तुम करो तो व्यापार, होशियार, तेज-तर्रार.
हम करें तो बे-ईमान, हरामखोर, चोर.
हमारा कुत्ता.. कुत्ता, तुम्हारा कुत्ता टॉमी.
वाह भइये! ई न चलबो!!
Thoughts, not bound by state or country, not bound by any religious or social conditioning. Logical. Rational. Scientific. Cosmic. Cosmic Thoughts. All Fire, not ashes. Take care, may cause smashes.
तुम करो तो व्यापार, होशियार, तेज-तर्रार.
हम करें तो बे-ईमान, हरामखोर, चोर.
हमारा कुत्ता.. कुत्ता, तुम्हारा कुत्ता टॉमी.
वाह भइये! ई न चलबो!!
आप मुस्लिम नहीं हैं तो आप बेईमान हैं, हरामखोर हैं. कैसे?
ईमान सिर्फ एक है और वो है इस्लाम और वो आप ने कबूला नहीं, सो आप हैं "बे-ईमान".
हलाल सिर्फ वो है, जिस की इस्लाम इजाज़त दे औऱ अगर इस्लाम के हिसाब से आप खाते नहीं, पीते नहीं, जीते नहीं तो आप हो गए "हरामखोर".
Gotcha?
~ तुषार कॉस्मिक
अपने गिर्द देखता हूँ तो हर दूजे चौथे घर का बच्चा या तो इंग्लैंड-कनाडा जा चुका है या जाने की तैयारी में है. और माँ-बाप बड़े ही गर्व से बताते हैं, "हम ने तो बच्चा सिर्फ़ PR (Permanent Residency) के लिए भेजा है जी, नौकरी तो बस शौकिया करता है जी हमारा बच्चा." हालाँकि बच्चे विदेश में जॉब्स कमाने के लिए ही करते हैं, पढ़ना बहाना मात्र होता है. लेकिन PR पाना ही इन का शिखर उद्देश्य होता है, यह भी सत्य है.
ठीक है, जिसे जहाँ रहना हो, रहे, लेकिन याद रहे युक्रेन जैसी स्थिति में फँसने पर भारत से कैसी भी उम्मीद न रखें और भारत को इन की कैसी भी मदद करनी भी नहीं चाहिए. जो लोग भारत से हर हाल में पिंड छुड़वाना चाहते हैं, भारत को भी चाहिए कि उन से पिंड छुड़वा ले.~ तुषार कॉस्मिक
युक्रेन और रूस जंग में तुम्हें कोई मुंह पर डायपर बांधे दिखा?
भारत में 'किसान आन्दोलन' में किसान मुंह पर कच्छा पहने थे क्या?
राजनितिक रैलियों में तुम्हें लोग मुंह बांधे दिखे क्या?
अभी भी तुम्हें अगर समझ नहीं आया कि मास्क षड्यंत्र मात्र है कि तुम ठीक से साँस न ले पाओ, तो तुम मूर्ख नहीं चूतिया हो, अखण्ड चूतिया.
~ तुषार कॉस्मिक
जो लोग पाकिस्तान से आये थे, उन में मेरे पिता भी थे.
वो "पिशोरी जुत्ती" याद करते थे, "पिशोरी लाल" नाम भी होते थे, पश्चिम पुरी, दिल्ली में आज भी "पिशोरियाँ दा ढाबा" है.
तो साहेबान, कद्रदान, मेहरबान, जिगर थाम कर आगे पढ़िए.
उसी पिशोर की मस्ज़िद में फटा बम. 70 से ज़्यादा बन्दे हलाक.
मरने और मारने वाले दोनों मुसलमान.
अल्लाह-हु-अकबर.
~ तुषार कॉस्मिक
यूक्रेन जैसे मुल्कों से जो छात्र डॉक्टरी पढ़ के आते हैं, उन में से ज़्यादातर भारत का डॉक्टरी टेस्ट पास ही नहीं कर पाते. फेल हो जाते हैं.
फिर क्या करते होंगे?
चोरी छुपे प्रैक्टिस, आधी-अधूरी.
वैसे भी अंग्रेजी डॉक्टर करते क्या हैं? जनता की उलटे उस्तरे से खाल उतरने के अलावा. ये कोई जन कल्याण नहीं करते. शुद्ध व्यापार करते हैं.
इस तरह के लोग जो विदेश पढने जाते हैं, या फिर किसी भी तरह भारत से पिंड छुड़ा बसने जाते हैं, उन के मुसीबत में फँसने पर जिन की छातियों में दूध उमड़ता हो, चूतिया हैं. ~ तुषार कॉस्मिक
क्या आप को पता है आधे से ज़्यादा पँजाब रेलवे के मुसाफिरखाना में बैठे लोगों की तरह इंतेज़ार में है, कब कनाडा की ट्रेन आये और वो इस गन्दे,गलीज़, भ्रष्ट मुल्क से विदा, नहीं-नहीं, अलविदा हो सके? इस के लिए बहुत लोग तो अंट-शंट तरीके भी अख्तियार करते हैं. नदी, नाले, पहाड़ पार करते हैं. एक ही धुन,"इंडिया में कुछ नहीं रखा जी, यहाँ कोई फ्यूचर नहीं है जी."
गुड, वेरी गुड. यह मुल्क घटिया है, मुल्क के बाशिंदे घटिया. लेकिन फिर विदेश में मुसीबत में फँसने पर इस मुल्क से हमदर्दी की उम्मीद भी न रखो..घटिया मुल्क के घटिया लोग क्या मदद करेंगे? नहीं?~तुषार कॉस्मिक
मुस्लिम काले कुत्ते को वोट देगा, योगी को नहीं, मोदी को नहीं, भाजपा को नहीं. भाजपा मतलब आरएसएस. आरएसएस मतलब हिन्दू. हिन्दू मतलब दुश्मन.
