Tuesday, 10 October 2017

होय वही जो राम रची राखा/ जो तुध भावे साईं भलीकार/ तेरा भाना मीठा लागे/ जो होता है अल्लाह की रजा में होता है

कहानी सुनी-पढ़ी होगी आपने कि एक राजा और मंत्री  शिकार खेलते हुए  चोट-ग्रस्त हो जाते हैं. राजा  बड़ा परेशान हो जाता है. लेकिन मंत्री कहता है, जो होता है ईश्वर भले के लिए करता है. फिर उन्हें आदिवासी पकड़ लेते हैं और बलि देने लगते हैं. तो राजा बड़ा परेशान होता है. मंत्री फिर भी शांत रहता है. धीमी आवाज़ में राजा को कहता है, जो करता है ईश्वर अच्छा ही करता है. राजा परेशान. आग तेज़ की जा रही है, बस भूने ही जाने वाले हैं वो दोनों और मंत्री को सब सही लग रहा है? भूने जाने से पहले दोनों के कपड़े उतारे जाते हैं तो दोनों चोटिल दीखते हैं. दोनों को छोड़ दिया जाता है, चूँकि घायल व्यक्ति को बली न देने की परम्परा थी उन आदिवासियों की. घर को लौटते हुए मंत्री कहता है राजा से, " राजा साहेब, मैं न कहता था, ईश्वर जो करता है सही ही करता है." राजा सहमति में सर हिलाता है. 

लेकिन मेरा सर  असहमति में हिल रहा है. मेरा मानना है कि  इन्सान तक आते-आते वो अल्लाह, वाहेगुर, राम अपना दखल छोड़ देता है. 

इन्सान को उसने अक्ल दी है, अपने क्रिया-कलापों की  फ्रीडम दी है. 

और फिर इन्सान ने अक्ल लगाते हुए उस फ्रीडम को बढ़ाया है. आज बहुत से काम जो सिर्फ रब, अल्लाह, भगवान के हाथ में माने जाते थे, उनको इन्सान ने अपने हाथ में ले लिया है.

उस फ्रीडम को समझना चाहिए. पशु शब्द पाश से आता है, उसके पास वो फ्रीडम नहीं है. वो पाश में है. बंधन में है. पशु है. इन्सान के पास वो फ्रीडम है.

उस फ्रीडम को पहचानें. पशु मत बनें. 

यह सोच, "होय वही जो राम रची राखा. जो तुध भावे साईं भलीकार. तेरा भाना मीठा लागे. जो होता है अल्लाह की रजा में होता है" पशुत्व की और ले जाती है. 

जैसे उस अल्लाह ने पंछी उड़ाए, इन्सान तो नहीं उड़ाया लेकिन इन्सान को अक्ल की आज़ादी दी और इन्सान उड़ने लगा. 

और वो अल्लाह, भगवान, रब  अब कहीं कोई दखल ही नहीं देता कि इन्सान करता क्या  है. जैसे कोई चेस का खेल बना दे, नियम बना दे और फिर पीछे हट जाये. खेलने वाले खेलते हैं, खेल बनाने वाला कोई हर मूव में पंगे थोड़ा न ले रहा है. जो कोई हारेगा-जीतेगा अपनी अक्ल से, अपने प्रयास से. 

सो "भाना" उसका खेल बनाने तक था, "रज़ा" उसकी खेल बनाने तक थी, "रचना" उसकी खेल रचने तक थी, उसके आगे नहीं कोई दखल नहीं. उसके आगे जो होता है, वो उसके दखल के बिना होता है. 

हमें उसका दखल इसलिए लगता है कि हमें पता नहीं होता कि उसके खेल के गहन नियम क्या हैं. जैसे परबत खिसकते हैं, बहुत से लोग मारे जाते हैं, लग सकता है कि कुदरती आपदा है, अल्लाह की मार है, लेकिन वो इंसानी कुकर्मों का नतीजा भी हो सकती है. इन्सान नहीं समझता तो कोई क्या करे? वो उस अल्लाह के नियम नहीं समझना चाहता, वो नहीं समझना चाहता कि अल्लाह ने पहाड़ दुर्गम क्यों बनाए? अगर वो चाहता कि इन्सान वहां रहे, बस्तियां बसाए, लगातार बसें चलाए,  तो वो उन्हें सुगम न बनाता?

मिसाल के लिए, किसी का जवान बेटा एयर एक्सीडेंट में मारा जाए और गलती बेस स्टाफ की हो, तो हो सकता है उसे यह रब की रज़ा लगे, भाना लगे, राम की रचना लगे लेकिन यह एक इंसानी गलती थी, जिसे भविष्य में बहुत हद तक कण्ट्रोल किया जा सकता है. 

अब कल कोई उल्का पिंड आ कर टकरा जाए और पृथ्वी का कोई बड़ा हिस्सा नष्ट हो जाए, तो आप इसे क्या कहेंगे? रब की रज़ा. अकाल पुरख का भाना. कह सकते हैं, तब तक जब तक हमारे वैज्ञानिक ऐसी उल्काओं को रस्ते में नष्ट करने में सक्षम न हो जाएँ. 

सो कुल मतलब यह कि यह, "रब की रज़ा. अकाल पुरख का भाना, राम की रचना" का  कांसेप्ट मात्र इन्सान को शांत किये रखने का टूल है, इससे ज़्यादा इसका कोई अर्थ नहीं है.

नमन....तुषार कॉस्मिक

हमारी दिवाली-हमारे पटाखे

बड़ा दुखित हैं मेरे हिन्दू वीर. कोर्ट ने पटाखों पर बैन लगा दिया दिवाली पर. धर्म खतरे में आ गया. धर्मों रक्षति रक्षतः. व्हाट्स-एप्प और फेसबुक का जम कर प्रयोग हो रहा है, हिन्दुओं को जगाने में. मैंने सुना था कि लोगों ने ख़ुशी से घी के दीपक जलाए थे राम जी वापिस आये थे तो. दीपावली शब्द का अर्थ ही है दीपों की कतार. लेकिन पटाखे भी चलाये थे, यह तो मैंने नहीं सुना. शायद आविष्कृत भी नहीं हुए थे. चीन ने आतिश-बाज़ी का आविष्कार किया था शायद. नहीं, लेकिन यह कैसे हो सकता है? हम तो पुष्पक विमान, एटम बम तक खोज चुके थे. निश्चित ही आतिश-बाज़ी भी हमारी खोज है. पटाखे निश्चित ही हम ने चलाए थे, जब राम जी लौटे थे तो. लेकिन वाल्मीकि रामायण तो कहती है कि राम के आगमन पर सारा ताम-झाम भरत की आज्ञा से शत्रुघ्न ने करवाया था, लेकिन उसमें पटाखों का तो कोई ज़िक्र नहीं है. रास्तों के खड्डे भरे गए थे, उन पर पानी छिड़का गया था, फूल बिखेरे गए थे. घरों पर झंडे लगाए गए थे और स्वागत में गण्य-मान्य लोगों के साथ गणिकाएं (वेश्याएँ) तक खड़ी की गयीं थी राम के स्वागत में. सो यह बकवास भूल जायें कि लोग राम के आगमन पर खुश थे और स्वयमेव घरों के बाहर घी के दीपक जला रहे थे. कहीं नहीं लिखा कि लोगों ने खुद घी के दीपक जलाये थे, पटाखे चलाना तो दूर की बात. सब गाजा-बाजा सरकारी हुक्म से था मित्रवर. नीचे वाल्मीकि रामायण के सन्दर्भ दिए हैं, अंग्रेज़ी में है, हिंदी में मिले तो दे दीजियेगा. चेप देंगे वो भी. कुल बात इतनी कि कोर्ट ने जो कहा है सही कहा है, दूसरा अगर भूतिया है तो खुद सुपर-भूतिया नहीं बनना चाहिए, बल्कि अपना भुतियापा खत्म करना चाहिए ताकि वो भी सही रास्ते पर अग्रसर हो. संघ अग्रसर. यह, "हम तो डूबेंगे तुझे भी ले डूबेंगे", वाली पालिसी छोड़ दीजिये. अगले बच्चे पैदा करे जाते हैं तो हम भी लाइन लगा देंगे. अगले नालियां खून से भर देते हैं हर साल जानवर काट-काट, हम भी गंद डालेंगे. यह भुतियापे का गुणनफल है. छोड़ दीजिये. अन्यथा वो कुदरत जब बदला लेगी तो हिन्दू-मुस्लिम नहीं देखेगी, सबकी लेगी..जान. चूँकि आप भी अपने भुतियापों में कोई फर्क नहीं छोड़ रहे, एक दूजे से बढ़-चढ़ के कर रहे हैं. आप समझो-न समझो, समझाना मेरा फर्ज़ है. बाकी आप जानो, आपकी मर्ज़ी है-आपका मर्ज़ है. "Hearing the news of a great happiness from Hanuma, Bharata the truly brave ruler and the destroyer of enemies, commanded (as follows) to Shatrughna, who too felt delighted at the news." ६-१२७-१ "Let men of good conduct, offer worship to their family-deities, sanctuaries in the city with sweet-smelling flowers and to the accompaniment of musical instruments." ६-१२७-२ "Let bards well-versed in singing praises and Puranas (containing ancient legends, cosmogony etc.) as also all panegyrists, all those proficient in the use of musical instruments, PROSTITUTES all collected together, the queen-mothers, ministers, army-men and their wives, brahmanas accompanied by Kshatriyas (members of fighting class), leaders of guilds of traders and artisans, as also their members, come out to see the moon-like countenance of Rama." ६-१२७-३/ ६-१२७-४ "Hearing the words of Bharata, Shatrughna the destroyer of valiant adversaries called together, laborers working on wages, numbering many thousands and dividing them into gangs, ordered them (as follows):६-१२७-५ "Let the CAVITIES on the path from Nandigrama to Ayodhya be levelled. Let the rough and the even places be made flat."६-१२७-६ "Let the entire ground be sprinkled with ice-gold water. Let some others strew it all over with parched grains and flowers."६-१२७-७ "Let the streets in Ayodhya, the excellent City, be lined with flags. Let the dwellings (on the road-side) be decorated, till the time of rising of the sun."६-१२७-८ Hahahahah...... does not it seem modern day politics? नमन....तुषार कॉस्मिक

Monday, 9 October 2017

TINA

विनोद दुआ.....youtube पर एक्टिव हैं....The Wire .....नाम से है चैनल....एक एपिसोड में TINA कांसेप्ट को बताया इन्होने. TINA मतलब There is no Alternative. विनोद जी बताते हैं कि जैसे आज मोदी के बारे में ऐसा कहा जा रहा है कि उनके बिना भारत में कोई और है नहीं जो प्रधान-मंत्री बन सके, कोई और alternative ही नहीं है, तो ऐसा कांसेप्ट पहली बार नहीं है समाज में. ऐसा पहले जवाहर लाल नेहरु के समय में भी कहा जाता था कि उनकी जगह कोई नहीं ले सकता, ऐसा इंदिरा गाँधी के बारे में भी कहा जाता रहा ही, लेकिन लोकतंत्र की खूबसूरती यह है कि लोकतंत्र नए विकल्प पैदा कर ही लेता है, ऐसे विकल्प जो आज शायद नज़र न आ रहे हों. ठीक. अब विनोद जी ने जो कहा, वो कहा, मैं क्या लस्सी घोल रहा हूँ इसमें? तो मेरा कहना यह है मित्रगण कि विनोद जी ने बहुत सतही बात कही है. पुराने पत्रकार हैं, करीब 40 साल से एक्टिव हैं, राजनीति-विशेषज्ञ हैं, बहुत से चुनावों की समीक्षा कर चुके हैं, बहुत सी सरकारें देख चुके. लेकिन यहाँ इनकी समझ को मैं बहुत गहन नहीं पाता. देखिये, विकल्प तो मिल ही जाना है. दुनिया कभी किसी के लिए नहीं रूकती. दुनिया चलती ही रहती है. लेकिन सवाल यह है, पॉइंट यह है, मुद्दा यह है कि विकल्प जो मिलता है, वो कैसे मिलता है और कैसा मिलता है? अभी तक जो विकल्प मिले भारत को, वो क्या वाकई लोकतंत्र की वजह से मिले थे? जवाहर गए, इंदिरा आ गईं, यह लोकतंत्र था या परिवार-तन्त्र? इंदिरा गईं, राजीव आ गए. इसे लोकतंत्र कहते हैं? मनमोहन गए, अँधा कॉर्पोरेट धन बहा कर मोदी आ गए. यह जन-तन्त्र है या धन-तन्त्र? लोकतंत्र का अर्थ है, लोक में से कोई भी शीर्ष पद पर पहुँच सके, मात्र इस बल पर कि वो मुल्क के लिए ऐसा बेहतरीन कांसेप्ट, प्रोग्राम, प्लान लेकर आता है, जो दूसरे नहीं ला पा रहे. अब वो इन्सान चाहे झाड़ू मारने वाला ही क्यूँ न हो. है क्या यह सम्भव? वो बेचारा बिन मोटे पैसे के म्युनिसिपेलिटी का चुनाव न जीत पाए, प्रधान-मंत्री बनना तो ख्वाब है बस. तो विनोद दुआ साहेब यहीं चूक गए. वो इस गहराई तक नहीं गए कि विकल्प आ तो जायेगा लेकिन क्या वो विकल्प जन-तन्त्र के कांसेप्ट के अनुरूप होगा? मेरा मानना यह है कि फिलहाल तो नहीं होगा. बहुत से झाड़ू वाले इस मुल्क को दिशा दे सकते हैं. मोदी का विकल्प हो सकते हैं, लेकिन तब जब यह सच में जन-तन्त्र हो. आपने देखे होंगे बहुत से वीडियो कि कोई सफेदी वाला, कोई भीख मांगने वाला, कोई खोमचे वाला बहुत ही शानदार गा रहा है. देखे हैं न? आमिर खान की नई फिल्म भी इसी कांसेप्ट पर है. कोई आम सी लड़की को सिंगिंग स्टार बना देता है. शायद. ट्रेलर देखे हैं मैंने बस. जिस दिन हम जन में से, आम-जन में से विकल्प ला पायेंगे, उस दिन आप यह कहने के हकदार होंगें दुआ साहेब कि जनतंत्र विकल्प दे ही देता है. अभी आप बस इतना कह सकते हैं कि मोदी का विकल्प नहीं है, यह सोचने वाले बस मूरख हैं. आप कह सकते हैं कि विकल्प तो मिल ही जाते हैं. आप कह सकते हैं कि TINA कांसेप्ट एक बकवास कांसेप्ट है. लेकिन आपको आगे जो कहना था, जो आपने ने नहीं कहा, वो यह था कि जो विकल्प मिलते हैं वो लोक-तन्त्र देता है, यह कहना सरा-सर गलत है, चूँकि सही अर्थों में अभी की (अ)व्यवस्था लोक-तन्त्र की अर्थी है, लोक-तन्त्र से कोसों दूर हैं, बल्कि लोक-तन्त्र के खिलाफ़ षड्यंत्र है. नमन.....तुषार कॉस्मिक.
हमारे शादी-ब्याह-जन्म दिवस जैसे आयोजनों में सारा जोर खाने-पीने पर है. करने को सिवा खाने या फिर दारू पीने के कुछ भी नहीं होता. कुछ नाच भी लिया जाता है. अधिकांश लोग बस खाते हैं. क्या हम भुक्कड़ हैं?
आप क्यों हैं सोशल मीडिया पर? हम तो इसलिए हैं कि अपने समाज की चिंता लेते हैं.....ज्ञान, विज्ञान बढे....जनसंख्या घटे......रोज़गार की चिंता न हो.....स्वास्थय और शिक्षा लगभग मुफ्त हो........धर्म के नाम पर वैचारिक वैज्ञानिकता का गला न घोंटा जाये....समय लगाते हैं, ऊर्जा, ध्यान कि शायद हमारे किये से कुछ बेहतरी आ जाए.
काजू बहुत पसंद हैं मुझे.....बाज़ार से लाते ही श्रीमती जी को मुझसे छुपा देने को कहता हूँ....क्यों? चूँकि छुटकी बिटिया को भी बहुत पसंद हैं. आज समझ में आता है कि माँ क्यों कहती थीं, "तूने खाया मैंने खाया एक ही बात है."
बचपन में विडियो गेम खेलते थे कार वाली, जिसमें कार टकरा ही जाती थी अंततः, आज असल में ऐसा हो जाता है.

