Wednesday, 10 June 2015

लघु कथाएँ

बहुत कम कहानियाँ लिखी हैं मैंने. कुछ लघु कहानियाँ जो पहले छाप चुका हूँ, जितनी ढूंढ पाया, सब इकट्ठी पेश कर रहा हूँ. कुछ लघु हैं, कुछ लघुतर,कुछ लघुतम. कुछ कहानियों जैसी हैं और कुछ नहीं भी. कुछ पढ़ी हो भी सकती हैं आपने, कुछ नहीं भी. सो पेशे-ए-ख़िदमत हैं. जिनको लगता हो पोस्ट लम्बी हैं, उनसे गुज़ारिश है जितनी पढ़नी ठीक लगे उतनी पढ़ें. बहुतों के लिए फेसबुक मात्र फेस देखने-दिखाने की चीज़ है, मेरे लिए ज़्यादा बुक पढ़ने-पढ़ाने की. और बुक तो बुक ही होती है आफ्टर-आल. फेस करना न करना आपकी मर्ज़ी.  तो चलिए मेरे साथ एक बार फिर-----

"लट्ठमार लघु कथा-1"

एक स्त्री, ठेठ गाम से शहर आई, महानगर .....यहाँ मज़ूरी करती करती किसी तरह अच्छे खासे पैसे कमाने में कामयाब हो गयी.....पढ़ी थी कुछ और होशियार थी,,,,शहर आ और होशीयार हो गई थी

खबर गाम पहुँची, वहां से एक नशेड़ी, भंगेड़ी, कामचोर सा आदमी उससे मिलने आया, ऐसे में बहुत से लोगों को मिलना मिलाना सूझ जाता है

मिला और याद दिलाता रहा कि मैं फलां मोहल्ले में रहता था, फलां गली में, फलां मकान में.

लेकिन उस औरत को याद नहीं आया
वो याद दिलाता रहा कि फलां का पोता हूँ, फलां का बेटा.....

लेकिन उस औरत को याद नहीं आया
वो फिर भी कहता रहा कि वो फला का भतीजा है, फलां का भांजा

लेकिन औरत को फिर भी याद नहीं आया

आखिर वो आदमी चुक गया, झल्ला गया, झुंझला गया, बौरा गया, गुस्सा गया
अब वो औरत उठी और कही," अबे , निकल यहाँ से, तेरे जैसे लल्लुओं-उल्लुओं पे ही ध्यान रखती होती तो आज मैं भी तेरी जगह कहीं बैठी होती, निकल...मैं ध्यान वहां रखती हूँ, जो विषय ध्यान रखे जाने के काबिल हो, दफा हो यहाँ से"

शिक्षा-- आपके इर्दगिर्द बहुत से व्यक्ति, बहुत से विषय इस नामुराद जैसे हो सकते हैं, उन पर ज़्यादा ध्यान मत दीजिये, इग्नोर करना सीखिए, ध्यान वहां दीजिये जो विषय कुछ दमदार हो, हर ऐरे गैरे नत्थू खैरे को अपने ध्यान का विषय मत बनाइए, ध्यान का ही खेल है जीवन

"लट्ठमार लघु कथा-2"

एक राक्षस एक गाँव से 60 लोगों को उठा कर ले जाता है। वो जंगल में ले जाकर 30-30 लोगों को अलग-अलग सूखे कुँओं में डाल देता है। इतने में उसे मोबार्इल फोन पर उसकी बीवी का घर से ज़रूरी फोन काल आता है। बीवी ने उसे ज़रूरी घर बुलाया होता है। माडर्न राक्षस होता है। मोबार्इल फोन धारक । वो उन 60 लोगों को वहीं छोड़ कर अपने घर भागता हुआ चला जाता है।

एक कुँए में फँसे 30 लोग सलाह करते है कि राक्षस से बचने का एक ही तरीका है कि Human Pyramid बना कर कुछ लोग बाहर निकलें और बाहर से फटा फट कोर्इ रस्सी सीढ़ी का इंतजाम करके बाकी लोगों को भी बाहर खींच लें। वो ऐसा ही करते हैं। बाहर निकल कर वो लोग जंगल में लगे पुराने पेड़ों की बेलों को तोड़ कर कुएँ में लटका कर बाकी लोगों को भी बाहर खींच लेते हैं और वहाँ से अपने घरों को भाग जाते हैं।

दूसरे कुँए में फँसे लोग भी यही योजना सोचते है। लेकिन उन लोगों में से कुछ लोग शंका प्रकट करते है कि जो लोग बाहर निकल जाएंगे अगर उन्होंने हमारी मदद न की तो हमारा क्या होगा। कुछ लोग जवाब देते है, ऐसा लगभग असंभव है, हम सब एक गाँव के हैं, मित्र हैं, सम्बन्धी हैं. हम सब एक दूसरे की मदद से ही बच सकते हैं। हमें एक दूसरे पर विश्वास करना ही चाहिए। वरना सब के सब मारे जाएंगे। हम लाटरी से पहले बाहर निकलने वालों का नाम ढूँढ सकते है। लेकिन उनमें से ज़्यादातर लोग इस पर राज़ी नहीं हुए। उन्होंने कहा, ''जो लोग बाहर निकल जाएंगे वो तो बच जाएंगे। वो हमारी मदद कभी नहीं करेंगे। वो लोग भाग जाएंगे। हम तो मारे ही जाएंगे। ये लोग क्यों बचें? उनमें झगड़ा होने लगा। कुछ लोगों ने Human Pyramid बना कर बाहर निकलने का प्रयास भी किया तो बाकियों ने उनकी टाँग खींच ली। इस तरह उस कुएँ से कोर्इ भी बाहर नहीं निकल पाया। राक्षस और राक्षसी, अपने बच्चों सहित आए और सब के सब लोगों को खा गए। बढ़िया लंच और फिर डिनर भी.