मुस्लिम को भारत को हर हाल में इस्लामिक करना है. संतरा हरा करना है. हिंदुस्थान को पाकिस्तान करना है, अफगानिस्तान करना है, चाहे खाने को दाने न हों, चाहे जँगली सभ्यता में लौटना पड़े. चाहे स्कूलों में, अस्पतालों में, मस्जिदों में बम फटते रहें. विकास से मुस्लिम को कोई मतलब है नहीं, चाहे सोने की सड़कें क्यों न बनवा दो. वो इस बकवास में नहीं पड़ता.
सो वो हर सम्भव प्रयास कर रहा है कि योगी हार जाए. क्यों? क्योंकि योगी सिर्फ UP का CM ही नहीं, अगला PM प्रोजेक्ट किया जा रहा है.~ तुषार कॉस्मिक
Allopathy is a Fraud.
Doctors are touts of Big Pharma.
Allopathy is for surgery and emergency (accidents etc) only.
Better go back to Yogasans, Pranayam, Ayurved, Naturopathy, Homeopathy, Yunani etc. You may scarcely need Allopathy.
Allopathy has no treatment for Lifestyle diseases. Such diseases come from a dis-eased life, can be cured by an eased life, easy life. ~ Tushar Cosmic
'पश्चिम विहार डिस्ट्रिक्ट पार्क' में होता हूँ सुबह-सवेरे. बुज़ुर्ग महानुभावों की सोच को समझने का मौका मिला है मुझे कुछ. कुछ सिरे के ठरकी हैं. "वो मरद नहीं, जिसे ठरक नहीं." जवानी कब की चली गयी लेकिन इन को आज भी औरत में सिवा सेक्स के कुछ नहीं दिखता. कुछ का दिमाग घूम-फिर के मीट-मुर्गा और दारु में घुस जाता है. एक सज्जन को डॉक्टर ने दारू मना की है, सो पीते नहीं लेकिन ज़िक्र दारू का हर रोज़ करेंगे. कुछ तालियाँ पीटते हुए, भजन कीर्तन करते हैं. कुछ प्रॉपर्टी का, व्योपार का रौब गांठते दीखते हैं. शायद आप को यह सब नार्मल दिखे. लेकिन मेरा मत्था भन्नाता है. इन सब ने जीवन देख लिया है. लेकिन इन के जीवन में वैज्ञानिकता कहाँ है, कलात्मकता कहाँ है, रचनात्मकता कहाँ है, तार्किकता कहाँ है, धार्मिकता कहाँ है, ध्यान कहाँ है, जिज्ञासा कहाँ है? ये सब बस घिसे-पिटे जवाब ले के बैठे हैं. चबाया हुआ चबेना. इन में जिज्ञासा कहाँ है? समाज को क्या दे कर जायेंगे ये? अधिकांश तो आज भी हवस पाले बैठे हैं कि किसी तरह जीवन को और भोग लें. सेक्स और कर लें, मुर्गे और फाड़ लें, दारू और सटक लें. इस से इतर तो इन की सोच ही नहीं है. धरती माता का लहू चूस रहे हैं एक लंबे समय से और अभी और लहू चूसने की तमन्ना पाले बैठे हैं. बुड्ढों को हमारे समाज ने "सयाने" कहा है लेकिन फिर "सठियाये" हुए लोग भी कहा है. पंजाबी में कहते हैं ,"सत्तरिया-बहतरिया". मतलब सत्तर-बहत्तर साल का बुड्ढा पगगल हो जाता है. अंग्रेज़ी में कहते हैं,"Dirty Old man". मतलब "गन्दा बुड्ढा". बुड्ढों से गंदगी झलकती है. इन की सोच में गंदगी झलकती है. इन के कृत्य गन्दे हैं. लेकिन बुड्ढा सयाना भी हो सकता है और पग्गल भी. मेरे अनुभव में पग्गल ज़्यादा हैं. मुझे कोई बुड्ढा शायद ही कभी सयाना दिखा हो. लगभग हरेक बच्चा जीनियस पैदा होता है और लगभग हरेक बुड्ढा पग्गल हो कर मरता है. हमारे समाज का बड़ा हिस्सा हैं ये लोग. इन के पास इतना कुछ है करने के लिए लेकिन ये पत्ते पीट रहे हैं, ठरक पेल रहे हैं, गप्पे हांक रहे हैं, घमंड झाड़ रहे हैं. ये साहित्य पढ़ सकते हैं, रच सकते हैं, वैज्ञानिक प्रयोग कर सकते हैं, नृत्य सीख सकते हैं, गा सकते हैं, पेंटिंग कर सकते हैं. और भी बहुत कुछ. चूँकि समय के टोकरे भरे हैं इन के पास. उसे रचनात्मक दिशा में मोड़ सकते हैं. समाज को सही दिशा दे सकते हैं. लेकिन समाज को सही दिशा तो तभी देंगे न, जब ये खुद सही दिशा में होंगे. तो पहले खुद सही दिशा पकडें. 'सठियाये' हुए न हो कर 'सयाने' बनें, फिर समाज को सही दिशा दें.नहीं? सोच के देखिएगा. नमन...तुषार कॉस्मिक
अमेरिका ने वर्षों गला दिए अफ़गानिस्तान को कल्चर सिखाने में. फिर तौबा कर ली. सोचा लड़ने -मरने दो आपस में. हमें क्या?
ऐसा ही है हिजाब विवाद. हमारी बला से. मेरी नज़र में भाग्यशाली हैं औरत-मर्द जो लगभग नग्न अवस्था में समुद्र तटों पर धुप लेते हैं. मैंने तो आज भी पश्चिम विहार, दिल्ली के डिस्ट्रिक्ट पार्क में मात्र शॉर्ट्स में दौड़ लगाई है. मेरी बला से. पहनने दो न काला सा लबादा जिस ने पहनना हो.