Sunday, 8 October 2017

यह जनतंत्र नहीं, धनतंत्र है

मोदी जी ने भयंकर आर्थिक ग़लतियाँ की हैं.......अभी तो आर्थिक मंदी चल रही है. जॉब्स जा रही हैं...व्यापारी दुखी हैं....मोदी को नहीं पता कि करना क्या है.

अर्थ-व्यवस्था में सब चीज़ें जुड़ी होती हैं. 
जैसे कोई गाड़ी...एक पुर्ज़ा छेड़ोगे तो उसका असर सारी गाड़ी की परफॉरमेंस पर पड़ेगा. मतलब आपने ब्रेक खराब कर दी....लेकिन उससे सिर्फ ब्रेक खराब नहीं होती, गाड़ी तो पूरी ही ठुकेगी. टुकड़े-टुकड़े जुडी कोई चीज़ हो, एक टुकड़ा छेड़ो, असर उस सारी चीज़ पर पड़ेगा. सारा कुछ छिड़ जायेगा.

मिसाल के लिए, अगर व्यापारी को मिलने वाले पैसे पर ब्याज बढ़ायेंगे तो वो उधार नहीं ले पायेगा.....उधार नहीं ले पायेगा तो व्यापार फैला नहीं पायेगा...और फिर नौकरियों से लोग निकाल देगा.

इनको लगता है कि टैक्स ज्यादा आ जाये तो ये लोग तरह-तरह की स्कीम चला कर लोगों का फायदा करेंगे और फिर-फिर उस जनता का वोट लेंगे जो बिलकुल न के बराबर आर्थिक योग-दान करती है मुल्क की इकॉनमी में. रोबिन हुड मेथड. हिडन कम्युनिज्म. लेकिन इनको वो भी करना  भी नहीं आ रहा. जो जनसंख्या सिर्फ बच्चे पैदा करती है, उसे दिए जाओ सुविधा.....बस !

ये जो गाय-गंगा-हिन्दू राष्ट्र यह सब संघ का मूल-मन्त्र है.

इनकी शाखाओं में यह सब बात चलती ही है.
पोंगा-पंथी.

संघ के पास कोई वैज्ञानिक वैचारिक धारणा नही है. 
आज पहुँच ज़रूर गए राजनीति के शीर्ष पर...लेकिन टिकेंगे...ऐसा कम लगता है.

अब तो लोग कांग्रेस को भी याद करने लगे...वो चोर होंगे......लेकिन फिर भी लोग उनके समय के मुकाबले 
आज ज्यादा दुखी हैं. ठाकरे परिवार.......यशवंत सिन्हा....सुब्रमण्यम  स्वामी.....अरुण शौरी......और वो कौन बड़ा वकील है? .......सब मोदी पर सवाल उठा रहे हैं.

हाँ....जेठमलानी. 
पता नहीं कैसे वो इत्ता बड़ा वकील माना जाता है?

खैर! 
भारत को ज़रूरत है राजनीतिक, सामाजिक नेतृत्व की, लेकिन कोई सिस्टम ही नहीं है कि ढंग के विचार रखने वाले लोग आगे आ सकें.

मुद्दा यह नहीं कि आप घटिया में से कम  घटिया लोग चुन लेंगे...मुद्दा  यह है कि वैचारिक लोग आगे कैसे आयेंगे?


जब तक बिन पैसे के लोग न आ पायेंगे....तब तक नये भी पुराने जैसे ही होंगे.


भाजपा ने लगभग सारे प्रत्याशी बदल दिए MCD में.....वो जीत भी गए...हुआ क्या?

घंटा!

प्रत्याशी...या दल बदलने से कुछ नहीं होगा. 
सिस्टम बदलने होंगे. जब तक बिन पैसे के राजनीति का सिस्टम नहीं आता...यह जनतंत्र नहीं, धनतंत्र रहेगा. इसमें कॉर्पोरेट मनी का बोलबाला रहेगा.

कांग्रेस सीधा खा रही थी....चूँकि चुनाव में फिर से पैसा फेंकना होता था...मोदी घुमा के पैसा खींच रहे हैं....उनको पता है सीधा खींचेंगे तो पकड़े जायेंगे सो वो पूंजी-पतियों को फायदा दे रहे हैं....बड़े वाले पूंजीपतियों को....चुनाव में फिर से इनसे पैसा लेंगे और बेड़ा पार.

इसे जनतंत्र कहते हैं?
जो जीत जाता है, बस खुद को राजा ही समझता है.
यह जनतंत्र का बहुत ही विकृत रूप है.
इसे जनतंत्र कहना भी ठीक नहीं.
यह धनतंत्र है.

सादर नमन.....तुषार कॉस्मिक

Tuesday, 3 October 2017

क्या भारत सच में सेक्युलर देश है?
घंटा! मतलब घंटा बजाने वाले लोगों का देश है असल में.
अगर ऐसा नहीं होता तो आपको हर दशहरे पर प्रधान-मंत्री और राष्ट्रपति रावण जलाते न दीखते.
भैय्यन, प्रधानमंत्री-राष्ट्रपति, ये सेक्युलर पद हैं, कोई जाकर बताओ इनने.
जनानी मर्दानी हो तो गौरव है लेकिन मर्द जनाना हो जाए तो यह शर्म का विषय! क्यों?

Thursday, 28 September 2017

भारत मंदी के कुचक्र में

यशवंत सिन्हा ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है जेटली के खिलाफ.
लोग मोदी के सम्मोहन से बाहर आ रहे हैं.
सुब्रह्मण्यम् स्वामी ने भी ऐसा ही कहा था...लेकिन लोग उसे क्रैक भी मानते हैं. लेकिन मामला है सीरियस. 
मोदी ने बेडा-गर्क कर दिया है मुल्क का.
अर्थ-व्यवस्था खराब कर दी है नोट-बंदी और GST से.
उनके खुद के लोग मानते हैं अब तो.
भारत मंदी के कुचक्र में है.
सरकारी बैंक सब घाटे में हैं.
माल्या जैसों को भगा जो दिया.
अभी राज ठाकरे ने भी मोदी को खूब बजाया है.
उसने कहा कि मोदी ने मीडिया खरीद कर चुनाव जीता है.
अब जब जहाज डूबने की तरफ है तो सब निकल रहे हैं.
अगला चुनाव ज़रूरी नहीं मोदी जीत पाए....बाकी वक्त बताएगा.
असल में उसके पास कोई तैयारी नहीं थी.
कोई प्लान नहीं था.
और आज भी नहीं है.
जब तक समाजिक बदलाव न हों, कैसा भी आर्थिक, राजनीतिक बदलाव बहुत फायदेमंद नहीं होगा.
कुछ समय तक जो फायदेमंद लगेगा भी, वो भी लम्बे समय में नुक्सान-दायक साबित होगा.
हम जो राजनेता बदलने से सोचते हैं कि देश बदल जाएगा, ऐसा नहीं होगा.
बीमार समझ रहा है कि बीमारी कहीं और है.
वो सोच के, समझ के राज़ी ही नहीं कि बीमारी खुद उसमें है.
जब तक वो नहीं सुधरेगा, तब तक न राजनेता सुधरेगा, न अर्थ-व्यवस्था सुधरेगी.
समाज समझता ही नहीं कि कांग्रेस या भाजपा के आने-जाने से कोई बहुत फर्क नहीं पड़ेगा, जब तक सामजिक मान्यताओं में बदलाव नहीं आता. 

कोई समाज कैसे समृद्ध है, कैसे सुव्यवस्थित है?
समृद्धि, सुव्यवस्था कोई आसमान से गिरी वहां?
कोई राजनेताओं ने लाई?
नहीं.
जब तक किसी भी समाज के नेता समाज से टकराने की हिम्मत नहीं करते, छित्तर खाने की हिम्मत नहीं करते, समाज में बदलाव नहीं आ सकता, समाज में समृद्धि नहीं आ सकती, सुव्यवस्था नहीं आ सकती.

आप ले आओ बेस्ट आर्थ-शास्त्री, क्या होगा?
वो अगर कोई ऐसी नीति बनाता है जो समाज की जमी-जमाई मान्यता के विरोध में है और कोई समाज की इन मानयताओं के खिलाफ जाना नहीं चाहता तो कैसे होगा सुधार?
कुछ नहीं होगा.
चाहे ले आओ आप हारवर्ड वाले या हार्ड वर्क वाले या फिर नोबेल विजेता.
होना कुछ नहीं.
सो मित्रवर, कुछ नहीं होने वाला भारत में फिलहाल, लम्बी औड़ो और सो जाओ.

