Wednesday, 25 July 2018

स्कूटर के पीछे लिखा था, "बड़ी हो कर कार बनूंगी." 
मैंने उसे कहा, "रहने दे, बड़ा होने में कोई बड़प्पन नहीं है. दुनिया के ट्रैफिक में फंस के रह जाएगी."

नशा




"नशा शराब में होता तो नाचती बोतल" सुना ही होगा आपने, अमिताभ पर फिल्माया गया गाना. बकवास गणित है यह. आग तिल्ली में नहीं, माचिस की डिब्बी में भी नहीं, लेकिन घिस दो तिल्ली माचिस के पतले पटल पर, आग पैदा हो जायेगी. बच्चा न लड़की में है और न लड़के में, लेकिन सम्भोग-रत हो जायेंगे दोनों तो बच्चा पैदा हो जायेगा. सिम्पल.  

खैर, मैंने अपनी ज़िन्दगी में कोई नशा शरीर में नहीं डाला है. और मेरी कभी इच्छा भी नहीं हुई. 

पिता जी, शराब पीते थे, लेकिन बहुत सम्भल कर. मीट के भी शौक़ीन थे. खुद बनाते थे और बनाते-बनाते चौथाई मीट खा जाते. जिस रात उनकी मृत्यु हुई, उस रात भी उन्होंने दारू पी थी. अस्सी के करीब थे वो तब. लाल. सीधी कमर. मुझे बस इतना ही कहते थे कि बेटा मैं तो दिहाड़ी करता था, कम उम्र था, समझाने वाला कोई था नहीं, पता नहीं कब पीने लगा लेकिन हो सके तो तू मत पीना.

और मुझे शायद उनका कहा जम गया. जो कहते हैं कि गुड़ छोड़ने की शिक्षा से पहले खुद गुड़ खाना छोड़ो, वो बकवास करते हैं. पिता जी पीते  थे, मुझे मना कर गए और मुझे उनकी मनाही पकड़ गई. 

फिर मैंने कहीं एक कहानी पढ़ी थी. अकबर बीरबल की. 

अकबर ने पूछा बीरबल से,"बीरबल पीते हो?"

बीरबल ने कहा,"जी जनाब."

"कितनी पीते हो?" 

"रोज़ाना दो जाम जनाब"

अकबर को शक हुआ. भेष बदल पहुँच गया बीरबल के घर . बीरबल दारू पी रहा था. एक जाम, दो जाम, तीन जाम..... 

अगली सुबह अकबर ने कहा,"गर्दन उतार ली जायेगी."

"क्यों जनाब?"

"झूठ बोलते हो, जिल्ले-इलाही के सामने." 

"कैसे जनाब?"

"कहते हो दो जाम पीते हो, लेकिन हमने खुद देखा कि तुम जाम पे जाम पीये जा रहे थे."

"जनाब लेकिन मैं तो दो ही जाम पीता हूँ."

"फिर से झूठ. हमने अपनी आँखों से देखा है."

"जी जनाब, आपने देखा सही है, लेकिन समझा गलत है."

"कैसे?"

"जनाब, मैं तो दो ही जाम पीता हूँ, बाकी के जाम तो पहले वाले दो जाम पीते हैं." 

बादशाह अवाक! सही कहता है. बीरबल तो बीरबल पहले दो जाम तक ही होता है. उसके बाद कहाँ बीरबल? वो तो मदहोश. फिर कैसा बीरबल? कौन बीरबल? फिर तो जाम ही जाम को पीये जा रहे हैं. 

बस ये कहानी मुझे और घर कर गई. काहे इस तरह से होश गवाना. न. न. मुझे मंजूर नहीं. मुझे नहीं लगता कि मुझ में पिता जी जितनी कूवत है सम्भल कर पीने की. 

हो सकता है, मैं गलत होवूं. बन्धु-बांध्वियाँ कह सकते हैं कि बिना पीये ही बकवास किये जा रहा है.  जो पीया नही, वो जीया नहीं. जिस लाहौर नहीं 
 डिट्ठा ओ जम्मिया ही नहीं.  लेकिन क्या ज़हर की मारक शक्ति परखने के लिए ज़हर पीकर मुझे देखना होगा. क्या डॉक्टर को बीमारी समझने के लिए खुद बीमार होना होगा? नहीं न. 

तो बस, मुझे जो समझ आया वो मैंने किया या कहें नहीं किया, नहीं पीया. 
और जो समझा आया, वैसा ही मैंने लिख दिया. 

नमन....तुषार कॉस्मिक

कुहू कॉस्मिक

कुहू (मेरी छोटी बेटी) 5.5 साल की है. सारा दिन घर में मोहल्ले की हम-उम्र लड़कियों का जमघट रहता है. परसों कुहू ममी के साथ कहीं गई थी. माही (कुहू की फ्रेंड) मुझे कहने आई, "अंकल, कुहू को कहना कि माही छः बजे खेलने आयेगी." मतलब एडवांस बुकिंग. कितनी निराली है इन बच्चों की दुनिया! बार्बियाँ. ढेरों खिलौने. इनकी माँएँ कभी झल्लाती हैं, "इनका खेल ही नहीं खत्म होता." "पेट नहीं भरता इनका खेल-खेल." अभी-अभी गिन्नी (कुहू की एक और फ्रेंड) की ममी आईं, "गिन्नी...तुझे अगर ममी न बुलाये तो तू तो कभी घर ही नहीं आयेगी. " कोई माँ बन जाएगी, कोई बच्चा, कोई टीचर, कोई स्टूडेंट. सारा दिन कुछ-न-कुछ करती रहती हैं. मैंने कुहू को बोल रखा है, "बेटा, थोड़ी-थोड़ी देर में ममी, पापा और सूफी (कुहू की बड़ी बहन) को हग्गी और किस्सी ज़रूर करना है, उससे हमारी एनर्जी बनी रहती है." वो करती भी है. मेरे पास अगर कमाने का झंझट न हो तो मैं कुहू की दुनिया का हिस्सा बना रहूँ. इन सब बच्चों को खेलते हुए देख-देख निहाल होता रहूँ. थोड़ा तो सौभग्यशाली हूँ. जो समझता हूँ कुछ चीज़ें. वरना तो लोग बस बच्चे पैदा करते हैं. उनको पता ही नहीं लगता कि बच्चा बड़ा कब हो गया. बच्चे के जीवन का वो कभी भी हिस्सा नहीं बनते. बचपने को बचकाना समझने की भूल करते हैं. मुझे लगता है कि बच्चे का जीवन भरपूर है जीवन से. वरना हम तो बस जीते हैं मरी-मराई ज़िन्दगी. थोड़ा सा किस्मत वाला हूँ. कुहू के खेलों का हिस्सा हूँ. . नमन....तुषार कॉस्मिक

लाइन वहां से शुरू होती है, जहाँ हम खड़े होते हैं

अमिताभ बच्चन ने बोला है यह dialogue. फेमस है. कीमती शब्द हैं, किन्ही अर्थों में. कैसे? लाइन वहीं से शुरू होनी चाहिए, जहाँ आप खड़े हों. मैं सिनेमा या रेल की टिकट लेने को खड़े लोगों की लाइन की बात ही नहीं कर रहा. न. हर इन्सान कुदरत की नई कृति है. वो किसी और की बनाई लाइन पे क्यों चले? किसी और के पीछे क्यों चले? क्यों खड़ा हो किसी के पीछे? ये बड़े ही सिम्पल से शब्द हैं मेरे. लेकिन और आगे लिखूंगा तो निन्यानवे प्रतिशत इंसानी आबादी की समझ से बाहर हो जाएगी मेरी बात. क्यों खड़े हैं आप किसी अरब के रेगिस्तानों में 1400 साल पहले पैदा हुए आदमी के पीछे? क्यों अंधे हैं आप किसी कृष्ण, किसी राम के नाम के पीछे? जो शायद हजारों साल पहले हुए. क्यों आपने दो हज़ार साल पहले पैदा हुए किसी व्यक्ति को ईश्वर का बेटा मान रखा है? आप क्या किसी और ईश्वर के बेटे हैं? ये लोग सही थे या गलत थे? यह सेकेंडरी सवाल है. प्राइमरी सवाल यह है कि इनके जीवन, इनके कथनों को काहे अंधे हो कर मानना? तुम इनसे एक कतरा भी, एक ज़र्रा भी कमतर नहीं हो. तुम किसी पैगम्बर, किसी अवतार, किसी भगवान से जरा भी कमतर नहीं हो. लाइन वहां से शुरू होती है, जहाँ हम खड़े होते हैं. नमन...तुषार कॉस्मिक

बे-ईमान

जानते हैं मुसलमान 'बे-ईमान' किसे समझता है? जो 'बिना ईमान वाला' हो. और कौन है 'बिना ईमान वाला'? जो 'मुस्लिम' नहीं है. क्योंकि ईमान तो दुनिया में एक ही है और वो है इस्लाम. मतलब जो मुस्लिम नहीं है, वो तो वैसे ही चोर, उचक्का, डकैत, हरामी है. आपने पढ़ा होगा, "हलाल मीट शॉप". ये इस्लामी ढंग से जिबह किये गए जानवर का मांस बेचती दुकानें हैं. लेकिन सब तो उस ढंग से नहीं काटते जानवर. तो जो बाकी ढंग हैं, वो है झटका. लेकिन जो हलाल नहीं, वो तो "हराम" ही हुआ न, चाहे वो झटका, चाहे फटका. इसलिए मुसलमान सिर्फ हलाल मीट खाते हैं. खैर, अब जो दुनिया यह समझ रही है, वो अपना अस्तित्व बचाए रखने का संघर्ष कर रही है. चाहे उस संघर्ष में वो भी इस्लाम जैसे ही होती जा रही है. जिससे आप लडेंगे, कुछ कुछ उस जैसे हो ही जायेंगे. आपको लड़ने वाले के स्तर पर आना ही होगा. एक विद्वान भी अगर किसी रिक्शे वाले से सड़क पर भिड़ेगा तो उसे एक बार तो रिक्शे वाले के स्तर पे आना ही होगा. सब किताब-कलम मतलब लैपटॉप-गूगल धरा रह जायेगा. माँ-बहन याद की जाएगी एक-दूजे की. क़ुरान से भिड़ने के लिए सड़े-गले पुराण खड़े करने ही होंगें. हालाँकि तर्क-स्थान बनाते दुनिया को तो आज यह स्वर्ग होती. लेकिन उसमें मेहनत बहुत है, सो आसान रस्ता चुन लिया गया है. बस यही कारण है कि भारत भी 'लिंचिस्तान' बनता जा रहा है.