मुस्लिम समाज वैसे भी ज्ञान-विज्ञान में बहुत पीछे छूटा हुआ है. छूटने दो. इस समाज के पास सिवा एक बड़ी आबादी के कुछ भी नहीं. इस आबादी पर कण्ट्रोल करने का हर इलाज करो. बस. फ़िज़ूल मुद्दों में मत उलझो.
तुषार कॉस्मिक
हसन निसार एक बार कहते हैं,"इरान इराक युद्ध वर्षों तक चलता रहा, दोनों तरफ लाखों लोग मारे गए. फिर युद्व बन्द हो गया. न तो किसी को समझ आया कि युद्ध हुआ क्यों,चलता क्यों रहा और न ही समझ आया कि युद्ध बन्द क्यों हुआ?"
कोरोना आया, कोरोना आया. कोरोना चला गया, कोरोना चला गया.
आम लोगों ने मास्क लगाया, वेक्सीन लगवा ली और अभी भी लगा रहे हैं.
न तो इन को कोरोना के आने का कुछ पता, न जाने का पता. आया भी था कि नहीं, गया भी कि नहीं. इन को कुछ मतलब नहीं.
@#$%& लोग!!
तुषार कॉस्मिक
बारीक चुनावी विश्लेषण यह किया जा रहा है कि सरकार किस की बनेगा, कैसे बनेगी.
मूढ़ लोग. काश इस से आधा विश्लेषण इन पॉइंट पे किया जाता कि इन चुनावों का औचित्य क्या है?
क्या इस तरह के चुनाव सच में आम इंसान का प्रतिनिधित्व करते हैं या फिर "पैसा फेंक तमाशा देख" वाला खेला ही हो रहा है.
क्या ये चुनाव असल जनतन्त्र देते हैं? क्या एक आम नाई, धोबी, मोची, प्लम्बर मुख्यमंत्री-प्रधानमंत्री बन सकता है?
असल बात है कि म्युनिसिपेलिटी के चुनाव भी करोड़ोंपति लोग ही लड़ते हैं.
क्यों?
करो विश्लेषण इस पे वड्डे विश्लेषको.
~ तुषार कॉस्मिक
आप को समझ आ गया कोरोना फ्रॉड है या कम से कम आप को गहन शंका है कि कोरोना फ्रॉड है तो अब आप क्या करें कि समाज में यह शंका, यह विश्वास फैले?
तो मोतियाँ वालियो, एक काम तो आप यह करें कि सोशल मीडिया यानि फेसबुक, व्हाट्सएप, यूट्यूब आदि पर पोस्ट करें या फिर कमेंट करें अपने विचार.
दूसरा अपने गिर्द नाई, धोबी, हलवाई, कसाई सब से जब मौका लगे इस बारे में बात करें. अपने दोस्त-रिश्तेदार से भी बात करें. तीसरा हो सके तो कुछ पम्फलेट टाइप छाप लें/छपवा लें और जहाँ मौका लगे, बाँट दें.
सवाल आप का, मेरा ही नहीं, अगली पीढ़ियों का भी है साहेब.
~ तुषार कॉस्मिक
मुझ से किसी ने कहा कि जनाब सब कुछ तो होता ही है इंटरनेट पे, आप क्या ख़ास कहते हैं.
अब यह मित्र कुछ बेसिक चीज़ें नहीं समझते?
डिक्शनरी में सारे शब्द हैं, तो क्या शेक्सपियर का लेखन बेमानी है? या डिक्शनरी छोड़िए अल्फाबेट पकड़िये, उसी से तो सब शब्द बनते हैं. तो ABCD जो सीख गया, वो तमाम साहित्य समझ गया क्या?
नहीं.
देखिए, चूंकि अक्षर तो वही प्रयोग होंगे, शब्द वही होंगे, वाक्य भी आप के जाने-पहचाने होंगें इसीलिए आप धोखा खा सकते हैं. यह कतई ज़रूरी नहीं इन वाक्यों का मतलब वही हो, इन कथनों का मैसेज वही हो, जो आप समझते आये हैं.
इंटरनेट पर सब है लेकिन क्या ज़रूरी है कि जो समझ, जो मैसेज मैं देना चाहता हूँ वो हूबहू हो ही. आप जो पँखा प्रयोग करते हैं, उस में जो भी लोहा- लंगड़ लगा है वो सब पहले भी मौजूद था, लेकिन क्या पँखा अलग आविष्कार नहीं है?
बस वही साहित्य के साथ है. लेखन और भाषण में शब्द कोई आसमान से थोड़ा न उतरेंगे? लेकिन उन शब्दों का गठजोड़, उन शब्दों का अर्थ, वो हो सकता है आसमान से उतरा हो, नया हो, बेहतरीन हो, लाजवाब हो.
तो मात्र शब्दों पे, वाक्यों पे, मिसालों पे, किस्सों-कहावतों पे न जाएं, वो सब आपने कहीं भी पढ़े-सुने होंगे. जो कहा जा रहा है, उस का कुल मतलब क्या है, वो पकड़िए.
तुषार कॉस्मिक
होटल में घुसते ही पूछा जाता था, "आप चाय पीयेंगे या कॉफ़ी?" मतलब आप कुछ तो पीयेंगे ही. पहला विकल्प छोड़ ही दिया जाता है कि आप कुछ पीयेंगे भी कि नहीं.
आप से पूछा जाता है,"धन्धा कैसा चला रहा है?" पहला विकल्प छोड़ ही दिया जाता है. पहला विकल्प है~ धंधा चल भी रहा है कि नहीं?
आप Covaxin लेंगे Covishield. लेकिन वैक्सीन लेंगे भी या नहीं, यह है पहला विकल्प. पहला विकल्प आप से छीन लिया गया है.