नमन.... आपका प्यार कॉस्मिक तुषार

Thursday, 21 September 2017

मैंने संघ क्यों छोड़ा

संघ मतलब आरएसएस, मतलब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ. बात बठिंडा(पंजाब) की है. मुस्लिम या ईसाई को छोड़ शायद ही कोई लड़का हो जो अपने लड़कपन में एक भी बार संघ की शाखा में न गया हो....शायद मैं आठवीं में था.....ऐसे ही मित्रगण जाते होंगे शाखा...सो उनके संग शुरू हो गया जाना.....अब उनके खेल पसंद आने लगे...फिर शुरू का वार्म-अप और बहुत सी व्यायाम, सूर्य नमस्कार, दंड (लट्ठ) संचालन बहुत कुछ सीखा वहां........जल्द ही शाखा का मुख्य शिक्षक हो गया..वहीं थोड़ा दूर कार्यालय था ...वहां बहुत सी किताबें रहती थी.......पढ़ी भी कुछ......संघ की शाखा का सफर जो व्यायाम और खेल से शुरू हुआ वो संघ की विचारधारा को समझने की तरफ मुड़ गया. लेकिन दूसरों में और मुझमें थोड़ा फर्क यह था कि मैं सिर्फ संघ की ही किताबें नही पढ़ता था, उसके साथ ही वहां बठिंडा की दो लाइब्रेरी और रोटरी रीडिंग सेंटर में बंद होने के समय तक पड़ा रहता था.......बहुत दिशायों के विचार मुझ तक आने लगे. बस यहीं आते आते मुझे लगने लगा कि संघ की विचारधारा में खोट है. मैं अक्सर सोचता, यह राष्ट्रवाद, यह अपने राष्ट्र पर गौरव करना, दूसरे राष्ट्रों से बेहतर समझना, विश्व-गुरु समझना, यह तो सरासर घमंड है, ऐसा ही कोई जापानी भी समझ सकता है, ऐसा ही कोई भी अन्य मुल्क का वासी भी समझ सकता है लेकिन यह तो गलत है.....और फिर भारत तो मुझे कोई महान लगता भी न था...सब जानते थे कि अमरीका, इंग्लैंड और कितने ही मुल्क हम से आगे थे....फिर काहे की महानता? किस्से-कहानियों की? इतिहास की? पहली बात तो इतिहास का सही-गलत कुछ पता नही लगता..फिर लग भी जाए तो वो सिर्फ इतिहास है..वर्तमान नही.....मुझे संघ की अपने पूर्वजों पर, अपनी पुरातनता पर गर्व करने वाली बात भी कभी न जमती थी...मुझे हमेशा लगता कि यदि हम इतने ही महान थे तो फिर अंग्रेजों के गुलाम ही क्यों-कर हुए? मुझे लगता था कि खुद पर खोखला गर्व करने से बेहतर है अपनी कमियों को स्वीकार करना, बल्कि खोजना ताकि हम खुद को सुधार सकें. और फिर मुझे लगता था कि संघ हिन्दुओं को जैन, बौद्ध, सिक्ख आदि पर थोपना चाहता है......मेरा परिवार हिन्दू-सिख है.........तो संघ तो सिक्ख को भी हिन्दू कहता था जबकि बाबा नानक तो जनेऊ को इनकार कर चुके थे अपने बचपन में.....लगा यह तो ज्यादती है ...यह गलत है.....जो लोग हिन्दू मान्यताओं के सरासर विरोध में थे, उनको भी हिन्दू कहा जा रहा था......और फिर साफ़ समझ आया कि संघ भारत की हर पुरातन रीत-हर रिवाज़ का पोषक है.......संघ समाज में कोई वैज्ञानिक विचारधारा का पोषक नहीं है, यह तो बस चाहता है कि समाज पर हिन्दू पुरातनपंथी हावी रहे. संघ बाबा नानक को भी महान कहता था और हिन्दू मान्यताओं को भी...अरे भाये, किसी एक तरफ तो आओ, या तो कहो कि जनेऊ बकवास है, या तो कहो कि सूरज को पानी देना गलत है या फिर कहो कि बाबा नानक गलत हैं...न, दोनों ठीक हैं, दोनों महान हैं और यही है हिंदुत्व.....जिसका न मुंह, न सर, न पैर. जल्द ही समझ आ गया कि यह हिंदुत्व की धारणा संघ की बकवासबाजी से ज्यादा कुछ नहीं....."जो इस भारत भूमी को अपनी पुण्य भूमी मानता हो, यहाँ के पूर्वजों को अपने पूर्वज मानता हो, यहाँ कि संस्कृति को अपनी संस्कृति मानता हो, वो हिन्दू है." क्या बकवास है? अरे भाई, हम तो इस धरती को अपनी भूमी मानते हैं, हम तो पूरी इंसानियत को अपने पूर्वज मानते हैं, कौन कहाँ से आया था, कहाँ चला गया, किसे पता है? और यहाँ कि संस्कृति को ही अपना मानते होने से क्या मतलब? शेक्सपियर हमारी लिए क्यों अपना नहीं हो और कालिदास ही क्यों अपना हो? मात्र इसलिए कि शेक्सपियर भारत का नही था. "हर आविष्कार पहले ही भारत में हो चुका था, हमारे ग्रन्थों में लिखा था".....मैं अक्सर सोचता कि विज्ञान कोई रुक थोड़ा ही गया है.....जहाँ तक हो चुका हो चुका, अब कर लो दुनिया को अचम्भित, अपने ग्रन्थ उठाओ और ताबड़-तोड़ आविष्कार कर दो....और दिनों में ही भारत को अमरीका से भी आगे बना दो....चलो और कोई न सही लेकिन संघ के लोग तो संस्कृत समझने वाले थे, वो तो ऐसा आसानी से कर ही सकते थे. और भी बहुत सी बातें... जल्द ही समझ आया कि संघ सिर्फ व्यायाम कराने के लिए, खेल खिलाने के लिए नही बनाया गया और न ही सिर्फ ट्रेन दुर्घटना में लोगों को बचाने के लिए और न सिर्फ बाढ़ में फंसे लोगों को बचाने के लिए...नही...संघ की अपनी एक थ्योरी है, वो भारतीय समाज के एक बड़े हिस्से को अच्छी लगेगी लेकिन असल में वो थ्योरी उसी समाज के खिलाफ है, उसी के नुक्सान में है. किसी भी समाज का सही खैर-ख्वाह वो व्यक्ति या वो संस्था होती है जो उस समाज की कमियां बताने की हिम्मत कर सके...जो उसके अंध-विश्वास दूर करने का प्रयास करे....जो उस समाज में वैज्ञानिक सोच कैसे बढ़े इसकी चिंता लेता हो.........लेकिन यह सब करने के लिए तो समाज की नाराज़गी झेलने पड़ती है, समाज गुस्सा होता है कि उसे जगाया क्यों जा रहा है...... संघ ही हिन्दू समाज का सबसे बड़ा दुश्मन है क्योंकि संघ हिन्दू समाज के अंध-विश्वासों का पोषक है, क्योंकि संघ हिन्दू समाज में वैज्ञानिकता आने की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है. संघ ने हिन्दू समाज का बहुत नुक्सान किया है इसके जर्जर ढाँचे को ठोक-पीट कर गिरने से बचा रखा है. इसे गिरने देते, नया समाज खड़ा होता. बस पुरखों की बकवास को पूजते रहेंगे. मैं पुरखों से सिर्फ सीखने में विश्वास रखता हूँ. मेरे नज़र में कोई भी कहीं भी गलत-सही हो सकता है, पुरखे भी. सो उनको वैसा ही सम्मान या असम्मान देता हूँ. मिसाल के लिए पृथ्वीराज चौहान ने माफ किया गौरी को तो यह कोई अक्ल का काम नहीं था. फिर पुरखे कोई इसी मुल्क में पैदा हुए जो, वो ही नहीं है हमारे. जिसने हमें बल्ब दिया, हमारा घर रोशन किया, हम उसके भी अहसान-मंद हैं. वो भी हमारा पुरखा है. संघ का इस्लाम के लिए स्टैंड आंशिक तौर पर सही है. वो जो लोभ से या डर से या ज़बरदस्ती से धर्म परिवर्तन कराए उसके खिलाफ है, वो सही भी है. इस्लामिक आक्रमण का विरोध किया जाना चाहिए था लेकिन वो किसी और ढंग से हो सकता था. उसके लिए तार्किकता फैलानी चाहिए. क्रिटिकल थिंकिंग का नारा बुलंद करना चाहिए न कि "गर्व से कहो हम हिन्दू हैं" का. यह सब दसवीं-ग्यारवीं क्लास तक आते समझ आ गया था. सो तभी संघ छोड़ दिया. कभी-कभी याद आ जाता है शरद-पूर्णिमा की रात को शाखाओं का इकट्ठा होकर खीर खाना.......संघ कार्यालय में मुफ्त ट्यूशन पढ़ाया जाना......वहीं पर सहभोज का आयोजन., जिसमें सब अपने घर से खाना लाते थे और मिल बाँट खाते थे........वो कसरतें, वो खेल.........सब बढ़िया.....लेकिन वो तो सतही था......भीतरी तो थी संघ की विचारधारा जो बिलकुल ही सतही दिखी मुझे. और आज सालों बाद, मेरा वो संघ को छोड़ने का कदम मुझे और भी ठीक प्रतीत होता है. शेयर कर सकते हैं, चोरी नही. नमन..तुषार कॉस्मिक

बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपैया

कोर्ट भरे पड़े हैं फॅमिली प्रॉपर्टी डिस्प्यूट केसों से....पार्टीशन सूट.
जिस भाई-बहन के पास कब्जा होता है, मज़ाल वो दूजे भाई-बहन को हिस्सा देने को आराम से राज़ी हो जाये.
इसमें क्या हिन्दू-क्या मुसलमान? धन का अपना ही मज़हब है....वहां हिन्दू मुस्लिम सब बराबर है.

When it's the question of money everybody is of the same religion.

सत्य

जितना बड़ा मुद्दा 'भगवान' इस दुनिया के लिए रहा है और है, उतना ही बड़ा मुद्दा ‘सत्य’ भी रहा है और है. चलिए मेरे संग, थोड़ा सत्य भाई साहेब के विभिन्न पह्लुयों पर थोड़ा गौर करें:----- 1. “सदा सत्य बोलो” क्यों बोलो भाई? अगर भगत सिंह पकड़े जायें अंग्रेज़ों द्वारा और अँगरेज़ पूछे उनके साथियों के बारे में तो बता ही देना चाहिए, नहीं? सदा सत्य बोलो. इडियट वाली बात. जीवन जैसा है, सदा सत्य बोलना ही नहीं चाहिए. सत्य और असत्य का प्रयोग स्थिति के अनुसार होना चाहिए. बहुत बार असत्य सत्य से भी कीमती है. एक चौराहे पर बुड्डा फ़कीर बैठता था. बड़ा नाम था उसका. फक्कड़. बाबा. लोग यकीन करते थे लोग उसके कथन पर. एक रात बैठा था अपनी धुन में धूनी रमाये. अकेला. एक जवान लड़की बदहवास सी भागती निकली उसके सामने से. और दक्षिण को जाती सड़क पर कहीं खो गई. कुछ ही पल बाद इलाके के जाने-माने चार बदमाश पहुंचे वहां. चौक पर ठिठक गए. तय नहीं कर पाए किधर को जाएँ. फिर बाबा नज़र आया. बाबा का सब सम्मान करते थे. बदमाश भी. उन्हें पता था बाबा झूठ नहीं बोलता. बाबा से पूछा, “लड़की किधर गयी?” बाबा ने उनको उल्टी दिशा भेज दिया. लड़की बच गई. अब क्या कहेंगे आप? बाबा का झूठ सच्चा था या नही? सत्य-असत्य का फैसला मात्र बोले गए शब्दों से नहीं होता. किस स्थिति में, क्या बोला गया, उस सबको ध्यान में रख कर होता है. युधिष्ठिर ने जो कहा, “अश्व्थाथ्मा मारा गया, नर नहीं हाथी”. इसे अर्द्ध-सत्य माना जाता है लेकिन यह अर्द्धसत्य नहीं पूर्ण असत्य है. किस मंशा से, क्या बोला जा रहा है, किस स्थिति में बोला जा रह है, किसे सुनाने के लिए-क्या पाने के लिए बोला जा रहा है, सब माने रखता है. असल में झूठ बोलना एक कला है. कहते हैं सबसे बढ़िया झूठ वही बोलता है जो सच बोलता है. मतलब जो अपने झूठ को सच में कहीं इस तरह से मिक्स कर देता है कि वो जल्दी से पकड़ में ही नहीं आता. तो सदा सत्य नहीं बोलिए. सत्य बोलिए. सच्चे झूठ बोलिए. विचार से बोलिए. विश्वास से बोलिए. 2. "सत्यम ब्रूयात, प्रियं ब्रूयात, मा ब्रूयात सत्यम अप्रियम" सत्य बोलो और प्रिय बोलो. अप्रिय सत्य नहीं बोलना चाहिए. लो कल्लो बात. यह एक और बकवास है. अगर आप को अप्रिय लगने वाला सत्य नहीं बोलना है तो हो गया आपके सत्य का राम-नाम-सत्य. सत्य ने कोई ठेका नही ले रखा प्रिय लगने का. और बहुत बार हथौड़े की तरह सत्य की चोट पड़नी ही चाहिए, लगता रहे अप्रिय. मानव स्वभाव है कि उसे सीधा-सीधा अपने प्रतिकूल मालूम पड़ने वाला सत्य अक्सर हज़म नहीं होता लेकिन बहुत बार बाद में वही अमृत-तुल्य भी मालूम होता है. आवारा लड़का अपने दोस्तों के साथ मिल किसी लड़की का दुप्पट्टा खींच रहा था. लड़की के साथ ज़बरदस्ती करने ही वाला था कि उधर से उस लड़के का बाप गुज़रा. बाप ने लड़के को भरे बाज़ार में उसके दोस्तों के बीच खींच कर एक लाफा मारा और कहा, “अबे, वो लड़की रिश्ते में तेरी बहन लगती है.” लड़के को बाप पर बहुत गुस्सा आया, उसके तन-मन में बाप के खिलाफ आग लग गई. लेकिन फिर भी बाप की शर्म रखनी पड़ी. उसे वहां से हटना पड़ा. बाद में लड़के को पता लगा कि वो लड़की दूर-दूर तक उसकी बहन नहीं लगती थी. बाप ने झूठ बोला था. यहाँ बाप ने न तो सत्य बोला और न ही प्रिय बोला लेकिन यह “अप्रिय असत्य” लाख “प्रिय सत्यों” से बेहतर है. आई समझ में बात? 3. “सत्य परेशान हो सकता है, पराजित नहीं” यह भी सरासर बकवास है. जीवन में जीत हार सत्य-असत्य आधार पर नहीं होती. यहाँ सत्य-असत्य कोई भी जीत जाता है. और कोई भी परेशान हो सकता है. कितने ही लोग कोर्ट के चक्कर काटते मर जाते हैं सारी उम्र और उनको न्याय नहीं मिलता. 4. "सत्यमेव जयते" सत्यमेव जयते भारत का 'राष्ट्रीय आदर्श वाक्य' है, जिसका अर्थ है- "सत्य की सदैव ही विजय होती है". यह भारत के राष्ट्रीय प्रतीक के नीचे देवनागरी लिपि में अंकित है लेकिन यह नितांत असत्य कथन है. मेरा जानना तो यह है कि जो जीत जाता है, वो तो सत्य हो ही जाता है. "जयमेव सत्ये " विजेताओं को सच्चा और सही मान लिया जाता है क्योंकि इतिहास उनकी अवधि में लिखा जाता है, उनकी देखरेख में लिखा जाता है. एक उदाहरण. कांग्रेस ने 1 9 47 के बाद भारत में अधिकांश समय पर शासन किया है तो आपको इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, महात्मा गाँधी के नाम पर सड़क, पार्क, स्थान, योजनाएं मिलेंगी. जैसे कि जगदीश बसु, सी.वी. रमन, सूर्यसेन, भगत सिंह ने भारत को लगभग कुछ नहीं दिया था। एक और उदाहरण, दिल्ली में दो रिंग रोड़ हैं. कांग्रेस ने आंतरिक रिंग रोड को नाम दिया महात्मा गांधी रोड़. और बीजेपी ने बाहरी रिंग रोड को नाम दिया हेडगेवार मार्ग. हेडगेवार भाजपा की मां आरएसएस के जन्मदाता थे. डॉक्टर केशव राव बली राम हेडगेवार. और गांधी आरएसएस जैसी मानसिकता रखने वाले द्वारा मारे गए थे और कांग्रेस ने हमेशा आरएसएस का विरोध किया है. अब कौन सही, सच्चा है? समझ लीजिये, सच्चा कोई भी हो सकता है जीतने वाला भी या हारने वाला भी. किसी की जीत हार से उसके सच्चे-झूठे होने का प्रमाण नहीं मिलता. जांचें, फिर से जांचें.

5. एक कंसेप्ट है जिसे 'परसेप्शन' कहते हैं. अब यह क्या है? परसेप्शन का अर्थ है अनुभूति लेकिन यह पूर्व स्थापित नज़रिये से प्रभावित रहती है और परसेप्शन सही हो भी सकता है, उसमें सत्य हो भी सकता है और नहीं भी. लेकिन दिक्कत यह है कि सबको अपना परसेप्शन सत्य ही लगता है. सबको अपना कुत्ता टॉमी और दूसरे का कुत्ता कुत्ता दीखता है. सब डिफेन्स मिनिस्ट्री बनाते हैं, अटैक मिनिस्ट्री कोई नहीं बनाता, फिर भी अटैक होते हैं और कोई दूसरे ग्रह से नहीं होते. सबको अपना धरम, धरम और दूसरे का भरम लगता है. तो जितने लोग, उतने नज़रिए, उतने सत्य और ऐसा इसलिए कि नज़रिए में वैज्ञानिकता नहीं होती, बस विश्वास हैं, मान्यताएं हैं. तो सावधान हो जायें, हो सकता है कि आपका परसेप्शन असत्य हो. 6. राम नाम सत्य है"/ "सतनाम वाहेगुरु" किसी भी नाम में कुछ भी सत्य नहीं है......हर नाम काम चलाऊ है, चाहे आप राम कहें, चाहे वाहेगुरु.......व्यक्ति या वस्तु के नाम से सत्य का क्या लेना देना? हर नाम, मात्र नाम है..........नाम का अपने आप में सत्य, असत्य से कोई मतलब नहीं ....कोई भी नाम अपने आप में सत्य या असत्य कैसे हो सकता है? एक कोल्ड ड्रिंक का नाम आप COKE रखें या PEPSI, इसका सत्य असत्य से क्या मतलब, यह सिर्फ नाम है...नाम मात्र. आखिर में थोड़ा अंग्रेज़ी तड़का. Names are just for the name sake. There is nothing truth or untruth in the name itself. Be it any name. नमन...तुषार कॉस्मिक

Tuesday, 12 September 2017

अब जैसा समाज है ऐसा नहीं है कि कोई बुद्धू है और कोई चतुर-चालाक उसे बेवकूफ बना जाता है. नहीं. आज सभी चतुर हैं, चालाक है. असल में ज़रूरत से ज्यादा चालाक हैं. ओवर-स्मार्ट. ओवर-कलैवर. आज लड़ाई ओवर-कलैवर और ओवर-कलैवर के बीच है. बस जब अपनी दुक्की पिट जाती है तब दुनिया घटिया-कमीनी-हरामी लगने लगती है.
सवाल यह नही है कि आप मुसलमान हो कि बेईमान हो, बौद्ध हो कि बुद्धू हो, हिन्दू हो कि भोंदू हो. न. सवाल यह है कि आप सवाल नहीं उठाते. सवाल उठाना आपको सिखाया नहीं गया. बल्कि सवाल न उठाना सिखाया गया. आपकी सवाल उठाने की क्षमता ही छिन्न-भिन्न कर दी गयी. आपको बस मिट्टी का एक लोंदा बना दिया गया, जिसे समाज अपने हिसाब से रेल-पेल सके. खत्म.