कथा की शिक्षा आप खुद ढूंढ लें ........

"लट्ठमार लघु कथा-3"-----"अदृश्य जोंक"

एक मित्र था मेरा, सालों तक रहा मेरे साथ, मेरा मित्तर प्यारा

मैं अगर कहूं कि फलां एक्ट्रेस सुन्दर है तो वो कहे कि नहीं बकवास है.......मैं कहूं कि फलां लेखक अच्छा है, वो कहे कि कचरा लिखता है..........मैं कहूं कि फलां ड्रेस अच्छी है, वो कहे झोलझाल है...

बरसों मेरा खाना, पीना, घूमना फिरना रहा उसके साथ ..... पैसे का ले दे रहा उसके साथ....कितने ही रेस्तरां इक्कठे गए....कितने ही बाज़ार...........पार्क, जिम साथ साथ

फिर एक वर्कशॉप अटेंड कर रहा था मैं......"मनी वर्कशॉप"....यह अभी भी चलती है....उसमें एक जगह बताया गया कि हमारे जीवन में कुछ लोग जोंक होते हैं, जो हमारे खून पर जिंदा होते हैं..........मित्र बनाये रखने चाहियें, रिश्ते रखने चाहिए लेकिन जोंक नहीं.........

एकाएक ज्ञान चक्षु खुल गए मेरे.......सालों पीछे तक की फिल्म घूम गई मनस पटल पर......मैं कितना बेवकूफ था, मैंने कैसे नहीं समझा......क्यों नहीं समझा कि वो बन्दा जीवन में हर लिहाज से मुझ से पीछे था और मेरी कीमत पर उठने की कोशिश कर रहा था?

यकायक उसके कितने ही कथन मेरे सामने उभरने लगे......मैं हैरान, हतप्रभ.........सब साफ़ हो गया

खैर, उससे पिंड तो छुड़ा लिया मैंने.........अब फिर मुझे फेसबुक पर रिक्वेस्ट भेजी थी.....नहीं स्वीकार की मैंने.....रिश्ते रखने चाहिए .....लेकिन किस कीमत पर यह ध्यान देने की बात है.....जोंकों के साथ रिश्ते बनाने की मैं तो सलाह नहीं देता

खुद को देखिये, अपने जीवन को, कोई जोंक तो नहीं चिपका रखी आपने?
या फिर आप भी कहीं जोंक तो नहीं?

दूसरी बात शायद बुरी लगे, लेकिन आगे जीवन में शायद भली लगे
नमस्कार

"लट्ठमार लघु कथा-4"

रमेश, "और भाई, तेरा बुखार कैसा है अब?"
सुरेश, "बढ़िया है"
रमेश,"अबे तो फिर चारपाई क्यों पकडे हैं, ड्रामा कर रहा है क्या?"
सुरेश, "भूतनी के, तूने पूछा था बुखार कैसा है, वो तो बढ़िया है....मैं थोड़ा बढ़िया हूँ, मैं तो तप ही रहा हूँ बुखार से...."
शिक्षा---- सही जवाब पाने के लिए सही सवाल करें

"लट्ठमार लघु कथा-5"
कॉल सेंटर गर्ल," हेलो, सर, आप तुषार बोल रहे हैं?"
मैं, "आप कौन?"
"सर , आप तुषार बोल रहे हैं?"
मैं "मैडम, फ़ोन आप ने मिलाया है, कौन बोल रही हैं, कहाँ से बोल रही हैं, क्यों बोल रही हैं?"
"सर, बताती हूँ, आप तुषार ही बोल रह हैं न?"
मैं, "नहीं, काला चोर बोल रहा हूँ."
और फ़ोन कट

"लट्ठमार लघु कथा-6"
सड़क पर ढोल बजाती औरत, उसके साथ अपने जिस्म पर हंटर चलाता आदमी ...सटाक....सटाक
पैसे मांग रहे हैं, जैसे जिस्म पर हंटर नहीं कद्दू में तीर चल रहा हो
मैंने कहा, "ला मैं लठ बजा दूं तेरे जिस्म पर, फिर ले जाना पैसे"
भाग गए.......

