम बारिश का इलाज होना चाहिए लेकिन ऐसी बारिश हुई क्यों? चूँकि हमने कुदरत की ऐसी तैसी कर रखी है मुझे लगता है विज्ञान की मदद से हम जो जनसंख्या बढ़ा लेते हैं, प्रकृति अपने प्रकोप से घटा देती हैं ये बाढ़, बेमौसम बरसात, भूकम्प सब उसी का नतीजा है ... हर जगह हमने अपनी जनसंख्या का दबाव बना रखा है कुदरत बैलेंस नहीं करेगी? विज्ञान से बारिश, धूप, हवा पर कण्ट्रोल प्रकृति चक्र को और खराब कर सकता है यह देखना बहुत ज़रूरी है सो पहले विज्ञान का उपयोग यह जानने को करना होगा कि ऐसा क्यों हो रहा है क्या वजह हमारा प्रकृति का अनाप शनाप दोहन तो नहीं? मेरे ख्याल से है. विज्ञान के उत्थान के साथ साथ मानव प्रकृति को बड़ी तेज़ी से चूस रहा है बजाए विज्ञान से बारिश, धूप, हवा पर कण्ट्रोल के, मानव की संख्या और गुणवत्ता पर कण्ट्रोल ज़रूरी है, अन्यथा यह सब तो चलता ही रहेगा, एक जगह से रोकेंगे, दूसरी जगह से प्रकृति फूटेगी......जैसे बहुत तेज़ पानी के बहाव को एक छेद से रोको तो दूसरी जगह से फूट निकलता है हमें विज्ञान से यह जानने में मदद लेनी चाहिए कि किस इलाके में कितने मानव बिना कुदरत पर बोझ बने रह सकते हैं, किस इलाके में कितने वाहन से ज़्यादा नहीं होने चाहिए, किस जगह कितनी फैक्ट्री से ज़्यादा नहीं होनी चाहिए, किस पहाड़ पर कितने लोगों से ज़्यादा यात्री नहीं जाने चाहिए. जब हम इस तरह से जीने लगें तो निश्चित ही कुदरत के चक्र अपनी जगह आ जायेंगे अभी हम कहाँ सुनते हैं कुदरत की या विज्ञान की?......सो भुगत रहें हैं ये सब चलता रहेगा, किसकी शामत कब आयेगी, पता नहीं जैसे बचपन में खेलते ......बैठते थे गोल चक्कर बना, पीछे से दौड़ते दौड़ते लड़का मुक्का मरता था, "कोकला छपाकी जुम्मे रात आई है, जेहड़ा मुड़ के पिच्छे देखे उसदी शामत आई है" किसकी शामत कब आयेगी, पता नहीं आज किसान की फसल बारिश से मर रही है, कल कश्मीरी बाढ़ से मर रहा था, परसों केदारनाथ के पहाड़ खिसक गए थे......बचा लो, मुआवज़े दे दो, राहतें दे दो ..अच्छी बात है.....वाहवाही मिलेगी लेकिन समस्या के असल हल तक कोई क्यों जाए? उस तरफ तो सिवा गाली के कुछ नहीं मिलने वाला....वोट या नोट तो दूर की बात हल तो समाज के ढाँचे में आमूल चूल परिवर्तन हैं, और समाज को समझना चाहिए कि उसकी समस्याओं के निवारण के लिए कोई सरकारें ज़िम्मेदार नहीं हैं.....ज़िम्मेदार समाज खुद है, समाज की सोच समझ है, सामाजिक व्यवस्था है....... लेकिन यह सब समाज यूँ ही तो समझेगा नहीं....समझाने के लिए भी कोई संगठन चाहिए, जो मुझे कहीं नज़र नहीं आ रहा, आपको दिख रहा हो तो ज़रूर बताएं 2. "भूमि अधिग्रहण कानून का ग्रहण" अभी अभी आज़ादी दिवस मना के हटा है मुल्क.....आपको पता हो न हो शायद कि आजादी के साथ अंग्रेज़ों के जमाने के बनाये कानून भी दुबारा देखने की ज़रूरत थी, लेकिन नहीं देखे, नहीं बदले ...इतने उल्लू के पट्ठे थे हमारे नेता.....बेवकूफ, जाहिल, काहिल, बे-ईमान.....सब के सब.....सबूत देता हूँ....सन 1894 का कानून था जमीन अधिग्रहण का......अँगरेज़ को जब जरूरत हो, जितनी ज़रुरत हो वो किसान से उसकी ज़मीन छीन लेता था...कोई मुआवज़ा नहीं, कोई ज़मीन के बदले ज़मीन नहीं, कोई बदले में रोज़गार व्यवस्था नहीं...भाड़ में जाओ तुम. आप हैरान हो जायेंगे कि मुल्क सन सैतालिस में आज़ाद हुआ माना जाता है लेकिन यह कानून अभी सन दो हज़ार तेरह में बदला गया. पहले इस बदलाव से पहले की कुछ झलकियाँ आपको पेश करता हूँ. इक्का दुक्का मिसालों को छोड़, हमारी सरकारों ने इस भूमि अधिग्रहण कानून का खूब दुरुप्रयोग किया. सरकारी छत्रछाया में खूब पैसा बनाया गया ज़मीन छीन छीन कर किसान से. उसे या तो कुछ दिया ही नहीं गया या दिया भी गया तो ऊँट के मुंह में जीरा. भूमि अधिग्रहण कानून से बस किसान की ज़िंदगी पर ग्रहण ही लगाया गया. कहते हैं भाखड़ा डैम के विस्थापितों को आज तक नहीं बसाया गया. कहते हैं दिल्ली में एअरपोर्ट बना तो किसान को नब्बे पैसे गज ज़मीन का भाव दिया गया. और कहते हैं कि नॉएडा, ग्रेटर नॉएडा में तो ज़मीन ली गई उद्योग के नाम पर और बिल्डरों को बेच दी गई. सरकार ने काईयाँ प्रॉपर्टी डीलर का काम शुरू कर दिया. कहते हैं, लाखों एकड़ ज़मीन किसान से तो छीन ली गई लेकिन उस पर कोई काम शुरू ही नहीं किया सरकार ने, बरसों. दशकों. कहते हैं, सुप्रीम कोर्ट ने ग्रेटर नॉएडा का सरकारी ज़मीन अधिग्रहण रद्द कर दिया.कहते हैं कि पटवारी और कलेक्टरों ने खूब लूटा है मिल कर किसानों को. किसान अनपढ़. कानूनगो रिश्वतखोर. किसान की वो गत बनाई कि तौबा तौबा. आज स्थिति यह है कि सरकार को विकास के नाम पर ज़मीन चाहिए. उधर किसान सब समझ चुका है, वो जानता है कि सरकार ने उसके साथ आज तक धक्का किया है. अब किसान आसानी से तो ज़मीन देने को राज़ी नहीं है. मोदी सरकार को तथा कथित विकास की जल्दी है. उसे जल्दी है रेल की, सड़क की, फैक्ट्री की. बिना ज़मीन के यह सब हो नहीं सकता. मेरे कुछ सुझाव हैं. यदि उन पर ख्याल किया जाए तो. पहली तो बात यह कि किसान में विश्वास पैदा किया जाए. सबसे पहले तो जो भी ज़मीन अधिग्रहित हुई लेकिन प्रयोग नहीं हुई या फिर पहले प्रयोग हुई भी लेकिन अब प्रयोग नहीं हो रही या निकट भविष्य में प्रयोग नहीं होनी है तो उसे बिना शर्त किसान को वापिस किया जाए. यह वापिसी कुछ जिस किसान से ली गई उसे और कुछ भूमिहीन किसान को दी जा सकती है. दूसरी बात यह कि जो ज़मीन बंज़र है, वहां पर उद्योग लगाने का प्रयास होना चाहिए. तीसरी बात कि जिन भी किसानों को पिछले मुआवज़े नहीं मिले या मिले तो न मिलने जैसे, उन सब को यदि कहीं ज़मीन दे सकते हैं तो ज़मीन दी जाए और नहीं तो मुआवजा दिया जाए, आज के हिसाब से. जब पिछला हिसाब किताब कुछ चुकता कर लेंगे, कुछ संतुलन बना लेंगे तो आगे की सोचनी चाहिए. और जब आगे की सोचते हैं तो यह भी सोचने की ज़रुरत है कि विकास का मतलब है क्या आखिर? यह कि जनसंख्या बढाते चले जाओ और फिर कहो कि अब इस के लिए घर चाहिए, रोज़गार चाहिए, रेल चाहिए, सड़क चाहिए, उद्योग चाहिए. नालायक लोग. अबे पहले यह देखो कि कितने से ज़्यादा लोग नहीं होने चाहिए पृथ्वी के एक टुकड़े पर. पूछो अपने साइंसदानों से, पूछो अपने विद्वानों से, नहीं तो पूछो खुद कुदरत से. तुम जितना उद्योग खड़ा करते हो, कुदरत के साथ खिलवाड़ होता है, कुदरत तुम्हें कुदरती जीवन जीने की इच्छा से भरे है. तभी तो तुम्हारे ड्राइंग रूम में जो तसवीरें हैं, वो सब कुदरत के नजारों की हैं....नदी, जंगल, पहाड़, झरने....कभी धुआं निकालती फैक्ट्री क्यों नहीं लगाते अपने कमरों में? लगाओ अपने शयनकक्ष में, शायद नींद न आये. लेकिन तुम्हें उद्योग चाहिए. इडियट. नहीं चाहिए. बहुत कम चाहिए. तुम्हें ज़रुरत है, आबादी कम करने के उद्योग चलाने की. बाकी सब समस्या अपने आप कम हो जायेंगी........न ज़्यादा उद्योग चाहिए होंगे, न सड़क, न ज़्यादा घर, न ही कुछ और? लेकिन यह सब कौन समझाए? विकास चाहिए, बहनों और भाईयो, हमारी सरकार आयेगी तो रोज़गार पैदा होगा, विकास पैदा होगा....तुम बस बच्चे पैदा करो बाकी सब साहेब पर छोड़ दो, अपने आप पैदा होगा. लानत! कुछ पैदा नहीं होगा यही हाल रहा तो, सिवा झुनझुने के. देखते रहिये मेरे साथ. नमन......कॉपीराईट लेखन....चुराएं न.....साझा कर सकते हैं