हम सब सिर्फ बन्दर हैं. इन्सान-नुमा ही सही

एक मित्र ने कमेंट किया है कि मैं इस्लाम के खिलाफ लिखता हूँ तो क्या मुसलमानों के कत्ल पर सहमत हूँ. नहीं हूँ? बिलकुल नहीं हूँ. मेरे दोस्त हैं, मुस्लिम. यहाँ भी हैं. मैंने घंटों बिताएं हैं मुस्लिम मित्रों के साथ. प्रॉपर्टी डीलिंग में भी मेरे दोस्त हैं नाज़िम भाई. आज कल सबसे ज्यादा इन्ही के साथ बात-चीत होती है. Anikul Rahman दिल्ली में रहते हैं, मेरे छोटे साले साहेब के घर के बिलकुल साथ वाली सोसाइटी में द्वारका में. मैं ख़ास मिलने गया था इनसे. गपशप हुई. मुझे उनकी बातों से लगा कि वो चिंतित हैं, सेफ्टी के लिए अपने और अपने परिवार के लिए. होना भी चाहिए. एक हैं Mo Zeeshan Shafayye. ये मुझे मिले बाराबंकी में. इनकी कोई प्रॉपर्टी फंसी है कोर्ट केस में. कोई साल भर पुराना नाता है और यकीन जानिये बहुत ही प्यारा नाता है. और भी लोग हैं. जिनसे सम्पर्क रहा है घंटों, सालों. तो मेरी समझ यह है कि ये सब लोग भी एक अच्छी, सेहतमंद, सेफ ज़िन्दगी ही चाहते हैं. ये सब भी अपने परिवारों के लिए जान लड़ाते हैं. ये सब लोग भी वैसे ही हैं जैसे और तबके के लोग हैं. बुनियादी ज़रूरते, बुनियादी उम्मीदें, बुनियादी तकलीफें सब एक जैसी हैं. एक जैसी ही होंगी. अलग कैसे हो सकती हैं? बन्दर के बच्चे सब एक जैसे हैं. अब फर्क कहाँ है? फर्क है आइडियोलॉजी में. फर्क है किताबों की पकड़ में. कोई एक किताब पकड़ के बैठ गया है तो कोई दूसरी. कोई एक कहानी के पीछे पागल है तो कोई दूसरी. कहानी ही तो है. अगर कोई आया भी इस दुनिया से और विदा हो गया तो उसका जीवन पीछे कहानी ही तो छोड़ता है और क्या? बस यहीं फर्क है. यह फर्क ऐसे नहीं मिटेगा कि हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई. वो तो होने से रहा. यह फर्क मिटेगा अगर हिन्दू, मुस्लिम यह कहें कि कौन हिन्दू, कौन मुस्लिम? हम सब हैं एक जैसे कसाई, एक जैसे हलवाई, एक जैसे नाई. हम सब सिर्फ बन्दर हैं. इन्सान-नुमा ही सही. नमन...तुषार कॉस्मिक

मेरा समाज--एक झलक

मैं पश्चिम विहार, दिल्ली में रहता हूँ. मेरे बगल में ही एक इलाका है मादी पुर. यह एक पुनर्वास कॉलोनी है. इस कॉलोनी के लगभग हर चौक पर मैं अक्सर टोन-टोटके करे हुए देखता हूँ. निश्चित ही यहाँ के परेशान निवासियों की समस्याओं का हल बामन, मौलवी या बाबा ने इनको यह सब करने में बताया होगा. मादीपुर के एक तरफ पश्चिम विहार और दूसरी तरफ पंजाबी बाग. आपको गलियों या सड़कों के बीचों-बीच इन दोनों इलाकों में इस तरह की बेहूदगी नहीं मिलेगी. पंजाबी बाग तो वेस्ट दिल्ली के सबसे अमीर इलाका है. जिन्न-भूत-प्रेत लगता है अमीरों से दूर भागते हैं. असल में सब कहानी अनपढ़ता की है. और जब मैं अनपढ़ लिखता हूँ तो उसका मतलब यह नहीं कि कोई पढ़ना लिखना जानता है तो वो अनपढ़ नहीं हो सकता. नहीं, वो निपट अनपढ़ से ज्यादा अनपढ़ हो सकता है चूँकि उसकों वहम हो जाता है कि वो पढ़ा-लिखा है अब उसको आगे पढ़ने, खुद को गढ़ने की ज़रूरत नहीं है. वो खुद के लिए एवं समाज के लिए अनपढ़ों से भी ज्यादा खतरनाक है. लोग अनपढ़ हैं, अनगढ़ हैं. जिधर मर्ज़ी हंक जाते हैं. कुछ समय पहले यहाँ दिल्ली के हर मोड़ पर साईं बाबा की विशाल चौकी के लिए पैसे इकट्ठे करने की दूकान लगी होती थी. मोहल्ले के चार चोर जुड़ जाते थे और घर-घर, दूकान-दूकान जा-जा लोगों हलकान कर के वसूली करते थे. फिर होड़ होती थी कि 'हमसर हयात' (तथा-कथित सूफी गायक, जिसे मैंने इन साईं संध्याओं से ही जाना) को बुलाया कि नहीं. लेकिन 'जगत-गुरु शंकराचार्य' ने बोल दिया कि साईं तो मुसलमान थे, मन्दिर में कैसे रख सकते हैं उनकी मूर्ति? व्हाट्स-एप पर साईं के खिलाफ़ मेसेज फ्लोट करने लगे. भला उसकी कमीज़ मेरी कमीज़ से सफेद कैसे? भला मेरा ग्राहक तोड़ के वो कैसे ले गया? खैर, वो ज्वार कटा तो नहीं, घटा ज़रूर है. वैसे ये साहेबान 'जगद्गुरु' कैसे हो गए? यह भी समझ नहीं आया आज तक. विश्व में ईसाई और इस्लाम दो बड़े धर्म ईसा और मोहम्मद को मानते हैं. इनको क्यों मानेंगे अपना गुरु? और यहाँ भारत में, मैं इनको अपना गुरु नहीं मानता तो ये कैसे हो गए जगद्गुरु? खैर, आज-कल दिल्ली का हिन्दू समाज 'गुरु जी' के पीछे लगा है. ये जब जिंदा थे तो मैंने कभी इनका नाम तक नहीं सुना था. अब दिल्ली में हर तीसरी कार के पीछे लिखा होता है 'गुरु जी'. इनके सत्संग घर-घर होते रहते हैं. ध्यान किया जाता है. किसलिए? आर्थिक और दुनियावी समस्यायों के हल के लिए. कल पता लगेगा कि किसी और फोटो, मूर्ति, जिंदा-मुर्दा शख्सियत को पकड़ लेगा हमारा समाज. यह सब चलता ही रहता है. समस्याओं का हल विज्ञान में है. वैज्ञानिक सोच में है. वैज्ञानिकता में है. इन सब बकवास-बाज़ियों में नहीं है. कांवड़ यात्रा शुरू हो जाएगी. यकीन जानें, कांवड़ लाने वाले अधिकाँश लोग, ये जो मैंने ऊपर ज़िक्र किया मादीपुर, ऐसे इलाकों से हैं. कोई अमीर लोग कांवड़ लेने नहीं जाते. अमीर इनको पोषित ज़रूर करता है, ताकि अपने पाप कटवा सके. एक बकवास होड़ है, हर साल. साल दर साल. सडकें जाम कर दो, जो पहले ही बस रेंगती हैं. हल्ला-गुल्ला करो. ये धर्म है. हिन्दू धर्म. कोई खिलाफ कैसे बोल सकता है? विधर्मी कहीं के. इस्लाम के खिलाफ़ बोल के दिखाओ तो जानें. बोल बम. जय श्री राम. हिन्दू बड़ा खुश है, ख़ास कर के मन्दिर में बैठा बामन. अग्निवेश को पीट दिया. आपने सुना अग्निवेश का भाषण, वो बता रहे हैं कि अमर नाथ का शिव लिंग मात्र एक कुदरती घटना है, इसमें कुछ भी दिव्यता नहीं है. वो जियोग्राफी का तथ्य बता रहे हैं. मैं भी ऐसा ही लिखता हूँ, बहुत पहले से. बिलकुल सही बात है, वैज्ञानिक बात है. लेकिन यह तो हमला हो गया मंदिर पर. बामन पर. बामन के इर्द-गिर्द खड़ी राजनीति पर. कैसे बरदाश्त किया जा सकता है? सो कूट दो. मार दो. कत्ल कर दो. मैं कहता हूँ कि समाज जिसके खिलाफ नहीं, वो इन्सान बोदा है, थोथा है. यह सीधी कसौटी है. अग्निवेश में कुछ अग्नि है, जो उन्होंने ऐसा कहा. ऐसे ही लोग चाहिए भारत को. वरण यह समाज भूत-प्रेत-हैवान-भगवान में फंसा रहेगा. इसे बाहर निकालो, मितरो. नमन.....तुषार कॉस्मिक

Wednesday, 18 July 2018

सबसे ज्यादा छित्तर इन्सान खुद को मारता रहता है.
ज़रा गलती हो जाये, खुद को कचोटता रहता है.
अच्छे काम पर खुद को शाबाशी भी देनी चाहिए.

हाँ, लेकिन न्यूट्रल नज़र बहुत ज़रूरी है, खुद के प्रति भी और यहीं सब नाप-तोल गड़बड़ा जाता है.

तकड़ी का काँटा कहीं भी एक्सट्रीम पकड़ लेता है.
या तो खुद को हम आसमान पर चढ़ा लेते हैं या फिर खड्ड में गिरा लेते हैं.

बैलेंस बना ही नहीं पाते चूँकि हमारी नजरों पर हज़ार-हज़ार पर्दे हैं बेवकूफियों के.

खैर, अल्लाह-ताला नाम का ताला खुल जाए सबसे ज़रूरी तो यही है.

हो नहीं पाता अक्सर. अधिकांश इन्सान इत्ते खुश-किस्मत नहीं होते. अंधेरों में पैदा होना, अंधेरों में जीना और अंधेरों में ही मरना, यही नियति है अधिकांश जन की.
जितना व्यक्ति जानदार होगा उतना ही दीन-दुनिया उससे परेशान होगी. जानदार से मतलब डौले-शोले वड्डे होना नहीं है. रीढ़ मज़बूत होना है. और वो रीढ़ मजबूत योग या जिमनास्टिक करने से नहीं गहन सोच से होती है, जो कि अधिकांश जन की होती नहीं. दुनिया में आये हैं तो बस खाओ, पीओ, बच्चे पैदा करो और मर जाओ. बस इससे ज्यादा सोच ही नहीं है. पागल थे वो लोग जिन्होंने आविष्कार करने में जिंदगियां गला दीं, जिन्होंने समाज को दिशा देने में हाथ-पैर कटवा दिए, जिन्होंने दुनिया को रोशनी मिल सके इसलिए ज़हर पी लिया. बस तुम ठीक हो, जो सिर्फ अपनी औलादों और अपने लिए पैसे का ढेर खड़ा करने में ही मोक्ष पा लेते हो. उल्लू मर जाते हैं, औलाद छोड़ जाते हैं पीछे, इस धरती पर गंद डालने को. जरा योगदान नहीं कि दुनिया कि बेहतरी हो सके. लंगर लगा देंगे सड़क पर, हो गया काम. सड़क पर गंद डालेंगे, ट्रैफिक जाम कर देंगे, प्लास्टिक का ज़हर फैला देंगे और इतने में निहाल हो जायेंगे.
इडियट हो, मर जाओ
अधिकांश लोग अपनी नाक से आगे नहीं सोच पाते.

दूर के बड़े फायदे को नहीं देख पाते. दूर तक होते हुए फायदे नहीं देख पाते. नहीं देख पाते कि सामने वाला सोने का अंडा देने वाली मुर्गी साबित हो सकता है.