"लट्ठमार लघु कथा-7"

रमेश,"यार सुरेश, ये आज मैंने नया नंबर लिया था, पता नहीं कब कब यह सार्वजनिक हो गया, दुनिया जहाँ से लड़के लड़कियां फ़ोन करते हैं इस पर, जी, मैं फलां बोल रहा हूँ, बोल रही हूँ, आप यह ले लीजिये, वो ले लीजिये, दुखी हो गया मैं तो, फ़ोन बजता है, सब काम छोड़ फ़ोन उठाते हैं और पता लगता है कि खाम-ख्वाह का कॉल था, फ़ोन लेते ही हम किसी के लिए व्यापार बन गए, पता ही नहीं चला"

सुरेश, "कह तो ठीक रहा है.....सुना है यदि दिल्ली से बिहार तक कोई ट्रेन में सफर कर रहा हो तो यात्री बिक जाते हैं डकैतों में.... बस मालदार दिखना चाहिए.........कितने बैग हैं, साथ कितने लोग हैं, स्त्रियाँ कितनी, बच्चे कितने, पुरुष कितने, हुलिया, डील डौल ..... सारी जानकारी ..एक गैंग नहीं लूट पाया तो आगे वाला कोई लूट लेगा, सो वो अगले वाले को बेच देता हैं, इस तरह यात्री कितनी बार बिक चुका होता है, उसे कभी पता नहीं लगता, उसे तो पता बस तब लगता है जब वो लुट चुका होता है"

रमेश," हाँ यार, सुना तो मैंने मैंने भी है.....हमारी बहुत सी जानकारी होती है इन कॉल करने वालों के पास, वो जो शायद ही हम किसी को देना चाहें"

सुरेश, " तू एक काम कर ना...वो DND (DO NOT DISTURB) में अपना नंबर डलवा दे, फिर नहीं आयेंगे ऐसे कॉल"

रमेश, " हहहहहह्हा.............."

सुरेश," अबे, काहे हंसता है, चुटकला सुनाया क्या?"

रमेश," हंस इसलिए रहा हूँ कि यह कैसी उल्टी गंगा है....मैंने साला किसी को एप्लीकेशन दी क्या कि मुझे फ़ोन करते रहो अपनी अनाप शनाप चीज़ें-योजनायें बेचने को? फ़ोन मैंने अपने लिए लिया है या इन लोगों के लिए......फ़ोन मेरी सुविधा के लिए है या इन लोगों की......फ़ोन का मालिक मैं हूँ या ये लोग.....इजाज़त इन लोगों को लेनी चाहिए मुझ से कि फ़ोन करें कि नहीं और यदि मैंने नहीं दे रखी कोई इजाज़त तो फिर फ़ोन करना ही नहीं चाहिए.....साला मुझे DND में रजिस्टर करना होगा..... कमाल है......मैंने घर लिया तो इसका मतलब यह है कि कोई भी दिन रात मेरा दरवाज़ा पीटता रहे कि यह खरीद लो, वह ले लो......मुझे ज़रुरत होगी तो मैं खुद ले लूँगा.....तुम अपनी दूकान सजा के रखो एक जगह...हुंह"

सुरेश," अबे उनकी मजबूरी है"

रमेश," अबे मज़बूरी है तो सजा के रखें न दूकान एक जगह, जिसे ज़रुरत होगी ले लेगा इनसे जो लेना होगा......ऑनलाइन बना लें दूकान, ऑफलाइन बना लें......और जो मर्ज़ी करें, मैंने ठेका ले रखा है क्या इनका ?"

सुरेश," ठंड रख ठंड, पहले तो DND, भी नहीं था, शुक्र कर अब है तो सही"

रमेश, " छोड़ यार मूर्खो का मेला है यह दुनिया...."

सुरेश," हो सकता है जैसे DND आया, वैसे ही कोई सिस्टम आ जाए कि जो लोग अप्लाई करें बस उन्हें को इस तरह की कॉल की जाएँ, वरना नहीं"

रमेश," होना ही ऐसे चाहिए, साला, जिसने तुम्हें शादी का कार्ड दिया हो वहीं तो जाना बनता है या फिर कहीं भी मुंह मारोगे?"
और इस तरह रमेश, सुरेश चलते गए और बतियाते गए.........

"लट्ठमार लघुकथा--8"

"एक चिड़िया ने मधुमक्खी से पूछा कि तुम इतनी मेहनत से शहद बनाती हो और इंसान आकर उसे चुरा ले जाता है, तुम्हे बुरा नही लगता ??
मधुमक्खी ने बहुत सुंदर जवाब दिया : इंसान मेरा शहद ही चुरा सकता है पर मेरी शहद बनाने की कला नही ।।

कोई भी आपका Creation चुरा सकता है पर आपका Talent (हुनर) नही ।"

मेरा जवाब था इनको, "वो जवाब मधुमक्खी नहीं दिया है, इन्सान ने खुद ही खुद को तसस्ली देने को दिया है, मक्खी तो काट काट सुजा देती है, आपको नहीं यकीन बिना कपड़ों के जाईये और बड़े प्यार से शहद निकालने का प्रयास कीजिये, जवाब मिल जाएगा. भाई जी, ऐसी श्याणी कहानी से आप खुद को मूर्ख बना सकते हो, और किसी को मूर्ख बना सकते हो लेकिन मुझे नहीं और न ही मधुमक्खियों को."