Wednesday, 7 June 2017

ट्रैफिक मैनेजमेंट

जहाँ-जहाँ सम्भव हो, सरकारी तन्त्र के हाथों से शक्ति छीन लेनी चाहिए.....मिसाल के लिए ट्रैफिक चालान बड़ी आसानी से वीडियो रिकॉर्डिंग करवा कर, प्राइवेट मैनेजमेंट से करवाए जा सकते हैं, पुलिस का कोई रोल ही नहीं होना चाहिए इसमें.....चालान के साथ वीडियो CD भी भेजी जानी चाहिए...अगले को केस फाइट करना हो कर ले अन्यथा जुर्माना भरे.....रोजाना लाखों चालान किये जाने चाहियें....अक्ल ठिकाने आ जायेगी लोगों की...और जो पैसा इक्कठा हो उससे ट्रैफिक ट्रेनिंग की CD बनवा कर जिसका चालान हो उसे फ्री दी जाए, ताकि इनको थोड़ी अक्ल आये. ...अक्ल आ जायेगी कि सड़क का प्रयोग कैसे करना है...अक्ल आ जायेगी कि सड़क-सड़क है उनका ड्राइंग रूम नहीं....सडकों पर होने वाले झगड़े-कत्ल घट जायेंगे....एक्सीडेंट घट जायेंगे...सड़क पर मरने वालों की संख्या घट जायेगी....और पुलिस के हाथों एक शक्ति निकल जायेगी....अभी वैसे भी वो ट्रैफिक इसलिए बाधित करती है कि उसे दिहाड़ी बनानी होती है और अगर सच में ही चालान करते भी हैं तो लोग उनसे जिद्द बहस कर रहे होते हैं, कानून झाड़ रहे होते हैं, उनसे अपनी जान-पहचान, रिश्तेदारी निकाल रहे होते हैं, या अपनी पहुँच का इस्तेमाल करने की कोशिश करते हैं.....यह सब एक झटके से खत्म किया जा सकता है... कैसा है आईडिया?
संघ और मुसंघ.....यह टर्मिनोलॉजी सही नहीं है. इससे लगता है कि संघ क्रिया है और मुसंघ प्रतिक्रिया. लेकिन है उल्टा. इस्लाम क्रिया है और संघ प्रतिक्रिया. सो बेहतर है कहें "इस्लाम" और "संघीस्लाम" और दोनों को विदा होना चाहिए....दोनों एक दूजे के परिपूरक हैं.....नूरा कुश्ती करते रहेंगे......मोदी और ओवेसी लड़ते दिखेंगे.....लेकिन गंगाधर ही शक्तिमान है......क्लार्क ही सुपरमैन है.

दाग अच्छे हैं, टैग सच्चे हैं.

कभी सुना है कि टैग करने को भी कोई पसंद कर रहा हो? नहीं सुना होगा. मुझ से सुनें.
असल में टैगिंग बहुत अच्छी चीज़ है लेकिन भूतिया लोग अच्छी-से-अच्छी चीज़ को बकवास कर देते हैं. टैगिंग करेंगे, जैसे दुनिया इनके घूमने-फिरने-खाने-पीने-नहाने-धोने-हगने-मूतने को देखने को ही बैठी हो.
मैं भी टैग करता हूँ. लेकिन सॉफ्ट टैग. यह मुझे Hans Deep Singh जी ने सिखाया था. इसमें बस एक नोटिफिकेशन जाता है अगले को, कि मैंने याद किया है. कोई ज़बरदस्ती नहीं, अपनी किसी पोस्ट को अगले की टाइम लाइन पर भेजने की. बस एक आमन्त्रण है, अपनी पोस्ट देखने का.
यकीन करिये कोई एतराज़ नहीं करता. बल्कि मित्र-गण पसंद ही करते हैं. और करे कोई एतराज़, तो मित्र सूची से बाहर, चूँकि अपना तो क्राइटेरिया ही यही है कि आप और "हम साथ-साथ हैं" तो मात्र इसलिए कि एक-दूजे की पोस्ट देखना-पढ़ना चाहते हैं और अगर नहीं है ऐसा, तो फिर "हम आपके हैं कौन"?