Saturday, 9 September 2017

कुरान-अल-अंबिया (Al-'Anbya'):22 - "यदि इन दोनों (आकाश और धरती) में अल्लाह के सिवा दूसरे इष्ट-पूज्य भी होते तो दोनों की व्यवस्था बिगड़ जाती। अतः महान और उच्च है अल्लाह, राजासन का स्वामी, उन बातों से जो ये बयान करते है." मेरी टिप्पणी,"क्या सबूत है कि अगर अल्लाह के सिवा कोई और इष्ट-पूज्य होता तो आकाश और धरती की व्यवस्था बिगड़ जाती? और क्या सबूत है कि अल्लाह ही पूज्य है? और अगर यही साबित न हो तो फिर अल्लाह महान है, उच्च है, राजसन का स्वामी है, यह भी कैसे साबित होगा? असल में अल्लाह एक है और वही पूजनीय है या फिर देवी-देवता अनेक हैं और सभी पूजनीय हैं, ये सब इन्सान की कल्पनाएँ है जिन पर पूरी की पूरी सभ्यताएं मतलब तथा-कथित सभ्यताएं खड़ी हुई हैं, खड़ी हैं. सब बकवास. सबूत किसी के पास किसी बात का नहीं. सबूत किसी के पास नहीं कि कोई अल्लाह या कोई देवी-देवता हैं भी कि नहीं और हैं तो फिर उनको इंसान की पूजा-अर्चना से कोई मतलब भी है कि नहीं. बस चल रहे हैं एक दूजे के पीछे. अंधे-अँधा ठेलिया, दोनों कूप पड़न्त."

धारणायें

मुझे बैटमैन फिल्में कभी ख़ास नहीं लगी, लेकिन "डार्क नाईट" फिल्म में जोकर के डायलाग खूब पसंद आये मुझे. लगा यह जोकर तो जीवन के गहरे सत्य ही तो उगल रहा है.
अभी-अभी "मुक्ति भवन" देखी. फिर इसके रिव्यु भी देखे, बहुत सराहा गया है फिल्म को. मुझे फिल्म धेले की नहीं लगी. बस फिल्म जब काशी पहुँचती है तो वहां काशी के सीन ठीक लगे. लेकिन मुक्ति भवन नामक होटल के मेनेजर के डायलाग बहुत जमे.
एक जगह वो कहता है, "मोक्ष जानते हैं क्या होता है? मनुष्य को लगता है कि वो लहर है. लेकिन फिर जब उसे अहसास हो जाता है कि वो लहर नहीं समन्दर है, तो वो अहसास ही मोक्ष है." वाह! क्या बात है!!
ठीक ऐसे ही जीवन है. कभी कोई व्यक्ति का एक कथन सही लगता है तो कभी दूसरा बकवास. कभी कोई कहीं एक काम बहुत सही कर रहा होता है तो कहीं बहुत गलत. सो मेरी धारणाएं बहुत पॉइंटेड हैं. मैं सिर्फ मुद्दा-दर-मुद्दा धारणाएं बनाता हूँ. चाहे कोई व्यक्ति हो, किताब हो, घटना हो, फिल्म हो, कुछ भी हो.
और मेरा मानना यह है कि आपको भी ऐसा ही करना चाहिए.
नमन..तुषार कॉस्मिक

सरोजिनी नगर मार्किट

यह मार्किट दिल्ली की चंद उन मार्किट में से है, जहाँ आपको कुछ न खरीदना हो, न खरीदने लायक लगे, फिर भी जाना चाहिए. आज सपरिवार जाना हुआ. मेरी कज़न की दुकानें हैं अपनी वहां. अब उनकी कहानी भी थोड़ा समझने लायक है. दुकानों से इतना ज़्यादा किराया आता रहा है और आज भी आता है हर महीने कि उनके पूरी परिवार को कुछ भी और करने की ज़रूरत ही नहीं रही तकरीबन सारी उम्र. लेकिन उनके दोनों बेटे सही से विकसित नहीं हुए. जब संघर्ष न मिले तो भी विकास नहीं होता. कहते हैं अगर बच्चा खुद अंडा तोड़ कर बाहर निकले तो ही जी पाता है, अगर आप उसे अंडा तोड़ने की ज़हमत से बचा लें, उसे संघर्ष से बचा लें तो बहुत सम्भावना है कि वो मर जाएगा थोड़े समय में ही. अमीरों के बच्चे देखे आपने कभी? थुल-थुल, ढुल-मुल जैसे उन्हें कोई मानसिक रोग हो. खैर, कुछ-कुछ दीदी के बच्चों के साथ भी ऐसा ही हुआ. लेकिन अब वक्त के थपेड़े खा कर कुछ सम्भल गए हैं. "जो दुःख-तकलीफ मैंने देखीं, मेरे बच्चे न देखें", यह धारणा वालों को मेरे शब्दों पर गौर फरमाना चाहिए. ज़्यादा टेंशन मत लिया करो बच्चों की भैय्ये, पकने दिया करो, तपने दिया करो. खैर, बात मार्किट की. बद-इन्तेज़ामी की जिंदा मिसाल है यह मार्किट. कदम रखते ही कदम बढ़ाना मुश्किल कर देंगे चलते-फिरते दुकानदार. "सर, चश्मा ले लीजिये." "सर, बेल्ट लीजिये." "मैडम, बैग लीजिये." आप एक कदम चलेंगे, किसी न किसी विक्रेता की टांग-बाजू बीच में आन ही टपकेगी. मन कर रहा था कि पीट दूं, दो-चार को. कितना ही मना करो, लेकिन कहाँ कुछ होगा? वहां तो सैंकड़ों लोग यही काम में जुटे हैं. हर कदम. कदम-कदम. पुलिस सिर्फ नकली विजिल करती है. जैसे ही पुलिस आती है, वो लोग दिखावे के लिए चंद मिनट के लिए इधर-उधर हो जाते हैं. फिर शुरू. सब सेटिंग है, वरना मैं एक दिन में सब को दादी-नानी याद दिला दूं. और वहां मार्किट में, चलती मार्किट में, खचा-खच भरी मार्किट में NDMC के लोग झाड़ू चला रहे थे और रेहड़ी से कूड़ा उठा रहे थे. धूल उड़ाते हुए. लोगों को मुफ्त में खांसी बांटते हुए. वल्लाह! इनसे vacuum cleaner टाइप मशीन न ली गयी! ऐसी जगह के लिए भी! शाबाश! अक्ल के अंधो, मेरी दिल्ली के कौंसिलर लोगो शाबाश!!! अच्छी बात रोज़गार चल रहा है लेकिन आखिर व्यवस्था भी तो होनी चाहिए न जी. आख़िरी बात. शुरू में यह मिक्स टाइप की मार्केट थी, जहाँ सब्जी, मिठाई, फर्नीचर, कपड़ा तथा अन्य कई किस्म की दुकान-दारी थी. लेकिन अब यह मार्किट सिर्फ रेडी-मेड कपड़ों के लिए मशहूर है. किन्तु मेरी नज़र में यह अज़ीब सी मार्किट है, जहाँ आधे से ज्यादा माल सेकंड-हैण्ड होता है, सोच-समझ कर खरीदें तो शायद कुछ बढ़िया माल हाथ लग भी जाए आपके. वहां तो पानी तक ब्रांडेड नहीं मिल रहा था. Aqua-life नामक था कोई ब्रांड...बीस रुपये भी दो ...तो भी पानी बड़े ब्रांड का, अपनी पसंद के ब्रांड का नहीं मिलेगा. क्या हुआ अगर हम दारू नहीं पीते? पानी पीते हैं, वो भी अपनी पसंद के ब्रांड का. नमन.....तुषार कॉस्मिक

Friday, 8 September 2017

जब तक मरे हुए पूर्वजों को बामनों के जरिये खाना-लत्ता पहुंचाने वाले भूतिए भारत में मौजूद हैं, धर्म की ध्वजा फहराती रहेगी. गर्व से कहो हम हिन्दू हैं.
शेर झुण्ड में हमला करते हैं और वो भी पीछे से. यह है इनकी औकात. शेर-दिली. सो आइन्दा खुद को शेर कहने-कहलाने से पहले जरा सोच लेना.तुम तो इंसान हे बने रहो, वो ही काफी है. इडियट.

रोहिंग्या मुसलमान गो बैक

जब आप आसमानी किताब को मानते हैं, जिस में लिखा है कि जो न माने उसे मारो तो फिर आपको कोई नहीं मारेगा, यह कल्पना करना भी मूर्खता है. और यही मुसलमान को समझना है. उसे समझना है कि वो एक फसादी किताब का पैरोकार का है. उसे समझना है कि जब वो मारेगा तो उसके बच्चे भी मारे जायेंगे. जब वो बलात्कार करेगा, उसकी औरतों के साथ भी यही होगा. जब उसकी नज़र में इस्लाम को न मानने वाला काफिर है, थर्ड क्लास है, वाजिबुल-क़त्ल है तो बाकी दुनिया की नज़र में वो भी ऐसा अस्तित्व है जो मिटा देने लायक है. जब मुसलमान किसी को बम से उड़ाता है, ट्रक चढ़ा के मारता है, गोलियों से भूनता है तो यह जेहाद है लेकिन जब मुसलमान को कोई "विराधू" ( मयाँमार का मियाँ-मार बौद्ध नेता) भगा दे, मार दे तो यह उस पर ज़ुल्म है! यह नहीं चलेगा. रोहिंग्या मुसलमान के दर्द में खड़े लोगों को यह समझना ही होगा. बहुत दर्दे-दिल उमड़ रहा मेरे मुस्लिम भाईयों को..इनके मुस्लिम भाई, बहिन काटे जा रहे हैं म्यांमार (बर्मा) में....च.च.च......वैरी सैड! यही दर्दे-दिल कब्बी तब न उमड़ा जब "अल्लाहू-अकबर" के नारे के साथ बम बन के दुनिया के किसी भी कोने में आम-जन को उड़ा दिया जाता है, जब कहीं भी ट्रक चढ़ा दिया जाता है, कहीं भी गोलियों की बरसात कर दी जाती है. सो मेरा स्टैंड साफ़ है, मुझे हमदर्दी है रोहिंग्या मुसलमानों के प्रति, इसलिए नहीं कि उनको मारा जा रहा है, इसलिए कि वो मुसलमान हैं. ये जो तथा-कथित बड़े-बड़े वकील रोहिंग्या के पक्ष में खड़े हैं न इनको चाहिए रोहिंग्या को अपने घरों में बसा लें. चालीस हज़ार ही तो हैं. ये कब चालीस लाख हो जायेंगे तुम्हें पता भी न लगेगा. भारत पहले ही जनसंख्या के दबाव से त्रस्त है और भर्ती कर लो. पूरी दुनिया से कर लो भर्ती. इडियट. जनसंख्या घटानी है कि बढ़ानी है? इडियट. हमारे कानूनों को हमारे खिलाफ़ प्रयोग किया जा रहा है मूर्खो, समझ लो. कानून में धार्मिक आज़ादी लिखी है, लेकिन समझ लो कि इस्लाम कोई धर्म नहीं है, यह पूरी सामाजिक, कानूनी व्यवस्था है, यह छद्म Militia है. इनको समझ नहीं आ रहा कि पूरी दुनिया से मुसलमान को ही क्यों खदेड़ा जा रहा है? अमेरिका में ट्रम्प क्यों जीत गया? चूँकि उसने मुस्लिम को खदेड़ने की खुल्ली हुंकार भरी. पूरी दुनिया को इस्लाम का खतरा समझा आ रहा है, यहाँ के इन सेक्युलर-वादियों को समझ नहीं आ रहा. अबे, सेक्युलर उसके साथ हुआ जाता है, जो खुद सेक्युलर हो. इस्लाम को अपने चश्मों से नहीं, इस्लाम के चश्मे से देखो, तब समझ आएगा कि वो किसी मल्टी-कल्चर को नहीं मानता है. इस्लाम न सिर्फ एक-देव-वादी है बल्कि एक ही कल्चरवादी भी है. इस्लाम सिर्फ इस्लाम को मानता है. फिर से लिख रहा हूँ, "इस्लाम को अपने चश्मों से नहीं, इस्लाम के चश्मे से देखो, तब समझ आएगा कि वो किसी मल्टी-कल्चर को नहीं मानता है. इस्लाम सिर्फ इस्लाम को मानता है." और उससे होता यह है कि इस्लाम जरा से पॉवर में आ जाए...चाहे वो पॉवर जनसंख्या की वजह से ही हो.....तो इस्लाम बाकी सब तरह की मान्यता वालों की ऐसी-की-तैसी कर देता है. सरमद, मंसूर, दारा शिकोह के साथ जो हुआ, वो ही आज बंगला देश के ब्लोग्गरों के साथ होता है, सरे-आम काट दिए जाते हैं. उससे डेमोक्रेसी, सेकुलरिज्म, फ्री-थिंकिंग सब खत्म हो जाती है. "वसुधैव कुटुबुकम" याद दिलाने वाले रवीश कुमार जी समझ लें, इस्लाम भी "वसुधैव कुटुबुकम" में यकीन रखता है लेकिन तभी जब सब मुसलमान हो जाएँ. सो भुलावे में मत आयें. रोहिंग्या वहीं भेजे जाएँ, जहाँ से वो आये हैं. ज्यादा हमदर्दी है अगर किसी क़ानून-बाज़ को इनसे तो म्यांमार में जाकर केस लड़ें इनके लिए, ताकि सू-ची इनको वापिस लें, काहे दूसरे मुल्कों पर बोझ डाल रही हैं. या फिर इस्लामिक मुल्कों में जा कर केस लड़ें ये कानून-वीर, ताकि ये मुल्क रोहिंग्या मुसलमान को अपने यहाँ रखें, वो मुसलमान बिरादर हैं आखिर. उनकी अपनी कौम. उम्मत. मेरी सुप्रीम कोर्ट श्री को एक सलाह है. वो चाहे तो आम जन से भारत में वोटिंग करवा ले. #Rohingya को रखना है या नहीं. वो बेस्ट है. कल न सरकार पर कोई दोष और न ही कोर्ट श्री पर. लेकिन ऐसा होगा? मुझे लगता नहीं. विरोध करने वाले मोदी सरकार का इस मुद्दे पर विरोध करते रहेंगे, जिसका फायदा भाजपा सरकार को मिलेगा ही, चूँकि हिन्दू जो कि एक बड़ा तबका है भारत में, उसे दिख रहा है कि जबरदस्ती मुसलमान को थोपा जा रहा है मुल्क में. इसका जवाब देगा, वो वोटिंग में. सो जो मोदी सरकार का विरोध कर रहे हैं इस मुद्दे पर, असल में वो मोदी सरकार का ही फायदा कर रहे हैं. नमन...तुषार कॉस्मिक