"लट्ठमार लघुकथा--9"

एक मुल्क था.....नाम याद नहीं लेकिन फर्क नहीं पड़ता कोई भी नाम चलेगा.......वहां का निज़ाम डेमोक्रेसी कहलाता था......मतलब कोई भी जन साधारण में से ...जो भी काबिल हो संतरी, मंत्री बन जाए......लेकिन काबिल आदमी तो आगे आ ही नहीं पाता था...क्योंकि क़ाबलियत आम लोगों के वोट से तय होती थी...... और वोट बहुत हद तक चुनाव प्रचार और चुनाव धांधलियों से तय होते थे ...खरीदे बेचे जाते थे......

अब इस सब के लिए तो अनाप शनाप पैसा चाहिए होता था, सो निजाम आम आदमी कीक़ाबलियत पर नहीं, पूंजीपतियों की दौलत से तय होने लगा......
पूंजीपति समझ चुके थे कि प्रचार से हर कूड़ा कबाड़ा बेचा जा सकता है.... बेस्वाद बर्गर बेचे जा सकते थे, सेहत को नुक्सान पहुंचाएं वाले पिज्ज़े और कोला बेचे जा सकते थे.... प्रचार और दुष्प्रचार से सरकारे बनाई और गिराई जा सकती थी
सब चतुर सुजान इस फार्मूला को समझ चुके थे

संतरी, मंत्री, प्रधान मंत्री इसी तरह से बनाये जाते थे
लेकिन फिर भी इसे लोकतंत्र कहा जाता था
लोकतंत्र, ऐसा तंत्र जहाँ आम लोगों की कभी पहुँच ही नहीं थी

फिर एक आदमी उठा..............नाम याद नहीं लेकिन फर्क नहीं पड़ता कोई भी नाम चलेगा............ उसने कहा कि भाई, ये तो गलत है..भला एक अरबों-खरबोंपति द्वारा प्रचारित बंदा (वैसे उसका भी नाम याद नहीं लेकिन फर्क नहीं पड़ता कोई भी नाम चलेगा) आम आदमी का नुमाइंदा कैसे हो सकता है ..एक गरीब, एक पूरे सूरे आम आदमी की नुमाइंदागी इस तरह का बन्दा थोड़ा कर सकता है जो पॉवर में आएगा ही, बड़े पूंजीपतियों की मदद से

अब दिक्कत यह थी कि उस आम आदमी की बात भी पब्लिक तक पहुंचाने वाला कोई नहीं था.....सारा मीडिया था ही पूंजीपतियों का....अखबार, टीवी सब पूंजीपतियों का था

अब ऐसे बंदे की आवाज़ कौन सुने, कैसे सुने?

वो कहता रहा कि भाई अगर हमें सेहत-मंत्री चाहिए तो कोई ऐसे बंदे जिन्होंने इस क्षेत्र में कोई काम किए हो, जिनके पास इस क्षेत्र को सुधारने का कोई जज्बा हो, कोई योजना हो, उनको सामने आने दो.........सबको बराबर टाइम दे दो... सरकारी रेडियो, टीवी पर.......पब्लिक को सुनाएँ , समझायें अपनी योजना, अपनी काबिलयत ......चेहरा भी मत आने दो, आवाज़ भी मत सामने आने दो.........मात्र क़ाबलियत, योजना सामने लाने दो....लोग वोट योजना को दें...काबिलियत को दें बस

वो कहता रहा ऐसी ही बहुत सी बातें
अभी तक तो उस बंदे की सुनी नहीं गयी
अभी तक तो पुराने ढर्रे का लोकतंत्र ही चल रहा है जिसमें आम लोगों वोट देते नहीं हैं, वोट उनसे लिए जाते हैं
अभी तक तो कुछ बदलने वाला दिख नहीं रहा उस मुल्क में, वो मुल्क, जिसका नाम याद नहीं लेकिन फर्क नहीं पड़ता कोई भी नाम चलेगा..

कॉपी राईट
चुराएं न, शेयर कर सकते हैं

"लट्ठमार लघुकथा--10"

एक डॉक्टर के क्लिनिक के बाहर बोर्ड लगा था," एड्स, कैंसर, पागलपन और दुनिया की हर बीमारी का मात्र बीस हज़ार रूपए में मात्र दो महीने में इलाज. फायदा न होने पर पैसे वापिस"

दूर से लोग आ गए, लाखों लोगों ने बीस बीस हज़ार दिए, फिर दो महीने बाद लोगों की भीड़ वापिस आयी , किसी को कोई फायदा नहीं हुआ था .

केस कोर्ट में चला गया, सबने मुद्दा बनाया कि साहेब इस डॉक्टर ने लिखा था फायदा न होने पर पैसे वापिस. अब दे नहीं रहा वापिस.