Tuesday, 30 May 2017

आप नाम छोड़ दीजिये.....ये नाम परमात्मा, ईश्वर, भगवान इन्हें छोड़ देते हैं.....नाम सब काम-चलाऊ हैं.....नाम सब हमारे दिए हैं......यूँ समझ लीजिये कि ब्रह्माण्ड को अवचेतन से और ज़्यादा चेतन होने का फितूर पैदा हुआ.......उसने अपने लिए कुछ रूप गढ़ने शुरू किये.....खुद ही कुम्हार, खुद ही मिटटी, खुद ही पानी, खुद ही मूरत......बस जैसे-जैसे वो रूप गढ़े, उनमें रूप के मुताबिक़ चेतना घटित होती गई......यूँ ही इन्सान तक पहुँच हो गई......यूँ ही सब पैदा हुआ...इस सब का सिवा खेल-तमाशे के और क्या मन्तव्य? सो कहते हैं कि जगत जगन्नाथ की लीला है.

Monday, 29 May 2017

"आधे इधर जाओ, आधे उधर जाओ, बाकी मेरे पीछे आओ" असरानी का फेमस डायलाग है शोले फिल्म में. मेरी पोस्ट पर आये कमेंट देख याद आता है.
शब्दों की भीड़ में मैं जो कहना चाहता हूँ, वो ऊपर-नीचे, दायें-बायें से निकल जाता है कुछ मित्रों के. मैं तो बस यही क्लियर करता रहता हूँ कि किस बात से मेरा मतलब क्या है.
बहुत मित्र तो 'सवाल चना और जवाब गंदम' टाइप कमेंट करते हैं.
खैर, कोई मित्र बुरा न मानें, मैं कोई अपने लेखन की महानता का किस्सा नहीं गढ़ रहा. अपुन तो वैसे भी हकीर, फ़कीर, बे-औकात, बे-हैसियत के आम, अमरुद, केला, संतरा किस्म के आदमी हैं. बस जो सही लगा लिख दिया.
कोई तीन-चार दिन पहले इंग्लैंड "मानचेस्टर" में बम धमाका हुआ. बाईस लोग तो तभी मारे गए. कई ज़ख़्मी हुए. सुना है कि ज़िम्मेदार लोगों ने बखूबी ज़िम्मेदारी भी ली. कितने मुस्लिम व्यक्तियों ने, समूहों ने इसके खिलाफ कुछ करने का ज़िम्मा लिया? करने का छोड़ो, आवाज़ उठाने का ही ज़िम्मा लिया हो? ये चुप्पे भी ज़िम्मेदार हैं, इनकी चुप्पी भी सहयोगी है. फिर कहेंगे कि चंद लोगों की वजह से कौम बदनाम होती है.

CBSE टॉपर और मिट्ठू तोते

ये जो लोग अपने बच्चों के CBSE एग्जाम 90-95% नम्बरों से पास होने की पोस्ट डाल रहे हैं और जो इनको बधाईयों के अम्बार लगा रहे हैं, उनको ताकीद कर दूं कि टॉपर बच्चे ज़िन्दगी की बड़ी दौड़ में फिसड्डी निकलते हैं. ये लोग अच्छी दाल-रोटी/ मुर्गा-बोटी तो कमा लेते हैं लेकिन दुनिया को आगे बढ़ाने में इनका योगदान लगभग सिफर रहता है चूँकि ये सिर्फ लकीर के फ़कीर होते हैं, रट्टू तोते होते हैं, अक्ल के खोते होते हैं, सिक्के खोटे होते हैं. दिमाग लगाना इनके बस की बात नहीं होती. और इनको जो इंटेलीजेंट समझते हैं, उनकी इंटेलिजेंस पर मुझे घोर शंका है. इडियट लोग. इंटेलिजेंस यह नहीं होती कि आपने कुछ घोट के पी लिया. इंटेलिजेंस होती है कुछ भी पीने से पहले अच्छे से घोटना, छानना और सही लगे तो ही पीना, नहीं तो कूड़े में फेंक देना. एक टेप रिकॉर्डर अच्छी रिकॉर्डिंग कर लेता है, तो क्या कहोगे कि यह बहुत इंटेलीजेंट है, स्मार्ट है? इसे गोल्ड मैडल मिलना चाहिए? इडियट. इससे ज़्यादा स्मार्ट तो तुम्हारा स्मार्ट फ़ोन होगा, वो कितने ही जटिल काम कर लेगा. ज़्यादा कुछ नहीं लिखूंगा. समझदार को इशारा ही काफी है और अक्ल-मंद, अक्ल-बंद को दुल्लती भी कम है. नमन....आपका शत्रुनुमा मित्र...तुषार कॉस्मिक.