वो बस नजदीक का फायदा देखते हैं. तुरत होने वाला फायदा देखते हैं. मुर्गी को तुरत हलाल या हराम करने में यकीन करते हैं.

इडियट हैं. होना तो यह चाहिए कि कई बार दूर के बड़े फायदे के लिए निकट का छोटा फायदा भी कुर्बान कर देना चाहिए. ऐसा मेरा मानना है.

मैं लम्बे रिश्ते बनाने में यकीन रखता हूँ. लेकिन रख नहीं पाता हूँ चूँकि आप लम्बे रिश्ते तभी रख सकते हैं जब सामने वाला भी ऐसा ही सोचता हो. अन्यथा आप मुर्दा किस्म के रिश्ते ढोते रहेंगे.
'Unconditional Love' is just a myth. An 'Urban Myth'.

इडियट केजरीवाल

तभी कहता हूँ कि केजरीवाल नहीं है भविष्य भारत का. भारत का भविष्य मैं हूँ. ये जनाब तो हिन्दुओं को मुफ्त तीर्थयात्रा करवा रहे हैं और मुस्लिमों को हज की बधाइयां देते फिर रहे हैं.

स्टेट सेक्युलर है. और स्टेट्समैन को भी सेक्युलर होना मांगता. मांगता कि नहीं?

न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर.

संविधान सेक्युलर है. संविधान तो वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने की बात भी करता है.

अब मैं जैसे नहीं मानता किसी भी धर्म को तो मेरे जैसे लोगों के साथ तो ना-इन्साफी है न कि मेरे पैसे से हज या तीर्थ करवाए जाएँ या कैसी भी धार्मिक मान्यता को बढ़ावा दिया जाए.

इडियट हैं ये नेता. दफा करो इनको. सिर्फ मेरे जैसों को बढ़ाओ, जो तुम्हारे समाज की बकवास मान्यताओं को तार-तार कर के रख देंगे.
सबक आपको हर पल सिखाता है, बशर्ते आप 'अक्ल-बंद' हों.
ज़मीन पर अग्निवेश नहीं, भारत की खुली सोच गिरा दी गई है. सदियों तक जंगल-राज की तैयारी है.
"मुसीबत आने वाली है तेरी बरबादियों के चर्चे हैं आसमानों में, ना संभलोगे तो मिट जाओगे ए हिंदोस्तां वालों तुम्हारी दास्तां भी न होगी दास्तानों में", इकबाल ने सही लिखा था.
2 और 2 चार होते हैं, सब 5 करने की कोशिश में लगे रहते हैं. ढेर श्याणे.

धार्मिक मूर्खताएं

बड़ा मजाक उड़ाया जा रहा है कि जगन नाथ भगवान बीमार हुए, उनका इलाज हुआ, अब शायद ठीक हैं.

ये कुछ खास बात नहीं है.

हिन्दू तो शिव पार्वती मूर्तियों का बाकायदा हर साल विवाह भी करते हैं. बारात निकलती है, भजन-भोजन होता है, कन्या-दान होता है, विदाई होती है, सब.

सिक्खों में किताब (ग्रन्थ) को जिंदा मानते हैं. चंवर से हवा करते हैं, वस्त्र पहनाते हैं, बदलते हैं.

मुसलामानों में पत्थर मारते हैं कहीं, तो समझते हैं कि शैतान को मार रहे हैं. बकरा काट के खुद खा जाते हैं और समझते हैं कि अल्लाह को कुर्बानी दे दी.

धर्म का मतलब है, अक्ल पे पर्दा गिरना, जो न करवाए, वही बढ़िया, वरना तौबा! तौबा!! तौबा!!!

Schooling is an organised way to rob the intelligence of the children. Beware!


कश्मीरियों से मेरा ताज़ा वास्ता

प्रॉपर्टी डीलर हूँ. कल कुछ कश्मीरी आये थे किराए पर लेने. चार लोग, दो लड़के, दो लड़की. मैंने लड़की के लहजे से पहचान लिया कि वो कश्मीरी हैं. वो यहाँ नर्सिंग जैसा कुछ कर रही थी. मैंने बोला कि जब सीखना यहीं है, काम यहीं करना है, तो सब कश्मीरी भारत ही आ जायें. भारत तो कहता ही है कि कश्मीर हमारा है तो फिर कश्मीरी भी हमारे ही हुए. लड़की पता क्या बोली? बोली, "लेकिन कश्मीरी मत मानते कि हम भारत के हैं." यह सब बस flow में बात हुई. नार्मल flow. यह बात मामला खोल गई. मैं बाद में मेरे साथ वाले डीलर, जो कि खुद मुस्लिम है, को कह रहा था, "जब ये लोग खुद को भारत से अलग मानते हैं तो फिर यहाँ किराए का घर किस लिए ढूंढ रहे हैं?" उसने कहा, "हाँ, इसको यह बात कहनी नहीं चाहिए थी?" मतलब.....'कहनी' नहीं चाहिए थी...चाहे दिल में कुछ भी हो. वाह! लेकिन यह बात तो सब कुछ ही कह गयी. मेरा बस यही पॉइंट है कि.....जब कश्मीरी खुद को मानते ही नहीं भारतीय तो फिर यहाँ क्या कर रहे हैं? उनके जैसे तो और भी बहुत हैं यहाँ भारत में. और भारत सरकार इनको एंट्री ही क्यों दे रही है? मेरा एक दोस्त है कश्मीरी....ब्राह्मण है ..वो भी यही सब बताता था. कोई भी कश्मीरी मुस्लिम....खुद को भारतीय नहीं मानता. मुझे लगता है कि वजह है कि इनको पता है कि कश्मीर टूरिज्म से बहुत अमीर हो सकता है. पैसा एक बड़ी वजह है. अब जब वहां नहीं है टूरिज्म तो गरीबी है. गरीबी है तो ये लोग भारत को भाग रहे हैं. लेकिन अंदर से भारत के प्रति खोटे हैं. नहीं होना चाहते भारत के साथ. चाहते हैं भारत दफा हो और वो अपनी सरकार बना लें और टूरिज्म से पैसा कमायें. कश्मीर की समस्या की वजह इस्लाम है. और पैसा है और कुछ यह भी है कि कश्मीर कभी भारत का उस तरह से हिस्सा रहा ही नहीं जैसे और स्टेट हैं. फिर से लिखता हूँ ......वजह....वजह.....है...इस्लाम......टूरिज्म का पैसा और पुराने कोई राजनीतिक इकरार-नामे. नमन...तुषार कॉस्मिक

ये मेरा झापढ़ है भैया


Written By My  Australian Friend Veena Sharma 

अक्सर लोग मेरी भारत पे की गयी टीका टिप्पणियों को वैयक्तिगत ले लेते हैं और मुझे हैरान कर देते हैं और सोचने पे मजबूर कि भाई तुम्हें प्यार है भारत से पर मेरा प्यार तुमसे कम है ये तुमसे किसने कह दिया। मैं वो अंधी माँ नहीं जिसे दुनिया में अपने बच्चे के सिवा कोई और सुंदर नहीं लगता। मैं वो बच्चा भी नहीं जिसे बस अपनी माँ ही सबसे बढ़िया दिखायी दे। सत्य का अपनेपन से क्या लेना देना। क्या सत्य भी तेरा या मेरा होता है?

ख़ैर आज अपने अनुभव से भारत के प्राइवट स्कूल माफ़िया की बात करूँगी। बच्चों से जम के फ़ीस ले कर ये अधपढ़ क़िस्म की अध्यापिकाएँ अनपढ़ टाइप के माँ बाप को उल्लू बनाने के लिए रख लेते हैं। मैं स्वयं कई साल भारत के प्राइवट स्कूलो में पढ़ाती रही।सच कहूँ तो कॉलेज में लेक्चरर बनने का सपना तो पूरा हो ना सका अब मरते क्या ना करते। सरकारी स्कूल से पढ़े अंग्रेज़ी साहित्य में M.A तो कर लिया कॉन्वेंट में पढ़े जैसे अंग्रेज़ी बोलनी अब आए नहीं। तो कुछ घसियारे टाइप के स्कूल हमपे कृपा का बैठे। अब अच्छी अंग्रेज़ी बोलने वाले उन स्कूल्ज़ में क्यूँ पढ़ाएँगे जिनके मालिक अनपढ़ लाला लोग।

एक दिन बहुत थक गयी तो कुर्सी पे बैठ गयी। प्रिन्सिपल राउंड पे निकले तो मुझे बाहर बुला के बोले “ मैडम कुर्सी बैठने के लिए नहीं” अब मन हुआ पूछूँ “ कि भाई इस पे तू लटक के फाँसी के फंदे पे झूल ले फिर”

मैडम बच्चों की लाइन सीधी नी बनवा पाते वीना मैडम, वीना मैडम फ़लाँ मैडम से आप ज़्यादा बात ना करो अच्छा नहीं आपके लिए, मैडम आपकी कापी देखी आप तो ग़लतियाँ ढंग से निकालती नहीं, वीना मैडम बहुत नम्बर दे देते हो आप,मैडम छुट्टी के पैसे कटेंगे वग़ैरह वग़ैरह...

जितनी फ़ज़ीहत जितना अपमान उन दिनों सहा उस से अधिक सम्मान मैं अपने घर पे काम करने वाली बाई को देती थी। “ आजा सुनिता बहन चल दोनों चाय पीते हैं फिर करियो सफ़ाई “

सजी धजी साड़ियों में घूमती और स्कूल के प्रांगण को सुशोभित करती ये हसीनाएँ सिवा सजे धजे मज़दूरों के कुछ नहीं।

और यहाँ प्लीज़ सारी थैंक यू , मेरी बॉस भी मुझे एक बात में चार बार कहती है तो वो ग़ुलामी के दिन याद आ जाते हैं मन ही मन कहती हूँ “ अबे वीना तेरी इतनी औक़ात कहाँ है, याद हैं वो दिन जब प्रिन्सिपल राउंड पे आता था कैसे एक मिनट में आगे गीला पीछे पीला हो जाता था, मन चकरा जाता था, घिग्गी बंध जाती थी”

अरे भाई हम पीछे रह गए फिसड्डी देशों से भी उसकी वजह तो होगी और वजह देश की मिट्टी थोड़ा ही है अब वजह कौन है सोच लो। सोचोगे तभी तो सुधरोगे। पर नहीं यहाँ तो गीत भी ऐसे ही बनते हैं “ हम तो ऐसे हैं भैया” गोबर सनी सड़कों पे धूल उड़ाते हुए गाओ “ ये अपना टशन है भैया” मन तो करता है एक रसीद करके कहूँ “ ये मेरा झापढ़ है भैया, ये मेरा थप्पड़ है भैया”

अंत करते हुए कहूँ कि ख़यालों में मैंने उन सब प्रिन्सिपल्ज़ के मुँह पे ख़ूब झापड़ लगाए।अब क्या करें सच में तो लगा नहीं पाए।ख़याली पुलाव ख़ूब बनाए।