डॉक्टर बोला साहेब, बिलकुल लिखा था, लेकिन फायदा किसका यह तो किसी ने पूछा नहीं. देखिये, मेरे पास ढंग के कपड़े नहीं थे, मैं एक मात्र आधी बाजू का कुरता पहनता था, लोग अक्सर मजाक में मोदी कुरता कहते हैं इसे.....अब मैं दस लाख का सूट पहनता हूँ, विदेशों में घूम आया हूँ....चेहरे पर लाली आ गयी है और ये लोग कहते हैं कि फायदा नहीं हुआ ...साहेब केस गलत है...इनको फायदा हुआ न हुआ मुझे तो हुआ, मेरे तो न सिर्फ दिन अच्छे आये, बल्कि रातें भी अच्छी हो गयी

"लट्ठमार लघुकथा--11----वो सोचता जा रहा था"

राधे बीमार था...उम्र तकरीबन पचपन हो चली थी....शरीर पहले जैसा नहीं रहा था....अब मालिक लोग भी काम देने से कतराने लगे हैं....डरते हैं, कहीं काम करते कराते चोट वोट खा गया तो खामख्वाह की मुसीबत.........लड़का भेजा है काम ढूँढने........सरकारी स्कूल में पढ़ रहा है........दो महीने की छुट्टियाँ आन पड़ी हैं.........कुछ काम मिल जाता उसे तो घर खर्च थोड़ा आसान हो जाता.......

लेकिन लड़का भी चार रोज़ से रोज़ खाली हाथ लौट आ रहा है.......उसे भी कोई काम नहीं दे रहा......सोलह साल का है न अभी.....कहते हैं कम उम्र है. सो काम नहीं दे सकते......उधर सुना है कि उसकी उम्र के ही किसी लड़के ने कोई बलात्कार कर दिया, पकड़ा गया, उसे लोग कह रहे हैं कि बड़े आदमी जितनी ही सज़ा होनी चाहिए.....ठीक ही तो बात है.....सोचता जा रहा था वो....ठीक ही तो बात है....जब गुनाह बड़ों वाले करे कोई तो सज़ा बड़ों वाली ही होनी चाहिए.....लेकिन आग लगे इन अंधे कानूनों को......

उसका लड़का हर वो काम कर सकता था जो उससे दो साल बड़ा कोई लड़का कर सकता था लेकिन मालिक लोग डर से काम नहीं दे रहे थे.....वो भी सच्चे थे.....पीछे किसी सेठ ने एक सोलह साल के लड़के को दूकान पर सेल्समेन की नौकरी दी थी......किसी दुश्मन ने पुलिस रपट लिखा दी......लड़का नौकरी से गया...और मालिक को ह्ज्जारों के चपत लग गयी ......वो सोचता ही जा रहा था........क्या क़ानून हमारी मदद के लिए था या हमारी गर्दन दाबने के लिए ........वो सोचता जा रहा था.......लेकिन आग लगे इन अंधे कानूनों को

"लट्ठमार लघुकथा--12"

"लन्दन के फुटपाथ पर
दो भारतीय रुके और जूते
पोलिश करने वाले से एक
व्यक्ति ने जूते पोलिश करने
को कहा ... जूते पोलिश
हो गये .. पैसे चुका दिए और
वो दोनों अगले जूते पोलिश
करने वाले के पास पहुँच गये

वहां पहुँच कर भी उन्होंने
वही किया...
जो व्यक्ति अभी जूते
पोलिश करवाके आया था,
उसने फिर जूते पोलिश
करवाए और पैसे चुका  कर
अगले जूते पोलिश करने वाले
के पास चला गया........... जब
उस व्यक्ति ने 7-8 बार
पोलिश किये हुए
जूतो को पोलिश
करवाया तो उसके साथ के
व्यक्ति के सब्र का बाँध टूट
पड़ा..... उसने पूछ ही लिया "
भाई जब एक बार में तुम्हारे
जूते पोलिश हो चुके
तो बार-बार क्यों पोलिश
करवा रहे हो"?
प्रथम व्यक्ति " ये अंग्रेज
मेरे देश में राज़ कर रहे हैं,
मुझे इन घमंडी अंग्रेजो से जूते
साफ़ करवाने में
बड़ा मज़ा आता है

वह व्यक्ति था सुभाष
चन्द्र बोस..... सुभाष चन्द्र
बोस जी को उनके जन्मदिन
पर नमन जय हिंद"

मेरा निष्कर्ष----अगर ये कहानी सत्य है तो मुझे सुभाष चन्द्र बोस बेवकूफ नज़र आते हैं. कहीं का गुस्सा कहीं पे, गरीब गरीब होता है, चाहे वो अँगरेज़ हो चाहे भारतीय.

और अगर यह कहानी झूठी है तो इसे फेसबुक पे पोस्ट करने वाले सुभाष जी के प्रति घोर अन्याय कर रहे हैं, उन्हें बाज आना चाहिए.

"लट्ठमार लघुकथा--13"

फौजियों के शूटिंग अभ्यास स्थल के निकट कुछ लोग रहते थे.......ऐसा कोई कानून नहीं था कि वो वहां रहें ......लेकिन वो मज़बूर थे....उनके पास कोई भी और जगह ही नहीं थी.......उनको पता था कि वहां रहना खतरनाक है फिर भी रह रहे थे.....

एक बार एक फ़ौजी शायद दारू पिए था, हालंकि दारू पी के शूटिंग करना मना था ......लेकिन वो पिए था.....सो वो चूक गया, उसकी गोली एक गरीब को जा लगी, गरीब मारा गया..........