कृष्ण का झूठा दावा

*****यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर भवित भारत अभ्युथानम धर्मस्य, तदात्मानम सृजामयहम***** भगवद-गीता यानि भगवान का खुद का गाया गीत. बहुत सी बकवास बात हैं इसमें. यह भी उनमें से एक है. अक्सर ड्राइंग-रुम की, दफ्तरों की दीवारों पर ये श्लोक टंगा होता है. कृष्ण रथ हांक रहे हैं और साथ ही अर्जुन को उपदेश दे रहे हैं. "जब-जब भी धर्म की हानि होती है, तब-तब मैं यानि कृष्ण धर्म के उत्थान के लिए खुद का सृजन करता हूँ." पहले तो यही समझ लीजिये कि महाभारत काल में भी कृष्ण कोई धर्म की तरफ नहीं थे. कैसा धर्म? वो राज-परिवार का आन्तरिक कलह था. दोनों लोग कहीं गलत, कहीं सही थे. धर्म-अधर्म की कोई बात नहीं थी. जो युधिष्ठर जुए में राज्य, भाई, बीवी तक को हार जाए उसे कैसे धर्म-राज कहेंगे? द्रौपदी को किसने नंगा करने का प्रयास किया? उसके पति ने जो उसे जुए में हार गया या दुर्योधन ने जो उसे जुए में जीत गया? कृष्ण तब क्यूँ नहीं प्रकट हुए जब द्रौपदी दांव पर लगाई जा रही थी? कृष्ण तब क्यूँ नहीं प्रकट हुए, जब द्रौपदी दुर्योधन का उपहास करके आग में घी डालती है? जब कर्ण को रंग-भवन में अपमान झेलना पड़ा था चूँकि वह सूत-पुत्र था, जब एकलव्य का अंगूठा माँगा गया था? और महाभारत. वो कोई धर्म-युद्ध था? कोई युद्ध धर्म-युद्ध नहीं होता. युद्ध सिर्फ युद्ध होता है. युद्ध का अर्थ ही होता है कि अब बात नियमों की, धर्म की हद से बाहर हो चुकी है. आप लाख कहते रहो धर्म युद्ध, लाख करते रहो विएना समझौता, लेकिन युद्ध सब नियम, सब धर्म तोड़ देता है. महाभारत में सबसे पहले और सबसे ज़्यादा अधर्म अगर हुआ तो वो पांडवों की तरफ से हुआ था. भीष्म को गिराया गया चालबाज़ी से. शिखंडी को बीच में खड़ा करके. अब आप क्या एक्स्पेक्ट करते हैं कि सामने वाला रिश्ते निभाये? बड़ा शोर मचाया जाता है आज तक कि अभिमन्यु को घेर कर मार दिया गया, मारते नहीं तो और क्या करते? टेढ़-मेढ़ की शुरुआत तो पांडव पहले ही कर चुके थे. बस कौरव चाल-बाज़ियों में कृष्ण से कमज़ोर पड़ गए और मारे गए. लेकिन क्या धर्म की स्थापना हो गई? कहते हैं कि पांडवों के वंशज भी मारे गए और कृष्ण के भी. और कृष्ण भी सस्ते में ही निपट गए अंत में. क्या उसके बाद भारत में या दुनिया में कोई अधर्म नहीं हुआ? अगर हुआ तो फिर कृष्ण के इस कथन का क्या अर्थ? शूद्रों पर अत्याचार हुए, बौधों पर अत्याचार हुए, चार्वाक पर अत्याचार हुए, फिर मुग़लों ने हाहाकार मचा दी, बंटवारे में लोग काटे गए, फिर कश्मीर में लोग मारे गए, पंजाब में, दिल्ली में, गुजरात में, जगह-जगह... ज़रा भारत से बाहर देख लें....दो विश्व-युद्ध लड़े गए. हिटलर ने यहूदियों को हवा बना के उड़ा दिया, लाखों को. जापानियों ने चीनियों की ऐसी-तैसी कर दी. अंग्रेजों ने आधी दुनिया को गुलाम कर दिया. इस्लाम चौदह सौ सालों से क़त्ल-ओ-गारत मचाये है. इस्लाम के मुताबिक जो मुसलमान नहीं, उसे जीने का हक़ ही नहीं. कब नहीं हुई धर्म की हानि? कहाँ नहीं हुई धर्म की हानि? कौन से भगवान ने अवतार लिया और धर्म की स्थापना कर दी? असल में अवतार की धारणा ही गलत है. कोई ऊपर से आसमान से आकर नहीं टपकता. कोई सुपर-मैन जन्म नहीं लेता. जो कोई भी पैदा होता है, हम में से ही होता है. इन्सान आज भी सभ्य होने के लिए संघर्ष-रत है. वो कभी सभ्य हुआ ही नहीं. आज भी स्कूल में पढ़ाते हैं यूनानी सभ्यता, रोमन सभ्यता, चीनी सभ्यता, भारतीय सभ्यता. सब झूठ बात. इनमें कोई सभ्यता सभ्य नहीं थी. इंसान तो आज भी सभ्य नहीं है. तमाम सभ्यताएं सभ्य होने का प्रयास भर हैं. रोम में इंसानों को इंसानों पर छोड़ दिया जाता था लड़ने-मरने को और सभ्य लोग यह सब देख ताली पीटते थे. इसे सभ्यता कहेंगे? आज भी आधी से ज़्यादा दुनिया गरीब पैदा होती है, गरीब जीती है और गरीब मरती है. इसे सभ्यता कहेंगे? एक अकेली औरत रात को छोड़ दो रास्ते पर, सुबह तक कटी-फटी मिलेगी. यह सभ्यता है? नहीं है इन्सान सभ्य. सिर्फ बेल-बूटों के जंगल से ईंट-पत्थर के जंगल में पहुँच गया है. और धर्म की हानि रोज़ होती है, हर जगह होती है. और यह किसी भगवान-नुमा व्यक्ति के खुद को सृजन करने से या किसी अवतार के उद्गम से नहीं मिटेगी. यह इन्सान की सामूहिक सोच के उत्थान से घटेगी. और इसके लिए अनेक विचारकों की ज़रूरत होगी. और वो विचारक हम हैं, आप हैं, आपके मित्र हैं, पड़ोसी है. और हम में से कोई भगवान नहीं है, अवतार नहीं है. हम सब आम, अमरुद, केला, सेब, संतरा आदमी हैं-औरत हैं. पीछे मैंने लिखा था, "एतद्वारा घोषित करता हूँ कि मुझ में कैसी भी खासियत नहीं है. मैं वैसा ही हूँ जैसे कोई भी अन्य व्यक्ति हो सकता है. मुझ में तमाम लालच, स्वार्थ, घटियापन, टुच्चा-पन, चोट्टा-पन और कमीनपन है जो आप कहीं भी और पा सकते हैं. मैने कितने ही ऐसे काम किये होंगे, जो नहीं करने चाहिए थे और शायद आगे भी मुझ से ऐसे कई काम हो जाएँ. लेकिन लिखता वही हूँ, जो सही समझता हूँ और निश्चित ही एक बेहतर दुनिया चाहता हूँ" जान-बूझ कर ऐसा लिखा था. यह धारणा तोड़ने को लिखा था कि अगर कोई इस दुनिया की बेहतरी का प्रयास करता है तो वो कोई पाक-साफ़ व्यक्ति ही होना चाहिए. जैसी दुनिया है, उसमें कोई पाक-साफ़ रह जाए, यह अपने आप में अजूबा होगा. तो छोड़ दीजिये यह धारणा कि कोई गुरु, कोई पैगम्बर, कोई मसीहा, कोई अवतार आता है और वो कोई निरमा वाशिंग पाउडर से धुला होता है, जिसकी चमकार, जिसका नूर आपको चुंधिया देता है. बेवकूफानी है यह धारणा. (लिखने लगा था 'बचकानी', लेकिन फिर सोचा कि बच्चे तो ऐसे बेवकूफ होते नहीं तो शब्द सूझा 'बेवकूफानी'.) दुनिया की बेहतरी सोचने वाले, करने वाले लोग हममें से ही होंगे, हम ही होंगे, अपनी तमाम तथा-कथित कमियों और बुराईयों के साथ, अपनी काली करतूतों के साथ, कोयले की दलाली में काले हुए मुंह के साथ. हम आम, अमरुद, केला, सेब, संतरा आदमी-औरतें. नमन ..तुषार कॉस्मिक.

Sunday, 28 May 2017

पूछा है मित्र ने, "धर्म कहाँ गलत हैं?"

मेरा जवाब," उस जागतिक चेतना ने खेल रच दिया है.....बिसात बिछा दी है, मोहरे सजा दिए हैं....लेकिन वो हर वक्त खेल में पंगे नहीं लेता रहता.....मोहरे खुद मुख्तियार हैं......अब अपने खेल के खुद ज़िम्मेदार हैं.........नियन्ता ने मोटे नियम तय कर दिए हैं.....लेकिन आगे खेल मोहरे खुद खेलते हैं.

मोटे नियम यानि व्यक्ति को अंत में मरना ही है, बूढ़े होना ही है...आदि....ये नियम उसके हैं....अभी तक उसके हैं, आगे बदल जाएँ, इन्सान अपने हाथ में ले ले, तो कहा नहीं जा सकता......बाकी कर्म का फल आदि उसने अपने पास नहीं रखा है.

बस यहीं फर्क है.....सब धर्मों में और मेरी सोच में...धर्म कहते हैं कि प्रभु कभी भी इस खेल में दखल दे सकता है...मोहरे अरदास करें, दुआ करें, प्रार्थना करें बस....लेकिन मेरा मानना यह है कि मोहरा जो मर्ज़ी करता रहे......अब प्रभु/स्वयंभू खेल में दखल नहीं देता. आप लाख चाहो, वो पंगा लेता ही नहीं.