वोट भाजपा को दो या आप को या कांग्रेस को. वोट ज़रूर दो. लेकिन वोट दो ही क्यों? क्या कोई और सिस्टम नहीं बनाया जा सकता? यह विकल्प आप को दिया ही नहीं जाता. और यही फ्रॉड है. ~तुषार कॉस्मिक
मैं सब धार्मिक किताबों को नकारता हूँ. इसलिए नहीं कि वो ग़लत हैं. न. वो ग़लत भी हैं और सही भी हैं. कहीं ग़लत, कहीं सही. कुछ बहुत गलत, कुछ बहुत सही. दिक्कत यह है कि इन्सान ने इन किताबों को किताबों की तरह नहीं देखा. पवित्र ग्रन्थों की तरह देखा है. कोई बस मत्थे टेके जा रहा है, कोई बस पाठ ही किये जा रहा है, कोई तो इन के खिलाफ़ बोलने वाले को कत्ल ही कर देता है, कोई दंगा खड़ा कर देता है. सो इन ग्रन्थों ने जितना इन्सान का नुक्सान किया है शायद किसी भी अन्य चीज़ ने नहीं. इन ग्रन्थों ने इंसानी सोच को बाँध दिया है. ये ग्रन्थ पाश साबित हुए हैं इंसानी सोच के लिए. इन्सान पशु से उठा लेकिन फिर इन ग्रन्थों से बंध पशु से भी नीचे गिर गया. ~तुषार कॉस्मिक
I m not gonna give u any readymade solutions or even conclusions.
No. My solutions and conclusions might be wrong. Rubbish. Garbage. And my conclusions are after all my conclusions. How can those be beneficial to you? I am me and you are you. I am not you and you are not me.
Then what? My whole job is to confuse you. Induce you to debate. Debate on each and every issue of life. Debate not only with others but with yourself. Especially with yourself. That confusion, that debate may give birth to the Clarity. That clarity shall be yours. Got it? ~ Cosmic
दो लड़के. बेरोज़गार. परेशान. फिर दिमाग की बत्ती जली. अब वो शहर-शहर जाते. देर रातों में. लोगों के घरों की खिड़कियों पर मिट्टी पोत देते. फिर कुछ दिन बाद दिन में फेरी लगाते,"दरवाजे, खिड़कियाँ साफ करवा लो." ऐसे दाल-दलिया मिलने लगा.
आदिवासियों के गाँव में शहर का राजनेता पहुँच भाषण झाड़ने लगा, हम तुम्हारी सारी समस्याएँ सुलझा देंगे."
एक बुड्ढा आदिवासी बोला, "लेकिन हमें तो कोई समस्या है नहीं, हम तो खुश हैं."
नेता बोला,"कोई बात नहीं, अब हम आ गए हैं."
समझे? समस्या नहीं है तो समस्या पैदा करो. फिर हल पेश करो और नाम-दाम कमाओ.
यही एलोपैथी करती है. कोरोना है नहीं, लेकिन पैदा करो, नकली ही सही, पैदा करो. फिर वैक्सीन दो, लॉक-डाउन थोपो.~ तुषार कॉस्मिक
"अच्छा मुझ से कोई गलती हुई हो तो मैं माफी मांगता हूँ." वो बोला
"वो मेरा दोस्त है." ~ गुप्ता जी कौशिक के घर से निकलते हुए बोले.
मेरे छोटे-बड़े कई लेख हैं. 900 से भी ज़्यादा. सब ऑनलाइन. क्या है मकसद? क्या अपने विचार, अपनी सोच को थोपना मकसद है मेरा? नहीं. कतई नहीं. मकसद एक बहस खड़ी करना है. हर छोटे-बड़े मुद्दे पर. लेकिन यह आखिरी मकसद नहीं है. अंतिम उद्देश्य है बहस करने वाला मनस खड़ा करना. लॉजिकल. सतर्क. तार्किक मनस. यह है मेरा उद्देश्य. बस. यदि मनुष्य तर्कपूर्ण है, सतर्क है तो हल खुद ढूँढ लेगा. किसी और के दिए हल वैसे भी ज़रूरी नहीं आप के काम आयें. और कुरान, पुराण, ग्रन्थ के हल तो बिलकुल नहीं. चूँकि वहाँ तो अंध-श्रधा जुड़ी रहती है. तर्क तो जूते के साथ पहले ही बाहर रख छोड़ा होता है. मुझे इस मनस को नष्ट-भ्रष्ट करना है. मुझे सतर्क मनुष्य चाहिए. ~ तुषार कॉस्मिक
मुझे अभी पीछे ही पता लगा कि कमरों के अंदर और बाहर की हवा में एक बड़ा फर्क यह होता है कि indoor हवा में बाहर की हवा की अपेक्षा नमी बहुत कम होती है और ये नमी की कमी नज़ले को बहुत ही ख़तरनाक तरीक़े से बढ़ाती है. इसीलिए लोग कमरों में Humidifier रखने लगे हैं. मैं भी रखता हूँ. यह कमरों की हवा में नमी बढाने का कृत्रिम ढँग है.अब असली पॉइंट. कोरोना लॉन्च करने वाले शैतानों को सम्भवत: यह पता था. तभी जुक़ाम को कोरोना घोषित किया गया और घरों में कैद कर दिया गया ताकि जल्दी ठीक ही न हो सके. ~ तुषार कॉस्मिक