फोटो....फिल्म...ज़िन्दगी

फोटो देखता हूँ तो उसके इर्द-गिर्द क्या है, बैक-ग्राउंड क्या है, इस पर भी बहुत ज्यादा ध्यान देता हूँ. मैं फोटो को पूरा देखता हूँ. पीछे तार पर टंगा कच्छा, दीवार पर पान की पीक, उखड़ा हुआ प्लास्टर, सफेदी की पपड़ियाँ या फिर उगता सूरज, बहती पहाड़ी नदी, दूर तक फैला समन्दर. सब. बहुत बार फोटो जिसकी है वो शायद खुद को ही दिखाना चाहता है, बैक-ग्राउंड पर उसका ध्यान ही नहीं जाता. कई बार वो सिर्फ बैक-ग्राउंड ही दिखाना चाहता है लेकिन मैं फोटो उसकी चाहत के अनुसार कभी भी नहीं देखता. मैं पूरी फोटो देखता हूँ, अपने हिसाब से देखता हूँ. फिल्म भी ऐसे ही देखता हूँ. फिल्म की कहानी, करैक्टर तो देखता ही हूँ, फिल्म की कहानी कहाँ बिठाई गई है, वो बहुत ही दिलचस्पी से देखता हूँ. जैसे 'मसान' फिल्म काशी के पंडों की ज़िंदगी के कुछ पहलु दिखाती थी, मिल्खा सिंह भारतीय एथलीटों के जीवन के कुछ रंग, जॉली एल.एल. बी. वकीलों-जजों की ज़िन्दगी. तो फिल्म कहाँ घूम रही है, मतलब जंगल, पहाड़, महानगर या कोई झुग्गी-बस्ती, कहाँ? मेरे लिए यह बहुत मायने रखता है, यह भी तय करता है कि मुझे फिल्म पसंद आयेगी या नहीं. ज़िंदगी देखता हूँ तो अपने हिसाब से कोई क्या दिखाना चाहता है, वो तो देख लेता हूँ लेकिन वो क्या नहीं दिखाना चाहता वो भी देखता हूँ. क्या मैं सही देखता हूँ?

खुशवंत सिंह.....संघी सोच....मेरी सोच

एक मित्र:---जिस खुशवंत सिंह को आप भारतीय इतिहास और समाज के लिए ज़रूरी बता रहे है यह वही खुशवंत सिंह है न जिसका बाप शोभा सिंह है और यह वही सोभा सिंह है न जिसकी विधिक गवाही पर अंग्रेजो ने शहीद भगत सिंह को फ़ासी दी थी और इनाम में शोभा सिंह को दिल्ली में बहुत बड़ी जमीन दी थी जिस पर प्लाटिंग करके सोभा सिंह अमीर बना था मैं--- अगर आप के पिता जी ने कोई बेगुनाह का खून किया हो तो आपको फांसी चढ़ा दें क्या? जुकरबर्ग कल बलात्कार में दोषी पाया जाये तो फेसबुक छोड़ देंगे क्या आप? खुशवंत सिंह को पढ़ना चाहिए यह उनके लेखन को आधार मान कर लिखा है मैंने. ज़मीन ली या नहीं ली यह अलग मुद्दा है. अगर ले भी ली हो तो भी उनका लेखन अगर दमदार है, भारत के फायदे में हैं तो उसे पढ़ना चाहिए. मिसाल के लिए एक वैज्ञानिक अगर कुछ खोज दे जिससे कैंसर खत्म होता, लेकिन फिर उससे कत्ल हो जाये तो क्या उसकी खोज को इसलिए नकार दें कि उससे कत्ल हो गया? किसी भी व्यक्ति के जीवन के अलग-अलग पहलु होते हैं, सो समर्थन या विरोध होना चाहिए पॉइंट-दर-पॉइंट, पहलु-दर-पहलु. संघी सोच है, "खुशवंत सिंह गद्दार है, उसका बाप गद्दार था." खुद जैसे बहुत बड़े वाले देश-भक्त हों. पता भी है देश का भला-बुरा कैसे होगा? तुम्हारे हिन्दू-हिन्दू चिल्लाने से तो होगा नहीं. होना होता तो हो चुकता. "हम महान हैं, हमारे पूर्वज महान थे, हमारी संस्कृति महान है. हम विश्व-गुरु थे, हम विश्व-गुरु हैं." यह सब चिल्लाने से न कोई महान होता है, न ही विश्व-गुरु. इडियट. संघ हर उस सोच का गला घोटता है.....हर आवाज़ दबाता है जो उसके खिलाफ जाती है. ऐसी की तैसी. अपना दिमाग लगाओ, खुद जान जाओ. नमन...तुषार कॉस्मिक

Sunday, 3 September 2017

शाकाहार Versus मांसाहार

अगर पौधों में जान है तो पशु काट खाने में ही क्यों बवाल करना? बिलकुल सही तर्क है.
इसी तर्क को उलटा घुमाते हैं....शीर्षासन कराते हैं. अगर पौधों में जान है सो पशु काट खाने में ही क्यों बवाल करना? फिर इन्सान इंसान को ही क्यों न काट खाए....इक दूजे के बच्चों को क्यों न काट खाए?
सवाल जीवन में चैतन्य की सीक्वेंस का है....
सवाल भोजन की मजबूरी का है.. 
सवाल चॉइस का है.....
अगर चॉइस हो तो फल-सब्जी खा लें, चूँकि उसके नीचे आप जा नहीं सकते...मिटटी-पत्थर आप खा नही सकते..
"जीवम जीवस्य भोजनम"...लेकिन क्या आप अपने बच्चे खा जायेंगे? नहीं न. तो फिर यह भी देखें कि कौन सा जीवन खाना है......जीवन के क्रम में वनस्पति ही सबसे निचले स्तर पर खड़ी है, जो भोजनीय है.
क्या मैंने सही लिखा?

मेरी असलियत

हम कभी खुद के बारे में सोचते हैं-बताते हैं तो खुद को ही ढंग से फेस नहीं कर पाते. अगर कहीं पिटे हों, गिरे हों, असफल हुए हों तो वो सब स्किप कर जाते हैं. लेकिन अपुन तो हैं ही क्रिटिक. भ्रष्ट बुद्धि. नेगैटिविटी से भरे हुए. सो अपने बारे में भी वही रवैया है, जो सारी दुनिया के बारे में है. असलियत यह है कि मैंने जीवन में गलतियाँ ही गलतियाँ की हैं. ढंग का काम शायद ही मुझ से कोई हुआ हो. माँ-बाप ने मुझे गोद लिया था, और बहुत ही बढ़िया परवरिश दी, अनपढ़ होते हुए मुझे पढ़ने का खूब मौका दिया, भरपूर प्यार दया, काम-धंधा करने के लिए खूब धन भी दिया, जिसके लिए मैं हमेशा शुक्रगुजार हूँ, और रहूंगा. बदले में उनकी ठीक से देख-भाल नहीं कर पाया मैं. और तो और मैं अपनी दोनों बच्चियों को भी अभी तक वैसी परवरिश भी नहीं दे पाया, जैसी मुझे मिली. यह है मेरी असलियत. अगर अब तक का अपना जीवन एक शब्द में लिखना हो तो वो शब्द होगा-- बेकार. मैं जितनी भी अक्ल घोटता हूँ यहाँ, वो इसलिए नहीं कि मैं खुद को कोई बहुत सयाना समझता हूँ, नहीं, ऐसा बिलकुल नहीं है. मुझे अपनी अक्ल की सीमाएं पता हैं. मुझे तो कोई भी मूर्ख बना जाता है. मैं यहाँ बस एक फर्ज़ निभाता हूँ, वो यह कि शायद मेरे लिखे से मेरे जैसी बेफकूफियों से कोई बच सके. बस. अगर मेरे लेखन में ज़र्रा भी कोई अच्छाई आती हो दुनिया में तो उसका नब्बे प्रतिशत क्रेडिट मेरे माँ-बाप को जाता है, जिनकी जुत्ती बराबर भी मैं नहीं बन सका..
नमन ...तुषार कॉस्मिक

Thursday, 31 August 2017

Biological Waste

"ब्लू व्हेल" नामक का खेल जिसने बनाया था, वो पकड़ा गया. उस पर सैंकड़ों हत्याओं का आरोप है. ऐसा खेल बनाने का कारण जब उससे पूछा गया तो जवाब में उसने जो कहा, वो बहुत कीमती है. उसने कहा कि वो इस खेल के ज़रिये सफाई कर रहा था. यह एक स्वच्छ अभियान था. Biological Waste यानि जैविक कचरे की सफाई का अभियान. अब बड़े मजे की बात है, जिसे आप-हम कत्ल कहेंगे, सोचे समझे, प्लान करके किये गए कत्ल, उनको वो सफाई अभियान कह रहा है! है कि नहीं? कुछ अंग्रेज़ी फिल्मों का थीम है, कहानी है कि विलन ने दुनिया से बहुत से बच्चे अलग-थलग कर रखे हैं. परिवारों से, माँ-बाप से अलग. और उनको अलग ही चार-दीवारी में रखा जा रहा है. तर्क यह है कि बाकी दुनिया फेल है, खात्मे के कगार पर है, बर्बाद है. इसका अब कुछ नहीं हो सकता. इन्सान अपनी चालाकी की वजह से इतना मूर्ख बन गया है कि इसने पृथ्वी का पानी, हवा, धरती, पहाड़ सब दूषित कर दिए हैं. अब बहुत दूर तक वैसे भी धरती इस इन्सान-नुमा कचरे को ढो नहीं पायेगी. इन्सान सिर्फ इन्सान से लड़ रहा है शुरू से ही, शांति से नहीं रह रहा.They are Muslims, Hindus, Sikhs etc. not human beings. They are just Biological waste. इन्सान धर्म के नाम पर, मुल्क के नाम पर, जात-पात के नाम पर, गोरे-काले के नाम पर लड़ रहा है और इस लड़ाई में खुद को ही नहीं धरती को भी बर्बाद कर रहा है, कर चुका है काफी कुछ. इन्सान इस दुनिया का सबसे बुद्धिमान नहीं, सबसे बुद्धि-हीन प्राणी साबित हुआ है. और दिक्कत यह है की इस इन्सान को तर्क से नहीं समझाया जा सकता. राजनेताओं का और अधर्म-नेताओं का ऐसा जाल है, जंजाल है कि तर्क तो विकसित ही नहीं होने दिया जा रहा. सो कुछ नहीं किया जा सकता दुनिया की बेहतरी के लिए. तर्क से तो बिल्कुल नहीं. सो ऐसे इंसानों को मरने दो या मार दो और चुनिन्दा बच्चे, जिनको अलग से पाला गया उनसे दुनिया नए सिरे से बसाओ, बनाओ. क्या लगता है आपको कि जिस तरह की दुनिया है, यहाँ तर्क से कुछ समझाया जा सकता है, कोई बदलाव लाया जा सकता है? मेरा मानना है कि नहीं. कोई चमत्कार हो जाए तो मैं कह नहीं सकता, अन्यथा नहीं. मैं पिछले चार साल से सोशल मीडिया पर लगभग 500 लेख लिख चुका हूँ. हिंदी-अंग्रेज़ी दोनों भाषाओँ में. सिर्फ इस उम्मीद में कि दुनिया में कुछ बेहतरी लाई जा सके. लेकिन मुझे पता है, घंटा फर्क नहीं पड़ना इस तरह मेरे किये से. नक्कार-खाने की तूती है, बजा रहा हूँ जब तक बजा पाऊँगा. चूँकि मेरे पास हथियार सिर्फ तर्क है. लेकिन तर्क से कुछ होना-जाना नहीं है. दुनिया में बदलाव, बेहतरी सिर्फ दो तरीके से आ सकती है. या तो कोई चमत्कार हो जाये या फिर 'ब्लू व्हेल' खेल बनाने वाले और जिन अंग्रेज़ी फिल्मों के विलन का मैंने ज़िक्र किया, इनको हीरो मान लिया जाये. तीसरा विकल्प मुझे नहीं सूझता. आपको सूझता हो तो बताएं? नमन.......तुषार कॉस्मिक
१. ट्रेन पटरी से रोज़ उतर रही हैं....लेकिन इसमें प्रभु मतलब 'सुरेश प्रभु' की कार्यकुशलता पर मुझे कतई शंका नहीं. २. राज्य पर देश-भक्त सरकार थी.....और राष्ट्र पर राष्ट्र-वादी चक्रवर्ती सम्राट का राज्य... जानते-बूझते हुए चालीस लोग मरने दिए गए, कई राज्यों में अफरा-तफरी का माहौल बनने दिया गया, करोड़ों रुपये का नुकसान होने दिया गया....लेकिन न तो मुझे कट्टर मतलब खट्टर सरकार की क्षमता पर कोई शंका है और न ही उनकी गोदी सरकार की. ३. नोट-बंदी सिरे से फेल हो गई, जो कि होनी ही थी.... लेकिन न तो मुझे चाय की केतली की क्षमता पर शंका है और न ही चाय बनाने वाले की. ४. असल में मुझे कभी कोई शंका नहीं होती, सिवा लघु-शंका के या दीर्घ-शंका के चूँकि मैं भक्त हूँ. भक्त शंका नहीं श्रधा में विश्वास रखते हैं. ५. हटो, तुम साले बेफ़िजूल ही बच-कोदी करते रहते हो. भक्ति-मार्ग पर चल कर तो देखो. यह भी मोक्ष तक ले जाता है. तुषार कॉस्मिक

राम-रहीम के सहारे राम पर सवाल

राम-रहीम पर तो बहुत बवाल काट रहे हो. लेकिन सवाल इस बाबे का नहीं है, सवाल तो तुम्हारी अंध-श्रधा का है, सवाल तो तुम्हारी अक्ल का है जिसे अक्ल कहना ही गलत है चूँकि इसमें अक्ल वाली तो कोई बात है नहीं. सवाल तो यह है की तुमने सिर्फ अँधा विश्वास करना सीखा है और जो तुम्हारे इस अंधे-विश्वास पर चोट करे, वो तुम्हें दुश्मन लगता है, जबकि तुम्हारा असली मित्र वही है. जैसे मैं राम-रहीम को बलात्कारी कहूं तो तुम्हें लगेगा कि सही ही तो कह रहा है लेकिन अगर मैं तुम्हें यह बताऊं कि राम, श्री राम का पूर्वज भी बलात्कारी था, अपने गुरु की बेटी का बलात्कारी और जैसे राम-रहीम खत्म हो गया ऐसे ही वो पूर्वज भी गुरु के श्राप से खत्म हो जाता है, तो यह कैसा लगेगा तुम्हें? रघु-कुल रीत. शायद बुरा. बहुत बुरा. अगर मैं तुम्हें बताऊँ कि जिन हनुमान को पूजते हो, वो अशोक वाटिका में बैठी सीता को राम की पहचान बताते हुए राम के लिंग और अंड-कोशों तक की पहचान बताते हैं. कैसे पता था हनुमान को इतनी बारीकी से? सोच कर देखिये. और रावण को मारने के बाद राम साफ़ कहते हैं सीता को कि उन्होंने रावण को सिर्फ अपने अपमान का बदला लेने के लिए मारा न कि सीता को वापिस पाने के लिए, सो सीता किसी भी दिशा में जा सकती है, किसी के भी साथ जा सकती है. मर्यादा पुरुषोत्तम. और फिर जब राम को अयोध्या वापिस प्रवेश करना था तो हनुमान संदेश लेकर जाते हैं राम के आगमन का, जानते हैं हनुमान के स्वागत में कन्याएं भी भेंट करते हैं भरत उनको? और अयोध्या में उस समय गणिका (वेश्या) आम थी. रघु-कुल राज्य. ये थोड़ी सी बात लिखीं ताकि तुम राम-रहीम पर ही नहीं, राम पर भी सोचने लगें, सवाल उठाने लगो. और अगर नहीं हिम्मत तो याद रखना तुम राम-रहीम जैसों के शिकार होवोगे ही. अवश्य. चूँकि तुम्हारी बुद्धि मंद नहीं, बंद है. नमन.....तुषार कॉस्मिक

Never stand for a Muslim or a Hindu or a Christian etc. They are just Biological waste.