लेकिन धर्म कैसे मान लें? मान लें तो कोई क्यूँ जाए मन्दिर, गुरूद्वारे, मसीद? जब कोई सुनने वाला नहीं तो किसे सुनाएं फरयाद?

तो धर्म तो समझाता है कि आओ अरदास करो, प्रार्थना करो, दुआ करो, प्रेयर करो तुम्हारी बात सुनी जायेगी.

यहीं मेरी सोच धर्मों से टकराती है.
मेरे ख्याल से ये सब झूठ के अड्डे हैं.
इन्सान के भीतरी डर की वजह से खड़े हैं.
झूठे आश्वासन दाता.

मेरी बात समझ आ जाए तो आपको मंदिर , मस्ज़िद, गुरूद्वारे विदा करने नहीं पडेंगे, वो अपने आप ही विदा हो जायेंगे."
पूछा है मित्र ने,"आत्मा क्या है, आधुनिक ढंग से समझायें?"
जवाब था, "शरीर हमारा हार्ड-वेयर है.....मन सॉफ्ट-वेयर है. इन दोंनो को चलाती है बायो-इलेक्ट्रिसिटी और इसके पीछे जागतिक चेतना है, वही बायो-इलेक्ट्रिसिटी से हमारे सारे सिस्टम को चलाती है.
मौत के साथ हार्ड-वेयर खत्म, हाँ, कुछ पार्ट फिर से प्रयोग हो सकते हैं, किसी और सिस्टम में.
सॉफ्ट-वेयर भी प्रयोग हो सकता है, लेकिन अभी नहीं, आने वाले समय में मन भी डाउनलोड कर लिया जा पायेगा.
जागतिक चेतना ने ही तन और मन को चलाने के लिए बायो-इलेक्ट्रिसिटी का प्रावधान बनाया, जब तन और मन खत्म तो बायो-इलेक्ट्रिसिटी का रोल भी खत्म. और जागतिक चेतना तो सदैव थी, है, और रहेगी.
अब इसमें किसे कहेंगे आत्मा? मुझे लगता है कि इन्सान को वहम है कि उसका मन यानि जो भी उस की सोच-समझ है, आपकी मेमोरी जो है, वो आत्मा है और वो दुबारा पैदा होती है मौत के बाद.
पहले तो यह समझ लें कि अगर जागतिक चेतना को आपके मन को, सोच-समझ को आगे प्रयोग करना होता तो वो बच्चों को पुनर्जन्म की याद्-दाश्त के साथ पैदा करता. उसे नहीं चाहिए यह सब कचरा, सो वो जीरो से शुरू करती है, हर बच्चे के साथ. साफ़ स्लेट.
यह काफी है समझने को कि आपकी मेमोरी, आपकी सोच-समझ का कोई रोल नहीं मौत के बाद.
शरीर तो निश्चित ही आत्मा नहीं मानते होंगे आप?
अब क्या बचा?
जल में कुम्भ (घड़ा) है, और कुम्भ में जल है. जागतिक चेतना को क्या करना जल में कुम्भ का, कुम्भ तो पहले ही जल में है और फूटेगा तो जल जल में ही मिलेगा? असल में तो मिला ही हुआ है.......कुम्भ को वहम है कि नहीं मिला हुआ, सीधे पड़े ग्लास को वहम है कि उसके अंदर की हवा, कमरे में व्याप्त हवा से अलग है, रूप को वहम है कि उसकी चेतना जागतिक चेतना से अलग है.
बस यह वहम ही आत्मा है.
अब कुछ मित्रों को वहम है कि मनुष्य के कर्म अगले जन्म तक जाते हैं. और कर्मों के हिसाब से अगला जन्म फलस्वरूप मिलता है. यह भी बकवास बात है चूँकि यह मानने के लिए आप पहले से अगला जन्म माने बैठे हैं. नहीं, जो भी ऊंच-नीच समाज में आपको दिखती है, वो सब सामाजिक कु-प्रबन्धन का नतीजा है न कि अगले-पिछले जन्मों के कर्मों के फलों का. तो जब अगला जन्म नहीं तो कर्म कहाँ से आगे जायेंगे?
इस्लाम में आखिरत की धारणा है....उसमें भी कुछ तर्क नहीं है.... जो मर गया सो मर गया...अब आगे न जन्नत है, न जहन्नुम......जब सब खत्म है तो फिर किसका फैसला होना?
ये सब स्वर्ग, नरक, मोक्ष की धारणाएं खड़ी ही इस बात पर हैं कि इन्सान में कुछ व्यक्तिगत है,पर्सनल है ... वो व्यक्तिगत/पर्सनल आत्मा है...और मौत के बाद उस आत्मा को मोक्ष मिला तो दुबारा जन्म नहीं होगा.....वरना उसे स्वर्ग-नरक-पुनर्जन्म के चक्र में घूमते रहना होगा जबकि ऐसा कुछ भी नहीं है..सब गपोड़-शंख हैं."