अब क्या फैसला हो कचहरी का?

मुल्क की भीड़ उसके लिए क़त्ल की सज़ा मांगने लगी.......लेकिन मेरी नज़र में वो मात्र दारू पीने का दोषी था....मेरी नज़र में वो गरीब भी दोषी थी, लेकिन वो तो मजबूर था सो मेरी नज़र में असल दोषी वो समाज था जो ऐसी व्यवस्था का पोषक था जिसमें उसका एक बड़ा हिस्सा गरीब था, निहायत गरीब और इस तरह की रिस्की ज़िंदगी जीने को मजबूर था, रिस्क न सिर्फ खुद के जीवन को बल्कि दूसरों के जीवन को भी

ऊपरी तौर पर जो लोग फ़ौजी को फांसी देने की मांग कर रहे थे, वो गरीब की तरफ दिखाई दे रहे थे, असल में वो गरीबी के खिलाफ थे, वो फ़ौजी को सज़ा दिलवा इस भुलावे में जीना चाहते थे कि उन्होंने इन्साफ करवा दिया, वो यह देखना, सोचना ही नहीं चाहते थे कि इस घटना के लिए ग़ुरबत जिम्मेवार है और बड़ी ज़िम्मेवार है, और इस ग़ुरबत के लिए सदियों पुराना निज़ाम ज़िम्मेवार है, जिसमें दुनिया की अधिकांश आबादी गरीब ही रहती थी

लेकिन दोष किसी के मत्थे तो मढना था.....मरने वाला मर गया...उसे कैसे दोषी करार दें.....कैसे सज़ा दें..........समाज, निजाम खुद को कैसे सज़ा दे.....सो बचा वो फ़ौजी, उसे सज़ा मिलनी चाहिए....मिलनी चाहिए लेकिन मात्र दारू पीने की.......लेकिन डिमांड तो यह थी कि क़त्ल की सज़ा हो
क्या हो फैसला......आइये हम और आप सोचते हैं

"लट्ठमार लघुकथा--14"

!!! एक पुरानी कहानी, नई समीक्षा !!!

एक नगर में एक मशहूर चित्रकार रहता था । चित्रकार ने एक बहुत सुन्दर तस्वीर बनाई और उसे नगर के चौराहे मे लगा दिया और नीचे लिख दिया कि जिस किसी को , जहाँ भी इस में कमी नजर आये वह वहाँ निशान लगा दे । जब उसने शाम को तस्वीर देखी उसकी पूरी तस्वीर पर निशानों से ख़राब हो चुकी थी । यह देख वह बहुत दुखी हुआ । उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या करे वह दुःखी बैठा हुआ था । तभी उसका एक मित्र वहाँ से गुजरा उसने उस के दुःखी होने का कारण पूछा तो उसने उसे पूरी घटना बताई । उसने कहा एक काम करो कल दूसरी तस्वीर बनाना और उस मे लिखना कि जिस किसी को इस तस्वीर मे जहाँ कहीं भी कोई कमी नजर आये उसे सही कर दे । उसने अगले दिन यही किया । शाम को जब उसने अपनी तस्वीर देखी तो उसने देखा की तस्वीर पर किसी ने कुछ नहीं किया । वह संसार की रीति समझ गया । "कमी निकालना, निंदा करना, बुराई करना आसान, लेकिन उन कमियों को दूर करना अत्यंत कठिन होता है"

यह एक अक्सर सुनी सुनाई कहानी, जो निष्कर्ष दिया जाता है इस कहानी का कतई सहमत नहीं हूँ मैं.....

एक चल चित्र मैं नहीं बना सकता लेकिन क्या मैं उसे अच्छा बुरा नही बता सकता....शायद हाँ, बता सकता हूँ......असल में दोनों बातें ही अलग हैं......बनाने वाले और अच्छा बुरा बताने वाले दोनों की क्रियाएं अलग तरह की हैं......कोई लेना देना ही नहीं है.....अगर कोई किसी कला, किसी प्रोडक्ट को बना नहीं सकता तो क्या फर्क पड़ता है ....वो बिलकुल उसे अच्छा बुरा बता सकता है
एक बात तो यह है कि यदि कोई कमी को, बुराई को ठीक न भी कर पाए तब भी अच्छाई बुराई बताने वाले की अपनी अहमियत है....उसे कमतर नहीं आंकना चाहिए...

दूसरी बात यह है कि ऐसा बिलकुल ज़रूरी नहीं कि आलोचक खुद क्रिएटर न हो.....वो हो भी सकता है और नहीं भी.....यदि नहीं है तो भी उसकी अपनी अहमियत है और यदि है तो सोने पे सुहागा.
"लट्ठमार लघु कथा---15"

सेठ धनप्रसाद जी का नाम और  काम  जैसे एक दूसरे को समर्थित करते हों.....   हर वेले सेठ जी धन धन करते रहते थे.....

मैंने एक बार यूँ ही कह दिया," सेठ जी, दुनिया में सिर्फ पैसा ही सब कुछ नहीं होता...होता है बहुत कुछ लेकिन सब  कुछ नहीं..."