गोरों के लगभग हर मुल्क में आग लगी है. लोग सड़कों पर हैं. उन्हें समझ आ चुका है कोरोना का ड्रामा. कोरोना की आड़ में गुलाम बनाया जा रहा है. कमाने-खाने, घूमने-फिरने, मित्रों-रिश्तेदारों से मिलने की आज़ादी छीनी जा रही है. ठीक से सांस तक लेने का हक छीना जा रहा है. अफ़सोस यह है भारत की इत्ती बड़ी आबादी चूतियों की तरह वैक्सीन ठुकवाये जा रही है. इन का इस आज़ादी की मुहिम में लगभग शून्य योगदान है. कोरोना योद्धा तुम्हारे सरकारी हीरो नहीं हैं, मेरे जैसे लोग हैं जो तुम्हे शुरू से बताते आये हैं कि यह फ्रॉड है. ~ तुषार कॉस्मिक
यदि आप सोशल मीडिया पर एक्टिव हैं लेकिन आप के पढ़ने वाले, सुनने वाले, देखने वाले बहुत ज़्यादा नहीं हैं तो मायूस न हों. बहुत बड़ा योगदान हो सकता है आपका दुनिया की बेहतरी में. कैसे? बड़े प्रोफाइल वाले लोग कुछ भी हाहाकारी कहें तो बवाल मच जाता है. लोग सड़क पे उतर आते हैं, कोर्ट चले जाते हैं, ज़रा-ज़रा सी बात ले कर. सो उन के लिए मुश्किल है. लेकिन Low Profile social media account से आप कैसी भी बात कह सकते हैं. जल्दी कुछ नहीं होगा और आप की बात भी समाज तक पहुँच जाएगी. प्रसिद्ध लोगों को भी नकली अकाउंट बना के अपनी असल बात पहुँचानी चाहिए दुनिया के सामने और शायद वो करते भी हों ऐसा. ~तुषार कॉस्मिक
क्या आप जीतना चाहते हो जिंदगी में? मूलमंत्र दे रहा हूँ. हारना सीखो. आप ने देखा होगा लोग सिर्फ जीतने वालों के लिए तालियाँ बजाते हैं लेकिन मेरी नज़र में जिन्होंने भी दौड़ में हिस्सा लिया वो सब विजेता होते हैं चूँकि वो नहीं दौड़ते तो फिर जीतने वाला विजेता कैसे कहलाता? और जो आज हार रहा है कब अपनी हार से सीख-सीख वो भी जीत जाए किसे पता? असल में तो जीतने का तरीका ही यही है कि हार के डर से खेल से दूर मत भागो, खेल खेलो और हार भी जाओ तो खेल छोड़ो मत, खेलते रहो, जीत ही जाओगे...तुषार कॉस्मिक
घोड़ा यदि गाड़ी के पीछे बंधा हो तो गाड़ी आगे कैसे चलेगी? नज़र आपकी रियर व्यू मिरर पर ही लगी रहे तो ड्राइव कैसे कर पाएंगे?
कभी-कभार पीछे देखना हो तो ठीक है लेकिन हमेशा पीछे देखते रहना एक्सीडेंट ही करवा देगा. लेकिन आप वही करते हैं. आप जीवन को देखने, समझने, जीने के लिए, जीवन की गाड़ी आगे हाँकने के लिए सदियों, सहस्त्राब्दियों पुराने ग्रन्थ, क़ुरान, पुराण में ही झांकते रहते हैं. जो समाज जितना अपने ग्रन्थों से बंधा होगा उतना ही हैरान-परेशान होगा. मुस्लिम समाज इस का ज़िंदा मिसाल है. ~ तुषार कॉस्मिक
मैं सुबह सवेरे पश्चिम विहार, दिल्ली के डिस्ट्रिक्ट पार्क में होता हूँ. नशे कभी किये नहीं. माँस भी नहीं खाता. एक मित्र कह रहे थे, जिस ने खाया पीया नहीं, वो क्या जीया.वो इस धरती पे आया ही क्यों, यदि उस ने जीवन को एन्जॉय न किया. इन की नज़र में जीवन खाना-पीना ही है. इन के लिए शेक्सपियर का साहित्य, पंडित बिरजू महाराज का नृत्य, ज़ाकिर हुसैन का तबला, नुसरत साहेब की कव्वाली, ओशो के प्रवचन क्या माने रखते हैं? इन के लिए जीवन की कलात्मकता और वैज्ञानिकता दारू पीने और माँस खाने तक सीमित है. आइंस्टीन और न्यूटन क्या माने रखते हैं? ध्यान तो बहुत ही दूर की बात है. बुद्ध तो बुत से ज़्यादा न होंगें इन के लिए. प्राणायाम भी करते हैं तो इसलिए कि मुर्गे और फाड़ सकें बोतलें और खाली कर सकें. करें न करें, लेकिन और भी बहुत कुछ है ज़माने में. ~ तुषार कॉस्मिक
पुरानी कहावत है,"इंसान अपनी कब्र खुद अपने दाँतों से खोदता है."
मतलब यदि बुद्धि से संयम से खाओगे तो भोजन "तुम" खाओगे वरना भोजन तुम्हें खा जाएगा.
चलो जाओ अब icecream, pizza, burger, मैदा, चीनी खाओ. चूतिया लोग.
तुषार कॉस्मिक
मुल्क का बंटवारा हो ही गया था, मुस्लिम ने अलग मुल्क ले ही लिया था तो मुस्लिम को भारत में रहना ही नहीं चाहिए था. काफ़िर लोगों में रहना ही क्यों? बंटवारे के बाद सैंकड़ों दंगे हो चुके हिन्दू-मुस्लिम के. लाखों लोग मारे जा चुके. और सारी राजीनीति मुस्लिम/गैर-मुस्लिम मुद्दों के गिर्द घूमती रहती है. राजनीतिक ही नहीं सामाजिक ऊर्जा का बड़ा भाग भी इन्हीं मुद्दों में उलझा हुआ है. पाकिस्तान पाक-स्थान है.खुशहाल मुल्क. मुस्लिम वहीँ जाते तो खुशहाल रहते और पीछे भारत भी कहीं खुशहाल होता. इस की ऊर्जा, बुद्धि, समय बहुत से फ़िज़ूल मुद्दों में न फँसता.~ तुषार कॉस्मिक
कनाडा में सिक्ख भी साथ दे रहे हैं ट्रक वालों का जिन्होंने PM जस्टिन ट्रुडो का घर घेर रखा है.