Wednesday, 30 August 2017

ओशो के बाद का बाबा-वर्ल्ड

ओशो के बाद बहुत से नकली बाबा-बाबियां आये. सब नकली. उनकी तरह महंगे चोगे, महंगी गाड़ियाँ, अमीरी जीवन अपना लिया. उनका mannerism चुराया, उनके कहे किस्से, चुटकले तक प्रयोग कर लिए. उनके दिए आईडिया पर आगे किस्से-कहानियाँ बना लिए और लगे प्रवचन पेलने. सब अपना लिया लेकिन उनके जैसी इमान-दारी न ला पाए, धार न ला पाए, अक्ल न ला पाए, उनके जैसी हिम्मत न जुटा पाए. भूतनी वालों ने ओशो के सब तर्क अपने हिसाब से मोड़-तरोड़ लिए. सुनने वाले भी सब चुटिया. ऊपर से नए-नए चैनल की बरसात. नकली चेलों को नकली गुरु चाहिए थे, मिल गए. जो लीपा-पोती वाली बातें सुनना चाहते थे लोग, वो ही शास्त्रीय शब्दों की चाशनी में घोल कर इन बाबाओं ने पिला दी लोगों को. ये साले गुरु थे! गुरु तुम्हारी परवाह ही नहीं करता कि तुम्हें क्या अच्छा लगेगा, क्या नहीं? वो दे लट्ठ मारेगा. कबीरा खड़ा बाज़ार में, लिए लुकाठी हाथ. दे दनादन. जाओ भाड़ में. मैंने सुना है कि कुछ फ़कीर तो अपने चेलों को थोक में गालियाँ देते थे और कई तो लट्ठ भी जबर-दस्त पेलते थे. तुम हो ही इसी लायक. जब तक खोपड़ी पे लट्ठ न पड़े, कोई ढंग की बात घुसती ही नहीं इसमें. ऐसा नही कि ओशो सब जगह सही थे या उनसे कभी कुछ गलती ही नहीं हुई. मैंने तो उनकी गलतियों पर कितना ही लिखा है. लेकिन वो नकली व्यक्ति नहीं थे. खालिस आदमी. और ये साले नकली. कार्बन की भी कार्बन कापियां. बस यहीं फर्क है. तुषार कॉस्मिक

Monday, 28 August 2017

तीन फिल्में

अपुन मुफ्त-खोरे हैं. औकात नहीं कि बीवी-बच्चों के साथ थिएटर जा कर हजार-डेढ़ हजार रुपये खर्च किये जायें सो बड़ी ईमानदारी से अपनी बे-ईमानी स्वीकार करता हूँ कि या तो youtube पर चोरी-छुप्पे डाली गई फिल्में देखता हूँ या फिर टोरेंट से डाउनलोड की हुईं. पीछे तीन फिल्में देखीं. सब youtube पर. १.अंकुर अरोड़ा मर्डर केस. २.मसान. ३.अगली (अगली-पिछली वाला नहीं, अंग्रेज़ी वाला UGLY). मैं बहुत क्रिटिकल व्यक्ति हूँ. अक्सर पाठक कहते हैं कि नकरात्मक है मेरी सोच. लेकिन अगर मैं कुछ नकारता हूँ तो कुछ स्वीकार भी रहा होता हूँ. मिसाल के लिए ये तीन फिल्में. सबसे बढ़िया है "अंकुर अरोड़ा मर्डर केस". यह फिल्म आपको बहुत कुछ सिखाती है. मेडिकल वर्ल्ड कैसे आम आदमी को भूतिया बनाता है उसका तो सजीव चित्रण है ही लेकिन साथ-साथ वकील लोग कैसे अपने ही मुवक्किल से खिलवाड़ कर रहे होते हैं, इसका भी नमूना पेश करती है यह फिल्म. इस फिल्म को मैं भारत में आज तक बनी दस सर्वोतम फिल्मों में रखता हूँ. ज़रूर देखें. एक्टिंग, निर्देशन, कथानक सब मंझा हुआ. हाँ, बच्चे के मर्डर से जुड़ा है मामला, बहुत बड़ा दिल करके जैसे-तैसे देख पाया, आप भी देख लीजियेगा. दूसरी फिल्म दो वजह से पसंद की. एक तो वो वजह है जो अक्सर लोग नज़र-अंदाज़ कर जाते हैं. हर फिल्म का एक बैक-ड्राप होता है. यानि कहानी कहाँ घूम रही है. बैक-ड्राप जंगल है, गाँव है, शहर है, पहाड़ है, क्या है. फिल्म कहानी के साथ-साथ और क्या दिखा रही है. जैसे अमोल पालेकर की फिल्में मध्यम-वर्गीय जीवन दिखाती हैं. टीवी पर आने वाले सास-बहु किस्म के सीरियल बहुत उच्च-वर्ग का जीवन दिखाते हैं. तो बैक-ड्राप. बैक-ड्राप भी फिल्म का एक करैक्टर होता है. स्ट्रांग करैक्टर. फिल्म का नाम "मसान" शायद रखा भी इसीलिए गया है. यह फिल्म काशी के पंडों का जीवन दिखती है, वो पंडे जो दाह-संस्कार कर्म में रत हैं. उनके जीवन की झलकियाँ. काशी के जीवन की झलकियाँ. तो आप इस वजह से देख सकते हैं यह फिल्म और सिनेमैटोग्राफी इतनी उम्दा है कि लगता है जैसे काशी में ही घूम रहे हैं. दूसरा पॉइंट, इस फिल्म "मसान" को देख यह समझने का है कि पुलिस वाला कैसे ब्लैक-मेल करता है एक पंडे को और पैसे ऐंठता है. और ऐसा इसलिए होता है चूँकि पंडा और उसकी बेटी कानून नहीं समझते. मेरे जीवन का तजुर्बा है कि आप सौ में से निन्यानवें मौकों पर जो रिश्वत देते हैं, खाह-मखाह देते हैं, आपको कायदे-कानून का पता ही नहीं होता और इसी का सरकारी आदमी फायदा उठाता है. अगर आपको कानून पता हो तो रिश्वत मांगने वाला खुद आपको रिश्वत देकर जान छुड़वाएगा. खैर फिल्म ज़रूर देखिये. अदाकारी भी बढ़िया है. अगली फिल्म अगली (Ugly) है. यह फिल्म आईना है हम सब के लिए. हम सब निहायत खुदगर्ज़ हो चुके हैं, बेहद सकीर्ण सोच के हो चुके हैं और इस खुदगर्ज़ी, इस संकीर्णता का नतीजा है कि पूरा समाज बुरी तरह से UGLY हो चुका है और इस कलेक्टिव ugliness का नतीजा बच्चे भुगतते हैं. कैसे? यह देखने के लिए यह फिल्म देखें. नमन..तुषार कॉस्मिक

Justice delayed is justice denied.

क्या लगता है कि सिर्फ डेरों के चीफ ही बाबा हैं? नहीं. लगभग सब राजनेता भी बाबा हैं और इनके कुकर्म भी वैसे ही हैं, फर्क सिर्फ इतना है कि न्याय-व्यवस्था पंगु है. पंगु करके रखी गई है. जान-बूझ कर. वरना रोज़ एक नया बाबा/ नेता जेल में होगा. क्यों चार-छः महीने की तारीख दे जाती है कोर्टों में? क्यों तारीख पे तारीख दी जाती है? क्यों बीस-बीस साल तक कोर्ट केस घिसटते रहते हैं? जजों की संख्या कम है, यही न? नहीं है यह वजह. वजह है सब बड़े चोर नहीं चाहते कि कोर्ट सक्षम हों. नहीं चाहते कि फैसले दिनों में, महीनों में हों. मुकद्दमे दशकों तक घिसटते रहें तो कैसे होगा न्याय? कई लोग मर जायेंगे. या मार दिए जायेंगे. या फिर खरीद लिए जायेंगे. या धमका दिए जायेंगे. ऐसे में क्या घंटा न्याय होना है. यह कोई जहाँगीर का घंटा थोड़े न है, आधी रात को भी बजाओ तो भी न्याय मिलने की आशा हो. यहाँ तो नयाय के नाम पर वकीलों का पेट भरना होता है. वकील ही नहीं कोर्ट का पेट भी भरना होता है. कोर्ट भी लाखों रुपये फीस लेती है. एडवांस में. लखनऊ की एक ज़मीन का केस देख रहा हूँ, बारह साल से चल रहा है और आज तक एक पार्टी उसमें यही मुद्दा बनाए है कि सामने वाली पार्टी ने कोर्ट फीस कम जमा की है. अबे, की हो कम जमा फीस, तो क्या हुआ? अगर उसके साथ अन्याय हुआ या उसकी जेब में पैसे हों ही न देने को तो क्या उसे न्याय नहीं मिलना चाहिए? इडियट. लेकिन यहाँ ऐसे ही चलता रहता है सब. राम-रहीम के फैसले पर आम-जन खुश हैं. कोर्ट को सराह रहे हैं लेकिन यह भी देखने की बात है कि पन्द्रह साल लग गए फैसला आने में. यह भी तो अन्याय है. एक कथन है अंग्रेज़ी का , "Justice hurried is justice buried." लेकिन भारत में जिस हिसाब से केस घिसटते हैं यो तो यह कहना ज़्यादा सही है, "Justice delayed is justice denied." और कह सकते हैं, "In India Justice is not hurried, it is worried, it is buried." तुम संख्या बताओ, जितने जज चाहियें एक साल में मैं दे सकता हूँ, तुम्हारे ही समाज से दूंगा, trained. देखो कैसे नहीं होते साल-दो साल में फैसले? लेकिन फट के हाथ में आ जायेगी तुम्हारे नब्बे प्रतिशत नेताओं की, बाबाओं की, माताओं की, मौलानाओं की, फादरों की. इज्ज़त मेरा मतलब. ये क्यों चाहेंगे कि ऐसा हो जाये? असल बीमारी यह है. नमन ..तुषार कॉस्मिक

Sunday, 27 August 2017

कृष्ण की बकवास गीता-एक और नमूना

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन. अर्थ है कि कर्म का अधिकार है लेकिन फल का नहीं.......यानि फल पर आपका अधिकार नही, हक नहीं.........मतलब कर्म करे जा भाई....फल पर अधिकार तेरा नहीं है....हक़ नही है. तो फिर किसका हक़ है? (पंडों का. राजनेताओं का.) कौन करेगा ऐसे कर्म? सिर्फ अक्ल के अंधे...जिन्हें धर्म की जहर पिला दी गई हो. एक अर्थ यह भी किया जाता है कि कर्म तुम्हारे हाथ में है करना लेकिन फल तुम्हारे हाथ में नही है, वश में नही है. सो फल की चिंता मत कर. अब कर्म के फल पर "वश" की बात कर लेते हैं. कैसे नहीं है फल पर वश? आज कहीं भी McDonald खुलता है, सम्भावना यह है कि चलता ही है. क्यों? फल तो "वश" में नहीं है. जब आप पहले से ही मान बैठेंगे कि फल आपके वश में नहीं है तो इस तरह से कर्म करने की प्रेरणा भी नहीं आएगी. फल आपके कमों के अनुरूप ही आता है. कर्मों से अर्थ मात्र शारीरिक लेबर नहीं है. कर्मों से अर्थ है डेटा कलेक्शन, प्लानिंग, ब्रेन स्टोर्मिंग और फिर सही से Execution. ऐसे आता है इच्छित फल. मात्र गीता में लिखे होने से, कृष्ण के कहे होने से कोई बात सही नहीं हो जाती. पॉइंट सिर्फ इतना है कि कर्म से फल के चिंतन को, फल की इच्छा को, फल के अधिकार को, फल के वश में होने को अगर हटाने की कोई फिलोसोफी कह रही है तो वो कहाँ तक ठीक-गलत है. फल की इच्छा के बिना कोई कर्म क्यों करेगा? कार्य-कारण का सीधा सिद्धांत है. Cause and Effect. किसी को कहो कि Effect की सोच ही मत, तू बस Cause पैदा कर, वो कहेगा, "पागल हो क्या?" "फल की मत सोच, आये न आये, तू बस कर्म करे जा, मेहनत करे जा, श्रम करे जा." ऐसा किसी भी साधारण समझ के व्यक्ति से कहोगे तो वो तुम्हे पागल मानेगा लेकिन किसी धार्मिक व्यक्ति से, अध्यात्मिक व्यक्ति से कहोगे, कृष्ण भक्त से कहोगे तो वो धन्य-धन्य हो जायेगा. ये तर्कातीत लोग हैं भई, इनकी क्या कहें? खैर, मेरी समझ है कि कर्म से पहले विचार पर जोर देना चाहिए और फल की इच्छा किये बिना कोई भी कर्म करना ही नहीं चाहिए. असल में फल की इच्छा के बिना तो कोई व्यक्ति वैसे भी कर्म कर ही नहीं सकता. कुछ देर कर भी ले लेकिन बहुत ज़्यादा देर नहीं कर पायेगा. सो इस बकवास में पड़ने का कोई मतलब नहीं है. एक तर्क यह भी है कि विचार भी किया जाता है, कर्म भी किया जाता है फिर भी इच्छित फल नहीं मिलता. क्यों? समझ लीजिये यह भी. अगर कोई दस मंजिल से कूदेगा तो कितना चांस है कि उसे चोट नहीं लगेगी? क्या सम्भावना है? यह कि वो मर जाये. कर्म का फल तय है कि नहीं. डेढ़ बोतल दारु पीया व्यक्ति सड़क पर गाड़ी चलाए जाता है. होश है नहीं फिर भी ....कितनी सम्भावना है कि दो सौ किलोमीटर दूर घर सुरक्षित पहुँच जाए भीड़ वाले हाईवे के ज़रिये? लगभग जीरो. कर्म का फल तय हुआ कि नहीं. किसान बीज बोता है......बारिश होती है......धूप पड़ती है.....फसल होती है......पिछले साल भी हुई थी...उससे पीछे भी.....लेकिन दस साल पहले हुआ था कि सही बारिश नहीं हुई, धूप नहीं मिली तो फसल पूरी तबाह हो गई...उससे पीछे भी उसके पिता के समय लगभग 15 साल पहले भी ऐसा हुआ था.....इस साल भी हो सकता है लेकिन ऐसा हमेशा नहीं होता.....किसान सम्भावना के सिद्धांत को जानता है....उसे पता है कि फसल खराब हो सकती है लेकिन वो सब अपवाद है. वो अपवाद को अपवाद मानता है नियाम नहीं. आशा है आप भी अपवाद को नियम नहीं मानेंगे और अपवाद से नियम सही साबित होता है न कि गलत, यह भी समझ जायेंगे. नमन...तुषार कॉस्मिक