Veena Sharma from Australia

खतरनाक वकील

वकील का पेशा बहुत ही नोबल(भद्र) माना जाता है. लेकिन सिर्फ माना जाता है. है नहीं. कैसे हो सकता है? एक समाज, जो नोबल न हो, उसकी कोई भी चीज़ कैसे नोबल हो सकती है? वकील भी उतना ही हरामी है, जितने आप है, जितना मैं हूँ. नहीं, गलत लिख गया मैं. वकील हम से ज्यादा हरामी है. वजह है. वजह है, उसका हमसे ज़्यादा कायदा-कानून जानना. सो वो एक हैंकड़ में रहता है कि मैं वकील हूँ. मैं कुछ खास हूँ. ऐसी की तैसी बाकी टुच्चे-मुच्चे लोगों की. ये बिगाड़ क्या सकते हैं मेरा? तीस हज़ारी कोर्ट में K ब्लाक के पास पार्किंग के ठीक ऊपर एक गंदा सा ढाबा है. सुना था मैंने कि उसमें किसी वकील साहेब का कत्ल हो गया था. किसी सिविलियन ने कर दिया था. कर दिया होगा. चल गया अगले का दांव, वरना तो कोर्टों में वकील वैसे ही एक-जुट होते हैं, फुल बदमाशी. किसी को कुछ नहीं समझते. पीछे सर्टिफाइड कापियां लेने के लिए लाइन में खड़ा था तो एक वकील मोहतरमा लाइन छोड़ सीधे ही घुस गई खिड़की में और मेरे रोकने पर लगी मुझे ही तमीज़ का पाठ पढ़ाने. हाथा-पाई होते होते बची. उसके अगले ही दिन, मेट्रो की लाइन में टिकट लेने को खड़ा तो देखा एक वकील महोदया बिना लाइन की परवाह किये सीधे ही पहले नम्बर पर पहुँच गईं. ये घटनाएं बताती हैं कि वकील आम लोगों को ठेंगे पे रखते हैं. वजह है, लोगों का कानून में शून्य होना. वजह है, कानून व्यवस्था लचर होना. कौन भिड़े, इन से? बरदाश्त कर लो, इनकी बदमाशियां, बस इसी में समझ-दारी है. कल-परसों की खबर है, दिल्ली साकेत कोर्ट में वकील औरत का बलात्कार वकील आदमी ने कर दिया. झाडें अब वकील होने का रौब एक दूजे पर. वैसे अधिकांश वकील वकालत में फेल होते हैं. न इनको ढंग से अंग्रेज़ी आती है, न टाइपिंग, न ड्राफ्टिंग, न बहस. ये लोग लगभग जीरो हैं, लेकिन इनके पास काला कोट है. वो भी असली-नकली डिग्री की बदौलत. कहते हैं कि भारत के आधे वकीलों की डिग्री फर्ज़ी है, शायद इनमें से कोई तो जज भी बन चुके हों. तौबा! खैर, आपको कई वकील मिल जायेंगे, जिनके कोट पसीने से सफेद हो रखे होंगें. जूते घिसे, फटे. सौ-दौ सौ रुपये के काम के लिए कोर्टों के बाहर-अंदर ग्राहक पकड़ते हुए. ट्रैफिक चालान निपटवाते हुए. प्रॉपर्टी डीलर हूँ, अधिकांश लोग वकीलों को किराए पर मकान नहीं देते. मुझे लगता है कि सही करते हैं. अपने आपको, अपने परिवार को कानून सिखाएं. ज़रूरी है. वकील आपका कुछ नहीं बिगाड़ पायेगा, आपको बेवकूफ न बना पायेगा, वरना सावधान रहिये, काले कोट वालों से. खतरनाक हैं. नोट:--- हो सकता है कोई वकील सच में नोबल हों, वैसे न हों, जैसा मैंने लिखा है. तो यह लेख उनके बारे में नहीं है. अपवाद तो कहीं भी हो सकते हैं. और अपवाद नियम के खिलाफ नहीं होते, नियम को साबित करते हैं. नमन................तुषार कॉस्मिक

Monday, 2 July 2018

Theory of Karma is just a wishful thinking of the victim or the one who considers oneself a victim.
बच्चियां न हिन्दू थीं जन्म से, न मुस्लिम. पहला बलात्कार तो उनको हिन्दू मुस्लिम बना कर किया गया. यह उनके मन से बलात्कार था. बलात्कार क्या है? बल से किया गया कार्य, ज़बरन किया गया कार्य. फिर तन से ज़बरन सम्भोग कर के किया गया. मैं दुखी हूँ. मैं इनको हिन्दू मुस्लिम के खांचे में बाँट नहीं देख सकता. सॉरी,बच्चों को ऐसे नहीं देख सकता. मेरी दो बेटियां हैं. मैं सेक्स के बंधन के खिलाफ हूँ लेकिन बलात्कार के और भी खिलाफ हूँ. यह गलत है. बिना मर्ज़ी के तो किसी को हाथ लगाने तक की हिम्मत नहीं होनी चाहिए बलात्कार तो बहुत ज़्यादा है. न. न.
बॉलीवुड ने संजय दत्त का जीवन दिखाया और हॉलीवुड ने रामानुजन का. सलाम हॉलीवुड. महान गणितज्ञ को दुनिया के रूबरू किया आपने.
फिल्म बनाने के लिए जब संजय दत्त का जीवन ही मिले तो साबित हो ही जाता है कि काटजू ने सही कहा था कि अधिकांश भारतीय तुचिए हैं.
जब तुम मशहूर करोगे, "सेल्फी मैंने ले ली आज" और "हेलो फ्रेंड्स चाय पी लो" कहने वालियां को तो तुम्हें लीडर भी बकलोल ही मिलेंगे.
न तो मेरा मंगलवार हनुमान का है और न ही शनिवार शनिदेव का. 
मेरा हर वार सिर्फ मेरा है.
यदि सही लोकतंत्र चाहिए तो अपने क्षेत्र के नेता को ललकारें खुली बहस के लिए कि जिस काम के लिए वो नेता बने हैं, वो कैसे करेंगे.
जिसे बर्फानी बाबा का लिंग समझते हो उसे विज्ञान स्टेलगमाईट कहता है. फ्रीजर बंद रहे कई दिन तो वैसे लिंग बर्फ के बने दिखेंगे वहां.
पीछे खबर थी कि 'राधा-स्वामी-सत्संग' ने सैंकड़ों एकड़ लैंड कब्जा रखी है दिल्ली में. सच है क्या? GK बढ़ानी है बस.
मैं केजरी की दिल्ली को पूर्ण राज्य की मांग का पूर्णतया समर्थन करता हूँ. दिल्ली की ऐसे-तैसी हो रखी है. यह एक आम शहर से बदतर है.
गर्म मुल्क. फिर भी कोट. वो भी काला. ऊपर से गल-फांस भी. और ऊपर से काला चोगा भी. चले हैं औरों को न्याय दिलाने. हमारे वकील. इडियट.
जो मोदी का विकल्प पूछते हैं, उन्हें मेरा नाम सुझा दो. बन्दा तैयार है, मोदी हो, राहुल हो, कोई हो खुली बहस कर लें. पॉइंट टू पॉइंट.
दान देना है. मत दीजिये मंदर, गुरूद्वारे, गिरजे को. किसी वैज्ञानिकता से भरे व्यक्ति को खोजिये, उसे दीजिये.किसी कवि को.किसी लेखक को.
तुम्हारा लिंग बहुत बढ़िया है और बड़ा है. लेकिन उसे सड़क पे लहराते नहीं फिरते न. तो फिर अपना धर्म सड़क पे काहे लाते हो बे?

Saturday, 30 June 2018

Intelligentsia

गर कहीं बेहतरी की गुंजाईश है लेकिन हो नहीं रही तो उसके लिए मैं सरकारों को नहीं, वहां के intelligentsia (बुद्धिजीवी वर्ग) को ज़िम्मेदार मानता हूँ. चूँकि सरकारें तो प्राय: बकवास ही होती हैं लेकिन उनके ज़रिये बेहतरी करवाता है intelligentsia. Intelligentsia, जो मुल्क में, दुनिया में विचार की हवा बनाता है और उस हवा से बनी आंधी के दबाव में सियासत को रुख बदलना पड़ता है, बात माननी पडती है.