सब का नारा है,"नकली बीमारी कोरोना के नाम पर लगाई पाबंदियां हटाओ."
भारत में भी इसे मुद्दा बनाओ मूर्खो.
तुषार कॉस्मिक
There are 3 types of ages.
Chronological. Biological. And Mental.
For example...
Chronologically I am above 40 years.
Biologically I am around 25.
And Mentally I am more than 200 years of age.
Got it? If not, read again and again.
~ Tushar Cosmic
आप मशीन हो. सच्ची. आप मशीन हो.
वर्षों पहले मैंने Landmark Forum अटेंड किया था. इस्कॉन टेंपल साउथ दिल्ली में.
हमारे टीचर ने कहा कि forum खत्म होते-होते एक चमत्कार होगा. सब हैरान! वो चमत्कार क्या होगा? वो चमत्कार यह था कि उन्होंने साबित कर दिया कि इंसान मशीन है. औऱ सब मान गए कि हाँ, हम मशीन हैं.
मशीन औऱ इन्सान में फर्क क्या है? यही कि मशीन को जैसे चलाया जाता है, वो वैसे चलती जाती है.
तो क्या इंसान भी वैसे ही हैं?
जी हां, वैसे ही हैं.
हालाँकि सब जान-वारों में इंसान के पास सब से ज़्यादा Freewill, बुद्धि है बावजूद इस के इन्सान बड़ी जल्दी मशीन में तब्दील हो जाता है. वो बड़ी जल्दी सम्मोहित हो जाता है. वो बड़ी जल्दी अपने तर्क को सरेंडर कर देता है. वो बड़ी जल्दी सतर्क से तर्क-हीन हो जाता है. फिर ता-उम्र वो वही करता है, वैसे ही जीता है जैसा सम्मोहन उसे मिला होता है.
इस की सीधी मिसाल है, हिन्दू घर का बच्चा हिन्दू हो जाता है, मुस्लिम का बच्चा मुस्लिम और सिक्ख का बच्चा सिक्ख. मशीन. किस्म किस्म की मशीन. अब उस की सारी राजनितिक सामाजिक सोच मशीनी होगी. हिन्दू भाजपा को वोट देगा और मुस्लिम भाजपा के खिलाफ़. सब मशीनी है. हिन्दू गाय को पूजेगा, मुस्लिम खा जायेगा. सब मशीनी है. इन को लगता है कि ये सब स्वतंत्र सोच का मालिक है लेकिन ऐसा है नहीं. सब मिले हुए सम्मोहन के गुलाम हैं.
ऐसे ही किसी ने आप को बचपन में कह दिया कि आप मंद-बुद्धि हो और यदि वो कथन आप के ज़ेहन ने पकड़ लिया तो बस हो गया बंटा-धार.
मुझे याद है, मैं आठवीं तक बहुत ही साधारण सा स्टूडेंट था. लेकिन पता नहीं कब एक टीचर ने कह दिया कि मैं इंटेलीजेंट हूँ. बस वो कथन मेरे ज़ेहन में फिक्स हो गया और मैं हर इम्तेहान टॉप करने लगा. .
ध्यान से देखें, कहीं आप के ज़ेहन ने भी तो कोई कथन, कोई पठन , कोई दृश्य पकड़ अपना बेडा गर्क तो नहीं कर रखा. ध्यान से पीछे झांकिए. बहुत कुछ मिलेगा. जिस ने आप को इन्सान से मशीन में बदला हो सकता है.
इस मशीनी-करण को तोड़िए.
यदि सीधे हाथ से लिखते हैं तो कभी उलटे हाथ से लिखिए. लेफ्ट चलते हैं तो कभी राईट चलिए. सीधे चलते हैं तो कभी उलटे चलिए, साइड-साइड चलिए. गुरूद्वारे जाते हैं तो मन्दिर भी जाईये और मन्दिर जाते हैं तो मस्ज़िद भी जाएँ. आस्तिक है तो नास्तिकों को पढ़िए. नास्तिक हैं तो आस्तिकों के तर्क पढ़िए, सुनिए. मुस्लिम हैं तो एक्स-मुस्लिम को सुनिए.
अपनी सोच के खिलाफ सोचिये. अपने जीवन के ढर्रे को तोड़िए.
तभी आप कह पायेंगे कि नहीं, मैं मशीन नहीं हूँ. मैं इन्सान हो. मैं पाश में बंधा नहीं हूँ. मैं पशु नहीं हूँ. मैं इन्सान हूँ.
वरना मशीन की तरह ही जीते चले जायेंगे और मशीन की तरह ही मर जायेंगे.
नमन
तुषार कॉस्मिक
यदि तुम को लड्डू जलेबी में से ही बेस्ट चुनना हो तो तुम्हें कैसे पता चलेगा कि काजू कतली भी खाई जा सकती है, बादाम बर्फी भी खाई जा सकती है, नारियल बर्फी भी होती है?
अब एक कम है तो एक की आवाज कम है
एक का अस्तित्व एक का प्रकाश
एक का विरोध
एक का उठा हुआ हाथ कम है
उसके मौसमों के वसंत कम हैं
एक रंग के कम होने से
अधूरी रह जाती है एक तस्वीर
एक तारा टूटने से भी वीरान होता है आकाश
एक फूल के कम होने से फैलता है उजाड़ सपनों के बागीचे में
एक के कम होने से कई चीजों पर फर्क पड़ता है एक साथ
उसके होने से हो सकनेवाली हजार बातें
यकायक हो जाती हैं कम
और जो चीजें पहले से ही कम हों
हादसा है उनमें से एक का भी कम हो जाना
मैं इस एक के लिए
मैं इस एक के विश्वास से
लड़ता हूँ हजारों से
खुश रह सकता हूँ कठिन दुःखों के बीच भी
मैं इस एक की परवाह करता हूँ
~ कुमार अंबुज/ एक कम है
Canada प्रमुख ट्रुडो को अपना ऑफिस छोड़ भगना पड़ा है. क्यों? बहुत से Truckers ने घेर लिया. कोरोना का चूतियापा बन्द कराने के नारों के साथ.