Saturday, 26 August 2017

राम हों, रहीम हों, राम-रहीम हों, अंध-श्रधा खतरनाक है

आसाराम, रामपाल और राम रहीम के पकडे जाने के बाद सब समझदार मित्र कह रहे हैं कि अंध-भक्ति नहीं होनी चाहिए....... बिलकुल नहीं होनी चाहिए मैं तो मुस्लिम मित्रों को भी जोश में आया देख रहा हूँ, वो भी खूब फरमा रहे हैं कि समाज को इन जैसे लोगों से बचना चाहिए बजा फरमाते हैं सब, बिलकुल..... लेकिन लगता नहीं कि मुझे ये मेरे मित्रगण ठीक से समझ रहे हैं कि बीमारी कहाँ है, इलाज कहाँ है........और शायद न ही हिम्मत है विषय के अंदर तक जाने की चलिए फिर भी एक कोशिश करते हैं आसा राम, राम पाल और राम रहीम जैसे व्यक्ति नहीं होने चाहिए..इनके प्रति अंध-श्रधा, अंध-भक्ति नहीं होनी चाहिए.....लेकिन है, पता है क्यों? क्यों कि आपके समाज में अंध-भक्ति जन्म से घुटी में पिलाई जाती है......आप जब पैदा हुए तभी हिन्दू , मुस्लिम थे या बाद में बनाये गये थे?..निश्चित ही बाद में बनाये गये थे.....आपको हिन्दू मुस्लिम आदि तर्क से बनाया गया था या बस बना दिया गया था?...निश्चित ही बस बना दिया गया था....तर्क तो बहुत जानकारी, बहुत तजुर्बा, बहुत समझ मांगता है, वो तो पनपने से पहले ही आप पर हिन्दू मुस्लिम की मोहर लगा दी गयी थी. अब आप समझ लीजिये, रामपाल, आसाराम और राम रहीम के प्रति अंध-श्रधा इसलिए हो जाती है आसानी से क्योंकि राम पर श्रधा सिखाई गयी, अंध-श्रधा सिखाई गयी...क्योंकि जीवन की समझ आप तक तर्क से, तजुर्बों से नहीं आने दी गए बल्कि समझ के नाम पर कुछ मान्यताएं आप पर बस थोप दी गयी......जैसे सुबह स्कूल में जाते ही आपके गले से रोज़ बिला नागा 'ऐ मालिक तेरे बंदे हम' उतारा गया'.....मालिक कोई है या नहीं, यह सोचने, अपनी समझ से समझने का मौका ही नहीं दिया गया....बस आपको श्रधा करना, अंध-श्रधा करना सिखा दिया गया. आपको बता दिया गया कि कोई अल्लाह है, उसकी भेजी कोई किताब है 'कुरआन' और उसका कोई पैगम्बर है, आखिरी पैगम्बर.......बस अल्लाह की किताब में जो लिखा है.......वो ही आखिरी सत्य है.....आपको समझने का मौका ही नहीं दिया गया कि अल्लाह ही है जो चारों तरफ बरसता है और हर किताब जिसमें कुछ अक्ल है, शांति का संदेश है , वो अल्लाह की ही भेजी गयी है...और वो किताब रोज़ उतरती है...आगे भी उतरती रहेगी....और जो भी इन्सान कोई अक्ल की बात करता है, शांति की बात करता है, वो अल्लाह का ही पैगम्बर होता है...उसी का पैगाम दे रहा होता है.....और कोई पैगम्बर आखिरी नहीं होता, न होगा.....जब अल्लाह रोज़ नए बंदे इस दुनिया में भेज रहा है तो पैगम्बर नये क्यूँ नहीं भेजेगा भाई? लेकिन यह सब शायद मेरे मुस्लिम मित्रों के लिए समझना आसान न हो.........हाँ , आसाराम और रामपाल और राम रहीम गलत है. राम ग़लत नहीं हो सकते, मोहम्मद गलत नहीं हो सकते....उनके प्रति श्रधा जायज़ है, लेकिन आसाराम और रामपाल और राम रहीम के प्रति श्रधा नाजायज़ है! दूसरे कूएं में गिरे नज़र आते हैं लेकिन खुद का दलदल में धंसा होना नहीं नज़र आता. दूसरे की कश्ती में छेद नज़र आते हैं लेकिन अपना बेडा गर्क होता नज़र नहीं आता...शायद बेड़ा बड़ा है इसलिए. ज़रा फिर से सोचें वैसे यह सब सोचना आसान नहीं है.. सोचने लगे गर आवाम तो निजाम गिर जाएगा ज़मीन ही नहीं आसमान गिर जाएगा आंधी ही नहीं, तूफ़ान घिर जाएगा पांडा ही नहीं इमाम गिर जाएगा हिन्दू गिर जाएगा, मुसलमान गिर जाएगा सियासत और सरमाया तमाम गिर जाएगा नंगा और नंगे का हमाम गिर जाएगा सोचने लगे गर आवाम तो निजाम गिर जाएगा सादर नमन..तुषार कॉस्मिक

Friday, 25 August 2017

कर्म-फल सिद्धांत

विचार बीज है कर्म का....यदि बीज खराब होगा तो फल खराब ही होगा....सो जब कोई कर्म पर जोर दे, लेकिन विचार पर नहीं तो वो आपको सिर्फ समाज की मशीनरी में चलता-पुर्जा बनने को प्रेरित कर रहा है...ऐसे लोग बकवास हैं. 

बकवास हैं ऐसे लोग जो यह गाते हैं, "कर्म करे जा इन्सान, आगे फल देगा भगवान."
बकवास हैं ऐसे लोग जो यह कहते हैं, "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन." 

फल की इच्छा के बिना कोई कर्म क्यों करेगा? कार्य-कारण का सीधा सिद्धांत है. Cause and Effect. किसी को कहो कि  Effect की सोच ही मत, तू बस Cause पैदा कर, वो कहेगा, "पागल हो क्या?"

"फल की मत सोच, आये न आये, तू बस कर्म करे जा, मेहनत करे जा, श्रम करे जा." ऐसा किसी भी साधारण समझ के व्यक्ति से कहोगे तो वो तुम्हे पागल मानेगा लेकिन किसी धार्मिक व्यक्ति से, अध्यात्मिक व्यक्ति से कहोगे, कृष्ण भक्त से कहोगे तो वो धन्य-धन्य हो जायेगा. ये तर्कातीत लोग हैं भई, इनकी क्या कहें?

खैर, मेरी समझ है कि कर्म से पहले विचार पर जोर देना चाहिए और फल की इच्छा  किये बिना कोई भी कर्म करना ही नहीं चाहिए. असल  में फल की इच्छा के बिना तो कोई व्यक्ति वैसे भी कर्म कर ही नहीं सकता. कुछ देर कर भी ले लेकिन बहुत ज़्यादा देर नहीं कर पायेगा. सो इस बकवास में पड़ने का कोई मतलब नहीं है.

और कोई भगवान नहीं बैठा कहीं जो तुम्हारे अच्छे-बुरे कर्मों का हिसाब करेगा. नहीं, वो इतना वेहला नहीं है. कोई चित्रगुप्त नहीं बैठा बही खाते लेकर, जिसमें आपके अच्छे-बुरे कर्मों का लेखा-जोखा हो. बचकानी कल्पनाएँ हैं.

पहले तो अच्छे-बुरे की धारणा भी भिन्न-भिन्न होती है. इस्लाम में मांस खाना जायज़ है, जैनी के लिए बिलकुल नाजायज़. अच्छा-बुरा क्या है, यह सामाजिक मान्यताएं तय करती हैं. कल तक प्रेम विवाह कोई कर लेता था तो मोहल्ले में हल्ला हो जाता था, आज बिन शादी के भी जोड़े रह रहे हैं. सामाजिक मान्यताएं और कायदा-कानून, बस यही तय करता है कि अच्छा-बुरा क्या है और इस अच्छे-बुरे के साथ कैसा सलूक करना है. बस. इसी से तय होता है आपके अच्छे-बुरे कर्मों का फल. बाकी आपके जो पवित्र धर्म-ग्रन्थ अगले-पिछले जन्मों के साथ, ग्रहों-सूरज-चांद-तारों के साथ  आपके कर्मों को, उनके फलों को जोड़ते हैं, वो भूतिया बनाते हैं. मत बनिये.

तुषार कॉस्मिक

Thursday, 24 August 2017

चोर, उचक्के, गला-काट लोगों को हल्के माना जाता है...जैसे ये जो अरबों डकार जाते हैं...ये सफेद -पोश .....ये तो जैसे साधू हों.....बुद्धत्व के हकदार.

असलियत ये है कि ये सफेद-पोश डकैत ही ज़िम्मेदार हैं....चोरों, उचक्कों के लिए

Why should the creator and the creation be different?

Why should the creator and the creation be different?

It is no Creation and there is no Creator. It is both. Like  Dance and Dancer, Acting and Actor.Cause is effect and Effect is Cause. No difference.

यह प्रभु नहीं स्वयम्भू है.


अवचेतन से अधिचेतन का सफर है.

कहा ही जाता है, आत्म से अध्यात्म ...हालांकि आत्म की अवधारणा ही गलत है....भ्रम है......लेकिन वो अवधारणा टूटना ही तो अध्यात्म कहा जाता है लेकिन यह संज्ञा भी  विभ्रमित करती है.

असल में न कोई आत्म है और न ही कुछ अध्यात्म......जब आत्म नहीं तो अध्यात्म कैसे होगा?

 आत्मा एक भ्रम है. अध्यात्म उससे बड़ा भ्रम है.

तो फिर इसे क्या कहें?

मैं इसे कॉस्मिक होना कहता हूँ, आप वैश्विक होना कह सकते हैं या फिर कुछ और.

नामकरण खुद करें.

Thursday, 17 August 2017

खाकी वर्दी वाले और वो औरत

पश्चिम विहार से आज फिर तीस हज़ारी कोर्ट जाना हुआ. बर्फखाना से ठीक पहले के ट्रैफिक सिग्नल पर गाड़ी रोकी. वो कोई साठ के पेटे में हैं. खाकी कपड़े पहने. काले जूते, फीते वाले. पुराने लेकिन पोलिश किये हुए. उनका चेहरा और जूते दोनों पर सलवटें हैं. दूर से देखने पर वो पुलिस वाले लगते हैं लेकिन हैं नहीं. जी-जान से ट्रैफिक संभालते हुए. पिछली बार मेरी कार का दरवाज़ा एक औरत ठक-ठकाती रही लेकिन मैंने उसे कुछ नहीं दिया. हाँ, इन खाकी वर्दी वालों को इशारे से बुलाया और पचास का नोट थमा दिया. वो औरत मेरा चेहरा ताकती रही और खाकी वर्दी वाले भी. वो इस बार फिर से वहीं थे. आज कोई औरत नहीं आई और मैं उनको चालीस रुपये ही दे पाया. पैसे लेते ही वो फिर से ट्रैफिक सम्भालने लौट गए. मैं सोचने लगा, "क्या उस दिन उस औरत को कुछ भी न देकर मैंने गलत किया? वो भी तब जब मैंने उसके सामने इन खाकी वर्दी वालों को पचास की पत्ती दी?" फिर ख्याल आया, "अब मांगने वालों में भी कहाँ कोई गरिमा बची? अब कहाँ हैं ऐसे लोग, जो कहते हों, "जो दे उसका भी भला, जो न दे उसका भी भला"? ये जो लोग मेरे शहर में मांगते हैं, ये तो गाड़ी का शीशा ऐसे बजाते हैं जैसे भिक्षा नहीं, कर्ज़ा वसूल रहे हों, जैसे न दिया तो शीशा तोड़ के गाड़ी में घुस आयेंगे, जैसे साफ़ कह रहे हों, "दो नहीं तो चैन से बैठने नहीं देंगे." अपने ही तर्कों से थोड़ा सा शांत हो चला मैं. तीस हज़ारी कोर्ट भी आने को ही था. गाड़ी पार्किंग में और मैं कोर्ट में. सब हवा हो गया. वापिस आया तो लगा आप सबको लिखना चाहिए. सो हाज़िर है वाकया.