Tuesday, 26 June 2018

मौत

हम सब ऐसे जीते हैं जैसे मौत हो ही न. लेकिन आप किसी के मृत्यु-क्रिया में जाओ, पंडत-पुजारी-भाई जी कान खा जायेंगे उस एक घंटे में, आपका जीना मुहाल कर देंगे, आपको यह याद दिला-दिला कि 'मौत का एक दिन मुअययन है'. ठीक है मौत आनी है, इक दिन आनी है या शायद किसी ख़ास रात की दवानी है तो क्या करें? जीना छोड़ दें? वो हमें यह याद दिलाते हैं कि यह जीवन शाश्वत नहीं है सो हम स्वार्थी न हो जाये. सही है, लेकिन जब तक जीवन है तब तक जीवन की ज़रूरतें हैं और जब तक ज़रूरतें हैं तब तक स्वार्थ भी हैं. हाँ, स्वार्थ असीमित न हों, बेतुका न हों. जैसे जयललिता के घर छापे में इत्ते जोड़ी जूतियाँ मिलीं, जो शायद वो सारी उम्र न पहन पाई हो. लोग इतना धन इकट्ठा कर लेते हैं जितना वो उपयोग ही नहीं कर सकते. धन का दूसरा मतलब है ज़िन्दगी. धन आपको ज़िदगी जीने की सुविधा देता है, ज़िन्दगी फैलाने की सुविधा देता है. धन आपको ज़िन्दगी देता है. लेकिन जब जितनी ज़िंदगी जीने की आपकी सम्भावना है उससे कई गुना धन कमाने की अंधी दौड़ में लग जाते हैं तो आप असल में पागल हो चुके होते हैं. आपको इस पागलपन का अहसास इसलिए नहीं होता, चूँकि आपके इर्द-गिर्द भी आप ही के जैसे पागलों का जमावड़ा है. ऐसे में कैसे पता लगे कि आप पागल हैं? खैर जीना ऐसे ही चाहिए कि जैसे मौत हो ही न और जीना ऐसे चाहिए कि जैसे बस यही पल हमारे पास है. अगला पल हो न हो. कल हो न हो. पल हो न हो. और मौत? मौत से बहुत डरते हैं हम. मौत को मनहूस मानते हैं. ठीक है, जहाँ पीछे परिवार को दिक्कतें आनी है किसी के जाने से, वहां तो मौत मनहूसियत लायेगी ही लेकिन हर जगह ऐसा नहीं होता. मौत बहुतों को एक सुकून देती है. चलो पिंड छूटा. बस बहुत हुआ सोना-जागना, खाना-पीना. अब चला जाये. ये जो आत्म-हत्या को बहुत बड़ा मुद्दा बना रखा है, वैसा होना नहीं चाहिए. आत्म-हत्या कोई आर्थिक तंगी से या बीमारी से परेशान हो कर रहा है तो निश्चित ही समाज के लिए चिंता का विषय है लेकिन वैसे अगर कोई राज़ी-ख़ुशी जाना चाहता है तो उसे जाने देना चाहिए. प्रेम-पूर्वक. सम्मान-पूर्वक. और हर मृत्यु पर विलाप किया जाये, वो भी कोई उचित नहीं. वैसे हमारा समाज इस बात को समझता भी है इसलिए जब कोई बहुत वृद्ध मरता है तो उसकी अर्थी पर गुब्बारे, फूल आदि लगाए जाते हैं लेकिन समाज को अपनी समझ और बढ़ानी चाहिए. ज़रूरी थोड़ा न है कि वृद्ध था इसलिए उसकी मृत्यु का शोक न किया जाये. कोई भी व्यक्ति, जैसे आढे-टेढ़े बच्चे, जन्म से ही मानसिक रुग्ण बच्चे, लाइलाज बीमारियों से ग्रस्त बच्चे. अब इनकी मौत का क्या करेंगे? मना लीजिये शोक. लेकिन शायद मृत्यु इनकी मरी-मराई ज़िंदगी से छुटकारे का साधन थी. मौत को हमने बहुत बड़ी घटना बना रखा है. कभी आपने देखा? आपके पैरों तले आ के कितने ही कीड़े-मकौड़े मारे जाते हैं. कितने ही मच्छर आप मार देते हैं. क्या फर्क पड़ता है? कोई सितारे हिल जाते हैं इनके जीवन-मरण से? या इनकी किस्मत कोई चाँद-तारों की गति से निर्धारित हो रही है? या कोई परम-पिता परमात्मा बही-खाता लेकर बैठा है इनके जीवन-मरण का हिसाब-किताब करने? कुछ नहीं है ऐसा. बस आये और चले गए. किसी को घंटा फर्क नहीं पड़ता. पड़ना भी नहीं चाहिए. "द शो मस्ट गो ऑन". हवा पार्क में भी है, कमरे में भी है, बोतल में भी, कड़ाही में भी, गिलास में भी....सब जगह है......फिर गिलास टूट गया.....उसकी हवा सर्वव्याप्त हवा से जा मिली.....बस इतनी सी कहानी है. तुम्हें वहम है कि कोई आत्मा हो तुम. नहीं हो. तुम सदैव परमात्मा हो, थे, रहोगे. असल में 'वो' ही है, हम तुम हैं ही नहीं. बस वहम है एक. एक विभ्रम कि हम कुछ अलग हैं. ठीक उस गिलास की हवा की तरह. और जब हम कुछ अलग हैं ही नहीं. अपने आप में कुछ अलग हैं ही नहीं तो कैसा पूर्व जन्म, कैसा पुनर्जन्म्? सब बकवास है, वो गीता का श्लोक बहुत भ्रम फैलाए है कि आत्मा न जन्म लेती है, न मरती है, शरीर रूपी वस्त्र बदलती है. उससे भ्रम होता है कि आत्मा कुछ है. नहीं है. आत्मा जन्म तो तब ले, जब वो कुछ अलग से हो. वो है ही नहीं. वो सर्व-व्याप्त ऊर्जा, शक्ति, जीवन शक्ति, चेतना सब जगह है, सदैव है. तो समझ लीजिये फिर से. आत्मा नामक कुछ नहीं है. आत्मा शब्द को समझिये, आत्मा, आत्म से आत्मा, जैसे अपना कुछ हो. पर्सनल. व्यक्तिगत. न......न... न. ऐसा कुछ भी नहीं है. न कोई आत्मा है, न किसी का जन्म होता है, न कोई मरता है. न कोई पूर्वजन्म है, न कोई पुनर्जन्म है. न कोई स्वर्ग है और न ही कोई नर्क. न जन्म से पहले कोई जीवन है और न ही मृत्यु के बाद. समझ लीजिये, यह सब. हो सकता है माँ के दूध के साथ, घोट कर पिलाए गए कुछ जाने-माने विचार कटते हों मेरी बात से. लेकिन जब तक इनको काटे जाने की तैयारी न हो, समझ लीजिये आप गुलाम हैं. अभी-अभी एक मित्र ने कमेंट किया मेरी एक पोस्ट पर , जो राम से जुड़ी किसी मान्यता के खिलाफ थी, तो कमेन्ट किया की मेरी पोस्ट जानदार नहीं लगी, हालांकि उनको मेरा लेखन वैसे बहुत पसंद था, बेबाक लगता था. मैंने जवाब दिया, "आप कोई पहली हैं जो अक्सर नहीं समझते जो नहीं समझना हो?.....मेरा लिखा बाकी सब समझ आएगा, लेकिन मैं कुछ भी लिखूं वो समझ नहीं आएगा एक सिक्ख को यदि उसकी सिक्खी मान्यताओं के कहीं विपरीत जाएगा......न मुस्लिम को कुरान के खिलाफ मेरा लिखा .....न हिन्दू को उसके किसी ग्रन्थ के खिलाफ लिखा" ये पोते गए विचार, थोपे गए विचार आपकी चमड़ी बन चुके हैं, आप चाहते हैं, लाख कोशिश करते हैं कि किसी तरह से आप अपनी चाम बचा लें. Somehow you may succeed in saving your skin. लेकिन मैं ऐसा होने न दूंगा. मैं अंतिम दम तक कोशिश करता रहूँगा कि आप इस थोपन, इस पोतन से बाहर आ जाएं. रियल एस्टेट के धंधे में पंजाबी की एक कहावत प्रचलित है है, अक्को नहीं ( बोर मत होवो), थक्को नहीं ( थको मत), झक्को नहीं ( झिझको मत) . बस समझ लीजिये यह कहावत घोट के पी चुका हूँ. जब तक सांस, तब तक आस, तब तक प्रयास. वैसे मैंने काफी जीवन जी लिया है सो मौत कभी भी आये स्वागत है लेकिन दो बिटिया हैं, उनके लिए-परिवार के लिए आर्थिक इन्तेजाम अभी करना बाकी है और बीमार माँ चारपाई पर मौजूद है. सो और जीने की बस वही वजह है. मैं बहुत कुछ करना चाहता था समाज के लिए, कुछ प्रयास भी किये, लेकिन आर्थिक स्थिति ने साथ नहीं दिया. सो बस लेखन से ही संतोष करना पड़ा. मेरे तकरीबन सात सौ लेख हैं, जो ऑनलाइन मौजूद हैं. मेरा ब्लॉग है tusharcosmic.blogspot.in. वहां मेरा लिखा काफी कुछ मौजूद है. बहुत मेहनत से लिखा है सब. बहुत समय दिया है. मेरे लेखों से समाज के लिए मेरी तड़प साफ़ दिखेगी. समाज अगर मेरा लेखन पढ़ भर ले तो बहुत बेहतरी आ सकती है. हालाँकि मेरा लेखन अधिकांश को स्वीकार ही नहीं होगा. लेकिन उससे क्या? जो है, सो है. खैर, अभी भी मौका मिलेगा तो परिवार के साथ-साथ समाज के लिए बहुत बहुत करने की तमन्ना है. मैं कोई कल ही मरना नहीं चाहता, न कोई आत्म-हत्या करने जा रहा हूँ. महज़ मौत से जुड़े मेरे ख्यालात साझे कर रहा हूँ. कहते हैं इन्सान की ख्वाहिशें तो कभी पूरी नही होती. बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन कम निकले. खैर, मैं चाहता हूँ कि अगर सम्भव हो तो मुझे उमदा साहित्य पढ़ने का बहुत समय-सुविधा मिले.
मृत्यु पर अंग-दान को बहुत सराहा जाता है. लेकिन मेरा दान में जरा कम विश्वास है. बेहतर है कि बेचा जाये. मैं तो मुफ्त में अपने लेख जो पढवाता हूँ, वो भी तभी तक जब तक मैं कोई और ढंग नहीं खोज लेता जिससे मैं कमा सकूं. तभी मेरे हर लेख के नीचे पहले 'कॉपी राईट' लिखा रहता था. आज कल लोग समझते हैं, कम चोरी करते हैं सो 'कॉपी राईट' लिखना कम कर दिया है. लेकिन आज भी चोरों को मैं बिलकुल पसंद नहीं करता, ज़्यादा को तुरत ब्लाक. सो भैया नो दान. हाँ, बेचने का कोई ढंग होगा तो वो जोड़ दूंगा लेख में. अभी तक इसलिए नहीं जोड़ा चूँकि कुछ ठीक-ठीक मामला जमता नहीं दिखा. डेड-बॉडी जलाने के लिए जो बहुत लकड़ियाँ प्रयोग की जाती हैं, वो मुझे पसंद नहीं. CNG या इलेक्ट्रिक सिस्टम से बॉडी को फूंक दिया जाये, वो ही बेहतर है. और मुझे तो पंडत-पुजारियों-भाई जी की मौजूदगी से भी कोफ़्त होती है सो इन्हें दूर ही रखा जाये. कोई किसी भी तरह का पाठ नहीं. अगर करना ही हो तो मेरे लिखे लेखों में से कुछ लेख मेरी मृत्यु पर पढ़ दिए जाएँ. बस. कोई ताम-झाम नहीं. परिवार का कैसा भी वेहला खर्च नहीं होना चाहिए. और मेरी जो छोटी सी लाइब्रेरी है वो अगर न सम्भाली जा पाए तो सब किताब किसी भी पुस्तकालय को दान दे दी जायें. परिवार को शोक होगा, ठीक है. लेकिन बाकी तो इक्का-दुक्का को छोड़ किसी को कोई फर्क पड़ने नहीं वाला और पड़ना भी नहीं चाहिए. किसलिए? क्या रोज़ लोग मर नहीं रहे? क्या रोज़ नए बच्चे पैदा नहीं हो रहे. पुराने जायेंगे तभी तो नए लोगों की जगह बनेगी. खैर ..नमन...तुषार कॉस्मिक

Friday, 22 June 2018

लंगर

शब्द सुनते ही श्रधा जग जाती होगी. नहीं? शब्द सुनते ही एक पवित्रता का अहसास होता होगा कि कुछ तो अच्छा कर रहे हैं. दान. पुण्य. धर्म. शब्द सुनते ही भाव जगता होगा कि लंगर बहुत ही स्वादिष्ट होता है, चाहे कद्दू की सब्ज़ी ही क्यों न बनी हो. आपके सब अहसास, सब भाव बकवास है. सड़कों पर गन्दगी फैलती है. प्लास्टिक के जिन्न का कद और बड़ा हो जाता है. पैसे वालों के अहंकार का जिन्न फल-फूल जाता है. उनको ख़ुशी मिलती है कि उनके पास इतना पैसा है जिसे वो बहा सकते हैं और उस पैसे से बने लंगर के लिए लोग लाइन लगा कर खड़े हो सकते हैं. उन्हें तृप्ति मिलती है कि अगर उनसे कोई पाप हुआ है, कुछ गलत हुआ है तो अब उनका पाप पाप न रहेगा. उनका गलत गलत नहीं रहेगा. पूंजीपति के संरक्षण का साधन है 'लंगर'. अमीर को लगे कि वो कुछ तो भला कर रहा है समाज का. और गरीब को भी लगे कि हाँ, अमीर कुछ तो भला कर रहा है उसका. लेकिन बस लगे. हल कुछ नहीं होता. क्या हल होता है लंगर से? क्या हल हुआ है लंगर से? क्या मुल्क की गरीबी मिट गई? भूख मिट गई? क्या हुआ? ये लंगर किसी भी समस्या का समाधान नहीं हैं. चाहे गुरूद्वारे में चले, चाहे मन्दर में, चाहे सड़क पर. भारत में अधिकांश लोग गरीब पैदा होते हैं, गरीब जीते हैं और गरीब ही मरते हैं. कौन सा मुल्क इस तरह से समृद्ध हुआ है? मुल्क समृद्ध होता ज्ञान-विज्ञान से, न कि इस तरह की मूर्खताओं से. बंद करो यह सब. कुछ न धरा इन में. नमन ..तुषार कॉस्मिक