----:वकालतनामा:----

कोई वकील hire करते हैं तो सबसे पहला काम वो करता है आपसे वकालतनामा साइन करवाने का.
यहीं बहुत कुछ समझने का है. पहले तो यह समझ लें कि आप वकील को hire करते हैं, वो आपको hire नहीं करता है. आप एम्प्लोयी नहीं हैं, एम्प्लायर हैं. चलिए अगर एम्प्लोयी और एम्प्लायर का नाता थोड़ा अट-पटा लगता हो तो समझ लीजिये कि आप दोनों एक अग्रीमेंट के तहत जुड़ने जा रहे हैं. और वो अग्रीमेंट है, वकालतनामा. अब यह क्या बात हुई? वकील तो आपको वकालतनामा थमा देता है, जिसे आप बिना पढ़े साइन कर देते हैं. यहीं गड़बड़ है. वकालतनामा कुछ ऐसा नहीं है कि जिसे आपने बस साइन करना है. वो आपका और वकील के बीच का इकरारनामा है, अग्रीमेंट है. उसे आप उसी तरह से ड्राफ्ट कर-करवा सकते हैं जैसे कोई भी और अग्रीमेंट. उसमें सब लिख सकते हैं कि आप क्या काम सौंप रहे हैं वकील को, कितने पैसे दे रहे हैं उसे और आगे कब-कब कितने-कितने देंगे. उसमें दोनों तरफ से लिखा जा सकता है कि कौन कब उस अग्रीमेंट से बाहर आ सकता है. मतलब आपने अगर तयशुदा पेमेंट वकील को नहीं दी तो उसकी ज़िम्मेदारी खत्म और अगर वकील तयशुदा काम नहीं करता, तो आप उसे आगे पैसे नहीं देंगे और चाहेंगे तो उससे केस वापिस लेंगे. अपना केस तो आप कभी भी वकील से वापिस ले सकते हैं. आप अपना केस खुद लड़ सकते हैं या फिर कोई भी अन्य वकील hire कर सकते हैं. लेकिन असल में होता यह है कि वकील ऐसे इम्प्रैशन देते हैं जैसे वो एम्प्लोयी न हों, जैसे वो सर्विस देकर कोई अहसान कर रहे हों. एक-मुश्त मोटी रकम पहले ही ले लेते हैं. जैसे स्कूल वाले नर्सरी एडमिशन में मोटे पैसे पहले ही ले लेते हैं. अब ऐसे में व्यक्ति जल्दी से न तो वकील बदलने की हिम्मत करता है और न ही स्कूल. और तो और सारी केस फाइल भी वकील के पास ही होती है. मुद्दई के पास तो अपने केस का एक भी कागज़ नहीं होता. फिर अधिकांश वकील साथ-साथ केस की सर्टिफाइड कॉपियां भी नहीं निकलवाते, जो कि बहुत ज़रूरी हो जाती हैं यदि आपकी फाइल कोर्ट से गुम हो जाए. और गर वकील कोर्ट से सर्टिफाइड कॉपियां लेते भी हैं तो निकालने के ही बहुत पैसे ऐंठ लेते हैं, जबकि कोर्ट फ़ी मात्र दो या तीन रुपये प्रति पेज होती है. यह सब आप वकालतनामा में पहले ही डाल सकते हैं कि सारी कारवाई की सर्टिफाइड कॉपी साथ-साथ आपके वकील साहेब कोर्ट से लेंगे और आपको सौपेंगे और खुद फोटो-कॉपी रखेंगे और यदि आप उनको बरखास्त करते हैं तो आपसे आगे कोई पैसा नहीं मांगेंगे. लेकिन इस सारे मामले में अनपढ़ तो अनपढ़ हैं हीं, पढ़े-लिखे भी अनपढ़ हैं, सो वकील जायज़-नाजायज़ फायदा उठाते हैं.
मेरी नज़र में तो डॉक्टर, शिक्षक, CA और वकील सब एम्प्लोयी ही हैं......एम्प्लोयी शब्द का अर्थ है जो पैसा लेकर कोई निश्चित कार्य करे......असल में पंचर लगाने वाला भी एम्प्लोयी ही है...थोड़ी देर के लिए hire किया गया एम्प्लोयी.....प्रॉपर्टी डीलर भी एम्प्लोयी ही है.......इसमें कुछ भी अच्छा-बुरा मानने समझने जैसा नहीं है.
पैसा चाहे आप श्रम, समय और लागत की वजह से ले रहे हों और चाहे ज्ञान और अनुभव की वजह से....क्या फर्क है? पंचर लगाने में भी श्रम के साथ ज्ञान लगता है. मुझे कल ही एक पंचर वाले ने बताया कि कोई मशरूम पंचर भी होता है, जो tubeless टायर में अंदर की तरफ से लगता है. अब इसे कैसे ज्ञान न कहें? उसने वो पंचर मुझे दिखाया भी. यह वकील, डॉक्टर, CA आदि की ज़्यादती है जो सिर्फ खुद को प्रोफेशनल कहते हैं. जैसे बाकी लोग प्रोफेशनल न हों. असल में तो हर व्यक्ति प्रोफेशनल होता है. सेक्स बेचने वाली औरतों को तो हम कहते भी हैं "धंधे वाली". और यह भी समझना चाहिए कि सब वकील तो नहीं लेकिन बहुत से वकील कमीशन एजेंट का ही काम कर रहे होते हैं. उनको इस बात से क्या मतलब कि उनके क्लाइंट को इन्साफ मिले या न मिले? उन्हें तो बस अपने पैसे से मतलब. और अधिकांश वकील वो तो चाहते ही नहीं कि ऐसे व्यक्ति का केस भी लिया जाए जो कुछ कायदा कानून जानता हो....ऐसे व्यक्ति का केस तो वो ले के ही राज़ी नहीं होते..उन्हें तो अक्ल का अँधा और गाँठ का पूरा क्लाइंट चाहिए होता है. असल में वकील को लोग बहुत विश्वास के साथ hire करते हैं, इतना विश्वास कि आप इसे अंध-विश्वास कह सकते हैं. मित्रवर, केस आपका है, वकील का भी है लेकिन उस तरह से नहीं जिस तरह से आपका है. कोर्ट में जीत हार आपकी होती है, वकील की भी होती है लेकिन उस तरह से नहीं जैसे आपकी होती है. आप हारो, चाहे जीतो, वकील ने अपने पैसे ले ही लेने हैं. सो ये कुछ सावधानियां है, कुछ जानकारियाँ हैं, कुछ समझदारियां हैं जो आपको वकालतनामा साइन करने से पहले ही ध्यान में रखनी चाहियें. खतरनाक वकील नमन.....तुषार कॉस्मिक.
एतद्वारा घोषित करता हूँ कि मुझ में कैसी भी खासियत नहीं है. मैं वैसा ही हूँ जैसे कोई भी अन्य व्यक्ति हो सकता है. मुझ में तमाम लालच, स्वार्थ, घटियापन, टुच्चा-पन, चोट्टा-पन और कमीनपन है जो आप कहीं भी और पा सकते हैं. मैने कितने ही ऐसे काम किये होंगे, जो नहीं करने चाहिए थे और शायद आगे भी मुझ से ऐसे कई काम हो जाएँ. लेकिन लिखता वही हूँ, जो सही समझता हूँ और निश्चित ही एक बेहतर दुनिया चाहता हूँ.