यह है आमजन की शक्ति. हार मत मानो. लड़ो. चार दिन में कोरोना भाग जाएगा, वरना "ये" लोग तुम्हें ही नहीं, तुम्हारे बच्चों को भी खा जाएंगे.
लड़ो.
ट्रुडो भगा है, "ये" भगेंगे भी, पायजामे में हगेंगे भी. और जैसे किसान से माफ़ी माँगी, ऐसे ही सारी दुनिया से माफ़ी माँगेंगे. ~ तुषार कॉस्मिक
जिन बुद्धुओं को लगता है कि हिंदुओं ने कभी किसी पे आक्रमण नहीं किया, हिन्दू बड़े शान्तिप्रय हैं, उन को बता दूँ कि गुरु गोबिंद सिंह के बच्चे और परिवार जो शहीद हुए तो वजह सिर्फ़ मुग़ल हुक्मरान ही नहीं थे, पहाड़ी हिंदू राजे भी थे. कोई 50 के करीब थे ये राजे, जिन्होंने मुग़लों के साथ मिल कर गुरु साहेब पे आक्रमण किया था. नतीजा हुआ अनेक सिंहों और गुरु साहेब के परिवार की शहीदियाँ.
इतिहास ठीक से समझा करो मूर्खो~ तुषार कॉस्मिक
मेरा मानना है कि धन का कुछ ही हाथों में एकत्रित होना खतरनाक है. इसका विकेंद्री-करण होना चाहिए. छोटे और मझोले उद्योग और व्यापारों को जितना हो सके सहयोग दें.
प्रयास करें कि रिलायंस फ्रेश की जगह फेरी वालों से सब्ज़ी खरीदें. Zepto से डिलीवरी मंगवाने की जगह अपने इलाके के परचून वालों से डिलीवरी लें. जहाँ तक हो सके बड़ी कम्पनियों को काम न दें.
आज आप अपने गली-मोहल्ले वालों को काम देंगे, कल वो आप को काम देंगे. एक मिसाल देता हूँ, मैंने हमेशा बिजली-पानी के बिल नवीन को भरने के लिए दिए. वर्षों से. वो दस-पन्द्रह रुपये प्रति बिल लेते हैं. जब मैं ऑनलाइन पेमेंट कर सकता हूँ, उस के बावज़ूद. उन को काम मिला मुझ से. मुझे काम मिला उन से. उन्होंने तकरीबन सत्तर लाख का एक फ्लोर लिया मेरे ज़रिये. और जिन का वो फ्लोर था उन्होंने आगे डेढ़ करोड़ रुपये का फ्लैट लिया मेरे ज़रिये. इस तरह कड़ी बनती चली गयी.
नौकरी-पेशा कह सकते हैं कि हमें क्या फर्क पड़ता है. फर्क पड़ता है. दूसरे ढंग से फर्क पड़ता है. समाज को कलेक्टिव फर्क पड़ता है. यदि हम कॉर्पोरेट को सहयोग देंगे तो सम्पति धीरे-धीरे चंद हाथों चली जाएगी. जो अभी काफी हद तक जा ही चुकी है. नतीजा यह हुआ है कि अमीर और अमीर होता गया है और गरीब और गरीब.
न. यह गलत है.
चूँकि धन सिर्फ धन नहीं है, यह ताकत है. इस ताकत से सरकारें खड़ी की जाती हैं और गिराई जाती हैं.
जी. जनतंत्र में भी.
कैसे?
ऐसे कि यह जनतंत्र है ही नहीं. यह धन-तन्त्र है. चुनाव में अँधा धन खर्च किया जाता है. कॉर्पोरेट मनी. इस मनी से अँधा प्रचार किया जाता है. इस प्रचार से आप की सोच को प्रभावित किया जाता है. आप को सम्मोहित किया जाता है. बार-बार आप को बताया जाता है कि अमुक नेता ही बढ़िया है. जैसे सर्फ एक्सेल. भला उस की कमीज़ मेरी कमीज़ से सफेद कैसे? आप सर्फ एक्सेल खरीदने लगते हैं. आप ब्रांडेड नेता को ही चुनते हैं और समझते हैं कि आप जनतंत्र हैं.
यह एक मिसाल है.
आप से जनतंत्र छीन लिया गया अथाह धन की ताकत से. फिर आगे ऐसी सरकारें अँधा पैसा खर्च करती हैं आप को समझाने में कि उन्होंने आप के लिए क्या बेहतरीन किया है.
कुल मिला के आप की सोच पर कब्ज़ा कर लिया जाता है. आप वही सोचते हैं, वही समझते हैं जो यह अथाह धन शक्ति चाहती है. और आप को लगता है कि यह सोच आप की खुद की है.
न. अथाह धन शक्ति आप को गुलाम बनाती जाएगी. इस गुलामी को तोड़ने का एक ही जरिया है.
बजाए ब्रांडेड कपड़े खरीदने के गली के टेलर से शर्ट सिलवा लें. लेकिन वो टेलर जैसे ही कॉर्पोरेट बनने लगे उसे काम देना बंद कर दें. मैंने देखा है कि बिट्टू टिक्की वाले को. वो रानी बाग़ में रेहड़ी लगाता था. बहुत भीड़ रहती थी. धीरे-धीरे कॉर्पोरेट बन गया. क्या अब भी समाज को उसे काम देना चाहिए? नहीं देना चाहिए. चूँकि अब यदि उसे काम दोगे तो यह धन का केंद्री-करण हो जायेगा. न. ऐसा न होने दें. धन समाज में बिखरा रहने दें. ताकत समाज में बिखरी रहने दें. समाज को कोई मूर्ख नहीं बना पायेगा. समाज को कोई अंधी गलियों की तरफ न धकेल पायेगा.