Tuesday, 19 June 2018

सरकारी नौकरियां- पुराने व्यवधान--नए समाधान

१. हर सरकारी नौकर wearable वीडियो कैमरा पहने हो और CCTV तले भी हो. २. कम से कम सैलरी का जो टेंडर भरे, नौकरी उसे मिलनी चाहिए. ३. जो काम उससे करवाया जाना है, बस उसमें महारत हो उसे, जैसे बैंक केशियर बनने के लिए फिनांस की दुनिया की महारत नहीं, बस अपना काउंटर सम्भालने जितनी क्षमता हो. ४. साफ़-सफाई, सीवर हैंडलिंग जैसे काम में सैलरी आम कामों से दोगुनी हो. ५. शिकायत का वीडियो या ऑडियो सही साबित होते ही बर्खास्तगी और सज़ा का प्रावधान भी. ६. जो काम प्राइवेट ठेके पर हो सकते हैं, उनमें सरकारी टांग खत्म हो, जैसे सफाई का काम प्राइवेट कम्पनियों को दिया जा सकता है. ७. अब अगर कोई रिजर्वेशन मांगता भी है तो दे दो. हमें क्या है? ८. नमन...तुषार कॉस्मिक

आज थोड़ा गीत-संगीत

੧. किशोर दा की सिंगिंग में मुझे रफी साहेब के मुकाबले ज़्यादा रेंज लगती है. आवाज़ में ज़्यादा खुलापन. २. लता बहुत ज्यादा परफेक्ट गाती थीं, ऐसे लगता था जैसे उनकी आवाज़ किसी परफेक्ट मशीन में से आ रही हो. मुझे आशा उनसे बेहतर लगीं. आवाज़ में थोड़ा नमकीन-पन. लता बहुत ज्यादा मीठीं. डायबिटीज हो जाये. ३. जगजीत सिंह कभी खास नहीं लगे. उनके जैसा गाना मुझे लगा थोड़े प्रयास से कोई भी गा दे. ४. नुसरत फ़तेह अली साहेब. वाह. लेकिन उनके गानों में दोहराव महसूस होता था. और उनके आखिरी दिनों में उनकी आवाज़ ज़्यादा गाने की वजह से या शायद किसी और वजह से फटने लगी थी. ५. उषा उत्थूप ने साबित किया है कि मीठी और सुरीली आवाज़ ही ज़रूरी है गाने के लिए, यह सरासर गलत है. उनकी आवाज़ मरदाना किस्म की है. लेकिन पसंद किया जाता है उनको. ७. और आज के गानों के न बोल अच्छे हैं न संगीत. और उसकी वजह यह है कि लोग सब तुचिए हो गए हैं. न उनमें गाने की समझ है, न संगीत की. मतलब समझना तो उनके बस की बात ही नहीं. बस कूदना है. उसके लिए बिना बोल के संगीत प्रयोग किया करो बे, ये भद्दे-भद्दे बोल वाले गाने क्यों? ७. बाकी मैंने एक लेख लिखा था, अंग्रेज़ी में. लिंक दे रहा हूँ. पढ़ लेना अगर अंग्रेज़ी से परहेज़ न बता रखा हो डॉक्टर ने तो. ८. नमन....तुषार कॉस्मिक.

बाबरी मस्ज़िद का गिरना और मेरी ख़ुशी

मुझे ख़ुशी है कि बाबरी मस्जिद गिरी. हर मस्जिद गिरनी चाहिए. साथ ही मन्दिर भी.साथ ही गुरुद्वारे भी. गिरजा भी. ये मन्दिर, मसीत, गुरूद्वारे जो इन्सान को हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख में बांटे ये धर्म नहीं अधर्म के अड्डे हैं. यहाँ का प्रसाद अमृत नहीं, ज़हर है. यहाँ के शब्द बुद्धि-हरण वटी हैं. धर्म-स्थल होने चाहियें, जहाँ व्यक्ति शांत हो बैठना चाहे बैठ सके. सोना चाहे सो सके. नाचना चाहे नाच सके. सम्भोग करना चाहे, कर सके. लेकिन ऐसे स्थल कोई हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख के न हों. कोई अलग पहचान न छोडें, जिससे इंसानियत टुकड़ों में बंटे. बोलिए समझ में आई मेरी बात? तुषार कॉस्मिक

आलोचना जज साहेब की

कोर्ट जाना होता है बहुत. वकील नहीं हूँ. अपने केस लेकिन खुद लड़ लेता हूँ और प्रॉपर्टी के विषय में कई वकीलों से ज्यादा जानकारी रखता हूँ. तो मित्रवर, आज बात जजों पर. कहते हैं कि आप जजमेंट की आलोचना कर सकते हैं लेकिन जज की नहीं. बकवास बात है. इस हिसाब से तो आप क़त्ल की आलोचना करो, कातिल को किस लिए सज़ा देना? आलोचना हर विषय की-हर व्यक्ति की होनी चाहिए. आलोचना से परे तो खुदा भी नहीं होना चाहिए तो जज क्या चीज़ हैं? पीछे एक इंटरव्यू देख रहा था. प्रसिद्ध वकील हैं 'हरीश साल्वे'. जिन्होंने अन्तराष्ट्रीय न्यायालय में भारत का पक्ष रखा था कुलभूषण जाधव के केस में. यह वही जाधव है जिसे पाकिस्तान ने जासूसी के आरोप में पकड़ा हुआ है. खैर, ये वकील साहेब बड़ी मजबूती से विरोध कर रहे थे उन लोगों का जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस दीपक मिश्र के खिलाफ़ महा-अभियोग लाया था. इनका कहना था कि ऐसे लोगों को जेल में डाल देना चाहिए चूँकि इस तरह तो जजों की कोई इज्ज़त ही नहीं रहेगी. कोई भी कभी भी किसी भी जज पर ऊँगली उठा देगा. हरीश साल्वे जैसे लोग लोकतंत्र का सही मायना समझते ही नहीं. यहाँ भैये, सब सरकारी कर्मचारी जनता के सेवक हैं. जज तनख्वाह लेता है कि नहीं? किसके पैसे से? जनता के टैक्स से. फिर काहे वो जनता से ऊपर हो गया? जब एक जज की जजमेंट दूसरा जज पलट देता है तो वो क्या साबित करता है? यही न कि पहले वाले ने ठीक अक्ल नहीं लगाई? अगर जज इत्ते ही इमानदार है-समझदार हैं तो आज तक कोर्ट रूम में CCTV कैमरा क्यों नहीं लगवा दिए? साला पता लगे दुनिया को कि जज कैसे व्यवहार करते हैं-कैसे काम करते हैं. जज कम हैं, यह फैक्ट है लेकिन जितने हैं उनमें अधिकांश बकवास हैं, यह भी फैक्ट है. फुल attitude से भरे. जैसे आसमान से उतरे हों. शुरू के एक घंटे में पचीस-तीस लोगों को निपटा चुके होते हैं. एक केस का आर्डर लिखवाने में मात्र चंद सेकंड का समय लेते हैं. पूरी बात सुनते नहीं. गलत-शलत आर्डर लिखवा देते हैं. जनता को कीड़े-मकौड़े समझते हैं. डरते हैं कि फैसला ही न लिखना पड़ जाये. कहीं फैसले में इनसे कोई भयंकर बेवकूफी ही न हो जाये. चाहते हैं कि मामला पहले ही रफा-दफा हो जाये. जबरदस्ती Mediation में भेज देते हैं. 'डेली आर्डर' वादी-प्रतिवादी के सामने नहीं लिखते. बाद में लिखते हैं. सामने कुछ और बोलते हैं, लिखते कुछ और हैं. और इस लिखने में गलतियाँ कर जाते हैं जिसका खमियाज़ा केस लड़ने वालों को भुगतना पड़ता है. कभी भी बदतमीज़ी से बात करने लगते हैं. अपनी गलती की सज़ा केस लड़ने वाले को देते हैं. मेरा एक केस है तीस हज़ारी कोर्ट, दिल्ली में. जज ने मेरे opponent की प्रॉपर्टी का कब्ज़ा मुझे दिलवाने का आर्डर लिखना था लेकिन आर्डर में लिख दिया कि मुझे movable प्रोपर्टी का कब्ज़ा दिलवाया जाये. movable प्रोपर्टी होती हैं मेज़, कुर्सी, फ्रिज, टीवी आदि. जिनको लेने का मेरा कोई मतलब ही नहीं था चूँकि प्रॉपर्टी के बयाने का केस है, जिसमें मैंने बकाया रकम देनी है और प्रॉपर्टी लेनी है. अब जज साहेब को जब आर्डर अमेंड करने को लिखा तो चिढ़ गए हैं. खैर, आर्डर तो वो अमेंड कर देंगे लेकिन उनकी इस गलती की वजह से मेरे तीन महीने खराब हो चुके हैं. लेकिन उनका क्या गया? वो तो जज हैं. जज साहेब. इन्सान की तरह तो व्यवहार ही नहीं कर रहे होते जज साहेब. ऐसे काम करते हैं जैसे पूरी दुनिया के कुत्ते इनके पीछे पड़े हों. अरे, भगवान नहीं हैं, वो. इसी करप्ट समाज की करप्ट पैदवार हैं. कोर्ट में मौजूद हर कारिन्दा रिश्वत ले रहा होता है तो यह कैसे मान लिया जाये कि जज साहेब अछूते होंगे? आपको पता है सुकरात को ज़हर पिलाया गया था उस समय की कोर्ट के फैसले के मुताबिक? जीसस को सूली भी कोर्ट ने लगवाई थी. 'जॉन ऑफ़ आर्क' नाम की लड़की को जिंदा जलवा दिया था कोर्ट ने. बाद में ईसाईयों ने उसे संत की उपाधि दी. और यह उपाधि कोई हिन्दू संत जैसी नहीं है कि पहना गेरुआ और हो गए संत. वहां बाकायदा वेटिकेन से घोषणा होती है. तब जा के किसी को संत माना जाता है. गलेलियो को बुढ़ापे में घुटनों के बल माफी मंगवा दी कोर्ट ने. बाद में ईसाईयों ने उससे भी बाकायदा माफी मांग ली है. भगत सिंह. किस ने फांसी दे उसे? कोर्ट ने भाई. आज आप भगत सिंह के नाम से ही इज्ज़त से भर जाते हो. तो मित्रवर, अक्ल की गुल-बत्ती को रोशन कीजिये और कोर्ट क्या-रेड फोर्ट क्या, सब पर सवाल उठाना सीखें. 'सवाल' उठाने से ज्यादा पवित्र शायद कुछ भी नहीं. यह वो आग है जो कूड़ा कचरा खुद ही जला देती है. सवाल उठाएं जजमेंट पर भी और जज साहेब के आचार-व्यवहार पर भी. जनतंत्र में जन से ऊपर कुछ भी नहीं. सारा निज़ाम उसकी सेवा के लिए है. लेकिन वो सेवा आपको यूँ ही नहीं मिलने वाली. आज आपका सेवक आपका मालिक बना बैठा है. सरकारी नौकर आपका नौकर नहीं है. वो नौकर ही नहीं है. वो जनता का जमाई राजा है. जम गया तो बस जम गया. अब उखाड़ लो क्या उखाड़ोगे उसका? अपना हक़ आपको छीनना पड़ेगा. लेकिन छीनोगे तो तब जब आपको पहले अपना हक़ पता हो. खैर, वो मैंने बता दिया है. अब आगे का काम आप करो. फैला दो इस लेख को जैसे हो जंगल में आग, शैम्पू की झाग. भाग मिल्खा भाग. नमन...तुषार कॉस्मिक
आज शायद कोई गुर-पर्व था. सिक्ख बन्धु भी वही बेअक्ली कर रहे थे जो अक्सर हिन्दू करते हैं.