वकालत की अंधेर-गर्दियाँ

अकबर इलाहाबादी ने कहा है, "पैदा हुआ वकील तो शैतान ने कहा, लो आज हम भी साहिब-ए-औलाद हो गए" न्याय-मशीनरी का अहम पुर्जा है वकील. और वकालत के पेशे में निरी अंधेर-गर्दी है. मैंने भुगती है, देखी है, निपटी है, निपटाई है. वकील कोर्ट को, अपने विरोधी वकील को, अपने मुवक्किल को, अपने नीचे काम करने वाले जूनियर वकीलों का, इंटर्नशिप करने वाले बच्चों तक को फुल्ल-बटा-फुल्ल गुमराह करते हैं. अगर कोई सफ़ल वकील नहीं बनते, जो कि अधिकांश इंटर्न (प्रशिक्षु) नहीं बनते तो उसकी एक बड़ी वजह यह है कि वो बरसों तक सीनियर वकीलों द्वारा गुमराह किये जाते हैं. इंटर्न को लगता है कि वो काम सीख रहे हैं और सीनियर, घिसे वकील काम सिखाने के नाम पर उनसे सिर्फ मजदूरी कराते हैं, बेगार करवाते हैं. स्टाम्प पेपर मंगा लेंगे, ओथ कमिश्नर-नोटरी के पास भेज ठप्पे लगवा लेंगे, सर्टिफाइड कापियों अप्लाई करवा देंगे, काउंटर पर plaint जमा करवा लेंगे-किराया जमा करवा लेंगे, कोर्ट में ऐसी तारीखों पर भेज देंगे जिन पे सिर्फ शक्ल दिखानी होती है या फिर सिर्फ कोई डॉक्यूमेंट सबमिट करने होते हैं, टाइपिंग करवा लेंगे. ये सब काम सीखने ज़रूरी हैं, लेकिन यह सब सीखना दो-चार महीने का काम है, इसके लिए 5-10 साल नहीं चाहिए होते. यह बस LEG-WORK है. असल वकालत सीखी जाती है, रिसर्च से. BRAIN-WORK से. लॉ वृहद क्षेत्र है. और जितना मुझे पता है, LLB में बस कुछ बेसिक एक्ट पढ़ाए जाते हैं. असल में एक बढ़िया वकील के लिए केस से जुड़े एक्ट पढने ज़रूरी हैं, और उन एक्ट से जुडी बहुत सी जजमेंट पढ़ना भी ज़रूरी है. इसके अलावा उसे यह भी देखना ज़रूरी है कि वो अपने प्रयासों से क्या नए सबूत इक्कठे कर सकता है. बस यही है मूल-मन्त्र. बाकी एक वकील की हिंदी-अंग्रेज़ी-क्षेत्रीय भाषा अच्छी होनी चाहिए, उसका कंप्यूटर ज्ञान अच्छा होना चाहिए, उच्चारण सही होना चाहिए, लहज़े में क्षेत्रीयता नहीं झलकती होनी चाहिए, बॉडी लैंग्वेज सही होनी चाहिए. और टाइपिंग भी आनी चाहिए और इसके साथ ही उसे इन्टरनेट का प्रयोग भी करना आना चाहिए. अब तकरीबन नब्बे प्रतिशत वकील मेरे दिए हिसाब-किताब से बाहर हो जाते हैं. चिढ़ी-मार. कैसे? बताता हूँ. आपको जानकार शायद हैरानी हो कि भारतीय बार कौंसिल खुद मानती है कि 50% वकील नकली हैं. ऑन-रिकॉर्ड मानती है. लानत! गए पचास प्रतिशत. अब जो बाकी बचे पचास प्रतिशत, इनमें से ज्यादातर अंग्रेज़ी के दो पेज बिन गलती के टाइप नहीं कर सकते. बोलना तो दूर की बात. यहाँ पॉइंट यह नहीं कि साहेब, हिंदी में काम चला लेंगे. चला भी सकते हैं, लेकिन चला नहीं पायेंगे चूँकि सारे एक्ट अंग्रेज़ी में पढ़े-पढाये जाते हैं, फिर इन्टरनेट सामग्री अंग्रेज़ी में है. सब जज-मेंट अंग्रेज़ी में हैं. सो, नहीं बच पायेंगे अंग्रेज़ी से. कितने वकील साहेब तो ऐसे हैं, जिनको टाइप करना ही नहीं आता. कैसे करते हैं ये लोग ड्राफ्टिंग? किसी टाइपिस्ट को देते हैं केस की डिटेल और वो करके देता है ड्राफ्टिंग. यह है इनका तरीका. सवाल यह नहीं है कि बिना टाइपिंग के भी काम चलाया जा सकता है. चलाया तो जा सकता है लेकिन आज के जमाने में, ई-मेल, whats-app, इन्टरनेट के जमाने में यदि किसी को बेसिक टाइपिंग नहीं आती, ख़ास करके ऐसे प्रोफेशन में जहाँ टाइपिंग की हर वक्त ज़रूरत है, तो निश्चित ही ऐसे व्यक्ति को दिक्कतों का सामान करना पड़ेगा, और उसकी दिक्कतों की वजह से क्लाइंट को दिक्कत होने की सम्भावना रहेगी ही रहेगी. समझ लीजिये मित्रगण, केस जीते जाते हैं, रिसर्च वर्क से, बाकी तो बस Execution है. कैसे करेंगे रिसर्च ये लोग, जो अंग्रेज़ी नहीं जानते, जो टाइपिंग नहीं जानते, जो इन्टरनेट से दूर हैं? आप सोच सकते हैं कि बिना इन्टरनेट के भी तो रिसर्च की जा सकती है. किताबों से. की जा सकती है, बिलकुल की जा सकती है, लेकिन आज के दौर में यह ऐसा ही है कि आप के पास है रिवाल्वर और आपको मुकाबला करना है AK-47 वाले के साथ. किताबों का दौर अब पीछे छूटता जा रहा है जनाब-ए-आली. दरिया-गंज में रविवार को किताबें बेचने वाले के पैरों तले रो रही होती हैं. लगभग रद्दी के भाव बिकतीं हैं. बुक से ज़माना e-notebook की तरफ बढ़ चला है सर. अब यह अलग ही मुद्दा है कि ज्यादातर वकीलों का उद्देश्य केस जीतना होता ही नहीं. ये लोग दलाल का, कमीशन एजेंट का काम कर रहे होते हैं. मुवक्किल से बीस-पचास हजार पहले ही झाड़ लेते हैं. फिर तारीख पर पैसे मिलने ही होते हैं. अगला जाए भाड़ में. केस जीतेगा तो इनको क्या फ़ालतू मिलने वाला है? कुछ ख़ास नहीं. लेकिन अगर समझौता करेगा तो वहां दोनों तरफ के वकीलों को कमीशन मिलनी होती है. तो ज़्यादा इंटरेस्ट समझौता कराने में ही रहता है या फिर केस को लटकाने में ताकि तारीख-दर-तारीख वसूली होती रहे. बहुतेरे वकील तो बस ट्राफिक चालान भुगताने से ज़्यादा कूवत ही नहीं रखते. पसीने से अकड़े, काले कोट पहने हुए लोग, ऐसे कोट जिन पर सफेद पाउडर के निशाँ चमक रहे होते हैं. गर्मी में और गर्मी का अहसास देते काले कपड़े पहने काले पेशे वाले लोग. ओह्ह्ह सॉरी....यह तो नोबल प्रोफेशन माना जाता है. लेकिन जब मैं वकीलों के पेशे को काला कहता हूँ तो उसका मतलब यह कतई नहीं कि मैं अपने या आपके पेशे को सफेद-गोरा-चिट्टा कह रहा हूँ. नहीं, वो मतलब नहीं है मेरा कतई. असल में तो हम सब के पेशे काले ही हैं. हमारा समाज ही काला है तो इसमें से सफेदी कहाँ से निकलेगी? वकील भी उसी कालिमा से निकल रहा है, वो सफेद कैसे हो सकता है? आप क्या कर सकते हैं कि वकीलों की अंधेर-गर्दी से, कालिमा से बच सकें? कुछ सलाहें हैं, शायद काम आयें:-- १. पहले तो यह समझें कि केस आपका है, वकील का नहीं. आप जितने मर्ज़ी पैसे दें, जितने मर्ज़ी आपके अच्छे सम्बन्ध हों वकील के साथ, आपका केस वकील के लिए बहुत से केसों में से एक है. हो सकता है, उस केस पर आपके जीवन की दशा और दिशा टिकी हो, लेकिन वकील के लिए ऐसा कुछ नहीं होता. सो आप को खुद अपने केस का स्टूडेंट बनना होता है, केस से पहले, केस के दौरान और केस जीतने-हारने के बाद भी चूँकि मामला अपील में जा सकता है. केस से जुड़े एक्ट पढ़ें, जजमेंट पढ़ें, और अपने पक्ष में सबूत इक्कठे करने का जी-तोड़ प्रयास करें. २. कोर्ट में जो भी सबमिशन हों, चाहे आपके, चाहे आपके विरोधी के, उन सबकी सर्टिफाइड कॉपियां ले लें. अगर कभी कोर्ट की फाइल में कोई हेर-फेर करने की कोशिश करेगा तो पकड़ा जाएगा. और अगर कोर्ट की फाइल गुम गई, गुमा दी गयी तो आपके पास होगी न एक फाइल, बेक-अप जो काम आयेगा. ३. बहुत बिजी वकील कभी न लें. जो पहले से ही बिजी है या बिजी दिखा रहा है खुद को, वो क्या ख़ाक समय निकालेगा आपके लिए? लाख काबिल हो लेकिन उसकी क़ाबलियत आपके काम नहीं आने वाली. ४. जो वकील खुद को जूनियर वकील कहे, उसे कभी hire मत करना. जो जूनियर होने की हीनता-ग्रन्थि से पीड़ित है, वो सिवा पीड़ा के क्या देगा? ५. जो वकील आपको सिर्फ अपने दफ्तर, गाड़ी, चेले-चांटों की फौज, अपने लैपटॉप, कंप्यूटर, फ़ोन आदि से प्रभावित करना चाहे, उससे तो कोसों दूर रहें. वकील वो करें जो खुद स्टडी कर सके और आपको करने में मदद कर सके. ६. हमेशा एक से ज़्यादा वकीलों के सम्पर्क में रहें, आपका वकील क्या सही-गलत कर रहा है, वो क्रॉस-चेक होता रहेगा और इमरजेंसी में अगर मौजूदा वकील को अलविदा करना होगा तो दूसरा हाज़िर रहेगा. ७. शुरूआत में कभी किसी वकील को एक-मुश्त मोटी रकम न दें, वरना आपके लिए वकील छोड़ना मुश्किल हो जायेगा. और पैसा लेने के बाद वकील ऐसे व्यवहार करेगा जैसे आपने उसे नहीं, उसने आपको hire किया है. आपके मेसेज का जवाब नहीं देगा, आपके फ़ोन नहीं सुनेगा, तारीख पर लेट आएगा या आएगा ही नहीं. ८. वकालतनामा एक तरह का ऑथोर्टी लैटर है जो आप देते हैं वकील को. इसमें आप उसे जितना करने का हक़ देंगे वो उतना ही कर पायेगा, उससे रत्ती भर ज़्यादा नहीं. तो उसे केस वापिस लेने का, अपने साइन किये बिना कोई भी कागज़ात कोर्ट में दाखिल करने का, खुद की मौजूदगी के बिना कोर्ट में हाज़िर होने का हक़ मत दीजिये वकालतनामे में. और आपके वकील को फीस कितनी मिलनी है, वो भी इसमें लिख दीजिये. अब आपका वकील खुद-मुख्तियार नहीं होगा बल्कि आपके दिए मुखित्यार-नामे के मुताबिक ही काम कर पायेगा. ९.कोर्ट मे जहाँ तक हो सके, हर बात लिखित में दें. लिखित का रिकॉर्ड है, जिसे जज भी इग्नोर नहीं कर सकता. बोले का कोई रिकॉर्ड नहीं है. जंगल में मोर नाचा किसने देखा? कोर्ट में CCTV लगेंगे, लेकिन कब? पता नहीं. लेकिन आप तो बहस भी लिखित में दे सकते हो. जहाँ आप लिखित से चूके, वहीं आपने विरोधी को, जज को, अपने वकील को मौका दे दिया Manipulation का. १०. manupatra.com, indiankanoon.org, lawyersclubindia.com, caclubindia.com, rtiindia.org कुछ काम की वेबसाइट हैं. देख सकते हैं. ११. अपने केस को स्ट्रोंग बनाने के लिए अगर कहीं RTI से जानकारी निकाल कर स्ट्रोंग बनता हो तो ऐसा ज़रूर करें.पुराने फोटो, काल रिकॉर्डिंग, विडियो रिकॉर्डिंग भी खंगाल सकते हैं. १२. तारीख सिर्फ कोर्ट में शक्ल दिखाने और वकील को पैसे देने के लिए नहीं होती. दो तारीखों के बीच का वक्फा जो है उसमें बहुत कुछ काम करना होता है, काम किया जा सकता है. स्थिति के मुताबिक रिसर्च की जा सकती है. सबूत जुटाए जा सकते हैं. ये सब आप वकील पर छोड़ देंगे इस उम्मीद में कि वो कर ही लेगा तो आप मूर्ख साबित होंगे. और यही सब 'वो' है, आपके केस की जीत या हार तय करता है. १३. नीचे आर्बिट्रेशन क्लॉज़ दे रहा हूँ. इसे पढ़िए, समझिये. यह आपके वर्षों बर्बाद होने से बचा सकती है. यह क्लॉज़ तकरीबन सभी तरह के AGREEMENTS/ CONTRACTS में प्रयोग की जा सकती है. जैसे बयाने का अग्रीमेंट. किराए का अग्रीमेंट. फिर भी क्लॉज़ का प्रयोग करने से पहले आर्बिट्रेशन क्या है, इसे स्टडी कर लें. बस इतना समझ लें कि है जादू की छड़ी. खैर, यह है क्लॉज़:--- “If any dispute or difference whatsoever arising between the parties out of or relating to the construction, meaning, scope, operation or effect of this Contract or the validity or the breach thereof shall be settled by arbitration in accordance with the Rules of Arbitration of the ‘Indian Council of Arbitration’ and the award made in pursuance thereof shall be binding on the parties. Arbitration is to be referred to ‘Indian Council of arbitration’ and the place of arbitration will be the office of ‘Indian Council of Arbitration’, situated at Federation House, Tansen Marg, New Delhi-110001. The fees of the arbitrators and all the other charges of the arbitration whatsoever will be borne by both the parties equally. The party failing to pay these expenses will be ex parte. If requested by any party, ‘Indian Council of Arbitration’ may resolve the matter within 3 months under fast track arbitration. No Legal action can be taken under this agreement for the enforcement of any right without resorting to the arbitration. There-after if any court case is initiated by any of the party of this deed, the case shall be exercised within the jurisdiction courts of the ……… courts.” ये कुछ टिप्स हैं जो वकालत की अंधेर-ग्रदियों से मुवक्किलों को ही नहीं, कामयाब वकील बनने की चाह रखने वालों को भी बचा सकते हैं. कमेंट ज़रूर लिखें. प्लीज, अच्छा लगेगा मुझे, मैं सिर्फ दो दिन और हूँ आपके साथ. "Lawyers lose the cases due to their own mistakes and win due to their opponents' mistakes",तुषार कॉस्मिक.