इस पर और सोच कर देखिये. इस मुद्दे के और भी पहलू हो सकते हैं. ऐसे पहलू जो मैंने न सोचे हों. वो आप सोचिये.
तुषार कॉस्मिक
मुझे लगता है मोक्ष की कामना ही इसलिए रही होगी कि जीवन अत्यंत दुःख भरा रहा होगा. एक मच्छर. "एक मच्छर साला हिजड़ा बना देता है." कुछ सदी पहले का ही जीवन काफी मुश्किलात से भरा रहा होगा.. "ये जीना भी कोई जीना है लल्लू." सो मोक्ष. "वरना कौन जाए जौक दिल्ली की गलियां छोड़ कर." ज़िन्दगी ऐसी रही होगी जिसमें ज़िंदगी होगी ही नहीं. बेजान. वरण ठंडी नरम हवा, बारिश की बूँदें, नदी की लहरें, समन्दर का किनारा, पहाड़ी पग-डंडियाँ...इतना कुछ छोड़ कर कौन मोक्ष की कामना करेगा?~ तुषार कॉस्मिक
मैं रोज़ तुम्हें आगाह करता हूँ. शिकंजा धीरे-धीरे तुम पर कसता जायेगा. और कुछ नहीं कर सकते तो बीच -बीच में सब ग्रुप्स में मेरा लेखन या मेरे जैसा लेखन पोस्ट करो
पुनीत राज कुमार औऱ एक कोई औऱ एक्टर मर गया.शायद जिम में. तो लोग बोले कसरत करने का कोई फायदा है ही नहीं.भले चंगे जवान लोग जिम में मर जाते हैं. कोई बोला ओवर एक्सरसाइज नहीं करनी चाहिये.कोई बोला ये जिम जाने वाले बॉडी बनाने के लिए डब्बे खाते हैं डब्बे, वही नुक्सान करते हैं. मुझे लगता है एक चीज़ छूट गई लोगों से. असल में We, human beings are not body alone. We are Mind-body. Allopathy का सारा ज़ोर बॉडी पर है. इसीलिए ये जो लोग मरे तो लोगों की observations सब बॉडी से सम्बंधित ही आईं. किसी ने Mind का ख्याल ही नहीं किया. असलियत यह है मन में अगर तनाव आया तो एक सेकंड में भले चंगे आदमी की हार्ट अटैक आ सकता है, ब्रेन हेमरेज हो सकता हक़ी, परलीसिस हो सकता है. मन तन से बड़ा फैक्टर है इंसानी सेहत में.~कॉस्मिक
जब गुरु तेग बहादुर शहीद किये जा चुके थे तो उन का सर ले के शिष्य भागे. पीछे मुगल फ़ौज थी. हरियाणा के कोई "दहिया" थे, जिन्होंने ने अपना सर काट पेश कर दिया मुगल सेना को भरमाने को ताकि गुरु के शीश की बेकद्री न हो. पढ़ा था कहीं. सच-झूठ पता नहीं. जाट रेजिमेंट, सबसे ज्यादा वीरता पुरस्कार विजेता रेजिमेंट है. अब फिर खेलों में मैडल ले रहे हैं हरियाणवी छोरे-छोरियाँ. लेकिन यह एक पक्ष है.
दूसरा पक्ष. दिल्ली में हरियाणवी लोगों को "घोडू" कहा जाता है. "जाट रे जाट, सोलह दूनी आठ." क्यों? क्योंकि बेहद अक्खड़ हैं. तू-तडांग की भाषा प्रयोग करते हैं. बदतमीजी करते हैं. झगड़े करते हैं. और बदमाशी भी करते हैं. आप देख रहे हैं दिल्ली में जितने गैंगस्टर हैं सब हरियाणा के जाटों छोरों के हैं. क्यों? वजह है. दिल्ली की ज़मीनों ने सोना उगला और सब देहात करोड़पति हो गए. और बिना मेहनत का पैसा बर्बाद कर देता है. वही हुआ. पैसा आया लेकिन समझ न आ पाई. तभी सुशील कुमार ओलिंपिक मैडल जीत कर भी क्रिमिनल बन गया. जाट समाज को अपने अंदर झाँकना होगा, समझ पैदा करनी होगी, ऊर्जा पॉजिटिव दिशाओं में मोड़नी होगी. अन्यथा अंततः हानि जाट समाज की ही होगी. ~ तुषार कॉस्मिक
मेरा इस्लाम का जो विरोध है उस के कई कारण हैं. एक यह है कि जहाँ-जहाँ इस्लाम पहुँचता है, यह वहां की लोकल कल्चर को खा जाता है. वहां के उत्सव, वहां का खाना-पीना, वहाँ का कपड़े पहनने का ढंग, सब कुछ खा जाता है. औरतें तरह-तरह के रंगीन कपड़ों की बजाए काले लबादों में लिपट जाती हैं. आदमी लोग ऊंचे-पायजामे, लम्बे-कुर्ते पहनने लगते हैं. अजीब दाढ़ी रखने लगते हैं. गीत संगीत का बहिष्कार होने लगता है. उत्सव के नाम पर ईद-बकरीद बचती है. जिस में बकरीद पर रस्से से बंधे बेचारे जानवर की गर्दन पर छुरी चलाई जाती है. बाकी सब उत्सव खत्म. और तो और, इस्लाम से पहले के इतिहास से भी समाज को तोड़ा जाता है. एक बड़ा ही आदिम समाज, अवैज्ञानिक किस्म का समाज खड़ा हो जाता है. न. ऐसी दुनिया नहीं चाहिए हमें. सो मैं इस्लाम के खिलाफ हूँ-खिलाफ रहूँगा. इन्शा-अल्लाह!~ तुषार कॉस्मिक