सेठ जी ने मुझे प्यार से समझाया, " भाया, देख जेब में माल होता है  तो बेसुर भी ताल होता है......अब तू दुनिया जहाँ की बात सोचता है...लिखता भी है.....क्या उखाड़ लेता है...कौन पूछता है तुझे.....गली का कुत्ता भी तेरे ऊपर सिर्फ इसलिए भूंकता है कि तेरे बाल अटपटे हैं.....और हमें देख साले लोग आगे पीछे घूमते हैं...सब पैसे की माया है भई....पैसा ही माया है.....सयाने यूँ ही नहीं कह गए.....माल   है तो जलाल  है......माल  है तो फिर कैसा मलाल है?"

अब सेठ जी की बात ....ऊपर से मुझ पर भी जम के लात.....मैं अपना सा मुंह लेकर लौट आया....चाहता तो था कि किसी मॉडल का, हीरो का मुंह लेकर लौटूं लेकिन अपना सा मुंह, अपना मुंह जैसा भी है, लेकर लौट आया.

समय की धार, किसे करे प्यार, किस पर करे वार, किसे पता?

कोई चार महीने बाद पता लगा सेठ जी के बेटे को रोड पर चलते  किसी शराबी कार वाले ने टक्कर मार दी.....उनके बेटे के साथ ही सरकारी स्कूल से घर को निकले  कुछ बच्चे  भी चपत में आ गए...गनीमत यही कि कोई मरा नहीं..बस हड्डी वड्डी ही टूटी

मैं पहुंचा. सेठ जी रो रहे थे. सारे सिस्टम को गाली दे रहे थे. पुलिस वाले चेक नहीं करते. वसूली पर ध्यान होता है बस. सब रिश्वतखोर हैं. हरामखोर हैं.  चोर हैं.

मैंने ढांढस बंधाया. लेकिन फिर  चलते चलते कहा,"सेठ जी, याद हैै आपको मैंने कहा था पैसा ही सब कुछ नहीं होता, बच्चा चाहे आपका हो चाहे सरकारी स्कूल का...जब सडक पर निकलता है तो कई मानों में एक जैसी स्थितियों में होता है.....अगर सडक खराब है तो दोनों के लिए है, अगर भ्रष्टाचार है तो दोनों शिकार हो सकते हैं, अगर बाहर दंगा हो जाए तो दोनों लपेटे में आ सकते हैं...इसलिए सेठ जी, मुझे पता है कि मेरे जैसे आदमी को कुत्ता भी नहीं पूछता और न पूछेगा....लेकिन मैं हम सब के लिए और हम सबके बच्चों के लिए झक्क मारता रहता हूँ और मारता रहूँगा" 

मैं कह के चला आया, पता नहीं सेठ  जी  को समझ  आयी मेरी  बात कि   नहीं. आप पता करके बताइयेगा."लट्ठमार लघु कथा---16"

मेरा एक दोस्त फेसबुक से अपना व्यापार चलाता है...एक फर्जी

अकाउंट....सुंदर बाला की फोटू...प्यारा सा नाम.


भाई लोग दौड़े चले आते हैं......खूब फ्रेंड रिक्वेस्ट....खूब मेसेज

कई पहुँच जाते हैं.....माल भी खरीद लेते हैं.......थोड़ा निराश होते  वो

सुंदर बाला नज़र नहीं आती तो


एक ने हिम्मत करके पूछ लिया," वो सोनिया जी नहीं दिख रही?"

मैं पास बैठा था, मित्र ने जवाब दिया," भाई जी, जब आप अंडरवियर

खरीदते हैं तो क्या आपको उसकी मशहूरी में दिखाई गई सुन्दर लड़कियां

साथ मिलती हैं?"


 अगला खिसिया गया, शर्मा गया, फिर हंसिया गया.



"लट्ठमार लघु कथा---17"

कभी  एक देहाती से बात कर रहा था. वो दूध  को पीना नहीं, खाना बोल

रहा था. मैंने कहा,"भये, दूध खाने नहीं पीने की चीज़ है." 

बोला साहेब," हमारे यहाँ तो पानी भी खाया जाता है और रोटी भी पी जाती

है."  

फिर कहीं पढ़ा कि खाने वाली चीज़ों को पीना चाहिए और पीने वाली चीज़ों

को खाना, तब समझ आया कि वो देहाती कितना सही था और मैं कितना

बेवकूफ.



"लट्ठमार लघु कथा---18"

"एक  कहानी, दो   अलग अलग  अंत" 

कहते  हैं शोले फिल्म  के दो अलग अलग END बनाये गए  थे.....एक कहानी पेश कर रहा हूँ...प्रचलित कहानी है,,...दूसरी में मैंने END बदला  है......दोनों पढ़िए   और मज़ा लीजिये.