Monday, 22 May 2017

विषैली सोच भगवत गीता में

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।2.22।। ।।2.22।।मनुष्य जैसे पुराने कपड़ों को छोड़कर दूसरे नये कपड़े धारण कर लेता है ऐसे ही देही पुराने शरीरोंको छोड़कर दूसरे नये शरीरोंमें चला जाता है। गीता के सबसे मशहूर श्लोकों में से है यह. समझ लीजिये साहेबान, कद्रदान, मेहरबान यह झूठ है, सरासर. सरसराता हुआ. सर्रर्रर..... इसका सबूत है क्या किसी के पास? कृष्ण ने कहा...ठीक? तो कहना मात्र सबूत हो गया? इडियट. अंग्रेज़ी में एक टर्म बहुत चलती है. Wishful Thinking. आप की इच्छा है कोई, पहले से, और फिर आप उस इच्छा के मुताबिक कोई भी कंसेप्ट घड़ लेते हैं. मिसाल के लिए आप खुद को हिन्दू समझते हैं और इसी वजह से मोदी के समर्थक भी हैं. तो अब आप हर तथ्य को, तर्क को मोदी के पक्ष में खड़ा देखते हैं. आपके पास चाहे अभी कुछ भी साक्ष्य न हो कि मोदी अगला लोकसभा चुनाव जीतेंगे या नहीं लेकिन आप फिर भी मोदी को ही अगला प्रधान-मंत्री देखते हैं. इसे कहते हैं Wishful Thinking. तो मित्रवर, इंसान मरना नहीं चाहता. यह जीवन इतना बड़ा जंजाल. यह जान का जाल और फिर यकायक सब खत्म. ऐसा कैसे हो सकता है? इंसान अपना न होना कैसे स्वीकार कर ले? सारी उम्र वो खुद के होने को साबित करता है. ज़रा झगड़ा हो जाए, कहेगा, "जानते हो, मैं कौन हूँ?" कैसे मान ले कि एक समय आएगा कि वो नहीं रहेगा? वो जानता है कि मृत्यु है, उसे तो झुठला नहीं सकता. रोज़ देखता है, हर पल देखता है. न चाहते हुए भी मृत्यु का होना तो मानना ही पड़ता है. लेकिन अपना खात्मा मृत्यु के साथ हो जाता है, यह वो नहीं मान सकता. बस यहीं से शुरू होती है, यह Wishful Thinking. यह विष से भरी सोच. वो आत्मा है, जो शरीर बदलती है. वैरी गुड. तुमने देखा क्या कि आत्मा एक शरीर से दूसरे शरीर में जा रही है? तुमने मनुष्य को देखा कपड़े बदलते हुए, आत्मा को देखा क्या शरीर बदलते हुए? लेकिन मौत के साथ किस्सा खत्म हुआ नहीं चाहते, सो नए शरीर के साथ नया एपिसोड शुरू. जैसे टीवी के सीरियल कभी खत्म नहीं होते. सास भी कभी बहु थी. छाछ भी कभी दही थी. कभी खत्म न होने को पैदा हुई कहानियाँ. गलत सिखाया है कृष्ण ने. वो बस अर्जुन को लड़वाना था तो कुछ भी बकवास चलाए रखी. असल बात यह है कि हम-तुम हैं ही नहीं. बस होने का एक भ्रम हैं. ऊपरी तौर पर हैं, गहरे में नहीं हैं. जैसे एक ग्लास रख दें खाली कमरे में. असल में खाली ग्लास भी खाली नहीं होता. हवा रहती है उसमें. यह हवा सिर्फ उसी में है क्या? नहीं. वो तो पूरे कमरे में है. जो खाली बोतल पड़ी है उसमें भी और कटोरी में भी और फूलदान में भी. है कि नहीं? हम "हैं" लेकिन "हम" नहीं हैं. अब आपका हाथ लगा और वो ग्लास टूट गया. छन्न से. वो जो हवा उसमें थी, वो ग्लास थी क्या? उसका ग्लास से क्या लेना-देना? अब क्या आप दूसरा ग्लास रखोगे, नया ग्लास रखोगे तो यह कहोगे कि वो ही हवा वापिस उसमें आ गई. आत्मा. नया वस्त्र. क्या बकवास है यह? "जल विच कुम्भ कुम्भ विच जल, विघटा कुम्भ जल जल ही समाना ये गति विरले न जानी", कबीर साहेब ने कहा है. कमरे में ग्लास की मिसाल और जल में कुम्भ और कुम्भ में जल वाली मिसाल काफ़ी कुछ एक ही हैं. ग्लास की हवा को और कुम्भ के जल को वहम है कि वो कुछ अलग है, उसका कोई अपना अस्तित्व है, जबकि ऐसा है नहीं....कुम्भ फूटा और उसका जल फिर से नदी के जल में मिल गया. वो पहले भी नदी का ही जल था, लेकिन चूँकि वो कुम्भ में था तो उसे वहम हो गया था कि वो नदी से अलग है कुछ. इसी तरह से इन्सान को वहम हो गया है कि वो परम-आत्मा से अलग कुछ है, सर्वात्मा से अलग कुछ है.....तभी वो खुद को आत्मा माने बैठा है, जिसका पुन:-पुन: जन्म होना है....तभी वो मोक्ष माने बैठा है.......जबकि मौत के साथ सब खत्म है. इन्सान को दूसरे ढंग से समझें......शरीर हमारा हार्ड-वेयर है.....मन सॉफ्ट-वेयर है. इन दोंनो को चलाती है बायो-इलेक्ट्रिसिटी और इसके पीछे जागतिक चेतना है, वही बायो-इलेक्ट्रिसिटी से हमारे सारे सिस्टम को चलाती है. मौत के साथ हार्ड-वेयर खत्म, हाँ, कुछ पार्ट फिर से प्रयोग हो सकते हैं, किसी और सिस्टम में. सॉफ्ट-वेयर भी प्रयोग हो सकता है, लेकिन अभी नहीं, आने वाले समय में मन भी डाउनलोड कर लिया जा पायेगा. जागतिक चेतना ने ही तन और मन को चलाने के लिए बायो-इलेक्ट्रिसिटी का प्रावधान बनाया, जब तन और मन खत्म तो बायो-इलेक्ट्रिसिटी का रोल भी खत्म. और जागतिक चेतना तो सदैव थी, है, और रहेगी. अब इसमें किसे कहेंगे आत्मा? मुझे लगता है कि इन्सान को वहम है कि उसका मन यानि जो भी उस की सोच-समझ है, आपकी मेमोरी जो है, वो आत्मा है और वो दुबारा पैदा होती है मौत के बाद. पहले तो यह समझ लें कि अगर परमात्मा को, सर्वात्मा को, कुदरत को आपके मन को, सोच समझ को आगे प्रयोग करना होता तो वो बच्चों को पुनर्जन्म की याद्-दाश्त के साथ पैदा करता. उसे नहीं चाहिए यह सब कचरा, सो वो जीरो से शुरू करता है, हर बच्चे के साथ. साफ़ स्लेट. यह काफी है समझने को कि आपकी मेमोरी, आपकी सोच-समझ का कोई रोल नहीं मौत के बाद. शरीर तो निश्चित ही आत्मा नाही मानते होंगे आप? अब क्या बचा? जागतिक चेतना को क्या करना जल में कुम्भ का, कुम्भ तो पहले ही जल में है और फूटेगा तो जल जल में ही मिलेगा? असल में तो मिला ही हुआ है.......कुम्भ को वहम है कि नहीं मिला हुआ, ग्लास को वहम है कि उसके अंदर की हवा, कमरे में व्याप्त हवा से अलग है, रूप को वहम है कि उसकी चेतना जागतिक चेतना से अलग है. जागतिक चेतना को आप कोई भी नाम दे सकते हैं....परमात्मा, अल्लाह, भगवान, खुदा.....मैंने नया नाम दिया, सर्वात्मा. हो सकता है यह पहले से हो प्रयोग में, लेकिन मैंने नहीं सुना, पढ़ा......मैंने बस घढ़ा. भूत, प्रेत बकवास बात हैं. और न ही कर्म अगले जन्म में जाते हैं, जब अगला जन्म नहीं तो कर्म कहाँ से आगे जायेंगे? जिसे आप सनातनी धारणा कह रहे हैं, उसे ही मैं वहम कह रहा हूँ. वो जो वेदांत कहता है...'सर्वम खलविंदम ब्रह्म'.....वो सही बात है. और जिसे मैं जागतिक चेतना कह रहा हूँ उसे आप और लोग परमात्मा तो कह सकते हैं लेकिन आत्मा नहीं....आत्मा से अर्थ माना जाता है किसी व्यक्ति विशेष की आत्मा. लोग अगर वेदांत की बात समझ लेते तो फिर तो सब कुछ परमात्मा है ही...आत्मा का कांसेप्ट ही नहीं आता. इस्लाम में आखिरत की धारणा है....उसमें भी कुछ तर्क नहीं है.... जो मर गया सो मर गया...अब आगे न जन्नत है, न जहन्नुम......जब सब खत्म है तो फिर किसका फैसला होना? कुछ नहीं, ये सब स्वर्ग, नरक, मोक्ष की धारणाएं खड़ी ही इस बात पर हैं कि इन्सान कुछ है जो कायनात से हट कर, कुछ व्यक्तिगत है....सो वो व्यक्तिगत आत्मा है...और मौत के बाद उस आत्मा को मोक्ष मिला तो दुबारा जन्म नहीं होगा.....वरना उसे स्वर्ग-नरक-पुनर्जन्म के चक्र में घुमते रहना होगा. जबकि ऐसा कुछ भी नहीं है..सब गपोड़-शंख हैं. उस जागतिक चेतना ने, परमात्मा ने खेल रच दिया है.....बिसात बिछा दी है, मोहरे सजा दिए हैं....लेकिन वो हर वक्त खेल में पंगे नहीं लेता रहता.....मोहरे खुद मुख्तियार हैं......अब अपने खेल के खुद ज़िम्मेदार हैं.........नियन्ता ने मोटे नियम तय कर दिए हैं.....लेकिन आगे खेल मोहरे खुद खेलते हैं. बस यहीं फर्क है.....सब धर्मों में और मेरी सोच में...धर्म कहते हैं कि परमात्मा कभी भी इस खेल में दखल दे सकता है...मोहरे अरदास करें, दुआ करें, प्रार्थना करें बस....लेकिन मेरा मानना यह है कि मोहरा जो मर्ज़ी करता रहे......अब परमात्मा खेल में दखल नहीं देता. लेकिन धर्म कैसे मान लें? मान लें तो कोई क्यूँ जाए मन्दिर, गुरूद्वारे, मसीद? कहानी खत्म. जब कोई सुनने वाला नहीं तो किसे सुनाएं फरयाद? यहीं मेरी सोच सनातन, इस्लाम, सिक्खी, चर्च सबसे टकराती है. मेरे ख्याल से ये सब झूठ के अड्डे हैं. झूठे आश्वासन दाता. इन्सान के भीतरी डर की वजह से खड़े. मेरी बात समझ आ जाए तो आपको मंदिर , मस्ज़िद, गुरूद्वारे विदा करने नहीं पडेंगे, वो अपने आप ही विदा हो जायेंगे. बस यह समझ आ जाये कि कोई आत्मा-वात्मा होती ही नहीं. जैसे सब और हवा व्याप्त है, ऐसे ही सब और एक चेतना व्याप्त है, वो ही विभिन्न रूप ले रही है. रूप को वहम है कि वो सर्व-व्यापी चेतना न होकर, रूप मात्र है. वो सर्वात्मा न होकर को आत्मा है. लहर को वहम हो रहा है कि वो समन्दर न होकर, बस लहर है. गीता का यह श्लोक लहर के भ्रम की सपोर्ट से ज़्यादा कुछ नहीं है. ग्लास में जो हवा को वहम है कि वो कुछ अलग है, उस वहम को बनाये रखने का ज़रिया मात्र है. Wishful Thinking, विषैली सोच. तुषार कॉस्मिक.....चोरी न करें..शेयर करें........नमन
मुझे ठीक पता नहीं लेकिन जेठमलानी, जो केजरीवाल का केस लड़ रहे हैं, वो कभी अडवाणी के वकील थे.
और हरीश साल्वे, जिनने जाधव का केस लड़ा है, उनने याकूब मेनन का केस भी लड़ा था.
सही है क्या भक्तो?
एक टीम बनानी है......"टीम अधार्मिक"...'टीम इंडिया' की तर्ज़ पर.....मतलब वो लोगों की टीम जो किसी भी देश, धर्म, जात-बिरादरी को नहीं मानते.....कौन कौन शामिल होगा? ज़रा हाथ खड़ा कीजिये कमेंट बॉक्स में.....
यदि कोई 'प्रदेश विशेष' के लोग किसी एक 'देश विशेष' के साथ नहीं रहना चाहते हों, यानि राजनीतिक तलाक़ चाहते हों, तो इसे राष्ट्र-द्रोह माना जाए या कानूनन वाजिब डिमांड?
पढ़ता हूँ कि हज सब्सिडी के नाम पर सरकार लूटती है. जो यात्रा कहीं सस्ते में होती है, उसके लिए कई गुणा पैसा वसूलती है सरकार. ठीक? तो बिना सब्सिडी हज जाने पर कोई रोक है क्या? ज्ञानवर्धन करें कृप्या.