जबरन कारें रोक पानी पिला रहे थे. ट्रैफिक जैम. लानत!

सड़कों पर जूठे गिलास, पत्तल आदि का गंद ही गंद. लक्ख लानत!!
और गंद भी प्लास्टिक का. लानत ही लानत!!!
अबे तुम कोई पुण्य नहीं, पाप कर रहे हो मूर्खो.

इसीलिए कहता हूँ कि धर्म ही अधर्म है. अच्छे-भले इन्सान की बुद्धि घास चरने चल देती है. मूर्खता के महा-अभियोजन हैं धर्म.

बचो. और बचाओ.
आरक्षण एक गलत सुझाव है...बुनियादी रूप से

मानो सौ मीटर की दौड़ होनी है और कोई दौड़ाक को जान बूझ कर घटिया डाइट दी गयी हो सालों और वो हारता ही आया हो. तो अब इस समस्या का इलाज क्या है? क्या यह इलाज है कि उसे जबरन जितवा दिया जाये? यह तो पूरे खेल को ही खराब करना हुआ. इसका इलाज यह है कि उसे डाइट बेहतर दी जाये. बेहतर से भी बेहतरीन. लेकिन दौड़ तो दौड़ है. इसमें कैसा आरक्षण?

आशा है समझा सका होवूँगा.

बदलिए कोर्ट का माहौल

कभी कोर्ट का सामना किया हो तो आप मेरी बात समझ जायेंगे. जज एक ऊंचे चबूतरे पर कुर्सी पर बैठते हैं. वकील, वादी, प्रतिवादी उनके सामने खड़े होते हैं. बीच में एक बड़ा सा टेबल टॉप होता है. वकील आज भी 'मी लार्ड' कहते दिख जाते हैं. क्या है ये सब? आपको-मुझे, जो आम-अमरुद-आलू-गोभी लोग हैं, उन्हें यह अहसास कराने का ताम-झाम है कि वो 'झाऊँ-माऊं' हैं. जज कौन है? जज जज है. ठीक है. लेकिन है तो जनता के पैसे से रखा गया जनता का सेवक. तो फिर वो कैसे किसी का 'लार्ड' हो गया? तो फिर काहे उसे इत्ता ज्यादा सर पे चढ़ा रखा है. उसे ऊंचाई पर क्यों, हमें निचाई पर क्यों रखा गया है? उसे बैठा क्यों रखा है, हमें खड़ा क्यों कर रखा है? सोचिये. समझिये. आप जनता नहीं हैं. आप ही मालिक हैं. जज और हम लोग आमने-सामने होने चाहियें...एक ही लेवल पर. बैठे हुए. खतरा है तो गैप रख लीजिये.....बुलेट प्रूफ गिलास लगा लीजिये बीच में . फिर दोनों तरफ की आवाज़ साफ़ सुने उसके लिए माइक का इन्तेजाम कर लीजिये. कार्रवाई की वीडियो रिकॉर्डिंग कीजिये. हो सके तो youtube पर भी डालिए. माहौल बदल जायेगा जनाब. नमन........तुषार कॉस्मिक

भारत----एक खोज--आज-कल-और कल

मोदी काल एक विशेषता के लिए याद किया जाता रहेगा. इत्ते लोग पलायन कर गए भारत से, जित्ते शायद कभी नहीं किये. इत्ते कि भाई साहेब को आयोग गठित करना पड़ गया यह पता करने के लिए कि इस पलायन की वजह क्या है. क्या वजह है? इसके लिए क्या कोई आयोग चाहिए था? चार लोगों से पूछ लेते गर अपनी अक्ल नहीं चलती तो. भारत में आरक्षण जड़ जमाए है. जो अभी तो विदा होने से रहा. कितना ही तर्क दो, कुछ होने वाला है नहीं. लोग सार्वजनिक सीट पर रूमाल रख चले जाते हैं तो सीट रिज़र्व मानी जाती है, लड़ने-मरने को तैयार हो जाते हैं उस सीट के लिए. यहाँ तो नौकरियों की बात है. और ये नौकरियां कोई नौकरियां नहीं हैं, उम्र भर का गिफ्ट हैं. मोटी तनख्वाह. भत्ते. साहिबी. पक्की नौकरी. ऐसे गिफ्ट को कोई कैसे छोड़ देगा? न, यह होने वाला नहीं. तो जनरल श्रेणी की नई पौध में जिनके भी माँ-बाप सक्षम हैं, स्टडी वीज़ा पर उन्हें बाहर भेजे जा रहे हैं. ज्यादातर बच्चे कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, इंग्लैंड का रुख कर चुके हैं. कुछ को बहु-राष्ट्रीय कम्पनियों ने बाहर भेज रखा है. एक और श्रेणी है. जिनके पास भी यहाँ दो-चार-पांच करोड़ रुपये हो चुके, वो भारत छोड़ चुके या छोड़े जा रहे हैं. वजह साफ़ है. उन्हें पता है कि अपने पैसे से वो अपना घर तो सुधार-संवार सकते हैं लेकिन बाहर गली की गन्दगी जस की तस रहेगी, गली के खड्डे जस के तस रहेंगे, गली में नाली ओवर-फलो करती ही रहेगी. पुलिस वाला बदतमीज़ ही रहेगा, रिश्वत-खोर ही रहेगा, न्यायालय सिर्फ तारीखें देगा, सरकारी अस्पताल बदबूदार ही रहेगा और प्राइवेट अस्पताल पैसे लूटेगा. इनके पास क्या विकल्प था बेहतर ज़िन्दगी का? यही कि बेहतर मुल्क में चले जायें. यह भारत प्रेम की कहानी सब बकवास है. सबको बेहतर ज़िंदगी चाहिए. भारत में रहने वाले जो मुसलमान भी भारत प्रेम दर्शाते हैं, वो मात्र इसलिए कि पाकिस्तान भारत से हल्का मुल्क है, बाकी इर्द-गिर्द भी भारत से कोई बेहतर मुल्क नहीं है, वरना किसी को भारत से कोई टिंडे लेने हैं क्या? और यही हाल, तथा-कथित हिंदुओं का है. यह 'वन्दे मातरम' के नारे सब बकवास हैं. 'भारत माता की जय' बस खोखले शब्द हैं. आज इनको अमेरिका-कनाडा की रिहाईश दे दो, आधा भारत खाली हो जायेगा. और शायद सारा ही. बात करते हैं. इडियट. और जब मैं इडियट लिखता हूँ, तो समझ जाईये कि यह एक ऐसी शाकाहारी गाली है, जिसमें सब मांसाहारी गालियाँ शामिल हैं. क्या है भारत का भविष्य? भारत की राजनीति-समाजनीति पांच साल पहले बदलती-बदलती रह गयी. कांग्रेस की कुर्सी गिराने वाले थे, अन्ना और अन्ना के साथ खड़े लोग. यह बहुत ही कीमती समय था. लोग, पढ़े लिखे लोग जुट रहे थे. कीमती नौकरियां छोड़-छोड़ आने लगे थे. भारत में ऐसा कुछ होने जा रहा था, जो भारत के इतिहास में कभी नहीं हुआ था. हर क्षेत्र के लोग जुटने लगे थे. भारत का सौभाग्य जागने वाला था. लेकिन जगा नहीं, दुर्भाग्य जाग गया. कांग्रेस के नीचे से ज़मीन खींच ली गयी, उस की पतंग काट दी गयी, लेकिन वो कटी पतंग कोई और लूट ले गया. अन्ना के साथ खड़े लोग, एक साथ न रह पाए. सबके अपने-अपने ईगो. रामदेव भी इनके करीब आया, लेकिन उसे साथ नहीं लिया गया. किरण बेदी भाजपा में चली गईं, वही भाजपा जिसका वो विरोध कर रही थीं. अन्ना को भी विदा कर दिया गया. धीरे-धीरे सब बिखर गए. आरएसएस के पास नब्बे सालों का संगठन था. पुरानी पार्टी थी भाजपा. और पार्टी-फंड था. बाकी जुटा लिया गया. फिर धन-तन्त्र का खेला हुआ. खुल के पैसे का नंगा नाच. टीवी, रेडियो, अखबार, फेसबुक, व्हाट्स-एप, सड़क सब जगह अँधा पैसा फेंका गया. बस यही मौका था. नब्बे साल में अपने दम पर संघ समाज में स्वीकार्यता नहीं बना पाया था. लेकिन इस बार मैदान खाली था. सामने खिलाड़ी कोई था नहीं. जीतना ही था. 'हर-हर मोदी, घर-घर मोदी' होने लगा. 'चाय पर चर्चा' के लिए खर्चा किया गया. ये बड़ी रैलियां की गईं. रैले. रेलम-पेल. एक ऐसे आदमी को प्रधान-मंत्री बना दिया गया, जिस में जीरो प्रतिभा थी. उसे कुछ पता ही नहीं था कि करना क्या है. उसकी क्वालिफिकेशन मात्र इतनी कि वो संघ का सदस्य था. कि गुजरात में मुस्लिम का दमनकारी था. गुजरात मॉडल की तरक्की का प्रचार किया गया, जिसका असल में किसी को कुछ पता नहीं था कि वो है क्या. इस्लाम के खिलाफ खूब प्रचार किया गया. उधर से इस्लामिक आतंक की खबरें पूरी दुनिया से आने लगीं. बस बात बन गई. मोदी प्रधान-मंत्री. बहुमत के साथ. अब लोगों को लगा कि अच्छे दिन आने ही वाले हैं. पन्द्रह लाख आने ही वाले हैं. महिला सुरक्षा होने ही वाली है. नौकरियों की बारिश होने ही वाली है. लेकिन हुआ क्या? गाय-गोबर. गौ रक्षक दल उभर आये. आश्रमों, से मन्दिरों से उठा-उठा के लोगों को मंत्री बना दिया गया. न नौकरियां आ पाईं, न महिला सुरक्षा हुई, न किसी को पन्द्रह लाख मिले, न अच्छे दिन मिले. स्वीकार भी कर लिया कि वो तो चुनावी जुमले थे, हमने कोई तारीख नहीं दी थी, अभी तो बीस साल और लगेगें, तीस साल, पचास साल. हाँ, मिले अच्छे दिन, लेकिन मोदी को. वो देश-विदेश खूब घूमे. वहां किराए की भीड़. 'मोदी- मोदी-मोदी'. घंटा.....बस वो घंटा बजाते रहे हर जगह मन्दिरों में. चार साल बीत गए हैं. भारत के हाथ कुछ नहीं आया सिवा खोखले शब्दों के. अब अगले चुनाव आने वाले हैं. और भारत का दुर्भाग्य है कि भारत के पास कोई भविष्य नहीं है. एक तरफ संघी दल भाजपा है और दूसरी तरफ छितरी हुई कई पार्टियाँ, जिनके अपने रिकॉर्ड खराब हैं. ऐसे में होगा क्या? भारत के पास एक भविष्य है कि फिर से नए लोग आयें. जुटें. पढ़े-लिखे. नई सोच के साथ. तार्किकता के साथ. वैज्ञानिकता के साथ. और भारत की जमी-जमाई बकवास सोच को धक्का मार सकें. ऐसे में मैं हाज़िर हूँ, मेरे जैसे और कई लोग मिल सकते हैं. लेकिन ऐसा होने की सम्भावना बहुत कम है. चूँकि भारत की राजनीति ब्रांडिंग का खेल है. अरबों रुपये फेंका जाता है. अभी मोदी ने एक्सरसाइज करते हुए कोई वीडियो डाला. करोड़ों लोगों ने देखा. ये एक्सरसाइज व्यायाम के नाम पर कलंक हैं. ऐसे चल रहे हैं, जैसे अण्डों पर चल रहे हों. ऐसे हाथ-पैर हिला रहे हैं, जैसे मोच ही न आ जाये. क्या है यह सब? ब्रांडिंग. यहाँ राजनीति 'विचार' किसके पास बढ़िया है, उससे नहीं चल रही, पैसा किस के पीछे बढ़िया है, ब्रांडिंग किसकी बढ़िया, इससे चलती है. नतीजा. फिलहाल भारत का कोई भविष्य नहीं. अगले पांच साल भी नहीं. ऐसे में समझ-दार भारत न छोड़े तो और क्या करे? यह समझने के लिए आयोग नहीं, अक्ल का सहयोग चाहिए, जो मोदी सरकार के पास है नहीं. एक और ट्रेजेडी यह हुई है मोदी काल में कि हर तरह की 'सोच' जो भी 'संघी सोच' के विरुद्ध है उसे दबाने का प्रयास किया गया है. खुशवंत सिंह को इसलिए नकारा जा रहा है चूँकि उसके पिता ने भगत सिंह के खिलाफ गवाही दी थी. हो सकता है दी हो, लेकिन उससे क्या? उनका लेखन अपनी जगह है. लेकिन असल वजह यह है कि वो हिन्दू पोंगा-पंथी के भी खिलाफ लिखते रहे हैं. कलबुर्गी, पंसरे, गौरी लंकेश आदि की हत्या करवा दी गई.मार्क्स को तो ठीक से लोगों तक पहुँचने ही नहीं दिया जा रहा. बस पोंगा-पंथी पेली जा रही है. भारत विश्व-गुरु था. यहाँ महाभारत काल में इन्टरनेट था, यहाँ रामायण काल में विमान था, सीता टेस्ट-टयूब बेबी थीं. वैरी गुड. था, तो अब क्या करें? नाचें. नहीं गर्व करो. 'गर्व से कहो कि हम हिन्दू हैं'. नहीं कहेंगे तो भारत में रहने नहीं देंगे. 'यदि भारत में रहना होगा तो वन्दे मातरम कहना होगा'. संघ की एक-एक शाखा में ये सब विचार बच्चों और बड़े बच्चों को पेले-ठेले जा रहा हैं, जिनको पता भी नहीं कि इस सब का असल मन्तव्य क्या है, मतलब क्या है. ऐसे में क्या होगा भारत का? यहाँ कोई वैज्ञानिकता नहीं फैलने वाली. यहाँ कोई सामाजिक-राजनीतिक सुधार होने वाले नहीं हैं. इस्लाम का डर है संघ को, जिसे उसने हिन्दू समाज तक पहुँचाया है और यह डर सच्चा है. इस्लाम सिर्फ नमाज़, रोज़े, ईद का नाम नहीं है. उसमें अपने कायदे-कानून हैं, जो किसी भी और विचार-धारा को नहीं मानते. और जनसंख्या अगर बढ़ गई मुसलमान की तो फिर सारा का सारा जनतंत्र-सेकुलरिज्म धरा का धरा रह जायेगा. इस्लाम सिर्फ मोहम्मद और कुरआन को मानता है. और कुरआन से निकले नियम-कायदे-कानून को मानता है. तो मैं जैसे हिंदुत्व के खिलाफ हूँ वैसे ही इस्लाम के भी खिलाफ हूँ. भारत में इस्लाम का प्रभुत्व न हो, हिंदुत्व का प्रभुत्व न हो, खालिस्तानियों का प्रभुत्व न हो, इसके लिए हर कम्युनिटी की जनसंख्या निर्धारित करनी ज़रूरी है. जनसंख्या एक ख़ास प्रतिशत से ऊपर कोई भी न बढ़ा पाए, इसके लिए कानून बनाने की ज़रूरत है. ऐसा कोई कानून न होने की ही वजह है कि आपको हिन्दू ब्रिगेड में से आवाजें आती हैं कि हिन्दू जनसंख्या बढाएं, चार बच्चे पैदा करें, छह पैदा करें. चाहे आत्म-हत्या की नौबत आ जाये, लेकिन घर में बच्चे ही बच्चे पैदा कर लें. खैर, मैं निराश हूँ. मुझे इस मुल्क का भविष्य अभी तो खराब ही दिख रहा है. जो होना चाहिए, वो होने वाला नहीं दिख रहा और जो नहीं होना चाहिए, वो सब होता दिख रहा है. नमन....तुषार कॉस्मिक