1) Smart Management Lesson ...
एक दिन एक कुत्ता जंगल में रास्ता खो गया..तभी उसने देखा, एक शेर उसकी तरफ आ रहा है.. कुत्ते की सांस रूक गयी.. आज तो काम तमाम मेरा..उसने सोचा..फिर उसने सामने कुछ सूखी हड्डियाँ पड़ी देखि..वो आते हुए शेर की तरफ पीठ कर के बैठ गया और एक सूखी हड्डी को चूसने लगा..और जोर जोर से बोलने लगा, "वाह शेर को खाने का मज़ा ही कुछ और है.. एक और मिल जाए तो पूरी दावत हो जायेगी और उसने जोर से डकार मारा.. इस बार शेर सोच में पड़ गया.. उसने सोचा- ये कुत्ता तो शेर का शिकार करता है जान बचा कर भागो और शेर वहां से जान बचा के भागा..पेड़ पर बैठा एक बन्दर यह सब तमाशा देख रहा था..उसने सोचा यह मौका अच्छा है शेर को सारी कहानी बता देता हूँ ..शेर से दोस्ती हो जायेगी और उससे ज़िन्दगी भर के लिए जान का खतरा दूर हो जायेगा.. वो फटाफट शेर के पीछे भागा..कुत्ते ने बन्दर को जाते हुए देख लिया और समझ गयाकी कोई लोचा है..उधर बन्दर ने शेर को सब बता दिया की कैसे कुत्ते ने उसे बेवकूफ बनाया है..शेर जोर से दहाडा, चल मेरे साथ, अभी उसकी लीला ख़तम करता हूँ.. और बन्दर को अपनी पीठ पर बैठा कर शेर कुत्ते की तरफ लपका..

Can You imagine the quick management by the DOG...???

कुत्ते ने शेर को आते देखा तो एक बारफिर उसकी तरफ पीठ करके बैठ गया और जोर जोर से बोलने लगा,- "इस बन्दर को भेजे 1 घंटा हो गया..साला एक शेर को फंसा कर नहीं ला सकता ,यह सुनते ही शेर ने बंदर को पटका और वापस भाग गया 

Moral of the story:There are many such monkeys around us, try to identify them..
Be a Smart Worker rather than a Hard Worker

2) Smart Management Lesson ...

एक दिन एक कुत्ता जंगल में रास्ता खो गया..तभी उसने देखा, एक शेर उसकी तरफ आ रहा है.. कुत्ते की सांस रूक गयी.. आज तो काम तमाम मेरा..उसने सोचा..फिर उसने सामने कुछ सूखी हड्डियाँ पड़ी देखि..वो आते हुए शेर की तरफ पीठ कर के बैठ गया और एक सूखी हड्डी को चूसने लगा..और जोर जोर से बोलने लगा, "वाह शेर को खाने का मज़ा ही कुछ और है.. एक और मिल जाए तो पूरी दावत हो जायेगी और उसने जोर से डकार मारा.. इस बार शेर सोच में पड़ गया.. उसने सोचा- ये कुत्ता तो शेर का शिकार करता है जान बचा कर भागो और शेर वहां से जान बचा के भागा..पेड़ पर बैठा एक बन्दर यह सब तमाशा देख रहा था..उसने सोचा यह मौका अच्छा है शेर को सारी कहानी बता देता हूँ ..शेर से दोस्ती हो जायेगी और उससे ज़िन्दगी भर के लिए जान का खतरा दूर हो जायेगा.. वो फटाफट शेर के पीछे भागा..कुत्ते ने बन्दर को जाते हुए देख लिया और समझ गयाकी कोई लोचा है..उधर बन्दर ने शेर को सब बता दिया की कैसे कुत्ते ने उसे बेवकूफ बनाया है..शेर जोर से दहाडा, चल मेरे साथ, अभी उसकी लीला ख़तम करता हूँ.. और बन्दर को अपनी पीठ पर बैठा कर शेर कुत्ते की तरफ लपका..

कुत्ते ने शेर को आते देखा तो एक बार फिर उसकी तरफ पीठ करके बैठ गया और जोर जोर से बोलने लगा,- "इस बन्दर को भेजे 1 घंटा हो गया..साला एक शेर को फंसा कर नहीं ला सकता,यह सुनते ही शेर ने बंदर को पटका और वापस भाग गया 

Can You imagine the quick management by the Monkey...???

जैसे ही कुत्ते के शब्द बन्दर के कानों तक पहुंचे वो शेर से बोला," शेर जी, आप शेर हो, जंगल के राजा, आप के पिता भी जंगल के राजा थे, आपने दादा भी.....कुत्ते का साइज़ देखो और अपना देखो.....कुत्ते की क्या औकात आपके सामने.....आपने कुत्ते को हड्डी खाते देख गलत नतीजा निकाला है....याद करो अपने पिता को, दादा को, माँ को, चाचा को ऐसे कितने ही कुत्ते उन्होंने आपके सामने खाए हैं....सो एक झपटा मारो और कुत्ता खतम" 

शेर के बात पल्ले पड़ गई....

उसे अपनी जात याद पड़ गई, कुत्ते की  औकात याद पड़ गई...उसके बाद क्या हुआ खुद सोच लीजिये

Moral of the story:There are many such dogs  around us, try to identify them..


Be wise, not otherwise. Never over estimate yourself but also never underestimate yourself .

सादर नमन
तुषार कॉस्मिक, कॉपी राईट
चुराएं न, शेयर कर सकते हैं

No comments:

Post a Comment