Thursday, 18 May 2017

यदि सच में दिल्ली में बस स्टॉप AC हो गए हैं (चूँकि दिल्ली में हूँ, लेकिन मैंने ऐसा देखा नहीं है अब्बी तक) तो मैं इसका विरोध करता हूँ चूँकि दिल्ली का पैसा अभी और बहुत बेसिक ज़रूरतों पर खर्च होना चाहिए. मतलब जो घर खराब पंखा ठीक न करा पा रहा हो, लेकिन फिर अचानक AC खरीदने पर आमादा हो जाये तो इसे आप क्या कहेंगे?
कपिल मिश्र सही हो भी सकते हैं, लेकिन इंतेज़ार कर रहे थे क्या कि कब पार्टी से बाहर निकाले जाएँ और कब वो केजरी का भन्डा-फोड़ करें?
यदि आपके पास नये टायर न हों तो गाड़ी के खराब टायर न बदलें 'टीम अन्ना' जी.
वैसे बता दूं कि यदि गौ को कोई माता मानता है तो उसमें भी उसी का स्वार्थ है और कोई काट खाता है तो उसमें भी उसी का स्वार्थ है, गौ से किसी का कोई मतलब नहीं और न गौ को किसी से कोई मतलब है.
सच्चा प्रेम, भूत और रेड-मी नोट-4/ 64GB/4GB-RAM किसी-किसी को ही मिलते हैं.
असल में दुनिया के हर व्यक्ति को कुरान पढ़ना चाहिए......आयतों के अर्थ समझने चाहियें........कई इस्लाम छोड़ देंगे और बाकी सावधान हो जायेंगे.
भला उसकी कमीज़, मेरी कमीज़ से सफ़ेद कैसे?
भला उसका &#$%यापा, मेरे &#$%यापे से बढ़िया कैसे?
भला उसका धर्म, मेरे धर्म से महान कैसे
When it comes to money, everybody is of the same religion--Old saying
When it comes to money & sex, everybody is of the same religion---New saying

Wednesday, 10 May 2017

पक्षपाती रवीश कुमार

व्यक्ति अपनी ही सोच को आगे बढाता है जो कि अक्सर असंतुलित भी होती है.

रवीश कुमार मिसाल हैं. कितने प्रोग्राम किये आज तक रवीश कुमार ने इस्लाम या कहें कि तथा-कथित इस्लामिक लोगों  के खिलाफ?

देखा मैंने इक्का-दुक्का प्रोग्राम, जिसमें अपनी ही विचार-धारा को समर्थित करते लोग बुला रखे थे.

और 
देखा मैंने इशारों-इशारों में तारेक फ़तेह जैसे लोगों के प्रोग्राम का मज़ाक उड़ाते भी  रवीश को. 

दुनिया में एक से एक धमाके होते रहे इस्लामिक या तथा-कथित इस्लामिक लोगों द्वारा. लेकिन फ्रांस में कोई उदारवादी नेता चुना गया तो झट प्रोग्राम कर डाला.

इडियट!
Islam is just like a virus, computer or physical anyway, which gets multiplied before you are aware and then alter your whole system and start running at its own will.