Tuesday, 29 May 2018

रमज़ान है. मौका है

आपको पता हो कि अमेरिका में ट्रम्प के आने के पीछे विचारकों की एक लॉबी थी, जो खुल कर इस्लाम का विरोध करती रही है.

रमज़ान है. पूरा दम लगाना चाहिए कि इस्लाम विदा हो दुनिया से.

सब धर्म बकवास हैं. इस्लाम सबसे बड़ी बकवास है.


पूरी दुनिया के विचारकों को दम लगाना चाहिए. नए बच्चे बीस साल की उम्र तक किसी पुराने धर्म की शिक्षा न लें.

धर्म सब नशों से ज़्यादा ज़हरीला है. दुनिया की सौ बीमारियों में से निन्यानवे के पीछे धर्म है. और बची एक, उसके आगे भी धर्म है.

धर्म की विदाई के बिना यह दुनिया कभी सुखी नहीं हो सकती. धर्म ने जीवन का हर पहलु अपंग कर दिया है.

धर्म सबसे बड़े अधर्म हैं.

बाकी धर्म गिरोह हैं.  इस्लाम माफिया  है.  इसकी ईंट से ईंट बजा दो. सवाल पूछो. हर शब्द पर सवालों की बारिश कर दो. हर जवाब पर सवाल दागो.

ज़्यादा देर नहीं टिक पायेंगे ये मुल्ले. यह तभी तक हावी हैं जब तक तुम्हारे सवाल खामोश हैं.

कभी कोई एक बन्दा सवाल उठाता है, उसके अंग-भंग कर देते हैं, गोली मार देते हैं.

न..न. और नहीं.

सवाल पूछो कि सवाल क्यों नहीं पूछ सकते? सवाल पूछो कि जवाब तार्किक क्यों नहीं? सवाल पूछो कि जवाब का सबूत कहाँ है? नहीं टिकेंगे. धोती-टोपी छोड़ सब भागेंगे.

इस दुनिया से उस दुनिया तक की छलांग तुम्हें सवाल का जम्पिंग बोर्ड ही लगवा सकता है.

रमज़ान है. मौका है. हिम्मत करो.

तुषार कॉस्मिक

ऑनलाइन तमीज़

इन्सान महा बेवकूफ है.  उसे दूसरों के साथ तमीज़ से जीना आया ही नहीं. तभी तो इतने सारे कायदे हैं-कानून हैं. इतना सारा नैतिक ज्ञान है. इत्ती सारी धार्मिक बक-झक है.

सोशल मीडिया पर भी यही हाल है. जरा तमीज़ नहीं. अगर किसी ने लिख दिया, बोल दिया, जो अपने स्वार्थों के खिलाफ है या फिर जमी-जमाई धारणाओं के खिलाफ है तो हो गए व्यक्तिगत आक्रमण पर उतारू. या फिर गाली-गलौच चालू.  Cyber bullying कहते हैं इसे. अधिकांश लोगों को यहाँ लगता है कि छुपे हैं एक आवरण के पीछे. कौन क्या बिगाड़ लेगा?

वैसे तो सीधी समझ होनी चाहिए कि हर कोई स्वतंत्र है, अपनी बात रखने को. क्या ज़रूरत है कि आपके मुताबिक कोई लिखे या कहे? और क्या ज़रूरी है कि आपके किसी कमेंट का, सवाल का कोई जवाब दे?

आप कोई बाध्य हो किसी का लेखन पढ़ने को? नहीं न.

तो फिर सामने वाला भी कोई बाध्य थोड़ा है कि आपसे कुश्ती करे. फिर हरेक के पास अपनी समय सीमाएं हैं. हरेक की अपनी रूचि है. ज़रूरी नहीं कि वो आपके साथ अपना समय लगाना भी चाहे.

सबसे बढ़िया है कि आपको अगर नहीं पसंद किसी का लेखन-वादन तो आप पढ़ो मत उसका लिखा. आप सुनो मत उसका बोला. आप अमित्र करो उसे या फिर ब्लाक करो.

यह कुश्ती किसलिए?

अगर कोई लिखता-बोलता है तो उसने कोई अग्रीमेंट थोड़ा न कर लिया पढ़ने-सुनने वाले से कि अगले दस दिन तक उसी के साथ सवाल -जवाब में उलझा रहेगा.

थोड़ा तमीज़ में रहना सीखें. थोड़ा गैप बनाए रखें. दूजे के सर पर सवार होने की कोशिश न करें.

वैसे सोशल मीडिया की तीन खासियत हैं.

एक तो मित्र बनाने की सुविधा.

दूजी अमित्र बनाने की सुविधा.

और तीसरी, सबसे बड़ी, ब्लाक करने की सुविधा.


ये तीनों सुविधा सब सिखाती हैं अपने आप में. लेकिन लोग कहाँ सीखते हैं? मित्र-सूची में आयेंगे. फिर कुश्ती करेंगे. फिर शिकायत करेंगे कि हमें अमित्र कर दिया. हमें ब्लाक कर दिया.

भैये, तुम्हें तमीज ही नहीं थी. तुम्हें असहमत होते हुए अगले की मित्र सूची में बने रहने की अक्ल नहीं थी.

तथागत. जैसे आये, वैसे विदा हो गए.

दफा हो--स्वाहा.

नमन ...तुषार कॉस्मिक